________________ 212] [अनुयोगद्वारसूत्र नामप्रमाणनिष्पन्न नाम 283. से कि तं नामप्पमाणे ? नामप्पमाणे जस्स णं जीवस्स वा अजीवरस वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स बा तदुभयाण वा पमाणे ति णामं कज्जति / से तं णामप्पमाणे / [283 प्र.] भगवन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [283 उ.] आयुष्मन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है -किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभय (जीवाजीव) का अथवा तदुभयों (जीवाजीवों) का 'प्रमाण' ऐसा जो नाम रख लिया जाता है, वह नामप्रमाण और उससे निष्पन्न नाम नामप्रमाणनिष्पन्ननाम कहलाता है। विवेचन--सूत्र में नामप्रमाण निष्पन्ननाम का स्वरूप स्पष्ट किया है। वस्तु का परिच्छेद-पृथक्-पृथक् रूप में वस्तु का बोध कराने का कारण नाम है। लोकव्यवहार चलाने और प्रत्येक वस्तु की कोई न कोई संज्ञा निर्धारित करने का मुख्य आधार नाम है। इसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि सभी जीव, अजीव पदार्थ इसके वाच्य हैं। 'प्रमाण' ऐसा नाम केवल नामसंज्ञा के कारण ही होता है / इसमें वस्तु के गुण-धर्म आदि की अपेक्षा नहीं होती। स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम 284. से कि तं ठेवणप्पमाणे ? ठवणप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहा णक्खत्त-देवय-कुले पासंड-गणे य जीवियाहेउं / आभिप्पाउयणामे ठवणानामं तु सत्तविहं / / 85 // [284 प्र.] भगवन् ! स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [284 उ.] आयुष्मन् ! स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम सात प्रकार का है। उन प्रकारों के नाम हैं 1. नक्षत्रनाम, 2. देवनाम, 3. कुलनाम, 4. पाषंडनाम, 5. गणनाम, 6. जीवितनाम और 7. आभिप्रायिकनाम / 85 विवेचन---सूत्र में स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम का वर्णन करने के लिये सात भेदों के नाम गिनाये हैं / इसका कारण यह है कि लोक में यह वस्तुएँ स्थापना का आधार बनाई जाती हैं। ___ स्थापनाप्रमाणनिष्पन्ननाम का लक्षण--नाम की तरह लोकव्यवहार चलाने में स्थापना का भी प्रमुख स्थान है। यद्यपि प्रयोजन या अभिप्रायवश तदर्थशून्य वस्तु में तदाकार अथवा / में की जाने वाली स्थापना को स्थापना कहते हैं, यहाँ उसकी अपेक्षा नहीं है। किन्त नक्षत्र, देवता, कुल आदि के आधार से किया जाने वाला नामकरण स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम है। अब गाथोक्त क्रम से स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम के सातों भेदों का वर्णन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org