________________ 30.] [अनुयोगद्वारमात्र विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नरकगति के जीवों की सामान्य एवं प्रत्येक भूमि के नारकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है। जीव को जो नारकादि भवों में रोक कर रखती है, उसे स्थिति कहते हैं। कर्मपुद्गलों का बंधकाल से लेकर निर्जरणकाल तक प्रात्मा में अवस्थान रहने के काल का बोध करने के लिये भी कर्मशास्त्र में स्थिति शब्द का प्रयोग होता है लेकिन यहाँ आयुकर्म के निषेकों का अनुभवन-भोगने के अर्थ में स्थिति शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसलिये जब तक विवक्षित भव का आयुकर्म उदयावस्था में रहता है, तब तक जीव उस पर्याय में रहता है। विवक्षित पर्याय में आयुकर्म के सद्भाव तक रहना इसी का नाम जीवित या जीवन है और यहाँ इस जीवन के अर्थ में स्थिति शब्द रूढ है / इसीलिये नारकों की दस हजार वर्ष आदि की जो स्थिति कही है, उसका तात्पर्य यह है कि जीव इतने काल तक विवक्षित नारक अवस्था में रहेगा। ज्ञानावरण आदि अन्य कर्मों की स्थिति की तरह प्रायुकर्म की स्थिति के भी दो प्रकार हैं१. कर्मरूपतावस्थानलक्षणा और 2. अनुभवयोग्या। भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच तथा देव और नारक अपनी-अपनी प्रायु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं तथा कर्मभूमिज मनुष्यों और तिर्यंचों के प्राय: अपनी आयु के त्रिभाग में परभव की आयु का बंध होता है। इस प्रकार से प्रायुकर्म के बंध की विशेष स्थिति होने के कारण एवं बंध की अनिश्चितता के कारण प्रायुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल संमिलित नहीं किया जाता है, जिससे उसकी कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति का निश्चित प्रमाण बताया जा सके, इसीलिये उसकी जो भी स्थिति कही जाती है वह शुद्ध स्थिति (भुज्यमान स्थिति) होती है। उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं रहता है / अतएव यहाँ जो नारक जीवों की आयुरूप स्थिति कही गई है तथा प्रागे के सूत्रों में तिर्यंच आदि जीवों की स्थिति कही जाएगी, वह अनुभवयोग्या-भुज्यमान प्रायु की अपेक्षा कही गई जानना चाहिये / अपर्याप्त अवस्था की आयुस्थिति का काल सर्वत्र अन्तर्महुर्त ही है। सामान्य स्थिति में से अपर्याप्त काल को कम कर देने पर जो स्थिति शेष रहती है, वह पर्याप्तकों की स्थिति जानना चाहिये / देव, नारक और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यच करण की अपेक्षा ही अपर्याप्तक माने गये हैं, लब्धि की अपेक्षा नहीं / लब्धि की अपेक्षा तो ये सब पर्याप्तक ही होते हैं। इनके अतिरिक्त शेष जीव लब्धि से पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। यहाँ नारकों की भवधारणीय स्थिति का मान निरूपित किया गया है। अब भवनपति देवों की स्थिति का कथन किया जाता है 1. यपि कर्मपुदगलानां बंधकालादारभ्यनिर्जरणकालं यावत्सामान्येनास्थितिः कर्मशास्त्रेषु स्थितिः प्रतीता, तथाऽप्यायु:कर्मपुदगलानुभवन मेव जीवित रूढम् / -मनुयोगद्वारटीका, पत्र 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org