________________ 302) अनुयोगद्वारसूत्र गो० ! जह• अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। अपज्जत्तयवादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गो० ! जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तयबादरपुढविकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई / [385-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक होती है ? [385-1 उ.] गौतम ! (पृथ्वीकायिक जीवों की) जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है। [प्र.] भगवन् ! सामान्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की तथा सूक्ष्म पृथ्वी कायिक अपर्याप्त और पर्याप्तों की स्थिति कितनी है ? [उ. गौतम ! इन तीनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति के लिये पृच्छा है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की होती है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [उ.] मौतम ! (अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की) जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है तथा पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून बाईस हजार वर्ष की है। [2] एवं सेसकाइयाणं पि पुच्छावयणं भाणियध्वं आउकाइयाणं जाव गो० ! जह अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई।। सुहमआउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं तिण्ह वि जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / बादरआउकाइयाणं जाव गो० ! जहा ओहियाणं / अपज्जत्तयबादरआउकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयवादरआउ० जाव गो० ! जह० अंतोमुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुतणाई। [385-2] इसी प्रकार से शेष कायिकों (अपकायिक से वनस्पतिकायिक पर्यन्त) जीवों की स्थिति के विषय में भी प्रश्न कहना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति जानने के लिये प्रश्न किये हैं, उसी प्रकार से शेष कायिक जीवों के विषय में प्रश्न करना चाहिये। उत्तर इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org