________________ 322] [अनुयोगद्वारसूत्र [6] विजय-जयंत-जयंत-अपराजितबिमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइकालं ठिती पण्णता ? गो० ! जहणणं एक्कतीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / सम्वसिद्धे णं भंते ! महाविमाणे देवाणं केवइकालं ठिती पण्णता? गो० ! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई / से तं सुहमे अदापलिओवमे। से तं अद्धापलिओक्मे / [391-9 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [391-9 उ.] गौतम ! जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। [प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम ! उनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। इस प्रकार से सूक्ष्म अद्धापल्योपम के अभिधेय का वर्णन करने के साथ श्रद्धापल्योपम का निरूपण पूर्ण हुआ। विवेचन—ऊपर कल्पातीत देवलोकों के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया है। ये देवलोक दो वर्गों में विभक्त हैं--प्रैवेयक और अनुत्तर विमान / 'गैवेयक' नाम का कारण यह है कि पुरुषाकार लोक के ग्रीवा रूप स्थान में ये अवस्थित हैं तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध महाविमान सर्वोत्तम होने के कारण 'अनुत्तर' कहलाते हैं। अनुत्तर विमानों का तो पृथक्-पृथक् नामनिर्देश किया है, वैसा नैवेयक विमानों का नामोल्लेख नहीं किया है / लेकिन शास्त्रों में अधस्तनत्रिक, मध्यमत्रिक और उपरितनत्रिक के नाम इस प्रकार बताये हैं—अधस्तनत्रिक-भद्र, सुभद्र, सुजात, मध्यमत्रिक-सौमनस, प्रियदर्शन, सुदर्शन, उपरितनत्रिक–अमोह, सुमति, यशोधर / सर्वार्थ सिद्ध महाविमान के अतिरिक्त शेष देवलोकों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है / लेकिन सर्वार्थसिद्ध महाविमान में यह भेद नहीं होने से वहाँ तेतीस साग रोपम की ही स्थिति है / इसी का बोध कराने के लिये सूत्र में 'अजहण्णमणुक्कोस' पद दिया है। यहाँ पर्याप्तकों की अपेक्षा व्यंतरों से लेकर वैमानिक देवों तक की स्थिति का वर्णन किया गया है, लेकिन इन सभी की अपर्याप्त अवस्था भावी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की समझना चाहिये / क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वे अवश्य पर्याप्तक हो जाते हैं। इस प्रकार से अद्धापल्योपम का वर्णन करने के बाद अब क्षेत्रपल्योपम का कथन करते हैं : क्षेत्रफ्ल्योपम का निरूपण 392. से कि तं खेत्तपलिओवमे ? खेत्तपलियोवमे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहमे य वावहारिए य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org