________________ 228] अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-प्रमाण शब्द के अर्थ-प्रसंगानुसार प्रमाण शब्द का प्रयोग हमारे दैनिक कार्यकलापों में होता है और वह प्रयोग किस-किस आशय को स्पष्ट करने के लिये किया जाता है, इसका कुछ संकेत शब्दकोष में इस प्रकार से किया है-यथार्थज्ञान, यथार्थज्ञान का साधन, नाप, माप, परिमाण, संख्या, सत्यरूप से जिसको स्वीकार किया जाये, निश्चय, प्रतीति, मर्यादा, मात्रा, साक्षी आदि। प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति—प्रमाण शब्द 'प्र' और 'माण' इन दो शब्दों से निष्पन्न है / 'प्र' उपसर्ग है और 'माण' माङ, धातु का रूप है / व्याकरण में माऊ धातू अवबोध और मान अर्थ के लिये प्रयुक्त होती है / 'प्र' का प्रयोग अधिक स्पष्ट अर्थ का बोध कराने के लिये किया जाता है तथा मान का अर्थ होता है ज्ञान या माप, नाग आदि / शब्दशास्त्रियों ने प्रमाण शब्द की तीन प्रकार से व्युत्पत्ति की है-प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन, प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्-जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा मान किया जाता है या प्रमितिमात्र-मान करना प्रमाण है। अर्थात् वस्तुत्रों के स्वरूप का जानना या मापना प्रमाण है। यहाँ यह जानना चाहिये कि प्रमिति प्रमाण का फल है / अतएव जब फल रूप प्रमिति को प्रमाण कहा जाता है तब उस प्रमिति के कारण-भूत अन्य साधनों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रमाण शब्द के अतिविस्तृत अर्थ को लेकर उसके चार भेद किये हैं। इसमें दूसरे दार्शनिकों की तरह केवल प्रमेयसाधक तीन, चार या छह श्रादि प्रमाणों का समावेश नहीं है। स्थानांगसूत्र में भी इन्हीं चार भेदों का नामोल्लेख है' और वहाँ इन भेदों की गणना के अतिरिक्त विशेष कुछ नहीं कहा गया है / किन्तु जैन व्याख्यापद्धति का विस्तार से वर्णन करने वाला यह अनुयोगद्वारसूत्र है / जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन व्याख्यापद्धति का क्या दृष्टिकोण है ? जैन शास्त्रों में प्रत्येक शब्द की लाक्षणिक व्याख्या ही नहीं की है, अपितु उस शब्द का किन-किन संभावित अर्थों में और किस रूप में प्रयोग किया जाता है और उस समय उसका क्या अभिधेय होता है, यह भी स्पष्ट किया गया है / जो आगे किये जाने वाले वर्णन से स्पष्ट है। प्रमाण शब्द के नियुक्तिमूलक अर्थ के समान होने पर भी भारतीय मनीषियों ने प्रमाण के भिन्न-भिन्न लक्षण निरूपित किये हैं। फिर भी भारतीय ही नहीं अपितु विश्व मनीषा का इस बिन्दु पर मतैक्य है कि यथार्थ ज्ञान प्रमाण है / ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है / ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य / ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यक निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और इससे विपरीत निर्णायक ज्ञान अयथार्थ, किन्तु प्रमाण सिर्फ यथार्थ ज्ञान होता है / प्रमाण की चतुर्विधता का कारण-जैन वाङ्मय में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का बड़ा महत्त्व है। किसी भी विषय की चर्चा तब तक पूर्ण नहीं समझी जाती जब तक उस विषय का वर्णन द्रव्यादि चार अपेक्षाओं से न किया जाये। क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु प्रदेश वाली है, वह उन प्रदेशों में सत रूप से रहती हुई उत्पाद-व्यय (उत्पत्ति-विनाश) रूप परिणति के द्वारा एक अवस्था से दसरी अवस्था में परिणत होती रहती है। इसीलिये लोक के पदार्थों का वर्णन द्रव्यदृष्टि से किया 1. चउबिहे पमाणे पन्नत्ते तं जहा-दब्वपमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे। -स्थानांग, स्थान 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org