________________ 254] [अनुयोगद्वारसूत्र 4. सूक्ष्म-स्थूल वायु-वाष्प आदि / 5. सूक्ष्म-कर्मवर्गणा आदि / 6. सूक्ष्म-सूक्ष्म अन्तिम निरंश पुद्गल परमाणु / ' पुद्गल के उक्त छह भेदों में से व्यवहार परमाणु का समावेश पांचवें सूक्ष्मवर्ग में होता है। [2] से णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीतोवदेज्जा ? हंता वितीवदेज्जा / से णं तत्थ डहेज्जा ? नो तिगठे समठे, गो खलु तत्थ सत्थं कमति / [343-2 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु अग्निकाय के मध्य भाग से होकर निकल जाता है ? [343-2 उ.] आयुष्मन् ! हाँ, निकल जाता है। [प्र.] तब क्या वह उससे जल जाता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि अग्निरूप शस्त्र का उस पर असर नहीं होता। विवेचन-अग्नि के द्वारा भस्म नहीं होने पर शिष्य सोचता है कि जल तो उसे अवश्य ही नष्ट कर देता होगा / अतः पुनः प्रश्न पूछता है-- [3] से णं भंते ! पुक्खलसंवट्टयस्स महामेहस्स मज्झमझेणं वीतीवदेज्जा ? हता बोतोवदेज्जा / से णं तस्थ उदउल्ले सिया ? नो तिणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति / [343-3 प्र.] भगवन् ! क्या व्यावहारिक परमाणु पुष्करसंवर्तक नामक महामेध के मध्य में से होकर निकल सकता है ? [343-3 उ.] अायुष्मन् ! हाँ, निकल सकता है / प्र.] तो क्या वह वहाँ पानी से गीला हो जाता है ? [उ.] नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है, वह पानी से भीगता नहीं, गीला नही होता है। क्योंकि अप्कायरूप शस्त्र का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। विवेचन-पुष्करसंवर्तक एक महामेघ का नाम है, जो उत्सर्पिणीकाल के 21 हजार वर्ष प्रमाण वाले दुपम-दुषम नामक प्रथम यारे की समाप्ति के अनन्तर दूसरे अरे के प्रारम्भ में सर्वप्रथम वरमता है। जैन मान्यता के अनुसार व्यवहार काल के दो भेद हैं--उत्सपिणीकाल पोर अवसर्पिणीकाल / उत्सपिणीकाल में मनुष्यादिक के बल, वैभव, श्री अादि की उत्तरोत्तर वृद्धि और अवपिणी में 1. बादरबादर-वादर बादरमुहुमं च सुहमथूलं च / सुहमं च सुहमसुहम धरादियं होदि छनभयं / / -गो. जीवकांड 603 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org