________________ 292] [अनुयोगद्वारसूत्र 372. तत्थ पंजे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया–जोयणं आयाम-विक्खंमेणं जोयणं उड्डं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं / से णं एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तारूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिए वालग्गकोडोणं / ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलि विद्धंसिज्जा णो पूइत्ताए हत्वमागच्छेज्जा / तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खोणे नोरए निल्लेवे (ट्टिते भवति, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे। एसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिता। तं वावहारियस्स उद्धारसागरोबमस्स एगस्स भवे परीमाणं // 107 // [372] व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है- उत्सेधांगुल से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊंचा एवं कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला एक पल्य हो / उस पल्य को (सिर का मुंडन कराने के बाद) एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए बालानों से इस प्रकार ठसाठस भरा जाए कि फिर उन बालानों को अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, न वे सड़-गल सके, न उनका विध्वंस हो, न उनमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो-सड़ें नहीं। तत्पश्चात् एक-एक समय में एक-एक बालाग्र का अपहरण किया जाए---उन्हें बाहर निकाला जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज निर्लेप और निष्ठित (खाली) हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक उदधारपल्योपम कहते हैं। ऐसे दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है / 107 विवेचन----यहाँ पल्योपम और सागरोपम के प्रथम भेद उद्धार पल्योपम और उद्धार सागरोपम के सूक्ष्म एवं व्यावहारिक इन दो भेदों में से व्यावहारिक भेद का वर्णन किया है / यहाँ पल्य की उपमा से वर्णन करने का कारण यह है कि धान्य के मापपात्र को सभी जानते हैं / प्रस्तुत में उत्सेधांगुल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाले पल्य को स्वीकार किया है। इससे अल्पाधिक परिमाण वाला पल्य उपयोगी नहीं है। जिसकी चौड़ाई समान होती है, उसका व्यास (परिधि) कुछ अधिक तिगुनी होती है। इसलिये यहाँ पल्य का व्यास बताने के लिये पद दिया है 'तं तिगणं सविसेस परिरएणं / ' यहाँ किंचित् अधिक का तात्पर्य किचित् न्यून षड्भागाधिक एक योजन तथा तीन योजन पूरे ग्रहण करने चाहिये / अर्थात् उस पल्य की परिधि किंचित् न्यून षड्भागाधिक तीन योजन प्रमाण होती है / उस पल्य को जिन बालानों से भरे जाने का कथन किया है, उनके लिये प्रयुक्त एगाहिय, बेह्यि आदि विशेषणों का यह प्राशय है कि शिर को मंडन कराने के पश्चात एक दिन में बाल उग सकते हैं, बढ़ सकते हैं, उनके अग्रभागों की एकाहिक बालान संज्ञा है। इसी प्रकार द्वयाहिक, त्र्याहिक आदि विशेषणों का अर्थ समझ लेना चाहिये और 'जाव....सत्तरत्तपरूढाण" पद द्वारा यह स्पष्ट किया है कि सात से अधिक दिनों के बालागों से पल्य को न भरा जाए। वे बालान पल्य में किस प्रकार से भरे जाए? इसके लिये दो विशेषण दिये है--- 'सम्म? सन्निचिते।' इनका आशय यह है कि वह पल्य इस प्रकार पूरित किया जाये कि उसका ऊपरी भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org