________________ 258] [अनुयोगद्वारसूत्र उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका और श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ये दोनों भी अनन्त परमाणुओं की सूक्ष्म परिणामपरिणत स्कन्ध अवस्थायें हैं और व्यवहारपरमाणु की अपेक्षा कुछ स्थूल होती हैं। अतः व्यवहारपरमाणु से भिन्नता बताने के लिये इनका पृथक-पृथक नामकरण किया है। स्वतः या पर के निमित्त से ऊपर, नीचे और तिरछे रूप में उड़ने वाली रेणु-धलि का नाम ऊर्ध्वरेणु है। हवा आदि के निमित्त से इधर-उधर उड़ने वाले धूलिकण त्रसरेणु और रथ के चलने पर चक्र के जोर से उखड़ कर उड़ने वाली धूलि रथरेणु कहलाती है / बालान, लिक्षा आदि शब्दों के अर्थ प्रसिद्ध हैं। __ रथरेणु के पश्चात् देवकुरु-उत्तरकुरु, हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष आदि क्षेत्रों के क्रमोल्लेख से उसउस क्षेत्र संबन्धी शुभ अनुभाब की न्यूनता बताई गई है / प्रस्तुत सूत्र में मगध देश में व्यवहृत योजन का माप बताया है---‘चत्तारि गाउयाइं जोयणं'चार गव्यूतों का एक योजन होता है। गव्यूत का शब्दार्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना मान्यतः गाय का रंभाना एक फाग तक सूना जा सकता है। अतः संभव है कि उस समय चार फलाँग का एक योजन होता हो। इससे यह भी फलित होता है कि अन्यान्य देशों में योजन के भिन्न-भिन्न माप प्रचलित थे। जिस देश में सोलह सौ धनुषों का एक गव्यूत होता है, वहाँ छह हजार चार सौ धनुषों का एक योजन होगा।' दिगंबर परंपरा में अंगुल का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है-अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणुओं की एक प्रवसन्नासन्न, आठ अवसन्नासन्न की एक सन्त्रासन, पाठ सन्नासन का एक श्रुटरेणु (व्यवहाराणु), आठ त्रुटरेणु का एक सरेणु (त्रसजीव के पांव से उड़ने वाला अणु), आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, पाठ रथरेणु का उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र, आठ उत्तम भोगभूमिज के बालाग्र का एक मध्यम भोगभूमिज का बालाग्र, पाठ मध्यम भोगभूमिज के बालान का एक जघन्य भोगभूमिज का बालाग्र, आठ जघन्य भोगभूमिज के वालाग्न का एक कर्मभूमिज का बालाग्र, आठ कर्मभूमिज के बालाग्र की एक लिक्षा (लीख), पाठ लीख की एक जू, आठ जू का एक यव और पाठ यव का एक अंगुल, इसके आगे का वर्णन एक-सा है। उत्सेधांगुल का प्रयोजन 346. एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओयणं ? एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणूसदेवाणं सरीरोगाहणाओ मविज्जति / {346 प्र.] भगवन् ! इस उत्सेधांगुल से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [346 उ.] आयुष्मन् ! इस उत्सेधांगुल से नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। 1. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृष्ठ 41 2. मागधग्रहणात क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितं, तत्र यस्मिन देशे षोडशभिर्धन:शतर्गव्यूतं स्यात्तत्र षडभिः सहस्रं श्चतुभिः शतैर्धनुषां योजनं भवतीति / --स्थानांग पद 7. वत्ति पत्र 412 3. तिलोयपण्णत्ति 15102 / 116, तत्त्वार्थराजवार्तिक, हरिवंशपुराण, गो. जीवकांड आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org