________________ 204] [अनुयोगद्वारसूत्र [269 उ.] आयुष्मन् ! अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, युद्गलास्तिकाय, अद्धासमय / यह अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप है। विवेचन---सूत्र में अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप बतलाया है / इसमें अनादिसिद्धान्त पद मुख्य है। जिसका अर्थ यह है कि अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है और अमुक अर्थ अमुक शब्द का वाच्य है। इस प्रकार के अनादि वाच्य-वाचकभाव के ज्ञान को सिद्धान्त कहते हैं। अतएव इम अनादिसिद्धान्त से जो नाम निष्पन्न हो वह अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम कहलाता है। उदाहरण के रूप में जो धर्मास्तिकाय आदि नामों का उल्लेख किया है, उनमें वाच्य-बाचकभाव सम्बन्ध अनादिकाल से सिद्ध है / उन्होंने कभी भी अपने स्वरूप का त्याग नहीं किया है और भविष्य में कभी त्याग नहीं करेंगे। गौणनाम से इस अनादिसिद्धान्तनाम में यह अन्तर है कि गौणनाम का अभिधेय तो अपने स्वरूप का परित्याग भी कर देता है। जबकि अनादिसिद्धान्तनाम न कभी बदला है, न वदलेगा / वह सदैव रहता है, इसलिये सूत्रकार ने इसका पृथक् निर्देश किया है। नामनिष्पन्ननाम 270. से कि तं नामेण? नामेणं पिउपियामहस्स नामेणं उन्नामियए / से तं णामेणं / [270 प्र.] भगवन् ! नामनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [270 उ.] प्रायुष्मन् ! जो नाम नाम से निष्पन्न होता है, उसका स्वरूप इस प्रकार हैपिता या पितामह अथवा पिता के पितामह के नाम से निष्पन्न नाम नामनिष्पन्न नाम कहलाता है / विवेचन----सूत्र में नाम से निष्पन्न नाम का स्वरूप बताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व में लोक-व्यवहार की मुख्यता से किसी का कोई नामकरण किया गया / उसी नाम में पुनः नये नाम की स्थापना करना नामनिष्पन्ननाम कहलाता है। जैसे किसी के पिता, पितामह आदि बन्धुदत्त नाम से प्रख्यात हुए थे। उन्हीं के नाम से उनके पौत्र आदि का नाम होना नामनिष्पन्ननाम है / इतिहास में ऐसे अनेक राजाओं के नाम मिलते हैं। अवयवनिष्पन्ननाम 271. से कि तं अवयवेणं? अवयवेणं सिंगी सिही विसाणी दाढी पक्खी खरी णही वाली। दुपय चउप्पय बहुपय गंगूली केसरी ककुही // 83 // परियरबंधेण भडं जाणेज्जा, महिलियं निवसणेणं / सित्थेण दोणपागं, कवि च एगाइ गाहाए // 84 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org