________________ 202] [अनुयोगद्वारसूत्र प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम 267. से कि तं पडिवक्खपदेणं? पडिवक्खवदेणं णवेसु गामाऽऽगर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसम-संवाह-सन्निवेसेसु नियिस्समाणेसु असिवा सिवा, अग्गी सीयलो, विसं महुरं, कल्लालघरेसु अंबिलं साउयं, जे लत्तए से अलत्तए, जे लाउए से अलाउए, जे सुभए से कुसु भए, आलवंते विवलीयभासए। से तं पडिपक्खपदेणं। [267 प्र.] भगवन् ! प्रतिपक्षपद से निष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [267 उ.] आयुष्मन् ! प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है नवीन ग्राम, प्राकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेश आदि में निवास करने अथवा बसाये जाने पर अशिवा (शृगाली, सियारनी) को 'शिवा' शब्द से उच्चारित करना / (कारणवशात्) अग्नि को शीतल और विष को मधुर, कलाल के घर में 'श्राम्ल के स्थान पर 'स्वादु' शब्द का व्यवहार होना। इसी प्रकार रक्त वर्ण का हो उसे अलक्तक, लाबु (पात्र-विशेष) को अलाबु, सुंभक (शुभ वर्ण वाले) को कुसुभक और विपरीतभाषक-भाषक से विपरीत अर्थात् असम्बद्ध प्रलापी को 'अभाषक' कहना। यह सब प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम जानना चाहिये / विवेचन--सूत्र में प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम का स्वरूप उदाहरण देकर समझाया है। प्रतिपक्ष-विवक्षित वस्तु के धर्म से विपरीत धर्म / इस प्रतिपक्ष के वाचक पद से निष्पन्न होने वाले नाम को प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम कहते हैं। उदाहरणार्थ -मंगल के निमित्त शृगाली के लिये 'प्रशिवा' के स्थान पर 'शिवा' शब्द का प्रयोग करना / इसका कारण यह है कि शब्दकोश में 'शिवा' शृगाली वाचक नाम तो है किन्तु उसका देखना या बोलना अशिव-अमंगल-अशुभ रूप होने से मांगलिक प्रसंगों पर अशिवा के स्थान पर शिवा शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार मंगल-अमंगल विषयक लोकमान्यता के अनुसार अग्नि के लिये शीतल, विष के लिये मधुर और अम्ल के लिये स्वादु शब्दप्रयोगों के विषय में जानना चाहिये। शीतल आदि शब्द वस्तुगत गुण-धर्मो से विपरीत गुणधर्म के बोधक होने पर भी अग्नि आदि के लिये प्रयोग किये जाते अलक्तत, अलाबु, कुसुम्भक, अभाषक आदि शब्दगत 'अः' 'कु' प्रत्यय प्रतिपक्ष का बोध कराने वाले होने से इनके संयोग से बनने वाले पदों की प्रतिपक्षनिष्पन्नता सुगम है / नोगौणपदनिष्पन्न से इसे पृथक मानने का कारण यह कि नोगौणपद में तो नामकरण का कारण कुन्तादि के प्रवृत्तिनिमित्त का प्रभाव है / जबकि उसमें प्रतिपक्षधर्मवाचक शब्द मुख्य है / ग्राम आदि पदों की व्याख्या-ग्राम-जहाँ पर बुद्धि प्रादि गुण असे जाते हैं अर्थात् गुणों में हीनता आती है, गुणों का विकास नहीं होता अथवा जिसके चारों ओर कांटों आदि की बाड़ हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org