________________ 198] [अनुयोगद्वारसूत्र करुणरस इस प्रकार जाना जा सकता है हे पुत्रिके ! प्रियतम के वियोग में उसकी वारंवार अतिशय चिन्ता से वलान्त-मुर्भाया हुआ और प्रांसुओं से व्याप्त नेत्रों वाला तेरा मुख दुर्बल हो गया है / 79 विवेचन-करुणरस के स्वरूपवर्णन के प्रसंग में उसके शोक, विलाप, मुखशुष्कता, रोना आदि चिह्न बताये गये हैं, जिन्हें उदाहरण में कारण सहित स्पष्ट किया है / प्रशान्तरस [10] निहोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं / अविकारलक्षणो सो रसो पसंतो त्ति णायव्यो / / 80 / / पसंतो रसो जहा सम्भावनिस्विकारं उवसंत-पसंत-सोमदिट्ठीयं / ही! जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवरसिरीयं / / 81 // [262-10 ] निर्दोष (हिंसादि दोषों से रहित), मन की समाधि (स्वस्थता) से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है तथा अविकार जिसका लक्षण है, उसे प्रशान्तरस जानना चाहिये / 80 / प्रशान्तरस सूचक उदाहरण इस प्रकार है-सद्भाव के कारण निविकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है। 81 विवेचन--यहां सूत्रकार ने नव रसों के अंतिम भेद प्रशान्तरस का स्वरूप बताया है। क्रोधादि कषायों रूप वैभाविक भावों को रहितता से जो अंतर में शांति की अनुभूति एवं बाहर में मुख पर लावण्यमय प्रोज-तेज दिखाई देता है, वह सब प्रशान्तरस रूप है। इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। इस प्रकार नवरसों के रूप में नवनाम का वर्णन करके अब ग्रन्थकार उपसंहार करते हैं[११] एए णव कन्वरसा बत्तीसादोस विहिसमुप्पण्णा / गाहाहि मुणेयव्वा, हवंति सुद्धा व मीसा वा // 2 // से तं नवनामे। [262-11] गाथाओं द्वारा कहे गये ये नव काव्यरस अलीकता आदि सूत्र के बत्तीस दोपों से उत्पन्न होते हैं और ये रस कहीं शुद्ध (अमिश्रित) भी होते हैं और कहीं मिश्रित भी होते हैं। इस प्रकार से नवरसों का वर्णन पूर्ण हुआ और नवरसों के साथ ही नवनाम का निरूपण भी पूर्ण हुआ। विवेचन--यह गाथा नवरसों और साथ ही नवनाम के वर्णन की समाप्ति की सूचक है। ये नवरस आगे कहे जाने वाले अलीक, उपधात आदि सूत्र के बत्तीस दोषों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org