________________ R [अनुमोमबारसूत्र 1206-3: प्र. भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप क्या है ? [206-3 उ.] आयुष्मन् ! उपसंपद् से लेकर इच्छाकार पर्यन्त व्युत्क्रम से स्थापना करना समात्कारी सम्बन्धी पश्चानुपूर्वी है। [4]. से कि तं अणाणुपुच्ची ? अणाणुपुत्वी एयाए चेव एमादियाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमसम्भासो. दुरूवूणो / से तं अणाणुपुवी। से तं सामाधारीआणुपुची। 12.6.4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 206-4 उ.] अायुष्मन् ! एक से लेकर दस पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा श्रेणी रूप में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त राशि में से प्रथम और अन्तिम भंग को कम कारने पर शेष रहे भंग अमानुपूर्वी हैं। इस प्रकार से समाचारी-मानुपूर्वी का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन—सूत्रार्थ सुगम है। शिष्ट जनों द्वारा प्राचरित क्रियाकलाप रूप प्राचार की परिपाटी समाचारी यानपूीं है और उस समाचारी का इच्छाकार आदि के क्रम से उपन्यास करना पूर्वानुपूर्वी आदि है / इच्छाकार आदि के लक्षण इस प्रकार हैं-- 1. इच्छाकार-बिना किसी दबाव के अान्तरिक प्रेरणा से व्रतादि के आचरण करने की इच्छा करना इच्छाकार है। 2. मिथ्याकार-प्रकृत्य का सेवन हो जाने पर पश्चात्ताप द्वारा मैंने यह मिथ्या– असत आचरण किया, ऐसा विचार करना मिथ्याकार कहलाता है। 3. तथाकार गुरु के वचनों को 'तहत' कहकर स्वीकार करना-गुरु-आज्ञा को स्वीकार करना। 4. आवश्यको-अावश्यक कार्य के लिए बाहर जाने पर गुरु से निवेदन करना / 5. नषेधिको कार्य करके वापस आने पर अपने प्रवेश की सूचना देना। 6. आपच्छमा--किसी भी कार्य को करने के लिये गुरुदेव से प्राज्ञा लेला—पूछना / 7. प्रतिप्रच्छना—कार्य को प्रारंभ करते समय पुनः गुरुदेव से पूछना अथका किसी कार्य के लिये गुरुदेव ने मना कर दिया हो तब थोड़ी देर बाद कार्य की अनिवार्यता बताकर पुनः पूछना। 8. छंदना- अन्य सांभोमिक साधुनों से अपना लाया पाहार आदि ग्रहण करने के लिये निवेदन करना। 9. निमन्त्रणा–पाहारादि लाकर श्राफ्को दूंगा, ऐसा कहकर अन्य साधुओं को निमंत्रित करना / 10. उपसंपत्-श्रुतादि की प्राप्ति के अर्थ अन्य साधु की प्राधीनता स्वीकार करना / इच्छाकारादि का उपन्यासक्रम-धर्म का आचरण स्वेच्छामूलक है। इसके लिये पर की आज्ञा कार्यकारी नहीं होती है। इसलिये इच्छा प्रधान होने से सर्वप्रथम इच्छाकार का उपन्यास किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org