________________ 182] अनुशोगद्वारसूत्र 6. सारस और क्रौंच पक्षी धैवतस्वर में बोलते हैं / तथा--- 7. हाथी निषाद स्वर में बोलता है / 28,29 अजीवनिश्रित सप्तस्वर [4] सत्त सरा अजीवणिस्सिया पण्णत्ता। तं जहा सज्जं रवइ मुयंगो 1 गोमुही रिसहं सरं 2 / संखो रवइ बांधारं 3 मनिममं पुण भल्लरी 4 // 30 // चउचलणपतिढाणा गोहिया पंचमं सरं 5 / आडंबरो धेवइयं 6 महामेरी य सत्तमं 7 // 31 // [260-4] अजीवनिश्रित सप्तस्वर इस प्रकार हैं१. मृदंग से षड़जस्वर निकलता है। 2. गोमुखी वाद्य से ऋषभस्वर निकलता है। 3. शंख से गांधारस्वर निकलता है। 4. झालर से मध्यमस्वर निकलता है। .. 5. चार चरणों पर स्थित गोधिका से पंचमस्वर निकलता है। 6. बाबर (नगाड़ा) से धैवतस्वर निकलता है। 7. महाभेरी से निषादस्वर निकलता है / 3.0, 31 विवेचन-सूत्रकार ने सप्तस्वरों की अभिव्यक्ति के साधनों के रूप में कुछएक जीवों और अजीव पदार्थों के नामों का उल्लेख किया है कि अमुक द्वारा उस-उस प्रकार का स्वर निष्पन्न होता प्राशय को स्पष्ट करने के लिये उदाहृत जीवों और अजीबों के नाम उपलक्षण रूप होने से इन जैसे अन्यों का ग्रहण भी इनसे किया गया समझना चाहिये / फलादि से अभिव्यक्त होने वाले स्वरों में तो जीवनिश्रितता स्वयंसिद्ध है और मदंग आदि अजीब बस्तुओं में जीवव्यापार अपेक्षित है / मृदंग आदि द्वारा जनित स्वरों के नाभि, कंठ आदि से उत्पन्न होने रूप अर्थ घटित नहीं होता है तो भी उन वाद्यों से षड्ज आदि स्वरों जैसे स्वर उत्पन्न होने से उन्हें मृदंग आदि अजीवों से निश्रित कहा जाता है। सप्तस्वरों के स्वरलक्षण-फल [5] एएसि णं सत्ताह सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता / तं जहा सज्जेण लहइ वित्ति कयं च न विणस्सई। गावो पुत्ताय मित्ता य नारीणं होति वल्लहो 1 // 32 // रिसहेणं तु एसज्जं सेणावाचं धणाणि य / बत्य गंभमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य 2 // 33 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org