________________ नामाधिकार निरूपण 181 1. जिह्वा के अग्रभाग से षड्जस्वर का उच्चारण करना चाहिए / 2. वक्षस्थल से ऋषभस्वर उच्चरित होता है / 3. कंठ से गांधारस्वर उच्चरित होता है। 4. जिह्वा के मध्यभाग से मध्यमस्वर का उच्चारण करे / 5. नासिका से पंचमस्वर का उच्चारण करना चाहिए। 6. दंतोष्ठ-संयोग से धैवतस्वर का उच्चारण करना चाहिए। 7. मूर्धा (भ्र कुटि ताने हुए शिर) से निषाद स्वर का उच्चारण करना चाहिए। 26, 27 विवेचन-यहां सूत्रकार ने षड्ज प्रादि सात स्वरों के पृथक्-पृथक् स्वर-उच्चारणस्थानों का कथन किया है। स्वरस्थान का लक्षण व मानने का कारण मूल उद्गमस्थान नाभि से उत्थित अविकारी स्वर में विशेषता के जनक जिह्वा आदि अंग स्वरस्थान हैं। यद्यपि षडज आदि समस्त स्वरों के उच्चारण करने में सामान्यतया जिह्वान, कंठ आदि स्थानों की अपेक्षा होती है तथापि विशेष रूप से एक-एक स्वर जिह्वाग्रभागादिक रूप स्थानों में से एक-एक स्थान को प्राप्त कर ही अभिव्यक्त होता है। इसी अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये षड्ज प्रादि स्वरों का पृथक्-पृथक् एक-एक स्वरस्थान माना गया है। जैसे वक्षस्थल से ऋषभस्वर उच्चरित होता है, इसका यह अर्थ हया कि ऋषभस्वर का उच्चारणस्थान वक्षस्थल है। इस स्वर के उच्चारण में वक्षस्थल का विशेष रूप में उपयोग होता है। इसी प्रकार अन्य स्वरों और उनके स्थानों के लिये भी समझ लेना चाहिये। पूर्व में यह संकेत किया है कि ये षड्ज ग्रादि सप्त स्वर जीव-अजीवनिश्रित हैं। अतः अब क्रम से उनका निर्देश करते हैं। जीवनिभित सप्तस्वर [3] सत्त सरा जीवणिस्सिया पण्णत्ता / तं जहा-- सज्जं रवइ मयूरो 1 कुक्कुडो रिसभं सरं 2 / हंसो रवइ गंधारं 3 मज्झिमं तु गवेलगा 4 // 28 // अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचम सरं 5 / छठं च सारसा कुचा 6 सायं सत्तमं गन्नो 7 // 29 / / [260-3] जीवनिश्रित-जीवों द्वारा उच्चरित होने वाले सप्तस्वरों का स्वरूप इस प्रकार 1. मयूर षड्जस्वर में बोलता है। 2. कुक्कुट (मुर्गा) ऋषभस्वर में बोलता है। 3. हंस गांधारस्वर में बोलता है। 4. गवेलक (भेड़) मध्यमस्वर में बोलता है। 5. कोयल पुष्पोत्पत्तिकाल (वसन्तऋतु-चैत्र वैशाखमास) में पंचमस्वर में बोलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org