________________ नामाधिकार निरूपण निरावरण पद दिया है और कर्मसंयोग न होना तभी मम्भव है जब कर्म निःसत्ताक हो जाएं। यह बताने के लिये क्षीणावरण पद दिया है। ___ अवेयणे निव्वेयणे खीणवेयणे --अवेदन का अर्थ है वेदना (अनुभूति) रहित किन्तु 'अ' उपसर्ग अल्प, ईषद् अर्थ में भी प्रयुक्त होने से अवेदन का अर्थ अल्पवेदन भी हो सकता है / अतः इस असंगत अर्थ का निराकरण करने के लिये निवेदन' पद प्रयुक्त किया है। प्राशय यह कि सर्वथा वेदनारहित को निवेदन समझना चाहिये और वर्तमान की यह निवेदन रूप अवस्था कालान्तरस्थायी भी है, इसका बोधक 'क्षीणवेदन' पद है। अमोहे निम्मोहे खीणमोहे-अमोह अर्थात् अपगत मोहनीयकर्म वाला। परन्तु अमोह का एक अर्थ अल्प मोह वाला भी संभव होने से उसका निराकरण करने के लिये 'निर्मोह' पद दिया है। नि:शेष रूप से मोहकर्म रहित ऐसा निर्मोही अमोह पद का वाच्य है। ऐसा निर्मोही भी कालान्तर में मोहोदययुक्त बन सकता है, जैसे उपशांतमोहवाला / इस आशंका को निर्मूल करने के लिये क्षीणमोह पद दिया है कि अपुनर्भव रूप मोहोदयवाला जीव अमोह, निमोह नाम से यहाँ ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार अणामे, निण्णामे, खीणनामे, अगोए, निग्गोए, खीणगोए, अणंतराए, गिरतराए, खीणंतराए पदों की सार्थकता का विचार नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की अपेक्षा कर लेना चाहिये। अणाउए निराउए खीणाउए-तद्भवसंबन्धी आयु के क्षय होने पर भी जीव अनायुष्क कहलाता है। अत: ऐसे अनायूष्क का निराकरण करने के लिये---जिसका प्रायूकर्म नि:शेष रूप से समाप्त हो चका है ऐसे अनायष्क का ग्रहण करने के लिये निरायष्क पद दिया है। ऐसी निरायष्क अवस्था जीव की शैलेशी दशा में हो जाती है। वहाँ संपूर्ण रूप से निरायुष्कता तो नहीं है किन्तु किंचिन्मात्र प्रायु अवशिष्ट होने पर भी उपचार से उसे निरायुष्क कहते हैं। अतः इस आशंका को दूर करने के लिये क्षीणायुष्क' पद रखा है, अर्थात् संपूर्ण रूप से जिसका आयुकर्म क्षीण हो चुकता है वही अनायुष्क, निरायुष्क नाम वाला कहलाता है। उपर्युक्त पदों की सार्थकता तो ज्ञानावरण आदि पृथक्-पृथक कर्म के क्षय की अपेक्षा जानना चाहिये और पाठों कर्मों के सर्वथा नष्ट होने पर निष्पन्न पदों की सार्थकता इस प्रकार है सिद्ध-समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध यह नाम निष्पन्न होता है। बुद्ध--बोध स्वरूप हो जाने से बुद्ध, मुक्त बाह्य और ग्राभ्यन्तर परिग्रहबंधन से छूट जाने पर मुक्त, परिनिर्वृत्तसर्व प्रकार से, सब तरफ से शीतीभूत हो जाने से परिनिर्वृत्त, अन्तकृत्— संसार के अंतकारी होने से अन्तकृत् और सर्वदुःखप्रहीण-- शारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों का प्रात्यन्तिक क्षय हो जाने से सर्वदुःखप्रहीण नाम निष्पन्न होता है। ___ इस प्रकार से क्षायिक और क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव की वक्तव्यता का प्राशय जानना चाहिये। क्षायोपमिकभाव 245. से कि तं खोवसमिए ? खओवसमिए दुविहे पन्नत्ते / तं जहा–खओवसमे य 1 खओवसमनिष्फन्ने व 2 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org