________________ आनुपूओं निरूपण] [121 - इसी प्रकार से एक अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य के लिये समझना चाहिये कि वे लोक के असंख्यात भाग में रहते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी में भी एक अनानुपूर्वी और एक प्रवक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। काल की अपेक्षा क्रमश: जिसकी एक समय और दो समय की स्थिति है, वह क्षेत्र की अपेक्षा भी एक और दो प्रदेश में स्थित होता है और वे प्रदेश लोक के असंख्यातवें दो आदेश मलधारीयावृत्ति में निम्नलिखितदो प्रादेशान्तरों का उल्लेख है--१. पाएसंतरेण वा सव्व पुच्छा होज्जा / 2. महाखंधवज्जमन्नदश्वेसु पाइल्ला चउपुच्छासु होज्जा / प्रथम अादेश का संकेत अनानुपूर्वी के अवगाढ होने के प्रसंग में किया है। वह प्रकारान्तर से सूत्रोक्त संख्येय आदि पांचों पृच्छाओं में लभ्य है। तात्पर्य यह हुआ कि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वीद्रव्य में से कोई एक द्रव्य लोक के संख्यात भाग में, कोई एक असंख्यात भाग में, कोई एक संख्यात भागों में कोई एक असंख्यात भागों में और कोई एक सर्वलोक में रहता है तथा नाना अनानुपूर्वीद्रव्यों को अपेक्षा वे सर्वलोक में भी रहते हैं / क्योंकि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वी द्रव्यों का सर्वत्र सत्त्व है। एक अनानुपुर्वीद्रव्य का सर्वलोक में रहना अचित्त महास्कन्ध की दंड, कपाट आदि अवस्थाओं की अपेक्षा जानना चाहिए। क्योंकि ये दंडादि अवस्थायें प्राकार भेद से परस्पर भिन्नभिन्न हैं और एक-एक समयवर्ती हैं। अत: एक-एक समयवर्ती होने के कारण वे पृथक्-पृथक अनानुपूर्वीद्रव्य हैं। दूसरे प्रादेश का सम्बन्ध प्रवक्तव्य द्रव्य से है। दो समय की स्थिति वाला कोई एक अवक्तव्य कद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में, कोई असंख्यातवें भाग में, कोई संख्यात भागों में और कोई असंख्यात भागों में अवगाढ होता है. किन्त सर्वलोक में अवगाह नहीं होता है। क्योंकि सर्वलोक में अबगाढ तो महास्कन्ध होता है और वह दो समयों की स्थिति वाला नहीं है। इसी कारण अवक्तव्यकद्रव्य के विषय में पांचवाँ विकल्प सम्भव नहीं है / नाना प्रवक्तव्यकद्रव्यों की सर्वलोकव्यापिता स्वत: सिद्ध ही है। स्पर्गना के लिये क्षेत्रानुपूर्वीवत समझने के संकेत का तात्पर्य यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालान पूर्वी में भी एक-एक पान पूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, संख्यात भागो, असंख्यात भागों अथवा देगोन लोक का और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। तथा--.. एक-गाक अनानपर्वी और अवक्तव्य क द्रव्य लोक के मात्र असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं / किन्तु संख्यातवें भाग, संख्यातवें भागों, असंख्यातवें भागों और देशोन लोक का स्पर्श नहीं करते हैं। विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक का स्पर्ण जानना चाहिये / (ङ 5) कालप्ररूपणा 195. [1] णेगम-बवहाराणं आणुपुग्विदन्वाई कालतो केवचिरं होंति ? एगं दध्वं पडुच्च जहणणं तिणि समया उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादब्वाइं पडुच्च सम्वद्धा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org