________________ 5.] [अनुयोगद्वारसूत्र कायोत्सर्ग नामक पांचवाँ अध्ययन चारित्रपुरुष के अतिचाररूपी भावव्रण की प्रायश्चित्त रूप चिकित्सा करने के कारण ब्रणचिकित्सा अधिकार है। प्रत्याख्यान अध्ययन मूल और उत्तर गुणों को निरतिचार धारण करने रूप होने से गुणधारणा अर्थाधिकारात्मक है। यद्यपि कृत प्रतिज्ञानुसार आवश्यक, श्रुत और स्कन्ध के अनन्तर अध्ययन का निक्षेप किया जाना चाहिये था, किन्तु वक्ष्यमाण 'निक्षेप-अनुयोगद्वार' में निक्षेप किये जाने से यहाँ मात्र अध्ययनों के नामों का उल्लेख किया है। अनुयोगद्वार-नामनिर्देश 75. तत्थ पढमायणं सामाइयं / तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगद्दारा भवति / तं जहा--उवक्कमे 1 णिक्लेवे 2 अणुगमे 3 गए 4 / 75. इन (छह अध्ययनों) में से प्रथम सामायिक अध्ययन के यह चार अनुयोगद्वार हैं१. उपक्रम 2. निक्षेप 3. अनुगम 4. नय / विवेचन--- 'एक्केक्क पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि' के निर्देशानुसार सूत्रकार ने सामायिक सम्बन्धी विचारणा प्रारम्भ की है / सामायिक के प्रथम उपन्यास का कारण यह है कि सामायिक समस्त चारित्रगुणों का आधार और मानसिक, शारीरिक दुःखों के नाश तथा मुक्ति का प्रधान हेतु है / सामायिक की नियुक्ति---समस्य प्रायः-समायः प्रयोजनमस्येति सामायिकम्- सर्वभूतों में प्रात्मवत् दृष्टि से संपन्न राग-द्वेष रहित आत्मा के (समभाव रूप) परिणाम को सम और इस सम की आय-प्राप्ति या ज्ञानादि गुणोत्कर्ष के साथ लाभ को समाय कहते हैं। यह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसका नाम सामायिक है। अनुयोग---अध्ययन के अर्थ का कथन करने की विधि का नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र के साथ उसका अनुकूल अर्थ स्थापित करना अनुयोग है। उपक्रम---निक्षेप करने योग्य बनाने की रीति से दूरस्थ वस्तु का समीप लाना-प्रतिपादन करना / अथवा गुरु के जिस वचन-व्यापार द्वारा अथवा विनीत शिष्य के विनयादि गुणों से वस्तु निक्षेपयोग्य की जाती है उसे उपक्रम कहते हैं। निक्षेप---नाम, स्थापना आदि के भेद से सूत्रगत पदों का न्यास-व्यवस्थापन करना। अनुगम-सूत्र का अनुकूल अर्थ कहना / नय.-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के शेष धर्मों को अपेक्षादृष्टि से गौण मानकर मुख्य रूप से एक अंश को ग्रहण करने वाला बोध / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org