________________ 22] [अनुयोगद्वारसूत्र ईषद् उन्मीलन से युक्त, यथायोग्य पीतमिश्रित श्वेतवर्णयुक्त प्रभात के होने तथा रक्त अशोकवृक्ष, पलाशपुष्प, तोते के मुख और गुंजा (चिरमी) के अर्ध भाग के समान रक्त, सरोवरवर्ती कमलवनों को विकसित करने वाले और अपनी सहस्र रश्मियों से दिवसविधायक तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर मुख को धोना, दंतप्रक्षालन, तेलमालिश करना, स्नान, कंघी आदि से केशों को संवारना, मंगल के लिए सरसों, पुष्प, दूर्वा आदि का प्रक्षेपण, दर्पण में मुख देखना, धूप जलाना, पुष्पों और पुष्पमालाओं को लेना, पान खाता, स्वच्छ वस्त्र पहनना आदि करते हैं और उसके बाद राजसभा, देवालय, पारामगृह, उद्यान, सभा अथवा प्रपा (प्याऊ) की ओर जाते हैं, वह लौकिक द्रव्यावश्यक है। विवेचन--सूत्र में लौकिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है कि संसारी जनों द्वारा आवश्यक कृत्यों के रूप में जिनको अवश्य करना होता है, वे सब लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। इन दंतप्रक्षालन आदि लौकिक प्रावश्यक कृत्यों में द्रव्य शब्द का प्रयोग मोक्षप्राप्ति के कारणभूत आवश्यक की अप्रधानता की अपेक्षा से किया है / मोक्ष का प्रधान कारण तो भावावश्यक है, न कि द्रव्यावश्यक / अतएव 'अप्पाहण्णे वि दब्बसद्दोत्थि'-अप्रधान अर्थ में भी द्रव्य शब्द प्रयुक्त होता है. इस शास्त्रवचन के अनुसार अप्रधानभूत आवश्यक द्रव्यावश्यक है तथा इन दंतधावनादि कृत्यों में लोकप्रसिद्धि से भी आगमरूपता नहीं है, अतः इनमें आगम का अभाव होने से नोग्रागमता सिद्ध है। प्रभातवर्णन की विशेषता-'पाउपभायाए' इत्यादि पदों द्वारा सूत्रकार ने प्रभात की विशेष अवस्थाओं का वर्णन किया है। यथा-'पाउप्पभाया' इस पद द्वारा प्रभात की प्रथम अवस्था बतलाई है। इस समय में प्रभात की प्राभा की प्रारंभिक अवस्था होती है। इसके बाद यथाक्रम से प्रभात की द्वितीय अवस्था होती है, जिसमें पूर्व की अपेक्षा प्रकाश स्फुटतर तथा धीरे-धीरे बढ़कर कमलों के ईषत् विकास से युक्त होकर कुछ-कुछ श्वेततामिश्रित पीत वर्ण से समन्वित हो जाता है, जिसे सुविमलाए....अहपंडुरे पभाए पद से स्पष्ट किया है। इसके बाद प्रभात तृतीय अवस्था में पहुँचता है / तब सूर्य पूर्ण रूप में उदित होकर अपने प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। इस उषाकालीन स्थिति का संकेत रत्तासोगप्पगास....तेयसा जलते पद द्वारा किया है / विशिष्ट शब्दों के अर्थ- राईसर-राजेश्वर-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि, अथवा राजा-- महामाडलिक, ईश्वर--युवराज, सामान्य मांडलिक, अमात्य आदि, तलवर-राजा द्वारा प्रदत्त रत्नालंकृत स्वर्णपट्ट को मस्तक पर धारण करने वाला / माइंबिय-जिनके आसपास में अन्य गांव नहीं हो अथवा छिन्न-भिन्न जनाश्रय विशेष को मडंब और इन मडंबों के अधिपति को माडंबिक कहते हैं। कोडुबिय-कौटुम्बिक--अनेक कुटुम्बों का प्रतिपालन करने वाले / इन्भ–इभ नाम हाथी का है। जिनके पास हाथी-प्रमाण द्रव्य हो। सेहि-जो कोटयधीश हैं तथा राजा द्वारा नगरसेठ की उपाधि से विभूषित एवं संमानार्थ स्वर्णपट्टप्राप्त / सेणावइ हाथी अादि चतुरंग सेना के नायक सेनापति / सत्यवाह--सार्थवाह-गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रय-विक्रय योग्य द्रव्यसमूह को लेकर लाभ की इच्छा से जो अन्य व्यापारियों के समूह के साथ देशान्तर जाते हैं एवं उन का संवर्धन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org