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७ परिग्रह का निषेध और प्रदत्त भोजन का ग्रहण । ८,६ क्रिया - रहित ज्ञान से दुःख-मुक्ति मानने वालों का निरसन । भाषा और अनुशासन की त्राण देने में असमर्थता । ११ आसक्ति है दुःखोत्पत्ति का कारण ।
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१२ सब दिशाओं को देख कर अप्रमाद का उपदेश । १३ बाह्य की अनाशंसा और देह धारणा का उद्देश्य ।
सातवां अध्ययन : उरभ्रीय (उरभ्र, काकिणी, आम्रफल, व्यवहार और २६, २७
श्लोक १- १०उरभ दृष्टांत से विषय-भोगों के कटु विपाक का दर्शन । ११-१३ काकिणी और आम्रफल दृष्टांत से देव-भोगों के सामने मानवीय भोगों की तुच्छता का दर्शन।
१४-२२ व्यवहार (व्यवसाय) दृष्टांत से आय-व्यय के विषय में कुशलता का दर्शन ।
२३,२४ सागर दृष्टांत से आय-व्यय की तुलना का दर्शन । २५ काम - भोगों की अनिवृत्ति से आत्म-प्रयोजन का नाश ।
(२९)
३ कपिल मुनि द्वारा पांच सौ चोरों को उपदेश ।
४ ग्रन्थि त्याग का उपदेश ।
* आसक्त मनुष्य की कर्म बद्धता ।
६ सुव्रती द्वारा संसार समुद्र का पार ।
७,८ कुतीर्थिकों की अज्ञता का निरसन । ६,१० अहिंसा का विवेक ।
आठवां अध्ययन : कापिलीय (संसार की असारता और ग्रंथि त्याग)
श्लोक १ दुःख - बहुल संसार से छूटने की जिज्ञासा । २ स्नेह त्याग से दोष-मुक्ति ।
११,१२ १३
३,४ प्रवर भोगों का त्याग और एकांतवास का स्वीकार । ५ नमि के अभिनिष्क्रमण से मिथिला में
नौवां अध्ययन : नमिप्रव्रज्या (इन्द्र और नमि राजर्षि का संवाद)
श्लोक १ नमि का जन्म और पूर्व जन्म की स्मृति । २ धर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण ।
कोलाहल ।
६ देवेन्द्र का ब्राह्मण रूप में आकर नमि से प्रश्न । ७-१० मिथिला में हो रहे कोलाहल के प्रति देवेन्द्र की जिज्ञासा । नमि राजर्षि द्वारा आश्रय-हीन हुए पक्षियों के साथ मिथिलावासियों की तुलना ।
११-१६ देवेन्द्र द्वारा जल रहे अन्तःपुर की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न । नमि राजर्षि का उदासीन भाव । १७- २२ देवेन्द्र द्वारा नगर सुरक्षा के प्रति कर्त्तव्य-बोध । नमि राजर्षि द्वारा आत्म-नगर की सुरक्षापूर्वक मुक्ति-बोध । २३-२६ देवेन्द्र द्वारा प्रासाद, वर्धमान गृह आदि बनाने की प्रेरणा । नमि राजर्षि द्वारा मार्ग में बनाए घर के प्रति संदेहशीलता और शाश्वत घर की ओर संकेत ।
१४ कर्म-हेतुओं पर विचार मित और निर्दोष अन्न-पानी
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का ग्रहण।
१५ असंग्रह का विधान ।
१६ अनियत विहार करते हुए पिण्डपात की गवेषणा । १७ उपसंहार ।
२७-३० देवेन्द्र द्वारा नगर में न्याय और शांति स्थापन का अनुरोध। राजर्षि द्वारा जगत् में होने वाले अन्याय-पोषण का उल्लेख ।
३१-३६ देवेन्द्र द्वारा स्वतंत्र राजाओं को जीत कर मुनि बनने का
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२८
२६
३०
१४, १५ १६, १७
१८, १६
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सागर-पांच उदाहरण )
पृ० १२९ - १४३
कामभोगों की निवृत्ति से देवत्व और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य कुलों की प्राप्ति ।
बाल जीवों का नरक- गमन ।
धीर पुरुष का देव गमन ।
बाल और अबाल-भाव की तुलना और पण्डित मुनि द्वारा अबाल-भाव का सेवन।
पृ० १४४-१५७
संयम - निर्वाह के लिए भोजन की एषणा । स्वप्न शास्त्र, लक्षण शास्त्र और अंग विद्या के प्रयोग का निषेध ।
समाधि - भ्रष्ट व्यक्ति का संसार-भ्रमण और बोधि- दुर्लभता । तृष्णा की दुष्पूरता ।
स्त्री संग का त्याग ।
उपसंहार ।
पृ० १५८-१७८
अनुरोध । राजर्षि द्वारा आत्म-विजय ही परम विजय है, इसलिए अपनी आत्मा के साथ युद्ध करने का उपदेश ।
३७-४० देवेन्द्र द्वारा यज्ञ, दान और भोग की प्रेरणा। राजर्षि द्वारा दान देने वाले के लिए भी संयम की श्रेयस्करता का प्रतिपादन ।
४१-४४ देवेन्द्र द्वारा गृहस्थाश्रम में रहते हुए तप की प्रेरणा । राजर्षि द्वारा सम्यक् चारित्र सम्पन्न मुनि-चर्या का
महत्त्वख्यापन |
४५-४६ देवेन्द्र द्वारा परिग्रह के संग्रह का उपदेश । राजर्षि द्वारा आकाश के समान इच्छा की अनन्तता का प्रतिपादन और पदार्थों से इच्छा पूर्ति की असंभवता का निरूपण । ५०-५४ देवेन्द्र द्वारा प्राप्त भोगों के त्याग और अप्राप्त भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न विरोध का प्रतिपादन ।
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राजर्षि द्वारा काम भोगों की भयंकरता और उसके अनिष्ट परिणामों का ख्यापन।
५५-५६ देवेन्द्र का अपने मूल रूप में प्रकटीकरण। राजर्षि की हृदयग्राही स्तुति और वन्दन ।
६० इन्द्र का आकाश-गमन।
६१ राजर्षि की श्रामण्य में उपस्थिति ।
६२ संबुद्ध लोगों द्वारा इसी पथ का स्वीकार ।
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