Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ की प्रतिकूलता से जहाजों को अत्यधिक खतरा रहता था। तथापि दे निर्भीकता से एक देश से दूसरे देश में घूमा करते थे। ये व्यापारी भी बहुमूल्य पदार्थों को लेकर हस्तिशीर्ष नगर पहुंचे और राजा को उन श्रेष्ठ अश्वों के सम्बन्ध में बताया। राजा अपने अनुचरों के साथ घोड़ों को लाने का वणिकों को आदेश देता है। व्यापारी अश्वों को पकड़ लाने के लिए वल्लको, भ्रामरी, कच्छभी, बंभा, षभ्रमरी विविध प्रकार की वीणाएँ, विविध प्रकार के चित्र, सुगंधित पदार्थ, गुडिया-मत्स्यंका शक्कर, मत्यसंडिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर प्रकार की शर्कराएं पौर विविध प्रकार के वस्त्र प्रादि के साथ पहँचे और उन लुभावने पदार्थों से उन घोड़ों को अपने अधीन किया / स्वतन्त्रता से घूमनेवाले घोड़े पराधीन बन गये। इसी तरह जो साधक विषयों के अधीन होते हैं वे भी पराधीनता के पंक में निमग्न हो जाते हैं। विषयों की प्रासक्ति साधक को पथभ्रष्ट कर देती है। प्रस्तुत अध्ययन में गद्य के साथ पद्य भी प्रयुक्त हुए है। बीस गाथाएं हैं। जिनमें पुनः उसी बात को उद्बोधन के रूप में दुहराया गया है। अठारहवें अध्ययन में सुषमा श्रेष्ठी-कन्या का वर्णन है। वह धन्ना सार्थवाह की पुत्री थी। उसकी देखभाल के लिए चिलात दासीपुत्र को नियुक्त किया गया। वह बहुत ही उच्छ खल था / अतः उसे निकाल दिया गया / वह अनेक व्यसनों के साथ तस्कराधिपति बन गया। सुषमा का अपहरण किया / श्रेष्ठी और उसके पुत्रों ने उसका पीछा किया / उन्हें अटवी में चिलात द्वारा मारी गई सुषमा का मृत देह प्राप्त हुप्रा / वे अत्यंत क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो चुके थे / अत: सुषमा के मृत देह का भक्षण कर अपने प्राणों को बचाया / सुषमा के शरीर का मांस खाकर उन्होंने अपने जीवन की रक्षा की। उन्हें किंचिनमात्र भी उस आहार के प्रति राग नहीं था। उसी तरह षटकाय के रक्षक श्रमण-श्रमणियां भी संयमनिर्वाह के लिए प्राहार का उपयोग करते हैं, रसास्वादन हेतु नहीं। असह्य क्षुधा वेदना होने पर प्रहार ग्रहण करना चाहिए / आहार का लक्ष्य संयम-साधना है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी इसी प्रकार मृत कन्या के मांस को भक्षण कर जीवित रहने का वर्णन प्राप्त होता है। 33 / विशुद्धि मग और शिक्षा समुच्चय में भी श्रमण को इसी तरह पाहार लेना चाहिये यह बताया गया है। मनुस्मृति प्रापस्तम्बधर्म सूत्र (2.4.9.13) वासिष्ठ (6.20.21) बोधायन धर्म सूत्र (2.7.31 32) में संन्यासियों के प्राहार संबंधी चर्चा इसी प्रकार मिलती है। प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार तस्करों के द्वारा ऐसी मंत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता था, जिससे संगीन ताले अपने आप खुल जाते थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि महावीरयुग में ताले प्रादि का उपयोग धनादि की रक्षा के लिए होता था। विदेशी यात्री मेगास्तनीज, हनसांग, फाहियान, प्रादि ने अपने यात्राविवरणों में लिखा है कि भारत में कोई भी ताला आदि का उपयोग नहीं करता था, पर पागम साहित्य में ताले के जो वर्णन मिलते हैं वे अनुसं धित्सुनों के लिए अन्वेषण की अपेक्षा रखते हैं। उन्नीसवें अध्ययन में पुण्डरीक और कण्डरीक की कथा है। जब राजा महापद्म श्रमण बने तब उनका ज्येष्ठपूत्र पुण्डरीक राज्य का संचालन करने लगा और कण्डरीक युवराज बना। पुन: महापद्म मुनि वहां पाये तो कण्डरीक ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। कुछ समय बाद कण्डरीक मुनि वहां आये। उस समय वे दाहज्वर से ग्रसित थे / महाराजा पुण्डरीक ने औषधि-उपचार करवाया। स्वस्थ होने पर भी जब कंडरीक मुनि वहीं जमे रहे तब राजा ने निवेदन किया कि श्रमणमर्यादा की दष्टि से अापका विहार करना उचित है। किन्तु कण्डरीक के मन में भोगों के प्रति प्रासक्ति उत्पन्न हो चकी थी। वे कुछ समय परिभ्रमण कर पुन: वहाँ प्रा गये / पुण्डरीक के समझाने पर भी वे न समझे तब कण्डरीक को राज्य सौपकर पुण्डरीक ने कण्डरीक का श्रमणवेष स्वयं धारण कर 233. संयुक्तनिकाय, 2, पृ. 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org