Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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(१२) नन्दीउर, पूर्णकलश, शंख, पटह, छत्र, चामर, ध्वजा-पताका का साक्षात्कार होना।
प्रकीर्णक गणिविद्या में लिखा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है। जंबूक, चास (नीलकंठ), मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है।
__दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चंद्रिका मंद और मदंतर होती जाती है और शुक्लपक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती है वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है। रूपक बहुत ही शानदार है। दर्शनिक गहन विचारधारा को रूपक के द्वारा बहुत ही सरल व सुगम रीति से उपस्थित किया है। यह जिज्ञासा भी गणधर गौतम ने राजगृह में प्रस्तुत की थी और भगवान् ने समाधान दिया था।
ग्यारहवें अध्ययन में समुद्र के सन्निकट दावद्रव नामक वृक्ष होते हैं। उनका उदाहरण देकर आराधक और विराधक का निरूपण किया गया है। जिस प्रकार वह वृक्ष अनुकूल और प्रतिकूल पवन को सहन करता है वैसे ही श्रमणों को अनुकूल और प्रतिकूल वचनों को सहन करना चाहिए। जो सहता है वह आराधक बनता है।
बारहवें अध्ययन में कलुषित जल को शुद्ध बनाने की पद्धति पर प्रकाश डाला है। गटर के गंदे पानी को साफ करने की यह पद्धति आधुनिक युग की फिल्टर पद्धति से प्रायः मिलती है। आज से २५०० वर्ष पूर्व भी यह पद्धति ज्ञात थी। संसार का कोई भी पदार्थ एकान्त रूप से न शुभ है और न अशुभ ही है। प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप से परिवर्तित हो सकता है। अतः किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य है भगवान् ऋषभदेव और महावीर के अतिरिक्त बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। यह चातुर्याम धर्म श्रमणों के लिए था, किन्तु गृहस्थों के लिए तो पंच अणुव्रत ही थे। वहाँ पर चार अणुव्रत का उल्लेख नहीं है; किन्तु पाँच अणुव्रत का उल्लेख है।'
इस कथानक का संबंध चंपानगरी से है।
तेरहवें अध्ययन में दर्दुर का उदाहरण है। नंद मणिकार राजगृह का निवासी था। सत्संग के अभाव में व्रत-नियम की साधना करते हुए भी वह चलित हो गया। उसने चार शालाओं के साथ एक वापिका का निर्माण कराया। उसकी वापिका के प्रति अत्यन्त आसक्ति थी। आसक्ति के कारण आर्तध्यान में वह मृत्यु को वरण करता है और उसी वापी में दर्दुर बनता है। कुछ समय के बाद भगवान् महावीर के आगमन की बात सुनकर जातिस्मरण प्राप्त करके वह वन्दन करने के लिए चला। पर घोड़े की टाप से घायल हो गया। वहीं पर अनशन पूर्वक प्राणों का परित्याग कर वह स्वर्ग का अधिकारी देव बना।
इस अध्ययन में पुष्करिणी-वापिका का सुन्दर वर्णन है । वह वापिका चतुष्कोण थी और उसमें विविध प्रकार के कमल खिल रहे थे। उस पुष्करिणी के चारों ओर उपवन भी थे। उन उपवनों में आधुनिक युग के 'पार्क' के सदृश स्थान-स्थान पर विविध प्रकार की कलाकृतियाँ निर्मित की गई थीं। वहाँ पर सैर-सपाटे के लिए जो
१. बृहत्कल्पलघुभाष्य-८२-८४ २. गह दिणा उ मुहुत्ता महुत्ता उ सउणावली। -प्रकीर्णक गणिविद्या श्लो.८ ३. औघनियुक्ति भाष्य १०८ ४. "विचित्त केवलिपन्नत्तं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ जहा जीवा बज्झंति जाव पंच अणुव्वयाइं।"