Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 2. सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय सिद्धान्त या मत अर्थ ही अधिक संगत होता है / विउक्कम्म -- उल्लंघन कर, उलट-पुलट रूप में स्वीकार कर, या जिनोक्त सिद्धान्तों के अस्वीकारकर अथवा छोड़कर / अयाणंता - वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-परमार्थ को न जानते हुए, चुणिकार के अनुसार अर्थ है-विरति-अविरति दोषों को न जानते हुए। विउस्सिता- वृत्तिकार ने इसका विवेचन यों किया है--विविध-अनेक प्रकार से उत्=प्रबलता से जो सितबद्ध हैं-वे व्युत्सृत हैं-स्व-स्वसमय (सिद्धान्त) से अभिनिविष्ट (चिपके हुए) हैं। कामेहिंसत्ता-की व्याख्या चूर्णिकार के मतानुसार- अप्रशस्त इच्छा वाले गृहस्थ (मानव) शब्दादि काम भोगों में अथवा इच्छारूप एवं मदनरूप कामों में आसक्त हैं, रक्त-गृद्ध हैं, मूच्छित हैं। प्रायः यही व्याख्या वृत्तिकार ने की है। पंच महाभूतवादः 7. संति पंच महाभूया इहमेगेसिमाहिया। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा // 8. एते पंच महाभूया तेब्भो एगो त्ति आहिया। अह एसि विणासे उ विणासो होइ देहिणो / 7. इस लोक में पाँच महाभूत हैं, (ऐसा) किन्हीं ने कहा है। (वे पंच महाभूत हैं) पृथ्वी, जल, तेज, वायु और पांचवाँ आकाश। 8. ये पांच महाभूत हैं। इनसे एक (आत्मा उत्पन्न होता है, ऐसा उन्होंने कहा / पश्चात् इन (पंचमहाभूतों) के विनाश से देही (आत्मा) का विनाश होता है। विवेचन--पंचमहाभतवाद का स्वरूप-~-इन दो गाथाओं में पंचमहाभतवाद का स्वरूप बताया गया है। वृत्तिकार इन पंचमहाभूतवादियों को चार्वाक कहते हैं। यद्यपि सांख्य दर्शन और वैशेषिकदर्शन भी पंचमहाभूतों को मानते हैं, परन्तु वे इन पचमहाभूतों को ही सभी कुछ नही मानते / सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) प्रकृति, महत्तत्व (बुद्धि), अहंकार, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पचतन्मात्र (विषय) आदि, तथा वैशेषिकदर्शन दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों को भी मानता है, जबकि चार्वाक (लोकायतिक) पंचभूतों के अतिरिक्त आत्मा आदि कोई भी पदार्थ नहीं मानता, इसलिए इन दोनों गाथाओं में उक्त मत लोकायतिक का ही मान कर व्याख्या की गई है। लोकायतिक मत इस प्रकार है- “पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये पांच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजनप्रत्यक्ष होने से महान् है, इनके अस्तित्व से न तो कोई इन्कार कर सका है, और न - -- - ---- 32 विउक्क.म्म-एतान् अनन्तरोक्तान ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य परित्यज्य / अयाणता-परमार्थमजानाना: (शौ० वृत्ति पत्र 14) 'अयाणं' ता विरति-अविरतिदोसे य / " (चू० मू० पा० टि० पृ०२)। विउस्सित्ता विविधमनेकप्रकारम् उत् प्राबल्यन सिता बद्धाः / (शी वृति प०१४), बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता (चू० मू०पा० 2) एवं सत्ता कामेहि माणवा - कामाः शब्दादयः, गृहस्था अप्पसरियच्छा / कामेसु-इच्छाकामेसु मयणकामेसु वा सत्ता / (चू० मू० पा० दि. 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org