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सच्ची परमात्म-प्रीति
परमात्मारूपी पति को रिझाने के लिए ६ जगल. मे, गुफाओ मे व एकान्त मे रहते हैं, परमात्मा व आत्मा का स्वरूप समझे बिना. ही कर्त्तव्यविमुख हो कर रात-रातभर जाग कर, जोर-जोर से धुन बोलते हैं, नाम रटते है, कदमूल, फल आदि खा कर निर्वाह करते है , कई पचाग्नि-ताप सहते हैं, कई औघे लटक कर शीर्षासन की तरह उलटे खडे रहते है, कई गीत ऋतु मे ठडे पानी मे घटो खडे रह कर परब्रह्म का जाप करते है, कई महीनो भूखे रहते है या किसी एक चीज पर रहते हैं, कई महीनो तक खडे रहते है, कई एका टांग ऊँची करके खडे रहते हैं, कोई विविध आसन करते हैं । इससे भी आगे वढकर देहदमन के अनेक उपाय परब्रह्म-पति को रजन करने के लिए विवेकविकल लोगो द्वारा अजमाये जाते है जैसे कई लोग भैरवजप का आलबन लेकर पहाड या ऊँचे स्थल मे गिर कर झपापात करते है, कोई हिमालय मे जा कर वर्फ में गल जाते हैं, कोई काणी मे करवत से अपने शरीर को चिरवा देते हैं, कोई जमीन मे मिट्टी में शरीर को दववा कर जीवितसमाधि ले लेते है । ये और इस प्रकार के अन्य देहदमन के उपाय वाल (अज्ञान) तप है और इनके फलस्वरूप ये वालमरण के ही प्रकार हैं।
परमात्म-पति का वास्तविक रजन इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने ऐसे तपो को तप नही, तनताप (शरीर को तपाना-कप्ट देना) कहा है। और इस प्रकार पतिरजन के तमाम उपायो को उन्होंने मन से भी नही चाहा, न स्वीकार किया। मतलब यह है कि देहदमन से होने वाले अज्ञानयुक्त निरुद्देश्य वाह्य तप मे और आत्मा की शुद्ध दशा में रमण करने के हेतु होने वाले तप मे बहुत अन्तर है। आत्मशुद्धि (निर्जरी) के हेतु सिवाय इस प्रकार का अज्ञानपूर्वक किया जाने वाला कष्टसहनरूप तप लौकिक पति का रजन कर सकता है, मगर लोकोत्तर पति (परमात्मदेव) का रजन तो मोने और चादी के मिलाप, या मोने के साथ सोने के मिलाप (धातुमिलाप) की तरह एकमेक हो जाने अर्थात् आत्मा के शुद्ध आत्मस्वभाव मे तल्लीन हो जाने से हो सकता है। प्रेम करने वाला
१ . रा सम्बन्ध में विशेपं जानकारी के लिए देखिये उववाई मूत्र मे वाल
तपस्वियो का वर्णन। ..