Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 5
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 1465
________________ ( १४४२ ) अभिधान राजेन्द्रः । भरह समाणे तुचित्तमा दिए० जाव करयलपरिग्गहिचं दसयहं सिरसावतं पत्थर अंजलि कट्टु एवं सामी ! तह ति याए विणणं वयणं परिसुइ, पडिणित्ता भरहस्य रामो अंतिमाभो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आ बासे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता को त्रिपुरिसे सद्दाबे, सहावेता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पा! श्रा भिसे हरियरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर० जाव चाउरंगियि सेयं समाहति कट्टु जेणेत्र मणघरे तेणेव उवागच्छ, उता गच्छत्ता मज्जणघरं श्रखुपविस, अपविसित्ता रहाए कपपलिकम्मे कयको उग्रमंगलपायंच्छिते सन्नद्धबद्धवम्भिकषण उप्पी लिसराणपट्टिए पिण्डगेविज्जबद्धवि बिमलवर चिंधपट्टे गहिश्र उहपहरणे अगगणनायगदंडनायग०नाव सार्द्ध संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्ते परिमाणं मंगलजय सदकयालोए मज्जणघराओ पडिक्खिमा, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबद्वाणसाला जेणेव आभिसके हत्थरयणे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता श्रभिसेकं हत्यिरयणं दुरूटे | तर यं से सुसे सेणावई हात्थखंधवरगए सकोरंटमलदामेण इसे धरिज्जमाणे हयगय रहपवरजोहकलिभाए चाउरंगिणीए सेखाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभचटगरपगरवंद परिक्खित्ते महया उकिट्ठिसीहणायबोलकलकलसदेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे करेमाणे सन्धिझीए सब्बज्जुईए सब्वबलेणं०जाव निग्घोसनाइएणं जेशेव सिंधू महाराई तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता मरणं परामुसा, तए णं तं सिरिचच्छसरिसरूवं मुसतार चंदचित्तं भयलमकंप अभेज्जकत्रयं जंतं सलिलासु सागरे उतरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सsuvari जस्य रोहंति एगदिवसेण वाविश्राई, वासं ऊण चकवा परामुट्ठे दिव्वे चम्मरयणे दुवालस जोभणाई तिरियं पवित्थर, तत्य साहित्र्याई, तए एं से दिव्ये चम्मरयणे सुसेसेणावरणा परामुट्टे समाणे विप्पामेष यावाभूए जाए श्रत्रि होत्या, तर गं से सुसेयो सेणा भई सखंधावारबलवाहणे मानाभूयं चम्मरयणं दुरूह, दुरूहिता सिंधु महाराई विमलजलतुंगवीचिं यामाभूषणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिसे, तो महाईमुत्तरित्त सिंधु अप्यहियसासणे असेाई कर्हिचि गामागरण गरपव्ययाणि खेडकव्वडमत्रयि पट्टयाणि सिंहलए बब्बरए श्र सव्वं च मंगलो बलापालोमं च परमरम्मं जत्रणदीवं च पवरमणिरयण कोसागार समिद्धं मारब के रोमके अ अलसंडविसयत्रासी पिक्खुरे फालमुहे जोणए अ उत्तरवेअड्डसंसा Jain Education International भरह श्रमेच्छा बहुप्पगारा दाहिण अवरेण जाव सिंधुसागरतोति सव्वपवरकच्छं च ओअवेऊण पडिणित्तो बहुसमरमणिजे श्र भूमिभागे तस्स कच्छस्स हसिमे ता ते जगत्रयाण गगराय पट्टणाय य जे तर्हि सःमिश्रा पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सन्त्रे घेत्तू पाहुडाई श्राभरणाणि भूमणाणि रयणाणि यवत्थाणि महरिहाणि श्रमं च जं वरिहं रायारिहं जं च इच्छिव्वं एवं सेणावइस्स उवर्णेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुखरवि काऊ अंजलि मत्ययम्पि पणया तुन्भे अम्हेत्थ सामिश्रा देवयं व सरागया मो तुब्धं विसयत्रासिणोति विजयं जंपमाया सेणावणा जहारिहं उत्रिय अविसजिया चित्ता सगाणि गगराणि पट्टणाणि श्रणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणश्रो घेत्तू पाहूडाई आभरणाणि भूतणाणि रयाणि य पुणरत्रि तं सिंधुणामधे उत्तिष्ठे अहसासणवले, तदेव भरहस्स रप ि des, वेत्ता अपणित्ता य पाहुडाई सकारियस - माणिए सहरिसे विसजिए सगं पडमंडव मइगए, तते गं सुसेखे सेणावई एहाए कयबलिक कमको अमंगलपायच्छते जिमिश्रनुत्तरागए समाणे ० जाव सरसगोसीसचंदक्खित्तगायसरीरे उपि पासायचरगए फुट्टमाणेहिं - इंगमत्थहिं बत्तीसवदेहिं गाइएहिं वरतरुणी संपत्तहिं उवयच्चित्रमाणे उवणच्चित्रमाणे उवगिजमाणे उबगिमाणे उवल (लभि ) जमाणे उवलालि ( लभि ) जमाये महयाहयणट्टगी अवाइतं तीन लताल तुडिअ घणमुइंगपडुवाइ अरत्रेणं इट्ठे सद्दफरिसर सरूवगंधे पंचविहेमागुस्साए कामभोगे जमाणे विहरइ । (सूत्रम् ५२ ) 'तर णं इत्यादि निगदसिद्धं, नवरं सुषेणनामानं सेनापति-सेनानी रत्नमिति किमवादीदित्याह - गच्छाहि ' इत्यादि, गच्छ भो देवानुप्रिय ! सिम्ध्वा महानद्याः पाश्चात्यं - पश्चिमदिग्वर्त्तिनं निष्कुटं - कोणवर्त्तिभरत क्षेत्र. खण्डरूपम्, एतेन पूर्वदिग्वति भरत क्षेत्रखण्डनिषेधः कृतो बोध्यः, इदं च कैर्विभाज कैर्विभक्तमित्याह - पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च सिन्धुर्नदी पश्चिमायां सागर:- पश्चिमसमुद्रः उत्तरस्यां गिरिवैताढ्यः, एतैः कृता मर्यादा - विभागरूपा तया लहितम् एभिः कृतविभागमित्यर्थः श्रनेन द्वितीयपाश्चात्यनि कुटात् विशेषो दर्शितः, तत्रापि समानि च समभूभा गवन्तीनि विषमाणि च दुर्गभूमिकानि निष्कुटानि च - श्र वान्तरक्षेत्र खण्डरूपाणि ततो द्वन्द्वस्तानि च - (श्रोभवेद्दि त्ति ) साधय श्रस्मदाज्ञाप्रत्र तेनेनास्मद्वशान् कुरु, अनेन क थनेन प्रथमसिन्धु निष्कुट साधने ऽल्पीय सोऽपि भूभागस्य साधने न गजनिमीलिका विधेयेति ज्ञापितम् एवमेवाखएडपट्खण्डक्षितिपतित्व प्राप्तेः ( श्रवेत्ता) साधयित्वा अ ग्याणि सद्यस्कानि वराणि - प्रधानानि रत्नानि खस्वजा For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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