Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 5
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
View full book text
________________
(१५६३) भुवणतिलय अभिधानराजेन्द्रः।
भुवणतिलय किं च तयं चिय मित्तं, व कमलिणी निच्चमेव झायंती । साहप्पसाहा वि रहंति पत्ता, परिचत्तकुसुमतंवो-लमाइ कह कह वि गमइ दिणे ॥ ११ ॥ तो सि पृष्फंच फलं रसोय ॥३३॥ जा अज्ज वि सा बाला, तणं व न हु चयइ जीवियं निययं । एवं धम्मस्स विणी , मूलं से परमं सुखं । ता तुम्भेहि नरवर!, पुवसिणेहाभिवुहिकए ॥ १२॥
जेण किर्ति सुयं सिग्धं, नीसेस चाभिगच्छह ॥ ३४॥ सहला किज्जउ अम्हा-ण पत्थणा पेसिउं नियं तयणं । इय गुरुवयण पवणं, व वणदवो पप्प सप्प व कूरो। तीए गिराहाधिउजउ, वरलक्षणलक्विनो पाणी ॥१३॥ कोवण धगधगतो, सो अहिययरं समुज्जलिश्रो ॥ ३५॥ अहमइबिलासवरम-तिवदणमवलोयए निवो सो वि। सो अन्नया अकज्ज-म्मि कत्थई चोईओ मुणिहिं पि । विणएण भणह सामिय! जुत्तमिणं कीरउ पमाण ॥ १४ ॥ जाओ भिसं पउट्ठो, इह परलोए य निरविक्खो ॥ ३६ ॥ जं भणह तयं कुणिमु, त्ति निवाणा जंपिए पहाणनरो । सम्वेसि घायणत्य, तालउडविसं खिवित्तु-जलमज्झे। सो पत्तो निवदिन्ने, आवासे फुरियगुरुहरिसो ॥ १५ ॥ सो एगदिसाहुत्तो, सयं पणट्ठो उभयभीओ ॥ ३७॥ तो रनाऽणुनाश्रो, अणेयसामंतमंतिमाइजुनो।
गच्छाणुकंपियाए, य देवयाए तयं कहेऊण । सो कुमरो संचलिश्रो, अखीलयचउरङ्गबलकलिओ ॥ १६ ॥ तप्परिभोगपवत्ता, निवारिया साहुखो सब्वे ॥ ३८॥ संपत्तो महदरं, पहम्मि सिद्ध उरनयरबाहिम्मि ।
सो बच्चतोऽरने, कत्थ वि वणवपलिससघंगो । मुच्छामीलीयनयणो, सो पडिपो रहवरुच्छंगे ॥१७॥ मरिऊण समुप्पनो, परमाऊ अप्पइट्ठाणे ॥ ३६॥ अह मज्झिमखंधारे, सहसा कोलाहले समुच्छलिए । तो मच्छेसुं पुणरवि, नरए तिरिए पुणो वि नरयम्मि ! मिलिश्री अग्गिमपच्छिम-खंधारजणो तहि सव्वो ॥ १८॥ सव्वत्थ दहणछिदण-भिंदणत्रियणादि संतत्तो॥४०॥ तो मंतिमाइणोतं, महुरालावेहि पालवंति भिसं। भमिश्रो भूरि भवेसुं, अनाणतवं करितु किं पि पुरा । कटुंब विगयचिट्ठो, न कि पि पडिजपप कुमरो॥१६॥ जाश्री धणयनरिंद-स्स एस अइवल्लहो पुती ।। ४१॥ पादना ते सव्वे, विविहोसहमंततंतमणिपमुहे।
रिसिघायपरिणएणं,जंच तया अज्जियं प्रसुहकम्मं । पकुणंति बहुवयारे, न य से जायइ गुणो को वि ॥२०॥ तस्सेस वसा इण्हि, एयमवत्थं गो कुमरो॥ ४२ ॥ किं तु पवट्टर अहियं, वियणा विलयंति सयलअंगाई। तो भीपणं कंठी-रवेण पणमित्तु पणियं नाह!। तो मंतिमाइलोश्रो, करुणसरं पलधए एवं ॥२१॥
कह होइ पुणो एसो ?, पउणो पडिभणइ मुणिनाहो ॥४३॥ हा गुणरयणमहोदहि, हा निरुवमविणयकणय कणयगिरे। खीणप्पायं कम्म, इमस्स संपइ विमुच्चमाणा य , द्वा पणयकप्पपायव!, कुमार! पत्तोऽसि किमवस्थ ? ॥२२॥ चिट्ठ वियणाहि इहा-ऽऽगो विमुच्चिाहर सम्वत्तो ॥४४॥ सुयवच्छलस्स देव-स्स किं तु गंतुं वयं कहिस्सामो? ।
इय सोउ मंतिपमुद्दा, लाया हरिसियमणा कुमरपासं । इय जा पलवेइ जणो, सिद्धपुरवहिट्टिउजाणे ॥२३॥ संपत्ता प्रहदिट्ठो, पउणप्पाश्रो तो तेहिं ॥ ४५ ॥ ता सुरकिन्नरसेवि-ज्जमाणचरणो अणेगसमजुत्रो। कहिश्रा केबलिकहियो, पुब्वभवाई य वइयरो तस्स । नामेण सरयभाए, वरनाणी आगो तस्थ ॥ २४५ तो सो भीश्रो पमुइय-मणो य पत्तो सुगुरुपासे॥४६ ।। अमरकयकणयकमला-55सीणो धम्मं कहेड अह तस्थ । नमिउं सूरि कंठीरवाइबहुलोय संजुश्री कुमरो। सो मंतिप्पमुद्दजणो, गो गुरु नमिय उबविट्ठो ॥ २५ ॥ निस मिभीमभवभय-भीनो दिक्त्रं पवज्जे ॥४७॥ श्रह कंठीरवसामं-तपुच्छिश्रो कुमरदुक्खवुतंतं ।
इय सुणिय जसमई विहु, तत्थाऽऽगंतूण गिराहए दिक्खं । तेसिं पाउलभावा, समासी कहइ इय सूरी ॥२६॥
सेसजणो पुण बलिउं, धणपनिवस्साह तं चरियं ॥ ४ ॥ धायसंडे दीवे, भरहे भवणागरम्मि नयराम्मि ।
पुब्बकयअविणयफलं, सुमिरन्तो माणस कुमरसाहू। विदरंतो संपत्तो, इको गच्छो सुगुरुकलिश्रो ॥ २७ ॥
अइसयविणयपहाणा, जाओ अचिरेण गीयस्थो ॥ ४६॥ तत्थ य एगी साहू, वासवनामा सुवासणारहियो।
विणए वेरावच्चे, सो तह दढऽभिग्गहो समुप्पन्नो। गुरुगच्छपश्चणीओ, अइअविणिो किलिट्रमणो ॥ २८॥
जद्द तग्गुणतुट्टेहि, अमरेहि वि संथुप्रो बहुसो ॥ ५० ॥ सो काया वि गुरूहि, भणिो भो भद्द ! होसु घिणयपरो।
तं उबवूहति गुरू, अभिक्खणं महुरनिउणवयणहिं। जम्हा विणएणं चिय, कल्लाणपरंपरा होइ ॥२६॥"
धन्नोऽसि भो महायस!, तुह सहलं जम्म जीयं च ॥५१॥ उक्त च
परिचत्तरायरिमिणा, दमगमुणीसु वि षउत्तविणपणं । "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतशानम् ।
वेयावच्चपरेण य, सच्चवियं ते इमं वयणं ।। ५२।। ज्ञानस्य कलं विरति-विरतिफलं चाऽऽश्रयनिरोधः ॥ ३०॥
पणमंति य पुब्बयरं, कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा । संघरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् ।
पणो पुम्बि इहजई-जस्ल जह चक्कट्टिमुणी ॥ ५३ ।। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तरयोगित्वम् ॥ ३१॥
इय उवहिज्जतो, सो केवलिणा वि फुरियमझत्थो । योगनिरोधाद्भवस-स्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोतः।
पालइ वयमकलंक, बावत्तरिपुव्वलक्खा ॥ ५४ ॥ तस्मात् कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः॥ ३२॥"
सवाउ पुब्बलक्खे, असि परिपालिऊण पजते । तथा
पडिवनपायवगमो , अज्झीणज्माणलीणमणो ॥ ५५ ॥ मूलाउ संधप्पभवो दुमस्स,
उप्पन्नविमलनायो, विलीणनीसेसकम्मसंताणो । खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा ।
सो भुवणतिलयसाह, भवणोवरिमं पयं पत्तो ॥५६॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 1614 1615 1616 1617 1618 1619 1620 1621 1622 1623 1624 1625 1626 1627 1628 1629 1630 1631 1632 1633 1634 1635 1636 1637 1638 1639 1640 1641 1642 1643 1644 1645 1646 1647 1648 1649 1650 1651 1652