Book Title: Vijaydev Mahatmyam
Author(s): Motilal Laghaji
Publisher: Motilal Laghaji
Catalog link: https://jainqq.org/explore/009687/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RST - CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર -: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર વિજયદેવ મહાસ્યમ્ : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजित पृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१ शिल्परत्नम्भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार पर्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ न्यायप्रवेशः भाग - १ दीपार्णव पूर्वार्ध अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः पू. विक्रमसूरिजीम. सा. पू. जिनदासगणिचूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणिम. सा. पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा. पू. पद्मसागरजी गणिम. सा. पू. मानतुंगविजयजीम. सा. श्री बी. भट्टाचार्य श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारतीगोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराजदोशी श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री પૃષ્ઠ 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 028 414 192 824 288 520 578 278 252 324 302 038 196 190 202 | क्षीरार्णव | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર | श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 041. 480 228 043 6o 044 218 190 138 296 2io 049. 274 286 216 052 532 13 112 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦)- સેટ નં-૨ ભાષા કર્તા-ટીકાકાસંપાદક પુસ્તકનું નામ सं सं ક્રમ 055 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय - ६ 056 विविध तीर्थ कल्प 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका જૈન સંગીત રાગમાળા 064 | विवेक विलास 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् 067 ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ 068 | मोहराजापराजयम् 069 | क्रिया 070 कालिकाचार्यकथासंग्रह 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका 060 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश ) 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं 063 | चन्द्रप्रभा मकौमुदी सं 072 जन्मसमुद्रजातक 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध 074 075 शुभ. सं सं જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ गु. सं 4.4.9 सं/गु. सं सं पू. लावण्यसूरिजीम. सा. पू. जिनविजयजी म. सा. शुभ. गु४. पू. पूण्यविजयजी म. सा. श्री धर्मदत्तसूरि | श्री धर्मदत्तसूरि श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | श्री सुदर्शनाचार्य पू. मेघविजयजी गणि श्री दामोदर गोविंदाचार्य पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. पू. लब्धिसूरिजी म.सा. પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 शुभ. पू. हेमसागरसूरिजी म. सा. सं पू. चतुरविजयजी म.सा. सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया सं/गु. श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 सं/ हिं श्री भगवानदास जैन 128 सं/ हं श्री भगवानदास जैन 532 श्री हिम्मतराम महाशंकर जान 376 श्री साराभाई नवाब 374 638 192 428 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 076 | જન વિને જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 114 08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં | ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ 238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ 194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ 192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ 260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ 238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ 260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી 910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી 336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી | 230 સં. | પૂ. મે વિનયની પૂ.સવિનયન, પૂ. पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560 088 . 322 114 089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 272 92 240 93 254 282 95 118 466 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ | भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 342 98 362 134 70 101 316 224 612 307 250 514 107 454 354 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 सं./हि 337 110 सं./हि 354 111 372 112 सं./हि सं./हि सं./हि 142 113 336 364 सं./गु सं./गु पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा 218 116 656 122 जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ । विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा 117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५ कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन __ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम् जिनविजयजी 764 सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु 404 404 121 540 रॉयल एशियाटीक जर्नल 274 रॉयल एशियाटीक जर्नल 41 124 400 अं. रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक 125 320 148 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला विजयदेव-माहात्म्यम् सम्पादक भिक्षु जिन विजय Ahol Shrutgyanam Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जैन समाजना उत्कच्छु अने एकनिष्ठ आराधक एवा जे आचार्यना तेजस्वी अने तपस्वी जीवनप्रस्तुत ग्रन्थमा माहात्म्य वर्णवामां आव्युं छे तेवा ज माहात्म्यने अनुरूप एवा वर्तमान समयमा विचरता तथा जैन समाजना उत्कर्षनी एकनिष्ठ आराधना करता आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभसूरि ना तपस्वी अने तेजस्वी जीवनने सादर समर्पित -जिन विजय Ahol Shrutgyanam Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क-९ श्रीश्रीवल्लभपाठक-विरचितं विजयदेव-माहात्म्यम् (प्रथम भाग-मूलमात्र) R संशोधक तथा संपादक भिक्षु जिन विजय [ आचार्य-गूजरात पुरातत्व मन्दिर-अमदावाद] प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक समिति मारफत मर्दुम रा. बा. गीरधरलाल उत्तमराम पारीख बी. ए. एलएल. बी. ना टूस्टीओ अमदाबाद Edited by Muni Jin Vijayaji Jaina Sahitya Samsodhaka Karyalaya Ahmedabad and Published by K. P. Modi the trustee of late R. B. Girdharlal Uttamran Parikh Haja Patel's Pole Ahmedabad and Printed at the Diamond Jubilee Printing Press, Salapose Road Ahmedabad by Devidas Chhaganlal Parikh. 1928. Ist Edition. 500 Copies. वि. सं. १९८४ [मि. सं. १९२८ Aho I Shrutgyanam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक आ विजयदेव माहात्म्य १७ मा सकाना जैन धर्मना इतिहासनी दृष्टिए एक घणो उपयोगी ग्रन्थ छे. जैन आचार्योमा विजयदेवसूरि ए छेला प्रभावशाली आचार्य गणी शकाय. एमना समयमां जैन यति समुदायमां अने श्रावक वर्गमा घणी घटनाओ अने क्रान्तिओ थई. धार्मिक अने सामाजिक परिस्थितिना अवलोकननी दृष्टिए ए घटनाओनो इतिहास घणो रोचक अने सूचक छे; तेथी ए आखो इतिहास आ ग्रन्थना बीजा भागरूपे प्रकट करवानो विचार राख्यो छे, तेमां आ आखा ग्रन्थनो सार आपवामां आवशे अने ते साथै विस्तृत ऊहापोह करवामां आवशे. ग्रन्थकार श्रीवल्लभ पाठकनो परिचय पण तेमां न अपाशे. तेथी आ भाग केवल मूल ग्रन्थ तरीके ज प्रकट कराय छे. - जिन विजय નોંધઃ—આ ગ્રંથનું છપામણુ ખ, અમદાબાદ નિવાસી મર્હુમ રા. ખા ગિરધરલાલ ઉત્તમલાલ પારેખે . શેઠ પ્રેમચંદ દાલતરામના સ્મરણાર્થે મુકેલ રકમમાંથી, તેના ટ્રસ્ટીએ તરફથી આપવામાં આવ્યું છે. મર્હુમની ઇચ્છાનુસાર આ પુસ્તક, એના ચેાગ્ય અભ્યાસીઓને વિના મૂલ્યે આપવાનું ઠરાવ્યું છે. તેથી ગ્રંથ મેળવવા ઇચ્છનાર, વકીલ કેશવલાલ પ્રેમચંદ માદી, હાજાપટેલની પાળ, अभट्टामादृ; એમના ઉપર પાછું જ પુરતું ખર્ચ માકલી મેળવી શકશે. --व्यवस्थाप5. Aho ! Shrutgyanam Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् । ॐ ॥ श्रीतपागच्छाधिराज भ० १९ श्रीविजयदेवसूरिगुरुभ्यो नमः ॥ स्वस्तीव स्वस्तिसंपृक्तं स्वस्तीव स्वस्तिकारकम् । वर्द्धमानं जिनं नौमि जगतः परमप्रियम् ||१|| १-एँ नमः | व्याख्या- अहं वर्धमानं जिनं नामीति क्रियान्वयः सुगमः । कथम् ०? वर्धमानं स्वस्तिसंपृक्त - स्वस्ति-कल्याणेन, संपृक्तो-मिलितो, य स तथा तम् । किमिव ? स्वस्तीव-स्वस्तिशब्द इव । कथंभूतं स्वस्ति ? स्वस्तिसंपृक्तं स्वस्ति कल्याणमित्यर्थेन मिलितं व्याप्तं यत्तत्तम् । तथा तत्रबस्तीत्यस्यार्थस्य कल्याणापरपर्यायस्य स्वस्तिशब्द एव विद्यमानत्वात् । न तु घटादौ शब्दवृन्दे, घटादिशब्दानां अपरपदार्थवाचकत्वात् । न च कल्याणादिशब्दवृन्देऽपि, कल्याणादिशब्दवृन्दस्य स्वस्तिशब्दस्य पर्यायान्तरवाचकत्वात् सुवर्णादीनामपि पर्यायवाच । केनापि 'कल्याणमस्तु' इत्याशीर्वचने निवेदिते स्वर्णमस्तु इत्यप्यर्थप्रतीतेः । पुनः कथंभूतं वर्धमानं ? स्वस्तिकारकं - कल्याणकारकम् । किमिव ? स्वस्तीव-स्वस्तिशब्दवत् । यथा स्वस्तिशब्दः केनाप्युच्चरितः श्रुतः सन् 1 स्वस्तिमतोऽस्वस्तिमतो वा यस्य कस्यचित् स्वस्तिकारीस्यात्, तथा वर्धमानजिनोऽपीति । स्वस्तीव इत्युभयेोरुपमापदयोः स्वस्ति इत्यत्र अकृतशब्दनिर्देशत्वात् अव्ययत्वात्; द्वितीयविभक्त्येकवचनलेापः विभिन्नलिङ्गवचनानामिति वाग्भटवचनात् । भिन्नलिंगोपमां बुत्राः कापि प्रयुञ्जते तथापि लिंगभेदं तु मेनिरे; इति वाग्भटेन तत्रैव कथितत्वात् । मुखं चन्द्रमित्रालोक्य इत्यायुदाहरणवत् । नपुंसकलिङ्गेोपमादोषोऽपि नेति । नतु पुंल्लिङ्गत्रीलिङ्गशब्दान् विहाय आदित एक अध्ययशब्दप्रयोगे किं प्रयोजनम् । अव्ययशब्दानां नपुंसकलिङ्गत्वात् । नपुंसकस्य कार्यकरणे अवीर्यत्वात् इति चेन्मैवम्- 'प्रशब्दश्चाथ शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्मङ्गलवाचकौ ॥ १ ॥ इति प्राचां वचनात्; प्राथादिशब्दवत् स्वस्तिशब्दस्य नपुंसकलिङ्गत्वेऽपि मङ्गलवाचक कारकत्वाभ्यामवश्यं सवीर्यत्वात् स्वस्तीत्यस्य अव्ययस्य नपुंसकस्य प्रथमतः प्रयोगो न दोषायेति । अथवा 'सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु' इत्युक्तत्वात्, अव्ययानां त्रिपि लिङ्गेषु समानरूपत्वात्, इह स्वस्तीत्यनयोः उभयोरुपमापदयोः पुंल्लिंगद्वितीयैकवचने मवावसेयमिति । तथा स्वस्तीत्यत्रोभयत्र अव्ययोपमापदयोः प्रयोगे - ' सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् ॥ १॥' इत्युक्तत्वात् । यथा अव्यय शब्दो लिङ्गादिषु कदापि न व्येति तथा एतच् श्रीविजयदेवमाहात्म्यनामकं काव्यमपि । स्वस्तिमत्त्वं कर्तृश्रोत्र ध्येतुप्रभृतीनां स्वस्तिकर्तृत्वे च न व्येतीति कवेरभिप्रायः । पुनः कथंभूतं वर्धमानं जिनं ? जगतो लोकस्य परमप्रियं प्रकटार्थमेतदुभयोर्विशेषणं इति श्लोकार्थः ॥ १ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [प्रथमः माहात्म्यं पूर्वमरीणामतिशेतेऽत्र भ्रतले । विजयदेवसूरीणां माहात्म्यमधिकं सदा ॥२॥ विजयदेवमाहात्म्यं वयेतेऽत्र यतोऽद्भुतम् । विजयदेवमाहात्म्यं नाम काव्यं ततः स्मृतम् ॥३॥ विजयदेवमाहात्म्यनाम काव्यं कविप्रियम् । श्रीवल्लभ उपाध्यायः कुरुते स्वार्थसिद्धये ॥४॥ विजयदेवसूरीणां प्रगुणाः सद्गुणा गुणाः। विदिता अवदाताश्च प्रेरयन्ति यतोऽत्र माम् ॥५॥युग्मम् भास्वच्छ्रीभारते क्षेत्रे, धरालङ्करणं सदा । पुराणां भाति राजेव श्रीईडरपुरं पुरम् ॥६॥ तत्र श्रेष्ठी स्थिरो नाम श्रेष्ठश्रेष्ठिशिरोमणिः । ऋद्धिमान भूपतेः प्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वप्रतिष्ठया ॥७॥ रूपानाम्नी सुरूपा स्त्री तस्यासीच्छुभलक्षणा । विनयादिगुणोपेता रूपवत्स्वप्रियपिया ||८|| एतौ जायापती भोगान् शचीशकाविवानिशम् । अमुजातामयुञातां रतिप्रीतीव चेतसि ॥९॥ सुखसुप्तैकदा रूपा स्वमे सिंहं व्यलोकयत् । एतत्मभावान्मे पुत्रो भावी चेति व्यचिन्तयत् ॥१०॥ उत्थाय प्रातराहेति पति प्रति पतिव्रता । अद्यापश्यमहं रात्रौ स्वप्ने सिंहं सह श्रिया ॥१२॥ इति श्रुत्वा वचस्तस्याः स्थिरः स्थिररतिः पतिः। अभवच्छुभवद्वाक्यं श्रुत्वा प्रीतो भवेन्न कः?| पतिः पत्नी प्रति प्राह तव पुत्रो भविष्यति । सूर्यवद्भुवि तेजस्वी सर्वसर्वसहाधिपः ॥१३॥ ५-प्रगुणाः प्रकृष्टाः अन्यसूरिजनापेक्षया, क्रोधाक्रोशगालिप्रमुखप्रतिकूलदोषरहितत्वात् , एकैकतोऽधिकत्वाच; गुणा भयानकमनोहरत्वादयो येषां ते प्रगुणाः । गुणाः शौयौदार्यसौन्दर्यशौण्डर्डोर्यादयः । पडिरूवो १ तेयस्सी २' इत्यादयः षट्त्रिंशत्सूरिसम्बन्धिनः, सप्तविंशतिः साधुसम्बन्धिनो वा । कथंभूताः गुणाः सद्गुणाः सन्तो विद्यमानाः सत्याः प्रशस्याः अर्चिता वा; पूर्वसूरीणां अपरसाधुजनानां च गुणानामपेक्षया सुभगत्वादयस्तत्तद्गुणप्रतिकूलाऽसुभगत्वादिदोष. रहितत्वात् ; येषां ते सद्गुणा इति गुणविशेषणं युक्तम् ॥५॥ ६-श्रीईडरपुरमित्यत्र सन्ध्यऽकरणं प्रकटावबोधार्थ, सन्धौ हि डरपुरमित्यनिष्टनामाशङ्कानिरासार्थ च; विवक्षितत्वात् सन्धेः, 'भो भगो अघो अपूर्वस्येति ' पाणिनीयसूत्रवत् ; 'अइउऋल समाना' इति सारस्वतसूत्रादिवत् । अहं पूर्वो अहं पूर्व इत्यहंपूर्विका खियामिति गौडवचनवञ्च । न चान सहितकपदे नित्या' इति कथनात् श्रीईडरपुरमित्यकेपदत्वात् नित्यसन्धिविधानाशङ्का करणीया; भो भगो अघो अपूर्वस्येत्यस्यैव एकपदवे सत्यपि सन्धेरकरणे ज्ञापकात् । श्रीईडरपुरं पुरं क इव राजेध ! कथंभूतो राजा ? सदा धरालङ्करणं पृथिव्या अलङ्कारः । अलकरणशब्दस्य अजहल्लिङ्गत्वात राज्ञो विशेषणे नपुंसकवचनं न दुष्टम् । पुरविशेषणे तु पुरशब्दस्य नपुंसकत्वात नपुंसकवचन विशिष्टमेवेति ॥६॥ ८-रूपवत् सौन्दर्यमिव नाणकमिव वा यथा सौन्दर्य नाणकं वा वल्लभं भवेत् तथा रूपा नानी स्यपि । १३-सर्वस्याः सर्वसहायाः पृथिव्याः अधिपः स्वामी सर्वसर्वसहाधिपः। Aho I Shrutgyanam Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् पत्युक्तं वच ईदृशं श्रुत्वा सा मुमुदे हृदि । मम स्वामिन् मुतो भावी वेग्रीति प्रागचिन्तयम् ।। पत्या सार्धं शुभान् भोगान् देवतास्पर्द्धयेव किम् । भुनाना प्राधरद्गर्भ सा ततस्ततचित्तमुत् ।। उत्सवेन सुखेनापि निराबाधतया तथा । तस्याः कुक्षौ सरस्यां सन् गर्भः पद्म इवैधत ॥१६॥ धर्मकर्माणि कुर्वन्ती पूरयन्ती च दोहदान् । गर्भयोग्यानि भोज्यानि भुञ्जाना चाप्यवर्तत ।। चतुर्विंशत्तमे वर्षे षोडशस्य शतस्य हि । पौषे मासे सिते पक्षे त्रयोदृश्यां दिने रवौ ॥१८॥ नक्षत्रे रोहिणीनाम्नि सम्यगयोगसमन्विते । सर्वांस्वाशासु सौम्यासु निष्पन्नान्नावनीषु च ॥ स्थिरे वरे वृष लग्ने शोभमाने शुभग्रहैः । उच्चस्थानस्थितैः सर्वैः स्वस्वस्वामिभिरीक्षिते ॥२०॥ परिपूर्ण तथा सार्ध नवमासावधौ शुभे । पुत्र प्रास्त सा पूतजाग्रज्ज्योतिस्तनूदयम् ॥२१॥ निरातङ्का निरातकं निश्शोका शोकवर्जितम् । सुभगा सुभगं सौम्या सौम्याकारं सुखाकरम्॥ -पभिः कुलकम् । स सदोचितवालाख्यगोत्रोदयकरोऽसुरत् । जगज्ज्योतिष्करोऽगारान्तःस्थः खस्थोऽयमेव हि ।। अगायन् जन्मयोग्यानि गीतानि च सुयोषितः । वाद्यान्यऽवादयच् श्रेष्ठी विविधानि दिवानिशम्।। ततः प्रातः स्थिरश्रेष्ठी समाहूय महाजनान् । तेभ्योऽदानालिकेराणि सुतजन्म प्रियं यतः॥२५ अभूजयजयाकारः सारः श्रेष्ठिस्थिरालये । आत्मसम्बन्धिनश्चान्ये लोका उदसर्वस्तदा ॥२६ १५-भोगान् शब्दादीन् भुजाना अनुभवन्ती । भुजाना इत्यत्र 'ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्' इत्यानश् ताच्छील्यार्थः । १६-पद्मशब्दः कमलवाची पुनपुंसकलिङ्गत्वात् पुल्लिङ्गो व्याख्येयः। १७-दोहदशब्दः पुनपुंसकः । २३-स वालोऽसुरत् अशोभत । कथंभूतो बालः ? सदा उचितबालाख्यगोत्रोदयकरः । कथंभूतः स बालः ? अगारान्तःस्थः सन् गृहमध्यस्थितः सन् जगज्ज्योतिष्करः । क इव ? उत्प्रेक्ष्यते; हि निश्चयेन खस्थः आकाशस्थितः अर्थमेव सूर्य इव । कथंभूतः सूर्यः ? सदा उचितबालाख्यगोत्रोदयकर:-उचिता योग्या बाल: प्रथमतस्तत्कालोद्गतत्वात् बालक इत्याख्या नाम यस्य सः उचितबालाख्यः तत्कालोद्गतः सूर्यों बाल एवोच्यते । गोत्रे अर्थाद् उदयाचले । उदयं उद्गमनं करोतीति गोत्रोदयकरः । उचितबालाख्यश्चासौ गोत्रोदय करश्चेति कर्मधारये उचितबालाख्यगोत्रोदयकरः । पुनः कथंभूतः अर्यमा ? जगज्ज्योतिष्करः । २५-तेषां सन्नालिकेराणि, ददौ यद्वल्लभः सुतः इति पाठान्तरम् । २६-मुं प्रसवैश्वर्ययोः, गतावप्येके; स्वादिः परस्मैपदी इत्यस्य अनद्यतनी प्रथमपुरुषबहुपचन उपसबन उत्सवान् चरित्यर्थः । तदर्शयति Ahol Shrutgyanam Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभोपाध्याय विरचितं [ प्रथमः I aai गृहीत्वा योषितो यान्तु तद्गृहम् | सद्गीतानि च गायन्तु स्थिराङ्गजजनितः ॥ २७ ततोऽह्नि पञ्चमेऽर्कस्य दर्शनं शशिनो निशि । कारयामासतुस्तस्य पितरौ परमोत्सवात् ||२८|| एवं जन्मोत्सवे दिव्ये जायमाने दिवानिशम् । आजगाम श्रियां धाम दशमं सुदिनं दिनम् ॥ सगोत्रानादरात्तत्र निमन्त्र्य च महाजनान् । भक्तितो भोजयामास मृष्टानं लप्सिकादिकम् ॥ तेषामिभ्यः ससभ्यानां नालिकेराण्यदात्ततः । चिरं जीव्यादर्यं बालो ददुरित्याशिषं च ते ॥ ३१ सत्यस्मिन् सदा लक्ष्मीर्बलवांथ कुमारवत् । इति वासकुमारोऽयं पिता नामावदत्तदा ॥ ३२ दिव्यदेवाङ्गनं चाथ जलयात्रां महोत्सवात् । पुत्रस्याकुरुतां रूपं पितरौ प्रीतचेतसौ ॥ ३३ ॥ एवं जन्मोत्सवं तस्य कृत्वा तुतुषतुस्तराम् । पितरौ च तथैवान्ये तुतुषुर्नागरा नराः ॥ ३४ ॥ अथ वासकुमारोऽसाववर्धत दिने दिने । कलारूपप्रतापाद्यैर्द्वितीयाचन्द्रमा इव ॥ ३५ ॥ श्रीमान प्रसादनीयच सुरम्यो दर्शनीयकः । प्रतिरूपो ऽभिरूपश्च कलाकलितपुद्गलः ॥ ३६ ॥ — युग्मम् ॥ धात्रीभिः पञ्चभिः सम्यक् पाल्यमानो दिवानिशम् । स प्रापत्सप्तमं वर्षे पठनार्ह सदा शिशोः || शुभे मासे सिते पक्षे वारे वरे तिथौ । मुमुहूर्ते शुभे लग्ने सुयोगे सुदिने दिने ॥ ३८ ॥ कृत्वा महोत्सवं दिव्यं गजाश्वादि विराजितम् । नानाप्रकारवाद्यानां शब्दसन्दोहसुन्दरम् ॥ कान्तासन्ततिसंगीतगीताद्भुतविधायकम् । गीयमानयशः कीर्ति विबुधैर्मागधादिभिः ॥ ४० ॥ विद्वदध्यापकाभ्यासे पिताऽध्यापयति स्म तम् । विद्याः सोऽधीतवान् सर्वाः पूर्वाश्रीत इवैव यत् ॥ चतुर्भिः कलापकम् | rataeda तं विलोक्य विनयान्वितम् । पितरौ सममोदेतां तस्मिवास्निह्यतांतराम् ||४२॥ み २९ - सुदिनशब्द : शोभनपयार्यः । ३१ - तेषामित्यत्र सम्प्रदानाभावान्न चतुर्थी । ३३- प्रशस्त कुरुतामिति अकुरुतां रूपम् । ३६ - प्रसादनीयः पश्यतां जनानां मनःप्रसन्नताकारी । सुरम्यः सुष्ठु रमणीयः । दर्शनीयकः पश्यतां जनानां नेत्राणां न श्रमकारकः । प्रतिरूपः पश्यन्तो लोकाः पृथक् पृथक् प्रतिबिम्बमिव पश्यन्ति । अत एव अभिरूपो मनोहरः । अत एव कलाकलितपुद्गलः कलासहितशरीरः । असौ वासकुमारी द्वितीया चन्द्रमाश्च एभिर्विशेषणैः सदृशौ ऐघेतामित्यर्थः । कुमारपक्षे कलाकलित पुलः विज्ञान कौशलान्विततनुः । चन्द्रपक्षे षोडशांशान्विततनुरित्यर्थः । Aho ! Shrutgyanam Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवमूरि-माहात्म्यम् नव्यो नव्योऽभवत्स्नेहः पुत्रे पित्रोः क्षणे क्षणे । पितृपुत्रदशां वक्तुं नाशक्नोत्कोऽपि पण्डितः ।। अप्रमाणे तथागाधे पुत्रप्रेमसरोवरे । पितरौ रसिकावास्तां हंसाविव निरन्तरम् ॥ ४४ ॥ श्रीमद्वासकुमारस्य दर्शने जनचेतसाम् । इच्छा न घटतेऽक्षीच्छा लभते च श्रमं न हि ॥ ४५ ॥ दिव्यं वासकुमारास्यपद्मं लोका व्यलोकयन् । वरं रूपरसं चैव प्रापिबन् भ्रमरा इव ॥ ४६ एवं वासकुमारजन्मन इमं रम्योत्सवं सोत्सवाः, श्रुत्वा धर्मविधायिनो भविजना धर्मे कुरुध्वं रतिम् । श्रीमद्वासकुमार उत्तमकुलं पुण्याद् यथा चोत्तमाद्, दिव्याः सम्पद आपदापदयुता यूयं यथा प्राप्नुत ॥ इति श्री बहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरि सन्तानीय पाठक श्रीज्ञान विमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातशाह श्रीअकब्बर प्रदत्तजगद्गुरु-बिरुद. धारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कार पातिशाहि श्रीअकब्बरसभासंलब्ध दुर्वादिजयवाद भट्टारक श्री विजयसेनसूरीश्वर पट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीर प्रदत्तमहातपाविरुधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णन प्रबन्धे श्रीविजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसरि जन्मोत्सववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ ४३-पितृपुत्रदशां पिता च पुत्रश्च पितृपुत्री तयोर्दशां व्यवस्था पितृपुत्रदशाम् । तत्र पितृदशा नवनवोत्सवकरणभव्यभव्यबहुमूल्यवस्त्रसुवर्णालङ्कारादिवितरणपरमप्रेमधरणलक्षणाम् । पुत्रदशां विविधचाणक्यादिराजनीतिशास्त्राद्यध्ययनविनयशौर्योदार्यसौन्दर्यशौण्डीर्यचातुर्यादिलक्षणामवस्थाम्। कोऽपि पण्डितो वक्तुं न शक्नोत् न समर्थोऽभवत् । ४४ हंसाविति हंसश्च हंसी च इति द्वन्द्वे पुमान् स्त्रिया इत्यनेन सहोक्तौ पुंसः शेषे हंसौ इति सिद्धिः । यथा ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणो तथा हंसावित्यपि । ४५-घटचेष्टायां चेष्टा ईहा भ्वादौ घटादिः, घटादीनामनेकार्थत्वाहीहार्थोऽपि घटति(तुरत्र होनार्थो ज्ञेयो न ईहार्थः । ततोऽयमर्थः-न घटते वर्धते इत्यर्थः । ४७-आपदिति आप्नु व्याप्ती लित्वादप्रत्यये प्रथमपुरुषकवचने सिद्धमित्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं द्वितीयः द्वितीयः सर्गः अथ वासकुमारस्तद् भोगाई पाप यौवनम् । यस्मिंस्त्यजति सच्छीलमर्यादां मौनयौवनम् ।। मोमुह्यन्ते जना भोगे संसारारण्यचारिणः । यल्लब्धांभसि मोहेन मृगतृष्णां मृगा इव ॥२॥ दुष्करं सुकरं कर्म मुकरं च तृणोपमम् । यल्लम्चा देयमत्तोऽपि मयोऽतिमदमत्तवत् ॥३॥ इन्द्रियाणि सुरम्याणि विकसन्ति दिने दिने । यस्मिन् सूर्योदये किं न पद्मानीव सुखाय तत् ॥४॥ ईदृशं यौवनं प्राप्तो जयदत्त इवाबभौ । श्रीमान् वासकुमारः स रूपवद् रूपमेव यः ॥ ५॥ अथ पुण्यात्मने तस्मै महान्तो व्यवहारिणः । ददुः कन्या जगन्मान्या लावण्यादिगुणैः शुभैः॥ तथाप्येकस्य सभ्यस्य महेभ्यस्य यशस्विनः । कन्यामनन्यसौजन्यलावण्यां पुण्ययौवनाम् ॥७॥ दृष्ट्वा प्रीतावभूतां तत् पितरौ तद्गुणेरितौ । विज्ञायात्मीयपुत्रस्य योग्यां सौभाग्यसम्पदम्॥८॥ विवाहयितु कामौ तौ तां च तत्पितराविति । अयाचेतामिमां कन्यां दत्तमस्मत्सुताय हि ॥९॥ तदा च पितरौ तस्या अब्रूतां विनयादिति । अनयोरस्तु वीवाहः उभयेषां सुखावहः ॥१०॥ श्रुत्वेतीत्वं स्थिरः श्रेष्ठी वचः कन्यापितुः शुचि । आननन्द हृदानन्ददायी पाणिग्रहो न किम् ॥ एवं वीवाहसद्वार्ता व्यदधातां परस्परम् । प्रेमतो जातरोमाञ्चौ पितरौ पुत्रकन्ययोः ॥१२॥ स्वयं वासकुमारोऽथ प्रत्यबुध्यत सन्मतिः । प्रत्येकबुद्धवच्छुद्धसिद्धान्तोदितधर्मवित् ॥ १३ ॥ १-मानं च मुनिसमूहः यौवनं च युवतीनां समूह इति समाहारद्वन्द्वे मौनयौवनम् , रुषीणां समूहो युवतीनां समूहश्च यस्मिन् यौवने वयसि सच्छीलमर्यादां त्यजति । मुनीनां समूहो वृन्दं मौनं यौवनमिति चन्द्राचार्याद्यभिप्रायेण; वस्तुतस्तु तद्वितप्रत्ययोत्पत्तेः प्रागेव पुंवद्भावेन भवितव्यम् ; ततो युवतीनां समूहो यौवनं भिक्षादेरित्यणि जामिश्चणिनद्वितयत्वरे इति पुंवद्भावेतीति वर्णलोपे यौवनं चतुर्थवर्गपञ्चमांतोयम् । यत उक्तवान् भाष्यकार:-भिक्षादिषु युवतिग्रहणानर्थक्यं पुंवद्भावस्य सिद्धत्वात् । प्रत्ययविधाविति यथा-'सुरूपमत्तिनेपथ्यं, कलाकुशलयौवनम् । यस्य पुण्यकृतः प्रैष्यं, सफलं तस्य गौवनम् ।।' इति । ५-रूपवत् मनुष्याकारधारि रूपमेव सौन्दर्यमेव ! ८-वपितरौ वासकुमारस्य मातरपितरौ तद्गुणेरितो तस्याः कन्यायाः गुणा सौजन्यादयस्तैरीरितौ प्रेरिती यौ तौ तद्गणेरितौ । ९-तौ श्रीवासकुमारस्य पितरौ कर्तृपदमेतत् , तत्पितरौ तस्याः कन्यायाः पितरौ तपितरौ तौ तथा कर्मपदमिदं तां कन्यां इति अयाचेतां याचतिर्धातुर्दिकर्मकः इतीति किं इमां कन्यामस्मत्सुताय दत्तम् । त्रिभिर्विशेषकम । Ahol Shrutgyanam Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् धर्मात्पाति नरो राज्यं छत्रं शिरसि सन्धरन् । पापात्तस्य भवेद्दासो धावस्तद्वाजिनः पुरः॥ संपद्यन्ते मदोन्मत्ता हस्तिनश्च महाहयाः । धर्मात्पापाच जायन्ते तद्रजोहारिणो नराः ॥ १५ धर्माद्धनानि भूयांसि सेवकांश्च सुखावहान् । नरा मन्दिरमध्यस्था लभन्ते खेदवर्जिताः ॥१६ देशान्तरे भ्रमन्तोऽपि न लभन्ते धनांशकम् । पुरुषाः पौरुषं भूरि कुर्वन्तः पापतः सदा ॥१७ धर्मादेवो नरश्चैव जायते रोगवर्जितः । पापात्तिर्यङ् सदा दुःखी नरके शोकसंयुतः॥१८॥ धर्माधौं क्षयं नीत्वा हत्वा कर्माष्टकं तथा । अपवर्गमेवाभोलि मानवो निरुपद्रवः ॥ १९ ॥ इति चेतसि निश्चिन्य धर्माधर्मफलद्वयम् । परित्यज्याशुभं पापं कुर्या धर्म शुभं सदा ॥२०॥ दानं शील तपश्चैव भावना च भवापही । मुख्या धर्मस्य चत्वारः प्रकारास्तीर्थकुन्मताः ।।२१ कुर्यामेतान् विशेषेण विशेषसुखदायकान् । यथा लभेय सत्सर्गापवर्गानन्दसम्पदः ॥२२॥ दानं ददेय सानन्दो बहुधर्षिभ्य आदरात् । पालयेयं सदा शीलं सुशीलो लीलयान्वितः ।। व्यपोहति कृतं पापं दुर्गतिं यच्च लुम्पति । ददाति सम्पदः सर्वा विदध्यां तत्तपोऽप्यहम् ॥२४॥ कुर्वतस्विविध धर्ममिममहत्मरूपितम् । भावयेयमिमे धन्या नरा इति च चेतसि ॥ २५॥ विचिन्त्येत्यात्मनचित्ते तदा वासकुमारकः। नाभ्यमन्यत कन्याया विवाहं विषयी न यत् ॥२६॥ वैराग्यरङ्गमापन्नस्तन्नटो धर्मताण्डवम् । चिकीर्षुः पूर्वतो दानपूर्वरङ्ग व्यधात्तदा ॥२७॥ अथ पुत्रं पिता पाह-पुत्रास्मत्पीतिहेतवे । विधेहि सन्ततेवृद्धचै कन्यावीवाहमुत्सवान् ॥२८॥ सन्ततिः परमो धर्मो गृहस्थानां विशेषतः । यतस्सा कथिता पूर्वः पूर्वेषां पावनक्षमा ॥२९॥ त्रयोविंशतिरहन्तः परिणीतवरस्त्रियः । संजातानेकपुत्राश्च प्रान्ते प्रापुः शिवश्रियम् ॥ ३०॥ वर्धमानजिनः पूर्व विजहारतरां निशि । प्रागदीक्षितसच्छिध्यः शिष्यसन्ततिहेतवे ॥३१॥ एवं त्वमपि पुण्यात्मन् परिणीय वरस्त्रियम् । भुक्ष्व भोगान् नृणां योग्यान् ततोनु त्वं परिव्रजेः ।। २३-ददि दाने भ्वादिरात्मनेपदी विधिनिमन्त्रणेति लिङि उत्तमपुरुषैकवचनम् । ददीयेति पाठे डुदा दाने अदादौ जुहोत्यादिरुभयपदी तत आत्मने पदे लिङि उत्तमपुरुषकवचनम् । २७-तदः तन्नटो धर्मताण्डवं चिकीर्षुः पूर्वतो दानपूर्वरङ्गं व्यधात् इत्यन्वयः । स एव वासकुमार एव गटस्तन्नटः, धर्म एव ताण्डवं नर्तनं धर्मताण्डवं चिकीर्षुः पूर्वतः प्रथमतः दानपूर्वरङ्गं दानमेव पूर्वरङ्गः-गीत ? नृत्य २ वाद्यानां ३ त्रयाणां प्रारम्भः दानपूर्वरङ्गस्त व्यधात् अकरोत् । कथंभूतः सन् तन्नट:-वैराग्यरङ्गं वैराग्यमेव रजो नाट्यस्थानं वैराग्यरङ्गस्तं आपन्नः प्राप्तस्सन् । यथा नटो नाट्यस्थानं लब्ध्वा नर्तनं चिकीर्षुः प्रथमतः गीत १ नृत्य २ वाद्यानि ३ त्रीणि प्रारभते तथा वासकुमारोऽपि वैराग्यरङ्गं प्राप्तो धर्म चिकीर्षुः दानमादितो ददौ इत्यर्थः। Aho I Shrutgyanam Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित द्वितीयः वचोभिर्विविधैरेवं प्रोक्तैः पित्रातिरागतः । नाभ्यमन्यन वीवाहं स कुमारः कुमारवत् ॥ ३३ ॥ एवं मात्रादिभिलोंकैर्वन्धुभिस्स निवेदितः। नाङ्गीचकार वीवाहं शीलवतधृतिर्यतः ॥ ३४॥ लक्ष्मी यशः प्रतापं च माहात्म्यं चाप्यरोगताम् । नरःप्रामोति शीलस्य प्रभावाद्वाञ्छितं यथा ॥ शीलप्रभावतो हेला सकलात्र टलेद्भुवि । उत्पद्येत सदा सौख्यं दुःखमात्रं कदापि न ॥ ३६॥ पालयेदमलं शीलं यो नरः शीलपालकः। वशीभवन्ति तस्याशु देवाः सर्वे च मानवाः ॥ ३७॥ अनेके सन्ति दातारो ऽनेके सत्पुरुषा अपि । तपस्विनोऽप्यनेके च न कश्चित् शीलपालकः ।। तपस्विनो महान्तोऽत्र लोके द्वैपायनादयः । श्रूयन्ते तेऽपि च भ्रष्टाः शीलतः कीलिता इव ॥ दानतस्तपसोऽप्युग्रात् भावनायाश्च धर्मतः । ज्ञात्वा सुदुष्करं शीलं यतध्वं तत्र पण्डिताः ॥४०॥ ब्रह्मचर्यव्रते सम्यक् पालिते पालितानि यत् । शेषव्रतानि चत्वारि महान्ति यतिनामपि ॥ महाव्रतानि पञ्चैव पालनीयानि यत्नतः । स्वर्गापवर्गसौख्यानां दायकानि यतः किल ॥४२॥ चारित्रग्रहणात्तानि पालयेयुर्मुमुक्षवः । मनोवचाकायशुद्धया विनातीचारसंचरम् ॥ ४३ ॥ विचिन्त्येति च निश्चित्य स्वचित्ते शीलपालनम् । अङ्गीचकार चारित्रग्रहणं स कुमारकः॥४४॥ पित्रोरग्रे ब्रवीतिस्म विनयात्समुदैकदा । यद्याज्ञा भवतोम स्याद् गृह्णीयां चरणं तदा ॥ ४५ ॥ पुत्ररत्न किमीदृक्षमिदं वदसि कद्वद । बाल्ये क्यसि चारित्रग्रहणं युज्यते कथम् ॥ ४६॥ दुःखरक्ष्योदिता दीक्षा मुमुक्षूणां जिनेश्वरैः । सा ग्राह्या वार्धके प्रान्ते भुक्तभोगैर्नृभिः खलु ॥ क्षुत्पिपासादयो यस्यां द्वाविंशति परीषहाः। यादृशैस्तादृशैः पुंभिस्सहनीया न दुस्सहाः॥४८॥ क्षमः सोढुं कथं त्वं तान् कथं तांश्च सहिष्यसि । बाललीलाकलाशीली यतः कोमलपुद्गलः ॥ अभुक्तभोगसंभोगं कन्दर्पो दर्पतो नरम् । दुष्करे रक्षितुं शीलं यौवने व्यथते तराम् ॥५०॥ अतो भोगान नरै ग्यान् नरयोग्यान् सुरेप्सितान्। विलासिन्या सहाजस्रं विलसालससत्कलम् ॥ सुकृतोपार्जिताः प्राप्ता इमा लक्ष्म्यो मनीषिताः। अनेके सेवका एते तत्कालाजाविधायकाः॥ सप्तभूममिमं दिव्यं मन्दिरं स्वर्गृहोपमम् । भाण्डागारमिदं सर्व धान्यागाराण्यमूनि च ॥५३॥ सर्वाण्येतानि विद्यन्ते तव पुत्रोत्तमालये। एतदर्थे पुमांसोऽन्ये क्लिश्यन्तो नाप्नुवंति हि ॥ ५४॥ धनोपार्जनचिन्तापि कश्चनापि निवारकः । शरीरे रोगचिन्तापि नास्ति पुण्यात्पुराकृतात् ॥ इमे हि विविधा अश्वा इमे उष्ट्रा इमे रथाः। बलवन्तो बलीवर्दा इमे सन्ति पुरस्तव ॥५६॥ ३३-स कुमार वासकुमारो वीवाहं नाभ्यमन्यत । किंवत् ? कुमारवत्-स्वामि कार्तिकेयवत् । स्वामिकार्तिकेयो हि न परिणीतवान् इति प्रासद्धिः। अथवा कुमारवत् बालकवत् ; यथा बालको हठात् सदसदपि किञ्चिद्वस्तु स्वस्य हितमहितं वा मनीषितमेव मन्यते न तदन्यदिति । तथा वासकुमारोऽपि स्वस्थानीप्सितमहितं संसारिणामीप्सितं हितं धीवाहं न मन्यत इत्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् खलूरिकायां त्वं पुत्र तेषामक पराग्भ्रमः। रमस्व खुरली कुर्वन् सवयः सखिभिः सह ॥५७॥ पश्यन्तस्त्वां तदा लोकास्त्वदालोकनलोचनाः कोऽयं राजकुमारोऽयं मणिष्यन्ति मिथोन्विति। इति प्रेमवचोऽवोचत् पिता पुत्र तथापि हि । न व्यरंसीत्स चारित्राचारित्रैकवृतिर्यतः ॥५९॥ इत्यादिवचनैः पुत्रं प्रतिबोधयितुं पिता । करग्रहे क्षमा नाभूद्दक्षोऽपीन्दुरिवाम्बुजम् ॥ ६॥ दृढधर्मा प्रियधर्मानन्तशब्दद्वयीति यत् । सिद्धा व्याकरणे शद्वादर्थाचास्मिन् शिशौ स्थिता ॥ जगदुः कवयो लोका नागराः इति सुनृतम् । दृढधर्मा पुमानेष प्रियधर्मा तथा तदा ।। ६२ ॥ मोक्तः संसारसौख्यार्थमिति पित्रादिभिर्जनैः । संसारं त्यक्तुकामः स नाभ्यमन्यत तद्वचः ॥ एवं च पितरौ ज्ञात्वा चारित्रग्रहणे दृढम् । चेतः पुत्रस्य तच्चेतःप्रीतये वदतामिति ॥ ६४ ॥ चारित्रग्रहणे पित्रोरनुज्ञास्ति तवाधुना । सगौत्रादिपरीवारयुक्तयोरावयोरथ ॥६५॥ अददातामथैवं तौ शिक्षा गद्गदया गिरा । दीक्षामादाय पुत्र त्वं साध्वाचारान् समाचरेः ॥६६॥ भणेथाः प्रवणीभूय ग्रन्थान् व्याकरणादिकान् । सिद्धान्तान् ज्यातिषग्रन्थान् तर्कग्रन्थांश्च भूयसः।। विनयेः प्रणयेः प्रीतो निर्णयेः पुत्र चेतसा । गुरोः पृष्ठं परैः प्रोक्तं सूतृतं वेति वानृतम् ॥६८॥ स्मरेन्थान् पुराधीतान् सूत्रतश्च तथार्थतः। विस्मृतं स्मारयेरन्यान् पठितं पाठयेः सुत ॥ पञ्चेन्द्रियाणि संयम्य नियम्य विषयान् पुनः । संयम पालयेः पुत्र स्वकीयसुखहेतवे ॥ ७० ॥ गोपयित्वा प्रवर्तेथाः सर्वथेन्द्रियपञ्चकम् । पुत्र कूर्म इव ग्रीवाचतुश्वरणपञ्चकम् ॥७१ ॥ भवेनिरुपलेपस्त्वं कर्मलेपेन सर्वदा । पयःकर्दमलेपेन पद्मपत्रमिवाङ्गज ॥७२॥ ग्रामद्रङ्गकुलादीनि नालम्बेथाः कदापि हि । स्तम्भादीनि त्वमाकाशमिव लोकप्रकाशक ॥ सौम्यलेश्यां दधीथास्त्वं चन्द्रमा इव सर्वदा। आदित्य इव तेजस्वी स्यास्तपस्तेजसाअसा ॥ उत्पन्ने सुखदुःखादी समचित्तो भवे भवेः। वयंगांभीर्यसंयुक्तः समुद्र इव सर्वदा ॥ ७५ ॥ ५७-हे पुत्र ! खलूरिकायां चउगान इति भाषाप्रसिद्धायां श्रमसाधनाभूमौ तेषामश्वादीनामाक् पराग भ्रमे 'उरहापरहा फेरवानइ विषई' इति भाषाप्रसिद्ध खुरली अभ्यासं कुर्वन् रमस्व । ५८-तदा खलूरिकायां अश्वादीनां अवाक्पराग भ्रमणाभ्यासकाले लोकास्त्वां पश्यन्तो नु वितर्के इति मिथो भणिष्यन्ति । इतीति किम् ? एकः कथयति-कोऽयम् ? अपर आह-राजकुमारोऽयम् । ६८-भो पुत्र ! गुरोः विनयेः विनयं कुर्या इत्यर्थ । भो पुत्र ! प्रणयः कथयोरत्यर्थः । भो पुत्र ! पैररन्यैर्गच्छवासिभिः साधुभिः परगच्छवामिभि: साधुभिः अन्यतीर्थिभिः प्रतिवादिभिर्वा प्रोक्तं कथितं सूनृतं सत्यं वा अनृतमसत्यं वा इति निर्णयः निर्णयं कुर्या इत्यर्थः । कथं भूतस्त्वं ? चेतसा प्रतिः । Ahol Shrutgyanam Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचित द्वितीय: पुस्तकानेकसच्छिष्यश्रावकादिपरिच्छदे । पक्षीव ममतां सर्वो विप्रमुञ्चेस्त्वमात्मज ॥ समुत्पन्ने न कम्पेथाः परोषहाद्युपद्रवे । दुःखदायिनि देहस्य पुत्रमेहरिवोत्तम ॥ ७७ ॥ त्वं भवेः सर्वथा शुद्धहृदयः सर्वसाधुषु । शारदाम्भ इव प्रायः सर्वर्तुषु सुनिर्मलम् ॥ ७८ ॥ प्रदायेत्यादिकां शिक्षा शिक्षादानविचक्षणौ । प्रपतच्चक्षुरमू तौ व्यरजेतां तदा सुतात् ॥ ७९ ॥ दीक्षादेशं च सच्छिक्षां दीक्षाया रक्षणे तदा । लब्धा वासकुमारोऽयं हृदये मुमुदेतराम् ॥८॥ चारित्रं द्विविधं प्रोक्तं सर्वतो देशतस्तथा । साधूनां च गृहस्थानां मनीषितफलप्रदम् ॥८॥ इति वासकुमारोऽथ चिन्तयामास मानसे । सर्वविरतिचारित्रमाश्चंगीकरवाण्यहम् ॥ ८२॥ धर्मेऽन्तराया भूयांसः संभवन्ति यतः सदा । अतो यतेयं चारित्रग्रहणे त्वरितं खलु ॥ ८३॥ देशविरतिचारित्रं पालयेयमथो पुरा । वीरसेनमहीपाल इवेति स व्यचारयत् ।। ८४ ॥ तद्यथा-देशविरतिचारित्रं स प्रावर्तत पालयन् । सर्वविरतिचारित्रं जिगृहीपुस्ततः पुनः ॥ ८ ॥ पूर्व कुर्यों गुरोर्वयों परीक्षा सर्वसाधुषु । गृह्णायां च ततश्चारु चारित्रं सर्वतः स्फुटम् ॥८६॥ चारित्रं सर्वशास्त्राणां पठनं संयमस्तपः । इत्यादि निर्वहेत्सम्यक् संयोगे सद्गुरोर्यतः ॥८७।। एवं वासकुमार एष चरणे चेतो यथाचीकरत् श्रीश्रीवल्लभपाठकेन पठितं पापठ्यमानं बुधैः । श्रुत्वा तच्च तथा जनाः सुमनसः संसारवासोद्भवम् सौख्यं वैषयिकं विहाय विमल तस्मिन् कुरुध्वं मनः ।। ८८ ॥ इति श्री बृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरि सन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातिसाहि श्रीअकब्बर प्रदत्तजगद्गुरु-बिरुदधारकभट्टारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कार पातिताहि श्रीअकबरसभासंलब्ध दुर्वादिजयवादभट्टारक श्रीविजयसेनसूरीश्वर पट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिसाहि श्रीयहांगीर प्रदत्त. महातपाविरुदधारिभट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवमूरि समुत्पन्नचारित्रग्रहणभाववर्णनो द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥ Ahol Shrutgyanam Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः। विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् तृतीयः सर्गः अथ वासकुमारः सन् कुर्वन् गुरुपरीक्षणम् । लब्धवान् सद्गुरुंतं च बुद्धवान् गौतमाधिकम् ॥२॥ तद्यथा-अथाभूत्स पुरा वीरश्चतुर्विशो जिनेश्वरः । शासने यस्य भूयांसो गच्छाः सन्त्युदितश्रियः ॥२॥ तेषु गच्छस्तपानाम प्रसिद्धोऽस्ति प्रसिद्धिमान् । विधानात्तपसः शश्वदुस्तपस्य विशेषतः ॥३॥ तत्र वीरजिनाधीशपट्टानुक्रमसंश्रितः । षट्पश्चाशपदं मरिरानन्दविमलोऽश्रयत् ॥४॥ आचारं शिथिलं त्यक्त्या व्यधादाचारमुत्कटम् । श्राद्धलोकांच्युतान्धर्मादादधार च यः क्षणात्॥ महेभ्यानां महेभ्यानां पुत्राणां च शतानि च । त्याजयित्वा कुटुम्बादि मोहं दीक्षयसिस्म च ॥ आनन्दविमलमूरेः सप्तपञ्चाशतित्पदे । विजयदानसूरीन्द्रः सोभाद् भानुरिवोदये ! ७॥ श्रीस्तम्भतीर्थ-पत्तन-श्रीराजनगरादिषु । जिनबिम्बशतान्जानि प्रतिष्ठां योऽनयत् क्षणैः ॥८॥ ४-६-सन्ततपागच्छे स आनन्दविमलमूरिः षट्पञ्चाशपदं षट्पञ्चाशतः पूरणं षट्पञ्चाशं तञ्च तत्पदं च स्थानं षट्पञ्चाशपदं ५६ तत् अश्रयत् असेवत । कथंभूतः आनन्दविमलमूरिः? वीरजिनाधीशपट्टानुक्रमसंश्रित: वीरजिनार्धाशात्पट्टानां योऽनुक्रमस्तं संश्रितो यः स तथा; द्वितीयाश्रितातीतेति द्वितीया तत्पुरुषः । स कः य आनन्दविमलसूरिः शिथिलं आचारं त्यक्त्वा उत्कटं आचारं सिद्धान्तप्रणीतगौतमादिगणधरस्थूलभद्रादिसाधुयथाविधिविहिततपःक्रियादिसमाचरणं व्यधात् । चः पुनः धर्माच् च्युतान् श्राद्धलोकान् क्षणात् आधार उद्धृतवान् । तथा चात्र वार्तालेश:-श्रीआनन्दविमलसूरिः क्रिशशिथिलबहुलसाधुलोकपरिवृतोऽपि संवेगरङ्गतरङ्गनिश्चलभावितचेताः श्रीविक्रमनृपाद् यशीत्यधिक पञ्चदशशत १५८२ वर्षे कतिचित्साधुपरिवृतः श्रीमदत्प्रतिमाप्रतिषेध १ साधुजननिषेध २ प्रमुखोत्सूत्रप्ररूपणरूपसमुद्रे ब्रुडतोऽनेकलोकान् विलोक्य करुणारसरसिकमानसः श्रीहेमविमलसूरिगुरुप्रवराज्ञया शिथिलाचारपरिहरणलक्षणक्रियोद्धरणप्रवणेन तान् तत्काडासमुद्धतवान् । तथा महेभ्यानां महेभ्यपुत्राणां चानेकानि शतानि प्रतिबोध्य कुटुम्बधनधान्यादि मोहं प्रतिषेध्य च प्रावाजितवान् इति श्लोकद्वयार्थः । एवं चास्थाने के अवदाताः सन्ति तांश्चात्र ग्रन्थविस्तरभिया नाकथयाम नचालिखाम । ___७-८-उदये उदयाचले णीगप्रापणे अस्य द्विकर्मत्वात्। जिनविम्यशताब्ञानि प्रतिष्ठामित्युभयत्र कर्म । अणैरुत्सवः । श्रीराजनगरादिषु इत्यत्र आदिशब्दान महीशान-धारवन्दिरादिग्राह्यम् । Ahol Shrutgyanam Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [तृतीयः शत्रुञ्जयगिरेर्मुक्ति पाण्मासिकीमकारयत् । यस्योपदेशसम्बुद्धो श्रुतपूर्वो रराज सः ॥९॥ सुरत्राणमहिमूंद-राजमान्यो महद्धिकः । गलराजाभिधो मन्त्री यात्रां चक्रे च चक्रिवत् ॥१०॥ तत्पमुद्रिकाहीरो हीरविजयसूरिराट् । सोऽष्टपश्चाशत्पट्टलक्ष्म्या लसति विष्णुवत् ॥ ११॥ यस्य सौभाग्यवैराग्यनिःस्पृहत्वादिसद्गुणैः। रञ्जितः स्तम्भतीर्थस्य व्ययं सङ्ग्रो व्यधादिति॥ इतीति किं तदाहव्याख्यानादिषु कार्येषु कार्येषु वरसूरिभिः । कोटिमेकां सटङ्कानां तस्मिन्नव्यययत् स्थिते ॥ यस्य प्रतिपदं पादपद्मन्यासे सदाऽभवत् । सुवर्णटङ्करूप्यादि नाणकानां प्रमोचनम् ॥ १४॥ मुक्ताफलादिभिर्दीव्यैर्बहुमूल्यैः शुभप्रदम् । रचनं स्वस्तिकानां च पुरतस्सोभिनन्दिति ।युग्मम् । ९-१०-स विजयदानसूरिः रराज । स कः ? यस्योपदेशसम्बुद्धो गलराजाभिधो मन्त्री अश्रुतपूर्वी पाण्मासिकी शत्रुञ्जयगिरेमुक्तिं अकारयत् । च पुनः चक्रिवत् भरतचक्रिवत् यात्रा चके । कथंभूतो गलराजभिधो मन्त्री ? सुरत्राण-महिमून्दराज मान्यः-सुरत्राणमहिमूदः पातसाहिः प्रसन्नमनाः श्रीगलराजमन्त्रिगे पर्यस्तिकावानं 'नगदलमलिक' इति बिरुदं च दत्तवान् । पुन क० महर्धिकः । श्रीविजयदानसूरिप्रदत्तोपदेशप्रतिबुद्धः प्रबुद्धशत्रुञ्जयतीर्थयात्राफलः श्रीसुरत्राणमहिमून्दभूपतिमाननीयो मन्त्रिगलराजोऽपरनाम श्रीनगदलमलिकोऽश्रुतपूर्वा पाण्मासिकी शत्रुञ्जयमुक्तिं कारयित्वा सर्वदेशनगरपुरमामादिषु कुङ्कुमपत्रिकाप्रेषणनिमन्त्रणानेकदेशनगरप्रामाद्यागतश्रीसङ्घसमेतः शित्रुञ्जययात्रां मुक्ताफलादिना श्रीशत्रुञ्जयवर्धापनं च श्रीभरतचक्रवर्तीव चकारेति । ११-स हीरवि जयसूरिराट् अष्टपञ्चाशत्पट्टलम्या लसति क्रीडते । किं वत् ? विष्णुवत् नारायण इव । स कः ? यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात्-यः तत्पट्टमुद्रिकाहीरः श्रीविजयदानसूरिपट्टरूपमुद्रिकायों होरोपमः अधिकशोभाविधायित्वात् । श्रीहरिविजयसूरीणां विक्रमनृपात् व्यशीत्यधिक पञ्चदशशत वर्षे १५८३ मार्गशीर्षशुदि नवमीदिने प्राल्हादनपुरवास्तव्यः श्रीऊकेशज्ञातीय साह कुरा भार्या नाथी गृहे जन्म, षण्णवत्यधिक पञ्चदशशत वर्षे १५९६ कार्तिकवदि द्वितीयादिने पत्तननगरे दीक्षा, सप्ताधिके षोडशतवर्षे १६०७ नारदपुर्या श्रीऋषदेव प्रासादे पण्डितपदम् , अष्टाधिके षोडशशतबर्षे १६०८ माव सुदि पञ्चमी दिने नारदपुर्या श्री वरकाणकपार्श्वनाथसनाथे श्रीनेमिनाथप्रासादे वाचकपदम् , पञ्चादशाधिके षोडशशतवर्षे १६१५ सीरोहीनगरे सूरिपदं बभूवेति । १२-१३-स श्रीस्तम्भतीर्थवासी सङ्घः तस्मिन् श्रीहीरविजयसूरौ स्थिते एका टङ्कानां कोटिं अव्यययत् प्रभावनादिभिर्द्रव्यव्ययं चकार । व्ययण वित्तसमुत्सर्गे चुरादौ अदन्तः परस्मैपदी । केषु व्याख्यानादिषु कार्येषु कर्मसु, कथंभूतेषु वरसूरिभिः कार्येषु । Ahol Shrutgyanam Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् १३ विम्बानि कुन्थुनाथस्य प्रत्यतिष्ठद्य उत्सवात् । सीरोहीनगरे भाति स हीरविजयो गुरुः ॥ तथा नारदपुर्यां यः प्रत्यतिष्ठन्महोत्सवात् । जिनविम्बान्यनेकानि स मूरिवर्तते भुवि ॥१७॥ श्रीस्तम्भतीर्थ-पत्तन-श्रीरामनगरादिषु । सहस्रशोऽहंतां बिम्बप्रतिष्ठां सोऽस्ति यो व्यधात्॥१८॥ लुङ्कामतपतिर्बुद्धः स ललौ मेघजी ऋषिः । दीक्षां नवीनां यस्याग्रे स सूरि वि भासते ॥१९॥ श्रीमत्यहम्मदावादनगरे नगरोत्तमे । ज्ञात्वा लुकामतैश्वर्यमिति दुर्गतिकारणम् ॥२०॥ आधिपत्यं च दीक्षां च त्यक्त्वा लुङ्कामतस्य हि । साधुभिः पञ्चविंशत्या संयुतोऽर्हन्मतौ रतः॥ सूरिसेवैकचित्तोऽदात् पातिसाहिरकब्बरः । स्ववादित्राण्यनेकानि यस्य दीक्षामहोत्सवे ॥२२॥ -चतुर्भिविशेषकम् ॥ ख्यातोऽवदात एतादृक् श्रुतपूर्वो न कस्यचित् । तमवाप यदा मूरिरासील्लोके तदाद्भुतम् ॥ यदीयोपशमादीनां गुणानां सत्यवर्णनाम् । प्रधानपुरुपैः प्रोक्तमशृणोदेकदा तदा ॥२४॥ कालेऽस्मिन्नीदृशः कः स्यादिति चित्ते चमत्कृतः । तदेत्यचिन्तयश्चित्ते पातिसाहिरकब्बरः॥२५ इत्यचिन्तयत्-इतीति कि तदाह [ -युग्मम् । तमाकार्य निरीक्षेय परीक्षेय च तद्गुणान् । पृच्छेयं च वृषः कीदक् ततो वन्देय भक्तितः।।२६ सोऽभ्यपृच्छत्तदा चैवं प्रधानपुरुषान्प्रति । विचरत्यधुना कुत्र क्व च तिष्ठति तद्वद ॥ २७ ॥ ते पाहुस्तद्वचःनीता इति प्रालयस्तदा । गन्धारबन्दिरे स्वामिन, मरिचसति सम्पति ॥२८॥ आकर्येत्युभयाकर्णि जातरोमाञ्चिताङ्गरुक । कदागच्छेत्कदा तं च देयौत्सुक्यतस्त्विति ॥२९॥ फरमानं तदाहृत्य लेखयामि तदाद्भुतम् । स्वीयनामाङ्कितं सत्यमिति चित्ते व्यचिन्तयत् ॥३०॥ लेखयित्वा तदा दिव्यं सकाशात्स्वनियागिनः। फुरमानं घनामानबहुमानमनोहितम् ॥३१॥ आज्ञाविधायिनो विज्ञान्स प्रेष्यान् प्रेषयत्तराम् । तेषां पाणौ च दत्त्वाशु प्रति गन्धारबन्दिरम् १९-२०-स सूरिः श्रीहरिविजयसूरि वि भासते शोभते । स कः यस्य श्री हीरविजयसूरेरग्रे स मंघजी ऋषिर्नवीनां दीक्षां ललौ । कथंभूतो मेघजीऋषिः लुकामतपतिः । पुन कथंभूतो मेघजीऋषिर्बुद्धः प्रतिबुद्धः अर्हत्प्रतिमापूजावन्दनादीनामानानात् । किं कृत्वा ? लुङ्कामतैश्वर्य दुर्गतिकारणमिति ज्ञात्वा । क्व दीक्षा ललौ? श्रीमति अहम्मदावादनगरे। कथंभूते नगरोत्तमे । पुनः किं कृत्वा हि निश्चितं लुकामतस्य आधिपत्यं पुनर्दीक्षां त्यक्त्वा । पुनः कथं० मेवजीऋषिः ? पञ्चविंशत्या साधुभिः संयुतः । पुनः कथं० अर्हन्मतो रतः अर्थात् अर्हत्प्रतिमाया अस्तित्वपूजनप्रणमनादीनङ्गीकरणे रतः । स कः ? यस्य मेघजीऋषेर्दीक्षा महोत्सवे अकबर पातिसाहिः अनेकानि स्ववादित्राण्यदात् । कथं० अकबरपातिसाहिः सूरिसेवैकचित्तः-सरेः श्रीहरिविजयनाम्नो भट्टारकस्य सेवायां एकं चित्तं यस्य स तथा । मेघजी ऋषिरित्यत्र इत्या भात प्रकृतिभावः । Ahol Shrutgyanam Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [तृतीयः ततश्च तत्र ते गत्वा नत्वा तं भ्रमरायितम् । विदधुस्तत्कराम्भोजे फरमानं मनोहरम् ॥३३॥ ततः प्रीतमनाः सूरिः फरमानमवाचयत् । गन्धारवन्दिरश्रीमत्सर्वसङ्घ-समक्षकम् ॥ ३४ ॥ तदा सङ्ग्रो हृदानन्दत श्रुत्वा तल्लिखितं वचः । प्रेष्येभ्यश्च ददौ द्रव्यं वाञ्छितं जीवितोचितम् बुबोधयिषया तस्य सङ्घमापृच्छय सोऽचलत् । साधुभिः सह सच्रै पवद्दिग्जिगीपया ॥३६॥ साधयन् द्विषतो लोकान श्राद्धांश्च प्रतिबोधयन् । स्थापयन् सुकृते स्वीयानन्यांश्चोत्थापयन्नधात्।। विहरन् स क्रमेणैवं जिनवत्समवासरत् । आगरानगराभ्यणे फत्तेपुरपुरे बहिः ॥३८॥ एकीभूय ततः सङ्ग्रस्तत्रत्योऽतिमहोत्सवात । गत्वा चाभिमुखं नत्वा पुरान्तस्तं समानयत् ॥ धर्मोपदेशदानेन ततोऽमृतसदग्गिरा । मूरिस्तांस्तोषयामास दातेव जगतो जनान् ॥ ४० ॥ पातिसाहिं तदैवैवमबलफजलोऽवदत् । पातिसाहिमधानानां शिरस्सु सुशिरोमणिः ॥ ४१ ॥ य आहूतस्त्वया सूरिः, स साम्प्रतमिहागतः ।पातिसाहिरिति श्रुत्वा, ब्रवीति स्मेति तं मुदा ॥ अन्तरानयतं त्वं प्राक् यथा वन्देय भक्तितः। सिद्धये च सर्वथा सद्यो मदीयोऽयं मनोरथः।। अबलफजलाख्योऽपि मूरिमाहूय सादरम् । पातिसाहेः सकाशे साक् तदादेशात्समानयत् ॥ तदोपाध्यायशार्दूल-विमलहर्षमुख्यकैः । साधुभिः सहितः मूरिः पातिसाहिं मुदामिलत् ॥ आस्थानमण्डपे स्वीयेऽभ्युपवेश्य च तं गुरुम् । प्रणम्य प्राअलाभूय सोऽभ्यपृच्छदिति स्फुटम्।। इतीति किं ? तदाहस्वागतं स्वागत स्वीये काये शिष्यादिकस्य च । मूरिराह तदेत्यस्ति तद्धर्मात्तव चेक्षणात् ॥४७ ३७-तत्र गन्धारबन्दिरे; तं श्रीहीरविजयसूरि । तस्य श्रीहारविजयसूरेः कराम्भोज करकमलं तत्कराम्भोजं तस्मिन् । तस्मिन् पातिसाहावकब्बरे । तस्य पातिसाहेरकबरस्य बुबोधयिषा धर्मादौ बोधयितुमिच्छा तया बुबोधयिषया । किं कुर्वन् द्विषतो लोकान् प्रतिवादिनो जनान् साधयन् ; चः पुनः श्राद्धान अर्थात् अपरपरशासनधर्मान् सिद्धान्तानुसारेण स्वमुखप्ररूपितधर्म श्रद्धावतो लोकान् प्रतिबोधयन् ज्ञापयन् । पुनः किं कुर्वन् ? स्वीयान् प्रस्तावान् स्वमुखप्ररूपितधर्मकारिणो निजान लोकान् सुकृते धर्म स्थापयन् । पुनः किं ? चः पुनः अन्यान् प्रमारादिकान् राजादीन माहेश्वरादिधर्मकारिणो वा लोकान् अघात् पापात् द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियजीवव्यापादनलक्षणात् उत्थापयन् प्रायश्चित्तालोचनादिना निवारयन् इत्यर्थः । भूपपक्षे द्विषतो लोकान् वैरिणो जनान् श्राद्धान् अर्थात्स्वसेवाज्ञाकरणे श्रद्धावतः सेवकान् , न्याये प्रवर्तध्वं अन्यायानिवर्तध्वमिति प्रतिबोधयन ज्ञापयन् , स्त्रीयान् आत्मीयान् प्रस्तावात् पुत्रादीन सगोत्रान् सुकृते राज्यसम्बन्धिनि प्रधानकर्मणि पुण्ये वा स्थापयन् , अन्यान पुत्रादिसगोत्रेभ्योऽपरान् ग्रामनगरवासिनो जनान् अधात् चौर्याब्रह्मचर्यादिलक्षणात् पापात् उत्थापयन दण्डादिदानेन निराकुर्वन इत्यर्थः । Aho I Shrutgyanam Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः । विजयदेवमूरि-माहात्म्यम् कीदृशं गौरवं ? धार्म २ स्वरूपं पारमेश्वरम् ३ । कथं चास्मादृशैः पुंभिः प्राप्यते परमेश्वरः।। इत्यादि धर्मसम्बन्धी विचारश्चतुरोचितः । श्रीमता साहिना प्रष्टुमारेभे च परस्परम् ॥४९॥ तदाऽवादीदिदं वादी स्याद्वादी प्रतिवादिनम् । एतत्स्वरूपं प्राप्तिं च, शणु त्वं पारमेश्वरीम्।। तद्यथा-दर्शनानि हि घट्सन्ति सन्ति तद्गुरवोऽपि षट् । शासनान्तरभेदेन गुरवो बहवोऽपि च ॥ बुद्धशानादयस्तेषां देवास्सद्गरवोऽपि च । विषयादौ सदा सक्ताः सम्यग् जानाति तान् भवान् ॥ धर्मोऽपि तादृशस्तेषां विषयादौ प्रवर्तनात् । तपस्सु च फलादीनामाहारान्निशि भोजनात् ।। -इत्यपरशासने गुरोर्धर्मस्य च स्वरूपम् । तेषां मध्यादिम जैन धर्म शुश्रूषसि प्रभा!। श्रोतुं तं च त्वमोऽसि मां ब्रुवन्तं च तं शृणु ॥ साधुश्रावकभेदाभ्यां धर्मोऽयमुदितो द्विधा । पञ्चव्रतो यतीनां स्यात्, श्राद्धानां द्वादशव्रतः ।। इति सत्यपि भेदेऽस्मिन् सर्वसाधारणः खलु । धर्मोऽभिप्रेत एवायमहिंसा १ संयमः२ तपः३॥ धर्मोऽयं तीर्थकृत्योक्तो दायी स्वर्गापवर्गयोः। क्रियमाणः सदा लोकैरेतद्दोषविवर्जितः ॥५॥ इति धर्मस्वरूपम् । जीवलोकस्य यो वन्धु१र्गत्यम्बुधिपारगः । ज्ञानादिना महाभागो गुरुः स शिवसाधकः ॥५४॥ क्षीरास्त्रववचा नित्यं मध्वास्लववचा ध्रुवम् । शिक्षां धर्मोपदेशं च यो दत्ते स गुरुमंतः ॥१९॥ दुर्जेयान् विषयान् सर्वान् कषायांश्च गृहंगृहाः। य उज्झति मनोहर्षविषादौ स गुरुभवेत् ॥६०॥ स्यक्त्वा वैरं विरोधं च दोषानष्टादशापि च । प्रसन्नवदनो यः स्यात् स गुरुः सद्गुणः स्मृतः।। - इति गुरुस्वरूपम् । रागद्वेषौ सदा इन्ति दुष्कर्माष्टकद्विषः । विषयान यः कषायांश्च स भवेत् परमेश्वरः ॥ ६२ ।। त्यक्त्वा राज्यं विदव्याग्रस्तपश्चरणमुत्तरम् । लब्ध्वा च केवलज्ञानं श्रयेत्स शिवमीश्वरः ॥६॥ ४८-गुरोरिदं गौरवं स्वरूपं १ धर्मस्येदं धाम स्वरूपं २ परमेश्वरस्येदं पारमेश्वरं स्वरूपं ३ एतेषु विष्वपि तस्येदमित्यण प्रत्ययः । __ ५०-वादी श्रीहीरविजयसूरिः तदा प्रतिवादिनं पातिसाहिं अकब्बरमिदमवादीत् । इदमिति किं ? एतत्स्वरूपं एतेषां गुरु-धर्म-परमेश्वराणां स्वरूपं एतत्स्वरूपं तत्कर्मतापन्नम् । च: पुनः पारमेश्वरीं परमेश्वरस्य प्राप्तिं च लाभं त्वं पातिसाहे ! अकबर ! शणु । ५९-चक्रवर्तिसम्बन्धिनो गोलक्षस्य भक्षितेक्षुक्षेत्रस्य आदिविशेषस्य अर्धार्धक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्या गोः सम्बन्धि यक्षीरं तदिव माधुर्यरसं आस्रवति मुञ्चतीति क्षीरास्रवं, एवंविधं वचो वचनं यस्य सः क्षीरानववचाः । मधुशर्करादि मधुर द्रव्यं तत् आस्रवति मध्वास्रवं एवंविधं वचो यस्य स मध्वानववचाः । Aho I Shrutgyanam Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचितं [ तृतीयः दीपज्योतिरिवान्योऽन्यं सम्मिलितपृथक् स्थितः । ज्योतिरूपं चिदानन्दं धरन भायात्स ईश्वरः - इति परमेश्वरस्वरूपम् । दयासंयमसंयुक्ते तपश्चरणतोऽचिरात् । साक्षात्पुण्यात्मभिः पुंभिः प्राप्यते परमेश्वरः ॥ ६५ ॥ - इति परमेश्वरप्राप्तिः । वाक्यैरित्यादिभिस्तत्त्वं प्रत्यबोध्यत तेन सः । मृष्टैर्मध्वास्त्रयैः स्पष्टैः क्षीरास्रवतास्रवैः ||६६|| भरसूरिः पाथोदस्तहृदयसरस्तदा । गुरुधर्मश्वरास्तित्वज्ञानाङ्गीकारवारिणा ॥ ६७ ॥ तद्धृदयं सरोरम्यं सूरिर्मेव इवाभरत् । गुरुधर्मश्वरास्तित्व- ज्ञानाङ्गीकृतिभी रसैः ॥ ६८ ॥ अनेकच्छेकसूरीन्द्रसाधु श्रावकपक्षिभिः । सेव्यमानं तदा दीव्यत् तद्धर्मजललब्धये ॥ ६९ ॥ आगरानगराद् यावदजमेरपुरं पथि । मनारान कूषिकोपेतान् प्रतिक्रोशमकारयत् ॥ ७० ॥ स्वकीयमृगयारङ्गत्कलाकुशलतां जनान । ज्ञापयितुं मृगानेकशङ्गध्वजविराजितान् ॥ ७१ ॥ पापीयानीदृशोऽनेकजीवहिंसापरायणः । अभवत्स पुरा नित्यं रूपभृत्पापमेव यत् ॥ ७२ ॥ - त्रिभिर्विशेषकम् || १६ हीरविजयसूरीन्द्रसद्गुरोर्योगतोऽधुना । दयादानानागरादिसङ्गरङ्गो वभूव सः ॥ ७३ ॥ सगुरौ जिनधर्मे च प्रीतचेतास्ततोऽथ सः । इत्याह जगदाश्चर्यकारणं श्रीगुरुं प्रति ॥ ७४ ॥ ग्रामान् द्रङ्गान् गजानश्वान् द्रव्याणि प्रचुराणि च । ददाम्यहं गृहाण त्वमिति चानुगृहाण भोः ॥ गुरुराह ततो भूप, त्यक्त्यैतान् सत आलये । भिक्षे वस्तूचितं युक्तो नैतेषां संग्रहो मम ॥७६॥ धन्योऽयं निःस्पृहः सर्व सांसारिकसुवस्तुषु । स्वोचितं वस्तु यल्लाति, स तदेति व्यचिन्तयत् ॥ ततः पुनरिति स्वीये हृद्यालोचयति स्म सः । एतद्योग्यं गृहे मेऽस्ति पुस्तकं तददाम्यहम् ॥ विचार्यै तदा चित्ते कृत्वा च प्रचुराग्रहम् । ददौ श्रीगुरवे दिव्यं सिद्धान्तादिकपुस्तकम् ॥ पुत्र मित्रे कलत्रे च धनस्वजनभूघने । ग्रामे द्रङ्गे गजादौ च निरीहाय महात्मने ॥ ८० ॥ - युग्मम् । ६७-तदूहृदयं तस्य पातिसा हेरकब्बरस्य हृदयमेव सरस्तहृदयसरः तद्धृदयं अकब्रपातिसाहिहृदयं रसैः पानीयैरित्यर्थः । ७०-७२-स अकब्बरपातिसाहिः आगरानगरात् अजमेर नगरं यावत् मार्गे प्रतिक्रोशं कूपिकोपेतान् मनारान् कारयित्वा स्वकीयाखेटक कलाकौशल्य प्रकटनकृते प्रतिमनारं शतशो हरिण विषाणरोपणकारणादिना प्रथमतो जन्तुं जातव्याघात संजात चेतो रतिः स भूपतिततिपतिः श्री अकब्बरपातिसाहिः हीरविजयसूरिसद्गुरोर्योगतः सम्बन्धात् अधुना दद्यादानानगरादिसंगरंगो बभूव । ७५- अनुगृहाण अनुग्रहं कुरु प्रसादं कुरु इत्यर्थः । Aho ! Shrutgyanam Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् स जग्राहाग्रहात्पुस्तं तस्यानुग्रहहेतवे । नीरागोऽपि निरीहोऽपि धर्मलाभाय भूयसे ॥४१॥ ततः मूरिः समादाय तदा तच्छस्तपुस्तकम् । आगरानगरेऽमुश्चच्छाखकोशतयालयात् ॥८२।। साधिकमहरं यावत्तत्रैकत्रोपविश्य च । गोष्टी धर्मस्य तौ कृत्वा मिथस्तुतुषतुस्तराम् ॥ ८३॥ श्रीसाहिसमनुज्ञातस्ततः मूरिः समाययौ । उपाश्रये सहानेकलोकैराडम्बरोत्सवैः ॥ ८४ ॥ ततश्च सकले लोके जज्ञे प्रवचनोन्नतिः। यत्स्यात्स्फातिमदानन्दि सतां चानुपदं महः ॥८॥ तस्मिन्वर्षे चतुर्मासीकरणानन्तरं मुदा । आगरानगरात्सोरीपुरेऽगात् मूरिरुत्तमः ॥८६॥ नेमिनाथजिनेन्द्रस्य यात्रया तत्र पूतया । साधुश्राद्धैः सहानेकैः पवित्रात्माथ सोऽभवत् ॥८७॥ तत्र श्रीनेमिनाथस्य प्रतिमाद्वितयं तदा । तत्कालनिर्मितश्रीमन्नेम्यहत्पादुकायुतम् ॥८॥ प्रत्यतिष्ठत स सूरिश्च श्रेष्ठो ज्येष्ठप्रतिष्ठया। श्रीसङ्कविहितानन्तगीतमानादिकोत्सवैः ॥ आगरानगरे स्वर्णरङ्कादिव्ययतस्ततः । न कदापि पुरैतागजाताज्जाग्रन्महोत्सवात् ॥९॥ श्रीमानसिंह-कल्याणमल्लकारितमद्भुतम् । स चिन्तामणिपार्थादेः प्रत्यस्थात्पतिमोचयम्॥११॥ प्रादुरासीत्ततस्तत्र तत्तीर्थ भुवि विश्रुतम् । जाग्रत्तभावं सर्वषां मनोवाञ्छितदानतः ॥१२॥ ततः पुनरपि श्रीमत्फत्तेपुरपुरे वरे । समागत्यामीलप्रीत्या साहिना सह सद्गः ॥९३॥ तस्मिन्नवसरे यावदेकमहरमादरात् । धर्मवातौ विधायैवं श्रीसाहिस्तमभाषत ॥९४॥ द्रष्टुं त्वद्वदनाम्भोजमत्युत्कण्ठितमानसः । दूरदेशात् समाहूय जातोऽहं धर्मतत्परः ॥१५॥ यन्मदीयं प्रदत्तं न गृह्णासि किमपि प्रभो । मच्छकाशाच तेन त्वमुचितं प्रार्थयाधुना ॥९॥ सुकृतार्थः कृतार्थश्च भवानिव भवानि व । सर्वथा न वृथा मूरे यतस्वात्र यथा तथा ॥९७|| ८५-अत्र स्फातिरयं शब्दः दन्त्यपवर्गाद्वितीयद्वितीयस्वरादिः स्फायै वृद्धौ भ्वादिरात्मनेपदी । अस्मात् रफायः स्फी वा इति सूत्रेण क्तयोः परतः स्फी इत्ययं दन्त्यपवद्वितीयचतुर्थस्वरोपेत आदेशो विकल्पेन भवेत् । स्त्रियां क्तिरिति तिप्रत्यये तु निषेधस्तेन द्वितीयस्वरादि. रेव । अथ स्फात्तिर्वृद्धौ इति हेमकोशे । ९०-९१-ततः श्री सोरीपुरे श्री नेमिनाथतीर्थङ्करस्य यात्रा नवीनप्रतिमा-पादुकानां प्रतिष्ठाकरणात् । स श्री हीरविजयसूरिः श्रीचिन्तामणिपार्थादेः प्रतिमोच्चयं प्रतिमासमूहं प्रत्यस्थात् प्रत्यतिष्ठत इत्यर्थः। कस्मात् ? जाग्रन्महोत्सवात् । कथं भूतात् पुरा पूर्व कदापि न एताद्ग जातात् तादृग् जात इतीदं सुपेति समासत्वात् समासान्तमेकपदम् । कस्माजाप्रन्महोत्सवात स्वर्णटङ्कादिव्ययतः स्वर्णटङ्कादिव्ययः तस्मात् । ९७-हे सूरे यथा येन प्रकारेण भवानिव भवद्वत् सुकृतार्थः सुकृतं पुण्यमेवार्थः प्रयोजनं यस्य स तथा । च: समुच्चये कृतार्थः कृतः सर्वप्रयोजनो भवानि व तथा सेन प्रकारेण यतस्व यतनं कुरु । अत्र अस्मिन् वाक्ये अस्यां विज्ञप्तौ सर्वथा सर्वैः प्रकारैर्न वृथा न कूट Ahol Shrutgyanam Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [तृतीयः ततः सूरीश्वरश्चित्ते विचिन्त्यैवं तमब्रवीत् । सर्वविश्वम्भराधीशशिरचूडामणीयितम् ॥९॥ विश्वम्भरायां सर्वषु तव देशेषु सर्वदा । श्रीमत्पर्युषणापर्वाष्टाहिकायां महीपते ॥१९॥ मवर्तनममारेश्च बन्दिलोकस्य मोचनम् । विधेहीति ततः साहिरिति चित्ते चमत्कृतः ॥१०॥ अहो निर्लोभतेतस्य शान्तता च दयालुता। अकिञ्चनोऽपि किञ्चिन्न मामयाचीद् धनादि यत् ॥ श्रीसाहिराह चत्वारो दिवसा अधिका मम । उपरिष्टाचदुक्तस्य भवन्तु सुकृतश्रियै ॥१०२॥ हृद्यं सद्य इति प्रोद्य साहिरुत्साहपूरितः। द्वादशदिवसामारि-फुरमानानि षट् तदा ॥१०॥ काश्चनरचनायुभि स्वीयनामाङ्कितानि च । त्वरित लेखयित्वैव प्रददौ सद्गुरोः करे ॥१०४|| स्वीयसाधितदेशेषु सर्वेषु वसुधातले । श्रावणवदिपक्षस्य प्रारभ्य दशमीदिनात् ॥१०॥ मासि भाद्रपदे शुक्लषष्ठी यावन्न कश्चन । जीवव्यापादनं कुर्यादिति तेषु व्यलेखयत् ॥१०॥ एषां व्यक्ति पुनश्चैवं शृण्वन्तु श्रावका इमाम् । पूर्वं गूर्जरदेशस्य, द्वितीयं मालवस्य हि ॥१०७॥ तृतीयमजमेरस्य, फरमानं मनोहरम् । दिल्लीफत्तेपुराख्यस्य, देशस्य तु चतुर्थकम् ॥१०८] लाहोरमुलतानाख्यदेशस्य खलु पश्चमम् । एतानि पञ्चदेशेषु, पञ्चसु प्रेषणाय हि ॥१०९॥ देशपञ्चकसम्बन्धि षष्ठं श्रेष्ठावलोकनम् । सकाशे सुरिराजस्य रक्षणाय चिराय हि ॥११०॥ -चतुर्भिः कलापकम् । तत्तद्देशेषु पञ्चानां तेषां द्राक प्रेषणेन च । अमारिपटहोद्घोषमेघोऽवर्षतरां वरः ॥१११॥ अज्ञायमाननामातः कृपावल्ली महीतले । आर्यांनार्यकुलोल्लासिमण्डपेष्वैधताचिरात् ।। मोचनं बन्दिजन्तूनामङ्गीकृत्य गुरूदितम् । श्रीसाहिः मूरिराजस्य पादुत्थाय हर्षतः ॥ तदैवानेकगव्यूतमिते डम्बरनामके । महासरसि गत्वात्मशस्तहस्तेन धर्मधीः ॥११॥ देशान्तरीयसल्लोक ढौकितान् पक्षिणोधनान् । कारागारस्थलोकांश्च मुमोच वचने दृढः॥११॥ -त्रिभिर्विशेषेकम् । एवं चानेकशः श्रीमत्साहेमिलनतो गुरुः । चैत्योपाश्रयरक्षायै फुरमानान्यकारयत् ॥११॥ तेषां विधापनादासीत्सवचनप्रभावना । तदुत्पन्नश्च यो लाभः स्तोतुं शक्नोति तं चकः॥११७॥ तस्मिन् क्षणे सदारङ्गश्राद्धस्तद्गुणरञ्जितः। मेडतीयो ददौ दानमीदृशं यस्य दर्शनात् ।।१२८॥ द्विपञ्चाशत्तुरङ्गान् सन्मूर्तिमद्धस्तिनं नवम् । वस्त्रप्रभृतिवस्तूनि बहूनि बहुशा ददौ ॥११९॥ दिल्लीदेशे समस्तानां श्राद्धानां श्रद्धयान्वितः। द्विसेरपमितां खण्डलम्भनीं च गृहं प्रति ॥१२०॥ दिव्यावदाताः श्रीसूरेरीदृशाः सन्त्यनेकया । ग्रन्थविस्तरभीत्या तान् नेहावीचं यतोऽलसः॥ मित्यर्थः । अत्र वकारोऽव्ययं पादपूरणे, अन्ययानामनेकार्थत्वात् । यथा भवान् सुकृतार्थः पुण्यार्थी मां प्रतिबोध्य कृतार्थः तथा अहमपि भवदुचितं भवन्मार्गितं कृत्वा सुकृतार्थः कृतार्थश्च भवानीत्याभिप्रायः । Ahol Shrutgyanam Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् एवं सूरिवरस्स हीरविजयो दिव्यावदातान् घनान्, चक्रे यान् जगतीतलेऽत्र विमलान् संस्तूयमानान् बुधैः। तान् शक्नोति न वाक्पतिः कथयितुं शक्तः कथं स्यां ततो, यं श्रीवासकुमार इत्यवितथं पर्येक्षतोगक्रियम् ॥१२॥ इत्थं वासकुमार एप सुगुरोर्याक् परीक्षां व्यधात्, श्रीश्रीवल्लभपाठकः समपठत् तां पण्डितैः संस्तुताम् । श्रुत्वा तां च तथैव तत्र भविकाः सम्यक् यतध्वं सदा, सेवध्वं च विबुध्य तां च खलु तं त्यक्त्वा प्रमादं मुदा ॥१२॥ इति श्री बृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसरि सन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातिसाहि श्रीअकब्बर प्रदत्तजगद्गुरु-बिरुद्धारक भट्टारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कार पातिसाहि श्रीअकब्बरसभासंलब्ध दुर्वादिजयबादभट्टारक श्रीविजयसेनसूरीश्वर पट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिसाहि श्रीयहांगीर प्रदत्तमहातपाविरुधारि भट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णेनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवमूरि गुरुवर्णनपरीक्षणो नाम तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥ RONG १२२-स हीरविजयः सूरिवरः, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यान् धनान् दिव्यावदातान अत्र जगतीतले चक्रे तान् दिव्यावदातान् कथयितुं वाक्पतिहस्पतिर्न शक्नोति, ततस्तस्मात्कारणात् अहं कथं केन प्रकारेण शक्तः स्यां भवेयम् ? अपि तु न स्यामित्यर्थः । स कः ? यं श्री हीरविजयसूरि श्रीवासकुमार इति पूर्वोक्तप्रकारमवितथं सत्यं उपक्रिय पर्यैक्षत परीक्षितवान् । शेष स्पष्टम् । १२३-उत्तरार्धस्य व्याख्या-तां परीक्षां श्रुत्वा तथैव तेन प्रकारेणैव श्रीवासकुमारकृतसद्गुरुपरीक्षाप्रकारेणैव तत्र सद्रूपरीक्षायां भो भविकाः सम्यक् सदा यतध्वम् चोऽत्रावा. चये तां सद्गुरुपरीक्षा विबुध्य ज्ञात्वा सद् सेवध्वं । अत्रापि चोऽन्याचये । Aho I Shrutgyanam Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं चतुर्थः सर्गः [ चतुर्थः अष्टे जगतामिष्टः पट्ट एकोनषष्टके | विजयसेन आचार्यस्तस्य शिष्यशिरोमणिः ॥ १ ॥ अस्य शृणुत वृतान्तमुत्पत्यादिसमुद्भवम् । यादृगस्ति श्रुतं तादृगू वक्तुमिच्छामि तत् किल||२|| अस्त्यस्मिन् भरतक्षेत्रे, नडुलाई पुरी वरा । ( पाठान्तरेण पुरी श्री नारदाभिवा ) तत्र कर्माभिधः श्रेष्ठी वसति व्यावहारिकः ॥ ३ ॥ तत्रान्येऽपि महीयांसो भूयांसो व्यवहारिणः । सन्ति तेष्वभवत्तस्य माहात्म्यमधिकं भुवि ॥ तत्रत्यश्च महीनाथस्तं सदाद्रियतेतराम् । वहन्ति च तदुक्ताज्ञां शिरस्युष्णीषवज्जनाः ॥५॥ दिव्या कोडिमदेव्याख्या देव्याख्याता स्तिरूपतः । तस्य पत्नी सपत्नीच लक्ष्म्या लक्ष्मीसमन्विता ॥ कला रूपं गुणाः सर्वे यौवनं बहुसम्पदः । तं सदा सुखयामासुस्तस्या लाभेन पुण्यतः ||७|| जयसिंहाह्वयः पुत्रस्तयोरासीज्जयोदयः । जयाधिकशिरोरत्नं जयसिंहपराक्रमः ||८|| सर्वदा लोकसन्तापी बुधतेजोपहारकः । अस्थैर्यभाजनं नित्यं सूर्यस्तेन कथं समः ॥९॥ सदा दोषोदयः शुकपक्षः खण्डनान्वितः । कलङ्कालंकृताङ्गय सोमस्तेन कथं समः ॥१०॥ fated बद्धम्भमयो भूवहिकृतः । हृतरत्नः समुद्रोपि कथं तेन समो भवेत् ॥११॥ परोपकारहीनश्रीरदृश्यः कठिनाकृतिः । गुणैर्मरुगिरिस्तेन सदृशो हि कथं भवेत् ||१२|| आदित्यादपि तेजस्वी यचन्द्रादपि सौम्यवान् । सागरादपि गम्भीरो मेरोरपि गुणैर्गुरुः ॥१३॥ सर्वदा पितृपादाजसेवा हेवाभवन्मनाः । सतौ बद्धकक्षो यो राजहंस इवाबभौ ॥ १४ ॥ जयसिंहकुमारवर्णनम् । अस्मिन्नवसरे तस्य वैराग्यमभवद् हृदि । वाल्येऽपि वयसि स्पष्टं कस्माच्चिदपि कारणात् ॥ आधिव्याधिजरादुःखदौर्गत्यादिककारणम् । असार एप संसारो नात्राऽतः स्थितिरद्भुता ॥ अस्मिन्ये न्यवसन्पूर्व निवसन्ति च ये पुनः । निवत्स्यन्ति च ये लोका दुःखिनो विषयैषिणः॥ दौर्गत्यादिकभाजस्ते भविष्यन्ति भवे भवे । तं त्यक्षन्ति भविष्यन्ति ते सिद्धा उत देवताः ||१८|| eat गृह्णाति चारित्रं तयैव तप उत्कटम् । लभै स्वर्गादिसौख्यानि तप्यैव जगतीतले ||१९|| ७-तं कर्माभिधम् तस्याः कोडिमदेव्याः । , ८ जये सिंहस्य पराक्रम इव पराक्रमो यस्य स तथा । ९-तेन जयसिंहाभिधेन । १९- तपस्तपः कर्मकादिति कर्तरि आत्मने पदे क्ये च आशिषि लोट उत्तमपुरुषैकवचनं प्रथमोऽयम् । तपिंच ऐश्वर्ये दिवादिरात्मनेपदी, तपं धूपसन्तापे स्वादिरित्यस्यैव ऐश्वर्येऽर्थे दिवादित्वं आत्मने पदं वा विधीयते । अन्ये तु तपिं च ऐश्वर्ये इति धात्वन्तरं दिवादिमाहुः । अन्ये तु भ्यादेरेव ऐश्वर्ये सन्तापे च आत्मने पदं वेच्छन्ति । लोट उत्तमपुरुषवचनं द्वितीयोऽयम् । Aho! Shrutgyanam Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् स स्वचित् विचिन्त्येवं तदा पितरमब्रवीत् । प्रपद्ये चरणं हृद्यमाज्ञया भवतः खलु ॥२०॥ पितापि तं तदा प्राह प्रवजिष्याम्यमा त्वया । संसारापारदुःखेभ्यो भृशमुद्विग्नमानसः ||२१|| अपृच्छयत तदा ताभ्यां मुदा कोडिमदेव्यपि । आवां परिव्रजिष्यावः पितृपुत्रौ तवाज्ञया ॥ २२ ॥ IT मात्र स्थिता किं करिष्यामि युवां विना । युवां यथा तथाहं च प्रव्रजिष्यामि सर्वथा || आलोच्यैव पिता माता पुत्रश्चैते त्रयो मिथः । दीक्षायै प्रयतात्मानः प्रायतन्त समन्ततः ॥ २४॥ तद्यथा - अनेकवरयात्राभिः क्रियमाणाभिरादरात् । श्रावकैर्नागरैलोकदिवसे दिवसेऽधिकैः ॥ वाद्यमानैः सदातोद्यैरनवद्यैर्वाद्यवादकैः । गीयमानैर्घनैगतिः कान्ताभिश्च नृभिर्बुधैः ॥ २६ ॥ अश्वारूढः कदाचिच्च गजारूढः कदाचन । नृसिंहो जयसिंहोऽसौ तदा राजत राजवत्॥२७॥ - त्रिभिर्विशेषकम् | शुभे मासे सिते पक्षे शोभनायां तिथौ तथा । नक्षत्रे च शुभे लग्ने शुभे योगे शुभे भृशम् ||२८ हीरविजयसूरीन्द्रो जयसिंहमदीक्षत । पित्रा मात्रा च संयुक्तं महोत्सवपुरस्सरम् ॥ युग्मम् तदा यत्सुकृतं जातमन्यच्छीलतादिजम् । द्रव्यादिव्ययजातं च तद्वक्तुं शक्नुमो नहि ॥ ३० ॥ etofवजयसूरीन्द्रस्तनामेदं तदावदत् । जयकुशलकारित्वात् जयकुशलपण्डितः ॥ ३१ ॥ ( विजयावेमलानन्दाद् विजयविमलः सुधीः - इति वा पाठ: ) हीरविजयसूरीन्द्रो जयसिंह सत्पिता । शिष्येण गुरुणानेन सर्वदाऽत्यसुखायत ||३२|| eutscautः सद्या अपठत्स चतुर्दश । अशिक्षत च तत्कालममलाः सकलाः कलाः ॥ ३३ सज्जनोदयसन्तोषी पर दुख निवारकः । सत्यसाहससंशोभी सोऽभवद् वादकर्मठः ||३४|| दानशील: सुवीलाल सिंहवज्जयसंश्रयः । स रराज विनीतो यो यौवनश्रीयुतस्ततः ॥ ३५ श्रीपण्डितपदं पूर्वं तस्मै तदनु चोत्सवात् । उपाध्यायपदं सोऽदात् सोऽभादेवं दिने दिने ॥ कियत्यपि गते काले गच्छभारधुरन्धरम् । शान्तात्मानं वरीयांसं सर्वशिष्येभ्य उत्तमम् ||३७|| सर्वकार्यकरं दृष्ट्वाऽभ्यषिञ्चत्तं शुभे दिने । श्रीसूरिर्युवराज्यत्व आचार्यपदनामके || युग्मम् ॥ श्रेष्ठी मूलाभिधोऽकार्षीत् श्रेष्ठरिपदोत्सवम् । न चेदृशं पुराकार्षुः सूरीणां प्राक्तना जनाः ॥ यावन्तो मिलितास्तत्र जना नवनवा घनाः । तावन्तो भोजयत्तांश्च कुण्डलीभिर्यथेप्सितम् ॥ २१ ३२- हरिविजयसूरीन्द्रः शिष्येन जयसिंहनाम्ना करणभूतेन सर्वदा अत्यसुखायत अतिशयेन सुखं वेदयतिस्म । यन्ममायं शिष्यः पट्टयोग्यो भविष्यतीत्यतिसुखमवेदयदिति भावः । चः समुच्चये । जयसिंहः शिष्यः अनेन गुरुणा श्रीहीर विजयसूरीन्द्रेण करणभूतेन सर्वदा अत्यसुखायत अतिशयेन सुखं वेदयति स्म । धन्यो यदस्य शिष्योऽभवमिति अतिसुखमवेदयदित्यभिप्रायः । कथंभूतो जयसिंहः सत्पिता प्रधानपितृकः पितृयुक्त इत्यर्थः । सुखादिभ्यः कर्तृवेदनायामिति क्यङ् । Aho! Shrutgyanam Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचित [ चतुर्थी मादात्तेभ्यश्च सद्वर्ष्याः सौवर्णाङ्गुलिमुद्रिकाः । श्रीमत्यहम्मदावादे सर्वत्रावर्ततोत्सवः ॥४१॥ -त्रिभिर्विशेषकम् ॥ श्रीरङ्गे पत्तनद्रशे यस्य पद्वन्दनोत्सवम् । अधिकं श्रावकोऽकार्षीत् पूर्वपदवन्दनोत्सवात् ॥४२॥ एवं सूरिवरस्य हीरविजयाख्यस्य प्रशस्ये पदे, दीप्तं तं विजयादिसेनसुगुरुं सर्वात्मना निर्मलम् । श्रीमान् वासकुमार एष उदयी पर्यक्षताचारतः, श्रीश्रीवल्लभपाठकश्च यमिति व्याख्यातवान् सद्गुणैः ॥४३॥ इति श्री बृहत्खरतरगच्छीय श्रजिनराजसूरि सन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपाविसाहि श्रीअकबर प्रदत्तजगद्गुरु-विरुदधारकभट्टारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कार पातिसाहि श्रीअकबरसभासंलब्ध दुर्वादिजयवादभट्टारक श्री विजयसेनसूरीश्वर पट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिसाहि श्रीयहांगीर प्रदत्तमहातपाविरुदधारि भट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजदेवमूरि गुरुवर्णनपरीक्षणो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥ Ahol Shrutgyanam Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् पञ्चमः सर्गः २३ अहमदावादे स्थिरः श्रेष्ठी समाययौ । पुत्रस्य स्वस्य पत्न्याश्च दीक्षाग्राहणहेतवे ॥ | १ || गृहे गृहिण एकस्य यावद्वसनभाटकम् | दत्त्वा तत्रावसद्वश्यः पुण्यात्मा पुरुषोत्तमः ||२|| अert ततः श्रेष्ठी दीक्षायाः सन्महोत्सवम् । श्रीमद्वासकुमाराख्य- पुत्रस्य स्वस्य च स्त्रियः। तद्यथा - व्यचित्रयद्विचित्राणि चित्राणि वरवर्णकैः । गृहभित्तीः सुविच्छित्तः कविः काव्यततीरिव ॥ ४ ॥ गृहस्य प्राङ्गणं प्राभात् स्वतिकाब्जादिमण्डनैः । मण्डितं पण्डितस्त्रीभिस्तदा चित्रितवस्तुवत् ॥ चन्द्रोदयचयो यत्र प्रतिस्थानं नियन्त्रितः । चन्द्रोदय इव प्रायो मनोहरन्मनोहरः ॥६॥ बद्धमुचैः कचित्तत्र स्थूलं स्थूलं व्यलीलसत् । शृङ्गारमिव रोदस्योः मालम्बनकसंयुतम् ||७|| यत्र हाजापटेलस्य प्रतोली बहुलालया । अस्ति, सन्ति हि यस्यां च सकला बहुलालयाः॥८॥ मण्डपं मण्डयामास दीक्षायास्तत्र सुन्दरम् । पञ्चवर्णमयैर्वत्रैचित्रकृद्भिर्विचित्रितैः ॥ युग्मम ॥ मुखमल्ला बभ्रुर्यत्र मुखमल्ला बुधा इव । वाणीवर्णविशेषाणां रचनाभिर्नृरञ्जकाः ॥ १० ॥ रवाफादयः क्वापि विशेषा वाससामिमे । बभ्रुनेंत्रप्रिया यत्र नानाविच्छित्तिनिर्मिताः ॥ ११ ॥ आयाताः सूर्यचन्द्राद्याः ग्रहा इव सुविग्रहाः । तन्मिषात्तन्मुखं दृष्टं नानासंस्थानसंस्थिताः ॥ द्वारं तस्य विभाति स्म रम्भास्तम्भविशोभितम् । सुखानां कौतुकानां च संकेत इव रूपवान् । खं भुवं चान्तरायच विमानमिदमीदृशम् । द्यावाभूम्योविंदूरस्थं पुंस्त्रीदेवादियुगू व्यभात् ॥ आदर्शी रचना यत्र कुत्रचित्प्रीतिकारिणी । तदा श्रेणिरभूत्पुंसां दृष्टान्तानां परस्परम् | १५ | आदर्शी रचना यत्र कुत्रचित्सर्वतस्तदा । प्रतिबिम्बेन लोकानां वक्तीव किमु तद्गुणान् । १६। क्वाप्यत्र स्वस्तिकादीनि मौक्तिकैर्ग्रथितानि हि । प्रालम्बनकभास्वन्ति मोहयन्ति स्म मानवान् । पण्डितानक्षराणीव लिखितानि खटीरसैः । मात्राविन्दुमदीप्तानि प्रकटान्युज्ज्वलानि च ॥ - युग्मम् । इति दीक्षामण्डपवर्णनम् ॥ आकारयत्स आराममभिराममनिन्दितम् । पुत्रस्य वरयात्रायै नानाकृत्रिमवृक्षकः ॥ १९ ॥ ११- अत्र विच्छित्तिः रचना विशेषः - कुत्रचित् जन्तुरूपाणि कचित् पद्मानि कचित् पुष्पाणि, कचित् सूर्यचन्द्रतारकाकारा इत्यादिलक्षणः । १२- नानासंस्थानसंस्थिताः - नाना बहु प्रकारं संस्थानं रचना स्वस्वाकारस्वरूपा रचना तेन संस्थिताः समन्ततः स्थिता ये ते तथा । तन्मिषात् जरबाफादिमिषात् । तन्मुखं श्रीवासकुमार मुखम् | Aho ! Shrutgyanam Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ पञ्चमः तत्राग्रे सहकारः प्राकू हकारेकारयुग् भवन् । लोकोक्तां सुनृतां वार्तां ज्ञात्वा निरचिनोदिति ॥ श्रीमान् वासकुमारोऽयं प्रविवषिताश्वरः । सूरिः सूरिस्ततो भावी पूर्वजेभ्योऽधिकद्युतिः ॥ नीलकौशेय संशेऽभिपत्रश्रेणिविराजिताः । यत्र रम्भा वभुः स्वर्णमूला इन्द्रध्वजा इव ॥ २२ ॥ फलिताः शाखिनो यत्र बहुधैवं विरेजिरे । कर्तारो दिव्यसस्यानि भर्तारः सर्वसम्पदः ||२३|| केतकी-यूथिका-जाति-जपा-कुन्दादिकांश्च यः । पृथकूरूपान् पृथकवर्णान् पुष्पवृक्षानकारयत् || एवं दीक्षा सामग्री क्रीडावातोद्यजातयः । मोदकाद्यानि खाद्यानि निरपद्यन्त तद्गृहे ||२५|| सोsपि वर्णके पुत्र शुभेऽह्नि कविवन्नृपम् । कौसुम्भवस्त्रसंयुक्तः प्रातर्वालार्कवत्तदा ||२६|| सख्योऽभिगायतोलूलून संवर्धयत मौक्तिकः । श्रेष्ठिनः श्रीस्थिराकस्य पुत्रः परिव्रजत्ययम् ॥ आचख्युरिति गायन्त्यः काश्चित्काश्वित्सखीः प्रति । कार्याण्यन्यानि सन्त्यज्य त्वरध्वं तं प्रतीक्षितुम् ||२८|| युग्मम् || चारुकर्पूरकस्तूरीकुङ्कुमादिविमिश्रितम् । स्फुरत्परिमलोपेतां शिष्टां कुरुत पिष्टिका ॥ २९ ॥ toursोदकैरुष्णः सम्यक् स्नपयत द्रुतम् । दृष्टिदोषाच्च रक्षायै यतध्वं द्वन्द्ववर्जिताः ॥३०॥ गन्धकारित्वतस्तस्य फुलमालादिगर्भितम् । न्यबध्नन् मूर्ध्नि धम्मिल्लं वक्रं ग्रीवेव वाजिनः ॥ विलिप्तव्य केशवमूर्तिवत् । कर्पूरागरुकस्तुरीमिश्रचन्दनकुङ्कुमैः ॥ ३२ ॥ सर्वाङ्गेषु संयुक्त मुक्ताभिः कान्तकान्तिभिः । बभौ चन्द्रार्कताराभिराकाश इव निर्मलः ॥ आनाभिलम्बितान मुक्ताहारांस्तारान् स पर्यधात् । लावण्यनीरथेः पीनफेनबुद्बुदसन्निभान् ॥ चोलोष्णीषादिवत्राणि देवदृष्योपमानि च । पर्यधात्स ततः काये सौवर्णाभरणानि च ॥ ३५ ॥ sattra तदानों से पुष्पितः फलितोऽपि च । विधाता वाञ्छितार्थानां कल्पवृक्ष इवाङ्गवान् । स व वरयात्रासु राजेव विरराज हि । ग्रहणैर्मुकुटात्तसैश्छत्र सह चामरैः || ३७ ॥ २०-तत्र आरामे प्राक् पूर्वं सहकारः इति लोकोक्तां सूनृतां बार्ता ज्ञात्वा निरचिनोत् निश्चयं चकार । किं कुर्वन् सन् हकारेकारयुग् भवन् । हकारे ह इत्यक्षरे यः ईकार: चतुर्थस्वरः सकारेकारः । तेन युनक्ति यः स हकारेकारयुग, हकाराक्षर चतुर्थ स्वरयुक्तो भवन जायमानः सहकार इत्यर्थः । इतीति किं तदाह २३- करणशीलाः कर्तारः भरणशीला भर्तारः - अत्र उभयत्र तृन इति तच्छीलेऽर्थे तृन् प्रत्ययः । दिव्यसस्यानि संपदः इत्युभयत्र न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थवृनामिति षष्ठीनिषेधात् नपुंसकस्त्रीलिंग द्वितीयाबहुवचनम् । ३५-चोलः आडण इति लोकाभाषाप्रसिद्धः । चुलपरिवेष्टने सौत्रः | चुल्यतेऽनेन चोलः आप्रपदीनं कञ्चुकं इति क्षीरस्वामिव्याख्यानात् । उष्णीषः पाघडी इतिभाषा । उष्णीष मूर्द्धवेष्टनमिति हैमः । Aho ! Shrutgyanam Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् २५ Samanarasvaऽप्यगायन सुगायकाः । ननृतुर्नर्तकाः केऽपि केऽप्याख्यन् कथकाः कथाः।। व्याज विमानस्थकर काकारदम्भतः । तमीक्षितुमिवायाता ज्ञ जीव- कविदेवताः ॥ ३९ ॥ यस्यैवं वरयात्रासु बभूवुः सन्महोत्सवाः । इन्द्रः स्तोतुं न यान् शक्तः तान् व्याख्यान्ति कथं बुधाः ||४०|| त्रिभिर्विशेषकम् ॥ अत्यद्भुतानि वासांसि देवदृष्योपमान्यथ । कुमारः पर्यवाद् वर्यस्तदा दीक्षामहोत्सवे ॥४१॥ मालम्बनकसंशोभिस्वर्णमाणिक्यनिर्मितम् । न्यबध्नान्मुकुटं भाले पर्यधाद् ग्रहणानि च ॥४२॥ | fafaai स समारोहत् निर्मितामिव दैवतेः । जाग्रत्पुण्यवतां योग्यां वर्धमानकुमारवत् |४३| गायनैर्गीयमानेषु गतेषु प्रीतमानसः । वाद्येषु वाद्यमानेषु हृद्यैरातोद्यवादकैः ॥ ४४ ॥ विद्वद्भिर्वन्दिभिर्मोदात् स्तूयमानगुणोदयः । विज्ञातविविधाने कमङ्गलातोय सद्यशाः ॥ ४५ ॥ arratorदास्यस्त्रीगीयमानसुमङ्गलः । उत्तार्यमाणलवणः पार्श्वयोर्भगिनीजनैः ॥ ४६ ॥ श्रीमहाजा पटेलस्य प्रतोत्यां बहुलौकसि । मण्डितं मण्डपं पूर्वे यत्र तत्र ततोऽभ्यगात् ॥ - चतुर्भिर्विशेषकम् || मुकुटादीनि दिव्यानि ग्रहणानि स्वकायतः । स उत्तार्य व्रतोच्चारं कर्तुमायागुरोः पुरः || ४८ || विजयसेनसुरीन्द्रः कृत्वा नन्दि तदाद्भुताम् । चतुर्भिः संयुतां देवैर्वेदी वैवाहिकीमिव ॥ ४९ ॥ ततस्तं मातृसंयुक्त दीक्षाकन्यां व्यवाहयत् । कारयित्वा तदा तस्यां वारत्रयं प्रदक्षिणाः ॥ ५० ॥ रूप्याणि नालिकेराणि वस्त्रादीनि च लक्षशः । श्रीसङ्गोऽहम्मदावादे प्रादाल्लकेिभ्य उत्सवे ॥ षोडशस्य शतस्यास्मिन् त्रिचत्वारिंशवत्सरे । दशभ्यां माघशुक्लस्य दीक्षाभूद्यस्य सोडवतात्।। विद्याविजय इत्याख्यां तस्य सूरिस्तदाऽकरोत् । सद्विद्याविजयास्तित्वात् त्रिकालज्ञो गुरुर्यतः 11 एवं वासकुमार एष जननीयुक्तः स उल्लासतः, मात्राजीत् विषयान् विहाय सकलान् सांसारिकान् सर्वदा | श्री श्रीवल्लभ एष पाठक इमं यस्यात्र दीक्षोत्सवं, सर्वषां श्रुतमात्र कर्णसुखदं सर्वमियं व्याकरोत् ॥ ५४ ॥ sa श्री भोपाध्यायविराचेते श्रीमतपागच्छाधिराज पतिलाई श्रीवरदत्त जगद्गुरु विरुदधारक भट्टारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर श्रीहांगीर प्रदत्तमहातपाविरुद वारिभट्टारक श्री विजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरि वक्षोत्सववर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः सम्पूर्ण : ||५|| लिखितं मुनि सोमगणिना || ३९- करकाकारदम्भत इत्यत्र करकशद्बो कोटीपर्यायः । उर्करी कर कबी च गलन्तिका -इति हलायुधः । ४४ - आसोद्यवादकैः वाजदार इति भाषाप्रसितैः ५१ - उत्सवे दीक्षा महोत्सवे । * Aho ! Shrutgyanam Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [षष्ठः श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं षष्ठः सर्गः अथो विजयसेनाख्यो वर्याचार्योऽभ्यमन्यत । श्रीमान् वासकुमारोऽपि मिथोऽद्यसुकृतार्थताम् ।। अधीयानं गुरोः पार्थेऽकुर्वाणं पर्युपासनाम् । आश्रवोऽयं विधेयोऽयमित्यवादीत्तदा गुरुः ।। गुरुहस्तमभावेन दीप्यते वर्धते च सः । गुरुः शिष्यप्रभावेनैवतैवं चाप्यऽदीप्यते ॥३॥ ___ तद्यथा-कियत्यपि गते काले, लेभे मूरिपदं ततः। निःसपत्नं स साम्राज्यमिवोग्राऽग्राज्ञयाऽन्वितम् ॥ ४ ॥ विजयसेनसूरीन्द्र इति नामाऽभवद्भुवि । विख्यातं श्रीगुरुख्यातं सन्मुखापारमेश्वरात् ॥५॥ ततः कुर्वन् महीपीठे धर्मराज्यं विशेपतः । अधिकाधिकतेजास्स भवन् मावर्तताचिरात् ॥ श्रीमतोऽकब्बराख्यस्य पातिसाहेः सुसंसदि । षड्दर्शनानुसम्बन्धि वार्ता प्रावततान्यदा ॥ तदा च कोविदः कश्चित् पातिसाहिं न्यवेदयत् । पञ्चदर्शनविद्वांसस्तिष्ठन्ति भवतोऽग्रतः ॥ हीरविजयमूरीन्द्रशिष्यः षष्ठोऽस्ति वादिपः । विजयसेनसूरीन्द्रः स त्वत्तोऽन्यत्र तिष्ठति ॥९॥ मनुते स च नो गङ्गां रामं च परमेश्वरम् । इत्यादिभिर्वचोभिस्स तं चेति प्रत्यबोधयत्।।१०॥ पातिसाहिस्ततोऽत्यन्तं तमाह्वातुं समुत्सुकः । अलेखयत्तदाहूत्यै स्फुरन्मानं घनादरम् ॥११॥ स्वसेवककरे दत्वा स्फुरन्मानं तदा मुदा । त्वमानयमाहूयेत्यऽवदत् सेवकं हि सः ॥१२॥ स तदा शिरसि न्यस्य स्फुरन्मानं तदाज्ञया । प्रस्थाय राधनपुरे मूरेः पाश्वं समाययौ ॥१३॥ -प्रस्थाय राजधन्याख्यपुरे पार्थं गुरोर्ययो-इति पाठान्तरम् ॥ श्रीसूरीश्वरमानम्य तदालोकनतस्तदा । रोमाञ्चिततनुः मादात् स्फुरन्मानं स तत्करे ॥१४॥ श्रीसङ्घस्य समक्षं स स्फुरन्मानमवाचयत् । वाचं वाचं गुरोश्चित्तं सहश्च मुमुदेतराम ॥१५॥ सेवकं पातिसाहेश्व श्रीसढगे मोदयत्तराम् । जीवितार्हस्वदानाच मृष्टान्नादिकभोजनात् ॥१६॥ प्रातिष्ठत ततः सूरिः सुमुहूर्त शुभे दिने । श्रीमन्तं समापृच्छ्य सुधी-साधुसमन्वितः ॥१७॥ आयो नयविजयाख्यः १ श्रीमेघविजयो २ ऽपरः। श्रीमेरुविजयो ३ विद्वान् , श्रीनन्दिविजयः ४ कविः ॥१८॥ २-आश्रवो वचने स्थित इति कथनकारीत्यर्थः। विधेयो विनयप्राही इत्यमरः । ५-श्रीगुरुणा श्रीहरिविजयसूरीन्द्रेण ख्यातं कथितं श्रीगुरुख्यातम् । कस्मात् सन्मुखात् प्रधानवदनात् , कथंभूतात् सन्मुखात्, अत एव पारमेश्वरात्-परमेश्वरस्य इदं पारमेश्वरं तस्ये - दमित्यम् । पारमेश्वरमिव पारगेश्वरं उत्प्रेक्ष्यते; परमेश्वरमुखमिवेत्यर्थः , तस्मात् । १३-राजधन्याख्यपुरे रायधणपुरे इत्यर्थः । Aho I Shrutgyanam Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् विद्याविजय ५ इत्यादि-विनेयेविनयोद्यतैः । प्रज्ञया गुरु १-शुक्र २-ज्ञैरिव संसेवितः सदा ॥१९॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ये ग्रामा ये च सद्गास्तान् सिञ्चन धर्मधारया । भअन् दुरितदुष्कालं प्रमोदं प्रापयञ् जनान् ॥ श्रीसूरिनीरदो गर्जन प्रापानुक्रमतोऽचिरात् । श्रीमल्लाभपुरद्रङ्गं पातिसाहिविराजितम् ॥२१॥ सास्तत्रत्य आहत्य प्रणत्य च ततो गुरुम् । कृत्वा महोत्सवं दिव्यमुपाश्रये समानयत् ॥२२॥ अकबरं पातिसाहिं दिने दिव्ये ततोऽमिलत् । श्रीमूरि रिमूरिश्रीजितान्यप्रतिवायरिः॥२३॥ विनयात् पातिसाहि-श्रीमदकब्बर आनमत् । तं तदा शिरसा भूपान् पश्यतः शस्यचेतसा ।। अथापच्छद् गुरुं धीमान् पातिसाहिरिदं तदा । षड्दर्शनानुसम्बन्धिधर्मवातौं सुधर्मधीः ॥ दर्शनानां तदा षण्णां विविच्यैव पृथक्पृथक् । तं विवेकिनमुर्तीनं स धर्म प्रत्यबोधयत् ॥२६॥ सर्वदर्शनसम्बन्धिधर्म ज्ञात्वा पृथक्पृथक् । केनचित्प्रेरितः साहिरपृच्छत् पुनरीदृशम् ॥२७॥ सूरे किं मनुषे न त्वं रामं गङ्गां च मातृकाम् ? । मूरिःप्राह प्रभो मैवं मन्वहं तद् वयं सदा । रामध्यानं सदा कुर्वे हृदि तद्ध्यानतत्परः। नोचरामि मुखेनास्य ज्ञानहीनश्च कीरवत् ॥२९॥ राति सर्व मनोभीष्टमिति रा वाञ्छितप्रदः।मथ्नाति सर्वतः पापमिति मः पापनाशकः ॥३०॥ इत्यक्षरद्वयार्थत्वाद् रामनाम स्मृतं बुधैः । तत्स्मरामि सदा स्वामिन् न स्मरामि कथं किल । -विस्मरामि न कहिचित्-इति पाठान्तरम् ॥३१॥ युग्मम् ॥ अपवित्रशरीरस्य रामध्यानं च चेतसि । अपवित्रे तथा मार्गे स्यात्सदा पापद्धये ॥ ३२ ॥ इति रामनाम-ध्यानाङ्गीकारः ।। अहो अङ्गमलाक्षेपो गङ्गायां क्रियते कथम् । गङ्गा तु मातृकोच्येत पूज्यते देवतेव सा ॥३३॥ तस्यामङ्गमलक्षेपं स्नानात् कुस् न लोकवत् । पाविश्यभृति मात्रओं कथं पुत्राङ्गसङ्गतिः ॥३५॥ —यतः पवित्रमात्रङ्गे कथं पुत्राङ्गसंगतिः-इति पाठान्तरम् ॥ जलमेव तदङ्गं स्यान्माननीयं तदेव च । तद्विनोच्येत नो गङ्गां तद्विना न तदर्चनम् ॥३६॥ २३-भूरिः प्रचुरा सूरिपु पण्डितेषु भट्टारकेषु वा श्रीर्वेषरचना १ शोभा २ भारती ३ लक्ष्मीः ४ त्रिवर्गसम्पत्तिः ५ मति ६ वा यस्य सः भूरिसूरिश्रीः । अथवा श्रीसूरिभूरिसूरिश्रीतिरस्कारकरः परः इति पाठान्तरम् । तदाऽस्यायमर्थः भूरिसूरीगां प्रचुरभट्टारकाणां प्रचुरपण्डितानां वा श्रीः पूर्वोक्तषडर्था तस्यास्तिरस्कारं करोतीति भूरिसूरिश्रीतिरस्कारकरः परः प्रकृष्टः तदेव प्रकटयति । ३६-तदेव जलमेव सद्विना जलेन विना गङ्गा नोच्येत न कभ्येत । तद् विना गला विना ! न तदर्चनं न गङ्गां पूजा न गङ्गां माननमित्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [षष्ठः माशाङ्गस्य संयोगात् तदङ्गन सुरवायते । तदङ्गदुःखे दुःखं स्यान्मदङ्गस्यापि सर्वथा ॥३७॥ पवित्रं भवदङ्ग चेन्मदङ्ग मलिनं स्पृशेत् । भवदनं तदा स्वामिन , मदङ्गान सुखायते ॥३०॥ एवं राजेन्द्र गङ्गाङ्गं मादृशाङ्गस्य योगतः ! सर्वदा बहुदुःखाय न सुखाय कदापि हि ॥३९॥ विना गङ्गाजलं देव प्रतिष्ठादि भवेन हि । तन्मे मान्या सदा गङ्गा न मान्येत्युच्यते कथम् ।।४०॥ -इति गङ्गाङ्गीकारः। बोधयित्वेति सज्ज्ञानं पातिसाहिमकब्बरम् । अरअयत्तदा मूरिरजयत् प्रतिवादिनः ॥४॥ जितकाशी तदा भूत्वा महोत्सवपुरस्सरम् । मूरिरायाधत्साक्षाजयरूपमुपाश्रये ॥४२॥ -इति श्रीमदकबरपातिसाहिसदसि श्रीविजयसेनमूरिभिः पराजितप्रतिवादिवर्णनम् ॥ चतुर्मास्यो द्वके तत्र व्यधाद् धर्माभिलाषुकः। आग्रहास्पातिसाहेस्स तच्चेतस्तोषको यतः॥४३॥ हीरविजयसूरीन्द्रं संविज्ञायामयाविनम् । पातिसाहिं स आपृच्छ्य श्रीसूरीन्द्रस्ततोऽचलत् ॥ गुर्जर देशमागच्छंश्चतुर्मासी समाप्तवान् । श्रीमूरिः सादडीद्रङ्गे सद्रङ्गे श्रीभिरवहम् ॥४५॥ संजातं स्वर्गिणं स्वर्गे श्रीहीरविजयं गुरुम् । मर्त्यलोकं परित्यज्य वचः श्रुत्वेति दुस्सहम् ॥४६॥ श्रावकैरक्ष्यमाणोऽपि चतुर्मास्यन्त आग्रहात् । सोत्सवः पत्तनद्रङ्गे प्रस्थायायात्ततो गुरुः ॥४७॥ re . ३७-तदङ्गं जलमयं गङ्गाङ्गं कर्तृ न सुखायते न सुखं वेदयतीत्यर्थः । कस्मात् माटशागस्य संयोगात् । तदङ्गदुःखे जलमयगङ्गाङ्गदुःखे मदङ्गस्यापि सर्वथा दुःखं स्यात् । तदेव प्रकटयन्नाह. ३८-उक्तिलेशश्चास्य-हे स्वामिन् हे अकबरपातिसाहे चेद यदि मलिनं मदङ्ग मम कायः पवित्रं भवदनं भवतः कार्य कर्मतापन्न स्पृशेत् तदा मदङ्गात् मम कायात् कारणात् भवदङ्ग भवतः कायः कर्ता न सुखायते न सुखं वेदयतीत्यर्थः । उभयत्रापि श्लोके सुखायते इति क्रियापदं सुखादिभ्यः कर्तृवेदनायाँ इति अनुभवेऽथे क्यङि सिद्धम् । ३९-एवममुना प्रकारेण मदङ्गाद् भवदङ्ग न सुखं अनुभवति इति लक्षणेन । ४६-अजयत्प्रतिवादिन इत्यत्र च शद्वाप्रयोगेऽपि आर्थों अन्वाचयार्थश्चकारो ज्ञेय ।। ४३-स श्रीविजयसेनमूरिः तत्र श्रीलाभपुरे द्वके द्वे चतुर्मास्यौ व्यधात् । कस्मास् पातिसाहेः श्रीमदकब्बरस्याग्रहात् । कथंभूतः स ? धर्माभिलाषुकः । कथं भूत: स यतः तच्चेतस्तोषकः श्रीमदकब्बरपातिसाहिहृदयसन्तोषकारी । दूके इत्यत्र भस्त्रैषाजाज्ञाद्वास्थानामिति वैक. ल्पिकेकाराभावः । इकारसद्भावपझे द्विके इत्युभयमपि रूपम् । ४४-श्रीसूरीन्द्रः श्रीविजयसेनमूरिः ततः श्रीलाभपुरात् । ४७-गुरुः श्राविजयसेनमूरिः ततः सादडीद्रङ्गान् । Ahol Shrutgyanam Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् स्थित्वा तत्र सभावित्रः स भूयांसमनेहसम् । पुया त्रम्बावतीनाम्न्यां सङ्घाहतस्ततो गतः ॥ कृत्वा तत्र चतुर्मासी भवन्नानामहोत्सवैः । प्रस्थायायात्ततः मूरिः श्रीराजनगरे बरे ॥४९॥ नानाद्रव्यव्ययैदिव्यैर्जायमानमहोत्सवः । चतुर्मासी व्यधात्तत्र श्रीमूरिः मूरिशेखरः ॥५०॥ ततश्चाहम्मदावादोपपुरे श्रीशकन्दरे । श्रीसट्टाग्रहतस्तस्थौ चतुर्मासी गुरूत्तमः ॥५१॥ मत्यस्थादुत्सवैस्तत्र शान्तिबिम्वं स सद्गुरु दौषिकान्वयविख्यात-लहुयाख्यश्राद्धकारितम् ॥ लाटापल्ल्यां समागच्छत् ततः प्रस्थाय सोत्सवः । तत्रावसच्च सूरीन्द्रश्चतुर्मासी सुखाश्रितः ।। अचिन्तयत् स्थितस्तत्र चेतसीत्येकदेशम् । पदाहीः सन्ति मे शिष्याः श्रीनन्दिविजयादयः ।। पदयोग्येषु शिष्येषु श्रीनन्दिविजयादिषु । कः शिष्यो भविता ख्यातो गच्छमारधुरन्धरः ॥ विचिन्त्येति स्थितो ध्याने तपःकुर्वननेकधा। त्रीन्मासान् यावदत्युग्रं मूरिरेकाग्रमानसः॥५६॥ अधिष्ठाता तदेत्याख्यत् मूरिमन्त्रस्य मन्त्रिणम् । प्रत्यक्षीभूय सूरीन्द्रं तपः साध्यं न किं यतः ॥ विद्याविजयनामायं शिष्यस्ते गच्छनायकः । भविता जगति ख्यातो विचारो नापरो गुरो || श्रुत्वा श्रीसूरिमन्त्रस्याधिष्ठातुरिति सद्वचः। जाग्रत्मभावकं मूरिः सूरिमन्त्रं सदाचिदत् ॥१९॥ विद्याविजयनामानं शिष्यं श्रीगच्छनायकम् । भाविनं मनसि ज्ञात्वा श्रीसूरिMमुदेद् हृदि । प्रातिष्ठत ततः मूरिः साध्वाचारपरायणः । यतोऽवस्थानमेकत्र साधूनां युज्यते न हि ॥६१॥ ग्रामानुग्राममाचारात् विहर जिनवत्स्वयम् । सहर्षः समवासार्षीत् श्रीमदुन्नतपत्तने ॥१२॥ तत्रत्या: श्रावकाः सर्वेप्यकुर्वन्नुत्सवान् घनान् । दर्श दर्श मुनीशं तं वन्दं वन्दं दिने दिने ॥६॥ सूरिः कृत्वा चतुर्मासी तत्रान्यत्र ततोऽचलत् । पवित्रचरणन्यासैः सद्धरित्री पवित्रयन् ॥६४|| द्रष्वन्येषु वृद्धषु न्यवसत्स विचक्षणः । अनेहसं च भूयांसं लोकान् धमाश्च कास्यन् ॥६५॥ ४८-तत्र पत्तनद्रङ्गे सभावित्रः सह भावित्रेण भद्रेण वर्तते यः स सभावित्रः । भावित्रशद्रो हैमोणादौ भद्रपर्यायः । ततः पत्तनद्रङ्गात् । ४९- तत्र त्रम्बावती नाम्न्यां पुर्या । ततः त्रम्बावती नाम्न्याः पुर्याः श्रीस्तंभतीर्थादित्यर्थः। श्रीराजनगरे श्रीमति अहम्मदावादे । ५०-तत्र अहम्मदावादे । ५१-गुरूत्तमः श्रीविजयसेनसूरिः। ५२-प्रत्यस्थात् प्रतिष्ठत् प्रतिष्ठामकरोदित्यर्थः । तत्र शकन्दरपुरे । ५३-ततः शकन्दरपुरात् । तत्र लाटापल्ल्यां लाडोलपुरे इत्यपरनाम्नि । ५७-इतीति किं तदाह । ५८-(उन्नतपत्तने ) ऊनानगरे । ६४-तत्तः ऊनान जरात् अन्यत्र नगरेषु देशेषु वा अचलत् । Ahol Shrutgyanam Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं अस्मिन्नवसरे मूर्ति प्रतिष्ठायै समाह्वयत् । श्रीसुरेतपुरात् मेघः स्वपत्नीलाडकीरितः ॥६६॥ ततः प्रस्थाय सूरीन्द्रः श्रीसूरेतपत्तनात् । प्रतिष्ठायै समागच्छत् श्रीमदुन्नतपत्तने ॥६॥ अकरोत् स ततः श्रेष्ठां प्रतिष्ठां सुदिने दिने । कारितां श्राद्धमेघेन यथाविधि महोत्सवात् ॥ न केचिदपि ताक्षी याशी पागकारयन् । प्रतिष्ठां स न कश्चित्पाग व्यधापयद् व्यधाच सः॥ अत्रान्तरेऽन्तिपच्छ्रेष्ठः श्रीनन्दिविजयाह्नयः । कोविदः सर्वविद्यासु सर्वभाषाविदुत्तमः ॥७०॥ गुरवो हि फिरङ्गीणां पादरी इति तद्राि । सन्ति तान् रञ्जयामास पत्रद्वारा दुरात्मनः ॥७॥ अत्यन्तं रमितास्ते च जिनधर्मविदस्तदा । अभवञ् जिनभक्ताश्च साधुसेवापरायणाः ॥७२।। पादरीहन्दमानन्दादार्हन्तं धर्ममुत्तमम् । गुणांश्च जैनसाधूनां फिरङ्गीणां पुरोऽवदत् ॥७३॥ ततः फिरङ्गीसल्लोका जैनसाधून दिदृक्षवः । विवन्दिषव इत्याख्यन् पादरोवृन्दमादरात् ॥ पादरी ! श्रीगुरुं शीघ्रं समाह्वय सुभक्तितः। अपरं न किमप्यत्र विचारय विचारवित् ।।७५॥ ततश्च पादरी पत्रं विलेख्य च विमोच्य च । सूरीन्द्रमाह्वयामास श्रीमद् दीपपुरे तदा ॥७६।। नायाति स्म तदा मूरिविना मेघस्य सद्वचः । यतो मेघः फिरङ्गीतो भीतोऽतो न समाह्वयेत् ॥ मेघनामास्ति का ख्यातः सर्वतो जगतीतलम् । किं गोत्रः कस्य पुत्रश्च वसति क्व च पत्तने । इति सर्व समाख्यामि यथाजातमनिन्दितम् । तत्परीभूय तद्भव्याः श्रावकाः शृणुतादरात् ।। तद्यथा-अथास्ति भरतक्षेत्रे नगरं द्वीपनामकम् । अधिकारी फिरंगीणां तत्र राज्यं करोत्यलम् ॥ रामसीतार्चनं नित्यं मनुते नान्यदेवता । विना स्वधर्ममन्येषां धर्म च न कदापि सः ॥८॥ श्रेष्ठी सहस्रदत्तोऽभूत्तत्र सर्वद्धिमत्तरः । पारिक्खगोत्रविख्यातो माननीयतरोत्तरः ॥८२॥ फिरङ्गीणां प्रियोऽत्यन्तं तस्य पुत्रः पवित्रधीः । मेघो नाम जगत्ख्यातो वर्तते महिमानिधिः॥ नागात् मूरिः समाहूतःश्रीफिरङ्गाधिकारिणा । मेघस्योति विना वार्ता ज्ञातपूर्वी ति भक्तिमान् श्रावकेणान्यदा तेन स इति प्रत्यबोध्यत । गुरुरस्ति वरिष्ठः श्री. प्रत्यक्षपरमेश्वरः ॥८॥ इहायाति स आहूतो यद्याज्ञा भवतो भवेत् । इह तस्मिन् समायाते मम धर्मोऽभिवर्धते ॥८६॥ अधिकारीति हि श्रुत्वा प्रससादसरां तदा । दुष्टात्मापि विशिष्टात्मा पृष्टस्तुष्टो भवेज्जनः॥८७॥ -साधुसंयोगतो भवेत् ; विज्ञप्तो विनयाद्भवेत्-इति पाठान्तरद्वयम् ॥ ६९-उक्तिलेशश्चास्य-स मेघः याशी प्रतिष्ठा व्यधापयत् ताही प्राग पूर्व केचिदपि न अकारयत् । चः पुनः स विजयसेनहरिः यादृशी प्रतिष्ठा यथाविधि व्यधात् तादृक्षी कोऽपि प्राम् न व्यधात । अत्र प्रतिष्ठामिति कर्मपदं उभयत्र व्याख्येयं व्यधाद् इति क्रियापदमपि द्विरावर्तनीयम्. ७१-तदगिरा फिरङ्गीणां भाषया इत्यर्थः । ७४-इतीति किं तदाह । ८९-अध्यक्षं फिरंगीणां अधिकारिणां-अध्यक्षाधिकृतौ समौ इति हैमः । Ahol Shrutgyanam Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् ३१ स तदा तं प्रति माह ममानुज्ञास्ति तेऽधुना। श्रीगुरुं त्वद्गरुं शीघ्रं समाह्वय समानय ॥८॥ अध्यक्ष ते प्रतीत्याह स तदा प्रीतमानसः । भवन्नामाङ्कितं पत्रं लिखित्वा मुञ्च भो प्रभो॥ सोऽपि तत्पुण्यवश्यात्मा लिखित्वा पत्रमादरात् । स्वसेवककरे दत्वा स्वसेवकमचालयत् ।।९०॥ ततः सोऽप्यचलच्छीघ्रं यद्राजा करशासनः । उन्नताख्यं पुरं श्रीमदवाप त्वरितं चलन ॥११॥ यत्रोपाश्रय आसीनो गुरुस्तं तत्र सोऽनमत् । दर्श दर्श तदा तस्य नेत्रे नातृप्यतां तदा ॥१२॥ अध्यक्षस्य फिरंगीणां पत्रमेतद्गहाण भोः। भवदाकारणायाहं तेन प्रेषित आगतः ॥१३॥ इत्यादि कथयन् प्रीतो वारंवारं गुरोः पुरः। स ददौ श्रीगुरोर्हस्ते पत्रं फिरंगिभूपतेः ॥१४॥ तत्पत्रं वाचयामास संघस्याग्रे तदा गुरुः । श्रीगुर्वाकारणं श्रुत्वा श्रीसंघेनाप्यतुष्यत ॥९॥ स तदा सङ्घमापृच्छ्य चचालोत्तालमानसः। आलस्यं धर्मकार्येषु न सतां युज्यते यतः ॥९६॥ प्रचलन पथि धर्मात्मा प्रापयन धर्ममाईतम् । लोकानधर्मिणः मूरिः प्राप द्वीपपुरं क्रमात् ॥ तदा संभूय तत्रत्यः सङ्ग्रो मेघयुतोऽभ्यगात् । नत्वा कृत्वोत्सवं मूरि समानयदुपाश्रये ॥९८॥ दत्वेति प्राभृतं मेघस्तदाधिकृतमब्रवीत् । यो गुरुभवताहूतः स साम्प्रतमिहागतः ॥१९॥ स आहेति तदा प्रीतः स आयातु ममाग्रतः। सोऽप्यागत्यान्तिके तस्य धर्मलाभाशिष ददौ ॥ धर्मलाभाशिष श्रुत्वा स तुतोपतरां हृदि । स्थित्वैकत्र च तौ धर्मगोष्ठीमकुरुतां मिथः॥१०॥ धर्मगोष्ठी विधानेन स प्रसन्नोऽभवद् गुरौ । आह चेति यथेच्छे भो निवसन्त्वत्र साधवः॥१०२॥ ततस्तस्याग्रहात्तत्र श्रीमूरिः शरदौ द्वके । चतुरो द्वे चतुर्मास्यौ न्यवसद् धर्मद्धये ॥१०॥ दुरात्मानं पुरा नित्यं धर्मात्मानं च नूतनम् । चिरन्तनमिवात्यन्तं वरात्मानं सदातनम् ॥ अध्यक्ष श्रीफिरंगीणां साधुसेवापरायणम् । विधाय करुणात्मानं प्रतस्थे स गुरुस्ततः ॥१०॥ श्रीमद्वीपपुरे नित्यं प्रत्यब्दमथ साधवः । निवसन्ति हि कुर्वन्तः कारयन्तश्च सट्टपम्॥१०६॥ -इति फिरंगीणां अधिकारीप्रतिबोधः श्रीद्वीपे । प्रतिष्ठा जिनबिम्बानां प्रतिबोधोऽन्यतीथिनाम् । मालारोपादयोऽनेके धर्मा एकैकतोऽधिकाः ॥ देशे देशे महीयोभिरुत्सवैरतिसुन्दरैः । सर्वदा सर्वदानाढ्यैर्गामे ग्रामे पुरे पुरे ॥१०॥ कृताः श्रीमरिणा रम्याः कारिताश्च विशेषतः । तानहं नालिख सर्वान् ग्रन्थविस्तरभीतितः ॥ -त्रिभिर्विशेषकम् ॥ शत्रुभयोज्जयन्तादि तीर्थयात्रा अनेकथा । अनेकसङ्कासंयुक्तः सोऽकरोदुत्सवोत्करैः ॥११०॥ लिखितुं तान्न शक्नोमि नव्यनव्यान दिने दिने । वर्णनीयान् सदा देवैर्यतोऽहमलसो भृशम् ॥ ९८-अभ्यगात अभिमुखमगच्छत् । Aho I Shrutgyanam Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचितं इत्थं वासकुमारचारुचरणादानमभावोद्भवं माहात्म्यं विजयादिसेन सुगुरोस्सत्यं जगद्विश्रुतम् । श्रीवल्लभपाठकः समपदत्तच्छ्रावकाः सन्ततं श्राश्रावमनिन्दितं स्वहृदयेऽभ्यानन्दताऽनिन्दिताः ॥ ११२|| इति श्रीवल्लभोपाध्याय विरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातसाहि श्रीअकब्बर प्रदत्त जगद्गुरु बिरुद्धारक भ० श्रीहीरविजयसूरीश्वर० पातसाहि श्रीजिहांगीर प्रदत्त महातपा विरुद्धारि भट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णन प्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्री विजयदेवसूरि दक्षाग्रहणप्रभावोद्भव श्रीविजयसेनसूरि माहात्म्य वर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥६॥ 14] G+: [ षष्ठः ११२ – भो श्रावकाः ! तत् विजयादिसेनसुगुरोः श्रीविजयसेन सूरीश्वरस्य माहात्म्यं सन्ततं सदा श्रावं श्रावं श्रुत्वा श्रुत्वा स्वहृदये अभ्यानन्दत । कथंभूतं इत्थं अनेन प्रकारेण श्रीमदकब्बर पातिसाहि परिषद्वादावधानपराजितानन्तप्रतिवादिवृन्दादिलक्षणेन वासकुमार चारुचरणादानप्रभावोद्भवम् । पुनः कथंभूतं ? सत्यं । पुनः कथंभूतं ? जगविश्रुतम् । तत किं ? यन्माहात्म्यं श्रीश्रीवल्लभ पाठकः समपठयत् अकथयत् । Aho! Shrutgyanam Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् सप्तमः सर्गः अथाससाद नैपुण्यं पुण्यं पुण्यवतां सताम् । सयौवनमिव श्रेयः स यौवनवयश्च सत् ॥१॥ सिद्धान्तानां समस्तानां तपोभेदविधानतः । साङ्गे प्रवचनेऽधीती सोऽभवत् क्रमपाठतः ॥२॥ दर्श दशै ततः मूरिः क्षणयुक्तः प्रतिक्षणम् । विद्याविजयनामार्य गणिरित्यब्रवीद् ध्रुवः ॥३॥ षोडशस्य शतस्याऽस्मिन् पञ्चपञ्चाशवत्सरे । श्रीमत्यहम्मदाबादोपपुरे श्रीशकन्दरे ॥४॥ कारितायाः प्रतिष्ठाया उत्सवे भूरिरैव्यये । श्राद्धेन लहुआकेन स्ववंशाम्भोजभास्वता ॥५॥ प्रशस्यचेताः श्रीसूरि रिमूरिद्विपोपमः। पण्डितपदमानन्दि तस्मै पुण्यात्मने ददौ ॥६॥ मार्गशीर्षे सिते पक्षे प्रकृष्टे पञ्चमीदिने । देशदेशसमाहूतजनवृन्दविराजिते ॥७॥ -चतुर्भिः कलापकम् ॥ अथास्ति भरतक्षेत्रे स्तम्भतीर्थाभिधं पुरम् । यत्सुखं वर्तते तत्र न तत्स्वर्गे कदापि हि ॥८॥ यत्र श्रीपार्श्वनाथस्य महिमा महिमाऽवति । आवतीव हियं द्रष्टुं वाषिर्वेलाच्छलाकिल ॥९॥ यत्र पार्थजिनं नित्यं नौतीवान्वहमम्बुधिः । वेलाच्छलेन सद्रत्नाक्षतान् मुश्चन् पुरान्तिके ॥ यत्र सन्ति सतां सन्ति गृहाणि व्यवहारिणाम् । विमानैः स्पर्धमानानि मनोरमतयोच्चकैः ।। निवसन्ति च ये तत्र द्रव्याढया व्यवहारिणः। दातृत्व सद्गुणाधिक्यात सुरेभ्यो भागिनोऽधिकाः ॥१२॥ युग्मम ॥ व्रतधारी सदाचारी ब्रह्मचारीश्वरः परः । परन्तपतिरस्कारी श्रेयस्कारी सदा नृणाम् ॥१॥ धर्मकारी गुणाधारी प्रीतिकारी नरोत्तरः । व्यवहारीश्वरस्तत्र श्रीमल्लो नाम वर्तते ॥१४॥ युग्मम् ॥ १-स विद्याविजयः अथ पुण्यवतां सतां मध्ये पुण्यं अत्यद्भुतत्वात् अनिन्दायत्वाच च पवित्रं नैपुण्यं निपुणभावं आससाद प्राप्तवान् । कथंभूतं नैपुण्यं ? श्रेयः अतिशयेन प्रशस्यम् । पुन: कथंभूतं उत्प्रेक्ष्यते-सयौवनमिव सह यौवनेन वर्तते यत्तत् सयौवनं; तत् सयौवनं तदिवः यादृशं यौवनवयोयुतं शरीरं श्रेयः स्यात् । तथा नैपुण्यमपि अतिविशिष्ठत्वान् अध्ययनाध्यापनादिषु सर्वकर्मसु जागरूकस्फूर्तिमत्त्वाच यौवनयुततुल्यमित्यर्थः । यौबने हि सर्व प्रशस्मापि प्रशस्यतरं भवति तर्हि प्रशस्यस्य किं वक्तव्यं, नैपुण्यस्यात्याधिक्यात् अत्यद्भुतत्वान् य । यौवनयुतेन औपम्यं केवलं नैपुण्यमेव प्राप नान्यतिकमपीत्याह-च पुनः यौवनवयः आससाद । कथंभूतं यौवनवयः सत् प्रधानम् । ९-प्राक् आवतीति क्रियापदं आङ पूर्वक मामस्त्येन पालनार्थ महिशब्दोऽत्र इकारान्त औणादिकः । द्वितीयं आवतीति क्रियापदं गत्यर्थस्यापि अवधाओराङ पूर्वकत्वात् आगमनार्थमवसेयम् । Ahol Shrutgyanam Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [सप्तमः निश्चला बहुला लक्ष्मीरुल्लासं मल्लते कुले । नाम जल्पन्ति जल्पाकाः श्रीमल्ल इति सार्थकम् ॥ भ्रातृव्यस्तस्य वा भाति सोमः सोमसमाज्ञया। सोमवत् सर्वलोकानामभिप्रेतः प्रियंवदः॥ सोमो नाम जगज्ज्योतिः समरात्रिदिवद्युतिः । अन्यो रात्रिद्युतिः सोमः कियांस्तस्याग्रतोऽवति ॥१७॥ अर्थतस्यान्यदा चाग्रे भक्त्यैकाग्रश्रुतिश्रुतेः । लोकोक्ता लोकवार्तेति कैश्चिदौच्यत सज्जनः॥१८॥ विजयसेनसूरीन्द्रस्स्वशिष्यमभिषेक्ष्यति । विद्याविजयनामानं विद्याविजयमाननात् ॥१९॥ श्रुत्वा स ईदृशं वाक्यं विवेकी धर्मकर्मसु । वाञ्छन् नवनवं धर्म हृद्यविन्दत्तदेदृशम् ॥२०॥ एतत्पट्टाभिषेकस्य महोत्सवमहोत्सवम् । करवाणि तदाऽभाणि तेनेति च तदा जनाः ॥२१॥ ___ लक्ष्मीरनगला लीलां कुरुते मम वेश्मनि । युज्यतेऽस्याः कृतार्थत्वमस्मिन्नुत्सवकर्मणि ॥२१॥-पाठान्तरम् -इति व्यज्ञपयत्सई विनयात्स महर्टिकम् । करवाण्याज्ञयावोऽहमेतत्पट्टमहोत्सवम् ॥२२॥ १५-मलि मल्लिधारणे भ्वादिरात्मनेपदी | जल्पाकाः पण्डिताः । १६-तस्य श्रीमल्लस्य भ्रातृव्यः सामः सोमनामा सोमसमाज्ञया चन्द्रोज्ज्वलयशसाबाभाति आतिशयेन शोभते । यशः कीर्ति समाज्ञा चैत्यमरः । सोमवत् चन्द्रवत् सर्वलोकानामभिप्रेतः । १८-भक्त्या एकाग्रयोः श्रुत्योः कर्णयोः श्रुतिः श्रवणं यस्य तस्य भक्त्येकापश्रुतिश्रुतेः । यद्यत्र समासान्तमेकपदं तर्हि इको यणीति यणि एकादशस्वरमध्य एवं पाठः। अथ च भक्त्येति तृतीयान्तं पदं पृथक् तदा वृद्धिरेचीति वृद्धौ द्वादशस्वरमध्य एव पाठः । इतीति किं तदाह। १९-विद्याविजयाभ्यां माननं विद्याविजयमाननं तस्माद हेतोः । अथवा विद्या च विजयश्च माननं चेति त्रिभिः समाहारे एकवद्भावे च विद्याविजयमाननं तस्माद् हेतोः । अथवा विद्याविजयमाननमिति पाठः । तदायमर्थः-कथंभूतं विद्याविजयनामानं विद्याविजयाभ्यां कारणाभ्यां माननं सर्वलोके यस्य स तथा तं । अथवा विद्याभिश्चतुर्दशसंख्याभिः शिक्षा कल्पो व्याकरणमित्यादिकाभियों विजयस्तेन कारणेन माननं यस्य स तथा तम् । २०-विद विचारणे रुधादिः परस्मैपदी । २१-तदा तस्मिन् काले श्रीविजयसेनमूरिः विद्याविजयनामानं स्वशिष्यमभिषेक्ष्यति इति श्रवणकाले । तेन श्रीमल्लेन जनाः अर्थात् श्रावकलोका इति अभाणि इतीति किं एतत्पट्टाभिषेकस्य विद्याविजयपट्टाभिषेकस्य महोत्सवमहोत्सवं करवाणि महान् उत्सवो यस्मिन् यस्माद वा दर्शनाल्लोकानां स महोत्सवः महाश्वासावुत्सवश्व महोत्सवः महोत्सवश्चासौ महोत्सवश्च महोत्सवमहोत्सवस्तम् । Aho I Shrutgyanam Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् श्रीनेऽपि तदावादीदाश्रवो भवतोऽस्त्ययम् । मा प्रमाय हृदानन्द्य सद्यः श्रीमल्ल तं कुरु ॥ ततः श्रीमल आनन्दात्तदानीं मोदमेदुरः । श्रीसङ्घस्य समक्षं स्राक् इति पत्रे व्यलेखयत् ||२४|| स्वस्ति श्रीदेवमादीन्य सर्वाभीष्टार्थदायकम् । श्रीमत्यहम्मदाबादपुरे सद्भर्भरीवरे ||२५|| विजयसेनसूरिः स जिनशासनभूषणम् । राजते यस्तपः कुर्वन् हन्ति पातकदूषणम् ॥२६॥ त्वरितं दुरितं हन्ति नामोच्चारोऽपि ते कृतः । किं स्तुमस्त्वत्पदाम्भोजवन्दनापूजने गुरो ॥ तत्र स्युः सम्पदः सद्यो निरवद्या निरापदः । यत्र त्वच्चरणन्यासः किं स्तुमस्त्वत्पद स्थितिम् ॥ एवं सूरीश्वरं स्तुत्वा वन्दते च वदत्यदः । स्तम्भतीर्थस्थितः श्राद्धः श्रीमल्ल सङ्घसंयुतः ॥ २९ ॥ प्रमोदे चाभिनन्दामि भवत्पादप्रसादतः । इच्छामि च भवत्कायकुशलं कुशलप्रदम् ॥३०॥ पूज्यराज पदाम्भोजमकरन्दस्त्वदीयकः । मदीयनेत्ररोलम्वं पुष्णात्वत्रागमोद्भवात् ॥ ३१॥ 'भूयांसः श्रावकाः सन्ति पदोत्सव विधायकाः । परमस्योत्सवं कर्तुं चिकीर्षामि गुरूत्तम ||३२|| श्री पूज्यात इहागच्छ सङ्घमापृच्छ्य सर्वतः । पिपर्मि परमं सर्वं मामकं हि मनोरथम् ||३३|| पत्रमीदृशमालिख्य श्रीगुरूचितमादरात् । अलिखत्स पुनः पत्रं श्रीसङ्घोचितमादृतम् ||३४|| तद्यथा-स्वस्ति श्रीजिनमानम्य, रम्यधर्मपरायणम् । श्रीमदहम्मदावादपुरवासिमहाजनम् || श्रीमल्लः स्तम्भतीर्थस्थो ज्योक् करोति करोति च । विज्ञप्तिं विनयेनेति विनयी विनयीश्वरम् || विजयसेनसूरीन्द्रा विद्याविजयनामकम् । युवराज्यपदे स्वीये धर्म्ये न्यसति सम्मति ||३७|| कर्तुं तस्योत्सवं श्रीमत्सङ्गादेशेन भक्तितः । वाञ्छामीति ततः सङ्घे मुञ्चतादिह सद्गुरुम् ॥ ३८ ॥ इह श्रीस्थम्भतीर्थे बिभर्तु परमं प्रेम श्रीसंघो मयि सेवके । पिपर्तु च जनाभीष्टमिमं मन मनोरथम || ३९ ॥ इति पत्रं समालिख्य श्रीसङ्घोचितमद्भुतम् । आह्वयत्सेवकं स्वीयं श्रीमल्लः श्रावकस्ततः ॥४०॥ २३-भयं श्रीसङ्घो भवतस्तव आश्रवः कथनकारी अस्ति । आश्रयो ववनेस्थित इति हैमः । २४-भर्भरीशब्द औणादिकः श्रीपर्याय: । सत्या विद्यमानया प्रशस्तया वा न्यायोपार्जितत्वात् । भर्मर्या श्रिया वरंयत्तत् सद्भर्भरीवरं तस्मिन् | ३९ - ज्योकू इति कालभूयस्त्वप्र भयोः । ज्योग् जीवामः: ज्योक् कृत्य नृपतिं गतः । विनयी विनयवान् । कथंभूतं महाजनं ? विनयीश्वरं विनयवतां नायकं यद्वा विनयी विनयवान् स चासावरच समृद्ध इति कर्मधारये विनयश्विरस्तं । अनेन श्रीमदहम्मदावादवासिमहाजनस्य विनयोपेतत्वं महर्दिकत्वं च दर्शितम् । इतीति किं ? तदाह. ४० - श्रीसङ्घ इमं पट्टाभिषेकोत्सवकरणलक्षणं मम मनोरथं पिपर्तु पूरयतु । कथंभूतं इमं मनोरथं जनाभीष्टं जनस्य अर्थात् श्रीमदहम्मदावादाद्यपरनगरवासिमहाजनस्याभीष्टो जनाभीष्टस्तं । अनेन विशेषणेन श्रीमदहम्मदावादपत्तनाद्यनेकनगरनिवासिनां महर्द्धिकानां श्राचकाणां पदमहो Aho! Shrutgyanam Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [सप्तमः पत्रं गुरोध सङ्घस्य सेवकस्य करे ददौ । अवादीच तदा मोदात् श्रीमल्ल इति वाचिकम् ॥४१॥ वन्दनां श्रीगुरोर्ब्रया देयाः पत्रं करे ततः । ज्योक्कारं सर्वसंघस्य पृच्छेश्च कुशलं तथा ॥४२॥ आह्वयत्याव भो स्वामिन् श्रीमल्लः सङ्घसंयुतः । त्वदीयागमने तस्य मन आनन्दमाप्स्यति ॥ इत्युदित्वा गुरुं नत्वा भक्त्या परमया तथा। श्रीससस्य करे पत्रं दध्याज्ज्याकुकृत्य कृत्यवित् ॥ इति विज्ञपयत्येष श्रीमल्लः सङ्कसेवकः । श्रीमदहम्मदावादसङ्घ सङ्घमिव श्रियाम् ॥४५॥ विजयसेनसूरीन्द्रं मुश्च श्रीस्तम्भतीर्थंके । स्वशिष्यमभिषेक्तारं विद्याविजयनामकम् ॥४६॥ इत्युक्त्वाचालयत्सद्यः स स्वसेवकमाशुगम् । सोऽप्यचालीत्तदोत्तालः शीघ्रकृद् यत्पतिप्रियः ॥ सम्पापाहम्मदाबादपुरं स त्वरितं चलन् । श्रीपूज्यराजपादाब्जमवन्दत च भक्तितः॥४८॥ ददौ पत्रं तदा हस्ते सशस्ते श्रीगुरोर्मुदा । स स्वयं वाचयामास सुप्रसन्नमना हि तत् ॥४९॥ प्रददौ सङ्घ-पत्रं च सपाणौ सदक्षिणः । सडेनापि तदाऽवाचि श्रीमता तत् शुभात्मना ॥५॥ संभूय श्रीगुरुः सङ्घ उभौ विमृशतुस्तदा । किं कर्तव्यमिति स्पष्ट व्रतेति मिथ ऊचतुः ॥५॥ पूज्यं व्यज्ञपयत् सङ्घः स्तम्भतीर्थ व्रज प्रभो । वाञ्छितं कुरु तस्याशु यल्लोकः स्वेष्टसिद्धितुट् । शुभ मुहूर्तमालोक्य श्रीसङ्कानुज्ञया तदा । विजयसेनसूरीन्द्रः स्तम्भतीर्थमचीचलत् ॥५३॥ स्तंभतीर्थपुरं प्राप्नोत् क्रमेण विहरन् गुरुः। श्रीमल्लं सेवकोऽवादीदिति गत्वाऽग्रतस्ततः॥५४॥ सबविधाने अतिरागो दर्शितः । मनोरथपूरणेन च मयि सेवके परमं प्रेम बिभर्तु धरतु । ४१-सन्देशवाक् तु वाचिक इति हैमः । सन्देसओ इति भाषा । इतीति किं तदाह ४२-अत्र ब्रूयाः देया इति च क्रियापवयं पूर्वार्धस्थितं उत्तरार्धेऽपि योज्यं । पृच्छेश्च कुशलं तथा-इति पदं गुरोः सर्वसस्य इत्युभयत्रापि योज्यम् | ४४-भो वदेः भो इति सम्बोधनपदं तेन भो सेवक वदेः कथयेः । किं वदे इत्याह । ४५-श्रीभिर्मदो हों यस्य स श्रीमदः । यद्वा श्रीणां मदो हर्षों अविनाशित्वात् यस्मिन् सः श्रीमदः । अहम्मदावादस्य सङ्घः अहम्मदाबादसङ्घः अथवा अहम्मदावादवासीः सङ्घः अहम्मदावादसङ्घःमध्यपदलोपी समासः । श्रीमदश्वासावहम्मदावादसङ्घश्व इति द्वाभ्यां कर्मधारये श्रीमदहम्मदावादमस्तं । कथं भूतं । उत्प्रेक्ष्यते श्रियां सम्पदा सङ्घमिव समूह मिव । ४७-सः श्रीमल्लः । पतिप्रियः स्वमिप्रियः । ५२-तस्य श्रीमल्लम्य स्वेष्ट सिद्ध्या स्ववाञ्छितनिष्पत्त्या तुष्यतीति स्वेष्टसिद्धितुट् । यदि पूज्यः स्तम्भतीर्थे न यास्यति तार्ह श्रीमल्लः श्रावको रोषं करिष्यति । पदमहोत्सवावधान विना च तद्वाञ्छितं न सेत्स्यतीति अतोऽवश्यं श्रीपूज्येन स्तम्भतीर्थे गन्तव्यं पदमहोत्सवावधानलक्षणा तन्मनोरथसिद्धिश्च कर्तव्येति चतुर्थपदाभिप्रायः । Aho I Shrutgyanam Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः | विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् स्तम्भतीर्थ पुराभ्यर्णे समायाच्छ्रीगुरुर्गुरुः । भवदाहृत आहूत सम्पन्निचयनिश्चयः ||५५ || पश्यंस्तदागमाध्वानं प्रतिक्षण क्षणान्वितः । श्रुत्वा तदागमं चित्ते सोऽतुष्यत् सेवकोदितम् || श्रीमल्लः श्रावकोऽभ्यायान्महाजनसमन्वितः । स्तम्भतीर्थान्तरा नेतुं वन्दितुं चातिहर्षतः ॥५७॥ सूरेरन्तिकमभ्येत्य प्राणमत्तत्पदाम्बुजम् । सत्रिःप्रदिक्षिणीकृत्य रूप्यनीराजनां व्यधात् ॥ वाद्यमानघनातोद्यैर्गीयमान सुगानकैः । नृत्यन्नर्तकसंघातैः पश्यच्छस्यजनत्रजैः ॥५९॥ स्तम्भतीर्थ पुरस्यान्तरुपाश्रयप्रवेशनम् | उत्सवः श्रीगुरुः प्राप ततः श्रीमल्लनिर्मितैः ॥६०॥ इति धर्माशिषं पूज्यः सङ्घसन्तोषपोषिकाम | सुधासदृशया वाण्या सङ्घाय समुपादिशत् ॥ धर्मो वो मङ्गलं कुर्याद्दानशीलाद्यनेकधा । तनौ धने तनूजादिकुटुम्बे भविकाः सदा ||६२|| धर्माशिषमिमां श्रुत्वा श्रावकाः प्रीतचेतसः । रूपकैर्नालिकेरैश्च चक्रुर्लम्मनिकां मिथः ||६३॥ अथ मण्डपमुत्कृष्टमिष्टं मण्डयति स्म सः । नेत्राणां प्रथमो न्हणामुत्सवो दर्शनोचितः ॥६४॥ तत्र वस्त्रवृत्तिभित्तिर्दृढाऽविज्ञातसन्धिका । विचित्रैश्चित्रिता चित्रैर्नतादृकृतपूर्विणी ॥ ६५ ॥ कुत्रचित्र चित्राणि द्वन्द्वानि विविधानि हि । नानुस्थानमवाप्स्यामः प्रागेवेति स्थितानि किम् । कुत्रचित्तत्र पद्मानि नराः क्रीडन्त्वितीच्छया । बभ्रुव कापि पुष्पाणि देवानचैत्वितीच्छया || ५५- आहूतः आकारितः | सम्पदां निचयः समूहः स एव तस्य वा निश्चयो येन सः । आहूतसम्पन्निचयनिश्चयः । अथवा आहूतानां धातूनामनेकार्थत्वात् सम्पन्नानां सम्पदां निचयस्य समूहस्य निश्चय इव आहूतसम्पन्निचयनिश्चयः । गुरुविशेषणमेतत् । ५८-रूप्याणां रूपकानां रूपइया इति लोकभाषाप्रसिद्धानां नीराजना आरती निवच्छणां इति भाषाप्रसिद्धा रूप्यनीराजना ताम् । ६०-ततः श्रीगुरुः स्तम्भतीर्थपुरस्यान्तर्मध्ये उपाश्रयप्रवेशनं प्रापकैरुत्सवैः किं० श्रीमeoनिर्मितः श्रीमल्लनाम्ना श्रावण कृतैः । शेषाणि चत्वारि विशेषणानि स्पष्टानि । गीतं गानं गेयं गीतिरित्यभिधानचिन्तामणिः । ६५ - तन्त्र मण्डपे पूर्व कृता केनेति कृतपूर्विणी । सुप्सुपेति समासे सपूर्वाच्चेति निः ऋन्नेभ्यो ङीप् इति ङीप् । ६६- द्वन्द्वं स्त्री पुरुषौ । अनुपश्चात् । ६७-तत्र मण्डपवृत्तौ कुत्रचित् पद्मानि कमलानि बभुः शुशुभिरे । कया नराः क्रीडन्तु इतीया इति वाञ्छया बसु शुशुभिरे इव । लोका अपि कस्मिंश्चिदुत्सवे क्रीडां कर्तुकामाः परमवेषादिना भान्ति | अस्मान् छात्वा च अन्येऽपि केचन क्रीडन्ति इति च वाञ्छन्ति । तथा पद्मान्यपि अत्यद्भुताकारैरशोभन्त | श्रीविद्याविजयं द्रष्टुं समागता नराः अस्मान् लात्वा क्रीडन्तु इति ववाञ्छुश्च । च पुनः । तत्र मण्डपवृत्तौ क्वापि पुष्पाणि कुन्दादीने बभुः । कया ? नरा इति पूर्वार्धस्थितं Aho! Shrutgyanam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [सप्तमः अशोभन्ततरां तत्र कुत्रचिबहुजातयः । शश्वत्कारस्कराः साराः सहकारादयः किल ॥६८॥ तमेष्यन्ति नरा द्रष्टुं ये तेऽतिपदुःखिताः। मा भवन्तु निषीदन्तु च्छायास्थिति स्थिता इव ।। कुत्रचित्तत्र मातङ्गास्तुरङ्गाः करमा अपि । तिष्ठन्तु स्वामिनः श्रान्ता इति भक्त्या स्थिता इव ।। तस्योपरि समाकृष्टमुत्कृष्टं व्यलसत् स्थुलम् । चतुर्दिग झल्लरीयुक्तं वियुक्तं सर्वदूषणः ॥७॥ श्वेतमिव बहिः श्वेतं प्रत्यक्षश्वेतपर्वतम् । ब्रुवन्ति पण्डिता यत्तद् व्यद्योतततरां किल ॥७२॥ द्यावाभूम्योर्विचालस्थं विमान कोऽपि कौतितम् । चित्रव्याजात्समायुक्तं सुपर्वत्वात् सुपर्वभिः॥ तत्रान्तर्यत्र चित्राणि पुरुषाणां योषितामपि । तन्मिषात्तानि तं द्रष्टुं छन्ना देवा इवावभुः।। सद्वर्णा इव सद्वर्णाः प्रस्तीर्णा लिखिता बुधैः । तस्याऽशोभन्त भूपट्टे नानाकारा बुधादराः ॥ पदमिहाप्यनुष्य व्याखेयं । ततो नरा देवान अर्पन्तु इतीच्छया इति वाञ्छया बभुर्वा शुशुभिरे इव । अत्र वार्तालेशः पुष्पाणि हि इत्यचिन्तयन् यन्नराः श्रीविद्याविजयं द्रष्टुमायास्यन्ति तत्र च नन्दिमारोपयिष्यन्ति नन्दौ च देवप्रतिमा भविष्यन्ति तासां पूजाथै तत्कालगृहीतपुष्पाणि विलोक्यन्ते। ततो वयं प्रागेव तत्र भवामश्चेत्तहि त अस्मान् लात्वा प्रतिमाः पूजयन्ति इति वाञ्छया पुष्पाणि बभुरिवेति कवेरुत्प्रेक्षा | वा इत्यव्ययमिवार्थे । ६९-ननु माघमासे पदमहोत्सवोऽभूत् । माघस्य शिशिरतों संभवात्कथं अर्कातपदुःखिता इति । ब्रूमः शिशितौँ अतिशीतत्वात् अर्कातपस्व सुखकारित्वेऽपि प्रायोदुःखकारित्वात् प्रभूतकालमासेवनेन दुःसहत्वात् । अतिपदुःखिता मा भवन्तु, छायासु निषीदन्तु इति सहकारादीनां विचारो न दुष्ट इति । ७२-तत्थुलं व्यद्योतततरां अतिशयेन व्यराजत । तदिति । यत् स्थुलं प्रति पण्डिताः प्रत्यक्षश्वेतपर्वत कैलासपर्वतं त्रुवन्ति । कथंभूतं स्थुलं बहिः श्वेतं धवलं । किमिव ? श्वेतमिव रूप्यमिव | यथा रूप्यं श्वेतं भवेत्तथेदमपि बहिः श्वेतं । स्थुलस्य बहिः श्वेतत्वात् रूप्योत्प्रेक्षा कैलासपर्वतोत्प्रेक्षा च युक्ता । ७३-कोऽपि अर्थात् कविः । तं मण्डयं द्यावाभूम्योराकाशपृथिव्योर्विचालस्थं मध्यस्थितं विमानं कैति कथयति नायं मण्डपः किन्तु विमानमिति । कथं ? चित्र व्याजात् । देवदेवीचित्रभिषात् सुपभिर्देवैस्समायुक्तं सहितं कस्मात्सुपर्वत्वात् प्रधानमहोत्सवात्। ७५--तस्य मण्डपस्य भूपट्टे सद्वर्णा इव प्रधानाक्षसणीव । सद्वर्णाः प्रधानास्तर' दलीचा प्रमुखाच्छादनवस्त्रविशेषा अशोभन्त । कथं भूताः सवर्णा बुधैश्चतुरनरैः फरास इत्यादि भाषा प्रसिद्धः प्रस्तीर्णा विछाया इति भाषाप्रसिद्धाः । द्वितीयपक्षे-कथंभूताः सद्वर्णाः प्रधानाक्षराणि बुधैः पण्डितैः प्रस्तीर्णा विस्तारं प्राप्ताः । पुनः कथंभूताः ? लिखिता इव लिखिताः । द्वितीय Ahol Shrutgyanam Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अथ भोजन सामग्रीं कारयामास सोऽग्रिमाम् । सुधामिव सुरेन्द्राणां नराणामतिवल्लभाम् ॥ तत्रादौ मोदकान् दिव्यान् खज्जकान् सज्जनोचितान् । कुण्डली घृतपुरादीन् श्रीसंज्ञैलादिमिश्रितान् ॥ ७७ ॥ एतानेव च कर्पूरकाश्मीरद्रव्यसंयुतान् । अन्यानपि महावीर्यान् बहुजातोनकारयत् ॥ ७८ ॥ ततो नानाविधानेकदेशेभ्यो व्यवहारिणः । श्रावकानाहयामास तेऽप्यागच्छन् समृद्धितः ॥ आनन्ददायिनं नन्दि न कैश्चिदपि निन्दितम् । अथारोपयदानन्दात्स तदा सतदादृतः ॥८०॥ तस्योपरि चतुर्दिक्षु चतुरचतुरो जिनान् । स्थापयामास साक्षित्वे सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ ८१ ॥ मण्डपेऽथ समागच्छतुच्छोत्सवपूर्वकम् । विजयसेनसूरीन्द्रो विद्याविजयसंयुतः ॥८२॥ संभूय श्रावका लोकास्तथान्ये तं दिदृक्षवः । आसतान्तर्बहिश्चैव मण्डपस्य यदृच्छया ॥८३॥ षोडशस्य शतस्यास्मिन सप्तपञ्चाशसंवति । वैशाखशुदि चतुर्थ्य गीतगानादिपूर्वकम् ||८४|| सूरमन्त्रमथो सूरिः प्रादात् पाणौ तदीयके । अश्रावयच्च तत्कर्णे दक्षिणे घुम्टणार्चिते ॥ ८५ ॥ सूरिमन्त्रं प्रदायाथ सूरिरित्यब्रवीन्मुखात् । सूरिर्विजयदेवोऽयं सर्वसङ्घसमक्षकम् ||८६ ॥ अर्हत्सिद्धसदाचार्योपाध्यायाः साधुसाधवः । कुर्युः सङ्घस्य कल्याणं पञ्चैते परमेष्ठिनः ॥८७॥ इत्याशीर्वच उत्कृष्टमादिशद्धसावकम । विजयदेवसूरीन्द्रस्ततः सङ्घस्य सद्विरा ||८|| श्रीमल्लः श्रावको हर्षात्ततो ख्याणि सादरः । ददौ श्रावकसङ्गेभ्यो याचकेभ्योऽपि भावतः ।। भोजनानि पुरोक्तानि मोदकादीन्यभोजयत् । आहूतानप्यनाहूतान् श्रावकान् स जनानपि ॥ पक्षे लिखिताः । पुनः कथं० ? नानाकारा विविधचित्राः । द्वितीयपक्षे विविधाकृतयः । पुनः कथं भूताः ० ? बुधादाः बुधानां अर्थात् महर्द्धिकोत्तमलोकानां आदरो येषु ते । तथा महर्द्धिकोत्तमलोकयोग्या इत्यर्थः । द्वितीयपक्षे । पुन कथं० बुधैराद्रियन्ते इति बुधादराः । I ८०-तस्मिन् नन्दी अर्थात् नन्दिरचनायाः करणे आटताः आदरवन्तः नन्दिरचना करणप्रवीणा नरा इत्यर्थः । तदाहता सह तदादूतैर्वर्तते यः स सतदादृतः । नन्दिरचनाकरणप्रत्रीण नरसंयुत इत्यर्थः । ८९ - अत्र रूप्यशब्दो नाणकपर्याय: । यन्महेश्वरः - रूप्यं स्यादाहतस्वर्णरजते ऽरज तेऽपि चेति । यथा- मणिरूयादिविज्ञानं तद् विदां नानुमनिकभितिः । ९० - श्रीमल्लः श्रावकः श्रावकान् अपीति समुच्चये जनान् अर्थात् श्रावकेभ्योऽन्यान् लोकांच पुरोकानि मोदकादीनि भोजनानि अभोजयत् । कथंभूतान् श्रावकान् आहूतान् परदेशेभ्यः परनगरेभ्यो वा आकारितान् । पुनः कथं० अनाहूतान् अनाकारितान् परदेशापेक्षया परनगरापेक्षया वा खनगरनिवासिन इत्यर्थः । आहूतानिति विशेषणेन पत्तन राजधना Aho! Shrutgyanam Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रीवल्लभोपाध्याय विरचित [सप्तमः निरवर्ततसत्कान्त एवं मूरिपदोत्सवः । न्यवर्तत च सर्वषां सन्ततिर्दुरितांडसाम ॥९॥ ततः सर्वत्र सर्वत्र प्रावर्तत जयारवः । श्रीसूरेः श्रावकेशस्य श्रीमल्लस्य च निर्मलः ॥१२॥ श्रीमत्पत्तनसगङ्गे निरमाद् वन्दनोत्सवम् । सहस्रवीर आनन्दाद्यस्य द्रव्यव्ययाद् घनात्॥१३॥ षोडशस्य शतस्यास्मिन् अष्टपञ्चाशवत्सरे । षष्टयां पौषस्य कृष्णायां गुरुवारे शुभावहे ॥१४॥ ततः शंखेश्वरं पार्थजिनं नन्तुं च जग्मतुः । गुरुशिष्यावलक्ष्येतां सल्लाकैविनयात्तदा ॥९॥ मरुदेश निवास्यत्र हेमराजश्च सपः । शत्रुञ्जये जिनानन्तुं गच्छंस्तावभ्यवन्दत ॥ ९६ ॥ समस्तमरुदेशादिदेशवासिजनान्वितः । स्वभुजोपार्जितद्रव्यव्ययं कुर्वन्ननेकथा ॥९७|| बहवोत्रामवन् भव्याऽवदाताश्चोत्सवा नवाः । निर्मिताः श्रावकैर्वक्तुं तानलं नाऽलसो यतः॥ इत्थं वासकुमार एष उदयी पाकपुण्यपुण्यार्जनात् , श्रीमत्सूरिपदं क्रमादलभत प्राप्तकसाम्राज्यकम् । श्रीश्रीवल्लभपाठकेन पठितं लभ्यं न पुण्यं विना, श्रुत्वेति प्रवणा भवन्तु भविका धर्मे मनःशुद्धितः ।।९९॥ इति श्री श्रीवल्लभोपाध्याय विरचिते श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसरि सूरिपदप्रदानवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ॥७॥ न्धुपुरश्रीमदहम्मदावादादिनगरनिवासिनः श्रावकाः । अनाहूतानिति विशेषणेन च श्रीस्तंभतीर्थ निवासिनः श्रावका इत्यर्थोऽवसेयः । ९२-सर्वान् त्रायते इति सर्वत्रः सर्वरक्षकः सूरिपदोत्सवे बन्दिलोकाः कारातः छोटिताः। चटकादयो जन्तवोऽपि पञ्जरादितः छोटिता इति सर्वत्र इतीदं विशेषणं पुष्टम् । ९३--सहस्रवीर: पारिक्खगोत्रः । ९५-पश्चिमार्धव्याख्या । तदा सस्मिन्काले श्रीविजयसेनमूरि श्रीविजयदेवसूर्यो: श्रीशङ्खश्वरपार्श्वजिननमस्करणहेतव श्रीशद्धेश्वरनगरप्राप्तिसमये सल्लोकः पण्डितलोकार्वनयात् किंचिदुच्चावचभद्रासनोपवेशनात् गुरुशिष्यो श्रीविजयसेनमूरिर्गुरुः श्रीविजयदेवमूरिशिष्यः अलक्ष्यतामज्ञायतामित्यर्थः। ९८-अत्र श्रीशद्धेश्वरनगरे मरुदेशनिवासी पिंपाडियामवास्तव्यः साहश्रीताल्हासुतो हेमराजसंघपतिस्तौ श्रीविजयसेनमूरिविजयदवेसूरिकर्मतापन्नौ अभ्यवन्दत । शेषं सुगमम् । Ahol Shrutgyanam Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अष्टमः सर्गः अथैवं वर्तमानोऽसौ वर्धमानं दिने दिने । जिनशासनसाम्राज्यं भुनक्ति द्युतिमत्तरम् ॥२॥ अदीक्षत घनान् शिष्यान् प्रतिद्रङ्गमनेकधा । विजयदेवसूरीन्द्रो जिनधर्मोपदेशतः ॥२॥ धर्मोपदेशतो यस्य प्रतिबुद्धा भवन्ति हि । भव्यास्तीर्थङ्करस्येव श्राद्धाः सम्यक्त्वधारिणः ॥३!! सर्वदा सर्वदा यस्य सफला धर्मदेशना । लोकानां कल्पवल्लीव निष्फला स्यात्कदापि न ॥४॥ अथ श्रीमेडताद्रङ्गे मण्डनो भूमिमण्डनम् । श्रीचोरबेडियागोत्रे समभूत् श्रावकोत्तमः ॥ ५॥ सुरताणः सुतस्तस्य प्रथमः प्रथमः कुले । द्वितीयो नाथ इत्यारव्यः समभूत्समभूत्तमः ॥ ६॥ नाथस्यात्मरुहोऽभूवंस्त्रयो लोकत्रयोत्तमाः। केशवः श्रीकपूरश्च कमानामापि च क्रमात् ॥ ७ ॥ यथाक्रममवर्धन्तं पाल्यमाना अहर्निशम् । मात्रा पित्रा तथान्यैश्च त इवात्ममनोरथाः ॥ ८ ॥ समये पितरौ तांश्च सर्वविद्या अपाठयन् । शीघ्रमध्यापकाभ्यांदपठस्ते च ताः समाः॥ ९ ॥ तनयानां विवाहाय सत्कन्या व्यवहारिणाम् । अयाचेतांतरां प्रेम्णा पितराबादरेण हि ॥ अस्मिन्नवसरे पुत्रों द्वौ केशव-कपूरको। नोपयच्छावहे कन्ये अब्रूतामिति धर्मिणौ ॥ ११ ॥ संसारिणां हि संसारे स्यात् प्रियं पाणिपीडनम् । ___ तत्तौ न्यषिध्यतां बालौ कस्माचिदपि कारणात् ॥ १२ ॥ संभावयाम ईदृशं तत्र मिथ्या न सर्वथा । कारणं स्तोकसंसार उपान्तसुकृतं पुनः ॥ १३ ॥ बहुक्तावपि तौ पित्रा मात्रा वान्यैनिजैरपि । विवाहं नाभ्यमन्येतां स्तोकसंसारिणौ यतः ॥ दीक्षामेवाभ्यमन्येतां तदा तौ सुकृते रतौ । रतौ यत्र भवेत् यो यत तदेवाङ्गीकरोति सः॥१५॥ पितरौ च पितृव्यश्च सर्व एते त्रयस्ततः । उद्विग्ना भवतोऽभूवन् सम्यक् तत्पतिवोधिताः॥१६॥ ततस्त ऊचिरे सर्वे संभूयेति परस्परम् । वयं च प्रत्रजिष्यामो यद्येती प्रव्रजिष्यतः ॥ १७ ॥ ६-समस्यां सर्वस्या भुवि उत्तमः समभूत्तमः । सर्वार्थस्य समशब्दस्य सर्वादिगणे पाठात् स्त्रीलिङ्गे सप्तम्येकवचने, सर्वनाम्नः स्याट् इस्वश्चति; स्वाट इत्यागमे आपश्य हवं समस्यामिति रूपसिद्धिः। ९-ताः सर्व विद्याः, कथंभूताः समा मनोरमाः ! समं सावहिलं सहक इत्यने । १६-पितरौ नाथाभिधः पिता, नायकदेवी माता । पिता च माता च पितरी । पितामात्रेति पितृशेषः । च पुनः पितृव्यः काकउ इति लोकभाषाप्रसिद्धः, सुरताण इति नामा एते त्रयः । कथंभूता एते त्रयः । ततो वीवाहानङ्गीकरणात् । ताभ्यां केशवकर्मचन्द्राभ्यां प्रतिबोधिताः । अयं संसारो दुःखदायी, विषोपमा विषया इति ज्ञापिता येते तत्प्रतिबोधिताः । Ahol Shrutgyanam Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ अष्टमः अथास्मिन् समये शास्ति बलभद्रो महीपतिः । राज्यं श्रीमेडताद्रङ्गे भ्रातृगोपालसंयुतः ॥१८॥ सोऽशणोत् लोकवार्तति प्रव्रजन्ति हि षण्णराः। पिता माता त्रयः पुत्राः पितुर्धाता तथा महान् ॥ १९ ॥ गृहं गृहांश्च संत्यज्य प्रभूतानि धनानि च । स्वयंबुद्धा इव ज्ञानात् मिथोबुद्धा विवादतः ॥२०॥ रूपस्वभावलावण्यैरुत्तराः कुरवः किमु । नोत्तरे चापरे लोका यानाख्यान्तीति पण्डिताः।।२१॥ बलभद्रमहीपालस्तदेत्याकर्ण्य विस्मितः । तान् समाकारयामास प्रविमुच्य निजं नरम् ॥२२॥ नृपप्रैष्यस्ततस्तेषां गृहे गत्वेत्युपादिशत् । हयते बलभद्रोऽसौ युष्मान् भो षण्णनरा द्रुतम् ।। २०-गृह मन्दिरं गृहान् परिणीतस्त्रीः स्त्रियं वा । परिणीतस्त्रीवाची गृहशब्दः पुंक्लीबलिङ्गः पुंस्ययं बहुवचनान्त एव। मिथः परस्परं बुद्धाः ज्ञातधर्माधर्मफलाः। एतौ अदृष्टाऽभुक्तभोगी केशवकर्मचन्द्रनामानौ पुत्रौ बालकौ यदि प्रव्रजतस्तर्हि वयं भुक्तभोगा: संसारे कथं तिष्टाम, न स्थास्याम इति कारणादेव मातृपितृपितृव्या यथाक्रमं मिथो बुद्धाः । कस्मात् ज्ञानात् । अत एव, पुनः कस्मात् विवादतः । कथंभूता एते उत्प्रेक्ष्यंते स्वयंबुद्धा इव । २१-पण्डिता यान् मातृपितृपितृव्यपुत्रान् षड् नरान् इति आख्यान्ति कथयन्ति । इतीति किं कथंभूताः पणनराः । किमु इत्यव्ययं विचारे । रूपस्वभावलावण्यैः करणभूतैः । उत्तराः कुरवः उत्तरकुरुक्षेत्रोत्पन्ना युगलिन इति विचारयन्ति । न अपरे अन्ये लोका उत्तरे उत्तरदेशोद्भवाः । यादृशाः रूपस्वभावलावण्यैः उत्तरकुरुक्षेत्रोत्पन्ना युगलिनः सुन्दरास्तथा एते षग्नराः अपि सुन्दराः, नान्ये उत्तरदेशोत्पन्ना लोका इत्यर्थः । उत्तराः कुरव इत्यत्र सत्यामपि न नान्नीति निषेधकथनात् पूर्वापरेति सूत्रेण वैकल्पिको जसःशीन भवति । व्यवस्थेति कोड: । स्वाभिधेयापेक्षोऽवधिनियमो व्यवस्था । अस्यार्थ:-स्वाभिधेयो दिगदेशकालस्वभावोऽर्थस्तमपेक्षते यः सः स्वाभिधेयापेक्षः । एवं विधो योऽवधिनियमः स व्यवस्था। तत उत्तरशब्दस्य दिगदेशकालस्वभावे अर्थे सत्यपि उत्तरशब्दात्पूर्वापरेति वैकल्पिको जसः शीभावनिषेधो नामत्वात् । ननु उत्तरशब्दस्य दिग्देशकालस्वभावाना नामत्वे सत्यपि न नाम्नीति कथं कथयतेति चेत् ब्रुमः-कुरवो द्विधा मेरुपर्वतात् दक्षिणस्यां दिशि भवत्वात् देवकुरवः । देवशब्दपूर्वत्वेनैव प्रसिद्धत्वात् तेषां न दक्षिणशब्दपूर्वत्वेनेति उत्तरस्यां दिशि भवत्वात् । उत्तरशब्दपूर्वत्वेनैव प्रसिद्धत्वात् । उत्तराः कुरव इति कुरव इत्युक्तेश्च सामान्येन उभयोः देवकुरव उत्तरकुरव इत्यनयोग्रहणं स्यात् । तत उत्तरशब्दस्य विशेषस्य द्योतकत्वात् उत्तरा इत्युक्तरुत्तराः कुरव इति लभ्यते । अत उत्तरशब्दस्य कुरव इत्यस्य नामान्तरद्योतकत्वात् । नानीति कथनं न दुष्टं। उत्तर इत्यत्र पूर्वापरेति वैकल्पिके जसः शोभावे प्रथमा बहुवचनं । नात्र प्रत्ययो न च तस्य लोपः । कुरव इत्यत्र जनपदे लुप् इति अण् प्रत्यय लुपि सति लुपियुक्त वद् व्यक्तिवचने इति प्रकृतिवत् लिङ्गवचने ज्ञेये। Ahol Shrutgyanam Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अलङ्कारैरलङ्कत्य परिवायाम्बराणि च । प्रभूतं प्राभृतं लात्वा जग्मुस्ते तत्र पण नराः ॥२४॥ प्राभृतं पुरतो मुक्त्वा निपत्य च पदाम्बुजम् । स्वोचितं स्थानमासाद्य तस्य ते तस्थुराज्ञया । तान् निरीक्ष्य परीक्ष्याक्ष्णा दर्शनादेव तत्क्षणात् ।। शान्तात्मान इमे सत्या आसूध्वमित्यव्रवीन्नृपः ॥ २६ ॥ तानासीनानथाऽपृच्छद् बलभद्रस्तदादरात् । कथं गृह्णन्ति भो दीक्षा भवन्तस्तद् ब्रुवन्तु माम् ।। किं दुःख कस्य कस्माद्वा युष्माकं कश्च दुःखदः । निवारयाणि तत्सर्वं यद्वाञ्छत ददानि तत् ॥ यदि स्यान्न धनं पार्थे धनं तर्हि ददाम्यहम् । ग्रामं ग्रामोत्तमं चारीन द्वारा निराकरवाणि च ।। व्यापारं कुरुतां नन्दात् सुखेन वसतात्र च । दुःखतः पालनीया हि दीक्षा यत्कोमलाङ्गकाः ॥३०॥ चतुर्भिः कलापकम् ।। इति श्रुत्वा नृपपोक्तं वचनं तेऽपि पण नराः । तदोत्तरन्ति वाक्शुरा इव भूमीश्वरोत्तमम् ॥ कस्मात् कस्यापि वा दुःखं नास्माकं सर्वदा सुखम् । भवत्प्रसादतः सर्व धनं चास्ति महीपते । परं स्त्रीभिर्धनैः पुत्रैामैश्वान्यैर्गवादिभिः । नास्ति कार्य सदास्माकं विना धर्म हि सर्वदा ॥ एवं विवोध्य सद्बुद्धया धर्ममय्या च सगिरा । हर्षयन्ति स्म भूपालं पण नरा धर्मतत्परा ॥ पुनः प्राहेति भूपालस्तदा तान् विनयान मुदा । दीक्षां गृहन्तु भो वृद्धा, न गृह्णन्तु च बालकाः॥ माहुः श्रुत्वेति भूपालं ते सर्वे सर्ववल्लभाः । अस्माकं बालका एव दीक्षाग्रहणकारणम् ॥३६॥ एभिविना न चास्माकमेषां चास्मान् विना किल । सर्वथा नैव भूपाल दीक्षाग्रहणमहति ॥ एतत्साहाय्यतोऽस्माकमेषां साहाय्यतस्तु नः । दीक्षाग्रहणनिर्वाहो न संभवति सर्वथा ॥३८॥ उक्ति-प्रत्युक्ति-सयुक्त्या विज्ञायेति महीपतिः । प्रसन्नोभूय तानाख्यत् यूयं धन्यतमा इति । दृढधर्म-प्रियधर्म-शब्दौ शब्दानुशासने । नकारान्तौ हि निष्पन्नावञ्चैितेषु षड् नृषु ॥ ४० ॥ युग्मम् । दृढधर्मादयः शब्दा इव प्राप्ता विशेषताम् । त्यक्त्वाकारान्ततां सूत्रात् पूर्वी प्रकृतिमात्मनः ॥ २५-ते पण नराः तस्य बलभद्रमहीपालस्थ आज्ञया तस्थुः-ऊर्ध्वा अभूवन् इत्यर्थः। तस्येति पदं अत्रापि योज्यं । किं कृत्वा, तस्य बलभद्रस्य पुरतोऽग्रतः प्राभृवं ढौकनं मुक्त्वा । पुनः किं कृत्वा, तस्य बलभद्रस्य राज्ञः पदाम्बुजं चरणकमलं निपत्य नत्वेत्यर्थः । ४०-इति विज्ञाय । इतीति कि ? हि निश्चितं दृढधर्मप्रियधर्मशब्दो नकारान्ती शब्दानुशासने व्याकरणे निष्पन्नौ सिद्धौ; अर्थाञ्च एतेषु पड्नृषु निष्पन्नौ । एते पहनराः हढधर्माणः प्रियधर्माण इत्यर्थः। Ahol Shrutgyanam Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं अष्टमः नाश्रयन्ति गृहस्थत्वं मदुक्तं बहुशोऽपि हि । शुद्धधर्मबलादेते जातसद्वचनाक्षराः ॥४२॥ युग्मम् । ज्ञात्वयं भूपतिधम तान् विनिश्चिन्तचेतसः । प्रेषयामास सत्कृत्य गृहं सद्वस्तुभूषणैः ॥४३॥ अथायान्तिस्म ते तस्य हादुत्सक्तोऽद्भुतात् । बलभद्रमहीपालकृताद् हर्षप्रकर्षतः ॥४४॥ आगत्यावसथे नाथः सुरताणश्व सोदरः । दीक्षोत्सवसुसामग्री व्यदधातामुभौ मुदा ॥४५|| वसन्त्यवसरे चास्मिन मेदिनीतटपत्तने । (पाठान्तरेण-मेडतानाम्नि पत्तने) तपागच्छे महीयांसः श्रावका व्यवहारिणः ॥४६॥ तद्यथा-कोठारीकुलविख्याताः कल्ला टोलासुतान्वितः । ____ अर्जनचासकर्णश्च रेखा अम्माभिधस्तथा ॥४॥ वीरदासो लसद्वीरदासचामरसिंहयुक् ।। अन्येऽपि स्वपरीवारयुता आसन्महत्तराः ॥४८॥ युग्मम् । श्रीसूजा-हरदासश्च ताल्हणः पुण्यकारणम् । सादा-माना-दयश्चान्ये मन्त्रिणोऽमी बभुस्तराम् ॥ पदा-पत्ता-जिणामुख्या मुख्याः सर्वषु कर्मसु । सोनीवंशे सदा रव्याता बभुवुः श्रावकोत्तमाः॥ सहसा-सुरताणारव्यावास्तां कर्णाटवंशके । कुले भाण्डारिके भातां रत्ना-मोकाभिधानको ।। श्रीमान् ठाकुरो नाम शङ्करः शङ्करः सदा । मानो नरहरश्चेते शङ्खलान्वय आवभुः ॥५२॥ ४१-४२-दृढ इति व्याख्या०-एते षण् नराः नाथा ? सुरताण २ नायकदेवी ३ केशव ४ कर्मचंद्र ५ कपूरचन्दाः ६ गृहस्थत्वं नाश्रयन्ति न सेवन्ते । कथं० गृहस्थत्वं हि निश्चितं बहुशः मदुक्तं वलभद्रेण राज्ञा उक्तं । कस्मान्नाश्रयन्ति शुद्धधर्मबलात् । कथं० एते जातसद्वचनाक्षराःसत्सत्वाद् वचनान्न क्षरन्ति न पतन्तीति सदचनाक्षराः जाताश्वते सद्वचनाक्षराश्च जातसद्वचनाक्षराः । के इव उत्प्रक्ष्यते--दृढधर्मादयः शब्दा इव । यथा दृढधर्मादयः शब्दाः जातसद्वचनाक्षराःजातं सत्सु सत्येषु वचनेषु प्रथमादीनां सप्तविभक्तीनां एकद्वित्वादिवचनेषु अक्षरं नकारादिलक्षणो वर्णो येषां ते जातसद्वचनाक्षराः । तथा एतेऽपि षड् नरा इत्यर्थः । कथंभूताः; दृढधर्मादयः शब्दाः विशेषतां विशेषभावं प्राप्ताः । किं कृत्वा ? आत्मनः स्वस्य पूर्वी अकारन्ततां प्रकृति सूत्रात् धर्मादच केवलात् इति लक्षणात्यक्त्वा । द्वितीयपक्षे कथं भूता एते विशेषतां प्राप्ताः सामान्यश्रावकलोकापेक्षया साधुधर्माङ्गीकारात् विशेषत्वं प्राप्ताः । किं कृत्वा पूर्व प्रथमां प्रकृति श्रावकधर्मलक्षणां पाप कृति वा त्यक्त्रा । अत्र एते इति उपमेयपदं, दृढधर्मादयः शब्दा उपमानपदं; शुद्धधर्मबलादिति उपभेयपदं; सूत्रात् इति उपमानपदम् । ४८--कोठारी । ४९-मुंहता । ५०-सोनी । ५१-भण्डारी। ५२ सांखला । ५३-भडकतीया। Ahol Shrutgyanam Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् रत्नसिंहो नृणां रत्नं राजसिंहो नृराजितः । सीहमल्ल-रता नाम प्रमुखा विदिता बभुः॥५३॥ सदारङ्गः सदारङ्गो धनो धन्यो धनीश्वरः । सुरताण इमेऽभूवन् श्रीभडकतियान्वये ॥५४॥ सुरत्राणः कृतत्राणः दाहा हाहाविवर्जितः । त्रिलोकश्रीरमीपालः सचिंतीकुल आवभुः ॥५५॥ संघपः पेतसी ख्यातो मन्त्री नरबदस्तथा । रविदासो रवित्रासाः प्रतापादभवन्नमी ॥५६॥ द्रव्यदायी सदा देदा बंगाणी सद्गुणाग्रणीः । अभाच्छीमत्तपानाम-सद्गच्छोद्योतकारकः ।। भारमल्लः सदामल्ल-तुल्यो दानवलादिभिः । रविदासस्तथाऽभातामेतौ तातहडान्वये ॥५॥ देवीदासा धनो नाम डूंगरो वत्सनामकः । अशोभन्त त्रयोऽप्येते सर्वदा सर्ववत्सलाः॥५९॥ मुरत्राणः स्फुरत्प्राणः शाईलः स्थूलभूधनः । जीवाभिधस्तथेत्याद्या आसन पीमसरान्वये ।। भैरवो वर्धनो वीर एते भाण्डारिके कुले । व्यराजन्त च देपालः परीक्षककुलेऽभवत् ॥६१॥ महिकाभिध ऊदाह्वो मायीदासः सुमायिकः । इत्यादयो महीयांसो बभूवुर्गच्छदीपकाः॥५२॥ अत्रत्यैरेभिरन्यश्च परदेशागतैरपि । एतेषामचिकीयंन्त वरयात्रावरास्तिकैः ॥६॥ अत्रान्तरे मृशन्नेवं पण नरास्ते परस्परम् । श्रीमत्कपूरचन्द्रस्य दक्षिा योग्या न बाल्यतः॥६४॥ भवेत् कपूरचन्द्रो हि यावत्सप्ताब्दिकः किल । तावत्तिष्ठतु मातास्य पालनाय तदादरा ॥६५॥ प्रगृह्णातु ततो दीक्षां माता पुत्रेण संयुता । पालनीयास्ति कष्टेन दीक्षा यन्महतामपि ॥६६॥ विचार्येवं तदा नाथो दीक्षाग्रहणतः खलु । निवार्यास्थापयत् पुत्रयुतां मातरमालये ॥६७|| साप्यस्थात्पुत्रसंयुक्ता पुत्रपालनहेतवे । पत्युः कथनकारित्वं पत्न्या धर्मः सदोत्तमः ॥६॥ कुर्वाणा परमं धर्म श्रावकं व्रतिनीव हि । पन्यतिष्ठत् सुतं तस्य पालयन्ती च सद्बतम् ॥ केशवः कर्मचन्द्रश्च नाथस्यात्मरुहाविमौ । नाथः पिता तयोरेव पितृव्यः सुरताणकः ॥७॥ चत्वारश्चतुरा एते कर्मारीन् हन्तुमुद्यताः । द्रव्यं दारांश्च संत्यज्य दीक्षायामभवन पराः ॥७॥ ( चत्वारश्चतुरा एते दीक्षाग्रहणतत्पराः।। बभूवुरल्पकर्माणः संत्यज्य स्वगृहांस्ततः ॥७१॥ इति पाठान्तरम् )-युग्मम् । ते यच्छन् प्रत्यहं प्रातविणं स्वगृहोचितम् । दीनेभ्यो याचकेभ्यश्च दिव्यधान्याम्बराणि च ॥ पूर्वोक्ता अथ ते श्रीमन्मेदिनीतटवासिनः । श्रावका भोजयन्ति स्म चतुरस्तान् घनादरात् ॥ ५५-संचिन्ती त्रिलोकश्रीः तिलोकसी इति नामेत्यर्थः । हाहा सुरवरः । ६५-तस्मिन् कपूरचन्दनाम्नः पुत्रस्य पालने आदरो यस्याः सा तदादरा । ६९-तस्य नाथस्य पत्नी नायकदेवीनाम्नी । श्रावकस्याय श्रावकः तं, तस्येदमित्यण श्रावकसम्बन्धिनमित्यर्थः । ७१-ततः नाकयदेव्या कपूरचन्दस्य च गृहे रक्षणानन्तरं स्वं च द्रव्यं गृहांश्च दारान् । Ahol Shrutgyanam Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ अष्टमः नाथः श्रीसुरताणथ वरयात्रामिमावथ । आत्मनोऽकारयेतां नो वैराग्याधिकता यतः ॥७॥ अथ नाथोऽक्षिपत् पुत्रौ वर्णके सुदिने दिने । विचक्षण इवानन्दात् सुरेश्वरनरेश्वरौ ॥७॥ आवृतौ चारुकौसुंभवस्त्रैस्तौ बभतुस्तराम् । प्रभातोदितवालार्ककिरणोपमसद्युती ॥७॥ आनन्दात् गायतोलूलून स्त्रियो वर्धयताहताः । मौक्तिकैरुपयच्छेते दीक्षाकन्यामिमौ यतः ॥ अनेके हर्षतो लोका इत्याचख्युर्विचक्षणाः। दक्षिणां ददतानन्दात् श्रुत्वा तत्कीर्तिमद्भुताम् ॥ काश्चित्सखीः प्रति प्रेम्णा काश्चिदाचख्युरित्यहो। मुक्त्वा कार्याणि तो द्रष्टुं त्वरध्वं चैत साम्पतम् ॥७९॥ चारुकपूरकस्तूरीकुङ्कमादिभिरद्भुताम् । स्फुरत्परिमलोपेतां कुरुध्वं शिष्टपिष्टिकाम् ॥८॥ दिव्यगन्धोदकैः पूर्व स्नपयन्तु ततः पुनः । उद्वर्तयन्तु तत्कायं यतध्वं चाक्षिदोषतः ॥ ८१ ॥ कर्पूरागरूकस्तूरी मिश्रकुङ्कमचन्दनैः । अङ्गरागं तयोरङ्गे सरङ्गाः कुरुतादरात् ॥ ८२॥ ललाटे चारुचर्चिक्यं कुरुध्वं कुङ्कुमादिभिः । अङ्गेऽलङ्कारसद्धारान् परिधापयतोत्सवात् ॥८३॥ मल्लध्वं मूर्ध्नि माल्यानि गले प्रालम्बिकाः शुभाः। बहुधा च वराकारमङ्गुलीष्वङ्गलीयकम् ॥ द्वयोमनि निवनीत कोटोरं च शिरोमणिम् । हस्तेषु हस्तसूत्राणि, बाहुभूषाश्च बाहुषु ॥८५॥ सप्तभिः कुलकम् ॥ पुष्पितौ तावदीप्येतां तदानीं फलितौ भृशम् । मनोरथप्रदातारौ कल्पवृक्षाविवाङ्गिनौ ॥८६॥ अभात्तद्वन्द्वमश्वस्थं वरयात्रासु राजवत् । भूषणैर्मुकुटोत्सछत्रैश्च सह चामरैः ॥ ८७॥ गायना अग्रतो गायन केप्यातोद्यान्यवादयन् । नन नर्तका हर्षादब्रुवन् कथकाः कथा।।८८॥ स्फूर्जन्नेजसमाजश्रीकरकाकाररूपताम् । बिभ्राणाः किमु देवेन्द्रास्तौ निरीक्षितुमागताः॥८॥ ७८-उलूलुमङ्गलध्वनिरिति मिशेषः । उपाद् यमः स्वीकरणे इति उपपूर्वात् यमो विवाहेऽर्थे आत्मनेपदे वर्तमाने लटो द्विवचने उपयच्छेते इति रूपं । तयोः केशव-कर्मचन्द्रयोः कीर्तिस्तत्कीर्तिस्ताम् । ८१-उद्वर्तयन्तु मलं निवर्तयन्तु ऊगटगउ करउ इति भाषा इत्यर्थः । ८३-चर्चिक्यं टीका आडिप्रमुखं । चर्चिक्यं समालभनं इति हैमः। ८४-मल्लवं धरत । मल्लध्वमिति क्रियापदं सर्वत्र योज्यं । गले प्रालम्बिकाः काण्ठला १ लहकउ २ टकावलि ३ चम्पकली ४ इत्यादि लोकभाषाप्रसिद्धाः आभरणविशेषाः । प्रालम्बिका कृता हेम्नेति । ऊर्मिका त्वङ्गुलीयकामित्युभयं हैमः । ८८-केपीति वाद्यवादकाः। कथा इति तयोरेव बास्येऽपि दीक्षाग्रहणलक्षणा वार्ता इत्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् वरयात्रा ययोरेवमासन्नवनवोत्सवाः । कथं व्याख्यान्ति तान् दक्षाः स्तोतुमिन्द्रो न यानलम् || श्राद्धैर्निर्वाश्यमानानां विचित्राणां दिने दिने । तदीयवरयात्राणां वारानन्ये न लेभिरे ॥९१॥ श्राद्धानामतिबाहुल्यात् रागस्याधिक्यतस्तयोः । ४७ सामीप्यात्सन्मुहूर्तस्य दिनानां च तनुत्वतः ॥९२॥ युग्मम् ॥ श्रीमन्मेतद्रङ्गाद् (पाठा० - श्रीमन्मेडताद्रङ्गाद्) बहिराराम उत्तमे । दीक्षायै मण्डपं दीव्यं श्रीनाथः सममण्डयत् ॥९३॥ व्यराजत्तोरणैस्तुङ्गैर्मण्डपस्तत्र मण्डितः । तोरणीकृतसच्छुण्डैः सम्मुखीनैर्गजैरिव ॥९४॥ वातप्रेरितसच्छ्रेयस्कारिकारस्कर छदैः । कर्णावलम्वितश्वेतस्फुरच्चञ्चुरचामरैः ॥ ९५ ॥ वस्त्रैस्तत्र सदुल्लोच आसील्लोचनहर्षदः । आकृष्टैर्नभसोदभ्रसन्ध्याभ्राणां दलैरिव ॥९६॥ सर्वतस्तत्र सन्मुक्तास्त्रजो रेजुः प्रलम्बिता: । कृत्वैकत्रांशुसर्वस्वं चन्द्रो न्यास्यकरोत् किमु || अस्मिन् समभवन काले यावतोऽथमहाजनाः । निमन्त्र्य तावतः सर्वान प्रचुरादरपूर्वकम् ||१८| न सभोजनमीतं सभोजनमभोजयत् । ब्रुवन यथोचितं भक्त्या खादत पिवतां क्रियाम् ॥ दीक्षायाः सुदिनस्यादौ दिने दीनमना मुदा । नालिकेराण्यदात् पाणौ तेषां च चरणोत्सुकः ॥ १०१ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । अथ प्रभाते श्रीनाथः १ सुरताण २ सहोदरः । केशवः ३ कर्मचन्द्र नाथपुत्रौ चतुर्नराः ॥ कम्भोष्णीषमुख्यानि वासांसि विविधानि हि । हारप्रालम्बिकादीनि भूषणानि च पर्यधुः ॥ १०२ ॥ युग्मम् ॥ अवतंसांस्तथा मौलीन मौलौ तेऽतिमनोहरान् । न्यवनन्त नितान्तश्री शोभिता अच्युता इव ॥ निरक्रामस्ततोऽगाराद् ग्रहीतुमनगारताम् । समारुह्य विमानश्रीभासुराः शिविकाः शुभाः ॥ ९२ - तयोः केशव - कपूरचन्दयोः । इमा: तदीयाः, ताश्च ता वरयात्राश्च तदीयवरयात्रास्तासां तनुत्वतः अल्पत्वात् । स्तोकं क्षुल्लं तुच्छल्पं दुभ्राणुतलिनानि च । तनु क्षुद्र कृशमिति हैम: । १०२ - अर्थत्यानन्तर्ये प्रभाते । चत्वारो नराः चतुर्नराः कर्तृपदं । हि निश्चितं । विविधानि कौसुंभोष्णीषं कुसुम्भेन रक्तं उष्णीषं मुर्ध्ववेष्टनं पावडी इति भाषाप्रसिद्धं मुख्यं येषु तानि कौ - भोष्णीषमुख्यानि वासांसि वस्त्राणि पर्यधुः परिहितवन्तः । च पुनः हारप्रालम्बिकादीनि भूषणानि - अलङ्कारान् पर्यधुः । तत्र हाराश्च शतलता अष्टाधिकसहस्रलतादयो अनेकप्रकाराः । प्रालम्बिकाच काण्ठला १ लहकउ २ टङ्कावाले ३ माला ४ चम्पकली ५ चउकी ६ इत्यादि लोकभाषाप्रसिद्धविविधकण्ठाभरणविशेषा आदिर्वेषां तानि हारप्रालम्बिकादीनि । चतुर्नराः के इत्याहश्रीनाथः १ सुरताणः सहोदरो भ्राता, नाथस्य महीयान् भ्राता इत्यर्थः । केशवः कर्मचन्द्रश्च नाथपुत्र नाथस्य सुतौ । एते चत्वारो नरा इत्यर्थः । Aho! Shrutgyanam Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [ अष्टमः लम्बितानेकसफुल्लपुष्पमालासमाकुलाः। किकिणीकारणत्कारचञ्चुरारावचञ्चुराः ॥१०॥ अद्य धन्या वयं लोका अप्येते किंकिणीरवैः । ___ आरोहोत्पाटनादेषां कथयन्त्य इवेति किम् ॥१०६॥ त्रिभिर्विशेषकम् । अनेके शिविका लोकाश्चतस्रोऽभ्यवहंस्तदा । कृपस्कन्धैः स्वकस्कन्धैः सद्भक्त्या चोत्सवश्रिया ॥ आरभ्य स्वगृहात्तेऽथ मध्ये मेदतटस्य हि । रूप्याणुल्लालयन्तोऽमी मार्गषु निरगुस्तदा ॥ गच्छन्ति स्माग्रतस्तेषां ब्रुवन्त इति मानवाः । जयतानन्दताजस्रं वर्षध्वं च लसच्छ्रिया ॥ सङ्घन अपरदेशानां स्वदेशानां च भूरयः । धनिनो वसुधाधीशा मागधाद्याः परेऽपि च ।। मातङ्गाः पर्वतोत्तुङ्गा हयाः कल्लोलचञ्चलाः । स्यन्दनानि मनोज्ञानि सोत्साहाः पत्तयोऽपि च ॥ उपर्युपरिसद्वस्त्रा वर्षासूच्चाभ्रका इव । स्फूर्जन्नेजाः पुरः पार्थप्रान्ते चाक्षिप्रमोददाः ॥११२॥ पताका नरहस्तस्था ज्ञापयन्त्य इवेति नन् । कृत्तवस्त्राक्षरन्यासैमिथो युद्धाश्चतुर्नराः ॥११३॥ सच्चक्षुभिर्गवाक्षस्थाः सद्मोपर्युपरि स्त्रियः। पश्यन्ति स्म मिथश्चान्यान् लक्षयन्ति स्म पाणिभिः।। भेरीदुन्दुभिमुख्यानि वाद्यानि विविधानि हि । वादकैाद्यमानानि दिव्यानि स्वस्वजातिषु ।। अहङ्कारादिवानेके सलगता वरयोषिताम् । कर्णमियाणि गीतानि गायन्तो मधुरस्वरैः ॥११॥ नवभिः कुलकम् । दीक्षामहोत्सवं दिव्यं जातं प्रार न कदेशम । कृत्वा गच्छन् बहिङ्गात् यत्र ते मण्डपं शुभम् ॥ विजयसेनसूरीन्द्रसद्गुरोः प्रवराज्ञया । पाठकोत्तमदिव्यश्रीमेघविजयमण्डितम् !! ११८ ।। अथशान्यां विदिश्येते गत्वा त्यक्त्वा स्वपाणिभिः । भूषाम्बराणि सर्वाणि कुर्युलॊचं स्वमर्द्ध। साधुयोग्यानि दिव्यानि चीवराणि तदा मुदा । परिचाय गुरोः पार्थ आययुस्ते चतुर्नराः ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणत्य च चतुर्नराः । तस्थुर गुरोर्नन्दौ स्थापितान् चतुरोऽहंतः॥१२१॥ यथाविधिविधिप्रज्ञो गुरुः सरसया गिरा । व्रतानि तिनां पञ्च तदात्तानुदचारयत् ॥१२२॥ रसिका रसिकीभूय ते चाप्युदचरंस्तराम् । मुखैः स्वस्वमुखैः सम्यक् यतः सूत्रार्थवेदकाः ॥ षोडशस्य शतस्यास्मिन्नेकपश्चाशवत्सरे । माघश्वेतद्वितीयायां दीक्षतेषां शुभाभवत् ।।१२४॥ तुतुषुस्ते तदात्यन्तमुच्चर्य व्रतपञ्चकम् । मेनिरे मनसा चैवमद्य धन्यतमा क्यम् ॥ १२५ ॥ विजयसेनसूरीणां विनेयत्वाज्ञयात्मनः। प्रदीक्ष्य प्राचलच शिष्यान् शेषविजयवाचकः ॥१२६॥ प्रतिग्राम प्रतिद्रङ्ग विहरन् सह तच्छिया । श्रीगृहाहम्मदावादद्रङ्ग स पाप सोत्सवः ॥१२७॥ १०९-तपःश्रिया, यशःश्रिया । १२४-एतेषां नाथ १ सुरताण २ केशव ३ कर्मचन्दानां ।। १२७-तेषां चतुर्णी नवीनाशिष्यानां नाथ ? सुरताण २ केशव ३ कर्मचन्द ४ नाम्नां श्रीः शोभा तच्छ्रीः तया सह सार्धम् । Ahol Shrutgyanam Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः । विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अभिवन्द्यानवद्यात्मा सोऽदाच शिष्यचतुष्टयम् । विजयसेनमुरीणां सद्गुरूणां गुणात्मनाम्॥ श्रीनेमिविजयो १ मुख्यः श्रीसूरविजयो २ऽपरः। श्रीकीर्तिविजयो ३ जेयः कनकविजयो ४ जयी ॥१२९॥ चतुर्णामिति चत्वारि नामान्येषां यथाक्रमम् । विजयसेनमूरीन्द्रस्सत्यार्थानि व्यधात्तदा ॥१३०॥ युग्मम् ॥ श्रीनेमिविजयो नाम कनकविजयः पुनः। शिष्यावेतावुभौ सोऽदात् विजयदेवसूरये ॥१३१॥ कपूरचन्दनामानं भ्रातरं लघुमात्मनः । गते नायकदेव्याख्यां मातरं च कियत्क्षणे ॥१३२॥ षोडशस्य शतस्यात्र षट्पञ्चाशत्प्रवत्सरे । पूर्वरिव महीयोभिरुत्सवैः श्रावकैः कृतैः ॥१३॥ श्रीमन्मेदतटद्रङ्गे मादीक्षत् शुभे दिने । श्रीपूज्यस्याज्ञया श्रीमत्पद्मसागरपण्डितः ॥१३४॥ –त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ततः कपूरचन्दाख्यं मात्रा संयुतमन्यदा । श्रीपूज्यायार्पयामास पद्मविजयपण्डितः ।।१३५॥ श्रीपूज्योऽप्यर्पयामास विजयदेवसूरये । कुंअरविजयेत्याख्यां कृत्वा शिष्यतया तदा ॥१३॥ कुमियति जिनागार-धर्मागाराय यः किल । कुंअरः प्रोच्यते सद्भिः सानुस्वारः स्वरे परे ॥ अनुस्वारो मकारस्य न कदापि स्वरे परे । अनुस्वारः कथं सूत्राभावादत्र स्वरे परे ॥१३८॥ उत्तरमाह-अनुस्वारो मकारस्याऽलुक् समासविधानतः । बाहुलकाच नामत्वादापत्वाच्च स्वरे परे ॥१३९॥ यथा तितउ शब्दे हि डउप्रत्ययशक्तितः। सन्धिर्नेह तथा|क्तेमकाराकारयोरपि ॥१४०॥ युग्मम् ॥ सत्रन् विजयते सर्वान सर्वत्रात्मीयतेजसा । विजयः प्रोच्यते प्राज्ञैः सर्वलोकमुखपदः ॥१४॥ कुंअरविजपेत्याख्यामन्वर्थामकरोत्ततः । कपूरचन्दशिष्यस्य सद्गुरुर्गुरुवद्धिया ॥१४२॥ १२८-स श्रीमेघविजयवाचकः शिष्यचतुष्टयं नाथ १ सुरताण २ केशव ३ कर्मचन्दान ४ इत्यर्थः। १३२-कियांश्चासौ क्षणश्च कियत्क्षणः । नाथ १ सुरताण २ केशव ३ कर्मचन्दानां ४ चतुर्णी संवत् १६५१ माघसुदि द्वितीयादिवसदीक्षाग्रहणात् कियत्कालस्तस्मिन् कियत्क्षणे गते श्रीमत्पद्मविजयपण्डितः श्रीपूज्यस्य आज्ञया-श्रीविजयसेनभट्टारकाज्ञया आत्मनः स्वीयस्य कीर्तिविजयकनकविजययोः कपूरचन्दनामानं लघु प्रातरं च पुनः नायकदेव्याख्यां मातरं शुभे दिने प्रादीक्षत । कियतक्षणं द्रढयति कस्मिन् षोडशस्य शतस्य षट्पञ्चाशवत्सरे सं० १६५६ वर्षे इत्यर्थः । शेषं स्पष्टम् । Ahol Shrutgyanam Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ अष्टमः एवं श्रीविजयादिसेनमुनिपो यस्मै सुशिष्यत्रयम् पादाद् भक्तिवशमसन्नहृदयो यत् किं न दत्ते प्रभुः । सोऽव्याच श्रीविजयादिदेवसुगुरुभंव्यानपायोच्चयाच् श्रीश्रीवल्लभपादकेन कविना व्याख्यात दीक्षोत्सवम् ॥१४२॥ इति श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमद्विजयदेवमहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिवराणां श्रीविजयसेनसूरिप्रदत्तश्रीकनकविजयादिशिष्यप्रदानवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः ॥ ८॥ Ahol Shrutgyanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः अथ शश्वद्गुरोः पार्श्व सर्वा विद्याश्चतुर्दश । सोपाइँकादशाङ्गीयुक् पूर्वाण्यपि चतुर्दश ॥१॥ अधीयानोऽभवन्यायान्वर्धमानो गुणश्रिया। ___ ओजसा तेजसा चाङ्गे कनकविजयोऽन्तिषत् ॥२॥ युग्मम् ॥ प्रत्यक्षा हि वभौ तस्मिन् चित्तस्थेव सरस्वती । सूत्रार्थांधवबोधेन कालेष्वध्ययनादिषु ॥३॥ शिष्यैरनेकैर्विद्भिर्युक्तो यद्यपि भूरिभिः । तथाऽप्यनन्यशिष्योऽहमित्यमस्त सदा गुरुः ॥४॥ चक्षुषी तस्य कर्णान्तविश्रान्ते स्तो मनोहरे । चक्षुष्मत्ता तु शास्त्रार्थैस्तथाऽप्यासीजगद्धिता ।। विशावदाऽवयस्सोऽस्ति श्रीराजनगरे ह्यऽथ । विशावदाता उद्यन्ते विशदा यस्य धीमता ॥ शंसन्तीति विशो विश्वे विश्वे विश्वममदृशम् । अश्नुते सद्यशो यस्य विश्वस्येष्टे स ईश्वरः॥७॥ विवस्वानिव तेजस्वी वचस्वीव बृहस्पतिः। ___ यशस्वी चक्रवर्तीव जिनशासनशोभकः॥८॥ युग्मम् ॥ वशीति विवशो नेति शश्वचेति वशंवदः। यमुशन्ति विशामीशा भासते स विशावदाः ॥९॥ उद्धतेजगतो मूलं मूलं स्वीयकुलस्य च । मूलो नाम तदीयोऽस्ति भ्राता त्राता सदथिनः ॥ अथात्रावसरे श्रीमद्विजयसेनसद्गुरुम् । विशावदाऽभिधः श्राद्धः समायाद्वन्दितुं मुदा ॥११॥ वन्दित्वा प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयात् स उपाविशत् । पुरस्ताच् श्रीगुरोधर्मका श्रोतुमनास्तदा॥ विजयसेनसूरीन्द्र इति तं समुपादिशत् । नवीनप्रतिमानां हि कारणं पुण्यकारणम् ॥१३॥ समाकोभयाकणि च ईदृग्गुरोर्मुखात् । प्रतिमाकारणे भावमदधाच् श्रीविशावदाः ॥१४॥ ८-स विशाविदा ईश्वरो धनी श्रावकः विश्वस्य जगत इष्टे ऐश्वर्यं करोतीत्यर्थः । अधीगर्थदयेशां कर्मणीति शेषत्वेन विवक्षिते कर्मणि विश्वस्येति षष्ठी। शेषत्वेनाऽविवक्षिते कर्मणि विश्वमीष्टे इति कर्मापि स्यात् । जगतामोष्टे जगन्तीष्टे इत्यादिवत् । स कः यस्य विशाविदा इति नामः श्रावकस्य अमूदृशं सद्यशः विश्वं लोकमश्नुते इति । विश्वे सर्वविशो मनुष्या विश्वे लोके शंसन्ति स्तुवन्ति कथयन्तीति यावत् । अमूहशमिति किं तदेवाह-विवस्वानिव तेजस्वीत्यादि सर्व स्पष्टं । एतत्सर्वमग्रतः स्पष्टयिष्यति । ९-स विशाविदानाम श्रावको भासते दीप्यते । स का यं विशामीशा मनुष्याणां स्वामिनो राजान इत्यर्थः । वशीति विवशो नष्टदुष्टधीन्नेति । च पुनः शश्वत् वशंवद इति उशन्ति वाञ्छन्ति कथयन्तीति यावत् । विवशोऽनिष्टदुष्टधीरिति हैमः । १०-सन्तः साधवः श्रावकादयः, अर्थिनश्च याचका प्राक्षणादय इति समाहारद्वन्द्वे सदार्थनस्तान । न लोकाऽव्ययनिष्ठाखलर्थतनामिति षष्ठीनिषेधे द्वितीयेव । Ahol Shrutgyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [नवमः उत्थाय तत आनन्दादागत्यास्थानमन्दिरम् । आकारयच्छुभेऽह्नि सामतिमाकारिणो नरान्।। तेऽप्याजग्मुस्तदाहूताः कृत्वा ज्योक्कारमादरात् । आसन्त पुरतस्तस्य तेनैवोक्तवराज्ञया ।। तदैवं कथयामास तानहद्विम्बकारिणः । द्वासप्ततिजिनेन्द्राणां कुर्वन्तु प्रतिमा वराः ॥१७॥ तदा तदाज्ञयैवं ते प्रतिमाकारिणो नराः । चक्ररपतिमा अईत्पतिमाः प्रतिमोत्तमाः ॥१८॥ वर्तमानादिसत्कालत्रयसम्बन्धिनीरिमाः । द्वासप्तति जिनेन्द्राणां प्रतिमा महिमासमाः॥ आदायानीय तस्याने ढोकयामासुराशु ते । हृद्यमोदत ता दृष्ट्वा श्रावकश्रीविशावदाः ॥२०॥ युग्मम् । अकारयजिनागारं शकन्दरपुरे तदा । श्रीचिन्तामणिपाश्वस्य चैत्यस्यान्तिकमुत्तमम् ॥२१॥ प्रतिमानामथ श्रेष्ठ प्रतिष्ठां श्रीप्रतिष्ठया । विजयसेनसूरीन्द्रकरात्कारयति स्म सः ॥२२॥ तस्मिन्नवसरे मूरि विज्ञप्यांही प्रणम्य च । वदतांवर इत्याख्यत् श्रावकः श्रीविशावदाः॥२३॥ श्रीकीर्तिविजयाख्योऽयं कनकविजयोऽप्ययम् । शिष्यपशिष्यावेतौ ते भ्रातरौ द्वाविमौ मिथः ।। राजसुन्दरनामाऽयै कुशलविजयः पुनः । कमलविजयश्चैते पञ्च पञ्चमपञ्चमाः ॥२५॥ एतेषां विदुषां देहि पदं पण्डितनामकम् । श्रीसंघाग्रहतः श्रीमद्विजयसेन सद्गुरो ! ॥२६॥ ---त्रिभिर्विशेषकम् । विजयसेनसूरीन्द्रस्ततस्तस्याग्रहाद् घनात् । ददौ तेषां हृदानन्दि पदं पण्डितनामकम् ॥२७॥ रूपकाणि मुदा प्रादात् तत्पण्डितपदोत्सवे । साधर्मिकादिलोकानां प्रतिहस्तं विशावदाः॥ अन्येऽपि श्रावका इभ्याः सभ्याः समयवेदिनः धर्माभिलाषिणो रूप्येश्चकुलम्भनिकां मिथः ॥ अहो पुण्यवतां पुंसां प्रभावः प्रभवत्यपि । मनोस्थानां लाभाय परेषां छुपकारकृत् ॥३०॥ १९-कथं भूताः प्रतिमाः ? महिमासमा:-महिना माहात्म्येन न समाः सदृशा यास्ता महिमाउसमास्ताः। २५-पञ्चमेषु चतुरेषु पञ्चमा हृया ये ते पञ्चमपञ्चमाः । पञ्चमश्चतुरे हृद्य इति महेश्वरः। २७-तेषां कीर्तिविजय १ कनकविजय २ राजसुन्दर ३ कुशलविजय ४ कमलविजयानां ५ पण्डितपदस्योत्सवः तत्पण्डितपदोत्सवस्तं । प्रतिहस्तमित्यत्र 'लक्षणे १ त्थंभूताख्यान २ भाग ३ वीप्सासु ४ प्रतिपर्यऽनव' इति लक्षणेऽर्थे प्रतियोगे हस्तमिति द्वितीया । प्रतिहस्तं हस्तं लक्षाकृत्येत्यर्थः । रूपकाणि नाणकानि । रूपं स्वभावे सौन्दर्थे नाणके पशुशब्दयोरिति महेश्वरः । स्वार्थिक के रूपकम् । २९-रूप्यं दीनारप्रमुखनाणकं । रूप्यं स्यादाहतस्वर्णरजते रजतेऽपि चेति महेश्वरः । यथा-मणिरूप्यादिविज्ञानं तद्विदां नानुमानिकमिति ।। ३०-प्रभवत्यपि समर्थों भवत्येवेत्यर्थः । अपीति निश्चये । कथंभूतः प्रभावः हिर्यस्माकारणात् उपकारकृत् । Ahol Shrutgyanam Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् एवं विशावदाः श्राद्धः श्रद्धया धर्मकर्मसु । चकार रूपमेतेषां श्रीपण्डितपदोत्सवम् ||३१|| कनकविजयः प्राप्य श्रपण्डितपदश्रियम् । विनयं लघुवृद्धेषु यन्नाहंयुः सदाऽकरोत् ||३२|| एवमुद्भूतद्भूत श्री पण्डितपदर्द्धिमान् । कनकविजयोऽराजद्राजेव भविता हासौ ॥ ३३ ॥ -- श्रीकनकविजयस्य पण्डितपदम् । अथास्ति पत्तनं नाम पत्तनं पत्तनोत्तमम् । रत्नयोनिं यतो लाकास्तद्ब्रुवन्ति च नापरम् ॥ महेभ्या तत्र लालीति नाम्नी वसति कामिनी । श्राविका कामुका नैवं कामुक्यपि कदापि न ॥ शीलवत्यो हि या आसन श्राविका : सुलसादिकाः । तासामेषोsaarरः किं जातैषा ब्रह्मचारिणी ॥३६॥ कुतोऽपि सुकृतात्कान्तात् प्राप्तसम्पत्ति सन्ततिः । कुतोऽपि दुष्कृताद्दुष्टात् सा निष्पति- सुताऽभवत् ( कुतोऽपि दुरितात्सासी निष्पतिः सुपतिः श्रिया, श्रियां इति वा पाठः ॥ ३८ ॥ ) फलं लक्ष्म्यादिकं वल्गु फल्गु पत्यादिदुःखजम् । सद्धर्माधर्मयोर्बुद्ध्वा साहद्धर्मं समाचरत् ॥ अर्हदुक्तप्रकारेण विधिना शुद्धधर्मधीः । व्रतानि द्वादशाजस्रं श्रावकाणामपालयत् ||४०|| अथान्यदा फलं भूरि सा गुरोरगृणोन्मुखात् । शत्रुंजयादितीर्थानां यात्राकरणसंभवम् ||४१|| श्रुत्वोत्थाय गुरोरग्रे सर्वसंघसमक्षकम् । आकार्य सर्वदेशानां सङ्घान सर्वात्मनोत्तमान् ॥४२॥ शत्रुञ्जादितीर्थानां यात्रां कर्तास्मि भावतः । sataदिति सद्भक्त्या सिद्धयतामिदमीप्सितम् ||४३|| युग्मम् ॥ श्रीमुत्तमं कृत्वा श्रीसङ्केन जनोत्तमा । उत्तमाहेऽकरोयात्रां शत्रुञ्जयमुखाईताम् ॥ ४४ ॥ ३४ - पत्तनं नाम पत्तनं नगरं अस्ति । कीदृशं पत्तनं नाम पत्तनं पत्तनोत्तमं पत्तनेषु नगरेषु उत्तमं श्रेष्ठं पत्तनोत्तमं सर्वनगरोत्तममित्यर्थः । तदेवाह-यतो यस्मात्कारणाल्लोका स्तत्पत्तनं नाम पत्तनं रत्नयोनिं रत्नानामुत्पत्तिस्थानं रत्नखानि ब्रुवन्ति । च पुनः अपरं अन्यद् नगरं रत्नयोनिं न ब्रुवन्ति । ३५ - कामुकामैथुनाभिलाषसहिता नैव । अत्र रिरंसाया अभावादेव जानपदकुण्डेति ङीप् निषेधे, अजाद्यतष्टाविति टापू अपीति पुनरर्थे । कामुक्यपि मैथुनेच्छावत्यपि कदापि कस्मिन्नपि काले न कामुकीत्यत्र जानपदकुण्डेति मैथुनेच्छायां ङीष् । ३६-एषा लाली श्राविका । याः सुलसादिकाः श्राविकाः, हि निश्चितं शीलवत्य आसन् तासां | किमिति वितर्के । एष अवतारो जाता । कथंभूता एषा ब्रह्मचारिणी । ४४-उत्तमं च तदद्दृश्च उत्तमाहः शोभनं दिनमित्यर्थः । पुल्लिङ्गस्तस्मिन् उत्तमाहे । अह्नखोरेवेति टप्रत्यये टिलोपे च उत्तमाहः । श्रीसन लक्ष्मीसमूहेन जनोत्तमाः शत्रुञ्जयमुखाऽर्हतां मुखशब्दस्याद्यर्थत्वात् । शत्रुञ्जयगिरिनारशतेश्वरार्बुदाचलादितीर्थकुराणाम् । Aho ! Shrutgyanam Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचितं [ नवमः शत्रुञ्जादितीर्थानां यात्राश्चक्रे तयाऽद्भुताः । व्यययित्वाऽव्ययीभावो भेजे द्रव्येण तद्गृहे ॥४५॥ अथान्यदा समुत्पन्नगुरुरागा गुरौ गुणैः । क्षणदा क्षणदायां सा चित्त एवं व्यचारयत् ||४६ || एवमिति किं तदाह ५४ प्रातर्विज्ञपयान्येवं प्रणम्य चरणाम्बुजम् । विजयदेवसूरीन्द्रं सर्वसङ्घसमक्षकम् ॥ ४७ ॥ उपाध्यायपदं देहि त्वच्छिष्यस्याऽस्य भास्वतः । कनकविजयाख्यस्य तद्गुणैर्यत्तु शालिनः ॥ युग्मम् । जाते प्रभात आयात्सा सूरेः पार्श्व उपाश्रये । रात्रिं चिन्तितसद्वार्तां नत्वेत्यारव्यच्च सद्विरा || इतीति किं तदाह प्रयच्छ पूज्यराज त्वमुपाध्यायपदश्रियम् । कनकविजयाख्यस्य पूरयेति मदीहितम् ॥५०॥ अङ्गीकृत्य वचस्तस्यास्सूरिरेवमुपादिशत् । लालीस्त्वमसि धर्माली किं न कुर्वे त्वदीहितम् ॥ यतश्च - लाति लक्ष्म्याः फलं धर्मंपुंरत्नं लीयतेऽपि च । उभयोर्वर्णयोर्योगे लालीरिति समासतः॥ तन्मनोरथसिद्धयर्थं तत्समक्षं निरैक्षत | मुहूर्तमुत्तमं सूरिरुपाध्यायपदोचितम् ॥ ५३ ॥ तत उत्थाय साध्यायात्स्वगृहे स्वगृहे श्रियः । तदैव सर्वदेशानां संघानाह्वयति स्म च ॥५४॥ संघा अहम्मदावादमुखङ्गवासिनः । उपरिष्टान्मुहूर्तस्य तदाहूताः समाययुः || ५५ ॥ षोडशस्य शतस्याब्दे त्रिसप्ततितमे रमे । मावमासावदातस्य पक्षस्योत्तमवासरे ||२६|| वाद्यमानेषु वाद्येषु सुशब्देषु धनेषु च । गीयमानेषु गीतेषु सधवैर्युत्रतीजनैः ॥५७॥ ४५-तया लाली नाम्न्या । किं कृत्वा ? व्ययायेत्खा वित्तं समुत्सृज्य । व्ययण वित्तसमुत्सर्गे चुरादि अदन्तः । द्रव्येण तद्गृहे लालीम्न्याः श्राविकाया गृहे अव्ययीभावोऽक्षयीभावो भेजेशिश्रिये । प्रभूतेऽपि द्रव्ये तीर्थयात्रादिषु व्ययीकृतेऽपि तद्गृहे द्रव्याणि प्रभूतान्येवाभूवन्न न्यूनानीत्यर्थः । ४८–हि यस्मात्कारणात्तु इति विशेषे । तस्य उपाध्यायपदस्य गुणाः तद्गुणास्तैस्तद्गुणैः शालिनः शोभनशीलस्य अनुपाध्यायोऽपि उपाध्याय पदयोग्यगुणैर्विशेषेण शोभमानस्येत्यर्थः । ५२ -- लाति तच्छीला लाः, लीयते तच्छीला ली: । समासतः कर्मधारय समासात् । उभयोर्वर्णयोर्योगे लाचासौ लीश्चेति लाली तत्सम्बोधनं हे लाली !1 ला आदाने अदादि परस्मैपदी, लीच् श्लेषणे दिवादिरात्मनेपदी । उभयत्र अन्येभ्योरपी दृश्यते इति क्विप् । ५३ - तन्मनोरथ सिद्धयर्थं लालीश्राविका मनोरथसिद्धये । तत्समक्षं लालीश्राविकासमक्षम् । सूरिः श्रीविजयदेवसूरिः । ५५- तदाहूता लालीश्राविकाकारिताः । Aho ! Shrutgyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् विजयदेवसूरीन्द्रः कनकविजयाह्वयम् । उपाध्यायपदं दत्वा तदिदमवदन्मुखात् ॥ ५८ ॥ इदमिति किं तदाह [ त्रिभिविशेषकम् । कनकविजयाख्योऽयमुपाध्यायशिरोमणिः । समक्ष सर्वसंघस्य नानादङ्गागतस्य हि ॥१९॥ निशम्येति ततः संघाः सर्वदेशनिवासिनः । ववन्दिर उपाध्यायकनकविजयाह्वयम् ॥६॥ धर्माशिषं तदानन्दात् श्रीसद्यस्य सुखावहाम् । उपादिशदुपाध्यायः कनकविजयायः ॥६१॥ तद्यथा-अर्ह सिद्धवराचार्योपाध्यायाः साधुसंयुताः । श्वाश्रेयसं सदा कुर्युः पश्चैते परमेष्टिनः ॥ श्रुत्वोपदेशं ते सङ्घा उदतिष्ठस्तदग्रतः । तेषां पाणौ च रूप्याणि ददौ लालीः स्वलीलया ॥ सर्वान्सडांस्ततो लालीः प्रभोज्याद्भुतभोजनम् । विससर्जातिसत्कारपरिष्कारादिदानतः ।। लाली श्राद्धी चकारैवमुपाध्यायपदोत्सवम् । कनकविजयो जीव्यात् स चिराय यदीयकम् ॥ -इति श्रीकनकविजयस्य उपाध्यायपदम् ॥ अथास्ति भरतक्षेत्रे सर्वस्वर्गसुखादिकम् । निर्विपत्तिकसम्पत्तिपुरमीडरसत्पुरम् ।। ६६ ।। कल्याणमल्लभूपालः सर्वकल्याणकारणम् । निरुपद्रवसाम्राज्यं भुनक्ति व्यक्तशक्तितः ॥६७॥ व्यवहारी सदाहारीश्वरेश्वरपुरस्कृतः । तत्र भावित्रभृगानः श्रेष्ठी वसति नाकरः ॥ ६८ ॥ (नाकरः श्रावकोऽवसत्-इति वा पाठः) सहानादिगुणान् यस्य त्रिदशैः सहजूरपि । वक्तिरन्यो न किं वक्तिः सहजूरस्ति तत्सुतः ॥ (वक्तिरन्यस्य का वार्ता सहस्तत्सुतोऽभवत्-इति वा पाठः) विगतानः कदाप्याजूः कारायां नुर्न कस्यचित् । यस्य प्रभावतो लोके सहजः स विराजते ।। ६४--अतिसत्कारेण परिष्कारादीनामलङ्कारादीनां दानं अतिसत्कारपरिष्कारदानं तस्मादतिसत्कारपरिष्कारादिदानतः । अलकारस्तु भूषणं परिष्काराभरणे चेति हैमः । परिष्कार इत्ययं मूर्धन्यकवर्गाद्यमध्यः । ६८-तत्र श्रीमति ईंडरपुरे श्रेष्ठी नोकरो वसति । कथंभूतः ? व्यवहारी । पुनः कथं ? सदा निरन्तरं हारीश्वरेश्वरपुरस्कृतः-हारयो मनाहरा ये ईश्वरा धनिनस्तेषामश्विराः स्वामिनस्तेषु पुरस्कृतो यस्स । तथा चारुहारिरुचिरं मनोहरमिति हैमः । पुनः कथंभूतः ? भावित्रभृद्गात्रः कल्याणयुक्तदेह इत्यर्थः । ६९-तत्सुतः नाकरसुतः । जूराकाशसरस्वत्यां पिशाच्या जवनेऽपिचेति महेश्वरः । ७०-यस्य प्रभावतो लोके कदापि कदाचिन्ननरस्य कारायां बन्दी न आजूः न हठात्क्षेपः। कथंभूतः सहजूः विगतात:-विगता आजूः हठात्क्षेपो यस्मात्स विगतात ः। अनेन स्वेच्छाचारित्वं दर्शितम् । सहाई स्वेच्छयैव स्वस्यान्येषां च ऋणादानादिन्यायानां कार्येषु प्रवर्तते । परं नान्ये Aho I Shrutgyanam Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ नवमः दानयस्य पराभूताः प्रस्रवद्भिः करात्सदा । असूयया हि मातङ्गाः स्वन्त्यद्यापि सप्तधा ॥७२॥ क्षिपन्ति मस्तके रेणून सहन्ते चातपादिकम् । लभन्ते नैव दातृत्वं सोऽभूदात्रुत्तमो भुवि ।७२।। अथायाद्विहरंस्तत्र विजयदेवसद्गुरुः । सहजूममुखाः श्राद्धा अपि तं वन्दितुं गताः ।। ७३ ॥ अभिवन्द्योत्सवं कृत्वाऽन्तरा नगरमानयन् । विजयदेवमूरीन्द्रं श्रावकास्त उपाश्रये ॥ ७४ ॥ (अभिवन्द्योत्सवं कृत्वाऽन्तरा नगरमानयत् । विजयदेवमूरीन्द्रं सहजूः स उपाश्रये-पाठान्तरम्) धर्मोपदेशमाकये नत्वा चोत्थाय सोऽकरोत् । पुष्पाणीव सुरूप्याणि महाजनकरास्पदे ॥७॥ अथान्यदा समुत्पनविवेकाधिकतेरितः । इति व्यज्ञपयद्भक्त्या सहजूः श्रावको गुरुम् ॥७६॥ इतीति किं तदाहजानासि यं स्वं शिष्यं सर्वांगीणगुणाश्रयम् । श्रीगुरो प्रापयद्राक्तं ाचार्यपदश्रियम् ।। विजयदेवसूरीन्द्रस्ततः माहेति सं प्रति । अस्मिन् कायें करिष्यामि ध्यानमभ्युदयावहम् ॥७८॥ ततस्तं सहजः प्राह प्रयतस्व गुरो द्रुतम् । ध्यानाहै वीक्ष्यते वस्तु यत्तद् ब्रूहि नयामि तत् ॥७९॥ अस्मिन्नवसरे श्रीमत्सावलीग्राम उत्तमः । वर्तते सावली तस्य प्रबलीष्टे महीपतिः ॥८॥ परीक्षककुलव्योमव्योमरत्नसमद्युतिः । रत्नं रत्नसिंहारव्यः श्रेष्ठी वसति विश्रुतः ॥८॥ अनेकजीवहिंसाया निवारणकृतोद्यमः । रत्नसिंहोऽलिखत्पत्रं सूर्याहानाय हर्षितः ॥८२॥ तद्यथा-स्वस्तिश्रोशोभितं शश्चन्नत्वा श्रीपरमेष्ठिनम् । ईडते पण्डिता यत्स्वस्तभातीडरसत्पुरम् (-पत्तनमिति वा पाठः) ॥८॥ विजयदेवसूरीन्द्रं वसन्तं तत्र साम्पतम् । प्रणत्य रत्नसिंहोऽयं श्राद्धो विज्ञपयत्यय ॥४॥ श्रीपूज्यराज साधन्तश्रीसमाजविराजितः । साबलीग्राममागच्छ सर्वजीवहिताय हि ॥८॥ तं हठात् तेषु प्रक्षिपन्तीति भावः । विष्टिराजूरित्यारः । यद्यप्याजूनरके हठात क्षेपस्य नाम, तथाप्यत्र सामान्याविशेषयोरभेदेन विवक्षणात् अन्यत्रापि हठात्क्षेप नाम न दुष्टम् । ७१-सप्तधा सप्तभिः प्रकारैः। ८०-सा सप्ताङ्गराज्यलक्ष्मीस्तया बलते प्राणितीत्येवं शीलः साबली । सप्ताङ्गराज्यलक्ष्मीसमृद्ध इत्यर्थः । बल प्राणने भ्वादिरात्मनेपदी । अत एवं प्रबली प्रकृष्टं षड्विधत्वात् बलं सैन्यं प्रबलं तदस्यास्तीति प्रबली । अत इनि ठनौ इति । इनिः षड्विधसैन्ययुक्त इत्यर्थः । महीपतिः राजा तस्य साबलीमाम्यस्य ईष्टे राज्यं करोतीत्यर्थः । तस्येत्यत्र अधिगर्थदयेशां कर्मणीति शेषत्वेन विवक्षिते कर्मणि षष्ठी । अत्र शेषो नाम कर्मण अविवक्षासम्बन्ध इत्यर्थः । ततः शेषस्य सम्बन्धस्य भावः शेषत्वं सम्बन्धत्वमित्यर्थः । तेन विवक्षिते कर्मणि षष्ठी । ८५-साधतानां साधूनां श्रीः शोभा तस्याः समाजेन सङ्घातेन विराजितः साधन्त. श्रीसमाजविराजितः । Aho I Shrutgyanam Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् जीवहिंसा प्रभूतात्र जायते पापभूपतः । त्वदागमनतस्तस्या निवृत्तिर्भविता चिरम् ॥८६॥ अस्मिंश्च कार्य आलस्यमपास्यागच्छ सद्गुरो! । भवन्ति साधवः सर्व धर्मलाभार्थिनो यतः॥ स्वस्ति श्रीजिनमानम्य श्रीमदीडरसत्पुरे । सहजूप्रमुखान् श्राद्धान् रत्नसिंह इति स्तुते ॥ इतीति किं तदाहधन्या यूयं यतो नित्यं विजयदेवसद्गुरोः । वन्दश्वे चरणाम्भोज लभध्वे च फलं श्रियः । वारंवारमिति स्तुत्वा तांश्च विज्ञपयत्यथ । अद्य सद्यः प्रसद्यात्र मुञ्चेयुः श्रीगुरुं गुरुम् ॥१०॥ अत्रापि भविता लाभो नव्यो नव्यो दिने दिने । प्रसादाद् भवतामेव विचारो नात्र कश्चन ॥ विलिरव्य पत्रयोर्द्वन्द्वमद्वन्द्वेन स्वचेतसा (-मद्वन्द्वेन स्वपाणिनेति वा पाठः)। रत्नसिंहस्तदा प्रादात् प्रैष्यहस्ते प्रशस्तधीः ॥ ९२ ॥ तदानीं पोचलत्रैष्यः प्रचलंश्वापदीडरम् । गुरोरन्तिकमागच्छत्पादात्पत्रे च सद्गुरोः॥९३॥ प्रापयच्छीगुरुः पत्रं द्वितीयं सहजूकरे । उभाववाचयेतां तौ ते पत्रे प्रीतचेतसौ ॥१४॥ सहजूः प्रमुखाः सर्वे श्राद्धा ईडरवासिनः । विजयदेवसूरीन्द्रमिति व्यज्ञपयंस्तदा ॥१५॥ इतः प्रचल सूरीन्द्र गत्वा तं तत्र तोषय । धर्मंजीवदयादानब्रह्मचर्यादि सम्भवैः ॥१६॥ श्रावकं पोपयित्वा तं कृत्वा ध्यानं हिताय च । अत्रास्मांस्तोषयागत्य वर्याचार्यपदोत्सवात् ॥ इत्युक्तः सहजमुख्यैः श्रावकैरादरात्ततः । विजयदेवसूरीन्द्रः प्राचालीत्परिवारयुक् ॥९॥ विहरन्स क्रमात्माप सावलीग्राममुत्सवम् । कृत्वा श्रीरत्नसिंहोऽपि तमुपाश्रयमानयत् ।।९९॥ धर्मोपदेशमाकण्यं दृष्ट्वा चोग्रक्रियापरम् । श्रीगुरुं स्वशरीरे स प्रापानन्दमपापधीः ॥१०॥ यावच्छ्रीमद्गुरोरत्र स्थितिः प्रीतिविधायिनी । तावदत्रापवित्रा नो भवित्री मारिरीतिकृत। वितथा वितथामे मा वाचो वाचंयमाधिपे । निवसत्यवनीनाथ रत्नसिंहोऽभ्यधादिति ॥१०२॥ सर्वथा निय॑था लोका अभया अभया इव । भवितारोऽस्य माहात्म्यानिधनाः सधना अपि ।। ८८-इति स्तुत इति स्तौति । ८९-धन्येति सुगमम् । १०२-युग्मम् । हे अवनीनाथ ! भूपाल! वाचंयमाधिपे श्री विजयदेवसूरौ निवसति सति स्थितिकुर्वति सति इमाः पूर्वोक्ता:-मारिनों भवित्रीत्यादि लक्षणानि, वेद्यमानाश्च सर्वथा निर्व्यथा लोका इत्यादिलक्षणा वाचो वाण्यः वितथा असत्याः मा वितथाः मा कार्षीः इति रत्नसिंहोड भ्यधात् अकथयत् । वितथा इति तनुविस्तारे इत्यस्य विपूर्वकस्य करणार्थस्य माडिलुङिति लुङि लिलुङि इति चिलप्रत्ययः, च्ले सिच् इति सिच् प्रत्यये तनादिभ्यस्तथा सोरिति वैकल्पिकसिचो लोपे अनुदात्तोपदेशेति अनुनासिकलोपे न माङ् योगे इत्यनेन अडागमस्य लोपे च मध्यम. पुरुषस्यैकवचनम् । १०३-भवितारो भविष्यन्तीत्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ नबमः प्रबोध्यैवं स्वसद्बुद्धया सावलीग्रामनायकम् । मारिन्यवारि सर्वारिहरा तेन चिरात्तदा ॥ षोडशस्य शतस्याऽस्मिन् मुभिक्षे सुखदायिनि । अधिके सप्तभिः शस्तश्रीसप्ततितमेऽब्दके ।। माघमासस्य शुक्लस्य पक्षस्य सुदिने दिने । षष्ठीनाम्नि विधातेव भाग्यं लिखितुमादरात् ।। शासनाधीश्वरी ध्यातुमथातिष्ठदधीश्वरः । गच्छभारधरः को मे भावी ज्ञातुमिति स्फुटम् ॥१०७॥ त्रिभिर्विशेषकम् । कृत्वा षष्ठाऽष्टमाऽचाम्लमभृत्यत्युत्कृष्टं तपः । व्यायति स्म शुभं ध्यानं ध्यानकाग्रमना गुरुः।। विधिना ध्यायतो ध्यानं प्रासीदच्छासनेश्वरी। समागत्य गुरोरग्रे न्यषीदच्चोज्ज्वलद्युतिः ॥ अथ शासनदेवतावर्णनम्---- प्रत्यक्षा सुप्रसन्नाऽक्षा देवी विद्युदिवाऽभवत् । सुवर्णात्मा सुवर्णात्मा श्रीगुरोः सम्पदे मुदे ॥ क्षोभयन्तीव चेतांसि योगिनां भोगिनामपि । अनाढयानां सदाढ्यानां त्यक्तात्यक्ताऽस्थिरत्वतः ॥१११॥ १०४-तेन रत्नसिंहेन तदा श्रीविजवदेवसूरेः साबलीप्रामे निवसनकाले चिरात् प्रभूतं कालं यावत् मारिवारि न्यषेधीत्यर्थः । शेषं स्पष्टम् । ११०-प्रत्यक्षा कहि दृष्टात्मेतिवा पाठः । देवी शासनदेवता सूरिमन्त्राधिष्ठात्री श्रीगुरोः श्रीविजयदेवसूरेः सम्पदे लक्ष्म्यै मुदे हर्षाय प्रत्यक्षा अभवत् । कथंभूता देवी? सुप्रन्नाऽक्षा सुप्रसनानि विकाररहितरीन प्रसादयन्ति अक्षाणि इन्द्रियाणि यस्याः सा तथा । प्रत्यक्षा कर्हि पृष्ठात्मेति पाठान्तरं तदायमर्थः-थिंभूता देवी कर्हि कस्मिन् अर्थात्समये दृष्टात्मा दृष्ट आत्मा देहो यस्याः सा तथा । शासनदेव्याः कस्मिन्नेव काले दर्शनात् न सर्वदा दर्शनात् । का इत्र ? विद्युदिव । कथंभूता विद्युत् ? काई दृष्टात्मा प्राम्वत् । विद्युदपि कदैव दृश्यते न सर्वदेति । कथंभूता देवी विद्युच, सुवर्णात्मा सुवर्णः पीतलक्षणवर्णयुक्त आत्मा देहो यस्याः सा सुवर्णात्मा पीतवर्णा इत्यर्थः । अत एव पुनः कथंभूता, सुवर्णात्मा सुवर्णमयदेहा इत्यर्थः । पीता हि विद्युल्लोकानां सम्पदे भवति । यत्प्राञ्चः-" वाताय कपिला विद्युत् , आतपायाऽतिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञेया, दुर्भिक्षाय सिता भवेत् " इति । एवं शासनदेव्यपि पीतवर्णैव गच्छाभ्युदयाय श्रियै च भवति नापरवर्णेति विद्युता साम्यं दर्शितम् । एवं विशेषणद्वयमपि देवीविद्युतोः समानमेव । ११-किं कुर्वन्ती उत्प्रेक्ष्यते --योगिनां भोगिनामपि चेतांसि क्षोभयन्तीव क्षोभ प्रापयतीव । कथंभूतानां योगिनां ? अनायानां धनरहिताना पूर्व गृहस्थत्वे धनभोगसद्भावेऽपि सर्वथा परित्यक्तधनभोगानामित्यर्थः । कथंभूतानां भोगिनां ? सदाढ्यानां सर्वदा धनभोगसंयुक्तानामित्यर्थः । ननु कथं त्यक्तधनभोगानां योगिनां विद्यमानाऽपरित्यक्तधनभोगानां योगिनां चेतः Aho I Shrutgyanam Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् कर्णयोः कुण्डलव्याजात्सूर्याचन्द्रमसौ विधिः । अनीकस्थाविवाऽमुञ्चद्यस्या अङ्गस्य रक्षणे ॥ कर्णयोः कुण्डलव्याजात्सूर्या चन्द्रमसौ किमु । प्रतापकौमुदीद्धयै सेवेते इव यत्पदौ ॥११२॥ तदास्यदर्शनं शस्यं सदृशं स्यादहनिशम् । सेवाविधायिनां पुंसां समीहितविधायकम् ॥११॥ कर्णयोः कुण्डलव्याजात् सूर्याचन्द्रमसाविमौ । स्वामिनी मनसः प्रीत्या इत्यस्थातांतरामिव ।। कर्णयोः कुण्डलव्याजात्सूर्याचन्द्रमसाविमौ । वृद्धि द्रढयितुं साधं तयाप्तावागताविव ॥ कर्णयोः कुण्डलव्याजात् सूर्याचन्द्रमसौ तव । आवयोरिव तेजः स्तादिति वक्तुभिवागतौ ॥ शत्रुध्वान्तहरं मित्रकुमुदानन्ददायकम् (-कुमुदोरोधकारकमिति वा पाठः )। मिथ्यात्वाऽज्ञानसम्यक्त्वज्ञानवस्तुप्रकाशकम् ॥११८॥ युग्मम् । कर्णयोः कुण्डलव्याजात् सूर्याचन्द्रमसौ सदा । महामात्राविवाऽन्येषां स्वेशाऽग्राऽकूतवेदकौ।। दधानाभाति सा कण्ठे हारपालाम्बिकादिकाः । भूषा भूषा इवाधेयवराधारमुखावहाः ॥ क्षोभ इति शङ्कां निराकुर्वन्नाह-त्यक्ताऽत्यक्ताऽस्थिरत्वतः त्यक्तानां त्यक्तधनभोगानां योगिनां अत्यकानां अत्यक्तधनभोगानां भोगिनां अस्थिरत्वतः मनसः अस्थैर्यात् । संसारसहजत्वादतृप्तेश्रेत्यर्थः । देव्या अत्यद्भुतरूपदर्शनेन तेषां मनसः स्थैर्येऽपि मनःक्षोभो अत्यधिकाद्भुतरूपत्वात् । एवं विद्युदपि व्याख्येया इति युग्मार्थः । ११२-रीक्षवर्गरस्वनीकस्थ इत्यमरः । ११५-युग्मम् । अस्योक्तिलेश:-इमा सूर्याचन्द्रमसौ कर्णयोः कुण्डलल्या भात् स्वामिनी मनसः प्रीत्यै सूरिमन्त्राधिष्ठाच्याः शासनदेवतायाश्चेतसः प्रसन्नतायै इति अस्थातान्तरामिव प्रकघेण आतिष्ठतामिव । प्रकर्षण अस्थातां अस्थातान्तरां द्विवचनविभज्योपपदेतरबीय सुनौ इति तरपि। किमेतिङव्ययथादाऽ स्वद्रव्यप्रकर्षे इति आस्वागमे रूपम् । इतीति किं तदाह-सेवाविधायिनां पुंसां अहर्निशं शस्यं तदास्यदर्शनं शासनदेवीमुखावलोकनं सदृशं समानं तात् । कोऽर्थः ? दिवाराचावपि उद्योते ध्वान्ते च गृहस्य मध्ये बहिर्वा समानं शासनदेवीमुखावलोकनं भवतात् । एवं चेन्न तर्हि द्वयोर्मध्ये एकस्याभावे समानं दर्शनं न स्यादिति तद्भवतु इति अस्थाताम् । १२०-अस्योक्तिलेश:-सा शासनदेवता कण्ठे हारप्रालम्बिकादिकाः भूषा आभरणानि दधानाभाति । हाराश्च उर:सूत्रिका देवच्छन्द-इन्द्रच्छन्द-विजयच्छन्द-अष्टाधिकशतलताहाराचहारादयोऽनेकप्रकाराः, प्रालम्बिकाश्च-काण्ठलउ लहकउ टङ्कावलि माला चंपकली चउकी इत्यादि भिन्नभिन्नाकारानेकप्रकारलोकभाषाप्रसिद्धप्रलम्बमानण्ठभूषास्ता आदिर्यासां ताः हारप्रालम्बिकादिकाः । कथंभताः भूपाः ? आधेयवराधारसुखावहा:-आधेयाः हारपालम्बिकादिकानां भूषाणां स्वस्वसुन्दगकारज्योतऽयोनीम्सशी मनशोभालक्षणाः, वराधाराश्च Ahol Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [ नवमः तस्याः शरीरमेवेद्रो हारमौक्तिकदम्भतः । सुराः स्तनसुरद्रणां क्रीडन्तीवोपरिस्थिताः॥१२१॥ तस्याः शरीरमेर्वद्रौ हारमौक्तिकदभ्भतः । सुराः स्तनासनासीनाः सेवन्ते सेवका इव ॥१२२॥ सिद्धिर्भनोस्थानां सागस्माकं भविता शुभा । अस्याः प्रभावतो दिव्यादिति निश्चित्य चेतसि ॥ तस्याः शरीरमेवेंद्रो हारमौक्तिकदम्भतः । सुराः सूरि नमामेत्यऽनया सह स्थिता इव ॥१२४॥ यत्सौवर्णाङ्गदम्भेन मेरु सेवत एव ताम् । भवान्यदाता दाताहमिति चेतस इच्छया॥१२॥ त्यक्त्वैकेन्द्रियतां पञ्चेन्द्रियतां चेल्लभेयहि । तदा दानं प्रदायाहं प्रभवाणि बहुमदः ॥१२६॥ विचिन्त्येति यदीयाङ्गीभूयमेरुगिरीश्वरः । निषेवत इवाजस्रं सा देवी दीव्यते न कैः॥ युग्मम् कल्याणं नाम मे लोकाः आहुः सप्तसु धातुषु । शकुनादिषु कार्येषु मामकल्याणकं पुनः॥ अतः सार्थ हि कल्याणं दधै नामेति वाञ्छया । तत्सुवर्णांगदभात्तां सुवर्ण श्रयतीव किम् ॥ यत्सेवां सर्वदां पूर्व सुवर्ण सर्वदा व्यधात् । सुवर्णमिति नामातो हेम्नस्तां स्तुत पण्डिता ! ॥ यस्याः स्तनद्वयं वीक्ष्य कविः कामप्रदं सदा । कामकुम्भमिहामुञ्चदिव ब्रह्मेति शङ्कते ॥ विधत्ते न कथं सा हि पश्यतामीहितं नृणाम् । कामदं हृदि या धत्ते कामकुम्भं स्तनद्वयम् ॥ हारादीनामेव प्रवरधारकलक्षणाः, तेषां सुखावहाः सुखकारिण्य इत्यर्थः । पुनः कथं भूताः ? अत एव उत्प्रेक्ष्यन्ते भूषाः भूषा इव । भुत्रश्च भूमयः, उषाश्च रात्रय इति द्वन्द्व भूषाः भूमिरात्रयस्ता इव । यथा भूमयो रात्रयश्च आधेयानां मनुष्यादीनां वराधाराणां च गृहादीनां शुभे सुखावहा भवन्ति तथा भूषा अपि स्वस्त्रसुन्दराकारशोभालक्षणानां आधेयानां वराधाराणां हारादिषु भूषाधारकानां च सुखावहा भवन्ति-इति भावः । १२५-एवेत्यव्ययमिवार्थे । मेरुर्यत्सौवर्णाङ्गदम्भेन यस्याः शासनदेव्याः सौवर्णाङ्गमेव सुवर्णमयशरीरमेव दम्भः कपटं तेन यत्सौवर्गाङ्गदेन करणभूतेन तां शासनदेव सेवते एवं श्रयते इवेत्यर्थः । कया अहं अदाता दाता भवामि इति चेतस इच्छया । १२९-युग्मम् । उक्तिलेश:-सुवर्ण तां शासनदेवता, तत्सुवर्णाङ्गदम्भात् तस्याः शासनदेव्याः सुवर्णाङ्गदम्भात् हेमवर्णमयशरीरमिषात् श्रयतीव सेवते इव । कया अतः कारणात् , हि निश्चितं साथै कल्याणं नाम दधै बिभराणि इति वाञ्छया, अतः कारणादिति । किं तदाहलोकाः सप्तसु धातुषु मे मम कल्याणं नाम आहुः कथयन्ति । पुनः शकुनादिषु कार्येषु अकल्याणं अकल्याणकारकं आहुः । अतः कारणादित्युक्ति लेशः । १३०-उक्तिलेशश्चास्य-भो पण्डिनास्तां शासनदेवतां स्तुत । तामिति का ? यत्सेवा सुवर्ण हेम सर्वदा पूर्व व्यधात् । अतो हेम्नः सुवर्णमिति नाम अभवदिति शेषः । यस्याः शासनदेव्याः सेवा यत्सेवा, ता; कथंभूतां सर्वदा सर्वाभीष्टार्थदायिनीमित्यर्थः । Aho I Shrutgyanam Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अन्यस्त्रीरूपसर्वस्वपराजयविधानतः । तस्या जयावहौ भात आनकाविव सुस्तनौ ॥१३॥ जयस्तम्भाविव न्यस्तौ स्तनौ तस्या बनोन्नतौ । वीक्ष्यैवं पाण्डिताः प्राहुः सर्वस्त्रीरूपलोपनात् ॥ देवीरूपं दधाना किं कामधेनुरियं किल । द्रष्टार इति शंसन्ति यतः कामदुधानवा ॥१३॥ सुरूपं चारुनेपथ्यं मनोमोहनयौवनम् । तस्या दृष्ट्वा जनाः स्वीयं किं त्यजन्ति न यौवनम् ॥ इन्द्रादयो हि ये देवा ऋद्धिमन्तस्तदीश्वराः । ते वशवर्तिनो यस्याः सा मोहयति किं न नृन् । यस्या अत्यद्भुता दृष्टिविकृता विकृतान्नरान् । निहन्त्यर्जुनयन्त्रेषुरिव सा रातु वाञ्छितम् ॥ गच्छन्ति सम्मुख वीक्ष्य तां मर्त्या उन्नतस्तनीम् । त्यक्त्वा स्त्री पद्मिनीरुञ्चगुच्छां वल्लीमिवाऽलिनः ॥१३९॥ १३६-द्वितीयं यौवनपदं युवीवृन्दवाचकम् । १३८-सा शासनदेवता वाञ्छितं रातु-ददातु । सा का ? यस्या दृष्टिर्यस्था नेत्रं निहन्ति मारयति । कान् ? नरान् । कथंभूतान् ? विकृता द्वेषकामादिना विकारं प्राप्ताः शत्रवः कामिनो वा । आविकृता द्वेषकामादिका विकारं न प्राप्ता योगिन इत्यर्थः । ततः कर्मधारये विकृताविकृतास्तान् । कर्थभूता दृष्टिरत्यद्भुता । का इव ? अर्जुनयन्त्रेषुरिव । यन्त्रेण मुक्ता इषुर्यन्त्रेषुः । मध्यपदलोपीसमासः [ अर्जुनस्य यन्त्रेषु अर्जुनयन्त्रेषुः सा इव ! यथा अर्जुनस्य यन्त्रेषुः शत्रून् हन्ति विफली न भवति तथा शासनदेवीदष्टिरपि द्वेषकामादिना विकृतान्नरान्निति द्वेषकामादिनाऽविकृतान्नरान् ब्रह्मचर्यादिव्रतपालनधैर्यभ्रंशात् निहन्ति-नितरां हन्ति न विफली भवति । अत्र यस्या इत्युपमेयस्य अर्जुन इति भिन्नलिङ्गोपमानं 'क्वापि भिन्नलिङ्गं तु मेनिरे' इति वाग्भटवचनात् । दृष्टरुपमानं यन्त्रेषुरिति । इषुशब्दः शरपर्यायः त्रिलिङ्गः शाकटायनमते, अमरस्तु इषुयोरिति पुंखियोगह । अतोऽत्र स्त्रीलिङ्ग एव इषुशब्दो व्याख्येयः । चतुर्विधानि आयुधानि मुक्ताऽमुक्तादिभेदात् । यदाह हलायुधः-" मुक्तामुक्त-१ ममुक्तं २ करमुक्तं ३ यन्त्रमुक्तं च ४ ॥ शक्त्यादिपाणिमुक्तं स्यादमुक्तं क्षुरिकादिकम् । मुक्कामुक्तं च यष्ट्यादि यन्त्रमुक्तं शरादिकम् । " इति । अतोऽत्र यन्त्रेषुरिति धनुर्मुक्तबाण इति युक्तोऽर्थः । १३९-गच्छन्तीति व्याख्या:-मया नरास्तां शासनदेवतां वीक्ष्य सम्मुखं गच्छन्ति । कथंभूतां ताम? उन्नतस्तनी-उन्नती उच्चौ स्तनौ यस्याः सा उन्नतस्तनी ताम् । स्वाङ्गासोपसर्जनादसंयोगोपधादितिवैकल्पिको ङीष् । वैकल्पिकङीषाभावे उन्नतस्तनाम् । किं कृत्वा स्त्रीः अर्थात स्वकीयपरिणीतस्त्रीस्त्यक्त्वा । अत्रोपमानमाह के इत्र, वल्ली अलिन इव भ्रमरा इव । यथा भ्रमरा वल्ली सन्मुखं यान्ति तथा । इवोऽत्र भिन्नक्रमे, उद्वाहुरिव वामन इतिवत् । किं कृत्वा पनि नीस्त्यक्त्वा । कथंभृतां वल्लीम ? उच्चगुच्छां-उच्चा गुच्छाः कुसुमानां यस्यां सा नथा ताम | Ahol Shrutgyanam Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचितं [ नवमः नु सौम्यचन्द्रो न सूर्यो न प्रतापान्नु सरोरुहम् । सौरभ्याद्वदनं तस्या इति प्रज्ञाश्चिराद्विदुः ॥ ( सौरभ्यादागतौ तस्यास्तमितिज्ञाविराद्विदुः इत्यपि पाठान्तरम् ) देवा देवगुरुयन्ति यां सदा स्वभावतः । दैत्या दैत्यगुरूयन्ति सा ददातु सदा मुदः || १४१|| fe सा शासनधीशा तं तदेत्यवदन्मुदा । श्रीवल्लभ उपाध्याय उपश्लोकयति स्म याम् ॥ इतीति किं तदाह श्री पूज्यराज कार्य ते मदाकारणकारणम् । प्रसद्य तद्वद त्वं मां करवाणि त्वदाज्ञया || १४३ || ध्यानं सूरिः परित्यज्य तामवोचद्विचारवित् । भूयांसः सन्ति मे शिष्याः अभिषिञ्चानि के प्रति || १४४|| श्रीसूरिति विज्ञता सूरिमन्त्रस्य देवता । क्षणमात्रं तदा तस्थौ ध्याननिश्चललोचना ॥१४५॥ प्रणिधानेन साऽपश्यत् तपागच्छप्रकाशकम् | कनकविजयं शिष्यमुपाध्यायं जगज्जयम् ॥ यथा भ्रमराः कमलिनीभ्य उद्विग्नाः कमालनीः परित्यज्य प्रोद्भूताऽतिसुराभनवीन कुसुमगुच्छां लतां सम्मुखं यान्ति तथा रमणीयरूपा अपि स्वकीय परिणीतस्त्रीः परित्यज्य मर्त्याः शासन देवतामभिमुखं यान्तीति भावार्थः । अत्र तामिति पदस्य वल्लीत्युपमानं, मर्त्या इत्यस्यालिन इत्युपमानं, स्वीरित्यस्य पद्मिनीरित्युपमानम् । स्त्रीरित्यत्र वाऽमूशसोरिति वैकल्पिको न इयङ् । १४० - तस्याः शासनदेव्या आगतौ आगमने ज्ञा:- पण्डिताः तां - शासनदेवतां इति चिराद्विदुः ज्ञातवन्तः । इतीति किं ? त्रयोऽध्यत्र तु शब्दा अव्यया वितर्कार्थाः | सौम्यात्किं चन्द्रः 1 प्रतापाकिं सूर्यः? सौरभ्यात्कि सरोरुहं-कमलमिति । सौरभ्याद्वदनं तस्या इति प्रज्ञाश्चिराद्विदुरिति पाठे -तस्याः शासनदेव्या वदनं प्रज्ञाः पण्डिता इति चिराद्विदुः । शेषं सर्वे प्राग्वत् । १४१-सा पूर्वोक्तप्रकारवर्णिता शासनदेवता सदा मुदो ददातु । साका ? यां सदा स्वप्रभावत आत्मीयोत्कटस्वतः देवा देवगुरूयन्ति बृहस्पतिमिवाचरन्ति । यां दैत्या दैत्यगुरुवन्ति शुक्रमिवाचरन्ति | देवगुरूयन्ति दैत्यगुरुयन्ति-अत्रोभयत्र उपमानाद्दाचारे इति क्यच्प्रत्ययः । अकृत्सार्वधातुकेति दीर्घश्च । सप्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोशदण्डजमित्यमरः । १४२ - द्वात्रिंशता श्लोकैरुपस्तौति - उपश्लोकयति । णाविष्टवत् प्रातिपदिकस्येति णौरूपं उपश्लोकयति स्म । द्वात्रिंशता श्लोक रस्तौदित्यर्थः । १४४ - अभिषिवानि के स्वपदे न्यस्यानि स्थापयानीत्यर्थः । अभिषिश्चानीति 'आशिषि लिङ्क लोटौ' इत्याशिषि लोटि, मेनिरिति मेनि इत्यादेशे आडुत्तमस्य विचेति आडागमे, उत्तमपुरुषैकवचनम् ! १४६ - प्रणिधानेन समाधिना । प्रणिधानं प्रयत्ने स्यात्प्रवेशे च समाहिताविति विश्वः । Aho! Shrutgyanam -- Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् भावितात्माथ देवीति सूरीन्द्र प्रत्यबोधयत् । कनकविजयः शिष्यो भविता ते गच्छनायकः ॥ अमूदृक्षोऽपरो दक्षो न विपक्षापनायकः । स्थूललक्षो लसत्पक्षो गुणलक्षोऽक्षदर्शकः ॥१४८॥ युग्मम् । विजयदेवसूरीन्द्रमित्यावेद्य न्यवर्तत । आज्ञया मूरिराजस्य ततः शासनदेवता ॥१४९॥ उज्ज्वलान्माघमासस्य दिनाषष्ठादथाद्भतात् । दिने वैशाखमासस्य तृतीये मञ्जुलोज्ज्वले॥१५०॥ शस्ते प्रभाते संजाते परदेशमहाजनाः । आगता वन्दितुं तत्र ज्योतीरूपं जगद्गुरुम् ॥१५१|| रत्नसिंहादयोऽप्यन्ये साबलीग्रामवासिनः । विधायानेकधानेकान ववन्दुस्तं महोत्सवात् ॥ रत्नसिंहस्तथान्येऽपि परदेशमहाजनाः। ददु रूप्याण्यनेकानि जातस्पर्धी बुधा इव ॥१५३।। सहजृः समयेऽथास्मिन् कृतपूर्वलसद्वचाः । सुश्रीडरपुराद्धातुभमुश्चच्छ्रीगुरुं नरम् ॥१५४॥ ततः श्रीसहप्रैष्यः साबलीग्राममाययौ । ददौ च शिरसा नत्वा श्रीसूरेः करपङ्कजे ॥१५॥ पत्रं प्रवाच्य सूरीन्द्रः स्वकाकारणवेदकम् । रत्नसिंहाभिधं श्राद्धं तदा प्राज्ञापयन्मुदा ॥१५६॥ सोऽप्यवादीत्तदा मूरि तोषाय सहजूहृदः । गच्छ स्वच्छमते गच्छनाथ स्वहितमाचर ॥ पाचालीत्परमप्रीत्या महताडम्बरेण च । श्रीभूरिभूरिभिः श्राद्धैः साधुभिश्च सह श्रिया ॥ श्रुत्वाथ सहजूः मूरि सामायातं पुरान्तिके । श्रीसन्युतोऽगच्छत् सम्मुखीनो नृणामिनः ॥ अभिनम्य निशम्योपदेशं च श्रीगुरूदितम् । सहजूर्हर्षितः मूरिं समानयदुपाश्रये ॥१६०॥ ददौ धर्माशिषं पूज्य श्रीसंघाय विशेषतः । अभ्युत्तस्थौ ततः सः तस्मै रूप्याण्यदाच सः॥ क्षण लब्धै कदेत्याह सहविनयाद्गुरुम् । श्रावकास्तव भूयांसः सन्त्यन्येऽपि महद्धिकाः ॥१६॥ १४७-भावितो वासितो मिश्रितोऽर्थात् ज्ञानेनात्मा चित्तं यस्याः सा भावितात्मा । ज्ञातगच्छभारसारसूरिमन्त्राधारश्रीकनकविजयोपाध्यायेत्यर्थः अथेति ज्ञाताऽनन्तरम्। आत्मा चित्ते धृतौ यत्ने' इत्यनेकार्थः। स्थूललक्षो वहुप्रदः। यद् हैम:-'स्थूललक्षदानशाण्डौ बहुप्रदे' इति! 'अक्षद. र्शकः न्यायानां द्रष्टा, द्रष्टा तुं व्यवहाराणां प्राड्विवाकोऽक्षदर्शक:' इति हैमः । 'विवादानुगतं पृथ्वा स सभ्यस्तत्प्रयत्नतः। विचारयति येनासौ प्राह विवाकस्ततः स्मृत'-इति कात्यायनः। लसन्तः पक्षाः सखायः सहाया वा यस्य स लसत्पक्षः । लसन् पक्षो बलं यस्येति वा लसत्पक्षः । यद्वा लसन्पक्ष: साध्यं यस्य स तथा । अथवा अकारप्रश्लेषात अलसत्पक्ष:-न विद्यते लसन् पक्षो विरोधो यस्य सः अलसत्पक्षः। ' पक्षस्तु मासार्धे गृहसाध्ययोः। चुल्ली रन्ध्र बले पार्श्वे सख्यौकेशात्परश्चये । पिच्छे विरोधे देहाङ्गे सहाये राजकुजरे ' इति सर्वत्र हैमः । १५४-कथंभूतः सहजूः कृतं विहितं पूर्व प्रथमं लसद्विलसद्वचः श्रीकनकविजयोपाध्यायस्य आचार्यपददापनमहोत्सवाविधानलक्षणं वचनं येन स कृतपूर्वलसद्वचाः । १६१-स सहजू: श्रावक इति शेषः। Ahol Shrutgyanam Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [नवमः तेषामग्रेऽस्म्यहं सूर सर्वदा किंमहर्दिकः । त्वदाज्ञाकारकः शश्वत्सेवकस्ते तथापि यत् ॥१६॥ इति से वाञ्छितं कर्तुं भव योग्यो मदाग्रहात् । कनकविजयायाऽत्र देह्याचार्यपदं मुदा ॥१६४॥ करवाणि यथालक्ष्मि चर्याचार्यपदोत्सवम् । फलं लक्षम्या लभे चाग्यमुत्पन्नायाः सुपुण्यतः ॥ -चतुर्भिः कलापकम् । श्रीधर्मविजयो नाम महोपाध्याय उद्गतः। तपागच्छेऽर्कवद् व्याम्नि प्रामाणिकशिरोमणिः ॥ सुकृतानां शुभोपायः सद्गुणश्रीलयालयः । नियंपाय उपाध्यायश्चारित्रविजयायः ॥१६७॥ तपाश्रीचारुलावण्यं लावण्यविजयोऽपि च । वृद्धोपाध्यायऋद्धायः शास्त्राध्यायपरायणः॥ पण्डिताः पण्डितोत्कृष्टाः श्रीधनविजयादयः । रञ्जितास्तद्गुणैस्तेऽपि मूरिं विज्ञपयन्निति ॥ इतीति किं तदाहकनकविजयाख्येऽस्मिन श्रीसूरिपदयोग्यता । अतः कुरु गुरुश्रेयः सहजूश्रावकोदितम् ॥१७॥ ततः मूरिः प्रसन्नोऽभूत्तद्वचोग्यकरोच सत् । चारुभिचाहुभिः कष्कः सुप्रसन्नो भवेनहि ॥ सहजरथ सन्तुष्टमनाः स्वगृहमागमत् । तदैवाचालयत्रैष्यानाहातुं श्रावकान घनान् ॥१७२॥ श्रीमदहम्मदावादे स्तम्भतीर्थे च पत्तने । एवमादिषु सर्वषु नगरेष्वपरेष्वपि ॥२७३॥ युग्मम् । समाजग्मुस्तदातास्तत्रत्यास्ते महाजनाः । उत्सुका वन्दितुं तं च द्रष्टुं मूरिपदोत्सवम् ॥ अमण्डयच्छुभे स्थाने मण्डपं कार्यपण्डितः । विचित्रचित्रसंयुक्तवस्त्रैर्नेत्रोत्सवपदम् ॥१७॥ पञ्चवर्णात्मको मेघ इवाभाति स मण्डपः । विचित्रैः प्रचुरासारैः प्रवर्षन् हर्षयन् जनान् ॥ दुष्कालान् दुःखसन्दोहान् निरस्यन् दुस्सहान् भृशम् । ___ क्षोभयन् द्विषतां हृदि दारिद्रयाणि नृणां क्षणात् ।।१७७॥ युग्मम् । पञ्चवर्णानि वस्त्राणि मुखमल्लादिकानि हि । भित्रसन्ध्येकसन्धीनि यत्राभ्राणि विरेजिरे ॥ कुत्रचित् यत्र भान्ति स्म पीनकौशेयसंचयाः । विद्युताम्बरझात्कारा मध्यस्था निर्गता बहिः॥ नयनानन्दिनं नन्दि मण्डपे सोऽभ्यमण्डयत् । शोभमानं चतुर्दिक्षु चतुरादिजिनादिभिः॥ १६३-कुत्सितो महाकः किंमहींधक अत्र किमित्यव्ययं निन्दार्थम् । १६९-तद्गुणैः कनकविजयगुणैः । २७४-तमिति श्रीविजयदेवसूरिम् । १७५-कायें अर्थाद्धर्मकार्ये पण्डितः कार्यपण्डितः सहजूश्रावक इत्यर्थः । १७७-मण्डपो जनाश्रयः पुनपुंसकलिङ्गः। 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रय' इत्यमरः । 'आसारो वेगवान् वर्षे इति हैमः । १७८-यत्रेति मण्डपे मेघे च । १७९-यत्रेति मण्डपे मेधे च । Ahol Shrutgyanam Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् कस्माचिदपि श्रुत्वेति समवसरणं भुवि । साक्षात्सुचतुरं सारं रचितं चतुरैर्नरैः ॥ १८१ ॥ विलोकितुमिवायातस्तं न्तुं चैव तज्जिनान् । विमानोऽयमिति प्राहुर्ये बुधाः सुरभासुरः ॥ उत्सवात्कृत्शृङ्गाराः स्त्रियोऽथ सहजगृहे । अजेगीयन्त गेयानि सर्वदोषाश्रयेऽपि च ॥ १८३॥ वादित्राणि पवित्राणि बहुजातीन्यहर्दिक्म | सुस्वरस्वर्गतृणि वादका अभ्यवादयन् ॥ १८४॥ अवदन् वन्दिनो लोका यशांसि वदनाम्बुजात् । गुरूणां श्रावकाणां च द्वारे द्वारे गृहे गृहे ॥ पुण्याहानि किलाहानि पुण्यरात्रीच रात्रयः । अभवन्नत्र सर्वत्र नागरा अब्रुवन्निति ||१८६ | एवमाविरभूद्रङ्गे प्रतिमन्दिरमुत्सवः । उत्सवः पुण्ययनृणां भयेल्लोकोत्सवाय यत् ॥ १८७॥ श्रीयशीतितमे वर्षे षोडशस्य शतस्य हि । वैशाख शुक्लपण्ठेऽति प्रातर्भास्वति भास्वति || विजयदेवमुन्द्रो मण्डपं तं समासदत् । सोत्सवः साधुभिर्युक्तः कनकविजयादिभिः।।१८९ ।। arathi fonifer नागरैश्च जनैर्युतः । वीक्ष्यमाणो गुणैर्गीतयमानः पदे पदे ॥ १९०॥ त्रिभिर्विशेषकम् | ज्योtarai नन्द कारयित्वा यथाविधि । कनकविजयारूपस्य यूरिमन्त्रं श्रुतौ ददौ || दत्वा सूरिपदं दत्तानन्दवृन्दो जगद्गुरुः । विजयसिंह आचार्य इति नामाभ्ययान्मुखात् ॥ ( - इत्याख्यत् स्वमुखात् सुखात् - इति वा पाठ: ) श्रीकीर्तिविजयाख्याय लावण्यविजयाय च । उपाध्यायपदं दत्वा सूरिरेवमभाषत ॥ १९३॥ श्रीकीर्तिविजयाख्येोऽयं लावण्यविजयो लघुः ( - लावण्यविजयः पुनः - इति वा पाठ: ) उपाध्यायामि गच्छप्रभावकतमौ समौ ॥ १९४॥ युग्मम | ततः श्री सहजूनामा श्रावकः श्रद्धयाऽशृणोत् । विजयसिंहमूरीन्द्रमोक्कां धर्माशिषं सुखाम् ॥ सुख प्राप्त भूयात् सम्पदेऽभ्युदयाय च । जयाय च सदारीणां पञ्चैते परमेष्ठिनः || १९६ || श्रुत्वेत्युत्थाय चोत्साहात् तान्नत्वा सहजस्ततः । श्रीसङ्घानां समस्तानां करे रूप्याभ्यदान्मुदा ॥ १८१ - विलोकयितुं तमिति नदि | विलोकयितुं युग्मस्त्र व्याख्या-बुधाः पण्डिता यं मण्डप इति प्राहुः । इतीति किं ? चः पुनरर्थे । तजिनाम् तस्मिनन्दी दिवा अर्थाजिनप्रतिमास्तज्जिनास्तान् नन्तुं वन्दितुं आयात इव अर्थ विमानो व्योमवानं न तु मण्डप इत्यर्थः । व्योमयानं विमानोऽस्त्री' इत्यमरवचनात् । विमानसदस्य पुंनपुंसकलिङ्गाद पुल्लिङ्गनिर्देशः । कथंभूतो विमानः ? सुरमातुरः सुरैर्देवैर्भासुरः सुरभाः । मण्डदि देवानां चित्राणि स्युरतो विमानस्यापि सुरसहितत्वं दर्शितम् । किं विमान आदाब इत्याह-चतुरैर्नरैर्भुवि साक्षात् सारं समवसरणं रचितं इति कस्माञ्चिदपि श्रुत्वा । समवसरणं हि सुरा एवं रचयन्ति न नरा इति सुराणामाश्चर्यमतः सुररहित विमानागमनं समुचितं । कथंभूतं समवसरणं सुचतुरं शोभनाश्चत्वा रोऽर्थात् जिना यस्मिंस्तत् सुचतुरं । अचतुरविचतुरसुचतुरेति अच् प्रत्ययनिपातात् सिद्धिः । ९ Aho ! Shrutgyanam Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ नवमः आय सर्वदेशानां श्रीसंधान सोऽभ्यभोजयत् । सत्कारं चोत्तरं कृत्वा यथास्थानमचालयत् ॥ कनकविजयाख्यस्य जातः सूरिपदोत्सवः । जाते तस्मिन्ननेकेषां पुंसामासीन्महोत्सवः ॥ १९९॥ विजयदेवसूरीन्द्रः कुर्वन महोत्सवान् । विजयसिंहसूरीन्द्रयुतो जयतु भूतले ॥ २००॥ गुरुशिष्यावुभौ सूरी समासीनौ विराजताम् । श्रीतपागच्छपुंरूपनेत्रे इव विकस्वरे । ( - नेत्रे इव मनोहरे - इति वा पाठ: ) |२०१॥ गुरुशिष्यावुभौ सूरी समासीनौ विराजताम् । श्रीतपागच्छपुंरूप कर्णाविव विभूषकौ ॥ २०२॥ गुरुशिष्याgat सूरी समासीनौ विराजताम् | श्रीतपागच्छपुंरूपहस्तावित्र तरस्विनौ ॥२०३॥ वाञ्छितानां कार्याणां कारको स्वेच्छयाद्भुतम् । ararti areat aftaraणां च निवारकौ || २०४ || युग्मम् । एकस्तीर्थकरो यत्र द्वितीयस्तत्र नो भवेत् । एतौ प्रीतौ मिथःसूरी भात इत्यद्भुतं जने ॥ एकस्मिन्नेव साम्राज्ये सम्राडप्येक एव हि । पुण्याधिकमिदं यत्तु सम्राजौ राजतो सू || आसीनौ सम्मुखीनौ तौ सूर्याचन्द्रमसाविव । भातः प्राच्यां प्रतीच्यां च प्रातर्नेत्रसुखावहौ ॥ ( - प्रभाते पूर्णिमास्थितौ - इति वा पाठः ) एवं at विहरन्तौ द्वौ गुरुशिष्य गणाधिपौ । पुष्पदन्ताविवोद्यातौ दीप्येते इव भूतले ॥ - इति श्रीविजयदेवसूरिशिष्यश्री विजयसिंहसूरिवर्णनम् । अथास्मिन् समये क्षेत्रे भारते मरुमण्डले । श्रीमद् योधपुरं नाम पुरं पुरपुरोत्तमम् ॥ २०९ ॥ यत्र वा घनाः कूपाः सरसानि सरांस्यपि । मनोऽभिरामा आरामाः सौवर्गेभ्योऽग्रिमाः सुखाः।। महौजस्तत्र राजास्ति गजसिंहाभिधः सुधीः । पराक्रमपराभूतपरचक्रपराक्रमः ॥२११ || सिलेमसाहिरानन्दात् प्रातिसाहिः प्रसन्नदृक् । महाराजा अयं हीति यं प्राहोत्तमराजसु ॥ २१२॥ श्रीमानमरसिंहाख्यस्तस्य पुत्रो महर्षिकः । जयन्त इव शक्रस्य युवराजो विराजति ॥ २९३॥ तत्र साभिधः श्रेष्ठी श्रेष्ठोऽन्यव्यवहारिणाम् | राजमान्यो जगन्मान्यो न्यवसत्परमर्द्धिकः ॥ तस्य पुत्रोऽभूत्रयो वेदा इवोत्तमाः | सूरसिंहमहीपालमहामात्रा महौजसः || २१५॥ drarat जसवन्ताख्यो जयराजो द्वितीयकः । तृतीयो जयमल्लाख्यो नामतोऽमी यथाक्रमम् ॥ आदिम त्रिषु नाऽभूत पुरुषायुषजीविनौ | आयुषः क्षयतोऽभूतां स्वर्गिणौ स्वर्गविष्ट | २०१ - समं सदृशं ' बराबर' इति भाषा | आसीनौ उपविष्टौ समासीनौ । २१०- सुखानीव आचरन्ति सुखति । सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विप् वाचारे-इति आचारे Sर्थे विपिप्रत्यये सर्वस्य क्विपो लोपे पचाद्यचि सुखन्तीति सुखाः सुखानीव आचरन्ति । २१७--पुरुषस्यायुः पुरुषायुषं अचतुरेति अजंतो निपातः । पुरुषायुषं जीवत इत्येवं शील पुरुषायुषजीविनौ । Aho ! Shrutgyanam Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अभूवन् जसवन्तस्य पुत्रा एते षडुत्तमाः । षण्मुखमुखाकारा विराजन्ते जयोदयाः ॥२१॥ सामलः १ सुरताणश्च २, श्रीसहस्रमल्लो ३ ऽपि च । वा ४ पाचा ५ तथा पत्ता ६ नामतश्च यथाक्रमम् ॥२१९॥ युग्मम् । अविषादः सदा सादाः शोभाः शोभाधनाश्रयः । जगस्तृतीय आभान्ति जयराजमुता अमी॥ श्रीमज्जेसाभिधस्याथ तृतीयस्तनयोऽवति । मत्येषु जयमल्लोऽयं जयमल्लमतल्लिका ।।२२१॥ श्रीमन्नयनसिंहाख्यः सुन्दरः मुन्दरो नृणाम् । आसा नरहरः सन्ति जयमल्लसुता इमे ॥२२२॥ एभिः पुत्रैः शुभैर्दीप्तो भ्रातृव्यैश्च पुरोदितैः। युतोऽन्यपरिवारेण जयमल्लोऽत्र शोभते ॥२२३॥ राजसिंहमहाराजः प्रसन्नहृदयोऽन्यदा । श्रीसुवर्णगिरे राज्येऽभ्यषिश्चज्जयमल्लकम् ॥२२४॥ तत्रान्यत्र ततो धात्र्यां सर्वत्र मरुमण्डले । एवं क्रमेण साम्राज्यश्रियमीष्टे स भाग्यवान् ॥ कुमारपालभूपाल इव स व्यलसत् श्रियः । दानेन जिनधर्मण दययाऽद्भुतया भृशम् ॥२२६॥ श्रीमत्सुवर्णगिर्यादिद्रङ्गशत्रुञ्जयादिषु । चैत्योद्धारविधानेन यात्रया च प्रतिष्ठया ॥२२७॥ युग्मम् । एवमेतानि वाक्यानि कुर्वन् षडपि सम्पति । योभुज्यते स साम्राज्यं जयमल्लश्च वर्तते ॥२२८॥ आह्वयजयमल्लोऽयं विवंदिपुरथाऽन्यदा । विजयदेवसूरीन्द्रं श्रीमदीडरपत्तनात् ॥२२९॥ विजयदेवसूरीन्द्रस्तदाहूतस्ततोऽचलत् । विजयसिंहमूरीशसंयुतः समहोत्सवः ॥२३०॥ विहरन्तौ क्रमात्सूरी गुरुशिष्यसुखप्रदौ । श्रीमच्छिवपुरीपार्थे समाजग्मतुरुत्सवात् ॥२३॥ आसीदवसरेऽथास्मिन् पुंजा पुंजातिपुङ्गवः । प्राग्वाटान्वयसत्पद्मप्रकासनदिवाकरः ॥२३२॥ तेजपालः सुतस्तस्य सत्पुत्रैखिभिरन्वितः । वस्तुपाल-वर्धमान-धर्मदासविलासिभिः ॥२३॥ वसतिप्रिय ऋद्धीनां जनानां स्वामिनामपि । श्रीमच्छिवपुरीनाम्नि नगरे नगरोत्तरे ॥२३४॥ -त्रिभिर्विशेषकम् । अर्बुदाचलसत्तीर्थेऽभवत्मासादकारकः । श्रावको विमलो नाम विमलो विमलैगुणः॥२३५॥ चतुरिजिनामारकारको मारिवारकः । अभूद् राणपुरे ख्यातो धरणो धरणो नृणाम् ॥ इत्यादीनां प्रसिद्धानां श्राद्धानामतुलां तुलाम् । तेजपालो दधानोऽयं विधत्ते मुकृतं सदा॥ -त्रिभिर्विशेषकम् । यस्य दानपराभूता जग्मुः कल्पद्रवो दिवि । तेजपालस्तु कल्पद्रुर्भाति वाञ्छितदो भुवि ॥२३८॥ २२५-तत्र सुवर्णगिरौ अन्यत्र स्थिराद-सत्यपुरादिषु । ततस्तदनन्तरं धात्र्यां भूमौ सर्वत्र मरुमण्डले साम्राज्याश्रय इत्यत्र अधीगर्थदयेशामिति केवलं सम्बन्धत्वेन विवक्षिते कर्मणि षष्ठी, सम्बन्धस्य अविवक्षयां; विवक्षिते च कर्मणि द्वितीयाबहुवचनं वा। Ahol Shrutgyanam Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [नवमः अथवा-जग्मुः कल्पद्रवः स्वर्गे लोकैः सन्तापिता भृशम् । तेजपालस्तु कल्पद्रुरेकोऽस्तीहितदायकः।। अथवा-सर्वे कल्पद्रवो नेशुः भिन्नभिनेप्सितमदाः। तेजपालोऽस्ति कल्पद्रुरेकोऽनेकेप्सितपदः ॥ अथवा-तेजपालस्य दानानि साधुयोग्यानि नो नहि । एकोऽनेकेप्सितप्राता तेजपालो वयं नहि ॥ इति कल्पद्रुमाः सर्वे विमृश्य स्वाहदि स्वयम् । लजयेव गताः स्वर्गे लज्जितो याति यन्न किम् ॥ ऊकेशवंशविख्यातो दौसिकान्वयदीपकः (अथवा-उपकेशाभिधे वंशे दोसीवंशपदीपकः)। योधो भोजस्तयेत्याद्या वसन्तीभ्याः परेऽपि च ॥२४॥ विजयदेवसूरीन्द्रस्तपागच्छाधिनायकः । श्रीमद्विजयसिंहाव्यमूरिसेवितपत्कजः ॥२४४॥ आगतः स्वागतं कुर्वन् जन्तुजातस्य सम्पति । रम्योपशिवपुर्यत्र तेजपालोऽशणोदिति ॥२४॥ तेजपालस्ततस्तुष्ट्वा भूत्वा पुलकिताङ्गकः । कृत्वैकत्रोत्सवात्सङ्घप्रास्थामूर्ति विवदिषुः ॥२४६॥ यत्र स्तस्तत्र तो सूरी गत्वा नना च भक्तितः। अग्रतो विनयादस्थाद्धर्म श्रोतुंमना हि सः॥२४७॥ शघुञ्जयार्बुदाद्रयादितीर्थयात्रां हि ये नराः । कुर्वन्ति कारयन्त्यन्यान् लभन्ते ते नराः शिवम् ।। श्रुत्वोपदेशमीदृशं भट्टारकनिरूपितम् । तीर्थयात्राफलं ज्ञात्वा तेजपालोऽभ्यधादिति ॥२४९॥ अर्बुदाचलतीर्थस्थान विधिनाचिचिषाम्यहम् । विवन्दिपामि च श्रीमदादिदेवादिकार्हतः॥२५०॥ भवता दीव्यताचार्यवर्योपाध्यायसाधुभिः । महता च श्रीसङ्घन तथान्यैश्च समन्वितः ।२५१ युग्मम् ओमाहेति ततः सूरिस्तेजपालाभिधास्तिकम् । इच्छाप्तौ स्याद्यतो हर्षः सोऽतोऽतोतुष्यतोत्तमः॥ (-सोऽतोऽतोतुष्यत प्रेयान् इच्छासिद्धिर्न किं मुदा-इति वा पाठः) प्रत्यर्बुदाचलं तीर्थ तेजपालस्ततोऽचलत् । प्रत्यहं वन्दमानोऽमा समायान्तं गणाधिपम् ॥२५३॥ (-समायान्तं तपापतिम्-इति वा पाठः) सुदिनाहे समारोहत् श्रीसूरिः श्रावकच सः । अर्बुदाचलसत्तीर्थमनत्तस्मिंश्चतीर्थपान् ।।२५४॥ द्रव्यतस्तेजपालोऽयं श्रीजिनेन्द्रानपूजयत् । कश्मीरजन्म-कर्पूर-कस्तूरी-चन्दनादिभिः॥ अभ्यष्टौद् भावतः मूरिः श्लोकः काव्यैश्च भावदैः । यथामति यथाधीतमन्येऽपि व्यदधन् स्तुतिम्।। द्रव्याण्यव्यययेच्छ्योबुद्धया तत्र स आस्तिकः । एकेन्द्रियादिजीवानां दयां सुरिरपालयत् ।। अदाद्रप्याणि स श्राद्धः श्राद्धानां पाणिपङ्कजे । मूरिमूर्द्धसु साधूनां वासे श्रीपदवृद्धये ॥२५८॥ अर्बुदाचलसत्तीर्थयात्रायाः परमोत्सवः । पावर्ततोभयोरेवं मूरिश्राक्कयोमहान् ।। २५९ ॥ तत उत्तीर्य संतीय दुरिताधि च दुस्तरम् । अर्बुदाचलसत्तीर्थात् सुकृतात्सुकृतोडुपात् ॥२६॥ विजयदेवसूरीन्द्रो विजयसिंहमूरियुक । अस्थादुपत्यकाग्रामे तेजपालोऽपि संघयुका२६१।युग्मम् २४५--शिवपुर्याः समीपं उपशिक पुरि । विभक्तिसमीपेऽर्थेऽव्ययीभावः । रम्यं च तत् उपशिवपुरि च रम्योपशिवपुरि तस्मिन रम्योपशिवपुरि । २५३-तपापति तपागच्छनायकं श्रीविजयदेवमूरिम् । Aho I Shrutgyanam Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगैः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् आदरं परमं कृत्वा सह लात्वा च सद्गुरुम् । सम्पद्वन्दमिवानन्दं धृत्वा चित्ते च सोऽचलत् ।। अथ प्रभाते संजाते दिवारत्ने प्रभावति । तेजपालो नृणां रत्नं मूरिरत्नं न्यवेशयत् ॥ २६३ ॥ श्रीमच्छिवपुरीमध्ये सुखाश्रय उपाश्रये । दत्वा रूप्याणि लोकेभ्यः कृत्वा च प्रवरोत्सवम् ॥ जायमानैः सदाधः क्रियमाणैः स्वतः शुभैः। कार्यमाणैश्च लोकेभ्यो नव्यैर्नव्यैदिने दिने ।२६५। श्रीसूरीन्द्रश्चतुर्मासों समानोत्सुकृतोत्सवाम् । न च श्रीतेजपालस्य जिनधर्ममनोरथान् ।२६६युग्मम् चतुर्मासी समाप्यैवं प्राचलत्याचलद्वलः । विजयदेवसूरीन्द्रः प्रमत्तो न यतो यतिः ॥ २६७॥ श्रीसुवर्णगिरिद्रङ्गात् प्रैष्यं प्रेष्य समावयत् । जयमल्लस्तरोमल्लः श्रीसुवर्णगिरिप्रभुः ॥२६॥ उपस्वर्णगिरिग्रामे श्रीमूरिः समवासरत् । लोकवार्तामिति श्रुत्वा जयमल्लोऽभ्यसंघयत् ॥२६९।। अरसद् रसिका मूरिपदाब्जस्पर्शसद्सम् । मुखेनाऽलीव सन्मूत जयमल्लोऽग्रसंघयुक् ॥२७०।। हृद्यानन्यानवयेन विधिनवाभिवन्ध च । व्यययित्वा च सल्लोके सह लात्वा च सद्गुरुम् ।२७१। श्रीसुवर्णगिरिद्रङ्गे सरङ्गे सदुपाश्रये । समानीयाऽसयत् सिंहासने भूपमिवोत्तमम् ॥ २७२ ॥ ततः श्रुत्वोपदेशं च जयमल्लो जगजयी । महाजनकरे पादात् रूपकाणि महामनाः ॥२७३।। -त्रिभिर्विशेषकम् । अथान्यदा च मूरीन्द्र जयमल्लो न्यवेदयत् । प्रशस्यदिवसं पश्य प्रतिष्ठायोग्यमर्हतः ॥ २७४ ॥ ततः सूरीश्वरोऽपश्यज्ज्येष्ठमासे शुभं दिनम् । प्रतिष्ठायोग्यमारोग्यकरं सौभाग्यकारकम् ॥२७५|| श्रावकं जयमल्लाख्यं सुवर्णगिरिनायकम् । सुवर्णगिरिसत्संघसमक्षं च न्यवेदयत् ॥२७६॥ ततः श्रीजयमल्लोऽपि देशदेशमहाजनान् । उपरिष्ठात्पतिष्ठायाः प्रैष्यान प्रेष्य समाह्वयत् ।।२७७|| आजन्मस्तत्क्षणात्तेऽपि प्रतिष्ठां द्रष्टुमुद्यताः। वन्दितुं च तदा सूरिद्वयं पुण्याभिलाषिणः ॥२७८॥ (-द्वयं लाभद्वयस्पृहा -इति वा पाठः ) २६७-प्रकर्षण अवलतू अविनश्यत् बलं मनोवलादित्रिकं यस्य प्राचलठ्ठलः । २६९-अभ्यसङ्घयत्-सद्धेन साधुसाध्वीश्रावकश्राविकालक्षणेन अभिमुखमगच्छत् इत्यर्थः। संघन अभियाति अभिसंधयति । णाविष्टवत्प्रातिपदिकस्येति गौरूपं । ततोऽनद्यतने लङ् इति लङि लुङ् लङ् लक्ष्वडुदात्त इति अडागमे प्रथमपुरुषस्यैकवचने अभ्य सङ्घयत् । ___ २७३-सल्लोके भव्यलोके व्यययित्वा वित्तोत्सर्ग कृत्वा प्रत्येक पीरोजीनामकं नाणक दत्त्वेत्यर्थः । व्ययण वित्त समुत्सर्गे चुरादिरदन्तः परस्मैपदी । २७८-लाभद्वयस्पृहाः-एकः प्रतिष्ठादर्शनलक्षणो लाभः, द्वितीयश्च श्रीविजयदेवमूरिश्रीविजयसिंहमूरिद्वयवन्दनलक्षणो लाभ इत्यर्थः । लाभयोयं लाभद्वयं तस्मिन् स्पृहा वाञ्छा येषां ते लाभद्वयस्पृहाः । ननु यत्र अल्पोऽपि लाभः स्यात्तत्रापि लाभाभिलाषिणा नरेण Ahol Shrutgyanam Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [नयमः श्रेष्ठेन विधिना सरिः प्रत्यष्टादुत्सवादथ । महावीरजिनेन्द्रस्य प्रतिमामपरा अपि ॥ २७९ ॥ प्रतिष्ठाय जिनेन्द्राणां चैत्यानि परमोत्सवैः । साधूनां विदुषां मूरिः प्रादात् पण्डितसत्पदम् ।। व्रतरत्नानि पञ्चैव साधूनां भाविनामपि । तानि द्वादश दिव्यानि श्रावकाणां विशेषतः। (-साधुभ्यो जायमानेभ्यो व्रतरत्नानि पञ्च हि -इति वा पाठः)॥ २८१ ॥ युग्मम् ।। श्रावको जयमल्लोऽपि सत्पतिष्ठाविधायकः । श्रीसाधर्मिक लोकेभ्यः प्रादाद्प्याणि सद्धिया ।। साधुभ्यो दर्शनिभ्य श्च महात्मभ्योऽप्यनेकधा । अदभ्राण्यतिशुभ्राणि वस्त्राणि प्रवराणि च ॥ एवं प्रावर्तत श्रेयान प्रतिष्ठापरमोत्सवः । वर्णनीयः कवीन्द्राणां मूरिश्रावकयोस्तदा ॥२८॥ अथान्यदा च सूरीन्द्रस्ततश्चिचलिषोत्सुकः । इत्याख्यज्जयमल्लाख्यं मन्त्रिणं संघसंयुतम् ॥२८॥ इतीति किं तदाहश्रीनागपुरवास्तव्यः सङ्घः आह्वयति स्फुटम् । मेदिनीतटवास्तव्यस्तथान्योऽन्यत्र चान्वहम् ।२८६। यदि वयाः प्रसद्य त्वं तदाहं विहराण्यतावन्दनायुद्भवं पुण्यं प्रापयाणि तथा च तम्।२८७युग्मम् तदानीं जयमल्लोऽयमुत्थाय विनयान्वितः । प्राञ्जलिर्नम्रसन्मौलिः सर्वश्राद्धशिरोमणिः ॥२८॥ श्रीसुवर्णगिरिद्रङ्गवासी श्रीसङ्घ एव च । श्रेष्ठी लाधा महामन्त्री वर्धमानो महामतिः ।।२८९॥ साहः श्रीठाकुराख्यश्च साहुला श्रीकलाभिधः । वधा भ्रातृयुतोऽथान्यः साहः श्रीधर्मदासकः ॥ सङ्घपो डुङ्गरः श्रीमान् साहः श्रीडामराभिधः । वधमानादिको वर्षमानोऽमानश्रिया सदा ॥ विजयदेवसूरीन्द्रमित्थं व्यज्ञपयत्तराम् । साम्प्रतीनां चतुर्मासी निवस श्रेयसे गुरो ! ॥ २९२ ।। -पञ्चभिः कुलकम् । मन्त्रिणो जयमल्लस्य सङ्घस्यापि च भूयसे । श्रेयसे हृदयानन्दद्धयै चोमकरोद् गुरुः ।।२९३॥ सामायिकोपवासाद्यान् व्रतोच्चारादिकांश्च सः । अर्हन्निव महाधर्मान कारयन्वारयन्नघम् ॥२९॥ धारयन् सर्वसंसारिजन्तुजातदयालुताम् । अपारयचतुर्मासी न भावं भविनां गुरुः ॥ २९४ ॥ चतुर्मासी समाप्याथ पुनश्चिचलिपुर्गुरुः। श्रीमन्तं जयमल्लारख्यमपृच्छच्छारकोत्तमम् ॥२९॥ गन्तव्यम् । यत्र तु भूयांसो लाभा भवेयुस्तत्र कथं न गन्तव्यं, अवश्यं तत्र गन्तव्यमित्याशयेन आगता इत्यर्थः। २८४-सूरिश्रावकयोः श्रीविजयदेवमूरिश्रीजयमल्लावकयोः । २९३-ओमकरोत् चतुर्मासी करिष्यामीति अङ्गीकृतवान् । स्वादोम् परमं मते-- इति हैमः। २९४-अपारयत समापयत । पारतारण कर्मसमानौ चुरादिरमन्तः परस्मैपदी । Aho I Shrutgyanam Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् st I अवस्था न साधूनामेकत्र किल युज्यते । अतोऽतोऽथ प्रतिष्ठेय भवदाज्ञा भवेद्यदि ॥ २९६ ॥ श्रुत्वेति वचनं सूरिप्ररूपितमनिन्दितम् । संगृह्य चरणौ मूर्द्धा संस्पृश्येति च सोऽवदत् ॥ २९७॥ विजयसिंहसूरीन्द्रवदनकमहोत्सवम् । स्वयं कुरु गुरुश्रेयः श्रेयांस करवै च तम ॥२९८॥ इत्युक्तो जयमल्लेन स्वमनोरथसिद्धये । भवत्वेवं महाभाग सूरिराह प्रसन्नहृद् ॥ २९९ ॥ ततः श्रीजयमल्लोऽथ श्रावकान् देशदेशतः । श्रीमच्छिवपुरीवासितेजपालादिकान् घनान् । ३००३ विजयसिंहसूर्य हिन्दनोत्सव उत्तमः । भवितात्राऽतः समायान्तु मयि भूत्वा कृपापराः ॥३०१॥ aat द्रव्यार्थिनः केsपि केsपि धर्मव्यथार्थिनः । केऽपि कौतुकिनो दक्षाः केऽपि तद्वन्दनोत्सुकाः ॥ अश्वारोहा रथारोहा ओष्ट्रारोहाच केचन । पदातिका अनेके च राजान इव राजिताः ॥ ३०३ ॥ सासिकाः सपत्नीका वरस्त्रीकाः समातरः । महाजनाः समाजग्मुर्बहिरन्तश्च चारिणः ॥ ३०४ || - त्रिभिर्विशेषकम् | सौवर्णानि सुवर्णानि काय आभरणानि च । देवानामिव देवीनामित्र पुंसां च योषिताम् ॥ ३०५ ॥ सुवर्णमिव सत्पस्नंस्त्रणं चात्यन्तमोहकम्। तदेत्याहुर्जना वीक्ष्य सुवर्णगिरिशेषकः ॥ ३०६ ॥ युग्मम् यत्रानेकगवादीनां भूरिर्मारिरभूत्पुरा । अपूर्वा न कदा पूर्व साऽभूच्छ्रीगुरुतेजसा ॥३०७॥ सुवर्णगिरिरित्याख्या यथार्थाद्याभवच्छुभा । इति ब्रुवन्ति सल्लोका यद्यथादृष्टसूचकाः ॥ १०८॥ | अथ श्रीजयमल्लाख्यः सन्मण्डपममण्डयत् । पारदेशिकवस्त्राणां वन्दनोत्सव हेतवे ॥ ३०९ ॥ अथ वन्दनोत्सवमण्डपत्रर्णनम् - श्री कैलासशिलातुल्याचञ्चुराः शुचयः सिचः । व्यभुव्वन्तिहृतो यत्र मध्याह्नार्कप्रभा इव । ३१० ॥ २९६-अतः अस्मात्कारणात् । अतः श्रीसुवर्णगिरिनगरात् । ! ३०४ - धर्माधर्मनिमित्तं व्ययमर्थयंतीत्येवं शीलाः धर्मव्यथिः । धर्मनिमित्तं व्ययकर्तार इत्यर्थः। तयोः श्रीविजयदेवसूरि- श्री विजयसिंहसूर्योर्वन्दना तस्यां उत्सुकास्तद्वन्दनोत्सुकाः । सह असिभिः अन्तःपुरचारिणोभिर्ये ते सासिक्कीका: । 'असिक्की स्यादवृद्धा या ध्यान्तःपुरचारिणीत्यमरः । सह पत्नीभिः परिणीतस्त्रीभिर्वत्तन्ते सपत्नीकाः । 1 ३०६-पुंसां समूहः पौंस्नं । स्त्रीणां समूहं स्त्रैणं । स्त्रीपुंसाभ्यां नञ्स्नजी भवनादिति समूहे ऽर्थे नतप्रत्यययो: साधू । एष एव एषकः । सर्वशब्देभ्यः स्वार्थे कन्निति कन् । सुव गिरिर्मेरुस्स इत्र । सुवर्णगिरिर्मेशपर्वतोपम इत्यर्थः । ३०८—यत्रेति व्याख्याः–सल्लोका इति ब्रुवन्ति । इतीति किम् ? सुवर्णगिरिरित्या - ख्याय यथार्थोऽभवत् । इतीति किम् ? यत्र सुवर्णगिरौ अनेकगवादीनां भूरिर्मारिः पुराऽभूत् । सा न कदा पूर्व श्रीगुरुतेजसा अपूर्वा मारिरभूत् । Aho ! Shrutgyanam Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीवल्लभोपाध्याय विरचितं [नयमः यत्रापि च सौवर्णपत्राकारहराणि हि । पीतवासांस्यभासन्त चन्द्रमास इवोद्गताः ॥ ३११|| अथवा-पीतवासः प्रशस्यश्री मिषमासाद्यपिञ्जरः । मेरुः सूरी प्रणन्तुं किं यत्रायात इवाबभौ || श्वेतपीताम्बरज्योतिः सूर्यचन्द्रोदितोदयम् । ( - प्रोदितादित्यचन्द्रमः - इति वा पाठ: ) । अवाभानभ एवेदं यत्र क्वाप्यसिताम्बरम् ||३१३ ॥ कुत्रचित्र वस्त्राणि पवित्राण्यरुणानि च । लक्ष्मीपुष्पकुलानीव लक्ष्मीं दातुं नृणां वभुः ॥ ३१४ अथवा कुत्रचिद्यत्र वस्त्राणि रक्तानि नृमनांसि हि । कर्तुं हीङ्गुलवृन्दानि रक्तानीव बभ्रुर्गुरौ ॥ यत्रान्यत्र च कुत्रापि नीलवस्त्राणि रेजिरे । हरिन्मणिकुलानीव निराकर्तुं द्विषद्विषम् ||३१६|| उन्नापुण्डरीकालिखि यत्र व्यराजत । स्तम्भश्रेणिः सुखश्रेणिकारणं सरसि स्फुटम् ॥३१७॥ अथवा - साक्षान्निशामणिश्रेणिः समकालमिवोदिता । द्रष्टुं तद्वन्दनां यत्र स्तम्भश्रेणिस्तदा बभौ ।। यत्र चन्द्रोदयः साक्षाच्चन्द्रोदय इव व्यभात् । अभितो मोक्तिकस्रग्भिस्तारकाभिर्विराजितः। ३१९ आस्थानवेदिकास्तम्भपुत्रिका देवता इव । यत्र वीजयितुं सूरिं स्थिता इव सुचामरैः || ३२०|| ३१२-यत्र वन्दनोत्सवमण्डपे मेरुः सूरी श्रीविजयदेवसूरि-श्रीविजयसिंहसूरी कर्मतापन्नौ प्रणन्तु किमायात इव आ बभौ शुशुभे । किं कृत्वा ? क्वापि कस्मिन्नपि स्थले पीतवासः प्रशस्यश्री मिषमासाद्य 1 ३१३ - यत्र मण्डपे कापि कुत्रचित्स्थले असिताम्बरं कालं वखं इदं नभ एव आकाशमित्र अबाभात् अतिशयेन अदीध्यत । अत्र एवेत्यव्ययमिवार्थे । कथं भूतं कालं वस्त्रं श्वेतपीताम्बरज्योतिः सूर्यचन्द्रोदितोदयं श्वेतपीताम्बरयोर्धवलपिङ्गचेयज्योंतिः कान्तिस्तदेव सूर्यचन्द्रयोरुदित उदयो यस्मिंस्तत्तथा । कथं भूतं नमः ? श्वेतपीताम्बर योधैव लपिङ्गलचेल योज्योतिः कान्तिर्ययोस्तौ वेतपीताम्बरज्योतिषौ । एवं विधीयौ सून्द्रयोः उदित उदयो यस्मिंस्तत्तथा । श्वेतपीताम्वरज्योतिः प्रोदितादित्यचन्द्रमः इति पाठान्तरम् । तत्रायमर्थः किं भूतं ? असिताम्ब M श्वेतपीताम्बरज्योतिरेव । प्रोदितो आदित्यचन्द्रमसौ यस्मिंस्तत्तथा । यस्मिन् श्यामवस्त्रे पूर्वापरनिबद्धश्वेतपीताम्बरज्योतिरेव प्रोदितादित्यचन्द्रमसौ इव शोभते । द्वितीयपक्षे नभो विशेषणे श्वेतपीताम्रज्योतिषौ प्रोदितौ आदित्यचन्द्रमसौ स्थितत्तया । कवयो हि सूर्य श्वेतवर्ण वर्णयन्ति, चन्द्रं च पीतवर्णमिति । ३१४ - लक्ष्मीपुष्पं पद्मरागमणिः । ३१५ - कथंभूतानि रक्तानि वस्त्राणि उत्ोक्ष्यन्ते - निश्चितं गुरौ श्रीविजयसिंहसूरौ नृमनांसि रक्तानि कर्तुं हिङ्गुलवृन्दानीव । इवोऽत्र मित्रक्रमे । ३१६-अप्रेतनेनान्वयः | यत्र मण्डपे स्तम्भश्रेणिर्व्यराजत । कस्मिन् केव - सरसि उन्नालपुण्डरीकालिरिख । कथंभूता स्वम्भश्रेणिः उन्नालपुण्डरीका लिश्च - स्फुटं सुखश्रेणिकारणम् । Aho ! Shrutgyanam Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समें: विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अथवा-चित्रचित्रिताः स्तम्भपुत्रिका यत्र रेजिरे । नृत्यन्य इव नर्तक्यः करैः क्षिप्तैः च चामरैः॥ पालम्बानि प्रलम्बानि यत्र लम्बिनी चोच्चकैः । मुक्तास्त्रजोऽपि सर्वत्र व्यराजन्त च सर्वतः ।। तानि ताश्च विलोक्यैवमशफन्त तदा जनाः । मङ्गल्या वृक्षजातीनां गुच्छामअरयश्च किम् ॥३२३ व्यराजयत्र सवारं रत्नादर्शविनिर्मितम् । प्रचण्डानेकमार्तण्डैरिपालैरिवाश्रितम् ॥३२४॥ पार्थबद्धद्वीपोद्दण्डमोच्चशुण्डाभतोरणम् । पश्यतां सर्वलोकानां परमानन्दकारणम् ॥३२॥ अथवा-इन्द्रसज्जीकृतोद्दण्डकोदण्डोपमतोरणम् । पश्यतां सर्वलोकानां सर्वकल्याणसूचकम् ।। मङ्गलैरष्टभिः श्रेष्ठमुक्तारत्नमयैः शुभैः। शोभमानं मनुष्याणां मनोनेत्रोत्सवपदम् ॥३२७॥ -चतुर्भिः कलापकम् । न्यवेशयदथात्यन्तमुन्नतं तत्र मण्डपे । सिंहासनमतिश्रेयो जयमल्लः शुभाश्रयः ॥३२७॥ शोभमानयथास्थानग्रथितानेकरत्नकम् । सुरेन्द्रासनशोभायाः सर्वथा व्यपहारकम् ॥३२८१ एतस्येवेदमीक्ष योग्यं नान्यस्य कर्हिचित् । विधात्रेति धिया स्वीयकराभ्यामिव किं कृतम् ॥ साधसाधूचितानेकविस्तीर्णनवताद्भुतम् । स्पृहणीयं सुरेन्द्राणां नराणामुत का कथा ॥३३०॥ -चतुभिः कलापकम् । ३२१-चित्रेति, अस्यान्वयलेश:-यत्र मण्डपे स्तम्भपुत्रिका रेनिरे । कथंभूता: ? उत्प्रेक्ष्यन्ते-क्षिप्तैः सुचामरैः करैत्यन्त्यो नर्तक्य इव । यथा नर्तक्यः क्षिप्तः करैर्नृत्यन्त्यो राजन्ते सथा स्तम्भपुत्रिकाः क्षिप्तः करैः सुचामरेत्यन्त्यो व्यराजन इत्यर्थः । ३२२-मालम्बानि झुम्बका इति मापाप्रसिद्धानि या मण्डपे । ३२३-तानि प्रारम्बानि ताश्च मुक्ता स्रजः । ३२९-३०, कथंभूतं सिंहासनं विशात्रा स्त्रीबकराभ्यां इति धिया किं कृतमिव । इतीति किं ईदक्षगिदं सिंहासनं, एतस्यैव श्रीविजयसिंहसरेरेव योग्य ! अन्यस्य नहिचित् । पुनः कथंभूतं सिंहासनं ? साधु साधूचिताने विस्तीर्णनबताइतम् । साधयो रमणीया उग्रक्रियाकर्तृत्वात् । ये साधवोऽनगारास्तेषामुचितानि योग्यानि अनेकानि प्रचुराणि विस्तीर्णानि यानि नक्तानीव नवतानि तैः-दलीचाप्रसुखविछायणासदृशवस्त्रैरद्भुतं यत्तत्तथा । 'कुथे वर्णपरिस्तोमप्रवेणी नवताऽस्ति सः' इति हैमवचनान्नवतशब्दस्य दलीचाप्रमुखस्य पर्यायत्वात् । नवतानीव नवतीति उत्तमाच्छादनवस्त्राणीति व्याख्या । प्रवेण्याऽऽस्तरणं वर्णः परित्तोमः कुशः कुथः नक्तं चेति तुल्यार्थाः । 'प्रच्छदश्चोत्तरच्छद' इति हलायुधः। 'नववर्णकंबले आच्छादनमात्रे वा' इति तट्टीकावचनात् । नवतशब्दोऽत्र आच्छादनप-योऽपि शेयः । तेन साधु साधूचितानि अनेकानि विस्तीणानि यानि नवतानि विच्छावणा इति भाषाप्रसिद्धानि तैरद्भुतं यत्तत् साधु साधूचितानेकविस्तीर्ण Ahol Shrutgyanam Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭) श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ नवमः agrigri मध्ये नानारत्नमयं वहिः । प्रत्यष्ठापयदुत्कृष्टं पहुं समच्छदान्वितम् ||३३१|| सूरेश्वरणयोर्वाधा माभूतुच्छापि कर्हिचित् । इति निश्चित्य सद्भक्तिधियेन्द्रादधिको यतः ॥ ३३२ आधिक्यमाह - अर्हतोऽध्वनि पन्न्यासे पद्मानीन्द्रो नवैव हि । मुञ्चेद्विरतो. मध्ये समवसरणस्य न ॥ उपाश्रयस्य मध्येsयं बहिस्तादपि चान्वहम् । पद्माधिकानि वासांसि प्रस्तृणाति पदोरधः ।। ३३४ - चतुर्भिः कलापकम् । उत्तिष्ठतात्कदाचिच कदाचित्तिष्ठतादयम् । यथोचितमुपर्यस्य ददानः पदवन्दनाम् ||३३५|| इति कारणतः पट्टप्रतिष्ठापनयोग्यता । मण्डपे शोभमानाऽभूद्यद्विवेकः प्रमोदकृत् ॥ ३३६॥ - इति पवर्णनम् । लोकचक्षुविनोदाय प्रारब्धं प्रेक्षणीयकम् । विजयदेवसूरीन्द्रोऽविशत्तमथ मण्डपम् ||३३७|| विजयसिंहसूरीन्द्रस्तं प्रविश्य यथोचितम् । श्रीमूरिवचसा श्रीमत्सिंहासन उपाविशत् ||३३८ पश्यतां सर्वलोकानामकरोत्पादवन्दनाम् । विजयसिंहसूरीणां विजयदेवसूरिराट् ||३३९|| यथाविधि तदानीं स द्वादशावर्तवन्दनाम् । व्यदधाच्छ्रीमतस्तस्य यदाचारः परः सताम् || ३४० वन्दनां ददतस्तस्य पट्टाः स्तम्भासनस्थिताः । बभुः पुंपुत्रिका इन्द्रास्तिरोजाता इवेक्षितुम् ॥ ( - व साक्षिणः - इति वा पाठ: ) । ३४१|| सूरिमन्त्रं जगच्छत्रमित्र सन्तापकारकम् । प्राददानाम्भोजात् प्रसादसुभगाद्गुरुः || ३४२ || श्रीजय सागराख्यस्य श्रीकीर्तिविजयस्य च । श्रीवाचकपदं प्रादात् सूरिर्यत्सर्वतोषकः।। ३४३ ।। अन्येषां साधुलोकानां विदुषां सजुषां नृणाम् । श्रीपण्डितपदं प्रादात् सूरीन्द्रो यद्विदेकवान् ॥ गीयमान शुभैर्गीतैः स्फूर्जज्जयजयारवैः । स्तूयमानो गुणैः पुण्यैर्मागधैर्विबुधैरपि ॥ ३४५॥ गतव्याधिः समाधिश्री लब्धसिद्धिः समृद्धिमान् । विजयसिंहसूरीन्द्रः माभवत् प्रभुताश्रया । ३४६ श्रीगुरौ प्रसन्ने हि किं न सिद्ध्यति वाञ्छितम् । अनीश्वरोऽपीश्वरः किं न नरः को भयेद्भुवि ।। सुरवरा युवती लोकास्तदा गेयान्यगाययन् । वाद्यान्यवादयन् वाद्यवादका अपि चोत्तमाः ॥ ३४८ ॥ नवताद्भुतम् । पुनः कथंभूतं ? अत एव सुरेन्द्राणां स्पृहणीयं । उतेति वितर्के नराणां का कथाकिं कथनीयमित्यर्थः । इति सिंहासनवर्णनम् । ३३४ - स जयमल्ल उत्कृष्टं पट्ट पाटि इति लोकभाषाप्रसिद्धं प्रत्यष्ठापयत् । कथंभूतं पट्टे मध्ये श्रेष्ठकाष्ठमयं बहिर्नानारत्नमयं । पुनः कथंभूतं ? प्रच्छादान्वितं प्रछदैः विलावणा इति भाषाप्रसिद्वैरन्वितं युक्तं । कया प्रत्यष्ठापयन् । सूरेः श्रीविजयदेवसूरेश्चरणयोः कर्हिचित्तच्छापि बाधा माभूदिति धिया । कथंभूतः स जयमल्लः यतः इन्द्रादधिकः | तदेवाह - अर्हतोऽध्वनीत्यादि द्वाभ्यां अर्थः प्रसिद्ध एव । ३३५ - अस्य पट्टस्य उपरि । इति पट्टवर्णनम् । Aho ! Shrutgyanam Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् रूपकाण्यददाद्रूपं मन्त्री श्रीजयमल्लकः । स्वान्यदेशसमाहृतमहाजनकराम्बुजे ॥३४९॥ पट्टकूलान्यनेकानि मञ्जलानि नवानि च । याचकादिकलोकानां जयमल्लस्तदाऽददात् ॥३५०॥ दिव्यदालीर्घतव्याली सशालीः कलकुण्डलीः । अत्यादरात् स आहूय महाजनमभोजयत् ॥ एवं प्रावर्तत प्रेयान तदा वन्दनकोत्सवः । सर्वेषां हृदि चानन्दः प्राप्तात्मेहितसम्पदाम् ॥३५२ श्रीमत्सुरेरथादूरे वसन्नुपविशन्नपि । विजयसिंहमूरीन्द्रो जयताज्जगतीतले ॥३५३॥ दत्तं श्रीगुरुणा धर्मराज्यं लब्ध्वा सशोभताम् । सवित्रा निहितं तेजो दिनान्तेऽभिरिवाधिकम् ॥ दत्तमूरिपदं मूरि प्रभुं शुश्रवुषां च तम् । निःशल्ये हृदि शत्रणां सोऽतिशल्यमिवाभवत् ॥३५॥ प्रतिष्टितं तमाकर्ण्य गच्छराज्येऽधितेजसि । द्विषां प्रोद्धमिते पूर्व हृदि सोऽग्निरिवोत्थितः ।। तस्य सूर्योदयस्येव प्रातरुल्लोचनालयः । आनन्दन श्रावका लोका नवाभ्युत्थानदर्शकाः ॥३५॥ आक्रामद्गौरवं राज्यमरिन्दं च दुर्दमम । सममेव स सूरीन्द्रः प्रतापतपनोपमः ॥३५८॥ शत्रून् सिंहांश्च दुर्जेयान् तेजसा चोजसा क्षणात् । यो जयति विशेषात् स विजयसिंह उच्यते ॥ इति नामाऽभवद्यस्य ततः प्रभृति सार्थकम् । विजयसिंहसूरीन्द्रो जयतात्स चिरं भुवि ॥३६०॥ भट्टारकपदव्याजात् तमदृश्या स्वयं किल । भजतादुग्रतेजाः श्री राजत्साम्राज्यदीक्षितम् ॥३६१ सूरिः सर्वस्य लोकस्य चेत आचारतोऽद्भुतात् । आदत्तां नातिशीतोष्णः समीर इव दक्षिणः॥ चतुभिरधिकैर्ववर्षेऽशीतितमे शुभे । षोडशस्य शतस्यादि षष्ठे पौषसितस्य हि ॥३६॥ एवं प्रशस्यसम्पन्नलक्ष्मीकः कान्तकौतुकः । चिरंजीव्यात्स सूरीन्द्रो यस्यासीद्वन्द्वनोत्सवः॥३६४ तदैवमस्तुवन् लोका यं नवं गच्छनायकम् । आशिषं चेदृशीं यस्मै ददुनन्दतु स प्रभुः ॥३६॥ इत्थं श्रीविजयादिदेवसुगुरुः स्वीयेन सत्पाणिना, प्राकार्षी द्विजयादिसिंहसुगुरोः पट्टाभिषेकोत्सवम् । ३४९-प्रशस्तं अददादूपं प्रशस्तं दत्तवानित्यर्थः। तिलोनुवृत्तेस्तिङन्तादपि प्रशंसायां रूपम् इति रूपप् । ३५४-अग्नि चादित्यः प्रविशतीति श्रुतिः। यथाग्निर्दिनान्ते सूर्येण निहितं तेजः प्राप्याधिकं शोभते तथा श्रीविजयसिंहसूरिरपि श्रीगुरुणा श्रीविजयदेवसूरिगुरुणा दत्तं धर्मराज्थं लब्ध्वा शोभन्तामित्याशीः ।। ३५५-दत्तेति अस्यान्वयः-स श्रीविजयसिंहमूरिः शत्रूणां परमतप्रतिवादिनैयायिकादि. दर्शनियां हृदि अतिशल्यमिव अधिकशल्योपसोऽभवत् । कथंभूते हृदि ? निःशल्ये शल्यरहिते इत्यर्थः । कथंभूतानां शत्रूणां सूरि श्रीविजयदेवभट्टारकं दत्तसूरिपदं श्रीविजयसिंहसूरीणां सुरिपदं येन स तथा तं चः पुनः तं श्रीविजयसिंहसूरि प्रमुं स्वामिनं गच्छनायकं शुश्रूवुषाम् । Ahol Shrutgyanam Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [नवमः श्रीश्रीवल्लभपाठकेन पठितं विद्वजनानां मतम्, श्रोतृणां सुखदायकं भविविशामानन्दसम्पत्मदम् ॥३६६।। इतिश्री श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातिसाहिश्रीअकबरप्रदत्त. जगद्गुरुविरुधारकभ० श्रीहरिविजयसूर श्वर० पातमाहिनीजिहांगीरप्रदत्तमहातपाविरुदधारि भ० श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्ध श्रीमद्विजयदेव माहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजगदेवसूरिप्रदत्त श्रीविजयसिंहसूरिभट्टारकपदप्रदानवर्णानो नाम ९ सर्गः ॥ Ahol Shrutgyanam Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः Ncense अथ श्रीमेडताद्रङ्गे, हर्षों हर्षकरोऽभवत् । सदा तत्रत्य लोकानामन्येषां च विशेषतः ॥१॥ निविरीसा इवोर्वीशा धनीशाश्चापरे जनाः। यस्यासन् पुर आसीना नाहर्षस्तेन केऽप्यमा ॥२॥ अवष्टभ्य सदा तिष्ठन् यदंही जीविकार्थिनः । कलौ लोका अनेकेऽस्मिन् नाहर्षस्तेन केऽप्यमा।। सदादाने सदा नृभ्यो ददत्यनादि दायकाः। न पशुभ्यो विशिष्येति पशुभ्योऽपि ददान्यहम् ॥४ विचार्येत्यददद्दानं नरतिर्यग्भ्य ईप्सितम् । कर्णादिदानशौण्डेभ्यो हर्षोऽयमधिको यतः ।।५!! तद्यथा-सदादाने ददौ सोऽनं नराणां जीविकाकृते । पशूनां च खटान् दिव्यान् तेन स्पर्धेत कोऽप्यमा ॥ ६ ॥ यस्याध्यापि सुताः शश्वद्ददत्यन्नं खटानपि । मनुष्येभ्यः पशुभ्यश्च तेन स्पर्धेत कोऽप्यमा ||७|| श्रीशत्रुञ्जयसत्तीर्थरैवतकार्बुदादिषु । नेमुस्तीर्थकृतः सङ्घ कृत्वा प्राग भरतादयः ॥८॥ कृत्वा तैः सह संहर्षे श्रीहर्षी हर्षवद्वरः । करवाणि महासमिति चेतस्यचिन्तयत् ॥९॥ पूजयानि च तत्रत्याः प्रतिमा अहंतां समा:। निर्माणि च महापुण्यं फलं लक्ष्म्या लभै पुनः।। -त्रिभिर्विशेषकम् । तदानीं स विचिन्त्येति महासह विधाय च । स्वगुरुनन्यसाधूंश्च लात्वाऽमा तीर्थमावजत् ॥१२॥ २-तेन श्रीहर्षण नाम्ना श्रावकेणाऽमा सह केपि नाऽहर्षन् न स्पर्धा चरित्यर्थः । तेन केन ? यस्य पुर आसीना उर्वीशा धनीशाः, चः पुनः अपरे जनाः निविरीसा इव नतासिका इव कृतनासिका नमना इव आसन् । नेविड् च विरीसचौ । इति नासिकायाः सम्बन्धिनि जमने वाच्ये निशब्दात् विरीसच् प्रत्यये निविरीसं, तद्योगात् पुरुषा अपि निविरीसाः। निविरीमा इव नतनासिकपुरूषा इव येतेऽपि । इव शब्दस्य लोपे निविरीसाः कृतनासिका नमनास्ते इव इत्युपमा । ३-तेन हर्षानाम्ना श्रावण अमा सह केपि नाऽहर्षन् न अस्पर्धन्त । तेन केन ? यदही अवष्टभ्य आलम्ब्य अस्मिन् कलौ जीविकार्थिनो अनेके लोकाः सदा अतिष्ठन् । अबष्टभ्येत्यत्र अवाञ्चालम्बनाविदूर्ययोरिति आलम्बनेऽर्थे स्तम्भेः सकारस्य मूर्धन्यादेशः । ४-सदादाने सत्कार इति भाषाप्रसिद्ध । १०-आशीः प्रेरणयोः-करवाणि पूजयानि निर्माणि एतानि त्रीणि भेनिरिति लोटो मेनि इत्यादेशे आडुत्तमस्य पिचेति आडागमे लोट उत्तमपुरुषैकवचनानि । लौ इति च एतपेरिति एत ऐ आदेशे लोट आत्मनेपदे उत्तमपुरुषैकवचनम् । ११-तीर्थ श्रीरैवताचलं आव्रजत् प्राप्तवान् । Aho I Shrutgyanam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ दशमः श्रीनेम्यादिजिनाधीशान पूजयित्वाऽभिवन्द्य च । कृत्वा लम्भनिकां सई प्रभोज्य च ततोऽचलत्।। प्रचलन् सह संधैन तीर्थ शत्रुञ्जयाभिधम् । प्राप्यारुह्य च सोऽभ्यर्चदादिदेवादितीर्थपान् ॥१३॥ सो वारुह्य ततः संघं प्रभोज्यामृतभोजनम् । पाणौ प्रदाय रूप्याणि पुण्यमादाय चाचलत् ॥१४॥ श्रीमदहम्मदाबादं तत आगत्य सप्रभुः । अपूपुजज्जिनाधीशांश्चैत्येषु विविधेष्वपि ॥१५॥ विजयसेनसूरीन्द्र विजयदेवसद्गुरुम् । अभिवन्ध च सङ्घस्य मध्य आकार्य सोऽचयत् ॥१६॥ लम्भनिकां विधायाथ तत्रत्य श्रीमहाजने । प्रतस्थे प्रततस्थेमा ततो देशं स्वकं प्रति ॥१७॥ आयन् शंखेश्वरादीनि तीर्थान्यन्यानि चाध्वनि । पूजयन् भनी कुर्वन् प्रापार्बुदगिरिं च सः॥ पूजयित्वा जिनांस्तत्र कृत्वा लम्भनिकां च सः। श्रीमच्छिवपुरीस्वर्णगिरिदेवानपूपुजत् ॥१९॥ एवं धर्माननेकान् यो व्यदधाद् विधिपूर्वकम् । श्रीहर्षः कस्य हर्षाय नाभूद्धर्मपरायणः ॥२०॥ तस्य पुत्रा अमी सन्ति पञ्च पञ्चेन्द्रिया इव । विराजन्ते जगज्जोतीरूपा रूपश्रियाद्भुताः ॥२१॥ तद्यथा-प्रथमो जसवन्ताख्यो, द्वितीयो जयराजकः । तृतीयो नेमिदासश्च सामीदासश्चतुर्थकः।। श्रीमद्विमलदासश्च, पञ्चमः पञ्चमो गुणैः । पश्चाप्येते मिथः प्रीताः सर्वप्रीतिविधायकाः ॥२३॥ -त्रिभिविशेषकम् । पञ्चानामादिमस्तस्य जीवराजः सुतोऽभवत् । पितुः सेवापरत्वेन पितुः स्वर्गमनुव्रजत् ॥२४॥ (-पितृस्नेहाधिकत्वेन-इति वा पाठः) पञ्चापि चैकदेत्येते संभूयाचिन्तयन्मिथः । आत्मभिः कारितं श्रीमत्सुवर्णगिरिपत्तने ॥२५॥ श्रीमत्समवसरणप्रासादः सर्वतोऽद्भुतः । प्रतिमाः श्रीपार्श्वनाथादिजिनानां कारिता इमाः॥२६॥ ताः प्रतिष्ठापयामाऽऽशु यदि स्यात्सर्वसम्मतम् । श्रीविजयदेवसूरीन्द्रमिहाहय महादरात् ॥२७॥ -त्रिभिर्विशेषकम् । १८-आयन् आगच्छन्-इ गतौ अदादिः परस्मैपदि आपूर्वस्य अस्य धातोः शतप्रत्यये आयन् इति रूपम् । २३-'पञ्चमो रुचिरे दक्षे' इति वचनात् पञ्चमशब्दोऽत्र रुचिरपर्यायः । २६-श्रीमत्समवसरण इत्यत्र पदे श्लोकलक्षणाभावे पि षड्हस्वाक्षरपदं न दोषाय । यत् श्रीहेमचन्द्राचार्याः श्रीनेमिचरित्रे-"शुभेऽह्नि कनकवी कलाग्रहणहेतवे । उचितस्य कलाचार्यसार्पयामास भूपत्तिः ॥१॥" इति । यथा शुभेऽह्नि कनकवतीमित्यस्मिन् श्लोके पञ्चहस्वाक्षरं पदं न दुष्टं तथा श्रीमत्समवसरणमिति पदमपि न दुष्टं। प्रतिष्ठापयामेति च, ष्ठा गति निवृत्ती इत्यस्य हेतुमति चे लिणि चि अति होति पुगागमे उपसर्गात् सुनोति सुवतीति सकारस्य मूर्धन्ये लोट उत्तमपुरुषवचनम् । Aho I Shrutgyanam Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् मिथोऽङ्गीकृत्य पञ्चाऽपि श्रीप्रतिष्ठाविधापनम् (- मिथोऽङ्गीकृत्य पञ्चाप्यर्हत्प्रतिष्ठाविधापनम्इति वा पाठ: ) भ्रातृव्यं जिनदासाख्यमपृच्छन् यज्ज्येष्ठनन्दनः ||२८|| आलोच्यैव षडप्येते मिथोऽतिप्रीतचेतसः । अपृच्छन् मेडताद्रङ्गवासिस विवेकिनः ||२९|| तद्यथा - कोदारीवंश विख्यातष्टीलाख्यः श्रावकोत्तमः । सोनीवंशे जिनो नाम, सिंहः श्रीमालगोत्रकः ॥ ३० ॥ श्रीमालगोत्रसंजातः पेतसिंहाभिधोऽभवत् । पुत्रत्वेन धृतस्तेन भाति इङ्गरसिंहकः ||३१|| राजसिंहाभिधो मन्त्री, बल्लू नामा च मन्त्रिराट् । श्रीनाथो नाथनामा च, मन्त्री नरवदाङ्गः ॥ नगरव्यवहारीन्द्रमित्यादिसमुदायकम् । समाहूय च संभूय प्राणयन्निति ते मिथः ||३३|| - चतुर्भिः कलापकम् । प्रतिष्ठां पार्श्वनाथादिविम्बानां कारयाम हि । विजयदेवसूरीन्द्रमिहाहूय महोत्सवात् ॥ ३४|| तैः पृष्ट इति ते प्राहुर्वरं कुरुत भो वरम् । अत्रालस्यमपास्यं यत् धर्मस्य त्वरिता गतिः ||३५|| तानिदं ते पुनः प्राहुः सहास्माभिः समायत । प्रसीदतात्र सद्धर्मकार्ये यूयं महाजनाः ||३६|| प्यूचुरिति तान् सर्वान् प्रतिपन्नमिदं वचः । गुरुं विज्ञपयिष्यामः सहैष्यामश्च निश्चितम् ||३७|| ततः श्रीमेडताद्रङ्गवासिसंघसमन्विताः । मातिष्ठन्त शुभे तेऽह्नि श्रीसुवर्णगिरिं प्रति ||३८|| प्रचलन्तः समाजग्मुस्ते जाबालपुरे ततः । ववन्दिरे च सोत्साहाः श्रीसूरिचरणाम्बुजम् ||३९|| अभिवन्द्य तदानीं ते सूरिं व्यज्ञपयन्निति । गच्छनाथ समागच्छ श्रीमत्सन्मेदिनीतटे ॥४०॥ पार्श्वनाथादिदेवानां प्रतिमाः प्रतिष्ठ च । ततः समवसरणमासादे स्थापयामहि ॥४१॥ युग्मम् | मन्त्रिणं जयमल्लं ते मिलित्वा चावदन्निदम् । सूरीन्द्रं मुञ्च धर्मात्मनैति यत् वचोविना ।। ततः श्रीजयमल्लोऽपि मेदिनीतटसङ्घयुक् । उपसूरि समागत्य नत्वा चैव न्यवेदयत् ||४३|| जसवन्ताद्या इमे पञ्च श्रीहर्षतनयाः शुभाः । टीलादि - मेडताङ्गवासिसङ्गसमन्विताः॥४४॥ सूरे विज्ञपयन्तीति प्रतिमाः प्रतितिष्ठ हि । श्रीमन्मेदतटद्रङ्गमेहि नः कुरु चेप्सितम् ||४५ ॥ युग्मम्। 1 २८ - ज्येष्ठस्य बृहद्भ्रातुर्जीवराजाख्यस्य नन्दनः पुत्रः ज्येष्ठनन्दनः | 'ज्येष्ठः स्यादप्रजे ' इति मानेकार्थः । ७९ ३३- ते हर्षापुत्राः संभूय मिलित्वा इत्यादिसमुदायक कोठारी टीलाप्रमुख श्रीमेडतारा समाहूय मिथः इति प्राणयन् इत्यकथयन् । इतीति किं तदाह । ३४ - हत्यिव्ययं निश्चये । ३५ - तैः हर्षपुत्रैः । ते टीलाप्रमुखाः । ३६-समावसेति-अव गतौ इति धातोस्समाङ्पूर्वस्य आगमनार्थस्य लोटो मध्यमपुरुष बहुवचनम् । Aho ! Shrutgyanam Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं एवं विज्ञापितस्तेन ततः प्रास्थात् शुभेऽहनि । विजयदेवसूरीन्द्रो विजयसिंहसरियुक् ॥४६॥ श्रावका अपि ते प्रास्थन् जसवन्तादयस्ततः । श्रीमन्मेदतटद्रङ्गमाप्नुवंस्तेऽग्रतो द्रुतम् ॥४७॥ श्रीसूरिजन्तुजातानि प्रापयन् धर्ममाईतम् । श्रीमन्मेदतटद्रङ्गासमीपं समुपागमत ॥४८॥ श्रीहङ्गिरुहाः सर्वं जसवन्तादयस्ततः । श्रुत्वा मूरि समायात वन्दितुं चाभ्यसंघयन् ॥४९॥ अभिवन्द्यानयन् सूरि मेडतानगरान्तरे । विमान इव यत्रास्ति जनराजिन्युपाश्रये ॥५०॥ (-जनाश्रय उपाश्रये -इति वा पाठ) श्रीसूरीन्द्रः समारुह्य भद्रं भद्रासनं तदा । निदानं वाञ्छितदिनां जिनमुपादिशत् ॥५१॥ उदतिष्टत्ततः सङ्घः श्रुत्वा धर्म गुरूदितम् । मादासंघाय रूप्याणि जसवन्तो महाशयः ॥५२॥ एवं भेदतटदङ्ग विजयदेवसद्गुरोः । विजयसिंहसरेश्च जात आगमनोत्सवः ॥५३॥ अथ श्रीजसवन्तायाः श्रीहर्षाङ्गिरूहाः समे । सुरिं व्यज्ञपयन्भेवं प्रणम्य चरणाम्बुजम् ॥५४॥ प्रतिमानां प्रतिष्ठाई श्रेष्ठमीक्षस्व वासरम् । विजयदेवसूरीन्द्र ! सूरीन्द्रमणताम्बुजम् ! ॥५५॥ पुण्याई सुदिनाहं च ततः सूरिनिरैक्षत । माघमासे सिते पक्षे पञ्चमं पञ्चमं धुषु ॥५६।। मूरिस्तान ज्ञापयामास वासरं भासुरं शुभैः । माघमासस्य पक्षस्य शुक्लस्य खलु पश्चमम् ॥५७॥ अभ्युत्थाय ततः मूरि नत्वा गत्य च मन्दिरे । प्रतिष्ठायोग्यसामग्रीमग्रिमा ते ह्यकारयन् ॥५८॥ रोदस्योरन्तरालस्थं विमानद्वयमुन्नतम् । मण्डपद्यमानन्दविधायकमकारयत् ॥१९॥ लोकानां भोजनायोचं मन्दिरस्याग्रतः स्थितम् । प्रतिमानां प्रतिष्ठायै योग्यस्थाने द्वितीयकम् ॥ यशोजुगन्धरीस्फुर्जद्गअद्वन्द्वमिवं किमु । यशस्तण्डुलसद्गद्वन्द्वं वेति विदुर्जनाः ॥६॥ ४९-अभ्य सन्घयन्-सङ्घन अभिमुखमगच्छन् । सवेन अभियाति अभिसङ्घयति । गाविष्ट वत्प्रातिपदिकस्य इति णौ रूपं । ततः अनद्यतने लङिति लङि प्रथमपुरुषबहुवचनमभ्य सङ्घयन्निति : ५०- मेडतानगरस्य अन्तरं मध्यं मेडतानगरान्तरं तस्मिन् । अत्र अन्तरशब्दो मध्यपायो न सर्वादिकार्यभाक् । कथंभूते उपाश्रये जनराजिनि-जनै राजत इत्येवं शीलो जनराजी तस्मिन् जनराजिनि । अथवा जनाश्रय उपाश्रये इति पाठान्तरं तत्रायमर्थः-कथंभूते उपाश्रये जनानां आश्रय इव जनाश्रयस्तस्मिन् । कथंभूते उपाश्रये ! विमाने इव विमानोपमाने इत्यर्थः । कथंभूते जनराजिनि सुरलोकशालिनि । जनाश्रय इति पाठे सुरलोकाश्रय इत्यर्थः । सूरि-प्रथमपक्षे श्रीविजयदेवसूरिं, द्वितीयपक्षे सूरि अर्थाद्वहस्पतिम् । ५४-समे सर्वे पञ्चापीत्यर्थः । समशब्दोऽत्र सर्वपर्यायः सर्वादिकार्यभाक् । ५६-धुषु दिवसेषु । पञ्चमं मनोज्ञम् । ६१-इदं मण्डपद्वयं जना इति विदुः-इत्यजानन् । इतीति किं किमु इति वितर्के । यशो जुगन्धरीस्फूर्जद्ञद्वन्द्वं । वा इति पक्षान्तरे । यशस्तण्डुलसद्गद्वन्द्वम् । Ahol Shrutgyanam Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् माज्यानि प्राज्ययोज्यानि कुण्डलीप्रमुखानि ते । शालिदालिघृतालीनि भोजनानि अपाचयन् ।। केसराणां सुवारीणि चूर्णानि सुरभीणि च । अकारयन् छटाय ते पटवासाय च स्फुटम् ॥६३॥ कर्पूरागरुकस्तूरीचन्दनादीनि चानयन् । वस्तूनि ते प्रशस्तानि प्रतिमार्चनहेतवे ॥१४॥ यथायोग्यं यथाशास्त्रं यथाविधि यथोदितम् । प्रतिष्ठायोग्यसामग्री व्यधुरेवं बुधा हि ते ॥६५॥ मण्डपे मण्डयन् बिम्बैः श्रीसहस्रफणादिभिः । अनेकैः शोभितं श्रीमत्पाविम्बं ततस्तके ॥६६ विजयदेवसूरीन्द्रो विजयसिंहमूरियुक । प्रतिष्ठासमयं ज्ञात्वा मण्डपेऽथ समागमत् ॥६७|| विम्बं श्रीपार्श्वनाथस्य श्रीसहस्रफणस्य च । विम्बरन्यैर्युतं मूरिः प्रत्यतिष्ठद्यथाविधि ॥६८॥ ततः श्रीजसवन्ताद्या भ्रातरः पञ्च भक्तितः । विजयदेवसूरीन्द्रनवाङ्गान्यभ्यपूपुजन् ॥६९|| । कारयित्वा प्रतिष्ठां ते रूपकाणि तदा ददुः । महाजनेभ्य इभ्योद्घाः परमानन्दमेदुराः ॥७॥ सूरीन्द्रोऽनेकसाधूनां श्रीपण्डितपदं ददौ । साधवः श्रावकाश्चान्ये तदा सन्तुतुषुस्तराम् ॥७॥ ततः पञ्चजनीनास्ते निमन्त्र्य श्रीमहाजनान् । प्रभोज्यं केसराम्बूनां छटाचूर्णैरपूपुजन् ॥७२॥ एवं श्रीमेडताङ्गेऽहत्पतिष्ठामहोत्सवः । विजयदेवमूरीन्द्रकृतः प्रावर्तताद्भुतः ॥७३॥ प्रतिष्ठासुरथापृच्छत् सूरिः सङ्घ जगद्गुरुः । अत आकारयन्त्यन्ये प्रतिष्ठै भवदाज्ञया ॥७४॥ ततः श्रीमेडताद्रङ्गवासी सोऽब्रवीदिति । प्रतिष्ठसे यदा सूरे त्वां निषेधति को जनः ॥७॥ परमत्रत्य सङ्घोऽयं भोज्यमाज्यं निषेधति । भोजने भोजनेष्टं च भो जनेश्वर सद्गुरो ! ॥७६॥ . स्मित्वा सुरिरपि प्राह श्रीसा विस्मयान्वितः । किं ब्रूषे सङ्घ सोऽप्याह चतुर्मासी कुरुष्व भोः॥ तत एवमभाषिष्ट मूरिः सङ्घ विचारवित् । चतुर्मासी विधातास्मि युष्माकं च समीहितम् ॥७८ __ अभिवन्दै जिनाधीशाः सन्ति ये तान् मरौ किल । अथवा-अभिवन्दै जिनाधीशप्रतिमा या मरौ हि ताः । तीर्थानि यानि विद्यन्ते तानि पश्यानि चात्मनाऽधुना ॥७९॥ प्रत्ययेऽस्मिन् गृहाणेदं मम स्वाध्यायपुस्तकम् । सत्यकारमिवेदं चेत्संघ नो मनुषे वचः ॥८॥ अस्मिन्नवसरे श्रीमत्पुरं योधपुरं वरम् । वरीवति मुखस्फूर्ति लक्ष्मीमूर्तिमयं सदा ॥८॥ गजसिंहो महाराजस्तत्र शश्वद्विराजते । पराजितपरानेकगजसिंहपराक्रमः ॥८२॥ ६२-ते जसवन्तादयः पञ्च भ्रातरः भोजनानि अपाचयन् । कथंभूतानि प्राज्यानि प्रचुराणि प्राज्ययोज्यानि प्रवरहवियोजनीयानि भोजनानि । अपाचयन् इत्यत्र इकोऽसवर्णे साकल्यस्य हरवश्चेति प्रकृतिभावः, न इकोयणचीति यण् । ६३-चूर्णानि अबीरगुलालप्रमुखभाषाप्रतिद्वानि । ८०-हे सद्ध ! चेदिदं वचः चतुर्मासी स्थास्यामि इत्येतलक्षणं नो मनुषे तर्हि अस्मिन् प्रत्यये प्रतीतो इदं मम स्वाध्यायपुस्तकं सत्यंकारमिव गृहाण । Ahol Shrutgyanam Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [दशमः पद्मा पद्माशयं ज्ञात्वा पद्माख्यामिपतो असत् । स श्रीपमाभिधस्तत्र वसति व्यवहारिकः ॥८३|| कदापि यद्वचो न्याये भूपा नैवोदलड्न्यन् । वार्ता का चान्यलोकानां प्राविवाकमतल्लिका ||८४|| धर्मात्मा न च दुष्टात्मा द्वेषचेताः कदापि न । भक्तः समस्तसाधूनामासक्तः मुकृतेऽर्हतः ।।८।। __-त्रिभिर्विशेषकम् । तस्य पुत्रावुभावास्तां भैरवाख्य-शुभात्यकौ । राज्ञः श्रीसूरसिंहस्य मन्त्रिणौ परमप्रियौ ।।८।। आयुषः क्षयतस्तौ हि प्रागेवागच्छतां दिवम् । वर्तन्ते च तयोः पुत्राः पौत्राः पद्माभिधस्य च ॥ तद्यथा-श्रीभैरवसुतः श्रीमान सिंहमल्लवलो नृषु ।श्रीसिंहमल्लनामास्ति मन्त्रिराजो महीपतेः॥ शुभाः शोभुशुभाः पुत्राः शुभाख्यस्य शुभा इव । चत्वारः प्रियचत्वारः एते सन्तीह सम्पति ॥ तानाह-प्रथमः सुखमल्लाख्यो द्वितीयो रायमल्लकः। तृतीयो रणमल्लाख्यस्तुर्यः प्रतापमल्लकः॥ श्रीपमाख्यस्य नप्तारस्त्रातारोऽमी नरान् भुवि । जिनधर्म विधातारो वर्तन्ते गुरुसेवकाः ॥९॥ सीहमल्लोऽभवत्पुण्यात श्रीमद्योधपुराधिपः । मेदिनीतटसङ्गनाथः श्रीसुखमल्लकः ॥१२॥ गजसिंहमहाराजराज्यभारधुरन्धरौ । गजसिंहमहाराजस्थापितौ तौ व्यराजताम् ॥९३॥ तयोः पितामहः श्रीमत्सुरीश्वरं विवन्दिषुः । श्रीपमाभिध आगच्छत् तदानीं मेदिनीतटे ।। तदा पद्माभिधो मन्त्री पमापद्ममदात्तराम् । महाजनाय सूरीन्द्रद्वयं नत्वातिभक्तितः ॥१५॥ (-महाजनाय सूरीन्द्रं प्रणिपत्याति भक्तितः -इति का पाठान्तरम् ) ततः श्रीमेडतादङ्गात् प्रास्थात् सूरीश्वरो द्रुतम् । धंधाणीति प्रसिद्धाख्ये द्रङ्गे नन्तुं जिनेश्वरान् ॥ मार्ग ग्रामीणसल्लोकान शीलधमै प्रपालयन् । घंघाणीनगरं प्राप श्रीमूरिः ससंयुतः ॥९७] समाजगाम तत्रापि श्रीपद्मः संघनायकः । नत्रा श्रीसीहमल्लेन देशाधीशेन संयुतः ॥९८|| ८८-भइरवसुतः सीहमहः । ८९-शुभाख्यस्य एते चत्वारः पुत्राः इह योधपुरे सन्ति । किं भूताः ? शुभाः शौर्यौदार्यादिगुणैमनोहराः । अत एव पुनः क. शोभुशुभाः शुभि दीप्तौ, शोभन्ते पुनः पुनरिति शोभुशुभाः सोमनीला इत्यर्थः । बहुलं गुणवृद्धी चादेरिति किडप्रत्यये सरूपद्विवे पूर्वस्य उकारे च साधुः । पुनः के० ? उत्प्रेक्ष्यन्ते-शुभा इव शुभयोगा इव | पुनः क० ! प्रियचत्वारः प्रियाः चत्वारो येषां गे प्रिय चत्वारः । चतुर्शब्दस्य उपलक्षणात् प्रियसी इत्यर्थः । ९१-त्रातार: विधातार: ३त्युभवत्र न लोकाययनिष्ठाखलर्थतनामिति तृन् प्रत्यया. न्तत्वात् षष्ठीनिषेधात् ! नरान् जिनधर्ममया हितोया । ९५-पद्मापद्मं लक्ष्मीनिधानम् । ९७-सङ्घसंयुतः श्रीमेडसाद्रशसञ्चसंयुक्त इत्यर्थः । Aho I Shrutgyanam Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अभ्यवन्दत सूरीन्द्रस्तीर्थकृत्पतिमा रमाः। श्रीपद्मस्ता गुरुं चैव जनेभ्योऽदाच रूपकं (लभनीम्) पादाच् श्रीसीहमल्लोऽपि रूपकाणि यथोचितम् । प्रभोज्य मजुलं भोज्यं मृष्टं सर्वमहाजनम् ॥ ततः श्रीतिमिरीद्रङ्गे पार्श्वनाथं जिनोत्तमम् । उपकेशपुरे मूरिीरं च माणमत्तराम् ॥१०॥ लोका अनेके रूप्याणामकुर्वन् लंभनीय॑नाः । उत्सवानप्यनेकांश्च तत्संख्यां नामवं खलु ॥ न्यवर्तत ततः सूरिः प्रति श्रीमेदिनीतटम् । संविधातुं चतुर्मासी सङ्घस्याग्रे प्रतिश्रुताम् ॥१०३ विहरन् क्रमतोऽथैव प्रामोच्छ्रीमेदिनीतटम् । उत्सवै हुभिर्दिव्यैः प्राविशत्तदुपाश्रयम् ॥१०४ परिपूर्णी चतुर्मासी श्रीमूरिरकरोत्सुखात् ! तन्मुखालोकतृप्त्या तु श्रीसङ्गो नाक्षिसन्ततिम् ॥ एवं श्रीविजयादिदेवसुगुरुः सम्प्रत्यतिष्ठत्तराम्, श्रीमन्मेदतटे स्फुटे सुखचयैश्चञ्चचतुर्मासकम् । अर्हडिम्बसमुच्चयं च रुचिरश्रीः प्रत्यतिष्टत्तराम्, श्रीश्रीवल्लभपाठकोदितयशाः सर्वत्र जाग्रद्यशाः ॥१०६।। इतिश्री श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमतपागच्छाधिराजपातिसाहिश्रीअक्काब्बरप्रदत्तजगद्गुरुविरुदधारकभट्टारक श्रीहरिविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कारपालसाहिश्रीअकब्बरसमासंलब्धदुर्वादि जयवादभट्टारकश्रीविजयसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिसाहिश्रीजिहांगीरप्रदत्तमहातपाविरुधारि म० श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवसूरीणां प्रथमागमन-प्रतिष्ठाविधान-श्रीसंघाग्रहचतुर्मास्यवस्थानवर्णनो नाम १० सर्गः ॥ --4BHITI ०९-रूपकमित्यत्र जातानेकवचनं तेन सपकाणीति व्याख्येयम् । १०३-कथंभूतां चतुर्मासी सङ्घस्या प्रतिश्रुतां अङ्गीकृतां । प्रतिज्ञातमूरीकृतोररीकृते संश्रुतमभ्युपगतमुररीकृतमाश्रुतं संगीर्ण प्रतिश्रुतं चेति हैनकोषः । १०४-तस्मिन् मेदिनीतटे उपाश्रयस्तदुपाश्रयस्तं तदुराश्रयम् । Aho I Shrutgyanam Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः अथ सागरपक्षीयः सान्तीदासो महर्दिकः । श्रावकः श्रावकाधीशो नरेश इव शोभते ॥१॥ श्रीमत्यहम्मदावादे वदावदवशंवदः । श्रीमत्सागरपक्षीयमूरिधर्मपरायणः ॥ २ ॥ युग्मम् । एकदा व्यमृशच्चिने स्वीयगर्योः परस्परम् । कथं विवाद एकत्वे द्वित्वं चापि कथं पृथक् ॥३॥ प्रभाते गुरुमापृच्छय परस्परप्ररूपणाम् ( --धर्म द्वयनरूपणाम् -इति वा पाठः) निर्णयानि हि साक्षित्वमङ्गीकृत्य तदा वरम् ॥४॥ युग्मम् । गुरोः पार्श्व समागत्य श्रीगुरुं स न्यवेदयत् । मदुक्तं वचनं सत्यं कुरु चेदरमिच्छसि ॥५॥ विजयदेवसूरीन्द्रं श्रीमन्मेदतटात् पुरात् । आह्वयाऽन्याऽदरं कृत्वा मुक्त्वात्मीयजनानपि ॥६॥ यदि त्वं पूर्व शास्त्राणामनुसारनिरूपिताम् । कुर्याः प्ररूपणां सारां नान्यथा द्वेषपोषिकाम् li७|| सूरे सर्वजनीना यज्जिनधर्मप्ररूपणा । क्यापि पारंपरीणा च भवेत्सर्वपथीनिका ||८|| ततस्तस्य गुरुः प्राह-ब्रूषे श्रावक सुन्दरम् । तमाह्वय, स आयातादायान्यहमितो ध्रुवम् ॥९॥ सान्तीदासस्तदोत्थाय साधर्मिकानकारयत । तानापृच्छय च तानेव तमाहातुमचालयत् ॥१०॥ विजयदेवसूरीन्द्रश्रावकैरपि संयुतान् । परस्परमुभी ते हि यद्विरोधनिषेधकाः ॥११॥ युग्मम् । प्रचलन्तस्त आगच्छन् पुरे श्रीमेदिनीतटे ! विजयदेवसूरीश्च प्राणमन् प्रेमपूरिताः ॥१२॥ ताभ्यामुक्तामवोचं च वाचं वाचंयमेशितुः । पुरतः प्रीतिकी ते पत्राणि च ददुः करैः ॥१॥ श्रुत्वा सूरीश्वरो वा तत्पत्राणि प्रवाच्य च । हृद्यमोदत निर्द्वन्द्वो जयो द्वन्द्वक्षयस्सताम् ॥१४॥ ( अथवा-हृद्यमोदत निदे॒षो जयो द्वेषक्षयः सताम् -इति पाठः) ८-सर्वजनीना सर्वजनेषु प्रसिद्धा । पारम्परीणा परम्परया प्राप्ता । सर्वपीनिका सर्वपथीना एव सर्वपथीनिका सर्वपथिषु अव्याहता सर्वजिनधर्ममार्गेषु अव्याहता इत्यर्थः । सर्वजनीना सर्वपीना-इत्युभयत्र प्रसिद्भाव्याहत्तयोजनपथोर्णित्वं था वक्तव्यं इति वातिकात् खप्रत्ययः । पारम्परीणा इत्यत्र युगपरम्पराह्नां भवनं प्राप्तसमूहे ख इति खः । ९-आयात्तात् इति या प्रापणे लोट: तातडादेशेरू । आयानीति क्षण नदी बाङपूर्वः इत्यस्य लोटः उत्तमपुरुषस्य निरिति मेनि इत्यादेशे आसमस्य पिरति आडागमे रूपाए । ११-उभी इयत्र श्रीविजयदेवमूरित्रावासमुदायापेक्षया सागरपक्षीयश्रावकसमुदायापेक्षया च द्विवचनम् । १३-ताभ्यां सागरपक्षीयसूरिकशिता सान्तीदास कथिनां च वाचं वचनं । वायशितुः श्रीविजयदेवसूरिगुरोः पुरतोऽमे। Aho I Shrutgyanam Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगः ] ५ विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् मेदिनीतटसोऽपि श्रुत्वा वार्ताममोदत । तैरुक्तां श्रीगुरूक्तां च वियुक्तां द्वेषभाषया ॥१५॥ परोपकारपरप्रीतिरतिनिश्चितचेतसा । प्रतिष्ठै नाथ तिष्ठानि सङ्घोऽभाणीति सूरिणा ॥१६॥ सुमुहूर्त समालोक्य पुरान्मेदतटाभिधात् । प्रातिष्ठत च सूरीन्द्रः सहस्रनरसंयुतः ॥१७॥ किष्किन्धाख्यपुरे पूर्वी, ग्राम च श्रीबलन्दके । पुयी श्रीजयतारिण्या, ग्रामे चाङ्गे बुकाभिधे ।। ग्रामे रायपुरे, ग्रामे मुरडावासनामके । तथा च क्गडीग्रामे, श्रीसोजितपुरे वरे ॥१९|| ततः श्रीआउयाग्रामे, ग्रामे श्रीषयरुयाभिधे । मञ्जुले धामलीग्रामे, पल्लिकापत्तने ततः ॥२०॥ श्रीमद् गुंदवचनामे, श्रीवींझेवाभिधे तथा । नाडूलनाम्नि च द्रने, नडुलाई पुरे पुनः ॥२१॥ श्रीघाणेराभिधे ग्रामे, वरे श्रीसादडीपुरे । श्रीमूरीन्द्रः समागच्छद् विहरन्नुत्सवैः क्रमात् ॥२२॥ _ -पञ्चभिः कुलकम् । अस्मिन्नवसरेऽथाऽत्रोदयपुरमहाजनः । पुनर्नागपुरादायान्नमस्कर्तुं महाजनः ॥२३॥ उभावाह्वयतां मूरि विज्ञप्यैवं कृपां कुरु । पर्युषितं चतुर्मासी सर्वथादृष्टपूर्विणौ ॥२४॥ मूरिः प्राहेति तौ वादं भक्तुमाकारयन्त्यमी। मामतो नागतिौं सन्तीदासश्च सागराः ॥२५॥ ततो राणपुरे देवांस्ताभ्यामन्यैश्च संयुतः । अभिवन्ध कृतास्तोकव्ययौ तौ स व्यसर्जयत् ॥२६॥ ततः प्रस्थित आनन्दसाधुन्दविराजितः । मुडाडाभिध सद्ग्रामे वाहलीग्रामके तथा ॥ ततः पावाभिधे ग्रामे, ग्रामे च कमलाभिधे । ततश्च थामलाग्रामे, ग्रामे आहुरिनामके ॥२८॥ एतेषु च विचालेषु ग्रामेष्वन्येषु भूरिषु । विचरन् क्रमतः शश्वत् क्रियमाणमहोत्सवः॥२९॥ चेत उत्पन्नसद्भावैः प्रतिग्राम बहुव्ययः । श्रीमूरि प्राप्यत श्राद्धैः श्रीजाबालपुरं प्रति ॥३०॥ -अष्टभि कुलकम् । आह्वानाय समागच्छन् श्राद्धाः स्वस्य च तस्य ये । श्रीमदहम्मदावादं प्रत्यमुञ्चत्ततः स तान् ॥ २४- उभौ उदयपुर-नागपुर-महाजनी सरि आह्वयतां । किं कृत्वा ? एवं विज्ञाप्य एवमिति किं-कृपां कुरु । कथंभूतो उभौ सर्वथा अदृष्टपूर्विणौ । २५-सूरिः, तो उदयपुर-नागपुर-महाजनी प्रति इति प्राह । २६-स: श्रीविजयदेवसरिः तो उदयपुरनागपुरमहा जनौ व्यस यत् । कथंभूतौ तौ कृताऽस्तोकव्ययौ । ३१-सः श्रीविजयदेवसरिः। ततः श्रीजावालपुरे आगमनानन्तरं स्वस्य आत्मनः, चः पुनस्तस्य सागरपक्षीयस्य ये श्राद्धाः आह्वानाय समागच्छन् तान् श्रीमदहम्मदाबादं प्रति अमुञ्चत् पश्चात्प्रेषयत इत्यर्थः । Ahol Shrutgyanam Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [एकादशः गत्वा तेऽपि ततस्तत्र सन्तीदासं न्यवेदयन् । विजयदेवमूरीन्द्रो जावालपुरमागमत् ॥३२॥ मुक्तिसागर आदाय भवन्तमभिगच्छतात् ! अथवा-गुरुस्त्वदीय आदाय भवन्तमभिगच्छतात् । पोस्फुरीति सती शक्तिर्दातुं प्रतिवचो यदि ॥३३॥ सन्तीदासो वचः श्रुत्वा तेषामिति मनोहरम् । अवोचच्च गुरु स्वीयं मुक्तिसागरनामकम् ।।३४॥ उत्सूत्रभाषकत्वाच श्रीसूर्युदितलोपनात् । तद्वचः कर्णयोः श्रत्वा तद्वचःमहतोऽभवत् ॥३५|| मुक्तिसागरनामा ज्ञो मुक्तिसागरनामभाक् । मुक्तिसागरनामोजःसंजातरसनादृषद् ॥३६॥ विजयदेवसूरीन्द्रनाममाहात्म्यतर्जितः । निरुत्तरवचःशक्ति गच्छन्मुक्तिसागरः ॥३७॥ द्वौ भेदौ सागरो धत्ते विष-रत्नसमुद्भवात् । कलिकालस्य माहात्म्यात् सोऽधुनाऽस्त्याद्यभेदभाक्!। ३२-तेऽपीति श्रीविजयदेवसूरिश्रावकाः सागरपक्षीय श्रावकाश्च ततः श्रीजावालपुरात् तत्र श्रीअहम्मदाबादे । ३५-३६-युग्मम् , व्याख्या-अयं मुक्तिसागरनामसाक ज्ञः पण्डितः प्रतिवादी तद्वचःप्रहतः अभवत् । तस्य सान्तीदासस्य वचो वचनं श्रीविजयदेवसूरिवर्वादी मदाहूतः त्वया सह वाद कर्तुं श्रीजावालपुरे आयातः अथ त्वमपि तेन सह वार कर्तुं मया सह चल इत्येतल्लक्षणं, तेन प्रहतो निराकृत इव । तद्वचःप्रहतः संजात इत्यर्थः । किं कृत्वा ? तद्वचः कर्णयोः श्रुत्वा तस्य सन्तीदासस्य वचः श्रीविजयदेवसूरिर्वादी त्वया सह वादं कर्तुं श्रीजाबालपुरे आयात इति कर्णविषये श्रुत्वा । कथंभूतो मुक्तिसागरनामा ज्ञः ? मुक्तिसागरवासभाक् । मुक्तिरेव सा लक्ष्मीस्तस्या गरनाम विषनाम भजतीति मुक्तिलागरनामभाक् । मुक्तिलक्ष्म्याः विषनाम समान इत्यर्थः । यथा अन्यस्यापि सज्जनस्य दुराशयः प्रतिकूलभाषी पुरुषो विषोपमो भवेत्तथा मुक्तिसागरोऽपि प्रतिकूलवादी प्रतिवादी मुक्तिलक्ष्म्या विषोपमानो जात इति भावः । पुनः कथंभूतो मुक्तिसागर-* नामा ज्ञः? मुक्तिसागरनामोजःस जातरसनादपद्-मुक्तिरेव सा मुक्तिसा मुक्तिलक्ष्मी तामस्यति क्षिपति नाशयति यत्तत् मुक्तिसा:-मुक्तिप्राप्तिनिषेधकमित्यर्थः । ईदृशं यद्गमिव विषभिव यत् नाम स मुक्तिसागरनामा; अथवा अग इव पर्वत इव राजते यत्तत् अगरं पाषाणसदृशं मुक्तिसाश्च तत् अगरं च मुक्तिसागरं । एवंविधं यन्नाम तस्य यत् ओजस्तेजस्तेन संजाता रसना दृषद् यस्य सः, मुक्तिसागरनामोज:संजातरसनादृषद्-मुक्तिलक्ष्मीविनाशकविषप्रायपाषाणप्राय नामप्रभावसंजातजिह्वापाषाण इत्यर्थः । असु क्षेपणे दिवादिः परस्मैपदी, किवपि मुक्तिसाः । ओजो दीप्तिप्रकाशयोः अवष्टम्भे बले धातो तेजसीति हैमानेकार्थः । कस्मात् ईदशो जातः इत्याहउत्सूत्रभाषकत्वात् । चः पुनः श्रीसूर्युदितलोपनात् । श्रीसूरिणा श्रीविजयदेवसूरिणा उदितं उक्त श्रीसूर्युदितं तस्य लोपनं उल्लंघनं तस्मात् । Ahol Shrutgyanam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः विजय देवसूरि-माहात्म्यम् आद्य भेदं समासाद्य वर्तन्ते सागराः कलौ । सागरा इति नामानः प्रोच्यन्ते साधवोऽप्यमी । विजयदेवसूरीन्द्रसत्यवादिपराजिताः । सागरा इत्यकथ्यन्त तत्पतीपा हि साधवः ॥४१॥ अन्त्यं भेदं समासाद्य विद्यन्ते सागरा हि ये । सागरा इति नामानः प्रोच्यन्ते तेऽपि साधकः॥ विजयदेवसूरीन्द्रकथिताज्ञाविधायकाः । ते सर्वेषामुपादेया इव रत्नसमुच्चयाः ॥४३॥ अथवा सागराः प्रोक्ता द्विविधाः पूर्वमूरिभिः । केचित् मृष्टास्तथा क्षाराः केचिदिति जगस्थितिः।। आहताः मूरिणा ये ते मृष्टा-अन्येऽन्यथाविधाः । मृष्टाः क्षारा अगस्त्येन पीतास्त्यक्ता इवाऽभवन् । मूरिप्रतापसन्तप्तो निश्शक्तिमुक्तिसागरः । काकनाशं ननाशेव तस्थौ तत्रैव निष्पभः ॥४६॥ अथ श्रीभिन्दिमालादिवङ्गवासिमहाजनाः । संरक्षितुं चतुर्मासी श्रीसूरिं समाह्वयन् ॥४७॥ इयता च समागच्छन् वींझेवाद्रङ्गवासिनः । संभूय श्रावकाः सर्वे निश्चित्याङ्गीकृतं ह्यदः ॥४८॥ अन्ये सभ्या यदीभ्याश्च श्रावका द्रङ्गवासिनः । रक्षिष्यामश्चतुर्मासी तथाप्यत्र वयं गुरुम ॥४९॥ माहुः मूर्ति प्रणम्यैवं चतुर्मासी गुरो कुरु । वयं ग्राम्याः क्व चास्माकं त्वत्पदान्जरजोऽन्यतः॥५०॥ तीर्थ श्रीवरकाणाख्यं वन्दस्व चिरमिन्द च । त्वदीयाः सेवकाः स्मो नः कृतार्थान् कुरु च ध्रुवम् ॥ भिन्दिमालादिकद्रङ्गवासिनः श्रावकास्तदा । तूष्णींशीला विलक्षाश्च व्यराजंश्चित्रिता इव ॥५२॥ विज्ञाय निश्चयं तेषां चातुर्मासकरक्षणे । तूष्णीकः सूरिरप्यास्थादगीकृत्य च तद्वचः ॥५३!! न विधास्ये चतुर्मासी कथयिष्यामि चेदिति । एते दुःखं करिष्यन्ति यद्ग्राम्या नेति तिष्ठति (-यद्याम्या न वसत्यतः-पा० )॥५४॥ युग्मम् । श्रावकान कांश्चिदापृच्छय प्रमोच्यैव च कांश्चन । प्राप्नोत् प्रस्थाय बींझेवानगरं सह तैर्गुरुः ।। मूरिः पर्यवसत्तत्र चतुर्मासी महोत्सवैः । प्रीणयन् श्रावकान् धर्मान् प्रणयन् प्रणयाश्रयान्॥५६।। इत्थं श्रीविजयादिदेवगुरुणा सन्दृब्धमुत्साहता, विद्वेषिप्रतिवादिनां परिभवं दौर्गत्यविध्वंसकम् । ४८-अदः इति किं इत्याह-अतो अनु अस्मात् पश्चात् त्वत्पदाब्जरज: त्वचरणकमलरेणुः अस्माकं क्व न कदापीति भावः । ५१-इदि परमैश्वर्ये भ्वादिः परस्मैपदी, लात्वाशिषि लिड् लोटौ इति लोटो मध्यमपुरु. पैकवचने, सेयपिञ्चेति सेहो, अतोहेरिति हे कि इन्देति सिद्धिः । ५५-क्रांश्चित् श्रावकान् मन्त्रिजयमल्लादि-जावालपुरवासिनः, कांश्चन श्रावकान् भिन्दिमालादिद्रङ्गवासिनः । तैः सह वीं झेवाश्रावकः सह । ___५६-१७ वींझेबानगरे प्रणयाश्रयान् प्रेममन्दिरान प्रणयः प्रेमयाञ्चयोरिति हैमानेकार्थः । Ahol Shrutgyanam Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एकादशः श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं यं श्रीवल्लभपाठकः समभद् भ्रमण्डले विश्रुतं, श्रुत्वा तं सुकृते भवन्तु भविकाः सान्द्रप्रतिज्ञाः सदा ॥५७॥ ___ इति श्रीबहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातशाह श्रीअकबरप्रदत्तजगद्गविरुदधारक श्रोहीरविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कार पातिशाहिश्रीअफचरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महातपाविरुदधारि श्रीविजदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिविरचित. प्रतिवादपराभववर्णनो नाम एकादशः सर्गः ॥११॥ Aho I Shrutgyanam Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः अथ श्रीफलसदल्ली मल्लीवास्ति विलासिनाम् । श्रीपल्लीसुपुरी पल्लीपुरी भल्लीव पूःस्त्रियाम् । नाथते तु जगन्नाथो जगन्नाथ इवाव्यथः । महीनाथोऽमहीनार्थोपचितश्रेयसां पथः ॥२॥ वसन्तस्तत्र भास्वन्तौ श्रीमहङ्गरभाखरी । भ्रातरौ प्रातरौदार्यात प्रात ईहितमर्थिनाम् ॥३॥ संखवालकुलोल्लासिकमलाकमलापती । अतो विलसतो लक्ष्म्या द्विरूपौ तौ कलानिधी ॥४॥ तौ श्रीमोटिलसत्पुत्रौ जगन्मान्यौ विराजतः । जगन्नाथ-महीनाथमन्त्रिणौ राज्यधारिणौ ॥५॥ भूजानी तौ च भुञ्जानौ भोग्यान् भोगाननेकधा । ___ कुर्वाणौ च सदा धर्मान् आस्तां लोकंपृणोत्तमौ ॥६॥ एकदाऽनेकदातारौ सदादानान्यनेकशः । ददतौ ददतो लोकानन्यान् वीक्ष्येत्यनिन्दताम् ॥७॥ इतीति किं तदाह-सदादानं जना अन्ये ददत्यधिकताकृते । ___ आवाभ्यामावयोः कापि कदाप्यधिकतात्र न ||८|| विचिन्त्यैवं च निश्चिन्त्य चैत्यशङ्गस्य चोपरि । कामकुम्भमिव स्वर्णकुंभ स्थापयतः स्म तौ ।। श्रीकल्याणमयं कुंभ श्रीकल्याणमयं महत् । [अत्र चः पाद पूरणे। प्रस्थाप्य पार्श्वनाथस्य श्रीचैत्यशिखरोपरि ॥२०॥ कुण्डलीमण्डलीराज्यमधुचल्यालिसंचिताः। महाजनान् प्रभोज्यैव प्रदातां रूपकाणि तौ ॥११॥ १-सद्वल्ली कामलता मलोवेति केतकीति भाषाप्रसिद्धेव | श्रीपल्लीसुपुरी श्रीपल्लीव श्रीपल्ली लक्ष्मीग्रामतुल्या इत्यर्थः । सा चासौ सुपुरी चेति श्रीपल्लोसुपुरी । पल्लिस्तु ग्रामके कुट्यां इति हैमानेकार्थः । २-नाथते ऐश्वर्य भुनक्ति-नाथङ उपत्तापैश्वर्याशी:यु चेति हैमधातुपाठः । आत्मेनपदी । अत्र श्रीपल्लोपुर्या इत्यर्थः । अमहीनार्थोपचितश्रेयसां पथः । अमो रोगः स इव अमः क्षयस्तेन हीनः अमहीन अक्षय इत्यर्थः । स चासौ अर्थश्च द्रव्यं तेन उपचितानि पुष्टानि यानि श्रेयांसि अमहीनार्थोपचितश्रेयांसि तेषां पथो मार्गः। पथः अकारान्तोऽपि मार्गपर्यायः । ३-तत्र पल्लीपुर्या भास्वन्तौ दीप्तिमन्तौ अथवा भास्वन्तौ इव भास्वन्तौ सूर्योपमानौ इत्यर्थः । अत्र चकारस्य शेषात; च: पुनः प्रातः प्रभाते औदार्यात् अर्थिनां ईहित्तं वाञ्छितं प्रातः पूरयतः सूर्यायप्येवं सूर्योऽपि प्रातः औदार्यात् महत्त्वात उदयानन्तरं अत्यंततेजस्वित्वात् अर्थिनां ईहितं प्रातः । ११-रूपकाणि परोिजाति भाषामसिद्धानि नाणकानि । ती डूंगरभाषरौ भ्रातरौ । ૧૨ Ahol Shrutgyanam Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [द्वादशः विहरनन्यदा सूरिरायान् स्वर्णगिरं प्रति । मार्गान्तरालवर्तित्वादायाच्छ्रीपल्लिकापुरीम् ॥ जीर्णोद्धारे महत्पुण्यमिति मूरिरुपादिशत् । श्रावकान सुकृतं श्रोतृन सत्सदः सत्सदः सदः॥ इत्युपादिश्य सूरीन्द्रस्ततः प्रास्थत हर्पतः । एकत्रावस्थितियुक्ता यतीनां न कदापि यत् ॥१४॥ अथैकत्रोपविष्टौ तौ ध्यायतः स्मैकदा ह्यदः । डूंगरभाखरेत्याख्या सर्वाद्रीणां श्रुता भुवि ॥ अतो विशेषभाषायां प्रवर्तत तदा वरम् । डूंगरभाखरेत्याख्या जगदेकारूपिका ॥१६॥ कर्तव्यात्सर्वलोकानां सर्वलोकैः कृतादपि । धर्मात् साद्भुतधर्म चेत् करवाव तदा भवेत् ॥१७॥ श्रीमेरुगिरिनामानावावां ख्यातौ सहोदरौ । कारयाव मरौ मेरुं चैत्यं ज्ञापयितुं जनान् ॥१८॥ उदधारयतां तौ हि विचिन्त्येति स्वचेतसि । नलक्षाभिधं चैत्यं जीर्ण तन्वा न तेजसा ॥१९॥ नवलक्षाणि रूप्याणि लगन्त्यस्य विधापने । नवलक्षमतो नाम चैत्यास्यास्य भुवि श्रुतम् ॥२०॥ प्रतिमा पाश्वनाथस्य कारितेहितपूरिका । ताभ्यां कामलतेषा सत्फणा नवपल्लवा ॥२१॥ रचितं स्वर्णरत्नौधैर्यशःस्तम्भमिवोन्नतम् । तौ न्यवेशयतां दण्डं चैत्ये ध्वजविराजितम् ॥२२॥ सुवर्णकलशं चैत्यशृङ्गस्योपरि सुन्दरम् । प्रत्यष्टापयतां तौ तत् तदा मेरुरिव व्यभात् ॥२३॥ मेरुः सुमेरुरित्याख्यां बिभ्राणे ते व्यराजताम् | आकारे पञ्चमेरूणामबुध्येतां च सजनैः ॥२४॥ नवपल्लवनामायं पार्श्वनाथः प्रभाववान् । अभवद्भवदेश्वर्यप्रथितः पृथिवीतले ॥२५॥ निष्पन्ने पाश्वचैत्येऽपि पाचचत्येप्यथाद्भुते । प्रतिष्ठां न विना पूजा सत्प्रभावेपि तवये ॥२६॥ अतोऽथ कारयावावां प्रतिष्ठां श्रेष्ठनिष्टया । श्रीमूरीश्वरमकार्य श्रीवींझेवापुरस्थितम् ॥२७॥ १२-आयान्-या प्रापणे, आङ् पूर्वः शतृप्रत्ययान्तः आगच्छन् इत्यर्थः प्रथमः। द्वितीयस्तु आयादिति अनद्यतने लङ् इति लङः प्रथमपुरुषैकवचनप्रयोगः आगच्छदित्यर्थः । १३-सुकृतं श्रोतृन्- लो काव्ययनिष्ठाखलर्थतनामेति श्रोतन इत्यस्य तन्निति शीलार्थतन । प्रत्ययान्तत्वप्रयोगात् । सुकृतमिति हितीया | सहादः पदलविशरणगत्यवसादनेषु भ्वादौ, बलादिः परस्मैपदी। सत्सु साधुलोकेषु सोदन्तीति सत्सदः साधुलोकसेवकास्तान् । सतां पण्डितानां पूजितानां वा राजादीनां सदांसि सभाः तेषु सीदन्तीति सत्यदः पण्डितसभोपदेशकाः राजसभोपवेशका वा इत्यर्थः । सत्सद इत्यत्र सत्लदस्सद इत्यत्र च सत्सू द्विषदुहेति क्विप् सदः शब्दः स्त्रीलिबलिङ्गः। १९-तन्वा शरीरेण, अन तनू शब्द ऊर्हतः । तन्यादेवेति वैकल्पिकस्य ऊङः प्राप्तेः । २२-तौ डंगरभाषरौ भ्रातरौ तत् नवलक्षं नाम चैत्यं । २४-ते श्रीपल्या मध्यास्थित यहि:स्थित दैत्योर्द्वयं व्यराजतां । चः पुनः सजनैः पञ्चमेरूणामाकारे अनुध्येताम् । २७-श्रेष्ठनिष्टया अनवाब्दः उत्कर्ष १ व्यवस्था २ निष्पत्ति ३ निर्वाह ४ व्रतानां पञ्चानामेषां पर्यायः । निष्ठोत्कर्षव्यवस्थयोः केशे निष्पत्तौ नाशेऽन्ते निर्वाहे याचने व्रते इति हैमः । Aho I Shrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् ९१ विचिन्त्यैवमुभावेतौ श्रीमडुङ्गरभाषरौ । भ्रातरौ संघसंयुक्ताबाहातुं तमगच्छताम् ॥२८॥ प्रणम्य चरणौ मूरेः पुरस्तादुपविश्य च । अवक्ता व्यक्तवद् व्यक्तवाचया तो गुरुत्तमम् ॥२९॥ नवपल्लवपाहिमतिमा प्रतितिष्ठतात् । स्वच्छेन विधिनातुच्छगच्छेशागच्छ सत्वरम् ॥३०॥ श्रीसंघ सूरिरपाक्षीत् वींझेवापुरवासिनम् । ततो विगतसन्तापः सन्तापं चेतसो हरन् ॥३१॥ भवन्मनोरथः पूर्णश्चतुर्मासीविधानतः । अथ स्याबदाज्ञा चेत् प्रतिष्ठै पल्लिका प्रति ॥३२॥ मामाह्वयत एतौ यत् श्रीमढुंगरभाषरौ । भ्रातरौ श्रीप्रतिष्ठायै श्रीपल्लीसंघसंयुतौ ॥३३॥ अवोचच्च ततः श्रीमद्वींझेवासंघ आहतः । आह्वास्यतां न योती नाऽचालयिष्यमन्यथा ॥३४॥ प्रतिष्ठाया महान् लाभः प्रतिषेधानि तं कथम् । अतः सूरे प्रतिष्टस्त्र प्रतिमा प्रतितिष्ठ च ॥३५॥ अचलत्स चलत्कल्पवृक्षकल्पो द्यकल्पधीः। संकल्पपूरणायैव तयोर्नान्यात्र कल्पना ॥३६॥ मूरिः प्रामोत् पुरी पल्ली सदातोद्यध्वनिर्दिवम् । यशस्तस्य च सज्ज्योतिरिव विश्व विवस्वतः।। अथाकारयतामन्यान्नागरान्नगरादितः । तौ सन्तौ च सतः श्राद्धान् ग्रामीणानपि चादरात् ।। चतुर्दिग्भ्यः समाजग्मुः श्रावका जलदा इव । दातुं लातुं च साराणि नीराणि सुयशांसि च ॥ पोडशस्य शतस्याथ षडशीतितमेऽब्दके । वैशाखशुक्लपक्षस्य सुमुहूर्ते दिनेऽष्टमे ॥४०॥ प्रत्यतिष्ठद्वरिष्ठात्मा श्रेष्ठेन विधिना गुरुः । नवपल्लवपार्थाऽहत्पतिमा प्रतिमानिमाम् ॥४१॥ अस्मिन्नवसरे मन्त्री जयमल्लः समागमत् । सौधर्मेन्द्र इव द्रष्टुं प्रतिष्ठां तौ च वन्दितुम्॥४२॥ प्रतिष्ठा-प्रतिमा-चैत्यं निरीक्ष्येति च सोऽवदत् । अधिकाधिकमाहात्म्यं समकारयतामिमौ ।। २९-अवक्तां-वच् परिभाषणे इत्यस्य अनद्यतने लडोति लङि, प्रथमपुरुषद्विवचनं व्यक्तवत पण्डितवत् , व्यक्तवाचया स्पष्टभाषया । अत्र वाचाशब्दः हलन्ताद्वेति वैकल्पिके दापि टावन्तः । 'वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयो: । आ पञ्चैव हसान्तानां यथा वाचा निशा दिशा।। इति वचनात् । ३०-प्रतितिष्ठतात् आशिपि लोटो मध्यमपुरुषस्य तुझोस्तातडाशिष्यऽन्यतरस्यामिति हि स्थाने वैकल्पिके तातड्. इत्यादेशे रूपम् । ३६-सः श्रीविजयदेवसरिः अचलन् । किरिशिष्टः ? तयोःडुंगरभाषरयोभ्रात्रोः संकल्पपूरणायैव मनोरथसिद्धये एव चलत्कल्पवृक्षकल्लः जजमझल्पवृक्षस मानः । कथंभूतः द्युकल्पधीः दिवससमानयुद्धिः । ३९-श्रावकाः आजग्मुः। किं कर्तुं ? साराणि द्रयाणि दातुं, लोकेभ्य इति गम्यते । पुनः किं कर्तुं ? सुयशांसि लातुं । के इव ? जलदा इव । किं कर्तुं ? नीराणि दातुं । चः पुनः सुयशांसि लातुं । मेघाः सर्वतो दिशः सम्यग् ववर्षुरिति सुयशांसि लातुमिति पदं युक्तम् । ४३-प्रतिष्ठाप्रतिमाचैत्यमित्यत्र समाहारद्वन्द्वत्वादेकवचनम् । Ahol Shrutgyanam Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [द्वादशः अस्मिन्नवसरे लोकाः प्राक् पश्चाच्चेदृशाः किल ! प्रभावात् श्रीगुरोः श्रीमत् पार्श्वनाथस्य चाभवन।। पीवरोरव इच्छंति वामोरव उपासते । लक्ष्मणोरव एधन्ते करभोरव ईशते ॥४५॥ ययोः सेवां समीपं च सद्गुणस्तवनात् श्रिया । प्रसादाद् राज्यमद्वन्द्वं निर्लोमकरभोपमम् ॥ पीवरोर्वश्च वामोर्चः करभोर्वश्च काश्चन । लक्ष्मणोः कलादक्षाः रंजिताः प्रीतचेतसः ॥४७॥ लक्ष्मीनाम्न्यः सुनामानो रंभानामाश्च सर्वदा । आस्तिक्यमतयोऽर्हन्तमास्तिक्यः स्तुवते च तम् ॥ शफोर्वस्तानं जायन्ते संहितोर्वश्च कहिंचित् । यद् गुणान् याः प्रगायन्ति स्त्रिय इत्यब्रुवस्तदा॥ एवं सिद्धे प्रतिष्ठायाः कायें तो भ्रातरावथ । कामकुंभाविवाभीक्ष्णं समभोजयतां जनान् ॥५०॥ उचितानि प्रभूतानि भोज्यानि नवनवानि हि । कुण्डलीप्रभृतीनीष्टमष्टानि स्वद्नान्यहो ।। कान्तविक्रान्तसंघातयुक्तं श्रीजयमल्लकम् । अथवा-सहस्रजनसंयुक्तं मन्त्रिश्रीजयमल्लकम् । निमन्व्यात्याग्रहं कृत्वा पादजाहं प्रणत्य च ॥५२॥ त्रिभिविशेषकम् । ४४-अस्मिन्नवसरे प्रतिष्ठा करणानन्तरकाले ईदृशाः । कीदृशा इत्याह ४६-पीवरौ ऊरू सक्थिनी येषां ते पावरोरवः । वामौ मनोज्ञौ अरू येषां ते वामोरवः । लक्ष्मणौ लक्ष्मीवन्तौ उरू येषां ते लक्ष्मणोरवः । लक्ष्मीवान् लक्ष्मणः श्लील इति हैमकोषः । करभवत् ऊरू येषां ते करभोरयः । अर्थयोजनात्वेवम् । पीवरोरवः ययोः श्रीनवपल्लवपार्श्वनाथ श्रीविजयदेवसूर्योः । सेवा इच्छन्ति ययोः इति पदस्य सर्वत्र संबंधात् । वामोरवो ययोः समीप उपासते । लक्ष्मणोरवः ययोः सद्गुणस्तवनात्, श्रिया लक्ष्म्या एधन्ते । करभोरवः ययोः प्रसादात् राज्यं ईशते ऐश्वर्य कुर्वन्तीत्यर्थः । कथंभूतं राज्यं ? अद्वन्द्वं संग्रामवर्जितम्। सर्वथा वैरिणां अभावात् । पुनः कथंभूतं राज्यं अत एव निलोभकरभोपमम् । ४७-४८युग्मम्-अर्हन्तं श्रीनवपल्लवनामानं श्रीपार्श्वनाथ जिनं । चः पुनः तं श्रीविजयदेवसूरिं। पविरोर्वः वामोर्वः लक्ष्मणोर्व इत्येतेषु त्रिषु संहितशफलक्ष्मणवामादेश्चति अनौपम्येऽपि स्त्रियामूङ् करभाव इत्यत्र उरूत्तरपदादौपम्ये इचि इङ । लक्ष्मीनाम्न्या इत्यत्र अन उपधालोपिनोऽ. न्यतरस्यामिति बहुव्रीही वैकल्पिको ङोप् । सुनापान इत्यत्र रम्भानामा इत्यत्र च डाबुभाभ्यामन्यतरस्यामिति बहुव्रीही वैकल्पिके डाप्रत्ययाभाने प्रथमा बहुवचनं । कल्पिके डाप् प्रत्यये च रम्भानामा इति प्रथमाबलुवचनम् । ४९-तदा प्रतिष्ठाकरणानन्तरकाले स्त्रिय इयत्रुवन् । इतीति किं। याः यद्गुणान् श्रीपार्श्वनाथ-श्रीविजयदेवसूरिगुणान् प्रगायन्ति ताः । शफोर्वः सांश्लिष्टसक्थियुक्ता न जायन्ते । चः पुनः कार्दचित् संहितोर्वः मिलितसक्थियुक्ता न जायन्ते । शफोर्वः संहितोर्व इत्युभयत्र संहित. शफलक्ष्मणवामादेश्चेति ऊ: प्रत्ययः । शफशब्दः श्लिष्टपर्यायः । Aho I Shrutgyanam Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् ततस्तत्सर्वसंभूतश्रीसंघनिचयाय तौ । रूप्याम्बराणि चारूणि प्रादातां प्रीतचेतसौ ॥५३॥ आहूतान् श्रावकान् सर्वान् तौ व्यसर्जयतां ततः । इति विज्ञपयन्तौ च समायायुश्चिरायुषः ॥ आयाताः परदेशेभ्यः श्राद्धाः सच्छ्रद्धयान्विताः। आह्वयन्ति चतुर्मासं कर्तुं सूरीश्वरं तदा ॥५५॥ •मन्त्रि श्रीजयमल्लोऽपि वाग्मी वाग्ग्मीनमित्यवक । एहि कर्तुं चतुर्मासं सूरे स्वर्णगिरौ ध्रुवम् ॥ सूरिः प्राह महामन्त्रि श्चतुर्मासी व्यथां पुरा। अभवद्वर्षयोयुग्मं महालाभश्च ते च मे ॥५७॥ प्रतिष्ठाजिनविम्बानां कर्तव्यास्तीति सोऽवदत् । तीर्थे शत्रुञ्जये चैत्ये चैत्यस्थापन हेतवे ॥५॥ अत आव महाभाव समभावमहात्मसु । प्रतितिष्ठ यतिश्रेष्ठ जिनानां प्रतिमाततिम् ॥१९॥ भवितायं महान् लाभः पुनरन्योऽपि कश्चन । इत्यागृहामि गृह्णीयाः प्रतिष्ठापुण्यमग्रणि ॥६०॥ इत्यवादीत्ततः मूरिः श्रीजयमल्लमन्त्रिणम् । प्रतिष्ठास्यामि बिम्बानि चतुर्विंशतिमहताम् ॥६॥ इत्थं श्रीविजयादिदेवसुगुरुः श्रेष्ठप्रतिष्ठां व्यधात् , श्रीमड्डङ्गरभाखरप्रविहिताऽर्हचैत्यसञ्चैत्ययोः। सिद्धान्तप्रतिपादितेन विधिना पुष्पावतीपत्तने, (श्रीपल्लिकायां पुरि) श्रीश्रीवल्लभपाठकपठितप्रेष्ठप्रतिष्ठोत्सवाम् ॥१२॥ इति श्रीबहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठकश्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातशाह श्रीअकबरप्रदत्तजगद्गुरुविरुधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कार पातिशाहिश्रीअकबरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचल सहस्रकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महातपाविरुदधारि श्रीविज. यदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्य नाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिविनिर्मितश्रीपल्लिकापुरी नवलक्षप्रासाद श्रीनवपल्ला पार्श्वनाथप्रतिष्ठाप्ररूपको नाम द्वादशः सर्गः ॥१२॥ ५३-तत: श्रीसमस्त श्रीसभोजनानन्तरं मन्त्रिश्रीजयमल्लसुभट भोजनानन्तरं ग्रामीणलोकभोजनानन्तरं चेत्यर्थः । तत्सर्वभूतश्रीसङ्घनिचयाय ते च निमन्त्रिताः परदेशश्रावक सङ्घाः ते च श्रीजयमल्लाद्याः श्रावकलोकास्ते च ग्रामीणाश्चेलि त्रिभिर्द्वन्द्वे सरूपाणामेकशेषे इति ते । ते च ते सर्वसंभूतश्रीसङ्घाश्च तत्सर्वसंभूतश्रीसङ्घास्तेषां निचयस्तस्मै । ५४-समायायुः समागच्छेयुः । या प्रापणे विधौ लिङः प्रथमपुरुषबहुवचनम् । ५५-तदा प्रतिष्ठाकरणानन्तरकाले । ५५-वाग्रमी सम्यगभाषकः । वाग्मात्ययं शब्दो द्विगकारवान् । ग्मिन् इति सूत्रेण ग्मिन् प्रत्ययान्तत्वात् । ग्मिन इत्यत्र यो गकारः स प्रत्यये चेति सूत्रेण जायमानस्य अनुनासिकस्य निवृत्त्यर्थः । यदि तु मिनिरित्येवोच्येत तदा प्रत्यये चेति नित्यमनुनासिका स्यात् । Ahol Shrutgyanam Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः अथातः प्राचलमूरिालसावान् निरालसः । ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठादिधर्मकार्ये हि सत्कलः ॥१॥ नालीलालीकजल्पाकसाधुशाली मुशीलवान् । शीलवतादिधर्मेषु साधुलोकान् प्रवर्तयन् ॥२॥ श्रीजाबालपुरं प्राप्नोत् सूरीन्द्रश्चन्द्रशीतलः । अभ्यायाज्जयमल्लोऽपि वन्दितुं तं च संघयुक् ॥३॥ विधायोत्सवमुत्साहाद् गीतातोद्यस्वनाद्भुतम् । नगरस्यान्तरे सूरि जयमल्लः समानयत् ॥४॥ स आनयत् परां प्रीति स्वस्यान्येषां च मानसम् । एकस्य हर्षसम्प्राप्तावन्येषां किं न मुन्नणाम् ।। धन्योऽहमद्य संजातो निरवद्यमनोरथः । अहंतां भविता चाथ प्रतिष्ठेष्टेत्यचिन्तयत् ॥६॥ पश्य प्रशस्यसूरीश प्रतिष्ठाश्रेष्ठवासरम् । सोऽप्यपश्यन् मुहूर्त च युक्तो मौहर्तिकस्तदा ॥७॥ प्रथमाषाढपक्षस्य कृष्णपञ्चमवासरम् । भासुरं तीर्थकृद्विम्वप्रतिष्ठाप्रवर्तते ॥८॥ इति प्राह धतोत्साहः मूरिमौहूर्तिकान्वितः । मन्त्रिणं जयमल्लाख्यं श्रीसुवर्णगिरीश्वरम् ॥९॥ संजातरोमहर्षश्रीसंश्लेषविदुषो रुषा। देशेभ्यः समस्तेभ्य इभ्यः संघान् समाह्वयत् ॥१०॥ आयानुपरि तस्याह्नस्ते सङ्कन अन्यदेशतः । ग्रामीणाश्च स्वदेशस्य सर्वलाभाभिलाषिणः ॥११॥ सोऽथ श्रीजिनचैत्यानां प्रतिष्ठाया मुहूर्तकम् । असानोद् गीतगानोद्यद्वायध्वानं यथाविधि ॥ कृतप्रतिष्ठः सूरीन्द्रः समदीपिष्ठ शिष्टरुक् । निर्मापितप्रतिष्ठश्च मन्त्रीति जयमल्लकः ॥१३॥ तद्यथा-सद्वाससं शुभावासं वासं पादाद्गणेश्वरः। साधुभ्यः श्रावकेभ्यश्च पदव्रतविधायकम् ॥१४॥ मन्त्रीशः साधुलोकेभ्यः सदासांसि व्यहारयत् । आहारयद्वराहारं संघांस्तेभ्यो धनं त्वदात् ।। षोडशस्य शतस्यास्मिन् षडशीतितमेऽब्दके । प्रथमाषाढपक्षस्य कृष्णे पञ्चमवासरे ॥१६!! प्रत्यतिष्ठजिनेन्द्राणां प्रतिमाः प्रतिमाग्रिमाः। विजयदेवसूरीन्द्रः श्रीजाबालपुरे वरे ॥१७॥ निवृत्ते च तदा तत्र प्रतिष्ठाया महोत्सवे । मन्त्रिण पाह सूरीन्द्रः प्रचलानि त्वदाज्ञया ॥१८॥ मन्त्री प्राहाथ सूरीन्द्रं चतुर्मासं कुरु प्रभो।चालयानि नचाहं त्वां चतुर्मासीविधि विना ॥१९॥ अङ्गीकृत्य तदा तस्य रुचिरं वचनाग्रहम् । संग्रहमिव वस्तूनां शस्तानामवसद्गुरुः ॥२०॥ १०-अत्र विदुषशब्दो विद्वत्पर्यायोऽकारान्त औणादिको ज्ञेयः। न रुट् अरुट क्रोधाभावः सन्तोष इत्यर्थः । अत्र न-अभावे तया अरुषा सन्तोषेण इत्यर्थः । ननु रुड् विरुद्धा अरुट् इत्यपि समासः स्यात् । सत्यं नात्रायं नञ्समासः । कथं अस्मिन् समासे अरुट शब्दः क्षमापर्यायः स्यात् । न च तदानीं तस्य कस्यचिदुपरि कोपः, विना कोपं कथं क्षमेति अभावे एवायं नयु-समासः। Ahol Shrutgyanam Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अकारयन्मुनीन् कांश्चित् तपः षष्टाष्टमादिकम् । अवाहयच्च सद्योगं सिद्धान्तानां यथाविधि ॥ दिव्येन विधिना श्राद्धीरुपधानादिकं च सः। श्रद्धया वाहयद्धर्म श्रद्दधानाः शिवप्रदम् ॥२२॥ व्रतं हरितकायादिप्रत्याख्यानमकारयत् । श्रावकानन्यलोकांश्च वन्दितुं स समागतान् ॥२३॥ श्रावयन् शुद्धसिद्धान्तमाचाराङ्गादिकं प्रगे। श्रावकान् मुनिनश्चासौ चतुर्मासं समाप्तवान् । अबोचन्मन्त्रिणं मूरिरथातः प्रचलान्यहम् । चतुर्मास्यभवत्पूर्णा नाथास्वस्थितिर्मम ॥२५॥ माह मन्त्री तदा मूरिमा चैत्रीं तिष्ठ निश्चलः । चतुर्मास्यभवत्पूर्णा न पूर्णा मे मनोरथाः॥२६॥ सूरिः स्वस्थमना अस्थात् साधुसाधुव्यवस्थया। कथनाकरणं दुःखं माभूदस्येति सद्धिया ॥२७|| मेदिनीतटसद्रङ्गे हर्षोऽभवदथास्तिमान् । अस्तिमन्नायकः सङ्घनायकः सुखदायकः ॥२८॥ अजयजयवन्ताख्यः सुतस्तस्य सुताग्रणीः। अजयच्च जयं देवराजांगजमजोत्तमः ॥२९॥ साहलागोत्रविख्यातो वाघो नामास्ति अस्तिमान् । सोनानाम्नी सुता तस्य तस्य जायास्ति आस्तिकी ॥३०॥ आयुषः क्षयतः स्वर्ग जयवन्तोऽवजद् द्रुतम् । पत्नीसोहागदेव्यस्याशोचचित्ते चिराय च ॥३१॥ यौवने वयसि श्रेयान् विपद्येत पतियदि । महदुःख वरस्त्रीणां हा यास्यति कथं वयः ॥३२॥ (-धिक् संसारं शरीरिणः-इति वा पाठः) कियत्यपि गते काले पत्युः शोके गतेऽपि च । विज्ञाय साथ संसारमसारं परमार्थतः ॥३३॥ दानं शीलं तपो मुख्यं धर्मकर्मपरायणा । कुर्वाणा वर्ततेकाग्रचित्ता सा पापभीरुका ॥३४॥ भव्या वषन्ति ये द्रव्यं क्षेत्रेष्वेतेषु सप्तम् । ते फलं किं लभन्ते हीत्यपृच्छद्गुरुमन्यदा ॥३५॥ तत्त्व प्राच्छातया प्रश्ने कृत इत्याह तत्वभुत् । जनैनांसि ध्रुवं धुन्वन् वितन्वन् प्रेममानसे ॥३६॥ तथाहि-तीर्थे १ तीर्थकरे २ साधौ ३ भक्ति निर्मलचेतसा । धर्मशास्त्रे रुचिः २ सत्या दया ३ दानं ४ सुपात्रके ॥३७॥ सत्यं वाक्यं ५ विवेकश्च ६ प्रशस्तास्तिकतामतिः ७ । आर्यदेशो ८ मनुष्यत्वं ९ दो यू १० रोगहीनता ११ ॥३८॥ २१-उभयत्र श्लोके अवाह यदिति क्रियापदस्य ण्यन्तत्वात् नियन्तृकर्तृकस्य बहेरनिषेध इति निषेधात् । मुनीन् इत्यन्न द्वितीयश्लोफे श्राद्वीरित्यत्र च कर्म । धम्मसारहीणमिति वचनात् गुरोधर्मकर्मणि प्रेरकत्वेन नियन्तृकर्तृकत्वसद्भावात् । २९-अज इव कृष्ण इव उत्तमः सर्वोत्तमत्वात् यः स अजोत्तमः । अछागे हरे विष्णौ रघुजे वेधलि मरे।' इति हैमानेकार्थे । ३०-सस्य वाघानाम्नः सुना। तस्य जयवन्तस्य जाया परिणीता स्त्री अस्ति । अस्ति अस्तिमान , अस्ति आस्तिकी इत्युभयन इकोऽसवणे शाकल्यस्य इस्वश्चेति प्रकृतिभावः । Ahol Shrutgyanam Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ त्रयोदशः उज्ज्वलं च कुलं १२ श्रेयः श्रेयोन्यायैरुपार्जिताः । सम्पदो १३ विपदाहीनाः परोपकृतिसत्कृताः ॥ ३९॥ त्रयोदश समाख्याता हेतवोऽमी मनीषिभिः । पुण्यानामर्जने नृणां मर्त्यलोके सुखप्रदाः ||४०|| चतुर्भिः कलापकम् । श्रुत्वा सोहागदेवीति श्रीगुरोर्वदनाम्बुजात् । सप्तक्षेत्रेषु सद्द्रव्यं वपति स्म त्रपावती ॥४२॥ सदादाने सदा दाने धनधान्याम्बरादिकम् । अर्थिभ्यः सा ददातीष्टं श्रेयसे श्रेयसेभृशम् ||४२ ॥ ददाना सर्वाभीष्टं धनधान्याम्बरादिकम् । अदृश्याप्याभवद्दृश्या कामधेनुरियं किमु ||४३|| अभ्यस्तां बुधा एवं तदा प्रमुदिता हृदि । यथावद् दृष्टवक्तारो यल्लोकाः कवयोऽपि च ॥४४॥ सम्यक्तवपीवरी श्रीमद्दर्हत्सद्गुरुदृश्वरी । श्रीधीवरी व्यराजत्सा पातकावावरी तदा ॥ ४५ ॥ एवं प्रवर्तमाना सा चेतसीति व्यचिन्तयत् । प्रतिमा अर्हतां कान्ताः कारयाणि सुशिल्पिभिः।। प्रतिमाकारणे पुण्यं निश्चित्येति विचिन्त्य च । आह्य शिल्पिनो दक्षान् प्रतिमाः सा व्यधापयत् ॥ सुधर्मस्वामिसयमभृतीनां महाद्भुताम् । श्रीमद्विहरमाणानां विंशतेश्वैत्यविंशतिम् ||४८॥ चतुर्विंशतिविम्बानि वर्तमानाईतां पुनः । दृषत्स्फटिकसद्रीरीमयानि विविधानि हि ॥४९॥ - त्रिभिर्विशेषकम् । विधाय प्रतिमा: माहुः शिल्पिनस्तामिति स्फुटम् । निष्पन्नाः प्रतिमाः सन्ति यथेप्सितमथो कुरु ॥ समाभाकर्णि सा तदा शिल्पिजल्पितम् । सद्यः मसद्य तद्योग्यं तेभ्योऽदात् पारितोषिकम् ॥ ' आह्वयान्यथ सूरीन्द्रं ताः प्रतिष्ठापयानि च । विना प्रतिष्ठां पूजा नो स्याद्दोषः पूजया विना ॥ ५२ ॥ एवं विचार्य चातुर्यशो०डीयैौदार्यवर्यया । तयार्याव्यार्ययार्याणां मैषि त्रैष्यो विचक्षणः ॥ ५३ ॥ ४२ - सदादाने सकारेति भाषाप्रसिद्धे । सदा सर्वस्मिन् काले दाने त्याने श्रेयसे कल्याणाय पुनः श्रेयसे धर्माय | ४५-सम्यक्त्वपीवरी सम्यक् पीतवती । पा पाने । श्रीमदर्हत्सद्गुरुदृश्वरी श्रीमद्हेत्सद्गुरून् दृष्टवती, श्रीधीवरी श्रियं धृतवती । डुधाञ् धारणपोषणयोः । अत्र त्रिषु अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते इति कनिपू, वनोति ङीप् प्रत्ययो रेफादेशश्च । पीवरी धीवरी इत्युभयत्र घुमा स्थागा पेति आकारस्य ईकारः। पतिकावावरी पापापनेत्री आणूऋ अपनयने अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते इति वनिप प्रत्यये विड्वनोरनुनासिकस्यादिति णत्वस्य आत्रे वनोर्चेति ङीप्रत्ययो रेफश्चान्तादेशः । ४६ - सा सोनां नाम्नी । सुशिल्पिभिः शिलाकुट्टादिभिः । अत्र हक्रोरन्यतरस्यामिति वैकल्पिककर्माभावे तृतीया । अथवा सुशिल्पिन इति पाठे कर्मापि वैकल्पिकं न दोषायेति । Aho ! Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् आवसन्त चतुर्मासी श्रीसुवर्णगिरि पुरम् । आकारयितुमानन्दकारकं सूरिपुङ्गवम् ॥५४॥ सोऽपि गत्वा ततो नत्वा श्रीमरिचरणाम्बुजे । प्रादात्पत्रं पवित्रश्रि श्रीसूरीन्द्रकराम्बुजे ॥५५॥ सूरिः प्रवाच्य तत्पत्रं ज्ञातोदन्तोऽतिमोदतः । अबदद्वदनादित्थं सुवर्णगिरिसंघकम् ॥५६॥ श्रीमत्सह-समस्ताघप्रतापसवितः सदा । सोनानाम्न्या इदं पत्रं श्राविकायाः प्रवाचय ||५७॥ वाचयित्वाथ ससस्स तत्पत्रं प्रीतिकर्तृकम् । प्रतिमानां प्रतिष्ठाया विज्ञप्तिप्रतिपादकम् ॥५॥ समनुष्यत्तरां चित्ते तच्चित्वेनातिरञ्जितः । चातुर्येण च केनापि लिखनाज्जातकौतुकः ।। युग्मम् । प्रतिष्ठाज्ञापकोदन्तं सो विज्ञाय चेतसि । श्रीसूरीन्द्रमिति प्राह पालिनतमस्तकः ॥६०॥ इतीति किं तदाह-यद्येतस्याः प्रतिष्ठाथै नायास्यत् किल पत्रिका । नाचालयिष्यमेवातो यद्वियोग सहे न ते ॥६॥ तपःशमवरिष्ठस्व प्रतिष्ठस्व गरिष्ठधीः । न निषेधाम्यथो धर्मकार्यविघ्नं करोमि न ॥२॥ अथ प्रातिष्ठत श्रेष्ठ मुहूर्ते मूर्तिमान् महान् । सद्धर्म इव सूरीन्द्रः श्रीजाबालपुरात्ततः ॥६३॥ पतिग्राम प्रतिद्रङ्गं विचरन्नाचरन् वरम् । साध्वाचारं व्रतोच्चारं कारयन् श्रावकादिकान् ॥६४|| मेदिनीतटसद्दङ्गं समवाप गणाधिपः । श्रुत्वा तमागतं सगे नन्तुमभ्यागमत्तथा ॥६५॥ अभिवन्ध पदाम्भोजे सह लात्वा च तं गुरुम् । नयति स्म मुदा सङ्घः स्वकीयं सदुपाश्रयम् ॥ तदा सट्टोऽकरोद्दिव्यधनव्ययमहोत्सवम् । गुरोरागमने किं किं न कुर्युविका जनाः ॥६॥ अथ सोनाभिधा श्राद्धी प्रतिष्ठाई शुभं दिनम् । अपृच्छच्छ्रीगुरुं भक्त्या सर्वसङ्घ-समक्षकम् ॥६८॥ ___ ५४--एवं विचार्येति युग्मव्याख्या लिख्यते-शौण्डीरः सत्त्ववान् तस्य भावः शौण्डीर्य, सत्त्ववत्वमित्यर्थः । निरनुस्वारतालव्यचर्तुदशस्वरादिरयं । तया सोनां नाम्न्या अर्याण्या वैश्यजातिस्त्रिया वणिगजातिस्त्रिया वणिजः पुत्रयेत्यर्थः । कथंभूतया तया ? अर्याणां अर्यया अर्याणां वणिगजातिस्त्रीणां अर्थ या स्वामिन्या | अर्याणी अर्या अत्र उभयत्र जातियाचित्वात् 'अर्य-क्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थे' इति वैकल्पिके डीषि आनुकागमे च अर्याणी डोषो अभावे आनुकश्च अभावे अजाद्यतष्टाविति टापि अर्या अर्यः स्वामि वैश्ययोरिति निपातितः । स्यादयः स्वामिवैश्ययोरिति हैमानेकार्थः । एवं अर्याण्या अर्या अर्याणामिति । त्रिषु हस्व एव अकारो ज्ञेयः । आवसन्तमितिश्रीसुवर्णगिरि पुरमावसन्तमित्यत्र उपाऽन्वऽध्या स इति आङ्पूर्वस्य वसतेराधारस्य श्रीसुवर्णगिरि पुरमित्यस्य कर्म । चतुर्मासीमियत्र कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे इति कर्म । ५९-समनुष्यदिति-तस्याः सोनां नाम्न्याः श्राविकायाः चित्त्वं ज्ञानत्वं मतित्व वा तञ्चितत्त्वं तेन । ६२-तपःशम इति-तपःशमौ एव वरिष्ठं स्वं धनं यस्य तत्सम्बोधन हे तपःशमवरिष्ठस्व हे श्रीविजयदेवसूरे प्रतिष्ठस्व प्रचल । ष्ठा गतिनिवृत्तौ समवप्रविभ्यः स्थ इत्यात्मनेपदी । Ahol Shrutgyanam Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [त्रयोदशः श्रीसूरीन्द्रस्तदा प्राह सोनाख्ये श्राविकेऽस्ति हि । प्रतिष्ठाई दिन ज्येष्ठशुक्लपक्षत्रयोदशम् ॥६९॥ सुसामग्री प्रतिष्ठाया विधाय विधिवत्तदा । प्रतिमाः मूरिहस्तेन प्रतिष्ठापयति स्म सा 11७०॥ पतिमाः प्रत्यतिष्ठत्ताः सरिर्जातमहोत्सवम् । रूपकाण्यददाद्धर्षाद्भक्त्या संघान् प्रभोज्य सा ॥ षोडशस्य शतस्यास्मिन् सप्ताशीतितमेऽन्दके । प्रतिमानां प्रतिष्ठाऽभूदेवं श्रीमेदिनीतटे ॥७२॥ एवं श्रीविजयादिदेवसुगुरुः स्वर्णाचलाख्ये पुरे, श्रीमन्मेदतटे पुरे च स लसद्विम्बप्रतिष्ठे व्यधात् । श्रीश्रीवल्लभपाठकः समपठत् यस्य प्रशस्यानिमान् , सत्कर्तव्यचयान् विचक्षणगणैः संवर्णनीयान् सदा ७३|| इतिश्री श्रीबहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठकश्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातशाह श्रीअकबरप्रदत्तजगद्गविरुदधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कार पातिशाहिश्रीअकव्यरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचल सहस्रकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महातपाविरुदधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिनिर्मितश्रीजाबालपुर-श्रीमेदिनीतटपुरप्रतिमाप्रतिष्ठाप्रतिपादको नाम त्रयोदशमः सर्गः ॥१३॥ Ahol Shrutgyanam Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः अथ नागपुरात्सङ्घः समाह्वातुं समागमत् । संरक्षितुं चतुर्मासं सूरीन्द्रं मेडतापुरे ॥१॥ प्रणम्य बहुशः प्रोक्तस्तेन मूरिः स्वभक्तितः । अपृच्छन्मेडतासङ्घ संघो मामाह्वयत्ययम् ॥२॥ मेदिनीतटसंघोऽत्र संघ नागपुरीयकम् । प्राहेति साम्प्रतीनेऽब्दे चतुर्मासं वसिष्यति ॥३॥ महत्त्वमिदमानन्ध प्रसह्य च प्रदेहि मे । संवो नागपुरस्येति श्रुत्वा तूष्णीं व्यधात्तदा ॥४॥ मेदिनीतटसॉ चतुर्मासमुपावसत् । मूरि गपुरीयोऽपि सः प्रास्थात् तदाज्ञया ॥५॥ अथार्जुनपुरीनाम पुरासीच्छ्रेयसी पुरी। घंवाणीत्यधुना नाम्ना प्रसिद्धास्ति पुरी वरा ।।६।। तत्र सम्पतिराजा प्राक् जिनागारमकारयत् । पद्मप्रभजिनं तत्र स्वामित्वेन न्यवेशयत् ॥७॥ अनेकाः प्रतिमा रीरीमय्यः सर्वा मनोरमाः । श्वेतस्वर्णमयी पार्श्वप्रतिमैका प्रभावभाः ॥८॥ पद्मप्रभजिनाधीशपार्थासीना इमा व्यभुः । प्रभावोऽपि महानासीत्तस्य तासां च सर्वदा ॥९॥ कुतोऽपि कारणाद् द्रङ्गभङ्गात्तदासिनो जनाः। ताः सर्वाः प्रतिमा भूमौ न्यस्यन्नुपसरः पुराः॥ अगच्छत्प्रचुरोऽनेहा अम्रियन्त जना अपि । तासां निक्षेपकाः सर्वे द्रङ्गं ग्रामोऽपि चाभवत् ॥ अखनन्नान्यदा लोकाः समीपे सरसो भुवम् । प्रतिमैका तदा खण्डा प्रादुरासीत्स्वभावतः ॥ अन्या अपि ततः सर्वाः प्रादुरासन् यथाधृतम् । अभवच्च तदा तासां सत्पूजा महिमापि च ।। अहो अजीववस्तूनां रागद्वेषाद्यभावतः । कदा नार्चा कदाप्यर्चा पुनरर्चा कदापि यत् ॥१४॥ विद्मस्तत्कर्म नो किंचिद्वक्तुं नो शक्नुमोऽपि च । संभावयामः कर्मैव किंचित्तत्रापि निश्चितम् ।। अथासीलवणो धर्मे निहुणः साहुलाकुले । तस्य पुत्रा अमी पश्च जनीनाः पञ्च सज्जनाः ॥१६॥ तद्यथा-हंसस्तेजस्तथा राजा मद्दः श्रीमहिराजकः । तेषु भ्रातृद्वयं स्वर्गमायुषः क्षयतोऽत्रजत् ॥ १-मेडतापुरे इति-मेदिनीतटे पाठान्तरम् । २-तेनेति नागपुर सङ्घन ! अयमिति नागपुरसक्छ । ३-वसिष्यतीति-विधास्यति पाठान्तरम् । ५-मेदिनीतटसङ्गमित्यत्र उपाऽन्वध्याऽङ्वसः इति उपपूर्वस्य वसतेराधारत्वात् द्वितीयैकवचनं । चतुर्मासमित्यत्र कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे इति द्वितीया । तदाज्ञयेति श्रीविजयदेवसूरेराज्ञया । ६-वरेति जने पाठान्तरम् । ८-प्रभावेण भासते दीप्यते इति क्विपि प्रभावभाः । १०-न्यस्यन् निचिक्षिपुः । उपसरः तटाकसमीपे । १७-हंसमहिराजभ्रातृद्वयम् । Ahol Shrutgyanam Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ चतुर्दशः तेजो राजा च विद्येते एतौ तत्तनयाविह । साक्षात्तौ तादृशावेव रूपवन्तौ महीतले ||१८|| हंसस्य महतो भ्रातुः पुत्रः सम्पति वर्तते । नाम्ना श्रीजयवन्तोयमर्थतो जयवानपि ॥ १९ ॥ मेदिनीसङ्गे समाजग्मतुरन्यदा । वदन्दाग्रामतः सूरिं वन्दितुं तौ सहोदरौ ||२०|| अभिवन्द्योपविष्टौ तौ सूरेरये कृताञ्जली । जोर्णोद्धारे महापुण्यमिति सूरिरुपादिशत् ||२१|| जीर्णोद्धारविधाने तौ व्यदधातां मनस्तदा । श्रुतेरनन्तरं सत्यं यतः स्तोकभवौ ध्रुवम् ||२२|| अari तौ गुरोरग्रे न कदापि बुधवौ । उद्धारयाव घंघाण्यां जीर्ण चैत्यं यदस्ति तत् ||२३|| इत्युक्त्वा श्रीगुरोरत्रे तच्चरणौ प्रणम्य च । तत उत्थाय चाब्रूतां संघस्य पुरतच तौ ||२४|| tarai antararai जीर्णोद्धारं हितप्रदम् । ददात्याज्ञां यदा सङ्घः प्रसद्योपरि चावयोः ॥ २५ श्रीसङ्गोऽपि तदावादीत्तौ प्रति प्रतिभूरिव । कारय तं हितं श्रीमज्जीर्णोद्धारं युवां द्रुतम् ॥ ततस्तौ संघसंयुक्तौ श्रीजयमल्लमन्त्रिणम् | अब्रूतां कारयावावां जीर्णोद्धारं तवौजसा ॥२७॥ जयमल्लोsवदन्मन्त्री चैत्यं कारय तं द्रुतम् । विलम्बेथां युवां नात्र कार्ये साहाय्यमस्ति मे ॥ aavat fशल्पिनt विद्वत्कल्पान शिल्पिकलाविदाम् । समाकारयतां जीर्णोद्धारकार्योत्सुकौ भृशम् || आहूतानागतांस्तथ तौ न्यवेदयतामिति । जीर्णोद्धारं च घाणीग्रामे दिव्यं विधत्त भोः ॥ मुहूर्त दिने कान्ते ऽप्यकुर्वस्तदुक्तितः । जीर्णोद्धारं जिनेन्द्राणां सुन्दरं जिनमन्दिरम् ||३१ पद्मप्रभजिनाधीशं समस्तप्रतिमाधिपम् । प्रत्यष्ठापयतां चैत्ये कृत्वा तौ तत उत्सवम् ||३२|| कुण्डली मण्डलीभिस्तौ प्रभोज्य श्रीमहाजनम् । महाजनकराम्भोजे प्रादातां रूपकाणि च ॥ ३३ यस्योपदेशतो भव्या जीर्णोद्धारान्महाद्भुतान् । अनेकानि च चैत्यानि सन्ति नव्यान्यकारयत् ॥ शत्रुञ्जादितीर्थेषु द्रङ्गेषु विविधेष्वपि । कारयान्त्यास्तिकाः केऽपि केऽपि चाकारयन् पुरा ॥ कारयिष्यन्ति चान्येऽपि पुरस्तादप्यनेहसि । एवमेवावनीपीठे स सूरिर्जीवताच्चिरम् ||३६|| - त्रिभिर्विशेषकम् । एवं चिरं श्रीविजयादिदेवसूरीश्वरो राजतु गच्छराजः । श्रीवल्लभः पाठक एष हर्षाद् यस्यास्तवीद् धर्मविधापनानि ||३७|| इतिश्री श्रीबृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातशाह श्रीअकब्बरप्रदत्त जगद्गुरुविरुदधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कारपातिशाहि श्रमिकव्त्ररसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजय सेन सूरीश्वरपट्टपूर्वा वलनहस करानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महापाविरुद्धारि श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनानि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिसदुपदेशसाहुलागोत्र साहूते जाराजाकारित श्रीर्घघाणीग्राम जीर्णचैत्योद्धारवर्णनो नाम चतुर्दश सर्गः । ३१ - तदुक्तित इति तदाज्ञया पाठान्तरम् । ३२- ततः जीर्णचेत्योद्धार करणानन्तरम् । Aho ! Shrutgyanam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः पूर्वमेव तपोऽकुर्वन्नईन्तोऽहत्त्वसिद्धये । तपस्यत्यधुनाईवमासाद्यायं नवो जिनः ॥२॥ सूरयः साम्प्रतीना हि वर्तमाना जिना अपि । वर्धमानं विहायान्ये कर्तारो नेदृशं तपः ॥२॥ तपः स्तुमोऽत एवास्य कृतं कर्ता करोति च । दीयन्तेऽन्ये च कुर्वन्तो दीप्यतेऽसौ दिने दिने । षोडशस्य शतस्यास्मादेकषष्टितमाब्दकात् । प्रथमं यत्तपः मूरिय॑धात्तत् स्तौमि सम्पति ।। एकवर्ष पुराचाम्लषष्ठाष्टमतपो गुरुः । पारणाविकृतित्यागं निर्विकृतिकमातनोत् ॥५॥ आचाम्लानि चतुर्मासं द्रव्यत्रययुतानि च । स्थानस्थभक्तपानानि व्यदधात्स तपोनिधिः॥६॥ षष्टाष्टमोपवासानां पारणायां तपोभिदि । गृहुन् द्रव्याणि चत्वारि द्वितीयान्द इदं तपः।। युग्मम् । द्रव्याणि त्रीणि चत्वारि गृहन्नेकाशनं तपः । आवर्षयुगलं मूरिरकरोच निरन्तरम् ॥८॥ वन्दनाभिग्रहे श्रीमद्विजयसेनसद्गुरोः । ज्ञात्वेति विरहे सूरे क्तिर्युक्ता न मे सदा ॥९॥ एकान्तरोपवासान् स व्यधादामासलप्तकम् । निर्विकृतिकमातन्वन् पारणादिवसे सदा ।। युग्मम्। षष्ठमाचाम्लमेकाशं निर्विकृतिकं तथा । पद्व्यसहितं स्थानभक्तपानसमन्वितम् ॥११॥ यावर्षत्रयं मूरिरकरोत्तप ईदृशम् । यावत्महरमेकं च कायोत्सर्ग सदा निशि ॥१२॥ युग्मम् । अभिग्रहे च यात्राया आ मासनक्कं किल । षड विकृतीनिषिध्यंश्च कुर्वन् षष्ठोष्टमादिकम् ॥१३ निर्विकृतिकमाचाम्लमेकासनमनिन्दितम् । यावन्मासत्रयं मूरिः पारणावासरेऽकरोत् ॥१४॥ पञ्च द्रव्याणि संगृहन् एकां च विकृति ध्रुवम् । स्थानस्थभक्तपानं च तप एताहगन्यदा ॥१५॥ -त्रिभिर्विशेषकम् । कस्मिंश्चिद्वत्सरे मूरिय॑धात्पंक्तित्रिकं तपः। उपवासैस्तथाचाम्लैनिर्विकृतिकैः [च] पुनः॥१६॥ एकाशनेश्च कृत्वैव द्रव्याणां परिमाणकम् । परित्यज्य रसान् षट् च रसनासुखकारिणः॥ युग्मम् । कर्मक्षयविधानार्थमुपवासादिकं तपः । अस्तोकमकरोत्स्तोका मुनानो विकृतीगुरुः ॥१८॥ कस्मिन्नब्दे गुरोरुक्त्या मासमध्ये तु कल्पते । एका विकृतिरन्या मे न कल्पन्ते कदापि च ॥१९ यथेच्छमुपवासादि करणीयं मया तपः । व्यपोहाय च पापानां सोऽभ्यगृह्णादिति के ॥ युग्मम् । कस्मिंश्चिद्वत्सरे संघाग्रहान्मासद्वयं ध्रुवम् । सन्निर्विकृतिकं सूरिरगृह्णान्नाधिकं ततः ॥२१॥ आचाम्लान्युपवासांश्च निर्विकृतिका अपि । अकरोच्छेषमासेषु दशसु श्रेयसे गुरुः ॥२२॥ अष्टकर्मक्षयं कर्तुमुपवासादिकं तपः । कस्मिंश्चिद्वत्सरे सरिरकरोदुश्चरं चिरम् ॥२३॥ २-कारो नेदृशं तप इति-मकुर्वन्नीरशं तपः । ३-दीच क्षये दिवादिगत्मनेपदी । २०-स श्रीविजयदेवसूरिः इति दुके अभ्यगृह्णात् अभिग्रहम करोत् । Aho I Shrutgyanam Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ पञ्चदशः तपांस्येतादृशान्येवमनेकान्यकरोद्गुरुः । तद्विधौ पुनरद्यापि तस्याद्यो दिवसोऽसति ॥२४॥ अद्य यावद्गणाधीशोऽभ्यतपद्दस्तपं तपः । एतादृशोऽस्त्यभिप्रायश्चिरायास्य च तत्कृतौ ॥२५॥ जीर्णोद्धाराजरत्तीर्थाऽजरच्चैत्यादिकं भवेत् । तपो लाभोपमं तर्हि तद्वर्षेऽल्पं तपोऽस्तु चेत् ॥२६ कस्यचिन्महतो मन्त्रिजयमल्लादिकस्य हि । विज्ञप्तिकरणादेव नान्यथा तत्तपोऽल्पता॥ युग्मम् । क्रियात्युग्रतया साक्षादवती! धनो मुनिः। सन्दिहन्तीति यं वीक्ष्य कवयो यं कलौ किल॥ आनन्दविमलमूरिद्वितीयोऽयमभूद्गणे । नैवमेषोऽधिकस्तस्मादित्यन्ये ब्रुवते बुधाः ।।२९।। तदाह-क्रियोद्धारः कृतस्तेन नैतादृशं कृतं तपः । महातपा इति ख्यातं नाप्तं च बिरुदं भुवि । इति हेतुत्रयाधिक्यं शोभतेऽस्मिन्नहर्निशम् । यदत्रान्यगुणाधिक्यमस्ति वक्तुं न तत्क्षमः ॥३१॥ -त्रिभिविशेषकम् । क्रियायास्तपसश्चास्य पारं वक्तुं कदापि हि । शक्नुवन्ति कवीन्द्रा नो बृहस्पतिसमा अपि ॥३२॥ इत्युत्तमं श्रीविजयादिदेवमूरिस्तपो दुस्तपमातनोत्तत् । श्रीवल्लभः पाठक एवमाख्यत् कर्तुं न शक्तोऽन्यजनो यदीक् ॥३३॥ इतिश्री श्रीबहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीयपाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातशाह श्रीअकव्वरप्रदत्तजगद्गुरुबिरुदधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालंकार पातिशाहि श्रीअकबरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजयसेन सूरीश्वरपट्टपूर्वाचलसहस्रकरांनुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्तमहातपाविरुदधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिकृततपोवर्णनो नाम पञ्चदशः सर्गः ॥१५॥ २४-असगतिदीप्त्यादानेषु भ्वादिरुभयपदी । २५-अस्य श्रीविजयदेवसूरेः । तत्कृतौ तपोविधाने । एतादृशोऽभिप्रायोऽस्ति । २७-चेत्तपोलाभापमं जीर्णोद्धाराऽजरत्तीर्थाऽजरचैत्यादिकं भवत्तेहि तद्वर्षे कस्यचिन्म. इतो मन्त्रिजयमल्लादिकस्य विज्ञप्तिकरणादेव अल्पं तपोस्तु । अन्यथा तत्तपोऽल्पता तस्य श्री. विजयदेवसूरेस्तपोऽस्पता तपसोऽल्पत्वं नान्यथा नान्येन प्रकारेणेत्यर्थः। Aho I Shrutgyanam Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः अथास्ति पत्तनं नाम पत्तनं यत्र चाभवत् । विजयसिंहसूरीणामुपाध्यायपदं पुरा ॥ १ ॥ विजयदेवसूरीन्द्रमावसन्तं सुखेन तत् । श्रीमदहम्मदावादसंघ आह्वातुमागमत् ॥ २॥ आपृच्छ्य पात्तनं संघमागृह्याहूय चादरात् । श्रीमदहम्मदावादसंघः सूरियुतोऽचलत् ||३|| संघः सूरिं विधायातिमहाद्भुतमहोत्सवम् । श्रीमदहम्मदावादसदुपाश्रयमानयत् ॥४॥ श्रीमदहम्मदाबादद्रङ्गं मूरिरुपावसत् । साधूचितहितातिथ्यैवेरीयान् वर इवोत्सवैः ॥५॥ स्तम्भतीर्थादथागच्छदतुच्छश्रीसमुच्छ्रितः । संभूय संघ आह्वातुं प्रणन्तुं च गणेश्वरम् ||६|| मौक्तिकैः स्वर्णपुष्पैश्च संवर्ध्याअलिभिः शुभैः । श्रीस्थंभतीर्थसङ्घस्तमभ्यवन्दत भक्तितः ॥|७|| श्रीमदहम्मदावादद्रङ्गश्रीस्थंभतीर्थयोः । सङ्घौ व्रत इति स्पष्टं मिथो न वितथं वचः ॥८॥ तद्यथा - आयः सङ्घ इति ब्रूते द्वितीयं समागतम् । भट्टारको नवीनोऽयं चतुर्मासं निवत्स्यति ॥ अवश्यं स्थापयिष्यामि न च स्थास्यति चेत्स्वयम् । चतुर्मासमसौ सूरिः पत्तनाद्यत्पुराह्वयं नयम् ॥ द्वितीयः स्तंभतीर्थस्य संघो वक्तीति तं प्रति । भवान्मोक्ष्यति सन्तुष्य समेष्यति तदा गुरुः ॥ अत्र त्वमानयः सूरिं श्रीसंघ किल पत्तनात् । गृह्णाति मार्थ्यसद्वस्तु सङ्घः प्राचूर्णको हि ते ॥ १२ श्रुत्वेति प्रथमः सङ्घः कृत्वा तूष्णीं स्थितस्तदा । मोक्तं द्वितीयसंधेन विनयेनोचितं वचः ॥१३॥ Fit संघ समागत्य प्रणत्य च तदेति तम् । अब्रतां स्वस्वविज्ञप्तिं स्वस्वचेतोहितावहाम् ॥ आधुनिकं चतुर्मासमिव स्ववशा वस । विजयदेवसूरीन्द्र विजयदेवसौख्यभाक् ||१५|| इति साक्षीव सूरीन्द्रः संघ प्रति तदावदत् । आसीनौ पुरतो भक्त्या सुवादिप्रतिवादिवत् ॥ इतीति किं तदाह - विजयसेनसूरीन्द्रपादुकावन्दनां विना । विकृती हरामीति पुरा गृह्णामभिग्रहम् ||१७|| इत्युक्ते सूरिराजेन पुरस्तात्संघयोर्द्वयोः । पूर्वपक्षनिषेधोऽभूत् द्वितीयाङ्गीकृतिः स्वतः ||१८| श्रीसंघोऽहम्मदावादङ्गवासी महाशयः । प्रसद्य स्तम्भतीर्थस्य संघ मत्यब्रवीदिति ॥ १९ ॥ अभिग्रहमिमं सूरिन करिष्यद्यदा पुरा । नामोक्ष्यं च तदा सूरिं श्री संघस्थंभतीर्थके ||२०|| स्वत एव हि सूरीन्द्रो विना विज्ञप्तिभावयोः । स्थंभतीर्थे चतुर्मासं पुण्यान्निरणयत्तराम् ॥२१॥ अचलचलनौ मुञ्चन् कौसेयादिसिगम्बुजे । सुदिने जिनवत्सूरिः संघयुक् स्थंभतीर्थकम् ||२२|| २ - उपान्वध्याङ्ग्वस इति आङ्पूर्वस्य वसतेराधारस्य । तत्रेत्यस्य स्थाने तदिति कर्म । १८- पूर्वपक्षनिषेधः श्रीमदहमदाबाद नगर चतुर्मासावस्थानलक्षणपक्षनिषेधः । द्वितीयाङ्गीकृतिरिति श्रीस्तम्भतीर्थचतुर्मासावस्थान लक्षणपक्षाङ्गीकारः । स्वतः आत्मतः । २२- कौसेयादिसिगम्बुजे कौसेयादिवस्त्र कमलेषु । कौसेयादिसिगम्बुज इत्यत्र जात्या Aho! Shrutgyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [षोडशः प्रसाद्याहम्मदावादसंघमापृच्छय च ध्रुवम् । महान्तो हि न कस्यापि विषादं कुर्वते किल ॥२३ श्रीमतः स्तंभतीर्थस्य संघः सन्तुष्टमानसः । मूरि वरमिवादाय स्थंभतीर्थमुपागमत् ॥२४॥ आहोपुरुषिकां विभ्रदथाहपूर्विकां पुनः । अहमहमिकां कुर्यन् इति संघोऽवदन्मिथः ॥२५॥ इतीति किं तदाह-स्थंभतीर्थपुरावेशमहोत्सवमहो गुरोः। करिष्याम्येव मुख्योहं करिष्यति भवान् कथम् ॥२६॥ अस्मिन्नवसरे संघमुख्यः त्यातः क्षितेस्तले। शोभते जिननासोऽसौ रत्नामीपालसोदरः॥२७ पादजाहं स आगृह्य संघमाख्यदिति स्फुटम् । पूःप्रवेशोत्सवं श्रीमत्करचे भवदाज्ञया ॥२८॥ तदा संघः समस्तोऽपि प्रसद्येति तमादिशत् । परित्यज्य मिथश्चित्तादाहोपुरुषिकादिकम् ॥२९॥ इतीति किं तदाह-विजयदेवसूरीन्द्रपूःप्रवेशमहोत्सवम् । जिनदास विधेहि त्वं संघादेशोऽस्ति ते स्फुटम् ॥३०॥ पूःप्रवेशोत्सवस्याथ सामग्रीमग्रिमामिमाम् । श्रावको जिनदासोऽसौ व्यधागहुविधां शुभाम् ।। तद्यथा-पूर्णकुंभानिवाभीष्टसर्वसिद्धिप्रसाधकान् । व्यधापयच शुभाकारान् पूर्णकुंभान् स सत्वरम्।। स्वर्णरूप्यमयान् नव्यान् दिव्यान् रत्नावलीयुतान् । अलतानलङ्कारैः पूजितान् कुंकुमादिभिः ।। उपर्युपरि कौशेयवासांसि दधतोऽद्भुतान् । स्फुर्जन्नेजान् स राजच्छ्रीराजमानानकारयत् ॥३४ दधती रुचिरं रूपमिन्द्राणीः काश्चिदङ्गनाः । धर्तु मुर्द्धसु सत्पूर्णकुंभान् व्यरचयच्च सः॥३५॥ मौक्तिकस्वर्णसंधमालम्बनकशोभितान् । अपहर्तनातर्ष श्रेष्ठी चन्द्रोदयानकारयत् ॥३६॥ मुक्ताभिः संस्कृतैः शस्तैः स्वस्तिकैः सहितान् शियः। पूर्णकुंभान्वितेन्द्राणी मृामुपरिरक्षितुम् ।। जिनदासोऽथ लोकानां सर्वेषां मुखकाम्यया । रथानःशिविकादीनि यानान्यानाययगृतम् ॥ तद्यथा-अदृष्याद्दिव्यवैदुष्यात् पुष्यं पुष्यरथोचयम् । सच्छायं छत्रिकोपेतं कौशेयादिभिराकृतम्।। उपवेशाय केषांचित् शकटान् सौख्यदान सदा । बहुधा युयुधानानां सुपुंसां परमोत्सवे ॥४०॥ पेक्षया एकवचनं । सिकशब्दो वस्त्रपर्यावः स्त्रीलिङ्गः । अनचार्गाधान्तः । अंशुकं वस्त्रमम्बरं सिचयो क्सनं चीराच्छादौ सिक्चेलवासी इलि कोषः । अथवा मुखमल्लादिवारिजे इति पाठान्तरं । मुखमल्ला इति लोकभाषाप्रसिद्धौ वस्त्रधिशेषः । म अगदिस्य तत् मुखमल्लादि तदेव वारिज कमलं तस्मिन् मुखमल्लादिवारिणे । अत्रापि जात्यरेक्षया एकवचनं । सुखेनं मला इव मल्ला मुखमल्लाः । अन्यशासिनः प्रतिवादिनः ते आदिल से मुखालादयः त एत्र वारिज कमलं मौक्तिकगणो वा तस्मिन् । ३४-नेभिरीज्यन्ते प्रेयन्ते इति नेजास्तान् । नो लरे च समायेऽपीति विश्वशंभुः। ३५-स जिनदासः । दधतीः इन्द्राणीः काश्चिदङ्गताः । इत्र चतुपु द्वितीयाबहुवचनम् । ३९--पुष्यरथः मूर्धन्यांतस्थाधमध्यः । सकासाथ: पुष्यरथ इति हैमः । Ahol Shrutgyanam Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसरि-माहात्म्यम् १०५ विचित्रश्चित्रिताश्चित्रैजननेत्रकृतोत्सवाः । आनाययत्स संघेशः शिबिकाः शिवकारिकाः॥४१॥ __ -त्रिभिर्विशेषकम् । एवं विधाय सामग्री पूनवेशोत्सवोचिताम् । जिनदासो धृतोल्लासो महाजनान् समाह्वयत् ।। वाजिनो हस्तिनोऽनेकान् अलङ्कारैरलतान् । समास्तीर्णपरिस्तोमान् श्रीमानानाययत्ततः॥४३ वाद्यान्यनेकजातीनि समानाय्य विशेषतः। छटाः सत्केसराम्बूनामकरोत्स महाजने ॥४४॥ प्रक्षेपं पटवासानां महाजनपटेष्वपि । अतिभक्तिमनाः स्वीयहस्ताभ्यां स व्यधात्तदा ॥४५॥ पू:प्रवेशोत्सवस्यैवं सामग्रीमग्रतोऽग्रिमाम् । कृत्वाभिमुखमानन्दादानेतुं सोऽवजद् गुरुम् ॥ गत्वा महाजनोपेतो जिनदासो हरिर्गुरुम् । अभिवन्ध हृदानन्द्य स्वर्णपुष्पैरवर्धयत् ॥४७॥ इन्द्राण्योऽपि हृदा पीताः पूर्णकुम्भान्विताः स्त्रियः। अभ्यवन्दलॅसन्मुक्ता पङ्क्त्या तं चाभ्यवर्धयन्।। सह लात्वाग्रतः कृत्वा स मूर्ति परमन्तरा । प्रावेशयच्च धर्मीको यशो देशान्तरं स्वकम् ॥४९॥ (-'कीर्ति देशान्तरं स्वकाम्'-इति वा पाठः) साध्वाचारात् प्रतिक्रम्य स ईर्यापथिकी तदा । जिनेन्द्र इव सद्भद्रासनमध्यास तत्क्षणात् ॥५० जिनदासः सुराधीश इवासत च तत्पुरः। श्रीसङ्घसहितो भत्त्या सुरमकरराजितः ॥५१॥ आसन्ताग्रत इन्द्राण्य इव देवीसमन्विताः। योषितो योषितां तत्या श्रियां तत्या च चञ्चुराः।। धर्मोपदेशं श्रीसूरिः शुभाशिषमिवेशम् । उपादिशत्प्रसन्नात्मा ततः संघसमक्षकम् ॥५॥ ईदृशं इति कीदृशं तदाह-जिनाः सिद्धास्तथाचार्या उपाध्यायाश्च साधवः । श्रियं च मङ्गल कुर्युः पञ्चैते परमेष्ठिनः ॥५४॥ श्रुत्वेति जिनदासोऽथ समुत्थाय स्वपाणिना श्रीमहाजनहस्तेषु न्यस्तवान् रूपकोत्करम् ॥५५॥ पू:मवेशोत्सवे सरेरेवं श्रीजिनदासकः । त्रयोदशशतान्यत्र रूपयाण्यव्यययत्तराम् ॥५६॥ ततः संघेन संयुक्तः समहोत्सवपूर्वकम् । विजयसेनसूरीन्द्रपादकाजमवन्दत ॥१७॥ उपाध्यायपदं श्रीमद्रत्नचन्द्राय सोऽददात् । पण्डितपदमन्येभ्यः साधुभ्यश्च तदोत्सवात् ॥५८॥ विकृत्यभिग्रहं पूर्णमपूर्णमिव सोऽकरोत् । विकृतीनां समस्तानां न सदा भोजनाद् भृशम् ॥१९॥ जिनदासादिक-स्थम्भतीर्थसंघाग्रहाद्गुरुः । अध्यवसच्चतुर्मासं स्तम्भतीर्थपुरं सुखात् ॥६॥ भव्यान पावर्तयद् धर्मे सिद्धान्तोक्तचतुर्विधे । चतुर्दशानवद्याश्च विद्या अध्यापयन् मुनीन् ॥६॥ ४३-श्रीमान जिनदासः । ५६-व्यय वित्तसमुत्सर्गे चुरादिः परस्मैपदी । यद्यपि अव्ययत्तररामित्यनेन वित्तसमुत्सर्ग इत्यर्थो लब्धस्तत् कथं पुनरूप्याणीति ? सत्यं, करिकलभवदुक्तिपोषानदोषः । अथवा वित्त इत्यस्य सामान्यधनपर्यायत्वात् रूपयाणीति रूप्यशब्दस्सामान्येन सर्वनाणकपर्यायं ब्रुवन्नपि अत्र रूपइया इति भाषापर्यायं ब्रवीति, इत्यतो न पुनरुक्तिदोषः । १४ Ahol Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [षोडशः इत्थं श्रीविजयादिदेवसुगुरुः श्रीस्थम्भतीर्थे पुरे चातुर्मासकमद्भुतं समकरोत् सङ्घाग्रहादुत्सवैः । साम्राज्यं प्रतिपद्य मूरिपदजं जाग्रत्मतापोज्ज्वलम् श्रीश्रीवल्लभपाठकपठितं हर्ष प्रकर्षमदम् ॥६२|| इतिश्री श्रीबृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठकश्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातशाह श्रीअकब्बरप्रदत्त जगद्गुरुबिरुदधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वर पट्टालङ्कारपातिशाहि श्रीअकबरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजयसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचल सहनकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महातपाबिरुदधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनानि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिश्रीस्थम्भतीर्थ-प्रथमचतुर्मासककरणवर्णनो नाम षोडशः सर्गः। Aho I Shrutgyanam Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः अथात्रावसरे श्रीमन्मण्डपं सर्वसम्पदाम् / पत्तनं मण्डपं नाम बाभात्युत्सवमण्डपम् // 1 // पातिसाहि-जहांगीर-सिलेमसाहिरुत्तमः / हिन्दू-तुरुष्कभूपालनायकस्तत्र शोभते // 2 // पातिसाहिसभासीना विद्वांसोऽन्ये जना अपि / दर्शनानां शुभां षण्णां धर्मवार्ती जगुमिथः॥३ तद्यथा-दर्शनेष्वेषु सर्वेषु जैन दर्शनमुत्तमम् / दानं तपः क्रियाक्रूरा शीलं श्रेयश्च यत्र यत् // 4 // तत्रापि साम्पतं भाति विजयदेवसद्गुरुः / कुर्वन्नुग्रं तपश्चोग्रां क्रियावत्पुङ्गवः क्रियाम् // 5 // उग्रत्वं तपसः श्रुत्वा क्रियायाश्च यतिव्रजे / पातिसाहिर्जहांगीरोऽन्यदेति प्रत्यपादयत् / / 6 / / इतीति किं तदाह-भो चन्दुः संघप ! कासि धर्माचार्यस्तवाधुना। विजयदेवसूरीन्द्रो नाऽमिलत्स कथं च नः // 7 // तदा चन्दरिति प्राह पातिसाहिं कृताञ्जलिः / अस्ति सम्पति सूरीन्द्रः स्थम्भतीर्थे गुरुर्मम // 8 // पातिसाहिरिति श्रुत्वा प्राह चन्दं प्रतीति च / विजयदेवसूरीन्द्रं समाह्वय ममाज्ञया // 9 // फुरमाणं तदालेख्य सुरेराह्रानसूचकम् / चन्दसंघपतेर्हस्ते पातिसाहिरदान्मुदा // 10 // अवदद्वदनाचेत्थं मदीयमहदीं वरम् / मुश्च सूरीश्वराहानहेतवे मुखहेतवे // 11 // युग्मम् // ततश्चन्दुः समाहूय तदा सदहदीं द्रुतम् / स्फुरन्मानं स्वहस्तेन तद्धस्ते च समापयत् // 12 // अचालीदहदीः शीघ्रं ततः सन्तुष्टमानसः / स्थम्भतीर्थपुरं मानोत् समामोत् स्वेहितानि च // प्रणम्य शिरसा सूरि स्फुरन्मानं समार्पयत् / वाचं वाचं गुरुः सङ्घ श्रावं श्रावं त्वमोदत // 14 // प्रीतिदानं तदा प्रादाजीवितार्हमनेकधा / संघः श्रीस्थम्भतीर्थस्य तुष्टः किं किं ददाति न // 15 विहारो नोचितः साधोश्चतुर्मासे कदापि हि / तथापि कारणे कार्य उक्तिरस्त्याहतीति च // (-जैनीत्युक्तिश्च वर्तते-इति वा पाठः) // 16 // शास्त्रार्थमवधायेति निवेद्य च महाजनान् / महालाभं च विज्ञाय श्रीमूरिरचलत्ततः // 17 // अर्जयनध्वनि श्रेयः प्रापयंश्चापरान् जनान् / व्यापारीव सुवस्त्वोघलाभं ग्रामादिकं प्रति // 28 // मण्डपं नगरं मूरिः पामोद्दिव्यमहोत्सवैः / आश्विनस्यावदातस्य दिवसे हि त्रयोदशे // 19 // ततश्चन्दुः प्रसन्नात्मा पातिसाहिं न्यवेदयत् / आगतो भवदाहृतो विजयदेवमूरिराट् // 20 // १४-तुरत्र पुनरर्थे / तेन गुरुः श्रीविजयदेवसूरिः वाचं वाचममोदत / तु पुनः सङ्घः श्रीस्तम्भतीर्थश्रावकगणः श्रावं श्रावं श्रुत्वा श्रुत्वा अमोदत / वाचं वाचं श्रावं श्रावमित्युभयत्र आभीक्ष्णे णमुल चेति णमुल्, नित्यवीप्सायां द्विरुक्तिश्च / १७-ततः श्रीस्तम्भतीर्थात् / Ahol Shrutgyanam Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ सप्तदशः पातिसाहिरिति श्रुत्वा स्वमतुष्यत्स्वचेतसि / अस्ति स्वस्ति गुरोः कार्य प्राक्षीदिति च तं प्रति // चन्दूश्चन्दसमं सौम्यात् इहाद्वय तमानय / पादौ गोष्ठी च धर्मस्य नमानि न विदधानि च // 22 आश्विनस्यावदातस्य चतुर्दशदिने शुभे / मध्याह्न तसबीखानास्थाने सरिवरोऽव्रजत् // 23 // पातिसाहिस्तदोत्थायाभ्यागत्य च पदत्रयम् / अभ्यवन्दत पादाब्जं श्रीसूरेः पुण्ययोगतः॥२४॥ तपस्तेजस्विनं सुरिं द्रष्ट्येति व्यस्मयत्तराम् / अहो धन्योऽयमीक्षः साक्षादेष तपस्तनुः // 25 // कथमीक्षकायोऽयं ज्योतीरूपं दधत्सदा / कथमीदृग् तपः कृत्वा धर्ता पुष्टिं तनौ तनुः // 26 // स्वागतादिकसद्वार्ता समपृच्छत्पुनः पुनः / सद्वान्धव इव स्नेहात्पातिसाहिर्जगद्गुरुः // 27 // धर्मगोष्ठी वरिष्ठात्मा गरिठेन गुणः सदा / श्रीमूरिणा सह श्रीमान् पातिसाहिव्यंधाद् रहः।। राज्याहारपरित्यागं साध्वाहारविधि पुनः / अपृच्छच्चापरं साधु साध्वाचारं स सद्गुरुम् // 29 राज्याहारपरित्यागविधानसुफलाफलम् / अवदच् छ्रीगुरुः सर्वमन्यदपि च नं प्रति // 30 // कृत्वैवं धर्मसद्गोष्ठी पातिसाहिरमोदत / श्रेयानेतस्य धर्मोऽयमवादीदिति चाद्भुतम् // 31 // इतीति किं तदाह-तपाबिरुद इत्यस्ति भवतां प्राक्तनस्सदा। सदातस्त्वं मदुक्तोऽसि जहांगीरमहातपाः // 32 // विजयदेवसूरीन्द्रमन्वन्ये सूरयो भुवि / तपस्विनोऽपि विद्वांसः क्रियावन्तश्च सर्वदा // 33 // युग्मम् // उत्सूत्रभाषिणो ये च तदीयाः प्रतिवादिनः / पातिशाहिःसमस्तांस्तान् सर्वथा हि निराकरोत् / / महातपा इति ख्यातः शब्दः सिद्ध उणादिषु। सार्थकस्त्वद्य विख्यातस्त्वय्येवान्यत्र नैव च // 35 // पातिसाहिरिति प्रेम्णा निवेद्य विरुदं मुखात् / चन्दसंघपति माह कुर्वित्यस्य महोत्सवम् / / तद्यथा-सन्ति सर्वाणि वाद्यानि गृहीत्वा तानि मेऽधुना। __ वादयन् स्थानतोऽस्मात्तं नायय त्वमुपाश्रयम् // 37 // निवेद्य करवाणीति सद्यश्चन्द्रुदारधीः / पातिसाहिं प्रसादालोचनं लोचनोत्सवम् / / 38 // पातिसाहेः समस्तानिसंगृह्यातोद्य सञ्चयम् | महाजनान् समाकार्य वर्योत्सवपुरस्सरम् // 39 // पुरस्तात्सद्वाक्षस्य पातिसाहेढाग्रहात् / सम्भूयानेकसल्लोकविलोकितमुखाम्बुजम् // 40 // विजयदेवसूरीन्द्रमण्डपोपाश्रयं मुदा / आनयन्नयतो नित्यं जितविद्वेषिदुर्जनम् // 41 // -चतुभिः कलापकम् / २१-तं प्रति श्रीचन्दुं प्रति / २२-रेफहीनश्चन्दशब्दश्चन्द्रपर्यायः उज्वलदत्तौगादौ / ३०-रात्र्याहारपरित्यागस्य सुफलं शोभनं लाभं स्वर्गादि, राज्याहारविधानस्य अफलं फलविरोधिनं लाभं पापं नरकगत्यादि / न फलं अफलं विरोधेऽत्र नञ् / ३३-अन्ये सूरयो भुवि विजयदेवसूरीन्द्रमनु हीना इत्यर्थः / एवं तपस्विनोऽपि हीनाः, विद्वांसो हीनाः, क्रियावन्तश्च होनाः / होने इति होने द्योत्ये अनु इत्यस्य कर्मप्रवचनीयसज्ञत्वात् विजय देवसूरन्द्रिामति द्वितीया। Ahol Shrutgyanam Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् पातिसाहि-जहांगीर-महातपा अयं गुरुः / विजयदेवसूरीन्द्र इति ख्यातोऽभवद्भुवि // 42 // श्रीजिनशासनस्यास्य तपागच्छस्य चाद्भुतः / अभवन् महिमा ज्यायान् श्रीपूज्यस्यापि च / / पातिसाहिरथापृच्छत् श्रीचन्दं संघनायकम् / तस्मिन् रात्रिंदिवे चैवं गोसलखानसंस्थितः / / एवमिति किं तदाह-भो चन्दूस्त्वमथातुष्य उत नो वेति मां बद। अतुष्यमिति सोऽवादीत् पातिसाहि प्रति स्फुटम् // 4 // पातिसाहे चिरं जीव धुर्य न्यायवतां सदा / रामराज इव न्यायं त्वं व्यधा विबुधाग्रणी // 46 // अहं कथमतुष्यं नो समतुष्यं विशेषतः। धर्मन्यायविधानाद्यत् सर्वस्तुष्यति सज्जनः॥४७॥ युग्मम। पातिसाहिरिति प्राह लोकभूपसमक्षकम् / सर्वेषां गुरुरेषोऽस्तु सर्वस्वामी च सर्वदा // 48 // समस्तपूर्वसूरीन्द्रपरम्पराक्रमाश्रितः / यथाहं पातिसाहीनां क्रमायातस्तथा ह्यसौ // 49 // वर्तते दीप्यते चोर्ध्या सर्वसरिशिरोमणिः / हिन्दू-तुरुष्कभूपालमौलिचूडामणिः सदा // 50 // अतः समस्ता भो लोका मन्यन्तामिममुत्तमम् / समस्तारिं समस्तानां मामिव प्रभुतोन्नतम् // पातिसाहिरभाषिष्ट वारं वारमिति स्फुटम् / मत्तोऽप्यधिकतेजस्वी यद्वर्ते वशवत्यहम् // 52 // कुपितः कोऽपि पापीयान् कोपतः कोपपूरितः / भविष्यति सदा दुःखी स एतस्मात्पराङ्मुखः / / धन्योऽयं कृतपुण्योऽयं तपस्तेजःसमुच्चयः / दर्शनेषूत्तमं चास्य दर्शनं सुखकारि यत् // 54 // एवं प्राशंसतानेकभूपलोकसभास्थितः / पातिसाहि-जहांगीर-शिलेमसाहिरहो गुरुम् // इत्थं प्राप महातपाविरुदकं श्रीपातिसाहेमुखाद् यः श्रीमद्विजयादिदेवसुगुरुः सोऽयं सदा दीप्यताम् / श्रीश्रीवल्लभपाठकेन कविना व्यावणितं सर्वतः श्रोतश्रोत्रसुखप्रदं सुविशदं सत्योक्तितः सर्वदा // 56 // इतिश्री श्रीबहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठकश्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातिशाहि श्रीअकबरप्रदत्तजगद्रुविरुधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कार पातिशाहिश्रीअकबरसभासंलब्धदुदिजयवाद भट्टारक श्रीविजसेनसूरीश्वरपट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुसारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्त महातपाविरुदधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिलब्धजहांगीरमहातपाविरुदवर्णनो नाम सप्तदशः सर्गः // 17 // ४८-सर्वेषां एतद्च्छीयसाधुश्रावकलोकानां सर्वस्वामी साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाजिनप्रासादोपाश्रयादिस्वामी सर्वदा एष विजयदेवसूरिरस्तु / Ahol Shrutgyanam Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः अथ यस्य सदानन्दात् कुर्वन्त्यादरतः सदा / स्वर्णरूप्यादिभिः पूजां नवाङ्गानां वरागिनः॥१ प्रतिग्राम प्रतिद्रङ्ग धर्मरङ्गेण धर्मिणः / नीलीरागा गुणग्रामान गायन्तो गुणरञ्जिताः॥२॥ युग्मम् / यदीयवचसा भव्याः कारयन्ति दिने दिने / बिम्बानि विविधान्यत्र स्वर्णरूप्यमयानि च // 3 // प्रासादान् विविधान नव्यान् जीर्णोद्धारांश्च सुन्दरान् / यदीयवचसा श्राद्धाः कारयन्ति दिने दिने॥ तद्वर्ष नास्ति यस्मिन्न प्रतिष्ठास्यात्कदाचन / करोति चाकरोत्कर्ता प्रतिष्टां च स सद्गुरुः / / 5 / / याः प्रतिष्ठाः कृताः पूर्व द्रङ्गशत्रुञ्जयादिषु / नालभै सर्वथा तासां संख्यां यावदियत् क्षणम् // 3 // शत्रुअयादितीर्थानां यात्रां कर्तुं यदुक्तितः / सद्भुगन् कुर्वन्त्यकुर्वश्च करिश्चोत्सवाजनाः // 7 // साधवः श्रावकाश्चान्ये सद्धर्म साध्नुयुः सदा / उपाश्रयानिति श्रेयोयुद्धया श्राद्धाश्च कुर्वते // 8 // अकुर्वैश्च करिष्यन्ति यद्वचः प्रेरिता भृशम् / व्ययित्वा प्रचुरं द्रव्यं सत्सुधर्मसभा इव // 9 // सत्साधर्मिकवात्सल्यं श्रावका भावभासुराः / सर्वं कुर्वन्ति सर्वत्र यत्पवित्रवचोधुताः // 10 // व्याख्यानागमनादौ च यस्यानेहस्यहनिशम् / प्रभावनां प्रकुर्वन्ति रूप्याद्यैः श्रावका मुदा // 11 // प्रक्षिप्य मोदकाद्येषु छन्नं रूप्यादिकं धनम् / ददति श्रावकादिभ्यः श्रावका यदृषश्रुतेः // 12 // श्रीमत्पर्युषणापर्वदिवसेषु नवस्वपि / व्याख्यानेषु च कुर्वन्ति यन्नवाडाचनं जनाः // 13 // चौरादिबन्दिलोकानां छोटनं कुर्वते नृपाः। विना स्वं वचसा यस्य श्रावकान्यजनस्य च // 14 // अन्यद्रव्यसुवस्त्रादिगुप्तदानं सदा जनाः। ददति श्रावकादिभ्यो यस्य शस्योपदेशतः // 15 // जन्तुमात्रदयां लोकास्तुरुष्का दुष्टचेतसः / पालयन्ति यदीयेन वचसा शुद्धचेतसा // 16 // कथनीयं किमन्येषां हिन्दभूमिभुजां खलु / सदा धरित्र्यां सर्वत्र जन्तुमात्रसुखपदाम् // 17 // ३-चकारात् पित्तलस्फटिकपाषाणादिमयानि | ६-क्षणशब्दः कालविशेषस्य पर्यायोऽपि सामान्यविशेषयोरभेदोपचाराद् अत्र कालपर्यायो व्याख्येयः / अथवा क्षणः अवसरः / यदनेकार्थ:-क्षणः कालविशेष स्यात्, पर्वण्यवसरे महें इति / इयांश्चासौ क्षणश्च इयत्क्षणस्तं इयरक्षणं यावत् षोडशशतकोननवतितमव यावद् इत्यर्थः। ७-जनाः श्रावकलोका इत्यर्थः / ९-कथंभूतान उपाश्रयान् / सत्सुधर्मसभा इव सत्सुधर्मशाला इव इत्यर्थः / अशाला चेति सभाशब्दस्य अत्र शालार्थत्वात्तत्पुरुषेन क्लीवलिङ्गता / लिङ्गभेदं तु मेनिरे इति वचनात् भिन्नलिङ्गोपमापि न दोषाय / १४-श्रावकाश्च अन्यजनाश्च श्रावकान्यजनमिति समाहारो द्वन्द्वस्तस्य / Ahol Shrutgyanam Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् तपः मूरिजंगचन्द्रो वर्षाणि द्वादशाकरोत् / तत्तपोऽवधिवर्षाणि लुप्त्वा यस्तमुतोऽजयत् // 18 // तपसां संविधानेन मर्यादावजितेन हि / न कृतेन पुरा कैश्चिन्महद्भिः पूर्वसूरिभिः // 19 // तपसा क्रियया चोग्रं प्रत्यक्ष्यं वीक्ष्य सद्गुरुम् / विस्मरन्ति धनागारं श्रुतं दृष्टं न कहिंचित् / / करोत्याशातनामस्य यः पुमान् कोऽपि पापधीः / लभते स कलावेव सकलाङ्गेषु वेदनाम् // 21 // सेवन्ते ये नरा नित्यं सत्येनैव च चेतसा / साम्राज्यादि लभन्ते ते यं गुरु सुरसन्निभम् // 22 // यादृशोऽतिशयोऽस्यास्ति नान्येषां तादृशः कलौ। सेवाविधायिनां पुंसां सौख्यदो दुःखनाशकः॥ पराङ्मुखानां लोकानां पराङ्मुखमुखपदः / दुर्मुखानां सदा मातमुखानामिव दुःखदः॥२४॥ यस्य प्रभावतो बद्धमुखा वाक्पतयोऽद्भताः / ये च मातृमुखास्ते च समुखाः स्युः सुसेवकाः // 25 दरिद्रा अदरिदेन्द्रा रोगिणोऽरोगिणोऽपि च / धनिनो धनिनामीशा नीरोगा भोगभोजिनः // यस्यास्यैकावतारित्वं लघुकर्मत्वतः किल / सम्भावयन्ति सर्वेऽपि कवयो भविका अपि // 27 // एष देवभवादेवावतीर्ण इति निर्णयात् / दृढसंहननाङ्गत्वात्तप ईंग करोति यत् // 28 // नित्यं पद्मासनादीनि यः करोत्यासनानि च। चतुरः प्रहरान यावद् ध्यानं ध्यायति च ध्रुवम् // इत्थं लसच्छ्री विजयादिदेवसूरीश्वरश्रीसुकृतोपदेशान् / / शृण्वन्ति कुर्वन्ति च भव्यलोकाः श्रीवल्लभः पाठक इत्यपाठीत् // 30 // इतिश्री श्रीबृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीयपाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराज पातिशाहि श्रीअकब्बरप्रदत्तजगद्गुरुबिरुदधारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालंकार पातिशाहि श्रीअकब्धरसभासंलब्धदुर्वादिजयवाद भट्टारक श्रीविजयसेन सूरीश्वरपट्टपूर्वाचलसहस्रकरानुकारि पातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्तमहातपाविरुधारि श्रीविजयदेव. सूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनान्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसूरिधर्मोपदेशश्रवणाङ्गीकरणवर्णनो नाम अष्टादशः सर्गः // 18 // २५-२६-ये सुसेवका अबद्धमुखाः दुर्मुखाः लबाड इति भाषाप्रसिद्धास्ते यस्य श्रीविजयदेवसरेः प्रभावतो अद्भुताः वाक्पतयः प्रधानवक्तारः स्युः। दुर्मुखे मुखराबद्धमुखौ इति / वागीशो वाक्पती इत्युभयं हैमकोषः। चः पुनः। ये सुसेवकाः मातृमुखा मूर्खाः ते च समुखाः वाचोयुक्तिपटवः स्युः। अथ बालिशः मूढो मन्दो यथाजातो बालो मातृमुखो जडः इति / वाग्ग्मी वाचो युक्तिपटुः प्रवाक् संमुखो वावदूकः-इत्युभयं हैमकोषः / समुखदन्त्याद्यस्वरादिरेव / ये इति पदं, ते इति पदं, सुसेवका इति च पदं अग्रिमेऽपि श्लोके योज्यम् / यथा ये सुसेवकाः दरिद्राः ते यस्य प्रभावत अदरि. देन्द्राः धनिनः स्युः। ये सुसेवकाः रोगिणस्ते यस्य प्रभावतो अरोगिणो नीरोगाः स्युः / ये सुसेवकाः धनिनस्ते यस्य प्रभावतो धनिनामीशाः धनीश्वराः स्युः / ये सुसेवका नीरोगास्ते च यस्य प्रभावतः भोगभोजिनः स्युः / भोगान भुञ्जन्तीत्येवं शीलाः भोगभोजिनः / युग्म-व्याख्यानम् / -- MKARACHNA- - - Ahol Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः सर्गः अथ श्रीकल्पशाखीव शाखाभिरभिशाखिकाः। संतुष्टोऽयं समृनोतु विद्यमानाभिरन्वहम् // (-शाखनाज्जगतीं जाग्रजगज्जगदधीश्वरः-इति वा पाठः) सर्वान् विजयते शत्रून् अस्त्यस्याविजयोऽथवा / विजया प्रथमा शाखा ज्यायां विजयते सदा॥ सुन्दरा सद्गुणैः सर्वैस्तपःप्रभृतिभिर्भृशम् / शोणादिगणपाठात् स्यात् सुन्दरीत्यपि डीपि च // निरतीचारचारित्रतपोविद्यादिभिर्गुणः / वल्लभा निर्मला चैव हंसा हंस इवोदिता // 4 // मलते सर्वशास्त्राणां परमार्थ विशेषतः / जगत्यां च यशः शस्यमित्युक्ता विमला बुधैः // 5 // चन्द्रवत्सर्वलोकानां चन्द्रोक्तालादनात्वतः / सदा कुशलसंयोगात् कुशला कुशलप्रदा // यस्यामुत्पन्नसाधुभ्योऽर्हद्धर्मों रोचते सदा। सच्छास्त्राध्ययनं चाग्रं रुचिस्तेनोच्यते बुधैः // 7 // सद्विद्यालक्षणां लक्ष्मी गृणातीत्यचि सागरा। सौभाग्यं सर्वदास्त्यस्यां सौभाग्येति बुधैः स्मृता // 8 // सर्वेषां हर्षहेतुत्वात् हर्षोऽस्त्यस्यां च शाश्वतम् / अस्त्यर्थप्रत्ययाकारयोगाद् हर्षी निगद्यते।। कलाभिः सहिता नित्यं सकलेत्युच्यते बुधैः / सर्वदोदयसम्बन्धादुदयेत्युद्यते जनैः // 10 // आनन्दति सदानन्दैः सर्वविद्याविनोदतः / आनन्देति समाख्याता सारासारप्रभावतः // 11 // १-अयं श्रीविजयदेवमूरिः श्रीकल्पशाखी शास्त्राभिरन्वहं समृनोतु वर्धतामित्याशीर्वादः। कथंभूतः अयं ? शाखिकाः अभिशाखाः, अभिलक्षीकृत्य संतुष्टः, आभिरभागे इति लक्षणेऽर्थे अभीत्यव्ययस्य योगे शाखिका इत्यत्र द्वितीयाबहुवचनम्, अव्ययीभावसमासाभावात् / अव्ययीभाव. समासे तु लक्षणेनाभि प्रती आभिमुख्ये इति अव्ययीभावे, अव्ययीभावश्चेति अव्ययीभावस्य नपुंसकत्वे, नपुंसकत्वाद् हस्वत्वे अभिशाखिकमिति स्यात् / शाखा: अभि लक्षीकृत्येत्यर्थः / शाखा एव शाखिकाः। सर्वशब्देभ्यः स्वार्थे कन्निति कनि, केण इति इस्त्रे, प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्यातः इदाप्यसुप इति अकारस्य इकारः / एवं कल्पशाखि विशेषणमपि व्याख्येयम् / शाखताजगी जाग्रजगजगदधीश्वरः-इति पाठे जगदीश्वरः श्रीविजयदेवमूरिः शाखाभिः जगल्लोकं शाखतात् व्याप्नातु / क: को इव श्रीकल्पशाखीव, कां जगती, यथा कलशाखी जगतीं व्याप्नोति तथा श्रीविजयदेवमूरिरपि / ज्यायां पृथिव्यां विजयोऽस्तीति प्रथमा विजया शाखा / ३-सुन्दरा सुन्दरीति अस्त्यर्थप्रत्ययाऽकारयोगात् सुन्दरा, शोणादिगणपाठात् ङीपि सुन्दरी / ९-अस्त्यर्थे प्रत्ययः अस्त्यर्थप्रत्ययः स चासौ अकारश्चेति अस्त्यर्थप्रत्ययाकारस्तस्य योगः सम्बन्धस्तस्मात् / १०-कलाश्चातुर्यादयस्ताभिः। Aho I Shrutgyanam Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् इत्यादिका महीयस्य शाखाः शाखन्ति सर्वदा / यत्तपागच्छगच्छस्य विख्याता जगतीतले॥१२ श्रीपण्डितपदाद्यम्बुधारान्दैरिमा गुरो / श्रीतपाकल्पसक्षमूलं सिञ्चस्त्वमेधय // 13 // मालाकारानिव श्राद्धांस्तत्मपालनतत्परान् / मरिमन्त्रप्रभावाशीविय सद्गुरो // 14 // एधतां श्रीतपागच्छो दीप्यतां सवितेव च / तेजसा सरिमन्त्रस्य त्वदीयस्य च सर्वदा // 15 // महीयान् श्रीतपागच्छः सर्वगच्छेषु सर्वदा / सर्वदा सर्वदाता च पर्वतात्सर्ववाञ्छितम् // 16 // राजान इव विद्यन्ते श्रावका यत्र सर्वदा / नन्दताच्छ्रीतपागच्छः सततं सततक्षणः // 17 // यत्र त्वमीदृशः सूरिर्वतसे गच्छनायकः / स्तूयसे चेति विद्वद्भिः पातिसाह्यादिभिनृपः // 18 // इतीति किं तदाहउल्लसन्ति भुवि व्योनि सूरयस्तारका इव / एकैकतो महीयांसो जाग्रज्योतिष उद्गताः // 19 // विच्छायीकृत्य तान् सर्वान् राजते सवितेव यः। विजयदेवसूरीन्द्रस्तपागच्छे स वर्तते // 20 // भूरयः सूरयः सन्तो भूतलेऽभ्युदिता दिवि ! यत्प्रतापरविध्वस्ता न प्रेक्ष्यन्ते ग्रहा इव // 21 // यत्राय दीप्यते सूरिः मूरयस्तत्र नापरे / यत्र सूर्यस्सदोदेति तत्र स्युस्तारकाः कथम् // 22 // (तत्र किं चन्द्रतारकाः' इति वा पाठः / ) त्वं सरिर्वासरो यत्र न निट् तत्रान्यसूरयः / सदोद्योतः सदोबोधः पदार्थानां नवो नवः // 23 // प्रातः सूरियंदा यत्र प्ररूपयति सदृषम् / प्रत्यक्षोऽयं महादेव इति माहुस्तदा जनाः // 24 // व्याख्यातिरूपमुत्कर्षात् शास्त्रार्थान् मरिशेखरः।। - व्याख्यान्तकि वरव्याख्यां व्याख्यातारोऽन्यसूरयः // 25 // शास्त्रार्थीस्तन्मुखमोक्तान ये शृण्वन्तितरां नराः / ब्रुवन्तिरूपमेवं ते ब्रुवन्तकि परे बुधाः // 26 १६-पर्व पूरणे भ्वादिः परस्मैपदी। २४-सूरियंदा यत्र प्रासः सदृषं प्रधानं पुण्यं दानादिचतुर्विधं प्ररूपयति कथयति तदा जनाः अयं प्रत्यक्षो महादेव इति प्राहुः कथयन्ति / महादेवो हि सवृष प्रधानवृषभं प्रकृष्ट. रूपं करोतीत्यर्थः / तत्करोति तदाचष्टे इति चुरादित्वात् सुबंताणिच् ; अथवा सवृषं विद्यमानवृषभं प्ररूपयति प्रकृष्टरूपं पश्यति / अत्र दर्शनार्थे णिच् / २५-सूरिशेखरः श्रीविजयदेवसूरिः सूरिशिरोवतंसः शास्त्रार्थान् व्याकरणसाहित्यालकारच्छन्दस्तर्कप्रमुखानेकशास्त्रार्थान् उत्कर्षात् व्याख्यातिरूपं प्रशस्तं व्याकरोतीत्यर्थः। व्याख्यातारोऽन्यसूरयः वरव्याख्या शास्त्राणां प्रधानव्याख्यानं व्याख्यान्तकि कुत्सितं व्याकुर्वन्तीत्यर्थः / २६-ये नरास्तन्मुखप्रोक्तान श्रीविजयदेवमूरिमुखप्ररूपितान शास्त्रार्थान् शृण्वन्तितरा अतिशयेन शण्वन्ति, ते नरा एवं अवन्तिरूपं प्रशस्तं कथयन्ति / एवमिति किं तदाह-परेऽन्ये बुधाः शास्त्रार्थान् ब्रुवन्तकि कुत्सितं कथयन्तीत्यर्थः / Aho I Shrutgyanam Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित एकोनविंशः अतिशेषेतरां सूरीन् विद्यातेजोगुणादिभिः / राजन्तकि महान्तोऽपि सूरयोऽन्ये त्वदग्रतः // 27 गुणैरित्यादिभी रम्यैर्गुरुरत्नैरिवार्णवः / विजयदेवसूरीन्द्रः साक्षादर्हन्निवावति // 28 // सत्यवादी सदावादी नोन्मादी न च दुर्मदी / न प्रमादी मृषावादी न वादे प्रतिवादिभिः // 29 प्रतिवादी जनोऽवादीद् यशोवादीति यद्यशः स्याद्वादवादमानन्दी वावदीति स सद्गुरुः||३० यशोभग्योऽतिसौभाग्याज्जगज्जनयशस्विषु / वेशोभग्योऽसि सूरे त्वं निखिलेषु बलिष्वपि // 31 अयं सरिर्जगत्राता पाता दुर्गतिपाततः / प्रमाता सत्पदार्थानां दाता चार्थान् मनीषितान् // 32 सरिः सरिरयं यत्र तत्र न पटु पटुपेटकम् / यत्र तिष्ठेद् हरिस्तत्र स्यात्कि करटिपेटकम् // 33 // विरटत्यारटत्येव पटुकूटं कटूत्कटम् / दृष्ट्वा सद्गुरुं सिंह कूटं करटिनामिव // 34 // निराचकार निस्साराननगारांश्चिराय यः / उग्राचारक्रियाकारः सोऽभूदाचारतत्परः // 35 // प्रामुयात् कः खगोऽनन्तं मेरुमुत्पाटयेच कः / कस्तरेत्तारकः सिन्धुं सरे कः स्तौति ते गुणान् / / सहस्रद्वितयेनापि जिह्वानां नागनायकः / स्फुटान् स्फटान् सहस्रं च धरन् शिरसि सन्ततम् // यदीयानि प्रशस्यानि विशदानि यशांसि हि / शेषो वक्तुं न शक्नोति को वराकोऽहमुत्सुकः।। २७-भो श्रीविजयदेवसूरे ! त्वं विद्यातेजोगुणादिभिः सूरीन् अर्थात् पूर्वभट्टारकान् अतिशेषेतरां अतिशयेन अतिशयं प्रापयासि / अत एव त्वदग्रतो महान्तोऽपन्ये सूरयो राजन्तकि कुत्सितं शोभन्त इत्यर्थः / व्याख्यातिरूपं ब्रुवन्तिरूपमित्युभयत्र प्रशंसायां रूपप् इति तिङो. नुवृत्तस्तिङन्तादपि रूपपप्रत्ययः / शृण्वन्तितरां अतिशेषेतराामित्युभयत्र किमेतिङव्ययेऽतितरप्तमपौ घ इति सूत्रेण घसंज्ञकस्य तरप् प्रत्ययस्य आमुः / व्याख्यान्ताक अवन्तिकि राजन्ताक इति त्रिषु सुबन्तस्य तितोऽनुवृत्तः कुत्सितेऽर्थेऽकच् प्रत्ययः / ३०-स सद्गुरुः श्रीविजयदेवसूरिः स्याद्वादवादं वावदीति आतिशयेन वदति / स कः ? यद्यशः प्रतिवादी जन इति अवादीत् अकथयत् / कथं० प्रतिवादीजनः यशोवादी। इतीति किं ? किं भूतः सद्गुरुः सत्यवादी / पुनः कथं० सदावादी षड् दर्शनानां मध्ये मुख्यवादि. त्वात् / शेष स्पष्टं / पुनः कथं ? प्रतिवादिभिरिह सहयोगं विनापि तृतीया, वृद्धो यूनेति निर्देशात् / ततोऽयमर्थः-प्रतिवादिभिः सह नैयायिकादिपञ्चदर्शनसम्बन्धिभिः सार्ध वादे न प्रमादी न प्रमादवान् न मृषावादी न कूटभाषकः / ३१-यशः माहात्म्यं सत्त्वं श्रीः ज्ञान प्रतापः कीर्तिश्चेति हैमोणादिः, श्रीकामप्रयत्नगाहात्म्यवीर्ययशसां भगशब्दः / यशोभगोऽस्य विद्यते यशोभग्यः, वेश इति बलमुच्यते वेशो बलं भगो विद्यतेऽस्य वेशोभग्यः / अत्र उभयत्र वेशो यश आदेर्भगाद्यल् इति मत्वर्थे यल् प्रत्ययः लकारः स्वरार्थः / Aho I Shrutgyanam Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् 115 ईक्षमाणः सहस्राक्षः सहस्राक्षिभिरन्वहम् ! चेन्न तृप्यति यद्वक्त्रं कथं तर्हि जगज्जनः // 39 // अवतारस्त्वदीयोऽयं संसारापारपारदः / अवतार इव श्रेयान् श्रेयस्कारी च सद्गुरो // 40 // अन्येषां सद्गुणान् सम्यक् पश्यतां त्वद्गुणाननु / विश्रामस्थानकं सूरे कवीनां वचसामसि।। ईश्वरीकरणं सत्यं द्योतते त्वयि सम्पति / सर्वीय इव सर्वीयसर्वसर्वगुणाग्रणीः // 42 // चिकीषसि रणं मूरे यद्यमा प्रतिवादिभिः / भजन्ते विकृतं तर्हि तमहो प्रतिवादिनः॥४३॥ चपूर्व प्रतिबुद्धय द्राक् तपूर्व भववारिधेः / मपूर्वं तपसा सिद्धयै शपूर्व ते सुखाप्तये // 44 // त्वं रणं कुरुषे सूरे यदा क्षणमयः क्षणे / श्रुत्वा तं च तदा तं च दधते विविधं बुधाः // 45 // कपूर्व सर्वदायत्तं धपूर्व संयमश्रियः। भपूर्व तपसः शश्वत् वपूर्व शिवयोषितः // 46 // युग्गम्। ४१-किं कुर्वतां कवीनां अन्येषां भट्टारकादीनां सद्गुणान् अनु त्वद्गुणान् अनुत्वद्गुणेभ्यो हीनान पश्यता, अन्यसुरीणां समीचीनान वयं शौयौदार्यगाम्भीर्यादीन गुणान त्वद्गणेभ्यो हीनान् पश्यन्तः कवयो न स्तुवन्तीति कविवचनानां त्वं विश्रामस्थानकं वर्तसे इत्यर्थः / त्वद्गणान् अनु इत्यत्र होने इति सूत्रेण होनेऽर्थे अनुः कर्मप्रवचनीयः / कर्मप्रवचनीयत्वात् होनार्थस्य अनोरव्ययस्य योगे त्वद्गुणान् इति द्वितीया, अनुना सह समासाभावात् पृथक् पदं च / ४२-ईश्वरीकरणं अनीश्वरस्य पुरुषस्य ईश्वरस्य करणं सत्यं त्वयि संप्रति योतते / कस्मिन्निव सर्वीय इव तीर्थक्कर इव इत्यर्थः / सर्वीय इत्यपि जिने इत्यभिधानकोषात् / सर्वीय इव सर्वेषु सर्वैर्गुणैरप्रामुख्यस्तत्सम्बोधनं सर्वीय सर्वसर्वगुणाग्रणीः / ४४-हे सरे यदि प्रतिवादिभिरमा सह विकृतं विकारापन्नं प्रतिवादिप्रतिपादित प्रतीपोत्तरदानात रणं संग्राम वादलक्षणं चिकीर्षसि कर्तुमिच्छसि / तर्हि अहो इति आश्चर्य प्रतिवादिनः तं रणं अविकृतं विकाररहितं भजन्ते सेवन्ते / कथंभूतं रंणं चपूर्व चरणं चारित्रं / किं कृत्वा ? प्राक् प्रतिबुद्धय / पुनः कथंभूतं रणं तपूर्व तरणमित्यर्थः / केन ? तपसा / किमर्थ ? सिद्धयै / पुनः कथंभूतं ? शपूर्व शरणमित्यर्थः / कस्य ? ते तव / किमर्थ ? सुखाप्तये सुखलब्धये / १६-व्याख्या:-हे सूरे त्वं यदा क्षणे व्याख्यानादि सम्बन्धिनि कालविशेषे रणं शब्द कुरुषे तदा बुधाः पण्डिताः प्रतिवादिनः तं रणं श्रुत्वा, चः पुनः, तं रणं विविधं बहुप्रकारं दधते धरन्ति / कथंभूतः त्वं क्षणमयः उत्सवप्रधानः प्रचुरोत्सवो वा / कथंभूतं रणं ? कपूर्व करणमिन्द्रियमित्यर्थः / जातावेकवचनं, पञ्चेन्द्रियाणि अथवा एकं जिह्वेन्द्रियमित्यर्थः / पुनः कथं० ? करणं सर्वदा सर्वकालं आयत्तं वशं निरुत्तरीकरणात् मौनं कुर्वन्तीत्यर्थः / पुनः कथं० रणं ? धपूर्व धरणं संग्रहं / कस्याः संयमाश्रयः / पुनः कथं० रणं ? भपूर्व भरणं पोषणं / कस्य ? तपसः / शश्वत्सदा / पुनः कथं० रणं ? वपूर्व वरणं / कस्याः ? शिवयोषितः / Aho I Shrutgyanam Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीषल्लभोपाध्यायविरचितं [पकोनौषशः सुधास्यन्तो विधास्यन्त इव शश्वन्महाजनाः / पीयन्ते गोपयःश्रेयाश्रद्धया यद्वचःसुधाम् // पयसस्यन्ति यस्यैते जना वृजिनवजिताः / वचः शुचि शुचिश्रेयोमयं ज्ञानमयं प्रियम् // 48 सर्वदा ये सुखस्यन्ति दुःखस्यन्ति कदापि न / ऋद्धिस्यन्ति वुधा ये च साम्राज्यस्यन्ति चावनौ। स्तुवन्ति त्वांत एवैव श्रयन्ते च शुभाश्रयम् / त्वदीयं चरणाम्भोज भट्टारकशिरोमणे // 50 // युग्मम् सूरयोऽन्ये महीयांसो गरीयांसो यशस्विनः / स्वस्थत्वं स्वस्वगच्छेषु यथा पुण्यं तु विभ्रति // विभर्ति चक्रिवर्तित्वं तेषु यो जिनशासने / दिव्यं च दानशौण्डत्वमिति तं स्तौति को न विद् / / वर्यैश्वर्यसुशौण्डीर्यशौर्यदार्यादिभिर्गुणैः / सर्वेभ्योऽप्यधिकैः किन्तु धात्रैकत्र धृतैस्त्वयि // 53 // ___-त्रिभिर्विशेषकम् / ४७-व्याख्या:-महाजनाः शश्वत् यद्वचःसुधां श्रीविजयदेवसूरिवचनामृतं पीयन्ते पिबन्ति / पीङ् च पाने चतुर्थस्वरान्तो दिवादिरात्मनेपदी / कथा गोपयःश्रेय:श्रद्धया-नीरोगनिर्मलसर्वदोषापहारिश्रेयस्कारिगव्यदुग्धसमानधर्मश्रद्धया / किं कुर्वन्तः 1 सुधास्यन्त: आत्मनोऽमृतं वाञ्छन्तः / कथंभूता उत्प्रेक्ष्यन्ते-विधास्यन्त इव आत्मन ऋद्धिं वाञ्छन्त इव / यथा ऋद्धिलालसाः आत्मन ऋद्धिमिच्छन्ति तथा महाजनाः आत्मनः सुधामिच्छन्तीत्यर्थः / विधर्द्धिमूल्ययोरिति हैमानेकार्थः / सुधास्यन्तः विधास्यन्त इत्युभयत्र सर्वप्रातिपदिकानां क्यचि / लालसायां सुक असुक् वागम इत्यपरे-इत्युक्तत्वालालसायां क्याच सुगागमे च शतृप्रत्ययः / ४८-एते जना यस्य श्री विजयदेवसूरेः शुचि पवित्रं वचः कर्मतापन्नं पयसस्यन्ति आत्मदुग्धमिच्छन्ति / अस्माकं श्रीविजयदेवसूरिप्ररूपितं वचन दुग्धमित्यर्थः / शेषं स्पष्टं / पयसस्यन्त्यत्र सर्वप्रातिपदिकानां क्यचि, लालसायां असुगागमः / ५०-हे भट्टारकशिरोमणे हे श्रीविजयदेवसूरे त्वां त एव एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्तुवन्ति / चः पुनः त एव त्वदीयं चरणांभोज अयन्ते सेवन्ते, ये सर्वदा सुखस्यन्ति आत्मनः सुखमिच्छन्ति / कदापि न दुःखस्यन्ति आत्मनो दुःखं न वाञ्छन्ति / चः पुनः ये बुधाः ऋद्धिस्यन्ति आत्मनः ऋद्धिं वाञ्छन्तिः / चः पुन: येऽवनौ पृथिव्यां साम्राज्यस्यन्ति आत्मनः साम्राज्य वाञ्छन्ति / सुखस्यन्ति दुःखस्यन्ति ऋद्धिस्यन्ति साम्राज्यस्यन्ति इत्येतेषु चतुर्वपि सर्वप्रातिप्रदिकानां क्याचे, लालसायां सुगागमः / ५३-विट् पुरुषः अथवा विद, विद् ज्ञाने वेत्तीति विद् पण्डित इत्यर्थः / सुशौडीर्यमिति अद्भुतसाहसिकत्वं / अत्र शाण्डीर्यशब्दः तालव्यचतुर्दशस्वरादिः / एकत्रेत्येकस्मिन् स्वयि धात्रा वेधसा धृतैरिति / Aho I Shrutgyanam Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 सर्गः] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् अथ श्रीविजयाद्देवो देवसूरिरिव श्रिया / लोकैरनेकैरानन्दात स्तूयमान इति स्फुटम् // 54 // विजहार बहून देशान् प्राय॑मानः पदे पदे / वसुदेव इवाभङ्ग सौभाग्यान्नूतनोऽभ्यगात् // 55 // प्रथमं सर्वदेशश्रीमण्डनेऽवन्तिमण्डले / तत्र मण्डपदुर्गादिदुर्गे दुर्गेश्वरोपमः // 56 // सौराष्ट्रराष्ट्रसम्बन्धिश्रीमत्संघाग्रहग्रहात् / श्रीद्वीपबन्दिरादौ च श्रीनवानगरेऽपि च // 17 // विचित्रगूर्जरत्रासु श्रीपत्तनपुरादिषु / कुर्वश्चार्वीश्चतुर्मासीरसीममहिमामयीः // 58 // इलादुर्गे जन्मभूमौ सावल्यां चान्तराऽन्तरा। सृजन्माहात्म्यतः श्रेष्ठां जेष्ठस्थितिचतुष्टयीम् // 59 ५४-अथेति अधिकारान्तरे / श्रियोपलक्षितो विजयाद्विजयशब्दात् पुरतो देवशब्दो योज्यते तेन श्रीविजय देवसूारीरित्यर्थः। किं० श्रिया मत्या गिरा वागचातुर्या वा देवसूरिज्रहस्पतिरिव राजमान इति अध्याहार्य / अत एवानेकैः लोकैः स्तूयमानः / कथमित्युक्तप्रकारेणेति / ६५-एवंविधः सन् किं कृतवानित्याह-बहून धनान् देशाम् गुरुर्षिजहार पावितवान् / किं क्रियमाणः ? पदे पदे प्रार्थ्यमान इति बह्वादरसूचकविशेषणं न तु स्वेच्छया अत एवाभङ्गसौभाग्यतः किं नूतनोऽपरो वसुदेवोऽयं अभ्यागात् प्राप्तवान् / यतोऽयं नाराणां नारीणां च वल्लभ इत्यभङ्गसौभाग्यात् नूतनत्वमसूचि / यतो वसुदेवस्य तु केवलं स्त्रीवल्लभत्वादिति / युग्मव्याख्या / ५६-अथ याम् देशान् विजहार तन्नामान्याह-दुर्गेश्वरी महादेवस्तदुपमस्तत्तुल्यो गुरुर्गच्छश्वर्येणेति तात्पर्यम् / तथा अवन्तिमण्डले मालवदेशे / मालवाः स्युरवन्तय इति हैमनामकोशः / शेषं सुगमम् / ५७-सौराष्ट्रराष्ट्रसम्बन्धी सुरा,देशीयो यः श्रीमान् सङ्घस्तस्याग्रहस्य हठस्त्र प्रहात् ग्रहणात् श्रीद्वीपबन्दिरादौ, आदिशब्दात् उन्नतदुर्ग-श्रीगिरिनारयात्रादिपुण्यकृत्यं कुर्वन् / श्रीद्वी. पबन्दिरे चतुर्मासकत्रयमन्तरान्तरा चक्रे / तत्र तन्माहात्म्यात्प्रथमज्येष्ठस्थितावेव फरंगीपातिशाहि. नापि कदाप्यभूतपूर्वा व्याख्यानकरणाज्ञा दत्ता / सा त्वद्यापि सर्वेषां चमत्कृतिं कुर्वति प्रवर्तते घेति / शेष नवीननगरगमनादिसुबोधम् / ५८-विचित्रा विविधग्रामनगरपुरादिसंकीर्णा या गूर्जरत्रास्तासु, गूर्जरदेशेषु इति यावत; श्रीपत्तनादिनगरेषु / अत्र प्रथम पत्तनग्रहणं प्रथमचतुर्मासकस्य तत्र विधानात् / आदि शब्दादन्येषु स्तंभतीर्थ-राजनगर-राजधन्यपुरादिषु चार्वीः रम्याः चतुर्मासीः / किं असीममहिमामयीः निस्सीममाहात्म्यप्रचुराः / अत्र प्राचुर्यार्थे मयट्प्रत्ययः / तथा च महिमाशब्दः आकारान्तोऽप्यस्तीति / शेष कंठय। ५९-ज्येष्ठस्थितयश्चतुर्मास्यः तासां चतुष्टयी किं माहात्म्यतो गुरुप्रभावात् श्रेष्ठां सृजन कुर्वन् / शेष सुबोधम् / Ahol Shrutgyanam Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [एकोनविंशः आरासणेऽर्बुदाद्रौ च सीरोहीनगरादिषु / स्वर्णशैलीयदेशे च श्रीजाबालपुरादिषु // 6 // मरुस्थल्यां मेडतादौ कोट्टे घंघाणिकापुरे / ओसवालोत्पत्तिभूमावोकेशनगरादिके // 6 // सपादलक्षदेशे च श्रीमन्नागपुराङ्किते / इत्यादिद्रङ्गन्देशेषु व्यहार्षीद् वृषवद्गुरुः // 62 // -सप्तभिः कुलकम् / इतो मरुस्थलीमध्ये सदा स्वास्थ्यनिबन्धनम् / श्रीमत्सुरेरवस्थानमेवाकर्ण्य स्वर्णयोः // 63 // श्रीमेदपाटदेशेशश्रीकर्णनृपस्नुना। श्रीजगत्सिहसंज्ञेन श्रीराणाकेन चिन्तितम् // 64 // युग्मम्। अहो मरुस्थले देशे यन्महिम्ना महीयसा / अष्टाब्दावधि यन्नष्टा दोषा दुर्भिक्षकादयः // 65 // पश्यामि यदि तस्यास्यं सूरेः सुकृतशेवधेः / मरौ दुष्कालवन्मेदपाटे पापं प्रयाति नः // 66 // ध्यात्वेति तेन धात्रीणां पत्याऽत्यन्तादराद् द्रुतम् / प्रेषिता बहवो लेखाः मरेराकारणाय च // 67 तदा पुरे नागपुरे श्रीगुरुर्विहरन्नभूत् / लेखहारकहस्तेन लेखास्तत्रागता द्रुतम् // 68 // ६०-आरासणे स्वप्रतिष्ठितमूलनायकाईद्विम्बानां, चकारात् अर्बुदाविपि महता सङ्घन सह यात्रां कुर्वन् / सीरोहीनगरादिष्वपि आदिशब्दाद बम्भणवाडि-वसन्तपुराधनकतीर्थयात्रां कुर्वन् / चः पुनः स्वर्णशैलीय: स्वर्णगिरिसम्बन्धी यो देशस्तत्र रामसैन्य-भिन्नमालादिषु यात्रां कुर्वन / च: जाबालपुरे चतुर्मासी कुर्वन् / ६१-मरुदेशे मेडताकोट्टे चतुर्मासीद्वयं तदेशे च घंघाणीग्रामे सम्पतिभूपतिकारितार्जुनस्वर्णमयप्रतिमानां, ओसवालानां उत्पत्तिस्थाने ऊकेशनगरे आदिशब्दात् तिमिरीपार्श्वनाथादीनां यात्रां कुर्वन् / ६२-सवालखनामके देशे श्रीनागोरनगरे चतुर्मासी कृतवान् / इत्यादयो ये व्यावर्णिता द्रङ्गा देशाश्च तेषु गुरुर्वृषवद् वृषभ इव अथवा वृषो धर्मस्तद्वत्साक्षाद्धर्म इवाथवा वृषवत्सु पुण्यवत्सु गुरुर्महान् वृषवद्गुरुः श्रीविजयदेवमूरिर्व्यहार्षीत् विहारमकरोत् / अत्र यत्र यावन्त्यः प्रतिष्ठाः कृतास्ता मयाऽन्यगच्छीयत्वात् सम्यग् न ज्ञायन्ते तेन तत्संख्यानं तु तपागच्छीयश्रीविजयप्रशस्तिमहाकाव्यादिभ्योऽवसेयमिति तत्वं / सप्तश्लोकीकुलकव्याख्येति / ६३-इत इत्यधिकारान्तरे। एकदा सदास्वास्थ्यस्य नित्यसुभिक्षादिसुखस्य निबन्धनं कारणं / अत्र एवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदकस्तेन नान्यत्कारणं / आकण्येति श्रुत्वा / शेषं सुगमम् / ६५-यञ्चिन्तितं तदेवाह-सुगमोऽयं नवरं अन्तरान्तरापतत्यपि दुष्काले मरौ अष्टाब्दावधीति अष्टौ वर्षाणियावत् शाश्वतं सुभिक्षमेवाजनीति / अहो इति आश्चर्यसूचकमव्ययम् / ६७-अत्र चकारात् अन्यैरपि श्रीराणकमान्यैः सामन्तामात्यपुरोहितभट्टपण्डितपञ्चोलीप्रमुखैः सूरेः श्रोविजयदेवगुरोः, आकारणायेति मेदपाटदेशे आगच्छन्त्विति विज्ञप्तिः कृतेति तात्पर्यम् / Aho I Shrutgyanam Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] विजयदेवमूरि-माहात्म्यम् सूरिः सपरिवारोऽपि हृष्टस्तल्लेखवाचनात् / कस्य न स्यान्मदोऽमन्दो हीन्दच्छत्रपतेर्हवे // 69 // श्रीराणाकारणं तस्य गुरोः श्रुत्वा तदा मुदा / सर्वस्संघश्चमचक्रे वक्रेतरतराशयः // 7 // तदानीं मेदिनीद्रङ्गवासी सङ्घोऽनघो धनः / श्रीमन्नागोरनगरे गुरुं नन्तुमुपागमत् / / 71 // सौवर्णे रौप्यकैः पुष्पैः शक्तिभत्त्यनुसारतः / पूज्यः पधरेणामा श्रावकैः पूजितस्ततः // 72 मेडतीयस्य संघस्याग्रहतश्चलितस्ततः / श्रीनागोरीयसंघेन संयुतः संयताधिपः // 73 // सपादलक्षदेशीयजन्तुजातं प्रबोधयन् / क्रमेण फलवीशं श्रीपाचप्रभुमानमत् // 7 // गुरु श्रीपाश्वतीर्थेशमेकमेव तदाऽनमत् / जङ्गमं तीर्थमायान्तं तं जना बहवोऽनमन् // 7 // कुशलात्सागरा विज्ञा गुरुभिर्वाचकाः कृताः / यतो महीयसि पदे ते महाफलदाः खलुः // 76 // अत्रान्तरे गूर्जरत्रासत्कः संघो महर्दिकः / समागाच्छर्करापात इवाभूदुग्धमध्यगः // 77 // तेन संधेन सर्वेण शर्वेणेवोरुभूतिना / पूजितास्तत्र तीर्थेशाः श्रीपूज्याचार्यसंयुताः / / 78 // अथ नागपुरीसंघे गुरुं नत्वा गृहं गते / गुरवो गुरुसंघाब्याः प्रापुः श्रीमेडतापुरीम् // 79 // जयमल्लाख्यमन्त्रीशस्तत्रागाद् गुरुसंमुखः। कुर्वन्महोत्सवाद्वैतमोन्नत्याञ्चित्तवित्तयोः // 8 // ६९-पूर्वार्ध सुबोधं हीन्दूछत्रपतेः श्रीराणाजीकस्य हवे आकारणे सति कस्यान्यस्य लोकस्य मदोऽहङ्कारः, गुरोस्तु स सर्वथा नास्तीति गुरुपक्षे मदो हर्षः / यदनेकार्थः-मदोऽहकारे हर्षे चेति / हर्षोऽपि गुरोजिनशासनोन्नति विनीति हेतोः / ७०-चक्रात् इतरो वक्रेतरः सरल इति यावत् / अतिशयेन वक्रेतरो वक्रेतरतरः आशयोऽभिप्रायो यस्य सोऽतिसरलमना इति / अत्र प्रकृष्टेऽर्थे तरतमाविति तरप्रत्ययोऽतिशयार्थवाचक इति। ७२-पूज्यः श्रीभट्टारकः / पट्टधरण श्रीविजयसिंहमूरिणा अमेति सार्ध / साकं सत्रासन सार्धममा सहे ति श्रीहेमनाभकोशे / तेनात्रामायोगे तृतीयाऽन्यत्स्पष्टम् / ७३-संयतानां साधूनामधिपो गुरुरित्यर्थः / ७५-द्वितीयपदे-णम् प्रतीभावे इत्यस्य धातोः अनद्यतन्या विभक्तेः परस्मैपदैकत्वम् चतुर्थपदे तस्यैव धातो बहुत्वं / जनानां बहुत्वं तु नागोरमेडताद्यनेकस्थानीयमहाजनसमागमादिति | ७६-पश्चिमाघे-यद्धेतोस्ते गुरवः सूरयः बृहस्पतयश्च महीयसि पदे स्थाने फलवार्द्धमहातीर्थलक्षणे, पक्षे महीयसि उच्चस्थाने समागतास्सन्तो महाफलदा भवन्त्येवेति ज्योतिर्विदां मतम् / ७८-अन्न द्वितीयपदे-शर्वेण ईश्वरेणेव / किं. उर्वी भूतिः सम्पद् यस्येति तेन; पक्षे भूतिर्भस्म यस्य तेनेति / शेष सुबोध / ७९-सुगमं / परं गुरवः सूरयः / किं० गुरुणा महता सङ्घन गूर्जरजासत्कन मेडतासत्केन च आख्यास्सन्त इति / Ahol Shrutgyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [ एकोनविंश: आग्रहाज जयमल्लस्य मेडतीयजनस्य च / कियत्कालं स्थितस्तत्र संघः सोऽगायथागतम् // 81|| श्रुत्वा गुरूणामाहानं मेदपादनरेशितुः / मन्त्रीशो जयमल्लस्तु दोदयां भृशमाप्तवान् // 82 // बहुशो जयमल्लेन विज्ञप्तोऽपि गुरुयंदा / नैव तस्थो तदा मन्त्री राजकार्य ययौ क्वचित् / / गुरवस्तु मिषं प्राप्य तदैवाशु प्रतस्थिरे। श्रीवाडीपाश्चयात्रार्थ वाटिकान्तरुपागताः // 84 // तदा गुरून्नन्तुमेता धर्मचन्द्राभिधा बुधाः / कारुण्यपूरितैः पूज्यस्ते तदा वाचकीकृताः // 8 // ततः श्रीमेडताद्रङ्गादाणाजीकस्य भाग्यतः / प्रति मेवाडदेश ते चलिताः कलिता जनैः // 86 // क्रमेण गोढवाडान्तर्यामे ग्रामे पुरे पुरे / आगृह्यमाणा बहुभिः संघस्सुकृतकृययैः // 87 नैव तस्थुः कचित्किन्तु तीर्थयात्रां प्रचक्रिरे / नडुलनगरे विन्ध्यपुरे श्रीवरकाणके // 88 श्रीमन्नारदपुरी च जीवितस्वामिनेमिनः / सादडीस्थानके राणपुरे च प्रथमप्रभोः॥८९।। इत्यादिसतीर्थयात्रां कृत्वा सत्संघसंयुतः / गुरुर्घाणपुरे प्रापत्तद्वार्ता मेदपाटके / / 90 // युग्मम् / ततो मेवाडदेशेन्द्रमान्यो झालाकुलोद्भवः / राणः कल्याणजी नाम माग्देवकुलपाटकात् / / 91 // घाणेराख्यपुरं यावत् गुरोस्संमुखमागमत् / घनाश्चमुभटश्रेणिरोचिष्णुर्गुरुमानमत् / / 12 / / दृष्ट्वा तद्भक्तियुक्तिं च श्रुत्वा वाक्यकलामपि / समग्रगोढवाडीयो लोकोप्याश्चर्यभागभूत् // सत्यकारं गुरोलात्वा तत्र पादावधारणे / दाग देलवाडकेऽभ्येत्य जने गुर्वागमं जगौ // 14 // अथ श्रीसूरिरारोहन्मेदपाटोर्श्वभूमिकम् / षमणोरपुरस्थायी संघोऽप्यभ्यागमद्रोः // 9 // षमणोरपुरे सूरेरागमात्पूर्वमेव हि / प्रतिष्ठाविधिसामग्री सर्वो सङ्खगेऽप्यकारयत् / / 96|| जलयात्रां गजेन्द्राश्वध्वजाद्याडम्बराद् व्यधात् / तेनैवाडम्बरेणोच्चैश्चक्रे गुर्वागमोत्सवः // 97 // तत्रत्याः श्रावकाः क्षेमा-गङ्गा-जेसाभिधानकाः / त्रयस्सहोदराश्चक्रु प्राक्प्रतिष्ठामहोत्सवम् / / 98 // ८१-पदत्रयं तु सुगमं / स गूर्जरदेशीयः सङ्घो बहुविज्ञप्तिं कृत्वा पूज्याचार्यान्नत्वा च यथागतं राजनगरादिस्थानं अगात् गत इति / / ८२-मेदपाटनरेशितः श्रीराणाजीकस्य आह्वानं श्रुत्वा गुरून् मरुदेशे एव रक्षितुकामो जयमल्लमन्त्री हदि दोयामासेति / ८६-श्लोकपञ्चकं कण्ठ्यम् / तत्र तुर्यश्लोके जनैलोकैः किञ्चिदाजीविकाधिभिः कलिताः सहिताः / अथवा कलण ज्ञाने इत्यस्य धातोानार्थत्वात् कलिता ज्ञाता न तु केनाप्यज्ञाता इति / ८७-अत एव अप्रेतनश्लोके बहुग्रामनगरसंधैः सुकृतकृत्यलाभैलोभिता अपि चतुर्मासीकृते आगृह्यमाणाह, वा इक्ष्यमाणा अपि गुरवः किं च कुरित्यग्रे प्राह / ९४-सुगमः परं देलवाडाख्ये स्वराज्यस्थाने अभ्येत्य आगत्य / जने इत्यत्र जातावेकवचनं तेन समस्तलोके उदयपुरादौ गुर्वागमनं पूज्यागमनं जगौ कथयति स्मेति / Aho I Shrutgyanam Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् 121 स्वच्छस्फटिकरत्नादिमतिमानां शुभे दिने / कृत्वा प्रतिष्ठामुत्कृष्टां ततस्यूरिवरोऽचलत् // 99 / / गत्वा कल्याणजीराज्यास्पदे द्रार देलवाडके / मन्त्रिमुख्येन मांडाख्यश्राद्धेन विहितोत्सवम् // श्रीशालिशैलबिम्बानां प्रतिष्ठां सुरिराड् व्यधात् / तस्मिन्महोत्सवे मेघो ववर्ष स्पर्धयेव किम् // तत्र गत्वानेकचैत्यानां वन्दनं च विलोकनम् / उपदेशप्रदानेन जीर्णोद्धारश्च निर्ममे // 102 अयोदयपुरीयोऽपि संघस्तत्रैत्य सत्वरम् / विधाय विविधां भक्ति विज्ञप्तिं च पुरो गुरोः // 10 विशिष्टशकुनान्वीक्ष्य श्रीपूज्याचार्यवर्ययोः / चतुर्मासकसम्बन्धि वचः प्राप्य पुरं ययौ // 10 // गुरु गहदे नत्वा श्रीपार्थ नवखण्डकम् / अदुदं शान्तिनाथं च श्रीआघाटमुपागमत् / / 105 // तपेति बिरुदप्राप्तिस्थानेऽत्राघाटपत्तने / सर्वोदयपुरीयोऽपि सङ्घोऽगाद्वन्दितुं गुरुम् // 106 // अथाषाढादिमेघने सुराचार्यस्य वारके / पवित्रे पुष्यऋक्षे च शुभेषु शकुनादिषु // 2071 आगच्छतो गुरून् ज्ञात्वा श्रीजगत्सिंहराणकः। संघायादात सम्पदं स्वां समग्रा सिन्धुरादिकाम् // अथ सज्जीकृतोत्तुंगतोरणश्रेणिबन्धुरम् / राणाजीदत्तपूर्वोक्तसामग्रीमीणितप्रजम् // 109 शृङ्गारिताशेषजनस्त्रीगीतोद्दाममङ्गलम् / पुरं प्रविश्य सुगुरुः प्रतिश्रयमुपाश्रयत् // 11 // अथ तत्रोत्सवाद्वते चतुर्मासं गुरुयधात् / श्रीमदाचार्यधुर्यस्तु श्रोआहडपुरे पुनः // 112 // आघाटे वीरचैत्यस्य जीर्णोद्धारो व्यधायि च / संघेन श्रीमदाचार्यवाकलाप्रीतचेतसा // 112 // १०१-श्लोकसप्तकं कण्ठ्यं / परं सप्तमश्लोकार्द्ध-तस्मिन्महोत्सवे यथा सर्वोऽपि संघ. लोको गुर्वागमात् प्रीतस्सन् वित्तैर्ववर्ष / तथैव तत्स्पर्धया मेघोऽपि मुशलधाराभिस्तथा ववर्ष यथा सर्वापि पृथ्वी जलमयी जातेति / अनेन तदानीं गुरुमाहात्म्यादेव लोके हर्षदानाधिक्य मेघागमनं चासूचिः। १०२-तत्र तस्मिन् देवकुलपाटके अनेकचैत्यानां शत्रुजयगिरिनारावताराणां बहूनां तु तपागच्छेन्द्रश्रीसोमसुन्दरसूरिवारके जाताना केषांचित्तु श्रीविजयदेवसूरिवारके तदुरदेशादेव तद्गच्छीयैः पण्डितकीर्तिविजयैः श्रीराणाजी श्रीकल्याणजी प्रतिबोधन तत्सही सपणप्रा. सादपातननिवारण-वाकलारजितानेकनागर-व्यवहारि-चारण-ग्रामेश्वर-ठकुरोपदेशप्रदान-बहुद्युम्नानयनााद्यमेन जीर्णोद्धारविषयीकारितानां पुनः सजीकृतमण्डितप्रतिमाणां चैत्यवन्दनं निर्ममे / पतितानां चैत्यानां च विलोकनं पुनरुपदेशद्वारेण जीर्णोद्धारश्च कारितस्तत्र चैकस्य कल्याणवसहीति नामकप्रासादस्य श्रीकल्याणजीकेनोद्धारकरणं प्रतिवर्षमष्टाधिकाराच्छाबशारणं च प्रतिपन्नमिति / १०८-अत्र सिन्धुरादिकां गजादिकां आदिशब्दादने कतुरङ्गमात्मीयमहावाद्यध्वजबन्धननगरशङ्गारणाज्ञादिग्रहः / शेषमन्वयादिकं स्पष्टम् / Ahol Shrutgyanam Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [ एकोनविंशः दर्शनादेव पूज्यानामाचार्याणां गिरापि च / मिथ्यात्विनोऽपि विप्राद्यास्तत्रासन् प्राप्तबोधयः।। तस्मिन् वर्षे ववर्षाब्दोऽवृष्टपूर्वोऽभूतावहः / यं दृष्ट्वा मानवाः पाहुचतुर्थारष्किमागतः // 114 / ,श्रीजगत्सिंहराणोऽपि चमत्कारात्ततोऽवदत् / सत्यं सुगालिओ मर्दः समागादत्र सद्गुरुः // ततः प्रभृति सर्वत्र सुकालभवनाद् भुवि / असौ सुगालिओ मर्द इति ख्यातिरभूद् गुरोः / कदा स वासरो यत्र भावी मे गुरुसङ्गमः / इति ध्यायन् राजकार्यव्यग्रत्वान्नृपतिः स्थितः // अथ पारणके जाते चतुर्मास्या मुनीश्वरः / मेवाडदेशे व्यहरत्तीर्थयात्रार्थमुद्यतः // 118 // गुरुः श्रीकरहेडादितीर्थयात्रां विधाय च / चित्रकूटमहादुर्ग दूरादप्यवलोक्य च // 199 / / खमणोरपुरं प्राप्य प्रतिष्ठां चरमप्रभोः / मोहीग्रामीयसंघेन कारितामकरोत्ततः // 120 // ग्रामे गोगुंदके गत्वा नत्वा श्रीनवपल्लवम् / नाहीनानि सनिवेशे तथाप्याघाटपत्तने // 121 // एकैकां क्रमतश्चक्रे प्रतिष्ठां शिष्टहद्गुरुः / एवं देशे मेदपाटे प्रतिष्ठापञ्चकं कृतम् // 123 // अथ गूर्जरदेशेषु ज्ञात्वा चिचलिघून गुरून् / प्रागप्युत्कण्ठितो दृष्टुं श्रीजगत्सिंहराणकः // 124 पौंछोलाख्यसरोमध्ये महोद्यानान्तरालगम् / दलबादलके सौधे प्राच्यराणककारिते॥१२५॥ आश्चर्यकारके नाकि विमानमदहारके / नानामहोम्बरामुख्योद्भटभट्टयुतोऽभ्यगात् !!126 // दर्शनादेव सूरीन्दोनत्वावर्तादिपूर्वकम् / कृताअलिपुटस्तस्थौ सुविनीतस्मुशिष्यवत् // 127 // ११३-श्लोकचतुष्क कण्ठ्यं / अन्तिमे श्लोके तत्रेत्युदयपुरे विप्रभट्टराजपुत्रादयोऽने के मिथ्याविनोऽपि प्राप्तबोधयोऽङ्गीकृतशुद्धधर्मा आसन् जाताः / किं बहुना ? केचित्षडावश्यकभक्तामरादिपाठिनो जाताः / / ११९-अत्र पञ्चमे श्लोके स मुनीश्वरः श्रीविजयसिंहसूरिसंयुतोऽनेकलोककृतां विज्ञप्तिमवधार्य तदुपकारायाने कतीर्थानां श्रीकरहेडपार्श्वनाथादीनां यात्रा विधानाय च मोहीप्रामवासिसहकारितप्रतिष्ठाकरणाय च श्रीराणाजीकेन धनतरं सङ्घद्वारा विज्ञप्तोऽपि श्रीराणाजीकेन सह मिलने मम महालाभो भावीति पुनरत्र पादावधारणीय मेविति सङ्घविज्ञप्ति प्रतिपद्य च दशसहस्रमेवाडदेशे व्यहरदिति / 126- श्लोकत्रिकं कण्ठ्यं / परं प्राच्यः प्राचीनो यो राणकः अर्थाच्छीउदयासंहाख्यः श्रीउदयपुरनिवासकः पुनरुदयसागरसरोवरकारकश्च तेन कारिते। १२७-सौधे पुनः किं० नाकिनां देवानां विमानस्य मदहारके अत एवाश्चर्यकारके दलवादलनाम्नि महलविशेषे / राणकः कि. नानाजातीया ये उम्बरा वागियाख्याः पितृव्याशेषाजी श्रीकृष्णदासजर्जासिबलासिंघजीश्रीसुजाणासंघ श्रीमानसिंघजीश्रीभीमजीश्रीइन्द्रभाणजीमुख्याः / पुनः उद्भूटा ये भट्टा व्याकरणादिपाठिनो भट्टवासुदेवह रिपाठकप्रमुखास्तैर्युक्तः श्रीजगत्सिहराणकः श्रीगुरून् शतावधानाऽष्टावधानादिसाधकानेकच्छेकच्छात्र परिवृतान् द्रष्टुं अभ्यागादागत इति / Ahol Shrutgyanam Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् 123 गुरुरपि किं कृतवानित्याहगंभीरध्वनिना तस्मै धर्मलाभं गुरुर्ददौ / नम्राय मेदपाटानामधीशाय हसन्मुखः // 128 // ततो गुरोरेव मुखे न्यस्तनेत्री नरेश्वरः। अद्य मे सफलं जन्म जातमित्यूचिवान्मुदा // 129 // गुरुणा दीयमानायां देशनायामथान्तरे / प्राचे पृथ्वीपतिः स्वामिन् विज्ञप्ति मेऽवधारय॥१३० आयुर्घनतरं केन कर्मणा प्राप्यते प्रभो / सम्यग विज्ञाय शास्त्रेभ्यस्तस्योपायं समादिश // 131 अथोवाच गुरू राजन् सावधानमनाः शृणु / पूर्व श्रीभीमभूपालो जातोऽणहिलपत्तने // 132|| दीर्घायुषोऽन्यदा श्रुत्वा सोऽथ मालवभूपतीन् / धारायां भोजराजस्य पार्श्व गैषीरस्वमन्त्रिणम्।। गत्वा नत्वा च तेऽप्यूचुः पृष्टं भीमेन वोऽस्त्यदः / कथं दीर्घायुषो यूयं वयं त्वल्पायुषः कथम् / / येनोपायेन दीर्घायुभवेद्भीमस्तमादिशत् / तिष्ठन्तु भो कियत्कालं सुखं भोजोऽप्यदोऽवदत् // वृक्षमेकमथोद्दिश्य भोजः पोचे च मन्त्रिणम् / जातेऽस्मिन् सर्वथाऽपत्रे तवोपायो वदिष्यते / / पत्राण्यस्य पतन्तु द्रागिति दध्यौ स मन्त्रिराट् / तच्चिन्तयैव वृक्षोऽभूत् निष्पत्रः पूर्वतो द्रुतम् // अथोपाये च तत्पृष्टे स्पष्ट भोजोऽप्यवक पुनः। सर्वथा फलिते क्षेऽस्मिन्नुपायोऽथ वक्ष्यते // सत्फलः फलदः शीघ्र स्तादेवं चिन्तितोऽमुना। पुरा नैवाभवद् यादृक् तादृक् स फलितः क्षणात् / / हसन्नथो भोजनृपः प्राह तं भीमधीसखम् / तव ध्यानायथा वृक्षो जातोऽपत्रश्च पत्रयुक्॥ तथा प्रजानां दुर्थ्यानादल्पायुः स्यादिलापतिः / प्रजानां च शुभध्यानादनल्पायुः पुनर्भवेत् / / दीर्घस्य जीवितस्येति श्रुत्वोपायमिमं स्फुटम् / यथादृष्टं जगौ गत्वा पत्तने भीमभूपतेः // 142 // ततः प्रभृति भीमोऽपि प्रजानां परिपालनात् / चिरं राज्यं च भुंक्ते स्म लोकानां हितचिन्तनात् / / तथा त्वमपि भूपाल लोकपालोऽसि पञ्चमः / चिरायुर्भव लोकानामन्योऽन्यहितचिन्तनात् // श्रीजगत्सिंहजीराणः श्रुत्वेति गुरुदेशनाम् / साधु साधु वदन्नुचैः स्वं शिरो धूनयन्मुहुः॥ गुरो त्वदर्शनादेव नूनं भावी जयो मम / गुरुरूचे पुना राजन् यतो धर्मस्ततो जयः // 146 // अथ राणकः पाहस धर्मः कीदृशः स्वामिन् यतो नित्यं जयो भवेत् / गुरुजगौ शणूर्वीश स तु जीवदयामयः // अथ श्रीराणकः स्माह रञ्जितो गुरुवाक्यतः / यद्युष्माकमभीष्टं तद् ब्रूत सवै करोम्यहम् // 148 // ततो गुरुजगौ राजन् जालपातान्निषेधय / पीछोलाख्ये तटाके च तथा तूदयसागरे // 149 / / जन्मनो मासि भाद्राख्ये जीवहिंसां निवारय / जन्ममासं यतः शाहि-दिल्लीनाथोऽप्यपालयत् // राज्याभिषेकवारेऽपि गुरौ हिंसां निवारय / मचिन्दनामके दुर्ग जीर्णोद्धारं च कारय // 15 // गुरूक्तांश्चतुरो जल्पानेतान् स प्रत्यपद्यत / तदैवारोपयद् घाट जालक्षेपनिषेधकम् // 152 // लात्वेति नियमान्नत्वा गुरुं द्राग् मेदपाटराट् / ययौ स्वं सौधमात्मीयपरिवारविराजितः॥१५३ अथो गुरुग्रूज्जरत्रां प्रति प्रस्थातुमुत्सुकः। संघेन रक्ष्यमाणोऽपि समीनाग्राममागमत् // 154 // Aho I Shrutgyanam Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं [एकोनविंशः प्रणम्य पार्श्वविश्वेश तत्र तस्य प्रभोः पुरः / गुणविजयविज्ञानामुपाध्यायपदं ददौ // 15 // ततश्च योगिनीपुयाँ तीर्थयात्रां व्यधाद् गुरुः / कोटडीग्रामचैत्यानि पञ्च पूज्यान्यकारयत् // ततः श्रीऋषभं नाथं नत्वा वागडसन्धिगम् / गुरुः क्रमादिलादुर्ग प्राप्तवान् जन्मभूमिकाम् / / गुरुराकारयां चक्रे पुत्रप्रेषणपूर्वकम् / रत्ननाम्ना महेभ्येनाहम्मदाबादवासिना // 158|| श्रीशत्रुअययात्रायै संघः संमेलितो महान् / रत्नेन चनयत्नेन गुरुश्वासरीकृतः // 159 // ततस्तत्र महातीर्थ यात्रां कृत्वा महोत्सवैः / गुरुभ्यां सह संघोऽसौ क्षेमेणागानिजं पुरम् // तत्र कृत्वा चतुर्मास सोल्लासं तस्य पारणे / स्तंभतीर्थे महातीर्थं मनाम गुरुपादुकाम् // 16 // इदानीं तपागच्छीयश्राद्धादिमुखाद्यथा मया श्रुतं तथा देवसानिध्यं श्रीविजयदेवरेण्यतेअथास्य देवसान्निध्यमह वक्ष्ये यथा श्रुतम् / स्तंभतीर्थऽभवद्देवचन्द्रो नान्ना महान् गृही। स तु श्रीविजयदेवरि शुद्धपरम्परम् / जानस्तदुक्तमेवायं कुरुते धर्ममार्हतम् // 163 // तस्य भार्ये उभे जाते सुशीले अपि सन्ततम् / ते तूपाधिमतं नैव त्यजतो वारिते अपि // 164 कालान्तरेण ते देवीभूतेनाप्यथ तेन हि / परंपरागतं धर्म कुर्वातामिति भाषिते // 16 // इति प्रोक्तेऽपि ते नैव त्यजतस्तन्मतं यदा / तदा तस्यैव श्राद्धस्य प्रेत्यवासरकर्मणि // 16 // उपाधिमतरक्तेयु निविष्टेषु जनेष्वथ / षष्टिस्तथा चक्रे नेशुस्सर्वेऽपि ते यथा / युग्मम् / प्रदोषे प्रकटीभूतं प्रोचतुस्ते स्त्रियौ च तम् / त्वं कोऽसि कस्माचागत्य नित्यं भापयसीह नौ / / 155- एते सुगमा: ! परं गुणविजयाख्या ये विज्ञाः पण्डिताः पूर्व सादडीग्रामे लुम्पा ग्रिहे क्रियमाणे श्रोकर्णराणमिलनेन तपाः सत्या लुङ्काश्चासत्या इतिस्फुरन्मान कारापणपूर्वकं श्रीगुरुवमानाजिनशासनस्थापकास्तेषां श्रीसमीनाख्यपार्श्वनाथप्रतिमायाः पुरो गुरुचि पदं ददौ त्तत्रानिलि। १६०-एते सुगमाः / पर तत्र महातीर्थे शत्रञ्जय यात्रां कृत्वेति श्रीऋषभदेवादीन्नत्वेति गुरुभ्यां श्रीपूज्याचाभ्यां मह स रत्नश्रावक सङ्घः कुशलेन निजं पुरं राजनगरं आगात्प्राप्त इति / 16:- सुबोधोऽयं / गुरोः श्रीविजयमेनसूरेनिणस्थामवस्तूिरे पादुकां ननामेति दतवाति शेषः / १६४-सुननन् / नवरं स्ल देवचन्द्रस्य श्राद्धस्य द्वे अपि भार्ये संवत् 1673 वर्षोत्पन्नं द्रव्यलिजिना द्राग्रहणपूर्व स्थापिताचार्यकं पञ्चषैरुपाध्यायैः कर्षितत्वादुपाधिनामक मतं धनिकेन वारिते अपि ते न त्यजत इति / १६६-अथ किं जातमित्याह-कालान्तरेणेति सुगम / परम्परागतं धर्म श्रीविजयदेवसूरिक्रियमाणं कुर्वता, उपाधिभतं तु त्यज्यतामिति ! Ahol Shrutgyanam Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगैः विझयदेवसूरि-माहारम्यम् सोऽप्यूचे युवयो हिं देवो देवचन्द्रकः / भवत्योः प्रतिवोधाय दृषदृष्टिर्मया कृता // 169 / / अहं श्रीविजयदेवमरिसानिध्यमन्वहम् / कुर्वाणोऽस्मि सुरैः सप्तदशभिश्वापरः सह // 17 // इत्युक्ते तेन ते जाते सद्यः सद्धर्मनिश्रिते / मुक्त्वोपाधिमतं को हि सत्याज्ये तैलमीहते // 171 इत्येकं देवसानिध्यं. द्वितीयं शणुताधुना / श्रीमण्डपाचलं दुर्ग चलति प्रति सद्गुरौ // 172 // मागें सेहरषीग्रामस्वामिपुत्रः कमाभिधः / परमारः स भूत्तात इत्यभूत्परमारकः // 17 // मारयन् स बहूँल्लोकान् पित्रा निगडितस्ततः / तस्मिन्नवसरे तत्र मूरिसिंहस्समागतः // 17 // महान्तमागतं मत्वा वासक्षेपोऽस्य कारितः / सन्जोभूत्तत्क्षणात्साऽपि जातं तच्चित्रकृत्सताम् // द्वितीयं देवसान्निध्यं. प्रोच्यतेऽथ तृतीयकम् / श्रीराजनगरस्थायी कोऽप्यस्ति वणिजः सुतः / / सप्तवर्षाणि यावत् स पहिलोऽभूदभाग्यतः / तत्रागाचाष्टमे वर्षे तद्भाग्यात्सद्गुरूत्तमः // 177 // पित्रादिभिस्तदाऽकारि करन्यासोऽस्य मस्तके / तत्कालं सोऽपि सज्जोऽभूत्सर्वो लोकश्चमत्कृतः। चतुर्थं देवसान्निध्यमथो शृणुत सज्जनाः / मेडताद्रङ्गवास्तव्यः श्राद्धः खीमसरान्वयी // 179 / / नवमासावधिस्थानाभिधो दुष्कर्म योगतः / गृहीतः क्षेत्रपालेन भृशं दुःखाकुलोऽभवत् // 180 // तत्रागादन्यदा भाग्याद्विजयदेवमरिराट् / वासक्षेपेण तस्याशु क्षेत्रपालः प्रणष्टवान् / / 181 // नीरोगता तदीयेऽङ्गे भूतले च चमत्कृतिः / वार्ता च सकले संघे जाताहो महिमा गुरोः॥१८२ अथातः प्रोच्यते देवसानिध्यं पञ्चमं प्रभोः। अस्ति गूर्जरदेशान्तः पेटलादाभिवं पुरम् // 18 // तत्रासीदधिपः क्रूरः स्वभावादेव दुष्टहत् / व्युग्राहितो विशेषेण देषिभिर्वेषधारिभिः // 18 // वणिम्भिः प्रत्यनीकैच द्रव्यलोभेन लोभितः / रुरोध निर्विरोधं तं तदा तत्रागतं गुरुम्॥१८५॥ गोपुरान्तवैदिकायां विमुच्य सपरिच्छदम् / रक्षायै मानुषान्मुक्त्वा स्वयं स्वावासमाविशत् // अथ सायं गुरुस्तत्र चिन्तयामास चेतसि / इह नः शयनं युक्तं नक्तं नैवेतरैः सह // 187 // ध्यात्वेति तत्र वान्तर्गत्वैकस्य तरोस्तले / सुष्पाप सपरीवारो वार्यमाणो जनैपनैः // 18 // अथ तत्र यज्जातं तदाहप्रतोलीपावेगेहान्तर्वहिर्दारुभरेऽलगत् / तद्ज्वालाभिः करालाभिः प्रतोली सहसाऽ पतत् // तया पतन्त्या तत्राधः सुप्ता ये रक्षकादयः / तत्क्षणात्ते क्षयं प्राप्ता अहो दुष्कर्मणां गतिः॥१९० गुरुं कुशलिनं दृष्ट्वा सुखसुप्तं तरोस्तले / वर्णयन्ति स्म राजाधा अहो ज्ञानी गुरुर्महान् // 19 // १८७-पूर्वार्ध सुबोधं / इहेति अत्र प्रतोल्यधः सुस्थानवेदिकायां इतरैर्नीचैस्तुरुष्कादिभिः सार्थ नक्तं रात्रौ नोऽस्माकं शयनं नैव युक्तं नोचितमिति / १८८-गुरुर्षनर्जनसैराराकैरन्यैरपि तत्रागतैः पथिकैः स्त्रीनरैर्मा याहीति वार्यमाणोऽपितरोराले गत्वा पौरूषीविधिपूर्व सुष्वाप शेते स्मेति / Ahol Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित [ एकोनविंशः चमत्कृतेन तेनाथ यवनेन नतस्ततः / सत्कृतः शामितस्सूरिययौ च स्थानमीप्सितम् // 192 // श्रीगुरोर्दवसान्निध्यं स्पष्टं षष्ठमथो ब्रुवे / अष्टौ वर्षाण्यविच्छिन्नं सुभिक्षमभवन्मरौ // 193 // मरुस्थल्यां हि दुष्कालः शाश्वतः श्रूयते जनैः / अष्टवर्षावधि स्पष्टं नैव दृष्टः स केनचित् // 194 महाजनमुखादेतच्छ्रतं यन्निर्जले स्थले / गुरौ विहरति ज्येष्ठे मासिऽवर्षद् घनो घनः // 195 अन्यदा स्तंभतीर्थेऽगाद् वत्सरै रिभिर्गुरुः / तदास्य दर्शनादेव बोधि प्रापुस्सुमेधसः // 196 यता-सागरीय मतं त्यक्त्वा मेघाद्याः श्राद्धमुख्यकाः / बोधि प्राप्ता गुरोरेव वासक्षेपमकारयन्।। अथास्य काव्यस्योपसंहारमाचरन्नाह इत्यादिभिर्धनतरैरवदातद्वन्दैश्वेतश्चमत्कृतिकरैश्चतुरोत्कराणाम् / प्राचीनसरितुलनां कलयन् कलौ कि श्रीगौतमः पुनरयं गुरुरेष जीयात् // 198 // किं चान्यगच्छीयतया मया यत् संमत्रितं शास्त्रविरुद्धमत्र / तत्सत्यमेवाथ बुधैर्विधेयं काव्योत्तमाच्छ्रीविजयादिवंशात् // 199 // अर्थतत्काव्यकरणे पराशङ्कामाविष्कृत्य निराकुर्वन्नाह यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं मुक्त्वा स्वमूरिं तपगच्छमरेः। कथं चरित्रं कुरुते पवित्र शंकेयमार्न कदापि कार्या // 20 // आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा, सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात् / आमाणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके, गंगा हि कस्यापि न पैतृकीयम् // 20 // १९५-सुगमोऽयं / नवरं निर्जल इत्यपेयमारकूपैक्यसद्भावात् पिटनीराऽसदभावात् , अजले स्थले ओकेशादिस्थले गुरौ श्रीविजयदेवसूरौ विहरति सति अग्रतो ग्रामे ग्रामे घोऽतिशायी घनो मेघोऽवर्षत् वृष्टः / येन यत्र प्रातर्गुरुः सभागात्तत्र सरांसि भृतानि दृष्टानि इति योधपुरस्थेन मया महाजनमुखात् श्रुतमिति सत्यमेवेति / १९७-अर्थः सुगमः | परं सागरीयं मतमित्येव / तदुत्पत्तिर्यथा तपागच्छीयैरेवोपाध्यायश्रीधर्मसागरैर्गच्छनायकाज्ञां विनैवात्मीयप्ररूपणात्मक छन्नमेव सर्वज्ञशतकं ग्रन्थः कृतः / परमनर्थमूलत्वं ज्ञात्वा रहस्येव तत्पुस्तकानि पञ्चषाणि विधाप्प ते तु स्वर्गताः। कालक्रमेण 1676 वर्षे स प्रन्यः प्रकटीभूतस्ततोऽस्य केनाप्यशोधितत्वान्निर्नामकत्वाञ्चौररूपत्वात् समस्तगीतार्थ साक्षिकं भट्रारकश्रीविजयसेनसूरिभिः सोऽप्रमाणीकृतस्ततः सागरशाखीया ये गच्छ नायकाज्ञां विनैव तं बलात्कारेण प्रमाणीकृतवन्तस्तेऽपि भट्टारकश्रीविजयदेवसूरिभिः स्वगणाहिः कृतास्ततस्तैः सागरशाखाधरैर्वेषधरैर्द्रव्यलिङ्गिद्वारा स्थापिताचार्यकैः 1687 वर्षे यन्मतं कर्षितं तत्सागरीयं मतं त्यक्त्वा सा० मेघाद्या बहवः श्रावकाः श्रीविजयदेवसूरेर्दर्शनादेवबोधि प्राप्त तस्यैव गुरुत्वबुद्धया वासक्षेपमकारयन्निति / Aho I Shrutgyanam Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] विजयदेवभूरि-माहात्म्यम् तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धचै जिह्वापवित्रीकरणाय यद्वा / इति स्तुतः श्रीविजयादिदेवः मूरिस्सम श्रीविजयादिसिंहैः // 202 // आचन्द्रसूर्य तपगच्छधुर्यों वृतो परेणापि परिच्छदेन / जीयाचिरं स्तान्मम सौख्यलक्ष्म्य श्रीवल्लभः पाठक इत्यपाठीत् / / 203 // इतिश्री बहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजसूरिसन्तानीय पाठक श्रीज्ञानविमलशिष्य श्री. वल्लभोपाध्यायविरचिते श्रीमत्तपागच्छाधिराजपातिशाह श्रीअकबरप्रदत्तजगदगुरुविरुद्धारक श्री हरिविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कार पातिशाहि श्रीअकबरसभासंलब्धदुर्वादि जयवाद भट्टारक श्रीविजरासेनसूरीश्वर पट्टपूर्वाचल सहस्रकरानुकारिपातिशाहि श्रीजिहांगीरप्रदत्तमहातपाविरुदधारि श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनप्रबन्धे श्रीमद्विजयदेवमाहात्म्यनाम्नि महाकाव्ये श्रीविजयदेवसरि सर्वदेशविहारसान्निध्यादिवर्णनो नामैकोनविंशः सर्गः / तत्समाप्तौ च समाप्तं श्रीश्रीश्रीविजयदेवमाहाम्यनामकं काव्यं चतुरैवाच्चमा चिरं जीयात् / / लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डितश्री५श्रीरङ्गसोमगाण-शिष्य मुनिसोमगणिना | सं० 1709 वर्षे चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशी तिथौ बुधौ लिखितं / श्रीराजनगरे तपागच्छाधिराजभ० श्रीविजयदेवसूरीश्वरविजयराज्ये / Ahol Shrutgyanam Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्। [ तपागच्छीयैकपडावलिगतं विजयदेवसूरिविशेषवर्णनम् ] अथातना पट्टावली पुरतोऽनुसन्धीयते सिरिविजयसेणसूरी, पट्टे गुणसहिमे अ / 'सिरिविजयसेणसूरित्ति व्याख्या-एकोनषष्टितमे पट्टे श्रीविजयसेनसूरिः, तञ्चरित्रं विस्तरतः श्रीविजयप्रशस्तिकाव्यतोऽवसेयं समासतस्त्वेवम्-संवत् 1604 वर्षे नारदपुर्या जन्म, सं. 1613 वर्षे पितृमातृभ्यां सह श्रीविजयदानसूरिहस्ते दीक्षा, ततः श्रीहीरविजयसूरिभिः सर्वशास्त्राणि पाठयित्वा डीसाख्यप्रामे ध्यानं कृत्वा सं. 1628 वर्षे फाल्गुन शुक्ल सप्तम्यां श्रीअहम्मदावादे सूरिपदं प्रदत्तं। तदनन्तरं सर्वप्रकारेण श्रीतपागच्छे ज्ञानदर्शनचारित्रादिसमृद्धिः शिष्याणां श्रावकाणां च वृद्धिश्च जाता / यतस्तस्मिन् वर्षे ऋषिमेघजीमुख्या लुकाख्यमतमुख्यास्तत्रत्याधिपत्य हित्वा सर्पः कञ्चलिकामिव तत्कुमतवासनां त्यक्त्वा श्रीतपागच्छगुरूणां शिष्यतां प्राप्ताः, तत्स्वरूपं तु प्रागनिरूपितं / ततः श्रीहीरविजयसूरयः 1639 वर्षे शाहिश्रीअकबरेण आकारिता यथा सन्मानिताः, तद्वयतिकरोऽपि पूर्व प्रकाशितः / ततः क्रमेण श्रीहीरविजयसूरयः श्रीविजयसेनसरिभिः सार्द्ध श्रीराजधन्यपुरे चतुर्मासीमासनिास्तस्मिन्नवसरे लाहोरनगरस्थेन श्रीअकव्वरसुरत्राणेन श्रीमदाचार्यगुणगणाकर्णनप्रीतान्त:करणेन तदाकारणाय स्फुरन्मानं प्रैषि / ततः श्रीगुरूणामाज्ञां शेषामिव शीर्षे निधाय ततश्चलन्तः पत्तनप्रभृतिनगराणि बहून् ग्रामांश्च पवित्रयन्तोऽनेकसवलोकैः पूजिताः परिवृताश्च श्रीअर्बुदाचलतीर्थयात्रां विधाय श्रीसीरोहीनगरे प्राप्तास्तदा तन्नायकेन राज्ञा श्रीसुरत्राणसम्झेन बह्वाडम्बरपूर्वक सन्मानिताः / ततः क्रमेण श्रीराणपुर-वरकाणकपार्श्वनाथादियात्रां कृत्वा स्वजन्मनगरी नारदपुरी च गत्वा क्रमेण मेदिनीपुर-डीण्ड्याणक-वैराट-महिमनगरादिषु भव्यलोकान् कोकान् सर्या इव श्रीसूरिधुर्या उद्बोधयन्तो लोधिआणाग्रामे समेयुः / तत्र श्रीशाहि. मान्यशेखश्रीअबलफजलभ्रातृजन्मा फयजीनामा श्रीसूरीनन्तुमागतः। तत्रानेकलोकविधीयमानबहुमानस्वरूपं स्पष्टाष्टावधानादिसाधकशिष्यश्रेणिस्वरूपं च दृष्वाऽतीवचमत्कृतचेतास्ततस्त्वरितं लाहो. रनगरे गत्वा श्रीशाहिपुरतस्तमुदन्तं यथादृष्टमभ्यधात् / तच्छुत्वा शाहिरपि घनाघनानीलकण्ठ इव श्रीगुरून् द्रष्टुं सोत्कण्ठोऽभूत। ततः क्रमेण श्रीसूर योऽपि शाहिप्रदत्तोद्य द्वाद्यवादनानेकानेकतुरङ्गमविचित्रवैजयन्तीतोरणधोरणीरमणीयमहामह्पुरस्सरं लाभपुरं पुरं प्रविश्य तद्दिन एव श्रीशेखजीदरबारीरामदासप्रमुखप्रधानपुरुषद्वारा काश्मीरीमहलनानि धानि श्रीशाहमिलिताः / शाहिरपि गुरून वीक्ष्य परमप्रमोदमेदुरः सन् श्रीहीरविजयसूरीणामुदन्तं वर्मनि कुशलोदन्तं च पृष्टवाम् / Aho I Shrutgyanam Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् श्रीगुरुभिरपि श्रीहारसूरिभिर्भवतां धर्माशीर्वादो दत्तोऽस्तीत्याद्युक्तं / भृशं तुष्टः सन्नष्टावधानानि द्रष्टुकामोऽस्मीति गुरूनाचष्ट / ततो गुज्ञिया गुरुशिष्यश्रीनन्दिविजयाभिधविबुधसाधिताष्टावधानानि दृष्ट्वा वचनागोचरं चमत्कारं प्राप्तः। प्रसन्नः सन् महाऽऽडम्बरपूर्वकं स्वस्थान प्रापयतामिति स्वजनानादिश्य स्वं धामागमत् / अथेष्टवैद्योपदिष्टमितिमन्यमानै राजमान्यैर्वदान्यस्तत्रत्यास्तिकजनैरष्टदिनानि यावत् केवलं रूप्यकैरेव प्रभावनाद्याडम्बरस्तथा कृतो यथा जैन राज्यमेकच्छत्रमिव जातमिति / गुरूणां गौरवमसहमानेन केनचिद् भट्टेन--अमी जैना जगदीश्वरं ? भास्करं 2 गङ्गा 3 च न मन्यन्ते तेन हे श्रीशाहे ! भवादृशां भूभुजा नैतेषां दर्शनं योग्यामिति श्रुत्वा गुप्त कोपो भूपोऽन्यदा सभायातान् श्रीअनूचानपुङ्गवान् तद्विजोक्तमुक्तवान् / ततस्तत्खलावलसितं मत्वा तत्कालोत्पन्नस्वसमयपरसमयस्मृतिसूक्तिशुक्तिसमुद्रः श्रीसूरीन्द्रैस्तदीयशास्त्रसम्मत्यैव स्वाभीष्ट जगदीश्वरस्वरूपं निरूपितं / यथा-यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्मेति मीमांसकाः / अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कति नैयायिकाः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः // 1 // अनेन तद्ग्रन्थोक्तकाव्येन तदीयशास्त्रशस्त्रेणैव तन्मदच्छेदश्चके / इति प्रथमं जगदीश्वरांगीकारप्रश्नोत्तरम् / अधामधामधामेदं, वयमेव स्वचेतसि / यस्यास्तव्यसने प्राप्ते, त्यजामो भोजनोदके // 1 // इत्यादियुक्तिभिर्द्वितीयं सूर्याङ्गीकारोत्तरम् / तथा गोदकमन्तराऽस्माकं देवप्रतिष्ठैव न स्वात् , इति तृतीयं गङ्गाङ्गीकारोत्तरम् / इति गुरूक्तवाक्यैः प्रहृष्टः शाहिः श्रीगुरूणां सन्मानं दत्वा खलास्तिरस्कृतवान् / ततस्तत्र द्रङ्गे श्रीशाहेराग्रहेण चतुर्मासकद्वयं विधाय एकदा पुण्योपदेशक्षणे प्रमुदितेन शाहिना किञ्चिद् याचध्वमित्युक्ते श्रीसूरिः स्माइ-हे श्रीशाहे ! गो 1 वृषभ 2 महिष 3 महिषी 4 हननं, मृतद्रव्यादानं 5 बन्दिग्रहणं 6 चेति षड् जल्पास्तव जगजनदुःखभत्रकस्य नाहन्तीति, एतेषां जल्पाना हानमेवास्माकं मुदां श्रीशाहीनां च सम्पदा निदानमित्युक्तेस्तुष्टेन श्रीशाहिना तत् षड्जल्पस्फुरन्मानं श्रीसूरिनाम्नैव सर्वत्र प्रहितम् / आस्मिन्नवसरे श्रीहीरसूरिभिवाधापशादन्तिमामिलनाय लेखप्रेषणपूर्वमाकारिताः सन्तस्तत्र विचित्रवादिलब्धजयवादाः श्रीसूरिपादाः शीघ्रमेव गुर्वाकारणं कारणमवगत्य चतुर्मासकमध्येऽपि चलन्तोऽविच्छिन्नप्रयाणैमरुमण्डलमण्डनीभवन्तः क्रमेण श्रीपत्तनं प्राप्तवन्तः / तत्र श्रीहोरसूरीणां स्वर्गमनमूनाख्यद्रङ्गे सजातं श्रुत्वा तत्संसारस्वभावमनुभाव्य त्यक्तशोकाः सुखप्राज्यं तपागच्छसाम्राज्यं पालयामासुः / अथ तेषां सुकृतकृत्यानि लिख्यन्ते / यथा-तैश्चम्पानेरदुर्गे १६३२वर्षे प्रतिष्ठा कृता / ततः सुरति Ahol Shrutgyanam Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 परिशिष्टम् बन्दिरे श्रीमिश्र-चिन्तामणिप्रमुखेषु भट्टेषु सभ्येषु सत्सु अनेकपण्डितपर्षदि श्रीसूरिभिः समं विवाद कुर्वन् श्रीभूषणनामा दिगम्बराचार्यों यथातथाऽपसिद्धान्तं जल्पन जैनशास्त्रशैवशास्त्रपारगैर्गुरुभिनिर्जितस्ततः काकनाशं ननाश / अथ निश्शेषलोकक्रियमाणजयारवपूर्वकं श्रीसूरयः स्वं पदं प्रापुः / ततः क्रमाद् राजनगरे श्रीषांनषांनाख्यक्ष्मापपर्षदि जयश्रियं शिश्रियुः। अथ तत्रैव श्रीविद्याविजयनामक स्वपदयोग्य शिष्यं दीक्षयित्वा, श्रा० अहिवदेकारितां प्रतिष्ठां, पुनर्गन्धारबन्दिरे सा० इन्द्रजीकारितां श्रीवीरप्रतिष्ठा, पुनः स्तम्भतीर्थे श्रा० धनाईकारितां प्रतिष्ठां च कृत्वा तत्र चतुर्मासीचक्रुः। ततः पारणे मेवातदेशादागतान् श्रीहरिसूरीन सीरोहीनगरे नत्वा स्तम्भतीर्थ पुनरागत्य 50 वजिआराजिमाख्यकारितश्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथप्रतिष्ठां कृत्वा, क्रमेण 1654 वर्षेऽहम्मदावादे भूमध्यामिर्गतां श्रीविजयचिन्तामाणिपार्श्वमात शकन्दरपुरेऽस्थापयत् / पुनस्तत्रैव वर्षे सा० मोटाख्यकारिता मतिष्ठा, पुनः दो० लहुआख्यकारितां प्रतिष्ठां कृत्वा लाटा[पल्यां ध्यानं विधार क्रमात् श्रीगूर्जरतीर्थयात्रां श्रीसौराष्ट्र शत्रुक्षयादितीर्थयात्रां च कृत्वा स्तम्भतीर्थे श्रीविजयदेवेसरीणां मूरिपदं दत्वा पुनर्वर्षद्वयान्ते 1658 वर्षे पत्तने गच्छानुज्ञा नंदि ध कृत्वा शिळेश्वर तीर्थयात्रायै समेतान् श्रीआचार्यसंयुतान् श्रीपूज्यान द्वादशशतशकटसंकटः सप्तशतीकरभतुरगोद्भटानेकसुभटविकटः सङ्घपतिहेमराजसको मरुस्थलीतः शत्रुञ्जययात्रार्थ व्रजन् महोत्सवेन प्रागमत् / ततः श्रीगुरवो राजनगरे चतुर्मासी चकुस्तदा तत्रत्यैः श्राद्धैः श्रीगुरुवाकप्रबुद्धैः पञ्चसप्तत्याद्यङ्गलाईप्र. तिमाणां महाडम्बरविशिष्टाः षट् प्रतिष्ठाः कारिताः / पुनस्तत्रत्येन सं० सूराख्येन प्रतिश्राद्धगृहं महिमुन्दिकां प्रयच्छता श्रीअर्बुदाद्रिश्रीराणपुरादिसकलतीर्थयात्रामासूत्र्य क्षेमेणागत्य श्रीसूरीन् प्रणय महती प्रभावना कृता / किंबहुना तत्राद्धे श्राद्वैर्महिमुन्दिकालक्षमेकं व्ययीकृतं / ततो राजधन्यपुरे प्रतिष्ठाद्वयं, पुनः स्तम्भतीर्थे प्रतिष्ठाद्वयं, प्रतिष्ठामेकामकब्बरपुरे च गन्धारबन्दिरे च प्रतिष्ठाद्वयं कृत्वा क्रमेण सौराष्ट्रराष्ट्रसङ्घाग्रहेण श्रीशत्रुक्षययात्रां विधाय तत्र देशे चतुसिकत्रयं प्रतिष्ठाऽष्टकं च कृत्वा रैवताद्रियात्रापूर्व नवीननगरे ज्येष्ठस्थिति स्थित्वा श्रीजामनामकं नृपं धर्मोपदेशतस्तुष्टं कृत्वा ततश्चलन्तः श्रीशद्धेश्वरपार्श्व प्रणम्य राजनगरे चतुर्मासी बह्वाडम्बरविशिष्टां प्रतिष्ठाचतुष्टयाँ च चक्रुः / इत्याद्यनेकसुकृत्यैर्जिनशासनं प्रभावयन्तोऽनेकसहस्रजिनप्रतिमाः पञ्चाशत्प्रतिष्ठासु प्रतिष्ठापयन्तो विमलाचलतारङ्गनारङ्गपुरशद्धेश्वरपञ्चासरराणपुरारासणाविद्यानगरादिषु जीर्णोद्धारान् पुण्योपदेशद्वारा कारापयन्तो हस्तासद्धचा च श्रीगौतमावतारा इव, बुद्ध या चाभयकुमारा इव, विद्यया चाभिनववनकुमारा इव, कृतज्ञतया श्रीरामचन्द्रा इव, धैर्येण गिरीन्द्रा इव, आज्ञया च सुरेन्द्रा इव, एकस्यार्थस्य शतार्थित्वेन श्रीसोमप्रभसूरय इव श्रीविजयसेनसूरयोऽष्टीवाचकपदानि सार्द्धशतपण्डितपदानि च दत्वा द्विसहस्रीमितसंयतिसमुदायस्याशां पूरयित्वा सवाईहीरविजयसूरिरिति बिरुदधारका भट्टारकत्वं विंशतिवर्षाणि प्रपाल्याकब्बरपुरे 1671 वर्षे ज्येष्ठकृष्णकादश्यां स्वर्ग जग्मुः। Aho I Shrutgyanam Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेवसूरि-माहात्म्यम् सडिअमे सिरिविजयदेवसूरी संवइ तवगणतरणितुल्लो // 1 // पष्टितमे पट्टे श्रीविजयदेवसूरिः / तवृत्तमपि यथादृष्टं कियल्लिख्यते यथा-श्रीराजदेशमण्डने ईडरदुर्ग संवत् 1634 वर्षे जन्म / ततो नवमे वर्षे-१६४३ वर्षे जनन्या सह दीक्षा | ततः 1655 वर्षे पण्डितपदं / ततोऽनुक्रमेण 1656 वर्षे स्तम्भतीर्थे सूरिपदं / तद्व्यतिकरो यथासर्वव्यवहारिश्रेणिशिरोमणि सा. श्रीमल्लनामा स्वभ्रातृजन्मना सा० सोमाख्येन सह श्रीआचार्यपदस्थापनार्थमर्थव्ययं कर्तुकामः प्रकामप्रमोदेन मरुभेदपाटलाटसौराष्ट्र कच्छ कुङ्कणादिदेशेषु गूर्जरदेशे च प्रतिग्राम प्रतिनगरं कुङ्कमपत्रिकाप्रेषणपूर्व सङ्घलोकान् सहस्रशः समाहूय तपागणयतियतिनीसप्तशतीमितपरिकरमाकारितवान् / अथ सकल सङ्घमिलनानन्तरं श्रीमल्लसाधुना बन्धुरताऽधरीकृतसुरमन्दिरे निजमन्दिरे दिव्यदुकूलकमनीयमण्डपं शक्रमण्डपमिव निर्माय विज्ञप्ताः श्रीविजसेनसूरयो वैशाखशुद्धचतुर्थी चतुर्थे रवियोगे कुमारयोगे मृगाङ्कमृगशिरःसंयोगाद् अमृतसिद्वियोगेऽपि च श्रीविजयदेवसूरिरिति नामस्थापनपूर्वक सूरिपदं ददुः। अथ श्रीमल्लसाधुना सन्तुष्टेन सङ्घमाक्तिस्तथाचक्रे यथा कल्पवृक्ष एवायमिति मेने / किं बहुना तस्मिन्महे सा०श्रीमल्लेन दशसहसरूप्यकव्ययः कृतः / ततस्तदनेतनदिने तत्रत्येन ठक्करकीकाख्येन तत्पदोत्सवनिमित्तमेवाष्टसहस्ररूप्यकव्ययपूर्व प्रतिष्ठा कारिता / एवं सर्वसङ्ख्यया श्रीविजयदेवसूरीणां पदमहे पञ्चाशत्सहस्रप्रमिता महिमुन्दिका व्ययिताः / ततः 1658 वर्षे पत्तने परीक्षकसहस्रवीरसज्ञेन पञ्चसहस्रमहिमुन्दिकाव्ययपूर्वकं गच्छानुज्ञानन्दिमहश्चके / अथ श्रीविजयदेवसूरयोऽहम्मदावादे प्रतिष्ठाद्वयं, पत्तने प्रतिष्ठाचतुष्टयं, स्तम्भतीर्थे प्रतिष्ठात्रयं बहुद्रव्यव्ययपूर्वकं कृत्वा स्वजन्मभूमौ श्रीइलादुगै चतुमासी चक्रुः / तदा तत्रत्यैः सङ्घलोकैरनेके महोत्सवाः कृताः। तन्माहात्म्यहृष्टो राजा श्रीकल्याणमल्लनामा चिन्तामणिपाठिमहाभट्टचट्टवेष्टितः प्रतिश्रयं प्राप्तस्तववादमकारयत् / तदा तेषां सूरीणां पुण्योदयापार्श्ववर्तिभिर्वादिदर्पसर्पगारुडरत्नैः पण्डितपद्मसागरगणिगीतार्थशिरोरत्नैरेव सर्वेऽपिभहास्तथा निजिता यथा लज्जिताः सन्तोऽहो! गुरूणां गुरुतेति स्तुवन्तो राजेन्द्रमुख्याः स्वाश्रयं प्रापुः। तदा तत्र महती प्रभावना जाता / ततो बृहनगरे वीरप्रतिष्ठा कृत्वा राजनगरे चतुर्मासी स्थिताः। तत्रावसरे इलादुर्गे श्रीऋषभदेवबिम्ब यवनैव्यङ्गितं ततस्तत्प्रमाणमेव नवीन बिम्बं श्राद्धैविधाप्य नटीपद्रे महत्या प्रतिष्ठायां श्रीसरिभिः प्रतिष्ठाप्य गिरिशिरःस्थचैत्यचैत्योद्धारपूर्वकं स्थापितं / ततोऽन्यदा श्रीमण्डपाचले श्रीअकबरपातिशाहिपुत्राजिहांगीरश्रीसलेमशाहिः श्रीसूरीन् स्तम्भतीर्थतः सबहुमानमाकार्य गुरूणां मूर्ति रूपस्फूर्ति च वीक्ष्य वचनागोचरं चमत्कारमाप्तवान् / ततः समये श्रीगुरुभिः समं धर्मगोष्ठीक्षणे विचित्रधर्मवाती पृष्ट्वा साक्षाद् गुरुस्वरूपं निरुपमं दृष्ट्वा च स्वपक्षीयैः परैः प्राक् किञ्चिद् व्युग्राहितोऽपि शाहिस्तदा तत्पुण्यप्रकर्षेण हर्षितः सन् श्रीहारसूरीणां श्रीविजयसेनसूरीणां च पट्टे एत एव पट्टधराः सर्वाधिपत्यभाजो भवन्तु, नापरः कोऽपि कूपमण्डू Aho I Shrutgyanam Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् / कप्राय इत्यादि भूयः प्रशंसां सृजन जिहांगीरीमहातपाविरुदं दत्तवान् , अनुज्ञापितवांश्च तपागच्छश्रावकेन्द्रचन्द्रपालादीन यदस्मदीयदक्षिणीयमहावाद्यवादनपूर्वकं गुरून् स्वाभयं प्रेषयन्तु यथा युष्मद्गुरून वयमपि गवाक्षस्था निरीक्ष्य हृष्टा भवामः / इत्यादिवचनोत्साहितैस्तै राजमान्यसङ्घदाक्षिणात्यमालवीयसबैश्च तथा महोत्सवाः कृता यथा तपागणसवमुखे पूर्णिमाऽवतीर्णा अन्येषां च गुरुद्विषां मुखेऽमावास्येति / किंबहुना यथा पुराऽकब्बरेण श्रीहीरसूरयस्ततोऽप्याधिक्येन श्रीविजयदेवसूरयः शाहिजिहांगीरेण सन्मानिता इति / अथ श्रीगुरवो गूर्जरदेशान्तभूत्वा सौराष्ट्रदेशसुन्दरे द्वीपबन्दिरे फरङ्गीपातशाहिप्रदत्तव्याख्यानानुज्ञापूर्व चतुर्मासकद्वयीं च कृत्वा क्रमेण हलारदेशे श्रीनवानगरे चानेकलोकान् बोधिदानेन सुखयन्तः श्रीशत्रुञ्जये यात्रां विधाय स्तम्भतीर्थे चतुर्मासकं च निर्माय साबलीस्थाने सोनीरत्नसीक्रियमाणामारिपटहप्रदाने तीव्रक्रियाकष्टानुष्ठानपूर्वकं सूरिमन्त्रसत्कं मासत्रयध्यानं विधायाक्षयतृतीयायां सभामभ्येयुः / ततस्तत्रैव चतुर्मासी प्रतिष्ठाद्वयीं च कृत्वा श्रीइलादुर्गे प्रतिष्ठात्रयं कृतवन्तः / ततः सङ्घन साढे श्रीआरासणादितीर्थयात्रां कुर्वाणाः पोसीनाख्यपुरे पुराणानां पञ्चप्रासादानां श्राद्धानामुपदेशद्वारेण बहुद्रव्यव्ययसाध्यमपि तदुद्धारं कारितवन्तः / क्रमेण चारासणे मूलनायकाः पुनः प्रतिष्ठाविषयीकृत्य स्थापिताः। कालान्तरेण च इलादुर्गे श्रीकल्याणमल्लनरेन्द्राग्रहादागत्य तत्रत्य सा० सहजूगृहे महामहेन 1681 वर्षे वैशाखशुद्धषष्ठयां श्रीविजयसिंहसरीन स्वपदेऽस्थापयत् / तन्महोत्सवात्तुष्टः कल्याणराजोऽपि रणमल्लचोकीनामके गिरिशृङ्गे श्रीगुरून समाहूय धर्मगोष्ठी विधाय तत्स्थानं नवीनचैत्यस्थापनाय गुरुपुरः प्राभृतीकृतवान् / अथ च तत्र चैत्यमद्यापि निष्पाद्यमानमस्ति। ततश्चतुर्मासान्ते मरुदेशसङ्घघनाग्रहात् श्रीगुरवोऽनूचानान्विता अनेकलोकपरिवृताः श्रीअर्बुदाचलतीर्थ नमस्कृत्य सा तेजपालेन विधीयमानां महामहमनोहरां श्रीसीरोहीमागत्य चतुर्मासी तस्थुः / तत्र च श्रीजाबालपुरप्रमुखतत्परिसरसङ्घलोकैर्जङ्गमं तीर्थमागतं मन्यमानैहुतरद्रव्यव्ययपूर्वकमागय वन्दिताः / तत्रावसरे सादडीसत्कलुम्पाकैश्चैत्यार्चाद्यसद्भावविषयिणी महती जिनशासनाशातना कृता / ततस्तऋत्यैर्निर्बलैः श्रावकैः सीरोह्यामागत्य श्रीगुरवो विज्ञप्ताः-यद् युष्मादशेषु गुरुषु सत्सु वयं वराकैलम्पाकैः पराभूताः स्मस्तनास्मत्साहाय्यं विधीयताम् / इत्युक्तेः शीघ्रमेव गुरुप्रषितैर्गीताथैरेव तत्र गत्वा तद्वेषधारिणो भास्करैयूंका इव मूकता प्रापिताः। ततोऽप्युदयपुरे मेदपाटदेशाधीशराणाश्रीकसिंहपार्श्वे गत्वा छन्दःकाव्यादिभिस्तं तोषयित्वा सकलराजलोकपरिकलितायां पर्षदि लुम्पाकान् वादे विजित्य तपाः सत्या लुकाश्चासत्या इति श्रीराणाजीसत्कं सहीत्यक्षरद्वयोकुन्ताङ्कितं स्फुरन्मानमानीय सादडीचतुष्पट्टे वाचायवा गुरूणां प्रसत्तेस्तपागच्छप्रौढिः प्रौढतमा निम्मिता। ततो योधपुराधीश्वरराजश्रीगजसिंहामान्यपरमप्रधानमन्त्रि जयमल्लेन श्रीजालोरदुर्गे श्रीगुरूनाकार्य बहुतराडम्बरेण प्रतिष्ठात्रयमन्तरान्तरा चतुर्मासकत्रय कारापणपूर्वकं स्वर्णगिरिशी चैत्यत्रयं च प्रतिष्ठापितम् / Ahol Shrutgyanam Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेवभूरि-माहात्म्यम् 1684 वर्षे पुनर्जयमल्लमन्त्रिणा सहस्रशो रूप्यकव्ययेन विजयसिंहसूरीणां गच्छानुज्ञानन्दि कारिता / सतो मेडतानगरे प्रतिष्ठात्रयं विधाय विन्ध्यपुरे चतुर्मासीस्थितान् गुरून् ज्ञात्वा गच्छीयगीतार्थरजितेन राणाश्रीजगतसिंहजीकेन श्रीवरकाणके पौषदशम्यां समागतानां लोकानां शुल्कमोचनं तदाघाटरोपपूर्व ताम्रपत्रेणोत्कीर्य श्रीगुरूणां पुरः प्राभृतीकृतं तत्कदाप्यभूतपूर्व सर्वेषामद्भुतकृत् सजातम् / ततो राणपुरादिषु तीर्थयात्रां कृत्वा झालाश्रीकल्याणजीकेन संमुखमागत्याकारिताः श्रीमेदपाटदेशं पवित्रयन्तः प्रथम षमणारग्रामे प्रतिष्ठाद्वयं, ततो देवकुलपाटके प्रतिष्ठामेकां, ततो नाहीमामे अघोटानगरे चेति प्रतिष्ठापञ्चककरणपूर्वकं श्रीउदयपुरे चतुमौसी चक्रुः / ततस्तत्पारणके गूर्जरत्रां प्रचिचिचिलिषून दलवादलमहलमध्यस्थितान् श्रीगुरून् श्रीजगसिंहजीसज्ञको राणकोऽपि नन्तुमागतश्चिरं गुरुमुखचन्द्रे चकोरीकृतचक्षुस्तद्देशनाऽसमसुधां पीत्वा प्रीतः प्रकामं सत्कारसन्मानादि दत्त्वा गुरुपुरश्चतुरो जल्पान् प्रपन्नवान् / तथाहिअधप्रभृति पिछोलके उदयसागरे च तटाके मीनजालानि निषिध्यति 1, राज्याभिषेकदिने गुरुवारे जीवामारि कार्या 2, स्वजन्ममासे भाद्रपदाभिधे जीवहिंसा न कार्या 3, मचिंददुर्गे कुम्भलविहारे जीर्णोद्धारः कार्यः ४-इति जल्पचतुष्टयीग्रहणाभिप्रहवन्तं भूमिकान्तं वीक्ष्य सकला अपि लोका भृशमाश्चर्यभाजोऽहो ! गुरूणां कोऽपि लोकोत्तरो महिमातिशय इत्यादि. वर्णनपरा जाताः / किंबहुना श्रीकुमारपालभूपालेन श्रीहेमसूरय इव श्रीराणाजीकेन श्रीगुरवो बहु मेनिरे-इत्यादयः कियन्तोऽवदाता लिख्यन्ते / यतस्तपसा साक्षाद्धन्यानगारा इव, सौभाग्येनाभिनववसुदेवावतारा इव, ध्यानमौनक्रियाकष्ठानुष्ठानादिना श्रीभद्रबाहुस्वामिन इव, निर्विकृतिविकृतित्यागेन प्रायो भक्तजनगृहाहारत्यागेन च श्रीमानदेवसूरय इव श्रीविजयदेवसूरयः सर्या इव भरतभूमिपद्मिनी प्रतिबोधयन्तो मालवमण्डले उज्जयिन्यादौ दक्षिणदेशे च बीजापुर-बहनिपुरादौ कच्छदेशे च भुजनगरादौ मरुदेशे च जावालपुर-मैदिनीपुर-धंघाणीप्रामादौ जीर्णोद्धारकारापणपूर्वकमनेकशताहत्प्रतिमाः प्रतिष्ठयन्तोऽनेकपण्डितपदानि पाठकपदानि स्थापयन्तो दर्शनादेव होन्दूतुरुषकादीनामपि चमत्कारं कुर्वन्तो जीवहिंसादिनिषेधनियमांश्च कारयन्त: सिरिविजयसीहसूरिष्पमुहेहिं णेगसाहुक्ग्गेहिं / / परिकलिआ पुहविअले, विहरिता दितु मे भदं // 2 // श्रीविजयसिंहसरि-प्रभृत्यनेकशतसाधुभिः परिवृताश्चिरं पृथ्व्यां विहरन्तो 'भद्रं दिशन्तु' कल्याणं कुर्वन्त्विति गाथार्थः // 2 // इति गाथा द्वयं पूर्वपट्टावल्यां प्रयोज्यम् / तपगणपतिगुणपद्धतिरेषा गुणविजयवाचकलि लिखे / गन्धारबन्दिरीयनावकसा० मालजीतुट्यै // 1 // इति गुर्वावली प्राचीनगुर्वावल्याः पुरोऽनुसन्धीय सुधीभिर्वाचनीया // श्रीमङ्गलमस्तु / / Ahol Shrutgyanam Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् तथा स्तम्भतीर्थवासिना सा० देवचन्द्रेण देवीभूय स्वे वे भायें सं० 1673 वर्षात्पनोपाधिमतमोचनाय भृशं प्रोक्तमपि तन्मतं न त्यजतस्तदान्यदा तदीयश्राद्धजेमनवारायां जायमानायां तेन देवेन तन्त्र पाषाणवृष्टिस्तथा कृता यथा भुक्तिं त्यक्त्वा सर्वेषु नष्टेषु तं देवं प्रकटीभूत ते प्रोचतुस्त्वं कोऽसि कथं चावां भापयसि ? इति प्रोक्ते सोऽवोचत्-अहं भवद्भत्ता देवचन्द्रो देवीभूतोऽन्यैः सप्तभिर्देवैः सह श्रीविजयदेवसूरीणां सांनिध्य कुर्वाणोऽस्मीति तेन भवतीभ्यामपि स एव गुरुरङ्गीकार्यों येन मद्भयं न भवतीति प्रोक्ते ते अपि श्रीगुरुभक्ते जाते इत्येक देवसांनिध्यम् 1 / तथाऽनयैव रीत्या घोघाख्यबन्दिरवासी सा० सोमजीनामा स्वं कुटुम्नं प्रापराङ्मुखमपि देवीभूय प्रतिबोध्य च श्रीविजयदेवसूरिभक्तं कृतवानिति द्वितीयम् 2 / तथा श्रीविजयदेवसूरिषु मण्डपाचलं प्रतिचलत्सु सेहरषीनामग्रामस्वामिपुत्रः कमाख्यः परमारः। स च पूर्व भूतातत्वेन लोकान् मारयन् पित्रा निगडितस्तदा गुरुवासक्षेपेणैव सजीभूत इति महदाश्व-' यजातमिति तृतीयम् 3 / तथा राजनगरवासी वणिकपुत्रः सप्त वर्षाणि यावर अथिलोऽभूत् तत्पित्रादिभिः श्रीविजयदेवसूरिकरक्षेपः कारितस्तत्कालमेव सज्जो जातश्चेति महद्भुतमिति चतुर्थम् 4 तथा मेडतावासी षीमसरागोत्रीयः सा थानाख्यो नवमासान यावत्क्षेत्रपालगृहीतोऽन्यदा श्रीविजयदेवसूरिवासक्षेपेण सजोऽजनि, इति सर्वलोकप्रसिद्धमिति पञ्चमम् 5 / तथा मरुदेशे गूर्जरदेशे दुर्भिक्षे महति सत्यपि श्रीगुरुषु समागतेषु महत् सुभिक्षं जातमित्यादि श्रीविजयदेवसूरीणां देवसांनिध्यं बहुशो दृष्टमिति // ladis... - Ahol Shrutgyanam Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका MAR 20-22 23-25 26-32 33-40 1 प्रथमः सर्गः 2 द्वितीयः सर्गः ... 3 तृतीयः सर्गः ... 4 चतुर्थः सर्गः 5 पञ्चमः सर्गः 6 षष्ठः सर्गः 7 सप्तमः सर्गः ... 8 अष्टमः सर्गः ... 9 नवमः सर्गः 0 दशमः सर्गः ... 11 एकादशः सर्गः ... 12 द्वादशः सर्गः ... 13 त्रयोदशः सर्गः ... 14 चतुर्दशः सर्गः ... 15 पञ्चदशः सर्गः ... 16 षोडशः सर्गः ... 17 सप्तदशः सर्गः ... 18 अष्टादशः सर्गः ... 19 एकोनविंशः सर्गः 20 परिशिष्टम् ... 51-76 77-83 84-88 89-93 99-100 101-102 103-106 107-109 110-111 112-127 Aho I Shrutgyanam Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ahol Shrutgyanam Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???