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ISSN 0972-1002
श्रमण ŚRAMANA
A Quarterly Research Journal of Jainology
Vol. LXVII
No. II
April-June 2016
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्ककान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया। कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्रचक्रं, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।
भक्तामरस्तोत्र-4
पाश्वनाथ
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
Established : 1937
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श्रमण ŚRAMANA
(Since 1949) A Quarterly Research Journal of Jainology Vol. LXVII. No. II April-June, 2016
Editor Dr. Shriprakash Pandey
Associate Editors Dr. Rahul Kumar Singh Dr. Om Prakash Singh
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सध्यम
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
(Established: 1937) (Recognized by Banaras Hindu University as an
External Research Centre)
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ADVISORY BOARD
Dr. Shugan C. Jain New Delhi Prof. Cromwell Crawford Univ. of Hawaii Prof. Anne Vallely Univ. of Ottawa, Canada Prof. Peter Flugel SOAS, London Prof. Christopher Key Chapple Univ. of Loyola, USA
Prof. Ramjee Singh Bheekhampur, Bhagalpur
Prof. Sagarmal Jain Prachya Vidyapeeth, Shajapur
Prof. K.C. Sogani Chittaranjan Marg, Jaipur Prof. D.N. Bhargava
Bani Park, Jaipur Prof. Prakash C. Jain
JNU, Delhi
EDITORIAL BOARD Prof. M.N.P. Tiwari
Prof. Gary L. Francione B.H.U., Varanasi
New York, USA Prof. K. K. Jain
Prof. Viney Jain, Gurgaon B.H.U., Varanasi
Dr. S. N. Pandey Dr. A.P. Singh, Ballia
PV, Varanasi ISSN: 0972-1002
SUBSCRIPTION Annual Membership
Life Membership For Institutions : Rs. 500.00, $ 50 For Institutions : Rs. 5000.00, $ 250 For Individuals : Rs. 300.00, $ 30 For Individuals : Rs. 2000.00, $ 150
Per Issue Price : Rs. 150.00, $ 15
Membership fee & articles can be sent in favour of Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5
PUBLISHED BY Shri Indrabhooti Barar, for Parshwanath Vidyapeeth, I. T. I. Road, Karaundi, Varanasi 221005, Ph. 0542-2575890
Email: pvpvaranasi@gmail.com
Theme of the cover: Bhaktāmara-stotra, Verse-4 based picture, Yantra & Mantra
With curtesy : Sacitra Bhaktāmara-stotra by Shri Sushil Suri NOTE: The facts and views expressed in the Journal are those of authors only. (aflah sahifra qez sitt faar stond 374-10) Printed by. Mahaveer Press, Bhelupur, Varanasi
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सम्पादकीय वर्षावास का समय आसन्न है। यह काल धर्माराधना के लिये सर्वोत्तम माना गया है। धर्माराधना और तप:साधना के लिये वार्षावास, चातुर्मास का समय सर्वथा अनुकूल माना जाता है। २७ नक्षत्रों में वर्षाकाल के १० नक्षत्र और १२ महीने में चातुर्मास के ४ मास ऋतुचक्र की धुरी हैं। श्रावण-भाद्रपद के दो महीनों में एक ही स्थान पर निवास करने को जैन आगमों में वासावास कहा गया है। आसोज और कार्तिक मास मिलकर चातुर्मास के चार मास होते हैं। चातुर्मास की यह परम्परा वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराओं में पाई जाती है। परिव्राजक, ऋषि, श्रमण, निग्रंथ एक स्थान पर इस अवधि में रुक कर धर्माराधना करते हैं। जैन परम्परा में आज भी चातुर्मास की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीनों तक पादविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते हैं। वैसे तो चातुर्मास में हिंसा का वर्जन, इन्द्रियों का संयम और धर्माराधना करने का विधान सम्पूर्ण भारतीय संस्कृत में व्याप्त है किन्तु जैन परम्पस में इसका विशेष महत्त्व है। जैन परम्परा में चातुर्मास या वर्षावास के दो प्रमुख उद्देश्य माने गये हैं- (१) जीवदया अथवा जीव विराधना व हिंसा से बचाव करना तथा, (२) धर्माराधना या व्रत आराधना। चूंकि वर्षाकाल का समय सूक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर अनन्तानन्त जीवों तथा अनेक प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति का समय होता है, इसलिये श्रमण के लिये यह विधान किया गया कि ऐसे समय में जीवों की हिंसा से बचने के लिये वह इधर-उधर विहार, गमनागमान, यात्रा न करे- 'वासावासे गामाणुगामं दूइज्जेज्जा'। धर्माराधना के लिये यह समय इसलिये अनुकूल है क्योंकि इसमें वर्षा के कारण भूमि की उष्णता कम हो जाती है, वर्षा की रिमझिम से पाचनशक्ति कमजोर पड़ जाती है, न अधिक भूख लगती है न अधिक प्यास। ऐसे वातावरण के कारण यह ऋतु तपस्या के लिये अत्यन्त अनुकूल होती है। यही कारण है कि श्रावण-भादों में जैन समाज में जितनी तपस्या होती है उतनी समूचे वर्ष में भी नहीं होती। सभी अपनीअपनी सामर्थ्य के अनुसार उपवास, बेला, तेला, अठाई, मासखमण आदि तप की आराधना में जुट जाते हैं। उपवास के अलावा भी आयंबिल, एकासना, द्रव्यसंयम आदि द्वारा भी तप की आराधना की जा सकती है। साधक कुछ भी न करे यदि वह रात्रि-भोजन का त्याग भी चार महीने तक कर ले तो दो महीने का निराहार तप तो वह कर ही लिया। तपाराधना के साथ चातुर्मास से आरोग्य लाभ भी होता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कम खाने से पाचनतन्त्र ठीक रहता है। आयंबिल से अनेक उदर रोग ठीक हो जाते हैं। चातुर्मास में पड़नेवाला पर्युषण पर्व पर्वाधिराज है। पर्व तो वह है जो जिसमें या जिन दिनों में विशेष धर्म साधना द्वारा आत्मा को भावित किया जाये। किन्तु
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पर्युषण के आठ दिन महापर्व या पर्वाधिराज कहलाते हैं। इसकी उत्तमता और श्रेष्ठता इसी में निहित है कि यह मानव आत्मा के विकास और विशुद्धि की प्रेरणा देता है। पर्यषण को 'पज्जोसवणा', 'पज्जसणा' या 'पज्जोसमणा' भी कहा जाता है जिसका अर्थ है- पर्युपासना। 'उपासना' शब्द जिसका सीधा अर्थ होता है अपने इष्ट के सम्मुख या समीप आना। इसमें जब 'परि' उपसर्ग लगता है तो उसका अर्थ अधिक व्यापक हो जाता है। अर्थात् सम्पूर्ण निष्ठा के साथ, तन्मय होकर अपने इष्ट के समीप बैठना, उसकी भावना, ध्यान और चिन्तन करना- यही है पर्युपासना या पर्युषणा। किन्तु इष्ट है कौन जिसके समीप बैठना चाहिये? वह इष्ट है आत्मा। आत्मा का, आत्मा में, आत्मा से ध्यान करना, आत्मा के पास बैठना यही पर्युषणा है। आत्मा का लक्षण है ज्ञान-दर्शनचारित्र। ज्ञान की उपासना, आत्मा की उपासना, ज्ञानी की सेवा आत्मा की सेवा, ज्ञान का प्रचार आत्मा की प्रभावना। दर्शन अर्थात् अपनी शक्तियों, अपनी शुद्धता-पवित्रता में विश्वास। चारित्र समस्त कर्मों से, कषायों से, विभावों से खाली हो जाने के अलावा कुछ नहीं है- चायरित्तकरणं चारित्तं। 'पर्युशमना' शब्द का अर्थ है- क्रोध, मान, दम्भ, राग, द्वेष रूपी कषायाग्नि को शील, सदाचार, विनम्रता, करुणा, क्षमा तथा प्रेम की वर्षा से शान्त करना, उनका शमन करना। अतः पर्युषण आत्मशुद्धि का, आत्म-शोधन का, आत्मचिन्तन का पर्व है। इस पर्व में आत्मा के चारों तरफ लिपटे कर्मों को हटाने का पुरुषार्थ किया जाता है। चातुर्मास के चार महीनों में साधु-साध्वी या साधक द्रव्य से एक स्थान पर वास करते हैं किन्तु भाव से अपनी आत्मा में वास करते हैं। पर्युषण के इन दो प्रमुख अर्थों को समझकर यदि हम चातुर्मास के इन चार महीनों में करणीय चार कार्यों - (१) पौषध-व्रत, (२) ब्रह्मचर्य का पालन, (३) आरम्भ-समारम्भ का त्याग एवं (४) विशेष तप को करते हुये धर्माराधना करें तो अवश्य ही हम अपना जीवन सफल बना सकते हैं। 'श्रमण' के इस अंक में वर्षावास और तप, श्रावक-प्रतिमाओं पर आधारित कुछ लेख प्रकाशित कर रहे हैं साथ ही कहायणकोस' के कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य साधु धनेश्वरसूरि द्वारा विरचित 'सुरसंदरीचरिअंके ग्यारहवें परिच्छेद को मूल, उसकी संस्कृत च्छाया; गुजराती तथा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर रहे हैं। सभी परिच्छेदों की संस्कृत च्छाया तथा गुजराती अनुवाद.प.पू. आचार्यप्रवर श्री राजयशसूरीश्वरजी के शिष्य प.पू. गणिवर्य उपाध्याय श्री विश्रुतयश विजयजी म.सा. ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद एवं अंग्रेजी में परिचय लेखन स्वयं सम्पादक ने किया है। आशा है पाठकगणों को 'श्रमण' का यह अंक रुचिकर लगेगा।
-सम्पादक
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Contents
1-15
16-22
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श्रावक केश लोचः आगमेतर सोच । आगमज्ञानरत्नाकर श्री जयमुनि जी जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा डॉ० कुमार शिवशंकर जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व आशीष कुमार जैन वाराणसी की नग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन डॉ० श्रुति मिश्रा Reconsidering the Date of the Nirvāņa of Lord Mahāvira Prof. Sagarmal Jain
30-41
43-58
पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार जैन जगत् साहित्य सत्कार सुरसुंदरीचरिअं (ग्यारहवां परिच्छेद)
59-62
63 64-65
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Our Contributors
१. आगमज्ञानरत्नाकर श्री जयमुनि जी
एस. एस. जैन सभा, गन्नौर, सोनीपत
२. डॉ० कुमार शिवशंकर
अध्यक्ष, प्राकृत विभाग.महाराणा प्रताप कॉलेज, मोहनियाँ, कैमूर (बिहार)
३. आशीष कुमार जैन
शोध-अध्येता, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
४. डॉ० श्रुति मिश्रा
पूर्व शोध-छात्रा, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
5. Prof. Sagarmal Jain
Founder Director Prachya Vidyapeeth, Shajapur (M.P.)
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच
श्री जयमुनि जी
धर्म का उद्गम विवादों के शमनार्थ हुआ किन्तु धीरे-धीरे धर्म ही विवादास्पद हो चला। जैन धर्म ने अनेकान्तवाद के माध्यम से धार्मिक विवादों का निपटारा करना चाहा लेकिन जैन धर्म में विविध विवाद प्रकट हो गये ।
माना यह जाता है कि विवाद का मुद्दा जर, जोरू और जमीन होते हैं, परन्तु धार्मिक विवाद इनसे उत्पन्न होने के बजाय मान्यताओं की भूमिका से उपजते हैं। मैं श्रेष्ठ, मैं सही, मैं प्राचीन, मैं मौलिक ये अहं सत्यता, अहं मन्यता धर्मक्रियाओं में विवाद की जननी रही है। भोग से संघर्ष की उत्पत्ति सहज समझ में आती है पर त्याग उससे भी ज्यादा विवादों को जन्म देता है।
इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि गृहस्थ को यदि अधिक कमाई का गर्व हो सकता हैं तो संन्यासी को अधिक त्याग तपस्या का गर्व हो सकता है। भगवान महावीर ने कर्मबन्धन के कारणों को कर्म निर्जरा का तो कर्म निर्जरा के कारणों को कर्म बन्धन का कारण बताकर इस गहन सत्य को सार्वजनिक किया है। उत्कृष्ट त्याग के लिए विख्यात जैन समाज में समय-समय पर विवादस्पद मुद्दे उभरते रहे हैं।
कुछ वर्षों से जैन समाज में " श्रावकों का लोच" ऐसा ही विषय उभर कर सामने आया है, जो विचारणा की मांग कर रहा है।
केशलोच कायक्लेश तप के अन्तर्गत आता है । तप के लिए भगवान महावीर ने बड़ी सावधानियां दी हैं। पहली सावधानी तो यह कि जो साधक सम्यक् ज्ञान दर्शन का धारक होकर चरित्र का आराधक बन जाए, वही तप के क्षेत्र में प्रवेश करे। जिसने प्रथम तीन मोक्ष मार्गों (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) का अवलम्बन नहीं लिया, वह कठोर से कठोर तपस्या भी कर ले तो अज्ञान कष्ट या बालतपस्या का अधिकारी ही कहलाएगा, सकाम निर्जरा का नहीं ।
उत्तराध्ययन सूत्र २८वें अध्ययन में
" नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। ऐस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं । । ""
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2 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 कहकर मोक्षमार्ग प्रतिपादन में तप का चौथा स्थान रखा है। जो आत्मा पहली तीन शर्तों को पूरा कर ले उसके पश्चात् ही तप की ओर कदम बढ़ाए, ऐसा भाव इस गाथा से निकलता है। तत्त्वार्थ सूत्र में तो मोक्षमार्ग के तीन ही स्तम्भ स्थापित किए हैं- “सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणिमोक्षमार्गः” तप की अविवक्षा स्पष्ट रूप से तप के विषय में मूल जैन धारणा को अभिव्यक्त कर रही है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पुष्टि, शुद्धि एवं परिपक्वता के लिए तप का आसेवन होता है। इन तीनों में भी चारित्र की दृढ़ता बढ़ाने के लिए तप किया जाता है। यदि किसी
आत्मा ने चारित्र ग्रहण ही नहीं किया तो तप किस उद्देश्य की पूर्ति करेगा? पतीली को अग्नि पर रखने का लाभ तभी है यदि पतीली में पानी हो, पानी में दाल हो, ताकि अग्नि की उष्णता पतीली को गर्म करके पानी को उबाल दे और उबला हुआ पानी दाल की कठोरता को मुलायम कर दे। बिना पानी और दाल के पतीली को आग पर रखना जैसे अज्ञता, अनर्थदण्ड माना जाता है वैसे ही चारित्र पर्यायों के अभाव में तप की अग्नि पर शरीर को तपाना भी एक तरह से बालिशता और मूढ़ता में परिगणित हो सकता है। कथा साहित्य में प्रभु पार्श्वनाथ ने कमठ की बालतपस्या का इसीलिए विरोध किया था। भगवती सूत्र में गोशालक के प्रसंग में, वेश्यायन तपस्वी को 'बालतपस्वी' का विशेषण इसी कारण दिया, क्योंकि तप की पूर्वभूमिका ज्ञान-दर्शन-चारित्र का उसके पास अभाव था। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन तपोमार्ग की प्रारम्भिक ६ गाथाएं आंख खोलने वाली हैं। तप का विवेचन, पालन, अभ्यास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पहले उनपर दृष्टिपात करना चाहिए। सर्वप्रथम कहा है कि साधक को पहले आस्रव निरोध करना है फिर तपस्या करनी है। आस्रव द्वार बन्द किए बिना तपस्या का वही परिणाम होता है जो पानी के स्त्रोत रोके बिना तलाब सुखाने का। एक तरफ कड़ी मेहनत से पानी उलीचा जा रहा है, सुखाया जा रहा है, दूसरी ओर से चुपचाप पानी भरता जा रहा है। पुराने युग से धार्मिक व्यक्ति ऐसी भूलें करते आ रहे थे, अत: भगवान महावीर ने चेताया कि तप की ओर कदम बढ़ाने से पूर्व आवश्यक शर्ते पूरी करनी चाहिए। आस्रव रहित आत्मा तप करे तो लाभदायक अन्यथा सश्रम कारावास।
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 3 आस्रव रहित कैसे हुआ जाता है इसका स्पष्टीकरण प्राणिवध, असत्यभाषण, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह से रहित होकर जो जीव रात्रिभोजन का त्याग कर देता है वह आस्रवों को रोकता है तथा ५ समिति तथा ३ गुप्ति का पालने करने वाला, कषायों को वशीभूत करने वाला, इन्द्रियों को जीतने वाला, तीन प्रकार के गौरवों से मुक्त तथा तीन शल्यों को त्यागने वाला साधक आस्रव रहित हो पाता है। इस सहज संयम की दृढ़ नींव को स्थापित करने के बाद तपस्या से प्राचीन कर्मों का सफाया होता है। जो संयमी पाप कर्मों के आगमन को रोकता है वह ही तप द्वारा कर्मनिर्जरा करता है। यह जिन शासन का सर्वोच्च उद्घोष है। इस विशद् सिद्धान्त की उपेक्षा का परिणाम यह निकलता है कि अयोग्य आत्माएं भी तप के क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाती हैं। वे स्वयं मुग्ध होकर कल्पना करती रहती हैं कि हमारे कर्म नष्ट होते जा रहे हैं तथा उनके तप को देखकर अन्य व्यक्ति भी भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति एवं प्रशंसा करके उन्हें तप के लिए उत्साहित करते रहते हैं। चार तीर्थों में श्रावक और श्राविका तप किस सीमा तक करें-यह एक उलझा हुआ प्रश्न है। पर आगमों का संतुलित चिन्तन किया जाए तो उसका भी समाधान मिल सकता है। I. सर्वप्रथम; आगम में तपस्या करने का आदेश न साधु-साध्वी के लिए है न श्रावक-श्राविका के लिए। हां, तपस्या करने वाले साधु-साध्वियों का चित्रण पर्याप्त मात्रा में है, तथा श्रावक-श्राविकाओं की जीवनचर्या के वर्णन में तपस्या के कुछ संकेत मिलते हैं।
II. संयम के अनुपात में ही तप का अनुष्ठान आगमकारों को अभीष्ट रहा है। उदाहरणार्थ- साधु-साध्वी उत्कृष्ट तपस्या ६ महीने की करते हैं तो श्रावक तेला तप। अर्थात् साधु की तुलना में गृहस्थ का तप ६० वां अंश है। तेला तप भी उस गृहस्थ के लिए जो १२ व्रती हो तथा तेला भी उस स्थिति में जब वह असंयम की प्रवृत्तियों से मुक्त हो अर्थात् प्रौषध की अवस्था में हो। III. जितने अंश में साधु का संयम होता है, उतने अंश में वह तपस्या करता है तथा जितने अंश में गृहस्थ का संयम (संयमासंयम) होता है उसके अनुपात में उसका तप, उससे अधिक नहीं। IV. रात्रिभोजन त्याग के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की धारणा है कि यह श्रावक के व्रतों का अंग न होकर उसके लिए तपस्या है। अर्थात् श्रावक के स्तर पर रात्रिभोजन त्याग भी पर्याप्त तपस्या है क्योंकि रात्रि में विचरण, यात्रा, आवागमन उसके लिए वर्जित नहीं है। अंधकार में भोजन करने से जितनी हिंसा संभव है उससे
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4 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2 अप्रैल-जून, 2016
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कई गुणा हिंसा आवागमन में संभावित है। अतः रात्रि भोजन छोड़ना उसके लिए एक तपस्या है, व्रतों का अंग नहीं।
तपस्या के सम्बन्ध में इतनी स्पष्टता आगमों में उपलब्ध होने के बावजूद जैन इतिहास में ऐसा समय आया कि रात्रि - भोजन त्याग प्रत्येक जैन के लिए अनिवार्य हो गया। इस छोटे से नियम ने अन्य सभी श्रावकोचित व्रतों से ऊपर अपना स्थान बना लिया। किसी व्यक्ति का समग्र जीवन अहिंसा - सत्य, ईमानदारी, सदाचार आदि से भरपूर होने पर भी यदि वह रात्रिभोजन करता है तो उसे जैन मानना अपराध हो गया तथा सभी उच्च गुणों से वर्जित, झूठ - बेईमानी से ओत-प्रोत व्यक्ति भी रात्रि भोजन का त्यागी है तो वह विशुद्ध जैन श्रावक के रूप में सम्मानित होने लगा। धर्म का सस्तापन इसी को कहा जाएगा जब अल्प मूल्य की चीजें सिर पर चढ़ जाएं और बहुमूल्य पाताल में चली जाएं। समुद्र के सम्बन्ध में एक अन्योक्ति है कि वह तिनकों और झागों को सबसे ऊपर रखता है तथा मोतियों को नीचे फेंक देता है। ऐसा ह्रास जैन धर्म में -प्रारम्भ हुआ और क्रमशः बढ़ता ही गया। जैन साधु-साध्वियों ने इस परम्परा को वेग देते हुए न जाने क्यों, कहीं-कहीं से उठाकर सिद्धान्त प्रस्तुत कर दिए कि " रात्रि में भोजन करना मांस खाना है तथा पानी पीना रक्त पीना है।" ये उद्घोषणाएं आज भी थमी नहीं हैं। आगमोक्त न होते हुए भी श्रावक के लिए रात्रिभोजन त्याग एक पहचान बन गई। लिखने का अभिप्राय यह नहीं है कि गृहस्थ रात्रिभोजन करे या रात्रिभोजन छोड़ने में कोई दोष है। अभिप्राय यह है कि इस सम्बन्ध में (Extereme) अति भाषा से बचा जाए तथा इस नियम का जितना महत्त्व है, बस, उतना ही दिया जाए, अधिक नहीं।
साधु वर्ग की प्ररेणा तथा श्रावकों के उत्साह ने धीरे-धीरे तप को और अधिक अहमियत दे दी। गृहस्थ वर्ग तेले तप से बढ़कर अठाई, मासखमण तक की तपस्याएं करने लगे। चम्पाबाई ने ६ महीने तक की तपस्या की । उसकी तपस्या के जुलूस के दौरान बादशाह अकबर के प्रभावित होने का आख्यान भी जैन कथानकों में मिलता है। पुनः प्रश्न उभरता है कि ६ माह की तपस्या संयम के बिना कितनी कर्मनिर्जरा-कारक बनती है ? तथा कितनी आगम सम्मत है ? लम्बी-लम्बी तपस्याएँ करने और करवाने का यह सिलसिला आज तक निर्बाध चला आ रहा है। श्वेताम्बर परम्परा में अधिक दिगम्बर परम्परा में कम । वर्षीतप, बेले-तेले की सालों-सालों तपस्याएँ भी श्रावक जीवन का अंग बन गईं।
समग्र जीवन शैली से इन सभी तपस्याओं का तालमेल छूट गया। एक अनुपात और सौन्दर्य भंग होने लगा। ‘समचतुरस्र संस्थान की बजाय गृहस्थों का जीवन वामन, कुब्जक, हुण्ड बनने लगा। शरीर का एक अंग खूबसूरत हो और शेष सभी ऊबड़
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 5 खाबड़ हों तो एक अंग सौन्दर्यवर्धक नहीं कहला सकता। अंगों का समानुपात में विकास हो, तभी सुन्दरता बनेगी। जैन श्रावक शैली ने अपना सौन्दर्य खोना शुरू किया तो खोता ही चला गया। फिर तो सचित्तं जल, सचित्त वनस्पति के पीने-खाने का प्रत्याख्यान श्रावकों ने करना प्रारम्भ कर दिया तथा साधुओं ने करवाना। अपने भावों को स्पष्ट करते हुए दोहरा देना जरूरी है कि ये त्याग बुरे नहीं हैं, इनका निर्वाह करने वाले महान होंगे, पर इनका समग्र जीवन से कितना सामंजस्य है तथा इनकी अध्यात्म मार्ग पर कितनी मूल्यवत्ता है तथा क्या साधु जीवन की नियमावली श्रावकों के लिए अनुमत है? एक व्यक्ति दिन में पीने में ४-५ किलो पानी तो अचित्त पी लेता है पर स्नान में, वस्त्र धोने-धुलवाने में, मकान, वाहनों की सफाई में, खेत की सिंचाई में, टॉयलेट नाली के धोने में जो सचित्त जल प्रयुक्त होता है, उस हिंसा से कैसे बचा जा सकता है? यही बात फल के सम्बन्ध में है। सचित्त जल या सचित्त वनस्पति को अचित्त बनाने में क्या हिंसा रुक गई? क्या अन्य जीवों की हिंसा और नहीं बढ़ गई? समझना यह है कि ये नियम श्रावक के व्रतों की सीमा में हैं ही नहीं, यदि कोई करेगा तो प्रकारान्तर से उनका भंग भी होगा। जिस उद्देश्य से ये नियम गृहीत हुए हैं वह उद्देश्य तो कभी पूरा होगा ही नहीं। श्रावक के सभी व्रत-नियम स्थूल स्तर के हैं जबकि यह सभी नियम प्रत्याख्यान सूक्ष्मता की सीमा में हैं। चलो, इन सब नियमों से कर्म निर्जरा होती है यह मानकर इनको प्रोत्साहित कर दें लेकिन कर्मबन्ध और निर्जरा की प्रक्रिया इतनी गहरी और सक्ष्म है कि इधर स्वल्प प्रत्याख्यानों से अल्प कर्म का बंध रुका उधर स्वल्प से कषायोदय से उससे अधिक बन्ध हो गया। समय-समय पर क्रोध, अहं, छल और इच्छाओं, अपेक्षाओं का झंझावात मानव जीवन में उठता रहता है जो त्याग-प्रत्याख्यान जन्य लाभ को क्षणभर में ध्वस्त कर देता है। इतना अधिक जोर लगाकर भी आत्मा का स्वरूप नहीं निखरा तो इन त्याग प्रत्याख्यानों पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए क्या? पूर्वोक्त साधूचित मर्यादाओं का श्रावक जीवन में प्रवेश लम्बे अर्से से होता रहा है, अत: उन पर अधिक टिप्पणी करना शायद उचित न भी हो पर एक प्रवृत्ति जो चन्द वर्षों से जैन समाज में प्रारम्भ की जा रही है उस पर तो प्रबुद्ध एवं जाग्रत वर्ग को ध्यान देना ही चाहिए। कुछ साधुओं की प्ररेणा बनने लगी है कि श्रावकों को लोच करवाना चाहिए और प्ररेणा का तरीका, श्रद्धालुओं की भावुकता का परिणाम है कि श्रावक भी पर्याप्त संख्या में लोच करवाने लगे हैं। चातुर्मास की उपलब्धियों में श्रावकों के लोचों की संख्या भी एक महत्त्वपूर्ण इकाई बन गई है। जैसे- अठाई,
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6 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 मासखमण, दर्शनार्थियों की भीड़, सम्वत्सरी के पौषध, दयाएं आदि परिगणनीय उपलब्धियां होती थीं वैसे ही अब लोच सर्वोच्च उपलब्धि बनता जा रहा है। चारमाह के दौरान अहं भाव की प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, मनमुटाव, कलह, द्वेष, द्वन्द्व कितनी मात्रा में न्यून हुए इन सबकी ओर न मुनिवर्ग का ध्यान है, न ही श्रावकों का। मानों सारा जैनत्व और आध्यात्मिक विकास बाह्य तप द्वारा ही संपन्न होता हो। यह भी एक विडम्बना है कि जैन धर्म में जितनी भाव प्रधानता थी, उसका संपूर्ण स्थान द्रव्य आराधनाओं ने ले लिया है। लोच की शुरुआत भी उस एकांगी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही हुई है। अब तो प्रतीत हो रहा है कि जैन श्रावकों में केवल एक आखिरी कठोर साधना का प्रवेश और बाकी है, वह प्रविष्ट हुआ और श्रावक वर्ग "उत्कृष्ट निर्जरा" का भागीदार बना। नग्नत्व का अंतिम वैरियर कब टूटेगा या तोड़ने का अभियान कब चलाया जाएगा? उत्तर चाहिए - निर्जरा के रहस्यवादियों से। कायक्लेश तप के अन्तर्गत 'लोच' आता है जो केवल जैन मुनियों की उत्कृष्ट परीक्षा के रूप में भगवन्तों ने आवश्यक रूप से विहित किया था। भारत में कष्ट सहिष्णुता और कष्ट निमंत्रण के बीच का अन्तर बहुत कम धर्मप्रवर्तकों ने समझा था। दोनों को एक मानकर अनेक धर्म सम्प्रदायों में कष्ट निमन्त्रण की परम्पराएं प्रारम्भ हो गईं। कहीं कांटों पर चलना साधना का अंग हो गया, कहीं कान फाड़ना संन्यास की शर्त बन गई, कहीं बर्फ के नीचे पसीना लाना आवश्यक हो गया, कहीं-कहीं भस्मालेपन से आगे विष्टालेपन और विष्टाभक्षण भी योगियों की परीक्षा में शुमार कर दिया गया। इन सब अतिवादी कठोरताओं के बीच बड़ा शालीन सा मार्ग प्रभु महावीर ने दिया कि जैन मुनि अपने बालों का लोच कर ले या करवा ले। यह उसकी दैहिक तपस्या अंतिम परीक्षा होगी। इससे अधिक शरीर कष्ट जैन मुनि के लिए वर्जित कर दिया। कोई कष्ट स्वयं आए, उसे सहना अच्छा है पर स्वयं कष्टों की ओर बढ़ना यह जैन धर्म में अधिक मान्य नहीं है। जिनकल्प के अन्तर्गत मुनि का जीवन काफी कठोरताओं का अभ्यासी हो जाता है पर उसमें भी कष्टों को स्वतः ओढ़ने का प्रावधान नहीं है। आने वाले कष्टों से बचकर चलने का तो निषेध है, पर कष्ट बुलाने का प्रयास नहीं है। जैसे कि रास्ते में कांटे हों तो बचकर चलना चाहिए पर जिस रास्ते में कांटे न हों उस पर पहले कांटे डालना, फिर चलना यह भी विधान नहीं है। सामने से हिंसक पशु आए तो डरकर इधर-उधर नहीं होना, यह ठीक पर जहां हिंसक पशु रहते हों वहां जानबूझ कर जाना, यह गलत है। यह सूक्ष्म विवेक जैन शासन में रहा था और जैसे-जैसे साधकों की प्रज्ञा की लौ मन्द पड़ती दिखी, विवेक स्तर भावुकता और जड़ता
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 7 की ओर उन्मुख हुआ, वैसे-वैसे आगमकारों ने 'जिनकल्प' पर भी पाबन्दी लगा दी क्योंकि स्वत: आने वाले तथा बुलाए जाने वाले कष्टों के बीच की सूक्ष्म भेदरेखा धूमिलतर होने लगी थी। स्थविरकल्प में भी कुछ व्यवस्थाएं निर्धारित कर दी गईं ताकि अनावश्यक दुःसाहस की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति रुके। स्थविरकल्पी मुनियों को अनार्य देश में भ्रमण का निषेध हो गया ताकि बेवजह तकलीफों से बचाव हो सके। साध्वियों के लिए और काफी सावधानियां दी गईं। उन्हें सुरक्षित स्थानों पर दो-दो महीने रहने का संकेत किया गया। वस्तुत: जैन धर्म जितनी कठोर चर्या के लिए विख्यात है, उससे ज्यादा विवेक के लिए है। विवेक का अर्थ है कि कोई चर्या किसी काल, व्यक्ति, वर्ग के लिए उपयोगी हो तो उसका संपादन किया जाए और कालान्तर, मानवान्तर या वर्गान्तर के लिए वह उपयोगी न हो तो उसका परिहार किया जाए। मनोविज्ञान ने इस विवेक को स्वीकार किया है। प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्य रखना वीरता है। गर्मी, सर्दी, प्रहार, आक्रमण का सामना करना सहिष्णुता है पर स्वयं कष्टों की तलाश करना, अपने शरीर पर चोट पहुंचाना, उसमें आनन्द लेना मानसिक रुग्णता है। मनोविज्ञान के अनुसार आत्महत्या की ओर अग्रसर व्यक्ति जैसे भीषण रोग का शिकार है उसी प्रकार आत्मपीड़ा की ओर बढ़ने वाला भी कुछ-कुछ रोगी है। परकीयवध और परकीयपीड़ा की तरह स्ववध और स्वपीड़ा भी वर्जनीय है, उनके अनुसार। जैन विचारधारा उनसे शत-प्रतिशत तो सहमत नहीं है क्योंकि जैन धर्म में जैन मुनियों के कुछ नियम उनके द्वारा स्वीकारणीय नहीं हो सकते। पर उनकी कुछ प्रतिपत्तियों के साथ जैन धर्म भी अपनी स्वीकृति रखता है। शरीर का आत्यन्तिक पोषण या आत्यन्तिक शोषण जिन शासन के विवेक धर्म में अनुमत नहीं रहा। ‘सरीर माहु नावित्ति' शरीर एक नौका है। नौका का उपयोग तो करना है पर उसको सीमातीत लाड़ करते हुए पानी से बचाना नहीं है, न ही उसे तोड़कर ही दम लेना है। शरीर का उपयोग साधक अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार करते हैं, साधु अपने ढंग से तथा श्रावक अपने ढंग से। केश लोच को भी जैन शासन की इस विवेक प्रज्ञा के आलोक में आचार्यों ने समझा और अपनाया है। भगवान महावीर के चारों सम्प्रदायों में साधु-साध्वी केश लोच की परम्परा को अभी तक सुरक्षित रूप से अपनाते आए हैं, चाहे सुविधावाद और आधुनिकता के कितने ही प्रतीक प्रविष्ट हो गए हों, कुछ प्राचीन परम्पराएं लुप्त हो गई हों पर लोच अभी तक शेष है। साथ ही, हजारों सालों से श्रावक-श्राविकाओं में लोच का प्रचलन नहीं हुआ। क्योंकि लोच के लिए जोजो पूर्व नियम पालनीय होते हैं, जो कि शास्त्रों में अभी तक उपलब्ध हैं, वे जब तक
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8 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 पूर्ण नहीं हो जाएं तब तक लोच की अनुमति नहीं है। किसी अयोग्य व्यक्ति के साथ जुड़कर लोच शोचनीय बन सकता है। साधु-साध्वी के लिए लोच अवश्य करणीय है, पर श्रावक के लिए 'श्रमणभूत प्रतिमा' ग्यारहवीं प्रतिमा के पालन के समय ही अनुमत है, उससे पूर्व नहीं। उस समय भी वैकल्पिक रूप से ही प्रावधान है, अनिवार्य विधान नहीं। ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक साधना का अंतिम पड़ाव है। जो श्रावक पहले १० प्रतिमाओं का सम्यक् पालन कर चुका है वही ग्यारहवीं प्रतिमा का अधिकारी है। पूर्ववर्ती दस प्रतिमाओं को बिना निभाए ग्यारहवीं प्रतिमा के नियमों का पालन निषिद्ध है। प्रतिमाओं का प्रारम्भ करने से पहले बारह व्रतों का दीर्घावधि तक निष्ठापूर्वक निर्वाह करना भी आवश्यक है। जिस व्यक्ति ने बारह व्रत अंगीकार नहीं किए, उनका लम्बे समय तक पालन नहीं किया, वह प्रतिमाओं की ओर बढ़ने के लिए अनधिकृत है। चाहे प्रतिमाओं की कुछ बातें उसे लुभाती हों, वह उन्हें निभा भी सकता हो, पर उन्हें अपनाने का प्रयास तभी मान्य होगा जब वह पूर्ववर्ती शर्तों को पूरा कर चुका हो अन्यथा अनधिकार चेष्टा कहलाएगी। प्रतिमाओं की आराधना से पूर्व किस-किस शर्त को निभाना चाहिए, इसका सजीव उदाहरण उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक के जीवन से प्राप्त होता है। तथाहिजब आनन्द श्रावक १४ वर्षों तक अपने व्रतों को निभा चुका तो एक बार धर्मजागरण के दौरान एक विचार कौंधा कि वाणिज्य ग्राम के सामाजिक प्रपंचों एवं पारिवारिक झंझटों के कारण अधिक धर्माराधना नहीं कर पाता। अब मैं अपने बड़े पुत्र को दायित्व सौंपकर पोषधशाला में रहूं और धर्माराधना में जीवन गुजारूं।" इस विचार को उसने शीघ्र ही मूर्त रूप दिया। पौषधशाला में आकर उसने पहली उपासक प्रतिमा का निर्वहण किया। पहली के बाद दूसरी, तीसरी
और क्रमश: ग्यारहवीं प्रतिमा तक उसने अपने चरण बढ़ाए। पहली तीन प्रतिमाएं तो पूर्वगृहीत सम्यक्त्व, अणुव्रत तथा शिक्षा व्रतों को नए सिरे से, शुद्धि और दृढ़ता पूर्वक अपनाना है। यद्यपि पहली प्रतिमा का कालमान एक महीना, दूसरी का दो महीने और तीसरी प्रतिमा का तीन महीने माना है, पर यह परम्परा प्राप्त धारणा है। मूल में आगमकारों ने इन तीन का समय निर्धारित नहीं किया। दशाश्रुतस्कन्ध की छठी दशा के अध्ययन से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है। जल्दबाजी में कोई साधक सम्यक्त्व, अणुव्रत, शिक्षाव्रतादि की उपेक्षा करके अगले कठोर नियमों के लिए तत्पर न हो जाए, इसलिए इन तीनों की परिपक्वता आवश्यक मानी गई है। अगली प्रतिमाओं में एक-एक महीने की कालावधि भी बढ़ती जाती है, साधना के नियम भी सख्त होते हैं। चार माह तक आनन्द ने अष्टमी पक्खी आदि पर्व तिथियों पर पौषध की विशिष्ट आराधना की। फिर पांच
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 9 महीने तक पूरी-पूरी रात खड़े होकर कायोत्सर्ग किया, उस दौरान जिनेन्द्र भगवन्तों का विशेष ध्यान किया। जिन दिनों कायोत्सर्ग नहीं किया जाता था उन दिनों स्नान और रात्रिभोजन का त्याग तो करना ही था। छठी प्रतिमा में ब्रह्मचर्य की विशिष्ट साधना छः महीने तक की। शरीर का श्रृंगार, एकान्त में वार्तालाप का त्याग भी इस प्रतिमा में किया जाता हैं। यदि किसी साधक का मन दृढ़ हो जाए तो जीवन पर्यन्त के लिए ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा भी ली जा सकती है। अगली सातवी प्रतिमा में सचित्त आहार का वर्जन किया गया। आठवीं प्रतिमा के अन्तर्गत आठ माह तक स्वयं गृहस्थोचित आरम्भ-समारम्भ छोड़ दिए पर नौकर चाकर से करवाने बन्द नहीं किए। इतनी भूमिका तैयार होने के पश्चात् नौ महीने की नौंवी प्रतिमा में नौकरों से काम करवाना, अपने लिए किसी वस्तु को तैयार करवाना छोड़ दिया। दसवीं प्रतिमा दस महीने तक चलती है। इसकी आराधना करते हुए आनन्द ने नियमानुसार परिवार से आने वाले उस भोजन को लेना बन्द कर दिया जो भोजन परिवार ने उनके निमित्त से बनाया होता। घर से इतना मात्र संपर्क रखना होता है कि यदि कोई सदस्य यह कहता हो कि हमें ऐसा-ऐसा काम करना है, तो श्रावक उत्तर में इतना उत्तर देता है कि समझ गया या मेरी समझ में नहीं आता। शरीर के सम्बन्ध में उसकी मर्यादा यह है कि जरूरत पड़ने पर उस्तरे से सारे बालों का मुण्डन करवा ले और यदि लौकिक रस्म का पालन आवश्यक हो तो शिखा रख ले। ग्यारहवीं 'श्रमणभूत' प्रतिमा है-जिसका कालमान ग्यारह महीने का है। श्रावक की अधिकतर चर्या और मर्यादा श्रमण-मुनियों जैसी हो जाती है। साधु तो वह इसलिए नहीं है क्योंकि उसका परिवार से लगाव जुड़ाव है। वह उस घर का सदस्य है पर साधना का स्तर काफी कुछ साधुओं जैसा हो जाता है। वह साधुओं जैसा वेष अपना लेता है। जीवरक्षा के प्रति साधुओं के समान अतिरिक्त सावधानी रखता है। साधुओं की तरह उसके सामने दाल और चावल में एक पका हो तो एक ही लेता है दूसरा द्रव्य नहीं लेता। गृहस्थों के घर जाकर भिक्षा लाता है। इन सब नियमों को निभाने वाले श्रावक को लोच करने की छूट भगवन्तों ने दी है। वह चाहे तो लोच भी करवा सकता है, नहीं तो उस्तरे से मुण्डन करवा सकता है। आनन्द श्रावक ने लोच करवाया या नहीं? यह वर्णन आगम में नहीं है पर संभावना की जा सकती है कि उसने लोच नहीं करवाया होगा। यह संभावना इस आधार पर उभरती है कि उस श्रावक की अनेकानेक क्रियाओं का वर्णन आगम में है, यदि लोच किया होता तो उसका उल्लेख हुए बिना नहीं रहता। जैसा कि हर साधु-साध्वी के दीक्षा प्रसंग पर लोच का उल्लेख अनिवार्य रूप से आगमकारों ने किया है- “पंच
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10 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 मुहिलोयं करेइ"। बारह व्रतों का दीर्घकाल तक सुविशुद्ध पालन, ग्यारह प्रतिमाओं के क्रमश: यथागम निर्वहण के पश्चात् ही लोच की भूमिका बन सकती है। इतनी स्पष्टता के बावजूद आज के युग में कुछ सम्प्रदायों ने श्रावकों के लिए लोच की परम्परा डाली है। यह सरासर आगमेतर प्रथा का प्रचलन लगता है। जो श्रावक अंधाधुंध व्यापार में संलग्न हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य का नियम नहीं, बारह व्रत भी गृहीत नहीं हैं, नैतिकता के विरुद्ध अन्यायपूर्वक कमाई करते हैं, नियमित रूप से सामायिक संवर भी नहीं करते, वे यदि ग्यारहवीं प्रतिमा के पालनकर्ता के वैकल्पिक नियम केशलोच' को अपनाते हैं तो लगता है - राजाओं का मुकुट किसी दीन हीन दरिद्र के पैरों पर बांधा जा रहा है। जिन शासन के प्रतीक के साथ खिलवाड़ की जा रही है। यह सत्य है कि लोच बहुत बड़ी साधना है, जो इसका सेवन करेगा वह आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होगा। परन्तु क्या इस मुकाम पर पहुंचने से पहले जिन मोड़ोंमरहलों को पार करना आवश्यक होता है, उन्हें बिना छुए अकेला लोच कल्याणकारी हो सकता है? अधुनातन साधु समाज में कुछ साधु-साध्वी महाराज एकांकी विचरते हैं और वे फरमाते हैं कि “एकांकी विचरना तो बहुत बड़ी साधना है।" साधु महाराज के तीन मनोरथों में से एक मनोरथ है। यह तो निर्भरता है सहाय प्रत्याख्यान है। परन्तु जो संघ आगमवादी हैं क्या उनके तर्कों से सहमत होगें? क्या अपने संघ के मुनियों को, साध्वियों को प्रेरित करेंगे कि आगे बढ़ो, अकेले रहो, नि:संगता बढ़ेगी और अधिकाधिक कर्म-निर्जरा होगी। संघ के झंझटों से मुक्त हो जाओगे, नग्नत्व अपना लो, विशुद्ध चारित्राराधना के अधिकारी बनोगे और विशिष्ट निर्जरा कारक भी। लेकिन नहीं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि यह प्ररूपणा और प्रोत्साहन आगमेतर हो जाएगा। नग्नत्व का मण्डन आचारांग में है, एकांकी विचरणा की प्ररेणा है। पर उस स्थिति पर जाने के लिए साधक को और शर्ते भी तो पूरी करनी होती हैं। पूर्वो का ज्ञान हो, भिक्षा काल सुनिश्चित हो, एक दो रात से अधिक कहीं निवास न हो, वृक्षों के नीचे या बागों में रहता हो, सोने के लिए सूखी घास भी न लेता हो, आग लग जाए तो अन्दर से बाहर, बाहर से अन्दर न जाने की प्रतिज्ञा रखता हो, कांटा, कंकर चुभने पर निकालने का प्रयास न हो, आंखों में पड़े तिनके को भी न निकालता हो जहाँ सूर्यास्त हो जाए, कितना ही भयानक स्थान हो वहां से एक कदम भी आगे पीछे नहीं जाता हो, हाथी, घोड़ा, बैल का खतरा देखकर रास्ता न बदलता हो, शरीर के आराम वास्ते धूप से छाया, छाया से धूप में न जाता हो इत्यादि अनेक शर्ते पूरी
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच 11 किए बिना एकलविहार प्रतिमा अनुमत नहीं है। यह दृष्टिकोण आगम का दृष्टिकोण समझने वाले हर मुनि का, संघ एवं सम्प्रदाय का है।
इसलिए पंचम काल में जिनकल्प तथा एकलविहार प्रतिमा का निषेध सभी ने स्वीकार किया है तथा अकेले विचरने वाले साधु-साध्वी से अधिक सम्पर्क नहीं रखा जाता। प्रोत्साहन की बात ही अलग है।
एक विहार प्रतिमा बहुत ऊँची साधना है मगर उसके लिए अन्यान्य योग्यताएं होंगी तभी तो वह ऊँची कहलाएगी । अन्यान्य योग्यताएं पूर्ण किए बिना जैसे एकांकी विचरण गलत है वैसे ही बारह व्रत के पर्याप्त पालन तथा ग्यारहवीं प्रतिमा तक पहुंचे बिना लोच करना श्रावक के लिए गलत होना चाहिए। साधु-साध्वी भी प्रोत्साहन दे तो आगम विरोध मानना चाहिए ।
श्रावक वर्ग में त्यागरुचि जागृत हो, भोग प्रवृत्ति न्यून हो, यह प्रयास सर्वथा अनुमोदनीय है और इसी विचारधारा से श्रावक वर्ग में अचित्त भोजन, दिवा भोजन, शीलपालन विविध तपस्याएं चलीं और चलने दी गयीं। यद्यपि इन सबके लिए आगमों में कोई विधान नहीं पर युग प्रवाह के साथ ये प्रारम्भ हुए तो चल ही रहे हैं। इनको बरकरार रखा जाए मगर लोच जैसी कठोर चर्या गृहस्थों तक पहुंचाकर इसकी गरिमा का ह्रास न किया जाए।
एक ओर सरकारी तन्त्र में जैन मुनियों की लोच पद्धति को लेकर दुष्प्रचार किया जा रहा है कि ये छोटे-छोटे बाल मुनियों और साध्वियों के केश फाड़कर अत्याचार कर रहे हैं, दूसरी ओर कुछ अत्युत्साही जैन मुनि वर्ग की निजी व्यवस्था को सार्वजनिक बनाने पर तुले हुए हैं। जैन धर्म की मूल दृष्टि को यदि अजैन विचारक समझ नहीं पा रहे तो लगता है शायद जैन भी समझने से काफी दूर हैं। मुनि चर्या से जुड़े पहलू जैसे-जैसे श्रावकों के द्वारा अपनाए जाने लगे हैं, वैसे-वैसे उनकी गुणवत्ता, गंभीरता, उपयोगिता और प्रासंगिकता घटने लगी है। श्रावकों का लोच करना या करवाना 'जिन शासन' के समुज्ज्वल इतिहास की विकृति बन सकती है और भविष्य के लिए पैरों की जंजीर। आगमों में कोई तो उदाहरण हो जो इस नवीन उद्भावना को समर्थित कर दे।
आनन्द आदि दस श्रावकों के अलावा औपपातिक सूत्र' में वर्णित अम्बड़ परिव्राजक ज़ैसे त्यागी श्रावक ने भी लोच को अपनी चर्या का अंग नहीं बनाया । जरा उसकी चर्या का अवलोकन करें और अधुनातन श्रावकों के जीवन की तुलना करें जो भावुकता वश लोच को सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि मान रहे हैं ।
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12 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2 अप्रैल-जून, 2016
अम्बड़ तथा उसके ७०० शिष्य भगवान महावीर के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे, उन्हें ही अपना आराध्य और आदर्श मानते थे।
I. उन्हें तालाब, बावड़ी, नदी आदि में प्रवेश करके स्नान करने का त्याग था पर लोच वे भी नहीं करते-करवाते थे। वर्तमान युग में लोच करवाने वालों को क्या इतना त्याग हैं?
II. वे किसी गाड़ी, छकड़ा, पालकी आदि की सवारी नहीं करते थे, वाहन त्यागी थे पर लोच तक वे भी नहीं पहुंचे। वर्तमान काल में लोच करवाने वाले श्रावक वाहन का प्रयोग करते हैं, छोड़ा नहीं है।
III. वे ऊंट, घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस आदि पर नहीं बैठने का नियम रखते थे, फिर भी लोच उनका जीवनांग नहीं था, आजकल के श्रावकों के साथ ऐसा नहीं है।
IV. वे नाटक, खेल, तमाशा, ड्रामा आदि नहीं देखते थे। इतनी कठोर साधना के बावजूद लोच तक नहीं गए क्योंकि लोच श्रावक के लिए विहित नहीं है। आज की स्थिति पर भी ध्यान दें।
V. हरियाली उखाड़ना, मसलना, इकट्ठा करना उनके लिए निषिद्ध था पर लोच से वे दूर रहे। आज जिनको हरियाली काटने छूने का त्याग नहीं है वे लोच करवा रहे हैं।
VI. लोहे, ताम्बे, चांदी, स्वर्ण आदि के बहुमूल्य पात्र उनके लिए वर्जित थे, केवल तुम्बी, लकड़ी और मिट्टी के बर्तनों से जीवन यापन करने वाले वे परिव्राजक गृहत्यागी होकर भी लोच नहीं करवाते थे और आज गृहस्थों ने अनुमति ले ली।
VII. उनके वस्त्र गैरिक धातु के अलावा और किसी रंगवाले नहीं हो सकते थे, लेकिन पूर्ण जैन मुनि या श्रमणभूत बने बिना लोच न होने से वे लोच नहीं करवाते थे पर आज लोच करने वाले श्रावकों को काफी छूट मिल रही है।
VIII. एक ताम्बे के यज्ञोपवीत के अलावा किसी प्रकार का आभूषण हार, कड़ा, कुण्डल, मुकुट उन्हें पूरी तरह निषिद्ध था, ऐसी संन्यास साधना के पालक परिव्राजक भी लोच को अनिवार्य नहीं मानते थे। लेकिन इस युग के लोच प्रिय श्रावकों को क्या ये नियम हैं?
IX. उन्हें फूल, माला आदि का लगभग नियम था। अगरू, चन्दन, केसर आदि सुगन्धित लेप लगाने का प्रत्याख्यान भी था क्योंकि संन्यास में ये चीजें नहीं चलतीं पर केशों का लोच नहीं करवाया। मौजूदा केश लोच करवाने वाले उपरोक्त नियम धारक बने बिना उनसे आगे बढ़ गए।
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच 13 X. वे पानी भी बिना आज्ञा पीते नहीं थे। जैन मुनि की तरह उसे अदत्तादान मानते थे। इतनी कठोरता के कारणं अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों ने अदत्त पानी पीने की बजाय संथारा कर लिया और पांचवें देवलोक में गये। क्या ये यदि लोच करवा लेते तो उनसे वह पीड़ा सहन नहीं होती? लेकिन नहीं, जैन भिक्षु के प्रतीक चिह्न को उन्होंने स्वयं अपनाकर अनादृत नहीं किया। जिस व्यक्ति वर्ग या संस्कृति का जो अंग चिरकाल से बना हुआ हो वह उसे ही सजता
और जंचता है। अन्य द्वारा अपनाये जाने पर न उस अंग की शोभा बचती है, न अपनाने वाले की छवि बनती है। श्रावक लोच के समर्थक कह सकते हैं कि अपने शरीर पर होने वाली पीड़ा को सहन करना बड़ी बात है, अत: उस प्रक्रिया से गुजरने वाले श्रावकों को दाद मिलनी चाहिए तथा प्ररेणा देने वाले साधु-साध्वियों को समर्थन। परन्तु जैन धर्म को यथार्थ में समझने वाले व्यक्ति के सामने ऐसा कर पाना इसलिए कठिन होता है क्योंकि पीड़ा सहन मात्र ही जैनों का लक्ष्य नहीं है, न उसे धार्मिकता और आध्यात्मिकता का अभिन्न अंग माना। यदि पीड़ा सहना ही धर्म हो तो मुहर्रम के अवसर पर हजारों लाखों मुस्लिम यवक अपने शरीर को चाकुओं से काट लेते हैं, जंजीरो से पीटते हैं, खून से लथपथ हो जाते हैं तथा बाद में दवाई नहीं लेते, मरहम पट्टी नहीं करवाते। दक्षिण भारत में कई मंदिरों की रथयात्रा के दौरान भक्तगण अपनी जीभ को बींध देते हैं। एक गाल से दूसरे गाल तक भाला चुभा देते है। ईसाई जगत् में कई स्थानों पर क्राइस्ट की स्मृति में छाती में कीलें गाड़ी जाती हैं, अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग ढंग से पीड़ा सहने की विधियाँ हैं, क्या वे सब प्रशंसनीय, अनुमोदनीय और महानिर्जरा कारक हैं? यदि आज कुछ भाई केशलोच का कष्ट सहकर परम धार्मिकता की अनुभूति कर रहे हैं तो कल कोई अपने हाथ-पैरों के नाखूनों को उखाड़कर उत्कृष्ट धार्मिकता की नई पद्धति प्रारम्भ कर सकता है। मुनियों का लोच देखकर श्रावकों में स्वयं लोच करवाने की भावुकता उमड़ जाती है। फिर श्रावकों का लोच देखकर तो अन्य श्रावकों के भावुक होने की संभावना बढ़ती ही बढ़ती है। देखा-देखी में, भावुकता में लोच करवाना उसी तरह वर्जनीय है जैसे दीक्षा लेना। भावना और भावुकता का स्वरूप एक नहीं होता। जैन धर्म भावना को मुख्यता देता है भावुकता को नहीं। जैसे कई व्यक्ति भावुकता वश एकदम दीक्षा लेने का आग्रह करने लगे तो साधु और श्रावक संघ उसे रोकता है, ऐसे ही भावुकता लोच
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14 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 को भी रोका जाना आवश्यक है। हाँ, यदि किसी व्यक्ति के मन में दीक्षा का भाव है, वह साधना का मर्म जान चुका है, वैराग्य अभ्यास परिपक्व है, अन्यान्य अपेक्षाएं पूर्ण कर चुका है, पर लोच के कारण आंशकित है, वह यदि केश लोच करवाता है तो वाजिब हो सकता है परन्तु यह विवेक तो उसे भी रखना होगा कि केशलोच एकान्त में हो, सार्वजनिक रूप से नहीं। जैसे कि दिगम्बर परम्परा में दीक्षा के इच्छुक व्यक्ति एकान्त में नग्नत्व का अभ्यास करते हैं, सार्वजनिक नहीं। एक बार नग्नत्व सार्वजनिक हो जाए तो वह नग्नत्व सार्वकालिक मुनित्व में परिणित मान लिया जाता है, ऐसे ही श्वेताम्बर परम्परा में सार्वजनिक लोच होने के बाद साधुत्व का अंगीकार अवश्यंभावी होना चाहिए। अप्रकट अवस्था में एक दो बार करवा लिया तो विरोध भी नहीं होना चाहिए। विश्व के इतिहासकारों ने जैनों की आत्यन्तिक निवृत्ति प्रधान जीवन शैली पर भारी कटाक्ष किए हैं। उन्हें तो मनियों का केशलोच भी अप्राकृतिक एवं अत्याचार सा प्रतीत होता है। उन्हें इसके पीछे निहित भाव और तर्कों से सहमत करना ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे में गृहस्थों का केशलोच उन्हें समझ आ जाएगा, यह कल्पना से बाहर है। जनमानस में जिनशासन के प्रति बिलगाव या अरुचि का भाव इस या इस तरह की क्रियाओं से बढ़ने की संभावना है। यह जिन शासन की सेवा न होकर अशातना भी बन सकती है। वस्तुत: तो साधुवर्ग अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखे, श्रावक वर्ग अपनी। एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने से दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती है। अमेरिका, यूरोप में तीव्र, मध्यम और मन्द गति के वाहनों के लिए अलग-अलग सरणियां (Lanes) होती हैं, कोई भी वाहन अपनी सरणि छोड़कर दूसरी सरणि में नहीं घुसता। अतएव वहां दुर्घटनाएं न के बराबर होती हैं। भारत में सरणियां तो बनती जा रही हैं पर दूसरी सरणि में घुसने की मानसिकता नहीं छूट रही, इसलिए दुर्घटनाएं हैं। भगवान महावीर ने भी साधु और श्रावक की दो सरणियां बनाई थी। दोनों के पृथक्-पृथक् नियम बनाए। यदि साधु श्रावकों के तथा श्रावक साधुओं के नियमों की होड़ में आएंगे तो सब कुछ गड्डमड्ड हो जाएगा। यदि किसी को तीव्रगति से चलने की रुचि है तो उसे अपना वाहन बदलना होगा। मंदगति का वाहन जब तक आपके पास है तब तक गति भी, सरणि भी वही रखनी होगी। वाहन मंदगति का पर सरणि तेजवाली और गति भी तेज दुर्घटना का निमन्त्रण है। श्रावक जीवन जब तक है तब तक श्रावकोचित नियम निभाएं। अधिक नियमों की रुचि बन रही है तो साधु बनें। बारह व्रतों को अधिक शुद्धि के साथ, मन, वचन, काया की समग्रता से निभाने में तीर्थधर्म की सुरक्षा है न कि
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच 15 साधुचित मर्यादाओं को अपनाने मात्र में। बारह व्रतों के बाद ग्यारह प्रतिमाओं का ग्रहण
और आसेवन ही वर्तमान युग में लुप्त हो चुका है तो साधुओं के लोच आदि विधि विधान श्रावकों द्वारा कैसे पालनीय माने जा सकते हैं। अन्त में, सविनय निवेदन है कि किसी संघ, श्रावक या व्यक्ति विशेष के निजी जीवन का विरोध न मानकर जिन शासन के पारम्परिक प्रतीकों की सुरक्षा का प्रयत्न मानेंगे तो पूर्वोक्त विचारों से कषाय वृद्धि नहीं होगी।
आगमों के भावार्थ को समझने समझाने में कोताही हुई हो - तस्यमिच्छामि दुक्कडं।।
सन्दर्भ
उत्तराध्ययन सूत्र, सम्पा. मधुकर मुनि, अध्ययन २८, गाथा - तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, १/१ . उत्तराध्येयन सूत्र, अध्ययन ३०, गाथा १-६ अचेले लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति।। आचारांग सूत्र, सम्पा. मधुकर मुनि, १/७/२२६ औपपातिक सूत्र, सूत्र ८९-११६, पृ. १४१-१५३
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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा
डॉ० कुमार शिवशंकर कोशकारों ने प्रतिमा के मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिबिम्ब, बिम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि अनेक अर्थ किये हैं, किन्तु जैन ग्रन्थों में प्रतिमा का अर्थ है- प्रतिज्ञा- विशेष', व्रतविशेष, तप-विशेष, साधना पद्धति। नैतिक विकास के हर चरण पर साधक द्वारा प्रकट किया हुआ दृढ़ निश्चय ही प्रतिमा अर्थात् श्रेणी कहा जाता है। श्रावक प्रतिमाएँ वस्तुतः गृही-जीवन में की जाने वाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ (भूमिकाएँ) हैं, जिन पर क्रमश: चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर जीवन के परमादर्श ‘स्वस्वरूप' को प्राप्त कर लेता है।' श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में उपासक की एकादश प्रतिमाओं का वर्णन आया है। क्रम व नामों में थोड़े अन्तर हैं, जो निम्न प्रकार द्रष्टव्य हैं :श्वेताम्बर परम्परानुसार :- १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. प्रौषध, ५. नियम, ६.ब्रह्मचर्य, ७. सचित्तत्याग, ८. आरम्भत्याग, ९. प्रेष्य-परित्याग, १०. उद्दिष्टभक्तत्याग तथा ११. श्रमणभूत। दिगम्बर मतानुसार :- १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. प्रौषध, ५. सचित्त त्याग, ६. रात्रि भोजन एवं दिवामैथुन विरति, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भत्याग, ९. परिग्रहत्याग, १०. अनुमति त्याग और ११. उद्दिष्ट त्याग। इनके क्रम और संख्या के सम्बन्ध में दिगम्बर आचार्यों में भी मतभेद है। स्वामी कार्तिकेय ने इनकी संख्या १२ मानी है। इसी प्रकार आचार्य सोमेदव ने दिवा-मैथुनविरति के स्थान पर रात्रिभोजनविरति प्रतिमा का विधान किया है। डॉ० सारगमल जैन ने दोनों परम्पराओं की सूचियों पर विचार करते हुए लिखा है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर सूचियों में प्रथम चार नामों एवं उनके क्रम में साम्य है। श्वेताम्बर परम्परा में सचित्त त्याग का स्थान सातवाँ है, जबकि दिगम्बराम्नाय में उनका स्थान पाँचवाँ है। दिगम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान सातवाँ है, जबकि श्वेताम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान छठा है। श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रह त्याग की स्वतंत्र भूमिका नहीं है, जबकि वह दिगम्बर परम्परा में ९वें स्थान पर है। शेष दो प्रेष्यत्याग और उद्दिष्टत्याग दिगम्बर परम्परा में अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग के नाम से अभिहित हैं, लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रह-त्याग की स्वतंत्र भूमिका नहीं मानने के कारण ११ की संख्या में जो एक की कमी होती है, उसकी पूर्ति श्रमणभूत नामक प्रतिमा
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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा : 17 जोड़कर की गई है, जबकि दिगम्बर परम्परा में वह उद्दिष्टत्याग के अन्तर्गत ही है, क्योंकि श्रमणभूतता और उद्दिष्टत्याग समानार्थक ही हैं। . ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप : १. दर्शन-प्रतिमा : साधक की अध्यात्म-मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शन-प्रतिमा है। दर्शन का अर्थ है दृष्टिकोण और आध्यात्मिक विकास के लिए दृष्टिकोण की विशुद्धता प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है। दर्शनविशुद्धि की प्रथम शर्त है- क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषायचतुष्क की तीव्रता में मन्दता। जब तक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। दर्शनप्रतिमा में साधक इन कषायों की तीव्रता को कम कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह गृहस्थ-धर्म की प्रथम भूमिका है। इस अवस्था में साधक शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है, लेकिन उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह शुभाचरण करे ही। २. व्रत प्रतिमा : अतिचार रहित पंच अणुव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उनमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं लाने देना व्रत प्रतिमा के अन्तर्गत माना गया है।१० इस प्रतिमा का साधक तीनों शल्यों से मुक्त होता है। वह शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान आदि का भी अभ्यास करता है। द्वादश व्रतों में आठवें व्रत तक तो वह नियमित रूप से पालन करता है, पर सामायिक, देशावकाशिक व्रतों की आराधना परिस्थिति के कारण नियमित रूप से सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाता। लेकिन उनकी श्रद्धाप्ररूपणा सम्यक् होती है। सामान्य श्रावक अणुव्रत और गुणव्रत को धारण करता भी है और नहीं भी करता है, जबकि व्रत प्रतिमा में अणुव्रत और गुणव्रत धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। ३. सामायिक प्रतिमा : इस प्रतिमा में साधक “समत्व' प्राप्त करता है। 'समत्व' के लिए किया जाने वाला प्रयास सामायिक कहलाता है। इसमें साधक अपने अपूर्व बल, वीर्य व उल्लास से पूर्व प्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से पालन करता है और अनके बार सामायिक की साधना करता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण प्रौषध भी करता है। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार सामायिक प्रतिमा में तीनों संध्याओं में सामायिक करना आवश्यक माना गया है। सामायिक में उत्कृष्ट काल छ: घड़ी का है। एक बार में दो घड़ी का है। आचार्य समन्तभद्र का यह अभिमत है१२ कि इसमें जो सामायिक होती है, वह 'यथाजात होती है। यथाजात से इनका तात्पर्य यह है कि नग्न होकर सामायिक की जाय। तीन बार दिन में दो-दो घड़ी तक नग्न
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18 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 रहने से आगे चलकर वह दिगम्बर श्रमण बन सकता है। श्वेताम्बर परम्परा में इस प्रकार का विधान नहीं है। ४. प्रौषध प्रतिमा : व्रत की दृष्टि से प्रौषध ग्यारहवाँ व्रत है और प्रतिमा की दृष्टि से वह चतुर्थ प्रतिमा है। व्रत में व्रती देशतः प्रौषध भी कर सकता है, परन्तु, प्रस्तुत प्रतिमा में प्रतिपूर्ण प्रौषध करने का विधान है। दशाश्रुतस्कन्ध में स्पष्ट वर्णन है कि श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी प्रभृत पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण प्रौषधोपवास करे।१३ आचार्य समन्तभद्र के अनुसार पर्व के दिनों में तथा एक मास में आने वाली दो अष्टमी और दो चतुर्दशी के दिन अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए प्रोषधपूर्वक अर्थात् एकभुक्ति पूर्वक (एक बार आहार) चार प्रकार के आहार का त्याग करना आत्माभिमुख रहने वाले व्रती की प्रोषधोपवास प्रतिमा है। इस प्रतिमा का प्रयोजन पाँचों इन्द्रियों को वश में करना है, क्योंकि इस काल में स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्रीसंसर्ग, पुष्प-इत्र आदि के सेवन का निषेध है। आरम्भादि का भी त्याग होता है।५ ५. नियम प्रतिमा : इसे कायोत्सर्ग प्रतिमा एवं दिवामैथुनविरत प्रतिमा भी कहा जाता है।१६ इस प्रतिमा में श्रावक विविध नियमों को ग्रहण करता है। उनमें पाँच बातें प्रमुख हैं- स्नान नहीं करना, रात्रि में चारों प्रकार के आहार का परित्याग करना, धोती को लांग नहीं लगाना, दिन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में प्रतिमा का भलीभाँति पालन करना। इस तरह विविध नियमों को श्रावक धारण करता है। एक माह में एक रात्रि कायोत्सर्ग की साधना करता हुआ व्यतीत करता है। इसमें श्रद्धा, धृति, संवेग, संहनन के अनुसार धर्म-ध्यान की आराधना की जाती है। लाटीसंहिता में लिखा है कि रोगादि होने पर उसके शमनार्थ रात्रि में गंध-माल्याविलेपन और तेलाभ्यंगन भी नहीं करना चाहिए।१७ पं. प्रवर दौलतरामजी ने रात्रि में गमनागमन के साथ ही साथ अन्य आरम्भ का भी निषेध किया है।८ ६. ब्रह्मचर्य प्रतिमा : पाँचवीं प्रतिमा में श्रावक दिवा-मैथुन का त्याग करता है, पर रात्रि में इसका नियम नहीं होता। किन्तु प्रस्तुत प्रतिमा में वह दिन और रात्रि-दोनों में मन-वचन-काय से अब्रह्म का त्याग करता है। वह पूर्ण जितेन्द्रिय बन जाता है। वह इन्द्रियों के विषय-विकारों में आसक्त नहीं होता।९ दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इस छठी प्रतिमा का नाम 'रात्रिभुक्ति त्याग' दिया है और उसपर चिन्तन करते हुए लिखा हैं कि प्रस्तुत प्रतिमा का सम्बन्ध उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत से है। उपभोग के योग्य पदार्थों में सबसे प्रधान वस्तु है- स्त्री। अत: रात्रि में भी मन-वचन और काय से स्त्री-सेवन का परित्याग किया जाता है। प्रतिमा धारण करने के पूर्व भी श्रावक दिन में मैथुन का सेवन नहीं करता, किन्तु हास-परिहास के रूप में वह मनोविनोद कर
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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा : 19 लेता था। किन्तु प्रतिमा धारण करने के पश्चात् उसका भी वह परित्याग कर देता है। दिवा-मैथुन और रात्रि-भुक्ति त्याग - ये दोनों कार्य इस प्रतिमा में करणीय होते हैं। ७. सचित्तत्याग प्रतिमा : इस प्रतिमा का अर्थ है- यावज्जीवन के लिए सभी प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग कर अचित्त आहार को ग्रहण करना। आहार प्रत्येक जीवात्मा के लिए आवश्यक है। पर जो आहार भक्ष्य व अचित्त हो, वही प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक ग्रहण कर सकता है। जो आहार सचित्त है, उसे वह ग्रहण नहीं कर सकता। यथा-गुठलीयुक्त आम, गुठलीयुक्त पिण्ड खजूर, बीजयुक्त मुनक्का आदि। यह प्रतिमाधारी श्रावक अप्रासुक अर्थात् अग्नि में न पकाये हुए हरित अंकुर, बीज, जल, नमकादि नहीं खाता।२० । ८. आरम्मत्याग प्रतिमा : सचित्त त्याग के पश्चात् सभी प्रकार के सावध आरम्भ का त्याग किया जाता है। आरम्भ शब्द जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है - हिंसात्मक क्रिया। श्रमणोपासक संकल्पपूर्वक त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता, किन्तु कृषि, वाणिज्य, अन्य व्यापार और घर-गृहस्थ के कार्यों को करते हुए षट्काय जीवों की हिंसा हो जाती है। इस प्रकार की वाणी का उपयोग करना, जिससे दूसरों का हृदय तिलमिला उठे, यह वाचिक आरम्भ है। शस्त्र आदि के द्वारा या शारीरिक क्रियाओं के द्वारा किसी प्राणी का हनन करना कायिक आरम्भ है। इस तरह मानसिक, वाचिक और कायिक- तीनों आरम्भ का त्याग किया जाता है।२१ आचार्य सकलकीर्ति ने इस प्रतिमाधारी को स्थादि की सवारी के त्याग का भी विधान किया है।२२ ९. प्रेष्य परित्याग प्रतिमा अथवा परिग्रहत्याग प्रतिमा : प्रस्तुत प्रतिमाधारी सेवक व्यक्तियों से किंचित् मात्र भी आरम्भ नहीं कराता है। वह जलयान, नभोयान, स्थलयान आदि किसी भी वाहन का उपयोग न स्वयं करता है और न दूसरों को उपयोग करने के लिए कहता ही है। जितने भी गृहस्थ सम्बन्धी कार्य हैं, यथागृहनिर्माण, व्यापार, विवाह आदि जिनमें आरम्भ रहा हुआ होता है, उन्हें वह मनवचन-काय से न स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है, किन्तु उसके अनुमोदन का त्याग नहीं करता। इस प्रतिमा में उसके परिग्रह की वृत्ति भी न्यून हो जाती है। परिग्रह की वृत्ति न्यून होने से इस प्रतिमा का अपर नाम परिग्रह परित्याग भी है। पंडित दौतलरामजी ने अपने क्रिया-कोष ग्रन्थ में लिखा है कि प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक काष्ठ और मिट्टी से निर्मित पात्र रख सकता है, धातु पात्र नहीं रख सकता।२३ गुणभूषण ने प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक के लिए वस्त्र के अतिरिक्त सभी प्रकार के परिग्रह त्याग का वर्णन किया है।२४
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20 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 १०. उद्दिष्टभक्तत्याग प्रतिमा : प्रस्तुत प्रतिमा धारण के बाद अपने निमित्त से बना हुआ आहार भी श्रावक ग्रहण नहीं करता। वह निरन्तर स्वाध्याय और ध्यान में तल्लीन रहता है। वह अपने शिर के बालों का शस्त्र से मुण्डन करवाता है, किन्तु चोटी अवश्य रखता है, क्योंकि वह गृहस्थाश्रम का चिह्न है।२५ प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक की यह विशेषता है कि वह जिसके सम्बन्ध में जानता है तो पूछने पर कहे कि 'मैं जानता हूँ'
और यदि नहीं जानता है तो स्पष्ट रूप से कह दे कि 'मैं नहीं जानता हूँ।' वह ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता, जिससे किसी को हानि हो। वह भाषा का पूर्ण विवेक रखता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग प्रतिमा है। जिसका अर्थ है- जो भी आरम्भ आदि के कार्य हैं, उनके लिए वह अनुमति भी नहीं देता। वह घर में रहकर भी इष्ट-अनिष्ट कार्यों के प्रति न राग करता है, न द्वेष ही करता है। कमल की तरह निर्लिप्त रहता है। भोजन का समय होने पर भोजन के लिए आमंत्रित करने पर वह भोजन कर लेता है। भले ही वह भोजन उसके लिए निर्मित हो। किन्तु भोजन की अनुमोदना नहीं करता। वह परिमित वस्त्र धारण करता है। अपने निमित्त बने हुए भोजन व वस्त्र के अतिरिक्त वह किसी भी भोगोपभोग सामग्री का उपयोग नहीं करता। जब उसे प्रतीत होता है कि घर में रहने से आकुलता रहती है, जिससे साधना में बाधा उपस्थित होती है, तो वह घर का परित्याग कर निर्ग्रन्थ श्रमणों की सेवा में पहुँच जाता है। उसके पश्चात् वह मुनि बन जाता है। ११. श्रमणभूत प्रतिमा : प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक श्रमण के सदृश जीवन यापन करता है। वह श्रमण के समान निर्दोष भिक्षा, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, समाधि आदि में लीन रहता है। सभी प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है। उसकी वेश-भूषा निम्रन्थ की भाँति होती है। वह मुख पर मुखवस्त्रिका, चोलपट्टक, चद्दर तथा रजोहरण, आदि जो श्रमण की वेश-भूषा है, उसी तरह धारण करता है। यदि शरीर में शक्ति हो तो दाढ़ी-मूंछ आदि का लुंचन करता है और शक्ति के अभाव में उस्तरे आदि से भी मुण्डन करवा सकता है। पंच समिति का पालन करता है। वह श्रमण की भाँति हर घर से भिक्षा लेता है, किन्तु स्वजाति और स्वघरों से भिक्षा ग्रहण करता है, अज्ञात कुल से नहीं। जब वह किसी गृहस्थ के घर भिक्षा के लिए जाता है, तब वह कहता है- 'प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो।' वह श्रमण की तरह मौन होकर भिक्षा के लिए नहीं जाता। दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पन्न कर श्रमणोपासक श्रमण बन जाता है।२६ आचार्य हरिभद्र का मन्तव्य है कि साधक कितनी ही बार संक्लेश बढ़ जाने से श्रमण न बनकर गृहस्थ भी हो जाता है।२७
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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा : 21 दिगम्बर परम्परा में ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम उद्दिष्टत्याग है। यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और ऐलक- ये दो भेद किये गये हैं।२८ क्षुल्लक एक ही वस्त्र रखता है। वह मुनियों की तरह खड़े-खड़े भोजन नहीं करता। उसके लिए आतापन योग, वृक्षमूलक योग प्रभृति योगों की साधना का भी निषेध है। वह क्षौर कर्म से मण्डन भी करवा सकता है और लोंच भी। पाणिपात्र में भी भोजन कर सकता है और कांसे के पात्र आदि में भी। कोपीन लगाता है, इसलिए वह क्षुल्लक कहलाता है। दूसरा भेद ‘ऐलक' है। ऐलक शब्द ग्यारहवीं प्रतिमाधारक नाम मात्र का वस्त्र धारण करने वाले उत्कृष्ट श्रावक के लिए व्यवहृत होने लगा। वह केवल कोपीन के अतिरिक्त सभी प्रकार के वस्त्रों का परित्यागी होता है। साथ ही मुनियों की तरह खड़ेखड़े भोजन करता है, केशलुंचन करता है और मयूर पिच्छी रखता है। . ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक के लिए आचार्य सकलकीर्ति ने केवल मुहूर्त प्रमाण निद्रा लेने का उल्लेख किया है।२९ लाटी संहिता में क्षुल्लक के लिए कांस्य या लौह-पात्र में भिक्षा लेने का विधान है। सकलकीर्ति ने सर्वधातु का कमण्डलु और छोटा पात्र यानी थाली रखने का विधान किया है।३१ इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ-साधना की उपरोक्त भूमिकाओं और कक्षाओं की व्यवस्था इस प्रकार से की गयी है कि जो साधक वासनात्मक जीवन से एकदम ऊपर उठने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त कर सके।३२
सन्दर्भ
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(क) प्रतिमा- प्रतिपत्ति: प्रतिशेतियावत् - स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ (ख) प्रतिमा- प्रतिज्ञा अभिग्रहः - वही, पत्र - १८४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ० सागरमल जैन, भाग-२, पृ० ३१७ वही, पृ० ३१७ (क) दशाश्रुतस्कन्ध, ६ दशा तथा (ख) विंशिका- १०वी प्रतिमा- ले०आचार्य हरिभद्र चारित्रपाहुड-२२, रत्नकरण्ड श्रावकाचार- १३७-१४७, वसुनन्दि श्रावकाचार
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वसुनन्दि श्रावकाचार की भूमिका, पृ० ६० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-३, पृ० ३१८ वही, पृ० ३१९
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१२.
و
22 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 ९. वही, पृ० ३१९-३२० १०. विंशतिका, १०.५ ११. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२,
पृ० ३२०
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १३९ १३. दशाश्रुतस्कन्ध, ६.४ १४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४० १५.. वही, १०७ १६. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२,
पृ० ३२१ लाटी संहिता, श्लोक २०, पं० राजमल्लजी। श्रावकाचार, भाग-५, पृ० ३७२-७३ (क) दशाश्रुतस्कन्ध, ६.६. (ख) विंशतिका, १०.९-११ सागार धर्मामृत, ७.८ विंशतिका, १०.१४ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, श्लो० १०७ क्रिया-कोष, श्रावकाचार, भाग-५, पृ० ३७५ गुणभूषण श्रावकाचार, भाग-२, श्लोक ७३, पृ० ४५४ दशाश्रुतस्कन्ध, ६.१० वहीं, ६.११ आसेविऊण एवं कोई पव्वयइ तह गिही होई। तव्भावभेयओ च्चिय विशुद्धिसंकेसभेएणं। विशंतिका, १०.१८ देखिए- वसुनन्दि श्रावकाचार, सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रह, गुणभूषण श्रावकाचार
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आदि।
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, श्लोक ११०, पृ० ४३४ लाटी संहिता, श्लोक ६४ . प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, श्लोक- ३४, ४१-४२ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ० ३२४
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जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व
आशीष कुमार जैन जैन परम्परा में वर्षायोग का बहुत ही महत्त्व है। जैन धर्म में चातुर्मास, वर्षायोग, वर्षावास ये तीनों ही शब्द एकार्थवाची हैं। श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार माहों में वर्षायोग होने से इसे चातुर्मास कहते हैं। वर्षायोग का संबन्ध वर्षा ऋतु के मात्र दो माह से नहीं अपितु वर्षाकाल के चार मासों से है। प्राकृत हिन्दी शब्दकोश में 'चातुर्मास' शब्द का उल्लेख इस प्रकार मिलता हैचाउमास | चाउम्मास - चातुर्मास, चौमासा, आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास की शुक्ल चतुर्दशी। चाउम्मासिअ (चातुर्मासिक) - चार मास सम्बन्धी, जैसे आषाढ़ से लेकर कार्तिक तक चार महीनों से सम्बन्ध रखने वाला। आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास की शुक्ल चतुर्दशी तिथि, पर्व विशेष। चाउम्मासी (स्त्री) (चातुर्मासी) - चार मास, चौमासा, आषाढ़ से कार्तिक,कार्तिक से फाल्गुन और फाल्गुन से आषाढ़ तक के चार महीने। इसी तरह एकार्थक कोश में भी चातुर्मास' शब्द का उल्लेख इस प्रकार हैचाउमासित (चातुर्मासिक) - चाउम्मासितो संवच्छरिउ त्ति वा वासारत्तिउ त्ति वा एगट्ठ। चाउम्मासित (चातुर्मासिक) - सामान्यत: चातुर्मास चार मास का होता है अत: उसे चातुर्मासिक कहा जाता है। प्राचीन काल में साल का प्रारम्भ चातुर्मास से होता था अत: वर्षावास का एक नाम सांवत्सरिक भी है। दूसरा शब्द है 'वर्षायोग' - 'वर्षायोग' का उल्लेख दिगम्बर जैन ग्रन्थों में मिलता है, मूलाचार ग्रन्थ में मुनियों के दस श्रमण कल्पों में से मास नामक कल्प में वर्षायोग का विधान है। वहाँ पर कहा है कि 'वर्षायोग ग्रहण से पहले एक मास पर्यन्त रहकर वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना तथा वर्षायोग को समाप्त करके पुनः एक मास तक अवस्थान करना चाहिए। लोक स्थिति को बतलाने के लिए और अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने के लिए वर्षायोग के पहले एक मास रहने का और अनन्तर भी एक मास तक रहने का विधान है। यह विधान श्रावक आदिकों के
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24 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 संक्लेश का परिहार करने के लिए है। अथवा ऋतु-ऋतु दो (दो माह की एक ऋतु) अर्थात् प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक रहना चाहिए और एक-एक मास तक विहार करना चाहिए। ऐसा यह मास नामक श्रमण कल्प है। अथवा वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना और चार महिनों में नन्दीश्वर करना मास श्रमण कल्प है।' भगवती आराधना में कहा गया है कि वर्षाकाल में चार मास में एक ही स्थान में रहना अर्थात् भ्रमण का त्याग यह पाद्य नामक दसवाँ स्थिति कल्प है। वर्षाकाल में जमीन स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त होती है। ऐसे समय में मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा, जलवृष्टि से, पेड़ से हवा बहने से आत्म विराधना होगी अर्थात् ऐसे समय में विहार करने से मुनि अपने आचार से च्युत हो जायेंगे, वर्षाकाल में भूमि जलमय होने से कुंआ, खड्डा इत्यादिक में गिर जाने की संभावना होती है, खूट, कंटकादिक पानी से ढक जाने से विहार करते समय उनसे बाधा होने की संभावना होती है, कीचड़ में फंसने की भी सम्भावना रहती है, इत्यादि दोषों से वचने के लिए मुनि एक सौ बीस दिवस एक स्थान में रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थान में ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से प्रारम्भ कर कार्तिक पूर्णिमा के आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते हैं। अध्ययन, वृष्टि की अधिकता, शक्ति का अभाव, वैयावृत्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते हैं। मारी रोग, दर्भिक्ष आदि के कारण ग्राम के लोगों का अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिकों में जाना, गच्छ का नाश होने का निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मास में भी अन्य स्थान को जाते हैं, नहीं जाने पर उनके रत्नत्रय का नाश होगा इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा व्यतीत होने पर प्रतिपदा वगैरह तिथि में अन्यत्र चले जाते हैं, इसलिए बीस दिन एक सौ बीस दिनों में कम किये जाते हैं। तीसरा शब्द है 'वर्षावास'६। यह शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आगम ग्रन्थ आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में मिलता है। इस ग्रंथ में लिखा है कि वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहत से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत से बीज अंकुरित हो जाते हैं, इस स्थिति को जानकर साधु को वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षकाल में यथावसर प्राप्त वसति में ही संयम रखकर वर्षावास व्यतीत करना चाहिए। आचारांग-सूत्र में ही लिखा है कि वर्षावास में कहाँ, कैसे क्षेत्र में और कब तक रहें ? साधु-साध्वी के लिए वर्षावास से सम्बन्धित ईर्या के नियम भी बताए गये हैं। इन नियमों का निर्देश करने के पीछे बहत दीर्घदर्शिता, संयम-पालन, अहिंसा एवं
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जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व : 25 अपरिग्रह की साधना तथा साधुवर्ग के प्रति लोक श्रद्धा का दृष्टिकोण रहा है। एक
ओर यह भी स्पष्ट बताया गया है कि वर्षाकाल के चार मास तक एक. ही क्षेत्र में स्थित क्यों रहें? जबकि दूसरी ओर वर्षावास समाप्ति के बाद कोई कारण न हो तो नियमानुसार वह विहार कर दे, ताकि वहाँ की जनता, क्षेत्र आदि से मोह-बंधन न हो, जनता की साधु वर्ग के प्रति अश्रद्धा व अवज्ञा न बढ़े। वृद्धावस्था, अशक्ति,रुग्णता आदि हो तो वह उस क्षेत्र में भी रह भी सकता है। अनगार धर्मामृत ग्रन्थ की प्रस्तावना में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि वर्षाऋतु के अतिरिक्त साधु को गाँव में एक दिन और नगर में पाँच दिन ठहरना चाहिए। दोनों परम्पराओं को यह नियम मान्य है। श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार पाँच कारणों से वर्षाऋतु में भी स्थान-परिवर्तन किया जा सकता है१. किसी ऐसे आचार्य से जिन्होंने आमरण आहार का त्याग किया हो, कोई आवश्यक अध्ययन करने के लिए। २. किसी खतरनाक स्थान में किसी के पथभ्रष्ट होने से रोकने के लिए। ३. धर्म प्रचार के लिए। ४. यदि आचार्य या उपाध्याय का मरण हो जाये। ५. यदि आचार्य या उपाध्याय ऐसे प्रदेश में ठहरे हों जहाँ वर्षा नहीं होती तो उनके पास जाने के लिए। कोई साधु एक ही स्थान पर दो वर्षावास नहीं कर सकता। वर्षाकाल बीत जानेपर भी यदि मार्ग कीचड़ से या जन्तुओं से भरा हो तो साधु पाँच से दस दिन तक उसी स्थान पर अधिक भी ठहर सकते हैं। प्राचीन काल में मुनि जंगलों में निवास करते थे और वृक्षों के नीचे एकासन से योग धारण करते थे क्योंकि उस समय संहनन विशेष होता था। आज के समय में हीन संहनन होने के कारण साधुजन शक्ति के अनुसार ही साधन करते हैं, और पूर्व परंपरा को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। अनगार धर्मामृत' में वर्षायोग प्रतिष्ठापन के संबन्ध में लिखा है कि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में साधु वर्षायोग प्रतिष्ठापन करते हैं। आचार्य आदि सभी साधु मिलकर सिद्धभक्ति और योगभक्ति करके ‘यावंति जिनचैत्यानि' इत्यादि श्लोक बोलकर आदिनाथ एवं अजितनाथ की स्तुति बोलकर अंचलिका सहित लघु
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26 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 चैत्यभक्ति करके पूर्वदिशा में स्थित चैत्यालय की वंदना करते हैं, ऐसे ही पुनः बोलकर संभवनाथ और अभिनंदननाथ की स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित लघु चैत्य भक्ति पढ़ कर दक्षिण दिशा में स्थित चैत्यालय की वंदना करते हैं। इसी तरह सुमतिनाथ और पद्मप्रभु की स्तुति पूर्वक लघु चैत्य भक्ति करके पश्चिम दिशा तथा सुपार्श्वनाथ एवं चन्द्रप्रभु की स्तुति सहित लघु चैत्य भक्ति करके उत्तर दिशा में स्थित जिन चैत्यालय की वन्दना करते हैं। वहाँ पर बैठे हुए लोग चारों दिशाओं में तंदुल-पीताक्षत प्रक्षेपण करते हैं। पुन: साधु पंचगुरुभक्ति, शान्तिभक्ति एवं समाधि-भक्ति पूर्वक संकल्प करते हैं और दिशा विदिशाओं की जाने की मर्यादा करते हैं। इस प्रकार की क्रिया करने के बाद कलश को स्थापित करते हैं। हालांकि चातुर्मास कलश स्थापना का वर्णन अलग से किसी भी ग्रन्थ में हमारे स्वाध्याय में दृष्टिगोचर नहीं हुआ, फिर भी हम सभी को पूर्व से चली आ रही परम्परा का पालन करना उचित होगा। प्रत्येक मंगल कार्य में आचार्यों ने मंगल कलश स्थापना का वर्णन किया है। चातुर्मास भी एक मंगल कार्य है, जैन दर्शन में पूर्ण कलश मंगल का प्रतीक है और चातुर्मास भी मंगल का प्रतीक है। यही क्रिया कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में वर्षायोग निष्ठापना पर की जाती है। पुनः वर्षायोग निष्ठापन के बाद सूर्य का उदय होने पर भगवान महावीर स्वामी की निर्वाण क्रिया में सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिए। वर्षायोग निष्ठापन व प्रतिष्ठापन क्रिया के सम्बन्ध में जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' में लिखा है कि आषाढ़ शुक्ला १४ की रात्रि के प्रथम पहर में प्रतिष्ठापन और कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के चौथे पहर में निष्ठापन करना। चातुर्मास आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन प्रारंभ होता है और किन्हीं परिस्थितियोंवश श्रावण शुक्ला पंचमी तक भी स्थापना हो सकती है। इस चतुर्दशी के दिन प्रतिक्रमण किया जाता है। जिसमें सातों प्रकार के (दैवसिक, रात्रिक, एर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ) प्रतिक्रमण समाहित हो जाते हैं।१२ चातुर्मास में आधा योजन तक जाने की छूट रहती है। मूलाचार में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग का प्रमाण दिया है जिसका चिन्तवन करना चाहिए।
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जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व : 27 वर्षायोग का हेतु :
यम संयम रक्षार्थ, प्रजा बोधन हेतवे।
श्रुत ध्यान विकासार्थ, वर्षयोग विधीयते।।। साधुजन वर्षायोग करते हैं यह आगम का विधान है। परन्तु वर्षायोग क्यों करते हैं? वर्षायोग करने का हेतु, कारण क्या है? वर्षायोग का प्रयोजन क्या है? साधुजन वर्षायोग स्थापना यम, संयम की रक्षा के लिए करते हैं। संयम को निर्दोष रखने के लिए वर्षायोग करते हैं। वर्षायोग में साधुजन चार मास तक एक ही स्थान पर रहते हैं। एक ही स्थान पर रहने का हेतु यह है कि वर्षायोग के समय वर्षा बहत होती है। वर्षा के करण असंख्य जाति के अति सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न होते हैं, जो आँखों से देखने में नहीं आते हैं। ऐसे समय गमनागमन करने से उन लघुकाय जीवों की विराधना होगी, जिससे संयम की रक्षा नहीं हो सकेगी। अत: संयम के रक्षा हेतु वर्षायोग का विधान है। आचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज ने प्राकृत भाषा में 'चादुम्मासो य आगदो' नाम से एक कविता लिखी है जिसकी एक गाथा इस प्रकार है. मुणी चागी य कुव्वंति, बरिसाए सुसाहणं।
जीवाणं रकखणं सेलु चादुमासो य आगदो।।१४ जिस वर्षाकाल में मुनि व त्यागीगण विशेष रूप से श्रेष्ठ साधना करते हैं, जीवों की श्रेष्ठ रक्षा करते हैं, ऐसा यह चातुर्मास का काल आ गया।। दूसरा हेतु है प्रजा को संबोधन हेतु, तीर्थंकर दिव्य देशना भव्य प्राणियों तक पहुँचाने के लिए एवं धर्म प्रभावना के लिए। तीसरा हेतु है श्रुत वर्धन के लिए- एक स्थान पर रुकने से ज्ञान की वृद्धि होती है, ज्ञान बढ़ता है। स्वाध्याय अधिक मात्रा में होता है। वर्षायोग का चौथा हेत है ध्यान के लिए- इससे अधिक मात्रा में समय ज्ञान, ध्यान आदि के लिए मिल जाता है। ज्ञान, ध्यान के विकास के लिए वर्षायोग को विधिवत धारण करते हैं। चातुर्मास काल में साधुजनों को चार माह तक एक ही स्थान पर रहने से ध्यान, चिन्तन व स्वाध्याय का अधिक अवसर मिलता है, उनकी त्याग तपस्या भी सर्वाधिक होती है तथा श्रावकजन को भी साधुजनों की सेवा, सुश्रुषा व आहारदान देने का
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28 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 अच्छा अवसर मिलता है। साधुजनों के उपदेशों से शिविर व कक्षाओं के माध्यम से धर्म को सीखने, समझने का अवसर मिलता है जिससे धर्म की प्रभावना होती है। वर्षाकाल में प्राय: व्यवसाय, शादी-विवाह आदि नहीं होने से श्रावकों को धर्म करने के लिए अधिक समय मिल जाता है। सबसे अधिक पर्व वर्षायोग में ही आते हैं- जैसे गुरुपूर्णिमा, वीरशासन जयन्ति, मुकुटसप्तमी, रक्षाबन्धन, षोडशकारण पर्व, दशलक्षण पर्व, दीपावली (भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण महोत्सव) आदि जो जैन धर्म की प्रभावना के आधार स्तम्भ होते हैं। पर्व धर्म की प्रभावना में निमित्त होते हैं इसी कारण साधुजन वर्षायोग की स्थापना करते हैं। यह चार माह का वर्षायोग साधना के लिए अनुकुल मौसम होता है। इसमें न अधिक गर्मी होती है न अधिक सर्दी होती है। समशीतोष्ण रहता है जिससे व्रत साधना अच्छी तरह से हो जाती है। साधु एवं साध्वी ऐसे स्थानों पर वर्षायोग करते हैं जिस स्थान पर संयम की विराधना न हो। यदि किसी भी प्रकार से संयम की विराधना होने लग जाए तो साधुजन उस स्थान से की हुई मर्यादा तक विहार भी कर सकते हैं। चातुर्मास की स्थापना आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को होती है और समाप्ति कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को होती है। आषाढ़ शक्ल से कार्तिक कृष्णा तक परे चार माह नहीं होते हैं केवल साढ़े तीन माह ही होते हैं। उसका कारण यह है कि कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हई थी और जैसे ही मुनियों, साधुओं को ज्ञात हुआ वैसे ही वे साधुजन अपने वर्षायोग का निष्ठापन करके भगवान महावीर स्वामी के दर्शन हेतु गमन कर गये। इस कारण से चातुर्मास साढ़े तीन माह का रह गया। इसी कारण से ही भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के बाद ही वर्षायोग का विसर्जन करते हैं। आप सभी चातुर्मास के पावन अवसर पर अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को धर्ममय बनायें। सन्दर्भ
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश, पृष्ठ नं० ३१७ एकार्थक कोश, पृष्ठ नं० ५८ वही, पृष्ठ नं० ३१४, परिशिष्ट - २ मूलाचार (उत्तरार्ध), पृष्ठ ११९, गाथा नं० ९११ भगवती आराधना (मूलाराधना), विजयोदया टीका पृष्ठ नं० ६३३-६३४
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जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व : 29 आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, तृतीय अध्ययन, प्रथम उद्देशक, पृष्ठ नं०
६.
वहीं, पृष्ठ नं० १७४ अनगार धर्मामृत, प्रस्तावना, पृष्ठ नं० १९ . ततश्चतुर्दशीपूर्वरात्रे सिद्धमुनि स्तुती। चतुर्दिक्षु परीत्याल्पाश्चैत्य भक्ती गरूस्तुतिम् ।। शान्तिभक्तिं च कुर्वाणैर्वर्षायोगस्तु गृह्यताम्। ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम् ॥ अनगार धर्मामृत,श्लोक ६६,६७
वही, श्लोक ७०, पृष्ठ नं० ६७६ ११. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृष्ठ नं० १३९ भाग - २ १२... मूलाचार, गाथा, ६१५ १३..वर्षायोग स्थापना विधि, पृष्ठ नं० ५ १४. चादुम्मासो य आगदो, सराक सोपान (मासिक पात्रिका), सितम्बर २०१३
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन
डॉ० श्रुति मिश्रा वाराणसी से मानव शरीर एवं पशु मुख के सादे अंकन की लगभग ३७ मृण्मूर्तियाँ राजघाट (२९), सराय-मोहाना (१), सारनाथ (१) से प्राप्त हैं। इन मृण्मूर्तियों में अत्यन्त साधारण शैली में निर्मित वस्त्र विहीन शरीर, लम्बे लटकते अजकर्ण, एवं पंखा सदृश शिरोभूषा अलंकरण है। अजमुख इनकी विशेषताएं हैं। प्रो० वासुदेव शरण अग्रवाल ने अहिच्छत्रा से प्राप्त ऐसी विशेषताओं की प्रतिमा को नैग्मेष प्रकार का कहा है (अग्रवाल वी०एस०, १९८५ : ३०-३१)। वाराणसी से भी इसी वर्ग की नैग्मेष एवं नैग्मेषी मृणाकृतियाँ प्राप्त हुई है जिसमें चार वर्ग दिखते हैं : (अ) यज्ञोपवीत का अंकन (ब) नैग्मेष (अजमुख) मृण्मूर्तियाँ (सं) नैग्मेषी (अजमुख स्त्री) मृण्मूर्तियाँ (द) नैग्मेष मानव मुख प्रकार (अ) यज्ञोपवीत का अंकन : राजघाट से कुशाणकालीन. ३ नैग्मेष की मृणाकृतियाँ प्राप्त हैं। इन आकृतियों में यज्ञोपवीत का अंकन है। नैग्मेष मृणाकृतियों में यज्ञोपवीत का अंकन वाराणसी क्षेत्र की विशेषता है। क्रम सं० १. राजघाट, खात सं० IV., स्तर सं० २; ए०सी०सी० नं० १०४ आकार : ९ से०मी० चित्र सं० १ अजमुखी नैग्मेष मूर्ति (हाथ भग्न)। परिष्कृत मिट्टी से हस्तनिर्मित, अच्छी पकी (लाल), पोत विहीन मृण्मूर्ति। “नैग्मेष मृण्मूर्ति के रूप में सम्बोधित एवं प्रकाशित (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८५)। मूर्ति में चुटकी से उभार कर मोटी शुकाकार नाक पर चौड़ा चीरा मुख, मिट्टी की गुटिका चिपकाकर मोटी शुकाकार नाक पर चौड़ा चीरा मुख, मिट्टी की गुटिका चिपकाकर आँखे एवं पुतली का अंकन है। कंधे तक लटके लम्बे कान अलग से जोड़े गये हैं। इस मृणाकृति के हाथ-पैर के सिरे पर लम्बा चीरा एवं बाँए कंधे से दाहिनी कमर तक टेढ़ी खाँच रेखा
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 31 द्वारा यज्ञोपवीत सूत्र का अंकन है। यह मृण्मूर्ति राजघाट उत्खनन के काल III (ई० सदी के प्रारम्भ से ३०० ई०) से प्राप्त है। इसके समान २ अन्य उदाहरण भी इसी काल से प्राप्त (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८७; XVI, B, ८.९) हैं। नैग्मेष मृण्मूर्तियों में यज्ञोपवीत का अंकन अहिच्छत्रा के स्ट्रेटम III (३५० से ७५० ई०) (अग्रवाल वी०एस०, १९८५ : ३२; फलक XVII,A, १३३) से प्राप्त है। अन्य पुरास्थलों में नैग्मेष मृणाकृतियों में यज्ञोपवीत के अंकन का अभाव है। अहिच्छत्रा की नैग्मेष मृण्मूर्ति में मानव मुख का अंकन है परन्तु आँखें अज समान चौड़ी फैली है। वाराणसी की इन प्रतिमाओं का काल ई० सदी के प्रारम्भ से ७०० ई० तक माना जा सकता है। (ब) नैग्मेष (अजमुख) मृण्मूर्तियाँ : नैग्मेष मृणमूर्तियों के इस वर्ग में २० मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हैं जिसे दो उपवर्गों में विभाजित कर अध्ययन किया गया है : . (क) नैग्मेष (अजमुख) सादा अंकन (ख) आभूषित नैग्मेष (क) नैग्मेष अजमुख सादा अंकन : राजघाट से १७ नैग्मेष की हस्तनिर्मित मृणाकृतियाँ प्राप्त हैं। अजमुख मानव शारीर, अजकर्ण एवं पंखाकार शीर्ष, चीरा मुख इनकी विशेषताएं हैं। क्रम सं० २ राजघाट, खात संo XI,, स्तर सं० ४; ए०सी०सी० नं० १०३६ आकार : ६ से०मी० चित्र सं० २ अजमुख मानव शरीर की पूर्ण मृणाकृति जो परिष्कृत मिट्टी से हस्तनिर्मित, अच्छी पकी (लाल) है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८५)। इस पर चुटकी से उभार कर मोटी शुक नासिका का अंकन है, गहरे चीरे द्वारा मुख प्रदर्शित है। प्रतिमा में लम्बे लटकते कान एवं सींग अंकन विहीन हैं। यह मृणमूर्ति ताराकार मृणमूर्तियों के समान ही छोटे आकार की है एवं इसके बहुत छोटे हाथपैरों के सिरों पर चम्मच के समान अंकित है। यह मृणमूर्ति राजघाट के काल IV (३०० से ७०० ई०) से प्राप्त है।
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32 : श्रमण, वर्ष 675 अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 क्रम सं० ३१ राजघाट, सतह से प्राप्त; ए०सी०सी० नं० ४०५ आकार: ९ से०मी० चित्र सं० ३ भग्न अजमुख मृणाकृति (कमर के नीचे से भग्न) जो परिष्कृत मृदा से हस्तनिर्मित, अच्छी पकी (लाल) है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८५)। इसका चेहरा चुटकी द्वारा गोल उभार में शुक नासिका के रूप में निर्मित है, चीरे द्वारा मुख का अंकन है, सिर पर छिद्रित पंखाकार केशविन्यास है। लूंठदार हाथ के सिरे पर चम्मच के समान दाब है। धड़ भाग से चपटी इस प्रतिमा का चौड़ा कंधा है। चुटकी से उभार कर बना अजमुख एवं लम्बे लटकते चीरे हए कान हैं। राजघाट उत्खनन से इसके समान (९) मृणाकृतियाँ (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XVII, 4;XVIIIA, 1, 3-6; XVIIIB, 2, 4-6) एवं ६ अपुरातात्विक संदर्भ से प्राप्त हैं। गंगा घाटी में सादे अंकन की नैग्मेष मृणाकृतियाँ कुप्रहार के काल III (१००-३०० ई०) (अल्तेकर, ए०एस० एवं विजयकान्त मिश्र, १९५९ : ११०; फलक XLII १, २) खैराडीह के काल III (१०० ई०पू० से ३०० ई०) (जायसवाल विदुला, १९९१ : ३७; फलक VIII २३, २५), नरहन के काल IV (२०० ई०पू० से ३०० ई०) (सिंह पुरुषोत्तम, १९९४: १५०; फलक.XXVIII; १) एवं अहिच्छत्रा के स्ट्रेटम III (३५०-७५० ई०) (अग्रवाल वी०एस०, १९८५ : ३१-३२; फलक XVIII १२६-१२९) से प्राप्त है। (ख) आभूषित जैग्मेक: वाराणसी की तीन नै मेष मृण्मूर्तियाँ आभूषणयुक्त व सज्जित हैं। आभूषण मिट्टी की चिपकवा पट्टी, खाँच रेखाओं एवं ठप्पा वलय द्वारा निर्मित है। नैग्मेष (पुरुष) प्रतिमा के यह आभूषण मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्रस्तर पटिया पर बने नैग्मेष की प्रतिमा के आभूषण एवं नैग्मेष से जुड़े कथानक की पुष्टि करता है। क्रम सं०४ राजघाट, खात संo XI, स्तर सं० ४; ४० सी०सी० नं० ७०० आकार : ९ से० मी० चित्र सं० ४ भग्न मानव मृणाकृति का धड़ एवं अंशत: सुरक्षित शीर्ष भाग। मध्यम परिष्कृत मिट्टी से हस्तनिर्मित, लाल पोत चढ़ी एवं अच्छी प्रकी (लाल) मृणमूर्ति (नारायन,
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 33 ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८५) है। इस मृणाकृति के गले में मिट्टी की पतली पट्टी चिपकाकर कण्ठाहार का अंकन है, जिसपर ठप्पा वलय द्वारा सज्जा है। चौड़ा कंधा, सपाट सीना एवं पतला पेट है। भग्न शीर्ष पर लम्बे अजकर्ण सुरक्षित हैं। इस पर ठप्पा वलय द्वारा कर्णाभूषण का अंकन है। इसी प्रकार कमर पर बाँयी तरफ अंशतः सुरक्षित पट्टी द्वारा मेखला जिस पर ठप्पा वलय द्वारा सज्जा है। यह मृणमूर्ति राजघाट के काल IV (३००-७०० ई०) से प्राप्त है। राजघाट के काल IV से इसके समान दो अन्य नैग्मेष की मृणाकृतियाँ (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XVIII, B ३, ५) प्राप्त है। अन्य पुरास्थलों से प्राप्त नैग्मेष मृणाकृतियाँ आभूषण विहीन हैं तथापि खैराडीह के काल III (१०० ई०पू० से ३०० ई०) (जायसवाल विदुला, १९९१; फलक VIII २४, २६, २७), कुम्रहार के काल III (१००-३०० ई०) (अल्तेकर ए०एस०, १९५९ : ११०; फलक XLII ५, ७, ८) से आभूषित मृणाकृतियाँ भी प्राप्त हैं। गंगा घाटी में नैग्मेष की मृणाकृतियाँ १०० ई०पू० से ७०० ई० तक प्रचलित प्रतीत होती हैं। राजघाट के उदाहरणों में आभूषणों का अंकन पश्चिम के पुरास्थलों का प्रभाव माना जा सकता है। (स) नैग्मेषी (अजमुख स्त्री) मृण्मूर्तियाँ : इस वर्ग में अजमुखी स्त्री मृणाकृतियों का वर्णन है। वाराणसी से इस वर्ग की ८ मृणाकृतियाँ राजघाट (६), सारनाथ (१) एवं सराय-मोहाना (१) से प्राप्त हैं। क्रम सं० ५ राजघाट, खात सं० XI, स्तर सं० ४; ए०सी०सी० नं० ३०९ आकार: ७ से०मी० चित्र सं० ५ नैग्मेषी का यह भग्नांश (कमर से भग्न) पोत विहीन व हस्तनिर्मित है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ९०)। मृणाकृति के चेहरे पर चुटकी से उभार कर मोटी शुकाकार नाक एवं चीरा मुख का अंकन है। कंधे तक लटकते लम्बे चीरे कान, चुटकी से उभार कर अर्धचन्द्राकार छिद्रित शीर्ष, उन्नत वक्ष एवं हाथों पर चम्मच के समान दाब का अंकन है। सीने पर मिट्टी की गटिका चिपकाकर उरोज का अंकन है। यह मृणमूर्ति राजघाट के काल IV (३००-७०० ई०) से प्राप्त है। राजघाट उत्खनन के काल IV (३००-७०० ई०) से प्राप्त एक अन्य नैग्मेषी के गले में पिन छिद्रों द्वारा कण्ठाहार का अंकन (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८, फलक XVIII, B, ९) है।
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34 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016
गंगा घाटी में सज्जित नैग्मेषी की मृणाकृतियाँ वैशाली के काल IV (२००-६०० ई०पू०) (सिंह, बी० पी० एवं सीताराम राय, १९६९ : १६३; फलक LII, ९), खैराडीह के काल III (१०० ई०पू० से ३०० ई०) ( जायसवाल विदुला, १९९१; फलक VIII, २४, २६, २७), कुग्रहार के काल III ( १००-३०० ई० ) (अल्तेकर, ए०एस० एवं बी० मिश्रा, १९५९ : फलक XLII ५, ७ - ८ ) एवं पाटलिपुत्र के काल II (१५० ई०पू० से ५० ई०) (सिंह, बी० पी० एवं लाला आदित्य नारायन, १९७० : ४३; फलक XIII, A, ३) से प्राप्त हैं।
क्रम सं० ६
सारनाथ, खात सं० एवं स्तर सं० अप्राप्त; ए०सी०सी० नं० ३१२२ (सारनाथ संग्रहालय) चित्र सं० ६
भग्न स्त्री मृणाकृति धड़ (शीर्ष एवं कमर के नीचे से भग्न) जो मध्यम परिष्कृत मिट्टी से हस्तनिर्मित, लाल पोत चढ़ी है। इसकी पहचान राजघाट की नैग्मेषी मृण्मूर्ति के समान है यथा नोकदार पतला गला, कंधे पर उखड़े हुए चिपकाए कान, मिट्टी की गुटिका चिपकाकर उरोज जिस पर पिन छिद्रों से स्तनाग्र का अंकन, छोटे हाथ के सिरे पर चम्मच के समान दाब है। सारनाथ से प्राप्त इस आकृति की तिथि छठी शताब्दी ई० निर्धारित है। राजघाट उत्खनन से इनके समान ५ अन्य नैग्मेषी मृण्मूर्तियाँ काल IV (३००-७०० ई०) (नारायन, ए०के० एवं पी० के० अग्रवाल, १९७८ : ९०; फलक XVII २; फलक XVIII, A, ६; फलक XVIII, B, ९, ७; फलक XIX, १) प्राप्त हैं एवं एक मृण्मूर्ति सराय - मोहाना से प्राप्त है (सिंह, बी० पी० एवं ए०के० सिंह, २००४; फलक XIX, ८)।
गंगा घाटी में सादे अंकन की नैग्मेषी ( अजमुख) प्रतिमाएँ वैशाली के काल IV (३००-७०० ई०पू०) (देवकृष्ण एवं विजयकान्त मिश्र, १९६१ : ५३; फलक XII, C, ७), काल IV (२००-६०० ई०पू० ) (सिन्हा, बी० पी० एवं सीताराम राय, १९६९ : १६२-१६३; फलक LII, १-९), कुग्रहार के काल III एवं IV (१०० से ३०० ई०; ३०० से ४५० ई०) (अल्तेकर, ए०एस० एवं वी० मिश्रा, १९५९ : १०९-११२; फलक XLII, 1-8, XLIII, B, 1-4), पाटलिपुत्र के काल II (१५० ई० पू० से ५०० ई०) (सिंह, बी० पी० एवं लाला आदित्य नारायन, १९७० : ४३; फलक XIII, A, १-३), खैराडीह के काल III (१०० ई०पू० से ३०० ई०) (जायसवाल विदुला, १९९१ : ३८-३९; फलक IX, २७ - ३०) एवं कौशाम्बी के कुषाण एवं उत्तर कुषाण काल से (शर्मा जी०आर०, १९६९ : ६५-६६; फलक XXXVI, B १-६ ) से प्राप्त हैं।
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 35 वाराणसी क्षेत्र में मध्य गंगा घाटी के समान नैग्मेषी तथा नैग्मेष मृणाकृतियाँ कुषाणकाल में बहुप्रचलित थीं। इनका उत्तर प्रचलन गुप्तकाल में भी प्रमाणित है। चिरंतन व शैलीगत वर्गों में गढ़ी यह मृणमूर्तियाँ पूजन आकृतियाँ थीं। नैग्मेष मृणाकृतियों में अब स्त्री एवं पुरुष (अजमुखी) के अलावा मानवमुखी अजकर्ण की मृणाकृतियाँ भी बनने लगी थीं। मृण्मूर्तियों में यज्ञोपवीत सूत्र के स्थान पर आभूषण का अंकन महत्त्वपूर्ण है। इन सभी नैग्मेष आकृतियों की संख्या पूर्व की अपेक्षा अधिक (२८) है। (द) नैग्मेष मानव मुख प्रकार : नैग्मेष प्रतिमाओं के इस वर्ग में हस्तनिर्मित अजमुख के स्थान पर साँचा निर्मित मानव मुख का अंकन है। परन्तु इनमें लटकते लम्बे अजकर्ण का अंकन पहले की ही भाँति है, साथ ही द्विश्रंगी केश विन्यास एवं स्त्री पुरुष दोनों की ही प्रतिमाएँ प्राप्त हैं। ये प्रतिमाएँ राजघाट (४), रामनगर (१), सारनाथ (१) एवं सराय-मोहाना (१) से प्राप्त है। राजघाट के काल IV (३००७०० ई०) में नैग्मेष प्रतिमाओं में मानव मुख का अंकन प्रारम्भ होने लगा। संभवत: यह मिट्टी के लोंदों पर मानव मुख का अंकन था (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XIX१)। क्रम सं० ७ राजघाट, खात सं० XI,, स्तर सं० ४; ए०सी०सी० नं० ४८९ चित्र सं० ७ मानवमुखी अजकर्ण की नैग्मेष मृण्मूर्ति के शीर्ष एवं धड़ (बाँह एवं पैर भग्न) असमान, पके एवं साँचा निर्मित हैं। “अजकर्ण युक्त मानव मृण्मूर्ति" (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ९०-९१) के लम्बे चीरे हए कान हैं। यह मृणमूर्ति राजघाट के काल IV (३०० से ७०० ई०) से प्राप्त है। राजघाट के काल IV से इसके अतिरिक्त २ अन्य प्रतिमायें (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XIX, २.३) सराय-मोहाना से (आइ०ए०आर०, १९६७-६८; फलक XXIII Z, ३), सारनाथ (ए०सी०सी० नं० ३२७/२८, ४९९) एवं राजघाट (ए०सी०सी०नं० १८३०, २०९५) से भी प्राप्त हैं। गंगा घाटी में मानवमुखी अजकर्ण विशेषता की मानव मृणाकृतियाँ अहिच्छत्रा के स्ट्रेटम III (३५०-७५० ई०) (अग्रवाल वी०एस०, १९८५ : ३२; फलक XVIII, १३१.१३३) से कौशाम्बी के शक-पार्थियन, कुषाण एवं उत्तर कुषाण काल (शर्मा जी०आर०, १९६९: ६०-६१, ६५-६६; फलक XXIX,B;XXXVI, B) से प्राप्त हैं। गंमा घाटी के अन्य स्थलों से तुलना करने पर इन मृण्मूर्तियों की तिथि उत्तर कुषाण से गुप्त काल प्रतीत होती है। .
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36 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 नैरमेष मृण प्रतिमाओं के सम्बन्ध में विद्वानों ने विस्तृत व्याख्या की है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ४३, ८५-८७; अग्रवाल पी०के०, १९८५ : ३०-३१; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४०-४५)। बकरी या भेंड़ के समान पशु मुख की मानव मृण्मूर्ति जिसके लम्बे लटकते कान की चीरी या छिद्रित लर है, सामान्यतः चेहरा दोनों कानों के मध्य दोहरे उभार (चुटकी से निर्मित) का शुकाकार रूप में निर्मित है। चेहरे में ठोढ़ी का अंकन एवं चीरा मुख है। अधिकांश प्रतिमाओं के हाथ एवं पैरों के सिरों पर चम्मच अथवा प्याला समान गर्त, सिर पर मिट्टी की त्रिभुजाकार पट्टी जोड़कर इसमें एक या दो छिद्र का अंकन है। ये प्रतिमाएँ ज्यादातर भग्न हैं एवं इनका चपटा शरीर, चौड़ा कंधा एवं मोटा गला निर्मित है। इन अजमुखी प्रतिमाओं की पहचान नैग्मेष या हरिनेगमेषी के रूप में है। ब्राह्मण एवं जैन साहित्य में इसके अनेकों नाम मिलते है जैसे- नैग्मेष, नैग्मेय, नैजमेष, नैगमेषिन इत्यादि। इसकी कुछ प्रस्तर प्रतिमाएँ मथुरा के कुषाण काल में पहले से ज्ञात हैं। एक प्राचीन प्रस्तर पटिया जो कि मथुरा के कुषाण काल के प्राचीन जैन क्षेत्र कंकाली टीले से प्राप्त है इस पर देव का अंकन है तथा इस पर 'भगवा नेमेषी' अर्थात् भगवान् नैग्मेषी लिखा है। इसमें शिशजन्म के देवता का आह्वान का अंकन भी प्रस्तर पटिया पर दिखता है (ब्यूलर जी०, १८९३ : ३१६; चित्रं; फलक II; शर्मा आर०सी०, १९९४ : ८२-८३)। उपर्युक्त समस्त मूर्तियाँ मूलत: जैन आख्यान से सम्बन्धित हैं एवं अपने विकास क्रम को प्रस्तुत कर रही हैं। कल्पसूत्र के अनुसार इन्द्र की आज्ञा से उनके हरिनैग्मेष नामक अनुचर देव ने महावीर को गर्भ रूप में देवनन्दा की कुक्षि से निकालकर त्रिशला रानी की कक्षि में स्थापित किया था। इस प्रकार हरिनैग्मेषी का सम्बन्ध बाल रक्षा से स्थापित हुआ जान पड़ता है (जैन हीरालाल, १९७२ : ३५९-३६१)। महाभारत एवं प्राचीन आयुर्वेद संहिताओं में यह स्कन्ध देव का भाई या अन्य रूप में एवं अनेक कुमार ग्रहों का पिता, जो बालक जन्म में प्रधान होता है, के रूप वर्णित है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६; अग्रवाल पी०के०, १९६६ : ३३-३४; ५०-५२)। कुछ कुषाण प्रतिमाओं में इसका सम्बन्ध मातृदेवी की प्रतिमा से है। इस देव की प्राचीनता वास्तव में पूर्व वैदिक काल से भी पूर्व जाती है जिसे ऋग्वैदिक परिशिष्ट एवं गृहसूत्र साहित्य में नेजमेषा कहा गया है (अग्रवाल पी०के०, १९६६)। इस देवता का प्रतिमाविज्ञानी विकास मथुरा की प्रस्तर प्रतिमाओं द्वारा प्रचुर मात्रा में स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है एवं इस प्रकार की प्रचलित पूजा-उपासना के प्रचलन का साक्ष्य स्पष्ट रूप से राजघाट उत्खनन की मूर्तियों से प्राप्त है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६-८७)। अजमुख चेहरे की
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 37 मानवीय मृणमूर्ति प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० एवं बारहवीं शताब्दी ई० के मध्य, गंगा घाटी में फैली हुई है। गंगा घाटी में इनका विस्तृत प्रयोग दिखता है। विदुला जायसवाल ने खैराडीह से प्राप्त नैग्मेष/नैग्मेषी मृणमूर्तियों के आधार पर इस विषय पर विस्तृत विवरण दिया है (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४०-४५), प्राचीन साहित्य में नैग्मेष या हरिनैग्मेष का वर्णन मिलता है जिससे इनके प्रतिमा लक्षण, प्रकृति एवं इस देवी-देवता की पूजा पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। नेमिनाथ चरित में कथानक है कि सत्यभामा की प्रद्युम्न सदृश पुत्र को प्राप्त करने की अभिलाषा को पूरा करने के लिए कृष्ण ने नैग्मेष देव की आराधना की और उसने प्रकट होकर उन्हें एक हार दिया जिसके पहनने से सत्यभामा की मनोकामना पूरी हुई। इस आख्यान में नैरमेष देव का सन्तानोत्पत्ति के साथ विशेष सम्बन्ध स्थापित होता है। उक्त देव या देवी भी प्रायः समस्त हार पहने हुए हैं जो संभवतः इस कथानक के हार का प्रतीक है (जैन हीरालाल, १९७२ : ३६१)। नग्मेष मृण्मूर्तियों में हार एवं आभूषण की पुष्टि इस कथानक से की जा सकती है। वाराणसी से प्राप्त ६ बैग्मेष/नैग्मेषी प्रतिमाओं में हार एवं यज्ञोपवीत सूत्र का अंकन है परन्तु इनका बालकों के साथ अंकन नहीं दिखता है। परन्तु वैशाली उत्खनन से गढ़ी क्षेत्र के चतुर्थ काल से नैग्मेष दम्पति तथा उनके बच्चे की भी मूर्तियाँ प्राप्त है जिसमें नैग्मेष परिवार/दम्पति तथा शिशु नैग्मेष (सिन्हा, बी०पी० एवं सीताराम राय, १९६९ : १६२-१६३; फलक LII) का अंकन है। .... जैन आगम अन्तगडदसाओ (३/३६ से ३८, ४१, ४७ से ५०) में वर्णन है कि हरिनैग्मेषी कृष्ण के सम्मुख प्रकट होने पर बड़ा कर्णाभूषण, मुकुट एवं कटिसूत्र पहने हुए है (दिव्यप्रभा एस०, १९८१ : ४६; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२)। अन्य वर्णन है कि सज्जित वस्त्र की पोशाक जो पाँच रंगीन घंटियों से सज्जित है पहने है (बर्नेट एल०डी०, १९७३ : ७०)। इसके अतिरिक्त सज्जित केशविन्यास संभवत: मुकुट है। अन्य सभी विशेषताएं नहीं दिखती हैं जो इन मृणमूर्तियों की उपासना में प्रयोग होती हैं। इन मूर्तियों के पंखाकार केश विन्यास में एक या दो छिद्र दिखते हैं जिसकी व्याख्या नहीं हो पायी है (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२)। कल्पसूत्र में नैग्मेष/हरिनैग्मेषी की भूमिका महावीर के जन्म के समय मिलती है (जैकोबी एच०, १९६४ : १९०-१९९; २२७-२२९)। अन्तगडदसाओ की एक कथा मिलती है (जैकोबी एच०, १९६४ : १९४-१९५; २२७-२२९) जिसमें वर्णित है कि सुलसा के नवजात बालक को देवाई रानी से सफलतापूर्वक बदल दिया गया था, इस घटना में उसके खाली/धसे हाथ पर महत्व दिया गया है, जो इस संवेदना को प्रकट करता है। इससे मृणमूर्तियों में प्याले समान, धसे हाथों की तुलना
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38 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 की जा सकती है। संभव है इन मृण्मूर्तियों में प्याले के समान दबाव के मूल में कोई दन्तकथा अथवा प्राचीन जनश्रुति हो (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२-४३)। कल्पसूत्र एवं अन्तगडदसाओ में नैग्मेष एवं नैग्मेषी का उल्लेख है। 'हिरणशीर्ष युक्त मानव' (जैकोबी एच०, १९६४ : २४७) एवं दिव्य आकाशीय सेना का मुखिया जो हिरण शीर्ष के साथ प्रदर्शित है (बर्नेट एल०डी०, १९७३ : ७६)। साहित्य में यह पुरुष रूप में वर्णित है परन्तु मृणमूर्ति में यह स्त्री एवं पुरुष दोनों रूपों में निर्मित है। वाराणसी में नैग्मेषी मृणमूर्ति में मानव मुख अजकर्ण की विशेषता भी दिखती है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि उपलब्ध मूर्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि संतान पालन में देव की अपेक्षा देवी की उपासना अधिक औचित्य रखती है। अतएव देव के स्थान पर देवी की कल्पना प्रारम्भ हुई, तत्पश्चात् अजमुख का परित्याग करके सुन्दर स्त्री का मुख इस देव-देवी को दिया गया, फिर देव-देवी दोनों ही एक साथ बालकों के साथ दिखाए गये (जैन हीरालाल, १९७२ : ३५९-३६१; जैन एन्टीक्युटी, १९३७, वाल्यूम II, ३७)। “संभव है शिशु के पालन-पोषण में बकरी के दूध के महत्त्व के कारण इस अजमुख देवता की प्रतिष्ठा हुई हो? (जैन हीरालाल, १९७२ : ३६१)। इसका सम्बन्ध स्कन्ध अग्निपुत्र से है जो नैग्मेय का भाई /पिता (सोरसन एस०, १९६३ : ४९५) था, नैग्मेष के अजशीर्ष का वर्णन आगे चलकर तीन देवताओं से सम्बन्धित हो गया। उदाहरण के लिए उर्वरता अग्नि की वास्तविकता का प्रधान लक्षण थी जो परिणामत: लोक कला में नैग्मेष का स्थान ग्रहण करती है। अग्नि से नैग्मेष के बीच परिवर्तन का कारण यद्यपि स्कन्ध को प्रकट करता है जो दोनों से सम्बन्धित है! इसमें नैग्मेष मूर्तियों के लटकते कानों का अंकन बीच में गहरे खाँच द्वारा है। इसका वर्णन महाकाव्यों एवं काव्य में है। उदाहरण के लिए बकरी के दोनों कानों में आहुति डालना (या स्वर्ण पर) जो संभवत: अग्नि के लिए बनती हो (हॉपकिन्स इ०डब्ल्यू०, १९८६ : १०३; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४३)। प्राचीन साहित्य में 'नैग्मेष' हरिनैग्मेष की स्थापना दो कारणों से होती होगी। प्रथम
जैन एवं हिन्दुओं द्वारा प्रजा/सन्तति हेतु विस्तृत रूप में मानी गई होगी (अग्रवाल वी०एस०, १९३७ : ७-६)। कल्पसूत्र, नेमिनाथ चरित एवं अन्तगंडदसाओ में इसका उल्लेख है। दूसरा विचार, नैग्मेष की उपासना का विचार बुराई एवं कमजोरी से रक्षा हेतु था (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४३)। कुछ कुषाण प्रतिमाओं में यह मातृदेवी से सम्बन्धित है। इस देव की प्राचीनता वास्तव में उत्तरवैदिक काल से भी पीछे जाती है। ऋग्वेद परिशिष्ट एवं गृहसूत्र साहित्य में इसे नैजमेष कहा गया है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६)। वाराणसी से मानवमुखी
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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 39 अजकर्ण की नैग्मेष एवं नैगमेषी की मृण्प्रतिमाएँ प्राप्त हैं। यह प्रस्तुत करता है कि परम्परागत अजशीर्ष, ‘छगाना' देव, सामान्य मानव मुख (परन्तु पशुकर्ण) के रूप में परिवर्तित हो गया एवं यह घटना निश्चय ही इसके रहस्यमय प्रतिमा विज्ञान से पूर्व ही स्थान ले चुकी होगी (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८७)। मथुरा के उत्तर कुषाण काल में अनेकों स्त्री नैग्मेषी प्रस्तर प्रतिमाएँ भी प्राप्त हैं (अग्रवाल पी०के०, १९६९; फलक II, क)। इन मृण प्रतिमाओं के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि अजमुख नैग्मेष का निर्माण जहाँ कुषाणकाल में हुआ वहीं गुप्तकाल तक आते-आते नैग्मेष में मानव मुख का अंकन होने लगा। सन्दर्भ
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सोरसन एस०, १९६३, महाभारत ( एन इन्डक्स टू द नेम इन महाभारत इ०टी०सी०), मोतीलाल बनारसीदास, बाम्बे (प्रथम प्रकाशन १९०४) । भारत का भवन संग्रहालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। कला मण्डप संग्रहालय, ज्ञान- प्रवाह, वाराणसी।
सारनाथ क्षेत्रीय संग्रहालय, सारनाथ, वाराणसी।
प्रा० भा०इ० संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग संग्रहालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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Reconsidering the Date of the Nirvāṇa of Lord Mahāvīra
Prof. Sagarmal Jain The Jaina writers usually, after equating their dating with the Saka era, have concluded that after a period of 605 years and 5 months of the Nirvāṇa of Mahāvīra, Saka became the king.' On the basis of this postulate, even today, the date of the Nirvāņa of Mahāvīra is held to 527 B.C. Among the modern Jaina writers, Pt. Jugal Kishor Mukhtar (1956: 26-56), of the Digambara sect, and Muni Sri Kalyana Vijaya (1966: 159), of the Svetāmbara sect, have also held 527 B.C. to be the year of the Vīra Nirvāņa. From about 7th century A.D., with a few exceptions, this date has gained recognition. In Svetāmbara tradition, for the first time in the Prakīrņaka entitled “Titthogālī,'2 and in the Digambara tradition, for the first time in Tiloyapaņņatti,
it is clearly mentioned that 605 years and 5 months after the Nirvāņa of Mahāvīra, Saka became king. Both the texts were composed between 600 and 700 A.D. To the best of my knowledge, none of the earlier texts ever showed the difference between the Nirvāņà of Mahāvīra and the Saka era. But this much is definite that from about 600-700 A.D., it has been a common notion that the Nirvāņa of Mahāvīra took place in the year 605 before Śaka. Prior to it, in the Sthavirāvali of Kalpasūtra and in the Vācaka genealogy of the Nandīsūtra, the reference to the hierarchy of Mahāvīra is found, but there is no mention of the chronology of the ācāryas: therefore, it is difficult to fix a date of the Nirvāṇa of Mahāvīra on the basis of these texts. In the Kalpasūtrat only this much is mentioned that now 980 years (according to another version 993 years) have passed since the Vira Nirvāņa. This fact makes only this much clear that after 980 or 993 years of Vīra Nirvāņa, Ācārya Devarddhigaại Kșamāśramaņa finally edited this last exposition of the present Canon. Similarly, in Sthānānga (7: 41), Bhagavati Sūtra (9: 222229) and Āvaśyaka Niryukti (778-783), along with the reference to Nihnavas, a reference as to after how much time of Mahāvīra's lifetime his Nirvāṇa took place is found. Here only there are some clues by comparing which with the external evidences of definite date, we can contemplate the date of Nirvāņa of Mahāvīra.
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44 : 97401, auf 67, 312 2, 3 -1, 2016 There have been differences of opinion from the very beginning on the date of Nirvāṇaof Mahāvīra. Although, it has been clearly stated in Tiloyapaņņatti that 605 years and 5 months after the Nirvāṇa of Mahāvīra, Saka became the king. There are four different statements found in this book, which are as follows:
I. 461 years after Vīra Jinendra attained salvation, Śaka became the king.
II. 9785 years after Vīra Bhagavāna attained salvation, Saka became the king.
III. 14793 years after Vīra Bhagavāna attained salvation, Śaka became the king.
IV. 605 years and 5 months after Vīra Jina attained salvation, Śaka became the king.
Besides this, in Dhavalā,' a commentary on Satkhaņdāgama, there are three different statements as to after how many years of the Nirvāņa of Mahāvīra, Saka (śālivāhana Saka) became the king:
I. 605 years and 5 months after Vīra Nirvāņa. II. 14793 years after Vīra Nirvāņa.
III. 7995 years and 5 months after Vira Nirvāņa. In Śvetāmbara tradition there are two clear opinions as to how much time after the Nirvāṇa of Lord Mahāvīra Devardhi's last assembly on Agama was held. According to the first opinion, it was composed 980 years after the. Vīra Nirvāṇa, whereas according to the second it was composed 993 years after the event. It is significant to note that in the Svetāmbara tradition, there are two opinions regarding the date of Candragupta Maurya's accession to the throne. According to the first, he ascended the throne in the year 215 of Vīra Nirvāņa. However, in Titthogālī Paiņnayaonly this much has been mentioned that (after Vīra Nirvāņa) the region of the Mauryas started 60 years after the Pālakas and 155 years after the Nandas, whereas according to the second opinion of Hemacandra,'he ascended
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Reconsidering the Date of the Nirvāņa of Lord Mahāvira : 45
the throne 155 years after Vīra Nirvāņa. Similarly, in Laghupoşālika Pattāvali (p. 37) it is written that 155 years after Vira Nirvana Candragupta Maurya ascended the throne. Also, in Nāgapurīya Tapāgaccha Pattāvali (p. 48) it is written that 155 years after the Vira Nirvāṇa Candragupta became the king, (Virat 155 varse Candraguptonpaḥ). According to this Pattāvalī, the reign of Mauryan dynasty ended after 278 years of Vira Nirvāņa. Now the period of 189 B.C. as the end of the Mauryan dynasty can be justified only when the Vira Nirvāṇa is accepted as to be 467 B.C. It is worth mentioning here that the historians have accepted 187 B.C. to be the date of accession to the throne of Pușyamitra. This second theory, presented by Hemacandra, is a hindrance in ascertaining the year 527 B.C. to be the year of the Nirvanaof Mahāvira. It is clear from these discussions that there has been a controversy regarding the date of the Nirvāṇa of Mahāvīra even in ancient times. Since the old internal evidences regarding the date of the Nirvāṇa of Mahāvīra were not strong, the Western scholars on the basis of the external evidences alone, tried to ascertain the date of the Nirvāņa of Mahāvīra; and as a result many new theories came into light regarding the same. The following are the opinions of different scholars regarding the date of Mahāvīra's Nirvāņa: 1. Hermann Jacobi (It is to be noted that initially Hermann Jacobi accepted the traditional date 527 B.C., but later on he changed his opinion), 476 B.C. He has accepted the reference found in the Parisista Parva of Hemacandra to be authentic which says that 155 years after the Vīra Nirvāṇa Candragupta Maurya ascended the throne, and he ascertained the date of Mahāvīra's Nirvāṇa on the basis of this reference only. 2. J. Charpentier, 467 B.C.. He followed the opinion of Hemacandra and ascertained that the date of Virvāṇa of Mahāvīra as to be 155 Years before Candragupta Maurya. 3. Pandit A. Shanti Raja Shastri. 663 B.C.. He considered the Saka Era to be the Vikrama Era and establish the date of Nirvāņa of Mahāvīra as to be 605 years before the Vikrama Era.
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46 : 3401, adf 67, 3th 2, 37 -ga, 2016 4. Prof. Kashi Prasad Jayaswal, 546 B.C.. He has mentioned only the two traditions in his article “Identification of Kalki”. He has not Lascertained the date of Mahāvīra's Nirvāņa. But at some other places he has considered 546 B.C. to be the date of Mahāvīra's Nirvāṇa, adding 18 years between Vikarma's birth and his accession to the throne (470+18), he fixes the date of Mahāvīra's Nirvāṇa, as 488 years before Vikrama.
5. S.V. Venkateshwara, 437 B.C. His assumption is based on the Ananda Vikram Era. This Era came into vogue 90 years after the Vikrama Era. 6. Pandit Jugal Kishor Mukhtar, 528 B.C. On the basis of various arguments, he has confirmed the traditional theory. 7. Muni Sri Kalyana Vijaya, 528 B.C. While confirming the traditional theory, he has tried to remove the inconsistencies of the theory. 8. Prof. P.H.L. Eggermont., 252 B.C. The basis of his argument is equating the incident of Sarghabheda of Tișyagupta in the Jaina tradition, which took place during the life time of Mahāvīra in 16th year of his emancipation. With the incident of Saṁghabheda and the act of drying up of the Bodhi tree by Tişyarakṣita in the Buddha Samgha, which took place during the reign of Asoka. 9. V.A. Smith, 527 B.C., He has followed the generally accepted theory. 10. Prof. K. R. Norman, About 400 B.C.. Considering Bhadrabāhu to be Candragupta's contemporary, he fixed the period of 5 earlier Ācāryas as 75 years, at an average of 15 years each, and thus fixed the date of Mahāvīra's Nirvāṇa as 320+75 = 395 B.C. In order to determine the date of the Nirvāṇa of Mahāvīra, along with the Jaina literary sources we must take into account the legendary and epigraphical evidences also. We would follow the comparative method to decide which of the above-mentioned assumptions is authentic, and will give priority to the epigraphical evidences, as for as possible.
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Among the contemporaries of Lord Mahāvīra, the names of Lord Buddha, Bimbisāra-Śreņika and Ajātaśatru are well-known. The Buddhist sources give more information about them than the Jaina sources. The study of Jaina sources also does not give rise to any doubt about their contemporaneity. The Jaina Āgamas are mostly silent about Buddha's Life-history, but there are ample references to the contemporary presence of Mahāvīra and Buddha in the Bauddha Tripitaka literature. Here we shall take only two of the references. In the first reference there is a mention of the event of Dighanikāya in which Ajātaśatru meets many of his contemporary religious heads. In this reference, the Chief Minister of Ajātaśatru talks about Nirgrantha Jñātrputra like this: "Master, this Nirgrantha Jñātrputra, is the master of the sect as well as the monastery, teacher of the sect, a scholar and a renowned Tīrthankara, he is admired by many and respectable gentleman. He has been a long wandering mendicant (Parivrājaka) and is middle-aged”. It can he derived from this statement that at the time of Ajātaśatru's accession to the throne, Mahāvīra's age must be about 50 years, because his Nirvana is supposed to have taken place in the 22nd year of Ajātaśatru Kunộika's rule. By deducting 22 years from his total age of 72 years, it is proved that at that time he was 50 years old.' So far as Buddha's case is concerned, he attained his Nirvāņa in the gih year of Ajātaśatru's accession to the throne. This is the hypothesis of Buddhist writers. This hypothesis gave rise to two facts. Firstly, when Mahāvīra was 50 years old, Buddha was 72 (80-8). i.e. Buddha was 22 years older than Mahāvīra. Secondly, Mahāvīra's Nirvāṇa took place 14 years after Buddha's Nirvāņa (22-8-14). It is worth mentioning here, that in the reference occurring in the Dighanikāya,'' where Nirgrantha Jñātrputra and other five Tīrthankaras have been called middle-aged, there is no mention of Gautama Buddha's age, but he must be 72 at that time because this event took place during the rule of Ajātaśatru Kuņika and Buddha's Nirvāṇa look place in the gih year of the rule of Ajātaśatru.
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48 : $401, auf 67, 340 2, 37te-ca, 2016 But contrary to the above-mentioned fact one finds information in the Dighanikāya itself that Mahāvīra has attained Nirvāņa during Buddha's life-time. The reference from the Dīghanikāya' is as follows: “I heard this once that the Lord was residing in a palace built in the mango orchard of the sākyas known as Vedhaññāin Śākya (country). At that time Nigganțha Nātaputta (Tīrthankara Mahāvīra) had recently died at Pāvā. A rift was created among the Nirganthas after his death. They were divided into two groups and were fighting by using arrows of bitter words at one another - "you don't know this Dharmavinaya (=Dharma), I know it. How can you know this Dharma-vinaya? You are wrong in ascertaining, (your understanding is wrong), I am rightly ascertained. My understanding is correct. My words are meaningful and yours are meaningless. The things you should have told first you told in topsy-turvy. You presented your theory and withdrew, you try to save yourself from this allegation and if you have power, try to save yourself from this allegation and if you have power, try to resolve it as if a war (slaughtering) was going on among the Nigganthas.” The house-holder disciples of the Niggantha Nātaputta, wearing white dresses, also were getting indifferent, distressed and alienated from the Dharma of Nigandu which was not expressed properly (dūrakhyāta), not property investigated (duspravedita), unable to redeem (anairyāika), unable to give peace (ana-upaśamaSamvartanika), not verified by any enlightened (a-Samyaksambuddh-pravedita) without foundation = a different stüpa and without a shelter."
Thus, we see that in the Tripitaka literature, on the one hand Mahāvīra has been described as middle-aged, on the other hand, there is information about the death of Mahāvīra during the life-time of Buddha. Since, according to the sources based on Jaina literature, Mahāvīra died at the age of 72, it is certain that both the facts cannot be true at the same time. Muni Kalyana Vijayaji" has called the
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Reconsidering the Date of the Nirvāņa of Lord Mahāvira : 49 theory of Mahāvīra's Nirvāṇa during the life-time of Buddha a mistaken concept. He maintains that the incident of Mahāvīra's demise is not a reference to his real death, but to hearsay, it is also clearly mentioned in Jaina Agamic texts those 16 years before his Nirvāṇa, rumour of his death had spread, hearing which many Jaina Šramaņas started shedding tears. Since the incident of the bitterargument between Makkhaligośāla, a former disciple of Mahāvīra, and his other Śramaņa disciples was linked with this rumour, the present reference from the Dīghanikāya about the death of Mahāvīra during the life time of Buddha is not to be taken as that of his real death, rather it indicated to the rumour of his death by burning fever caused by Tejoleśyā hurled upon him by agitated and acutely jealous Makkhaligośāla after dispute. Buddha's Nirvāna must have taken place one year and few months after the rumour about Mahāvīra's death. Therefore, Buddha must have attained Nirvāņa 14 years, 5 months and 15 days before Mahāvīra's Nirvāņa. Since Buddha's Nirvāṇa took place in the 8th year of Ajātaśatru Kuņika's accession to the throne, Mahāvīra's Nirvāna must have taken place in the 22nd year of his accession.13 Therefore, it is certain that Mahāvīra's Nirvāṇa took place 14 years after the Nirvāņa of Buddha, The fixation of the date of Buddha's Nirvāṇa would definitely influence the date of Mahāvīra's Nirvāņa. First of all we shall fix the date of Mahāvīra on the basis of the Jaina sources and inscriptions and then we will find out what should be the date of Buddha's Nirvāṇa and whether it is supported by the other sources. While determining the date of Nirvāṇa of Mahāvīra, we would have to keep in our mind that the contemporaneity of Ācārya Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Mahāpadma Nanda and Candragupta Maurya; of Ācārya Suhasti with Samprati; of Ārya Markșu (Mangu), Arya Nandila, Arya Nāgahasti, Arya Vļddha and Arya Krşņa with the period mentioned in their inscriptions and of Arya Devarddhigani Kşamāśramaņa with king Dhruvasena of Valabhi, is not disturbed in any way. The historians have unanimously agreed that Candragupta
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50 : 9401, af 67, 3ich 2, 31UT-1514, 2016 ruled from 317 B.C. to 297 B.C. (Majumdar: 1952: p. 168; Tripathi; 1968 p, 139). Therefore, the same should be the period of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra also. It is an undisputed fact that Candragupta had wrested power from the Nandas and that Sthūlibhadra was the son of Sakļāla, the minister of the last Nanda. Therefore, Sthūlibhadra must be the younger contemporary and Bhadrabāhu the older contemporary of Candragupta. This statement that Candragupta Maurya was initiated into Jaina religion, may or may not be accepted as authentic, still on the basis of the Jaina legends one must accept that both Bhadrabāhu and Sthūlibhadra were contemporary of Candragupta. The main reason behind Sthūlibhadra's renunciation could be Mahāpadma Nanda's (the last ruler of the Nanda dynasty) misbehaviour with his father and ultimately his merciless assassination.14 Moreover, Sthūlibhadra was initiated by Sambhūtivijaya and not by Bhadrabāhu. At the time of first assembly on composition of Agama held at Pāțalīputra, instead of Bhadrabāhu or Sthūlibhadra, Sambhūtivijaya was the head, because only in that particular assembly it was decided that Bhadrabāhu will make Sthūlibhadra to study the Pūrva-texts. Therefore, it seems that the first assembly was held any time during the last phase of the Nanda rule. The period of the first assembly can be accepted as before 155 years of the Vīra Nirvāņa era. If we accept that both the traditional notions are correct and that Ācārya Bhadrabāhu remained Ācārya from Vira Nirvāṇa Saṁvat 157 to 170 and that Candragupta Maurya was enthroned in 215 V.N., then the contemporaneity of the two is not proved. It concludes that Bhadrabāhu had already died 45 years before Candragupta Maurya's accession. On this basis Sthūlibhadra does not even remain the junior contemporary of Candragupta Maurya. Therefore we have to accept that Candragupta Maurya was on throne 155 years after Vira Nirvāņa. This date has been accepted by Himvanta Sthavirāvali 15 and Parisista Parva 16 of Ācārya Hemacandra also. On this basis only the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Candragupta Maurya can also be proved. Almost all the Pattāvalis accept the period of Bhadrabāhu as an Ācārya, to be 156-170 V.S." In Digambara tradition also the
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total period of the three Kevalis and the five Śrutakevalīs has been accepted as 162 years. Since Bhadrabāhu was the last Śrutakevali, according to the Digambara tradition, his year of demise must be the year 162 of the Vīra Nirvāņa Sarvat. Thus, despite the fact that there is a difference of 8 years regarding the period of demise of Bhadrabāhu as accepted by the two traditions, the contemporaneity of Bhadrabāhu and Candragupta Maurya is fully justified. Muni Sri Kalyana Vijaya (Śrī Pattāvalī Parāga Samgraha: 1966:52; Vīra Nirvāņa Samvat aura Jaina Kāla Gañanā: p, 137), in order to prove the contemporaneity of Bhadrabāhu and Candragupta Maurya has accepted the period of Sambhūtivijaya as an Ācārya to be 60 years at place of 8 years. In this way, while accepting the date of the Nirvāņa of Mahāvīra as 527 B.C., he has tried to establish the contemporaneity of Bhadrabāhu and Candragupta Maurya. But it is only his imagination (Vīra-Nirvāņa Samvat aura Jaina Kāla Gañanā - p. 137 & Patýāvali Parāga Sangraha- p. 52); there is no authentic proof available. All the Svetāmbara Pattāvalīs accept the date of the demise of Bhadrabāhu to be the year 170 V.N.S. Also, in Titthogālī it has been indicated that the decay of the knowledge of the fourteen Pūrvas started in the year 170 V.N.S. Bhadrabāhu was only the last of the 14 Pūrvadharas. Thus, according to both of the traditions - Śvetāmbara and Digambara, the date of demise of Bhadrabāhu stands as 170 and 162 of V.N.S. respectively. On the basis of this fact, the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with the last Nanda and Candragupta Maurya can be proved only if the date of Nirvāņa of Mahāvīra is accepted as 410 years before V.S. or in the year 467 B.C. The other alternatives do not prove the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with the last king of the Nanda dynasty and Candragupta Maurya. In Titthogāli Paņņayam (783-794) also the contemporaneity of Sthūlibhadra and the king Nanda has been described. Thus on the basis of these facts it appears more logical to accept the date of the Nirvāṇa of Mahāvīra as 467 B.C. Himvanta Sthavirāvali also mentions that Candragupta was enthroned in 155 years after the Vīra Nirvāṇa and that Vikramārka lived 410 years after the Vīra
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Nirvana." This also confirms the theory of accepting the date of Mahāvīra's Nirvāṇa to be 467 B.C.
Again, in the Jaina tradition the contemporaneity of Arya Suhasti and the king Samprati is unanimously accepted. The historians have acknowledged the period of Samprati to be 231-221 B.C. (Tripathi: 1986; p. 139). According to the Jaina Paṭṭāvalīs, the period of Arya Suhasti as Yuga Pradhana Acārya was 245-291 V.N.S. If we base our calculation on the assumption that Vīra Nirvāṇa took place in 527 B.C., we will have to accept that Arya Suhasti became the Yuga Pradhana Acārya in 282 B.C. and died in 236 B.C. In this way, if we consider 527 B.C. to be the year of Vīra Nirvāṇa, then, in no way, the contemporaneity of Arya Suhasti and the king Samprati could be established. But, if we accept 467 B.C. to be the year of Vīra Nirvāṇa, then the period of Arya Suhasti as an Acārya starts from 222 B.C. (467-245-222), on this basis the contemporaneity is established, but the reign of Samprati extends to only one year during the Acaryaship of Arya Suhasti. Arya Suhasti had come in contact with Samprati when he was a prince and the ruler of Avanti, and may be at that time Arya Suhasti was an influential Muni in spite of not being a Yuga Pradhana Acarya of the Samgha. It is remarkable that Arya Suhasti was initiated by Sthūlibhadra. According to the Paṭṭāvalis, Sthūlibhadra was initiated in 146 V.N.S. and died in 215 V.N.S. It can be derived from this fact that 9 years before Candragupta Maurya's accession, and during the last Nanda king (Nava Nanda), Arya Sthūlibhadra had already been initiated. If, according to the Paṭṭāvalīs, the total life of Arya Suhasti is considered to be 100 years and his age at the time of initiation to be 30 years, then he must have been initiated in 221 V.N.S. i.e. 246 B.C. (assuming the date of Vīra Nirvāṇa in 467 B.C.) It does prove the contemporaneity of Arya Suhasti with Samprati, but then, there is a difference of 6 years, if he is accepted to have been initiated by Sthūlibhadra himself because 6 years before he got initiated, in 215 V.N.S., Sthulibhadra has already died. It is also possible that Suhasti may have got initiated at the age of 23 or 24, and not at the age of 30. Even then, it is certain that on the basis of the references made
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Reconsidering the Date of the Nirvāņa of Lord Mahāvira : 53 in Pattāvalīs, the contemporaneity of Arya Suhasti and Samprati is possible only by accepting the date of Vīra Nirvāṇa as 467 B.C. This contemporaneity is not possible if the date of the Mahāvīra Nirvāṇa is accepted as 527 B.C. or any other later date. Thus, by accepting the date of the Vīra Nirvāṇa as 467 B.C. the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Mahāpadma Nanda and Candragupta Maurya and that of Arya Suhasti with Samprati can be proved. All other alternatives fail to prove their contemporaneity. Therefore, in my opinion, it will be more appropriate and logical to accept 467 B.C. as the date of the Nirvāņa of Mahāvīra.
Now we shall consider the date of die Nirvāņa of Mahāvīra also on the basis of some of the inscriptions. Out of five names - Arya Mangu, Ārya Nandila, Arya Nāgahasti. Ārya Krşņa and Arya Vțddha mentioned in Mathura inscriptions (see Jaina, articles 41, 54, 55, 56,57 and 63) first three are found in Nandīsūtra Sthavirāvalī(Gāthā: 27-29) and remaining four names are found in Kalpasūtra. According to the Pattāvalis, the period of Arya Mangu as a Yuga Pradhāna Ācārya is considered to be in between 451 and 470 V.N.S. (Vīra Nirvāņa Saṁvat aur Jaina Kāla Gañanā, p. 112). On accepting the date of the Vīra Nirvāṇa as 467 B.C. his period extends from 16 B.C. to 3 A.D. and if it is 527 B.C. his period extends from 76 B.C. to 57 B.C. Whereas, on the basis of the inscriptions (Jaina Śilālekha Sargraha article No. 54) his period stands as Saka Samvat 52 (Huviska year 52), i.e. 130 A.D. In other words, while considering the period of Arya Mangu as indicated by Patļāvalīs and inscriptions there is a difference of 200 years if the date of Vīra Nirvāṇa is accepted as 527 B.C. and if it is 467 B.C. there is a difference of 127 years. In several Patřāvalis, even the name of Arya Mangu, is not mentioned. Therefore, the theories, concerning his period, based on the Pattāvalīs are not authentic. Moreover, the only one Pattāvali called Nandisūtra Sthavirāvali, which mentions Ārya Mañgu, does not indicate the teacher-taught (Guru-śișya) tradition. Therefore, there
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54 : $401, af 67, 3ta 2, 34T-TA, 2016 are chances of the omission of certain names which has been confirmed by Muni Kalyana Vijayaji himself.20 Thus it is not possible to establish the date of the Mahāvīra's Nirvāṇa on this basis of the inscriptional evidences related to Arya Mangu because on the basis neither the traditional belief in the date of Mahāvīra's Nirvāṇa as 527 B.C. nor the scholars' opinion, as 467 B.C., could be proved correct. On equating the Pastāvalīs with the inscriptions, the date of Vira Nirvāṇa falls around 360 B.C. The reason of this uncertainty is the presence of various wrong conceptions regarding the period of Arya Mangu. So far as Ārya Nandila is concerned, we find the reference to his name also in the Nandīsūtra. In the Nandīsūtra Sthavirāvali.21 his name appears before Arya Nāgahasti and after Ārya Mangu. There is an inscription of Nandika (Nandila) of the saka Samvat 32 in (the inscriptions of Mathura (see Jaina silälekha Sargraha, Vol. II, article No. 41); in another inscription of the Saka Samvat 93, the name is not clear, only 'Nandi' is mentioned there. (see Jaina Śilālekha Saṁgraha. Vol. II, article No. 67). Arya Nandila is referred to also in the Prabandhakośa and in some ancient Pattāvalis but since at no place there is any reference to his period, it is not possible to establish the date of the Nirvāņa of Mahāvīra on the basis of this inscriptional evidence. Now let us consider Nāgahasti. Usually in all the Pattāvalis, the date of the demise of Arya Vajra has been considered as 584 V.N.S. After Arya Vajra, Arya Rakṣita remained the Yuga Pradhāna Ācārya for 13 years, Pușyamitra for 20 years and Vajrasena for 3 years, i.e. Vajrasena died in the year 620 V.N.S. In Merutunga's Vicāraśreņi, the period of Arya Nāgahasti as the Yuga Pradhāna has been accepted as continuing for 69 years, i.e. Nāgahasti was the Yuga Pradhāna from 621 to 690 V.N.S.22 If Hastahasti of the Mathura inscription is Nāgahasti, then he is also referred to as the guru of Māghahasti in the inscription of the saka Samvat 54, which establishes him of before 131 A.D.
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If we accept the date of the Vira Nirvāṇa as 467 B.C., then the period of his Yuga Pradhānaship extends between 154 and 223 A.D. According to the inscriptions he had a disciple in 132 A.D. yet one can be contented by assuming that he must have initiated someone 22 years before being a Yuga Pradhāna. If we accept his life-span to be 100 years, he must have been 11 years old when he is supposed to have initiated Māghahasti. It seems almost impossible to believe that he was able to initiate somebody by his sermons at the age of 11 and that such an underage disciple was able to perform the MūrtiPratişthā. But if, on the basis of the traditional concept, we accept the Vira Nirvāņa year to be before 605 of the Saka Era or 52 B.C., then the references made in the Patļāvalīs tally with the inscriptional evidences. On this basis his tenure of Yuga Pradhānaship extends from 16 to 85 of the Saka Era, Māghahasti, one of his disciples was able to perform the Mürti-Pratisthā by his sermons. Although common sense would hardly accept it as logical that his Yuga Pradhānaship extended for 69 years, yet because of the fact that it considers the information given in the Pattāvalīs to be correct, this inscriptional evidence about Nāgahasti supports the date of Vira Nirvāņa as 527 B.C.
Again, in one of the inscriptional sketches of Mathura, Ārya Krşņa with that Arya Krsna mentioned after Sivabhūti in Kalpasūtra Sthavirāvali (last part 4:1), then his period on the basis of the Pattāvalis and Viseșāvasyakabhäşya,23 could be established around 609. V.N.S., because as a result of the dispute over clothes between the same Ārya Krsna and Sivabhūti the Botika, Nihnava came into extistence. The period of this dispute is fixed as 609 V.N.S. If we accept the Vīra Nirvāņa year to be 467, then the period of Arya Krsna is supposed to be as 609-467=142 A.D. This inscriptional sketch belongs to 95+78=173 A.D. Since Ārya Krşņa has been figured as a deity, it is natural that 20-25 years after his death, in 173 A.D., this sketch must have been made by some Arya Arha, one of his follower disciples. In this way, this inscriptional evidence can maintain compatibility with other literary reference only when 467
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56 : 99401, auf 67, 31a 2, Baste-ga, 2016 B.C. is established as the year of the Vira Nirvāņa. It is not possible to reconcile it with any other alternatives. In the Mathura inscriptions (Jaina Śilālekha Samgraha: article no. 56 & 59), the name of Arya VỊddhahasti is related with two inscriptions. One is from Saka Era 60 (Huviska year 60) and the other from 79 of the same. According to the Christian era, these inscriptions belong to 138 and 157 A.D. respectively. If he is the Ārya Vțddha of the Kalpasūtra Sthavirāvali and the VỊddhadeva of the Pastāvalīs (Vividha Gacchīya Patļāvali Saṁgraha: p. 17), then according to the Pattāvalis, he was led to perform Mürti Pratisthāin Karnataka in the year 695 V.N.S. If we accept 467 B.C. to be the year of the Vīra Nirvāṇa, then this period can be fixed at 695-467=228 A.D. whereas the inscriptional evidences are from 138 and 157 A.D. But, if according to the traditional concept the date of the Vīra Nirvāņa is accepted as 527 B.C. then his period is to be fixed at 695-527=168 A.D. Therefore, on accepting 527 B.C. to be the Vira Nirvāņa year, the equation between this inscriptional evidence and the Pattāvali based evidence is found to be matching well. On assuming 25 years to be the average period of tenure of each Ācārya, his period should be around 625 V.N.S, because Vļddha occupies the 25th place in Pattāvali. Thus his time can be fixed as 625-467=158 A.D. which also proves the 467 B.C. as the period of Vira Nirvāņa.
The last evidence, on the basis of which the date of Mahāvīra's Nirvāṇa can be established, is king Dhruvasena's inscriptions and his period. According to the popular belief, after the Valabhi assembly, first time Kalpasūtra was recited before a congregation at Anandpur (Vaờanagar) in order to console the grieved King Dhruvasena on his son's death.24 The period of Valabhi assembly is fixed as 980-993 V.N.S. There are several inscriptions of Dhruvasena available. The period of Dhruvasena, the first is said to be from 525 to 550 A.D. (Parikh, Rasikalal: 1974:40). If this event is related to the second year of his accession i.e. 526 A.D., then it is proved that Mahāvīra's Nirvāņa must have taken place in 993-526=467 B.C.
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Thus at least three of the six inscriptional evidences prove that the Nirvāņa of Mahāvīra took place in 467 B.C. whereas the two evidences may prove 527 B.C. as the period of Vīra Nirvāņa. But the dates based on the Pattāvalis could be incorrect; therefore, they cannot be an obstacle in determining the date of the Vīra Nirvāņa as 467 B.C. One of these inscriptions is not helpful in fixing the date. These discrepancies are there also because the authenticity of the periods of the Ācāryas given in the Pattāvalī is doubtful and today, we have no ground to remove these discrepancies. Still we derive from this discussion, that most of the textual and inscriptional evidences confirm the date of Mahāvīra's Nirvāņa as 467 B.C. In that case, one will have to accept the date of the Nirvāņa of Buddha to be 483 B.C., which has been accepted by most of the western scholars, and only then it will he proved that about 15 years (14 years and 5 months) after the Nirvāņa of Buddha the Nirvāṇa of Mahāvīra took place. References:
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ni mit vioso oo
Tiloypannatti 4: 1499; Painnayasuttaim: I part: 1984Titthogālīpaiņņayar: (623). Painnayasuttaim :1, 1984: Titthogāli623 Tiloyapannatti, 4:1499 Kalpasūtra, Sūtra-147, p. 145 Dhavalā, 4: 1: 44: p. 132-133 . Paiņņayasuttāiṁ I, 1984, Titthogāli Paiņņayaṁ:621 Parisista Parva : 8 339 Sāmññaphalasutta: 2: 1:7 Vira Nirvāna Sarvat aura Jaina Kāla Gananā, pp. 4-5 Sāmññaphalasutta: 2:2:8 Pāsādikasutta: 6: 1:1 ira Nirvāna Saṁvat aura Jaina Kala Gananā, 1987, p. 12 Ibid, p. 4 Titthogāli-paiņņayam: 787: Paiņņaya-suttāim, I" part: 1984 Muni Kalyana Vijaya: Vikram Era 1987: p. 178 Parisista Parva, 8: 339 Patļāvali Parāga Sarngraha, p. 166; Vividhagacchiya Pattāvali Samgraha: 1 part: 1961: pp. 15, 37, 48). Titthogāli Paiņņayaṁ, 783-794
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58 : $401, af 67, 310 2, 37-A, 2016 19. Vira Nirvāṇa Samvat aura Jaina Kāla-Gananā, p. 177
Ibid, pp. 121 & 131 Nandisutra Sthavirāvali, Gathā, 27-29 Vira Nirvāna Samvat aura Jaina Kāla Gananā, p. 106 note Višeşāvasyakabhāșya, Gāthā: 2552-2553 Sri Kalpasūtra: 147 pp. 145, Vinaya Vijaya: Commentary: p. 15-16
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्राङ्गण में
REPORT ON 15 Day National Workshop on 'Prakrit Language & Literature' organised by Parshwanath Vidyapeeth
from
30th May-13th June, 2016. There is enormous literature in Prakrit language. Majority of the Prakrit works still remains inaccessible to the scholars of Jainology as well as to those working in other disciplines because of nonavailability of Prakrit texts with their translations in other languages. For comparative and comprehensive study of Indian tradition, history, culture, literature, language, poetics, etc. knowledge of Prakrit is essential.
Parshwanath Vidyapeeth is committed to impart knowledge of Prakrit to the students and scholars interested in Indological studies.
Teaching of Prakrit generally aims to enable the participants to successfully attempt and comprehend each Prakrit words, derived from Sanskrit. In fact the pattern of such workshop is teaching Prakrit grammar through operational procedure employed in Sanskrit grammar. Sūtras and rules of Prakrit grammar used in the texts explained. The method adopted for learning Prakrit language drilling system. The formation of each word analyzed and rules of grammar applied in a particular word are explained. After attending this course one becomes able to cultivate the knowledge of Prakrit. The scholars working in the field of Indology will find a new area because of their access to original texts and their effort in comparative studies will get a boost. In turn, Prakrit studies will find a new bunch of scholars who can handle the Prakrit texts. Those adept in Sanskrit can grasp Prakrit very easily. They may be engaged in editing and translation of the Prakrit texts. Ultimately the base of Prakrit scholars is bound to expand, which is the need of hour. The exploration of
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the original sources is likely to enhance the standard of the researchers in Indology as a whole.
Keeping in view the importance of the subject Parshwanath Vidyapeeth organized a fifteen days National Workshop on Prakrit Language and Literature from 30th May to 13th June, 2016. This was the 6th workshop organized on the subject. Dessaut "el-yoM
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The Inaugural function of the workshop was held on 30th May, 2016. Prof. Yadunath Prasad Dubey, Vice-chancellor, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi, was the Chief- Guest and Prof. Maheshwari Prasad, National Professor, National Archives of India, New Delhi, presided over this session, Shri D. R. Bhansali, renowned Industrialist & Philanthropist, Varanasi, was the guest of honour.
There were 35 participants in the workshop from the different universities, i.e. Banaras Hindu University, Mahatma Gandhi Kashi Vidyapith, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi, V. B. S. Purvanchal University, Jaunpur, M.G.I.H. University, Wardha, Gujarat University, Ahmedabad, etc.
To anidousT
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NOTE
Dignitaries on the Dias at Inaugural Function of Prakrit Workshop In order to provide a sound background of Prakrit Language and Literature, besides regular three lectures were scheduled per day (40 lectures) on grammar, one special lecture was arranged daily by the eminent scholars of the respective subjects. Dr. S. P. Pandey, Associate Professor, PV, Varanasi, Prof. Maheshwari Prasad,
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TefTe faunto a su À : 61 National Professor, National Archives, New Delhi, Prof. Bimalendra Kumar, Ex- Head, Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU, Varanasi, Prof. Ashok Kumar Jain, Head, Deptt of Jain and Bauddha Darshan, BHU, Varanasi, Prof. Kamalesh Kumar Jain, Deptt. of Jain and Bauddha Darshan, BHU, Varanasi, Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad, Prof. Janaki Prasad Dwivedi, Sampurnanand Sanskrit University, Prof. Prabhunath Dwivedi, Mahatma Gandhi Kashi Vidyapith were the eminent scholars who delivered special lectures during the workshop. Apart from the special lectures maximum classes were engaged by Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad and Dr. Rahul Kumar Singh, PV, Varanasi.
In this workshop before valedictory session an examination was held followed by a viva-voce. On the basis of the final result five participants were awarded certificate of merit with prize.
Valedictory function of the workshop was held on 13th June, 2016. Prof. K. D. Tripathi, Honorary-advisor, Indira Gandhi National Centre for the Arts, Varanasi, Presided over the session, Prof. Kumar Pankaj, Dean, Faculty of Arts, Banaras Hindu University, Varanasi, was the chief guest and Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad, was the Guest of Honour for this session. The Workshop was completed successfully under the Directorship of Dr. S. P. Pandey, Joint Director, Parshwanath Vidyapeeth, and Dr. Rahul Kumar Singh, co-ordinator, workshop.
लाला हरजसराय जैन स्मृति व्याख्यानमाला का तृतीय व्याख्यान
१४ जून, २०१६ को लाला हरजस राय जैन व्याख्यानमाला के चतुर्थ पुष्प के रूप में प्रो. दीनानाथ शर्मा, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद का व्याख्यान 'अर्धमागधी जैन आगम साहित्य' विषय पर आयोजित किया गया। अपने व्याख्यान में प्रो. शर्मा ने
Prof. Sharma delivering his lecture at PV
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62 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 अर्धमागधी जैन आगम साहित्य के प्रमुख विन्दुओं पर ससन्दर्भ प्रकाश डाला। इस अवसर पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रमुख विद्वज्जन उपस्थित थे। ____पार्श्वनाथ विद्यापीठ के आगामी अकादमिक आयोजनः १. त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन- पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा २७-२९ अगस्त २०१६ को "Assemilative and Composite Character of Jaina Art : Its Socio-Cultural Relevance in Modern Society" विषयक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। संगोष्ठी के आयोजन के लिए 'भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली तथा संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त हुई है। इस संगोष्ठी में पूरे देश से पधारे जैन कला के विशिष्ट विद्वानों द्वारा तीन दिन तक जैन कला और उसकी सामाजिकसांस्कृतिक उपादेयता पर गहन चिन्तन-मनन होगा। इस संगोष्ठी के आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रसिद्ध कलाविद् प्रो० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, प्रो० इमरीटस, कला इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी हैं। इस संगोष्ठी में सहभागिता हेतु पंजीयन शुल्क शिक्षकों के लिए रु. १५००/- तथा छात्रों के लिए रु १०००/- निर्धारित किया गया है। पंजीयन की अन्तिम तिथि १५ अगस्त, २०१६ तथा शोधपत्र-सारांश भेजने की अन्तिम तिथि ३० जुलाई, २०१६ है। विशेष जानकारी के लिए सम्पर्क सूत्र : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, निदेशक संगोष्ठी : 9936179817 डॉ० श्रीनेत्र पाण्डेय, समन्वयक संगोष्ठी: 8874000084
___E-mail : pvpvaranasi@gmail.com
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जैन जगत् श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ द्वारा
विभिन्न पुरस्कारों का विज्ञापन
१. आचार्य श्री नानेश जनसेवा पुरस्कार- शिक्षा, स्वास्थ्य, अध्यात्म, आर्थिक उत्थान, पर्यावरण संरक्षण, व्यसनमुक्ति, जनसेवा इत्यादि क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित करने वाला व्यक्ति/संस्था इस पुरस्कार हेतु आवेदन का पात्र होगा। आवेदन की अन्तिम तिथि १५ अगस्त, २०१६ है। २. सेठ श्री चम्पालाल साण्ड स्मृति उच्च प्रशासनिक पुरस्कार- भारत सरकार की उच्च प्रशासनिक सेवाओं में रत जैन धर्मावलम्बी शीर्षस्थ पदाधिकारी जो विशेष ख्यातिलब्ध हैं, इसके लिए पात्र हो सकते हैं। चयनित होने पर पुरस्कार स्वरूप स्मृतिचिह्न, सम्मानपत्र एवं एक लाख रुपये की राशि प्रदान की जायेगी। नामांकन की अन्तिम तिथि १५ अगस्त, २०१६ है। दोनों पुरस्कारों के सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी एवं आवेदन हेतु निम्न पते पर सम्पर्क किया जा सकता हैप्रधान कार्यालय, श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, आचार्य श्री नानेश मार्ग, नोखा रोड, गंगाशहर, बीकानेर-३३४४०१, राजस्थान। दूरभाष- 0151-2270261, 62,2270359. Email- abjsbkn@yahoo.co.in Web.- www.shriabsjainsangh.com
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साहित्य-सत्कार
Book Review Book: Origin and Development of Jaina Sects, Dr. Arun Pratap Singh, Kala Prakashan, New Saket Colony, BHU, Varanasi, 2015, P. 186+XII, Hard Bound, Price-Rs. 550/-, ISBN- 978-93-8530946-5. This book discusses in detail the development of Jaina sects in space and time. The main theme of the book is to show the origin and antiquity of Jaina religion and to analyze the causes of the separation of united Jaina Church. From all available sources--literature, inscriptions, excavated materials- it has been proved that the antiquity of the Jaina religion goes as back as to the dawn of Indian civilization. It was contemporary to Vedic religion and predecessor to the religion of Śākya Munī. It throws fresh light on the dissension within the Church organization which ultimately led to the emergence of several sects and sub-sects. The book is divided into seven chapters namely-Origin and antiquity of Jaina Religion, Nihnavas (schismatics), Schism in Jaina Sangha (Digambara and Śvetāmbara) Part-I, Schism in Jaina Sangha (Yāpanīya and Kūrcaka) Part-II, History of Ganas and sākhās, Gacchas and Schools of Svetāmbara Sect, Modern Gacchas and School of Digambara sects- with two appendixes and an exhaustive Bibliography. The two Appendixes deal at length with the lives and teachings of Pārsvanātha and Mahāvīra, the last two Jīnas of present Avasarpiņi (aeon) in historical perspective and their contributions to Jainism in particular and entire humanity as a whole.. Highlighting the importance of the book Prof. M.N.P. Tiwari writes in 'Preface' of this book, "the book by Dr. Singh for the first time presents a holistic, analytical, comparative and most updated study of origin and development of Jaina sects. He has culled the data
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HIPERT-HOR : 65 from literary, inscriptional and also what is reflected in visual expressions of Jaina art to make the book authentic within the frame work of historical study. It is satisfying to find that in his interpretations and analyses, he is free from sectarian and personal bias. The book undoubtedly will be useful alike to the researchers and students. The conclusions drawn in the book are valid and acceptable.” It is hoped that this comprehensive work will be of immense use value both to the academicians and the general readers who really want to know about Jainism in historical perspective.
Dr. Rahul Kumar Singh
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श्रीमद्धनेश्वरसूरिविरचितं सुरसुंदरीचरिअं (ग्यारहवां परिच्छेद)
पू. गणिवर्य उपाध्याय श्री विश्रुतयशविजयजीकृत संस्कृतच्छाया, गुजराती और हिन्दी अनुवाद सहित
परामर्शदात्री प.पू. साध्वीवर्या रत्नचूलाजी म.सा.
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी २०१६
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Surasundaricariam
11th Pariccheda
We have seen that in 10th chapter after Śreşthi Dhanadeva's wife gave birth to a son, queen Kamalāvatī who was present in the function, also wishes to have a child and with the blessings of Vidhuprabha given in the form of ear-rings, Kamalāvatī, the wife of king Amaraketu got pregnant. In order to fulfill the craving of pregnancy (dohada) she decided to give donations to poor and visit the whole city sitting on an elephant. All of sudden the elephant got uncontrolled and mad and took her to Padmodara pond. Sumati, the astrologer of Amaraketu proclaimed that the queen is safe and will give birth to a son but very soon she will be separated with her son. Searching her everywhere king Amaraketu found Kamalāvati in the well. She was brought out of the well. She narrated the whole story as to how she was kidnapped by the elephant, fell down in the pond, met with a group of travelers (sārtha), met with Śrīdatta, and how on the invitation of Sridatta she reached Kuśāgranagara. Kamalāvatī continued that after she joined the group of travelers, somehow she was left alone in the jungle. The jungle was full of dangerous creatures, animals and hunters. She got thirsty and in search of water she reached to a pond. There she stayed at night. At midnight she felt pain (labor) in her stomach and after some time she gave birth to a child. When she was in deep sleep, she heard someone calling her. When she awoke and proceeded in the direction the voice was coming from, suddenly she felt that her son was not there in her lap and she got fainted. Now starts the 11th chapter. After her son was kidnapped, Kamalāvati started crying. She was surprised as to how even after having that special jewel (maņi) given by Vidhuprabha with her, any demon succeeded to separate her son from her lap. Then suddenly there appeared an old lady monk having valkala and kamandalu in her hand. She came to Kamalāvati and asked her how she came to this
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jungle and why she is crying. She consoled Kamalāvatī not to be grieved as all that happened was due to fruition of bad karmas performed in previous birth. She took Kamalāvatī to her Aśrama and looked after her very well. The lady monk introduced Kamalāvati with the Kulapati (the chief) of the Aśrama. Kamalāvatī asked Kulapati that who kidnapped her son? Is he alive or dead? Kulapati told her that your enemy of previous birth is behind this incident. He wanted to kill your son but suddenly a Vidyādhara came there with his wife and saved your son. The Vidyādhara took your son with him. The Kulapati continued that your son will be looked after by that Vidyādhara and in his young age he will meet you in Hastināpura.
Knowing that her son is safe, she became happy and lived there in Āśrama for several years serving the people. After sometime there appeared a prince who was kidnapped by a horse. He was welcomed by the inhabitants of Āśrama and met to Kulapati. Kulapati asked him about his identity. Then the young man told that he is Suratha, the son of the King of Siddhārthpura and his queen Kanakavatī. After his father died of Tuberculosis, he was enthroned as a King of Siddhārthapura. His elder brother did not tolerate it and after learning the Nabhogāmini: Vidyā by a Vidyādhara, he defeated him in war and succeeded to get his Kingdome back. Then with his mother, he shifted to Champānagarī. Today in jungle, a group of travelers was looted by his people along with their few horses. When he was riding on one horse, the horse kidnapped him suddenly, and brought him to this Āśrama. Kulapati introduced Kamalāvatī with Suratha as queen of King Amaraketu and requested him to drop her to her kingdom Hastināpur. Kamalāvatī though not willing to go with a stranger, left Āśrama for Hastināpura with Suratha. In the way Suratha started to come close to Kamalāvati and offered her some beautiful ornaments. Kamalāvati recognized those ornaments and asked Suratha as to where from he got those ornaments. Suratha told that a few days back a group of travelers going towards Kuśāgranagara were looted and these ornaments were obtained. She told that all these ornaments are her which were given to her by
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Śrīdatta merchant. Surataha, who was having bad intention for Kamalāvatī, tried to make her happy by all means but failed. Once he proposed Kamlāvatī to fulfill his desire. Kamalāvatī, somehow managed to escape from Suratha but at night in the way she fell down in a well. She stayed there in the well for four days. When she saw the persons sent by Amaraketu in her search, she got relaxed. Hearing the story of Kamalāvatī, Amaraketu became sad and consoled her saying that it is all result of our good karmas and once again we met. The king Amaraketu returned Hastināpura with queen Kamalāvati and a big function was organized there in their welcome. Thousands of years elapsed happily. Once, when Amaraketu was sitting in his assembly, the gardener Samantabhadra came there and informed him that he has seen a beautiful young lady in the garden lying unconscious in between the trees. After he sprinkled water on her face, she got-up. Samantabhadra told that he started thinking that is it the same lady which was proclaimed by the astrologer Sumati that when a young lady will fall down in Sukumākara garden, then the Amaraketu will be able to meet his son. Then he handed over that beautiful lady to his wife and came here to inform the king. The king Amaraketu became glad to know the possibility of meeting with his son soon. Then the lady was brought to Amaraketu. The king asked her who she is and how she fell down in the garden?
She told that in the Bharata Kșetra of Jambūdvīpa, there is a city Kuśāgranagara where the King Naravāhana is living with his wife Ratnavati. She is Sursundarī, the daughter of king Naravāhana. Due to fruition of any bad karma, she was kidnapped by someone. The queen Kamalāvati consoled her not to worry about as the king is like her father. Kamalāvati realized that Surasundarī was not happy there and her behavior was not normal. She ordered her maid servant Hansikā to know about Surasundarī. After repeated request the Surasundari told that she is daughter of King Naravāhana who somehow became friend of Bhānuvega, the son of Citrabhānu of Kunjarāvarta near Vaitādhya mountain. Bhānuvega, in order to make the friendship more strong and permanent married her sister Ratnavati
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with the king Naravāhana. Very soon Ratnavatī became the head of all the queens. On her birth her father organized a big function. Very soon she became master of many vidāys like- conversation, drama, music, handicraft, Veena, Songs, cookery, grammar, logic etc. When she became young her father got worried about her marriage. Once when she visited garden with her friends she saw there a beautiful daughter of Vidyādhara. She was trying to fly in the sky by raising her hands but was not getting to do so. She went to her and asked who she is and what she was doing? She told me that she is Priyaṁvadā, daughter of Citravega and Bandhudattā. Bandhudattā is one of two sisters - Bandhudattā and Ratnavatī of king Bhānuvega of Kunjarāvarta, near the city Ratnasanchaya situated in southern range of Vaitādhya Mountain. Her father has one more queen Kanakamālā who has a son Makaraketu. She love very much to Makarakrtu. Her father has initiated him in some special vidyās and he has gone to any lonely place for accomplishment of those vidyās. With her father's permission she came to meet him but fell down in this garden. She had knowledge of the art of flying but due to missing its one part, she was unable to fly. Then she asked her to tell the first half of the vidyā so that she could remember the missing portion. She did the same and Surasundarī got remembered the missing part. She wanted to know about me. Then she told her about her details. She invited Priyaṁvadā to her house. She was very eager to meet Makaraketu and requested her not to stop her by going. Then she asked Priyamvadā to show the portrait which she was carrying with her. When she showed the portrait she got fainted. Then Basantikā asked her as to whose portrait is this? Priyaṁvadā replied that he is my brave and handsome brother Amaraketu. Surasundarī told that if your brother is so handsome and brave she should meet him. Then Priyamvadā consoled Surasundarī that after the accomplishment of the said vidyā, she may meet to Amaraketu and went back to her home. Surasundarī also returned to her home. Here ends the story of Surasundaricariam, chapter 11.
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श्रीमद्धनेश्वरसूरिविरचितं सुरसुंदरीचरिअं
ग्यारहवाँ परिच्छेदः गाहा :
अह लद्ध-चेयणा हं मुच्छा-विरहम्मि गरुय-सोगिल्ला। निय-हिययं कुट्टिती पलविउमेवं समाढत्ता ।।१।। संस्कृत छाया :
अथ लब्यचेतनाऽहं, मूर्छाविरहे गुरुशोकवती । निजहृदयं कुट्टयन्ती, प्रलपितुमेवं समारब्धा ।।१।। गुजराती अनुवाद :
कमलावती विलाप- हवे मूर्छा दूर थये छते प्राप्त थयेल चैतन्यवाली, भारे शोकयुक्त हुँ पोताना हृदयने कुटती आ प्रमाणे प्रलाप करवा लागी. हिन्दी अनुवाद :
कमलावती विलापमूर्छा दूर होने के बाद होश में आई शोकयुक्त मैं अपने हृदय को पीटती विलाप करने लगी। गाहा :
हा! निहएण केणवि अडवी-पडियाए दुक्ख-तवियाए ।
तक्खणमेत्तुप्पन्नो पुत्तो हरिओ अहन्नाए ।।२।। संस्कृत छाया :
हा ! निर्दयेन केनाऽपि अटवीपतिताया दुःखतप्तायाः । तत्क्षणं मात्रोत्पन्नः पुत्रो हृतोऽधन्यायाः ।।२।। गुजराती अनुवाद :
हा दैव! अटवीमां आवी पडेली, दुःख थी दुःखियारी अधन्या ओवी मारा, जातमात्र ते ज क्षणे उत्पन्न थथेल पुरनु निर्दय सवा कोइस अपहरण कर्यु।
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हिन्दी अनुवाद :
हा दैव! जंगल में आ पड़ी अधन्य दुखियारी के उसी क्षण उत्पन्न हुए पुत्र का किसी निर्दयी ने अपहरण कर लिया। गाहा :किल पुत्तयस्स वयणं पिच्छिस्समहं पभाय-समयम्मि ।
नवरं हयास-विहिणा एयं मह अन्नहा विहियं ।।३।। संस्कृत छाया :किल पुत्रस्य वदनं द्रक्ष्याम्यहं प्रभातसमये ।
नवरं हताशविधिनैतन्ममान्यथा विहितम् ।।३।। गुजराती अनुवाद :
सवारे हुं पुत्र, मुख जोइश 'खरेखर'! आवी मारी आशा, हताश विधिये अन्यथा करी।' हिन्दी अनुवाद :
सवेरे मैं अपने पुत्र का मुख अवश्य देखूगी, ऐसी मेरी आशा थी किन्तु विधि ने अन्यथा कर दिया। गाहा :
अडवि-पवेसाईयं दुक्खं दाऊण दूसहं देव्व! ।
किं अज्जवि न हु तुट्ठो अवहरिओ जेण मह पुत्तो? ।।४।। संस्कृत छाया :
अटवीप्रवेशादिकं दुःखं दत्त्वा दुःसहं दैव ?।
किं अद्यापि न खलु तुष्टोऽपहृतो येन मम पुत्रः?।।४।। गुजराती अनुवाद :
हे भाग्य! अटवी प्रवेशादिक दारुण दुःख दइने तने हजु पण शुं संतोष न थयो के जेथी मारा पुत्र, अपहरण कर्यु? हिन्दी अनुवाद :
ऐ भाग्य! जंगल-प्रवेश जैसा दारुण दुःख देने पर भी क्या तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ जो तुमने मेरे पुत्र का अपहरण भी कर लिया?
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गाहा :
वण-देवयाओ! तुम्हं सरणम्मि समागयाए मह पुत्तो।। हरिओ, ता किं जुज्जइ एत्थवि वेहा करेउं जे? ।।५।। संस्कृत छाया :
वनदेवताः ! युष्माकं शरणे समागताया मम पुत्रः ।
हृतस्तर्हि किं युज्यतेऽत्रापि वेधाः कर्तुं यद्? ।।५।। गुजराती अनुवाद :
हे वनदेवता! तमारा शरणे आवेली ओवी मारो पुत्र अपहरण करायो, तो पछी अहीं विधाता पण शुं की शके? हिन्दी अनुवाद :
हे वन देवता! तुम्हारे शरण में आने पर भी मेरे पुत्र का अपहरण हो गया, तो विधाता भी क्या कर सकता है? गाहा :
हा पुत्त! कहमरण्णे मुक्का हं सरण-वज्जिया तुमए ।
हा! कहमुच्छंग-गओ सहसा अइंसणीभूओ? ।।६।। संस्कृत छाया :
हा पुत्र ! कथमरण्ये मुक्ताऽहं शरणवर्जिता त्वया ।
हा कथमुत्सङ्गगतः, सहसाऽदर्शनीभूतः? ।।६।। गुजराती अनुवाद :___ हा! पुत्र! अरण्यमां शरण रहित हुं तारा वडे केस मूकाई? मारा . खोळामां रहेलो तुं एकाएक अदृश्य केम थइ गयो? हिन्दी अनुवाद :
हा पुत्र! जंगल में शरणरहित मैं तुम्हारे द्वारा कैसे बनी? मेरी गोद में तुम थे, एकाएक कैसे अदृश्य हो गए? गाहा :
नूणं निहर-रूवं सह सोऊण जस्स पडिबुद्धा । तेणं चिय अवहरिओ पिसाय-रूवेण केणावि ।।७।।
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संस्कृत छाया :
नूनं निष्ठुररूपं शब्दं श्रुत्वा यस्य प्रतिबुद्धाः ।
तेनैवापहृतः, पिशाचरूपेण केनापि ।।७।। गुजराती अनुवाद :
जफर, जेना निष्ठुरतायुक्त शब्द सांभळी ने हुं जागी, ते ज कोई पिशाचे तेनु अपहरण कर्यु हशे. हिन्दी अनुवाद :
निश्चय ही जिसके शब्द सुनकर मैं जगी थी, उसी पिशाच ने तुम्हारा अपहरण किया होगा।
गाहा:
जस्स पभावाओ तया सहसा गयणाओ गय-वरो पडिओ।
सोवि मणी अकयत्थो जाओ मह मंद-भायाए ।।८।। संस्कृत छाया :
यस्य प्रभावात् तदा, गगनाद गजवरः पतितः ।
सोऽपि मणिरकृतार्थो, जातो मम मन्दभागायाः ।।८।। गुजराती अनुवाद :
जेना प्रभावथी तरत ज आकाशमाथी हाथी नीचे पडयो, ते दिव्य मणि पण मंद भाग्यवाळी मारा माटे असफळ (असमर्थ) थयो। हिन्दी अनुवाद :
जिसके प्रभाव से तुरन्त हाथी आकाश से नीचे गिर पड़ा वह दिव्य मणि भी मुझ मंद भाग्यवाली के लिए असफल हो गयी है। गाहा :
जं कंठ-निबद्धेवि हु तम्मी अंक-डिओवि हा पुत्त! ।
हरिओ निक्करुणेणं केणावि अदिस्स-रूवेण ।।९।। संस्कृत छाया :
यत् कण्ठनिबद्धेऽपि खलु, तस्मिन्नङ्कस्थितोऽपि हा पुत्र ! । हृतो निष्करुणेन, केनाऽप्यश्यरूपेण ।।९।।
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गुजराती अनुवाद :
ते मणि कंठमां बांधेलो होवा छतां पण, हे पुत्र ! खोळामां रहेळा तारुं निर्दय एवा कोइ पिशाचे अपहरण. कर्यु !
हिन्दी अनुवाद :
उस मणि को कंठ में बंधे रहने पर भी हे पुत्र ! मेरी गोद से किसी निर्दयी पिशाच ने अपहरण कर लिया।
गाहा :
एमाइ बहु- विगप्पं पलवंतीए तहिं सुदीणाए ।
मदुक्ख दुक्खिया इव खीणा रयणीवि सहसत्ति ।। १० ।।
संस्कृत छाया :
एवमादि बहुविकल्पं प्रलपन्त्यास्तत्र सुदीनायाः । मदुःखदुःखितेव, क्षीणा रजन्यपि सहसेति । । १० । ।
गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे दीनमुखी थईने बहु विलाप करती हती तेटलामां जाणे मारा दुःख थी दुःखी थयेली होय तेम रात्रि पण अकस्मात् क्षीण थई गई... हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार दीनमुखी होकर विलाप कर रही थी तभी रात्रि भी क्षीण हो गयी, जैसे मेरे दुःख से वह भी दुःखी हो गयी हो ।
गाहा :
अइकरुणं कंदंति दठुंव ममं ससोय वयणिल्ला ।
निवडंत - थूल - तारय- अंसूहिंव रुयइ नह लच्छी ।। ११ । ।
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संस्कृत छाया :
अतिकरुणं क्रन्दन्तीं दृष्ट्वेव मां सशोकवदना । निपतत्स्थूलतारका श्रुभिरिव रोदिति नभोलक्ष्मीः ।। ११ । ।
गुजराती अनुवाद :
अतिकरुण स्वरे भने आक्रंदन करती जोइने शोकातुर मुखवाळी आकाशलक्ष्मी खरी पडता मोटा ताराओ रूपी अश्रुओ वडे जाणे रोवा लागी ।
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हिन्दी अनुवाद :
अति करुण स्वर में मुझे रोता देखकर शोकातुर मुखवाली आकाश लक्ष्मी गिरते हुए तारों की भाँति आँसुओं से युक्त रोने लगी।
गाहा :
एत्थंतरम्मि सूरो सुयावहारय - निहालणत्थंव । नासिय घणंधयारो आरूढो उदयगिरि - सिहरं । । १२ । ।
संस्कृत छाया :
अत्रान्तरे सूर्यः, सुताऽपहारनिभालनार्थमिव । नाशितघनान्यकार, आरूढः उदयगिरिशिखरम् ।। १२ । ।
गुजराती अनुवाद :
एटलामां नाश कर्यो छे गाढ अंधकार जेणे स्वो सूर्य पण पुत्रना अपहरण करनारने जाणे शोधवा माटे उदयाचलना शिखर उपर आरूढ थयो । हिन्दी अनुवाद :
इतने में घने अंधकार का नाश करने वाला सूर्य भी उदयाचल के शिखर पर चढ़ आया जैसे वह हमारे पुत्र का अपहरण करनेवाले की तलाश कर रहा हो ।
गाहा :
अह अद्ध-पहरमेत्ते दियहे अइदुक्खिया अहं तत्थ । अइकरुणं कंदती इओ तओ जाव वियरामि ।। १३ ।।
संस्कृत छाया :
अथार्थप्रहरमात्रे, दिवसेऽतिदुःखिताऽहं तत्र ।
अतिकरुणं. क्रन्दन्तीतस्ततो यावद् विचरामि ।। १३ ।।
गुजराती अनुवाद :
तापसीनं आगमन
हवे अर्ध प्रहर (अंदाज चार घडी) दिवस थयो एटले अत्यन्त दुःखी हुं ते अटवीमां अति करुण स्वरे रुदन करती आम तेम परिभ्रमण करती हती.
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हिन्दी अनुवाद :
अंदाजन दिन के चार पहर बीत गये थे, पर मैं उस जंगल में अत्यन्त दुःखी होकर अत्यन्त करुण स्वर में रोती हुई इधर-उधर घूमती रही।
तपस्वीनी का आगमनगाहा :
ताव कमंडलु-हत्था मिउ-वक्कल-वसण-धारिणी तत्थ ।
परिणय-वया पसन्ना समागया तावसी एगा ।।१४।। संस्कृत छाया :
तावत् कमण्डलुहस्ता मृदुवल्कलवसनधारिणी तत्र ।
परिणतवयाः प्रसन्ना समागता तापस्येका ।।१४।। युग्मम्।। गुजराती अनुदाद :
तेटलामां हाथमां कमंडल तथा सुकोमल वल्कलना वस्त्रो ने धारण करेली, वृद्धा छतां प्रसन्न स्वी एक तापसी त्यां आवी! हिन्दी अनुवाद :
इतने में हाथ में कमंडल और कोमल वल्कल रूपी वस्त्र को धारण करने वाली एक तपस्विनी आई जो वृद्धा होकर भी प्रसन्न थी। गाहा :दटुं ममं रुयतिं विविह-पलावेहिं तत्थ वण-गहणे ।
संजाय-गरुय-करुणा समागया मज्झ पासम्मि ।।१५।। संस्कृत छाया:
न्ट्वा मां रुदन्ती विविधप्रलापैस्तत्र वनगहने । सञ्जातगुरुकरुणा समागता मम पार्थे ।।१५।। गुजराती अनुवाद :
त्यां भयंकर अटवीमा विविध प्रकारना विलापो वडे मने रडती जोइने उत्पन्न थयेली भाटे करुणा वाळी ते मारी पासे आवी. हिन्दी अनुवाद :
उस भयंकर जंगल में विभिन्न प्रकार से विलाप करती हुई मुझे देखकर उत्पन्न करुणावाली वह मेरे पास आई।
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गाहा :महुर-वयणेण तीए आपुट्ठा सुयणु! कीस तं रुयसि ।
कत्तो समागया इह भीसण-रन्नम्मि इक्कल्ला? ।।१६।। संस्कृत छाया :
मधुरवचनेन तयाऽऽपृष्टा सुतनो! कस्मात् त्वं रोदिषि? ।
कुतस्समागतेह भीषणारण्ये एकाकिनी ।।१६।। गुजराती अनुवादः :
मधुर वचब बड़े तापसीस पूछयुं, 'हे सुतनु! तुं शा माटे रुदन करे छे? अने आ भयंकर अटवीमां स्काकी तुं क्या थी आवी? हिन्दी अनुवाद :
मधुरभाषी तपस्विनी ने पूछा हे बेटी तुम क्यों रो रही हो? और इस भयंकर जंगल में तुम अकेली कहाँ से आई? गाहा :
काउं तीइ पणामं तत्तो वियलंत-अंसुयाए मए ।
कुंजर-हरणाईओ सिट्ठो सव्वोवि वुत्तंतो ।।१७।। संस्कृत छाया :
कृत्वा तस्यै प्रणामं ततो विगलदश्रुकया मया ।
कुञ्जरहरणादिकः शिष्टः सर्वोऽपि वृत्तान्तः ।।१७।। गुजराती अनुवाद :
तेने प्रणाम करीने, वहेता अश्रुप्रवाहवाली में हाथी बड़े अपहरण आदि समस्त वृत्तांत कह्यो। हिन्दी अनुवाद :
उस तपस्विनी को प्रणाम कर मैंने बहते हुए आसुओं सहित हाथी के द्वारा किए अपहरण के वृत्तान्त को सुनाया। गाहा :अह तावसीए भणियं इमस्स जोगा न होसि तं सुयणु!। तहवि हु किमित्थ कीरइ स-कम्म-वसगम्मि जिय-लोए? ।।१८।।
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संस्कृत छाया :
अथ तापस्या भणितमस्य, योग्या न भवसि त्वं सुतनो ! । तथापि खलु किमत्र क्रियते, स्वकर्मवशके जीवलोके ? ।। १८ ।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे तापसी का हे सुतनु! आवा दारुण दुःख ने योग्य तुं नथी, परंतु पोताना कर्मने वश एवा आ जीवलोकमां आपणे शु करी शकीए ? हिन्दी अनुवाद :
तब तपस्विनी ने कहा हे बेटी ! तू इस दारुण दुःख के योग्य नहीं हो। किन्तु अपने कर्मों के अधीन हम इस जीवलोक में क्या कर सकते हैं ?
गाहा :
सुंदरि ! कम्म - वसाणं सत्ताणं इह भवे वसंताणं । एवंविह- दुक्खाई हवंति जं एत्थ न हु चोज्जं ।। १९ । ।
संस्कृत छाया :
सुन्दरि ! कर्मवशानां सत्त्वानामिह भवे वसताम् । एवंविधदुःखानि भवन्ति यदत्र न खलु चोद्यम् ।। १९ । ।
गुजराती अनुवाद :
हे सुंदरी! संसारमा परिभ्रमण करतां कर्मने वश एवा प्राणीओने आवा प्रकारना दुःखो आवी पड़े छे तेमां कांइज आश्चर्य नथी ।
हिन्दी अनुवाद :
हे सुन्दरी! इस संसार में परिभ्रमण करते कर्म के अधीन ऐसे प्राणियों को इस प्रकार के दुःख आ पड़ते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं ।
गाहा :
जं किंचि असुह- कम्मं अन्न- भवे संचियं तुमे आसि ।
तस्स विवागाओ इमं समागयं सुयणु ! गुरु- वसणं ।। २० ।।
संस्कृत छाया :
यत् किञ्चिदशुभकर्माऽन्यभवे सञ्चितं त्वयासीत् ।
तस्य विपाकादिदं समागतं सुतनो ! गुरुव्यसनम् ।। २० ।।
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गुजराती अनुवाद :___परंतु हे सुभगे! पूर्वमा जे कांई अशुभ कर्म कर्यु हो, तेना परिणाम थी आ मोटुं संकट आवी पडओँ छ। हिन्दी अनुवाद :
परन्तु हे सुन्दरी! पूर्व में जो कोइ अशुभ कार्य तुमने किया था उसी के परिणामस्वरूप यह भारी दुःख आया है। गाहा :
ता अन्न-भव -विढत्ते दुक्खम्मि समागयम्मि को सोगो!।
किं वावि विलविएणं सरीरायास-भूएणं? ।।२१।। संस्कृत छाया :
तस्मादन्यभवार्जिते दुःखे समागते कः शोकः ? ।
किं वापि विलपितेन, शरीरायासभूतेन ? ।।२१।। गुजराती अनुवाद :
तेथी अन्य अवमा उपार्जन करेल दुःखनी प्राप्तिमां शोक करवो शा कामनो? तथा शरीरने पीड़ा थाय तेवा विलाप बड़े शुं? हिन्दी अनुवाद :
. इसलिए दूसरे जन्म में उपार्जित दुःख होने से इसमें शोक करने का कोई काम नहीं और शरीर को पीड़ा हो, ऐसा विलाप करने से क्या फायदा?? गाहा :
एत्तो उ समासन्ने अच्छइ अम्हाण आसमो रम्मो।
आगच्छ सुयणु! अणुचियमेयं ठाणं जओ तुज्झ ।।२२।। संस्कृत छाया :इतस्तु समासन्ने आस्तेऽस्माकमाश्रमो रम्यः ।
आगच्छ सुतनो ! अनुचितमेतत्स्थानं यतस्तव ।।२२।। गुजराती अनुवाद :__अहीथी अमारो मनोहर आश्रम नजीक ज छे. हे सुतनु! त्यां तु आव, कारण के अहीं ताहरे रहे, अनुचित छे!
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हिन्दी अनुवाद :
यहाँ से नजदीक ही हमारा मनोहर आश्रम है। हे बेटी! तुम वहीं चलो। क्योंकि तुम्हारा यहाँ रहना उचित नहीं है।
गाहा :
-
वाय सीयल-पवणो एत्थ ओ तं अभिणव पसूया सि । सुकुमाल - सरीराए मा होज्ज विरुवयं किंचि ।। २३ ।।
संस्कृत छाया :
वाति शीतलपवनोऽत्र ओ ! त्वमभिनवप्रसूताऽसि । सुकुमारशरीराया मा भवेद् विरूपकं किञ्चित् ।। २३ ।।
गुजराती अनुवाद :
वळी अहीं बहु ठंडो पवन वाय छे, अने हमणा ज तारी प्रसूति थई छे. जेथी तारु शरीर सुकोमल होवाथी कांइ अनुचित न था ।
हिन्दी अनुवाद :
इसके अलावा यहाँ बहुत ठंडी हवा बह रही है और अभी तुरन्त तुम्हारी प्रसूति हुई है। तुम चलो ताकि तुम्हारा शरीर कोमल होने से कहीं कुछ अनुचित न हो जाय।
गाहा :
इय भणिय तावसीए नीया हं आसमम्मि रमम्मि ।
पडिजग्गिया य सम्मं निक्कारण- वच्छलत्तेण ।। २४।।
संस्कृत छाया :
इति भणित्वा तापस्या नीताऽहं आश्रमे रम्ये । प्रतिजागरिता च सम्यग्, निष्कारणवत्सलत्वेन ।। २४ ।।
गुजराती अनुवाद :
एम कहने तापसी मने पोताना आश्रममां लइ गइ. अने निष्कारण वात्सल्यताथी तेणीए मारी सारी सारसंभाळ करी ।
हिन्दी अनुवाद :
ऐसा कहकर वह तपस्विनी मुझे अपने आश्रम में ले गयी और बिना किसी स्वार्थ के वात्सल्यपूर्वक उसने हमारी साज-संभाल की।
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गाहा :
अह कइवय-दिवसेहिं संजाया सत्थ-देहिया मणयं ।
अन्नम्मि दिणे नीया तीए हं कुलवइ-समीवे ।। २५।। संस्कृत छाया :
अथ कतिपयदिवसः सजाता स्वस्थदेहिका मनाक् ।
अन्यस्मिन् दिने नीता, तयाऽहं कुलपतिसमीपे ।। २५।। गुजराती अनुवाद :
हवे केटलाक दिवसो बाद माझं शरीर थोडं स्वस्थ थयुं-पछी कोईक एक दिवसे ते तापसी मने कुलपति पासे लइ गइ. हिन्दी अनुवाद :
कितने दिनों बाद मेरा शरीर थोड़ा स्वस्थ हुआ। कुछ दिनों बाद वह तपस्विनी मुझे अपने कुलपति के पास ले गयी। गाहा :तीएवि पुव्व-भणिओ वुत्तंतो साहिओ कुलवइस्स ।
करुणा-परेण तेणवि अणुसट्ठा महुर-वयणेहिं ।।२६।। संस्कृत छाया :
तयाऽपि पूर्वभणितो वृत्तान्तः कथितः कुलपतेः ।
करुणापरेण तेनापि, अनुशिष्टा मधुरवचनैः ।।२६।। गुजराती अनुवाद :
कुलपति नो उपदेश तापसीस पूर्वोक्त वृत्तांत कुलपतिने जणाव्यो. हवे करुणामां तत्पर स्वा ते कुलपतिर मधुर वचनो वडे मने समजाव्यु, हिन्दी अनुवाद :
कुलपति का उपदेशतपस्वी ने मेरा सारा वृत्तान्त कुलपति को बताया। उस करुणा से ओत-प्रोत कुलपति ने मधुर वचनों से मुझे समझाया। गाहा :
वच्छे! इह संसारे सुलहाई एरिसाइं दुक्खाई। , . अकयम्मि सुह-निमित्ते धम्मे परलोय-बंधुम्मि ।।२७।।
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संस्कृत छाया :
वत्से ! इह संसारे सुलभानीशानि दुःखानि ।
अकृते सुखनिमित्ते धर्मे परलोकबन्धौ ।।२७।। गुजराती अनुवाद :
हे वत्स! सुखना कारणभूत अने परलोकनां बंधु समान धर्म न करवाथी आवा प्रकारना दुःखो आ संसारमां सुलब्ध छे. हिन्दी अनुवाद :
हे वत्स! सुख के कारणभूत तथा परलोक में बन्धु समान धर्म न करने से इस प्रकार के दुःख इस संसार में सुलभ हैं। गाहा :
जायंति दूसहाई जेणं चिय एत्थ दुसह-दुक्खाई।
तेणेव चत्त-रज्जा वण-वासमुवागया धीरा ।।२८।। संस्कृत छाया :
जायन्ते दुःसहानि येनैवात्र दुःसह-दुःखानि ।
तेनैव त्यक्तराज्या वनवासमुपगता धीराः ।।२८।। गुजराती अनुवाद :
___ जेने कारणे आ भवमा असह्य दुःखो आवे छे. ते कारण थी ज सुज्ञ पुरुषोस राज्यने छोडीने वनवासने स्वीकार्यो छे। हिन्दी अनुवाद :
जिस कारण से इस जन्म में असह्य दुःख आता है, उसी कारण से ज्ञानी पुरुष राज-पाट को छोड़कर बनवास स्वीकार करते हैं। गाहा :एवं भणमाणस्स उ कुलवइणो तीइ तावसीइ अहं ।
कन्ने होउं भणिया भयवं! वर-नाण-जुत्तोऽयं ।। २९।। संस्कृत छाया :
एवं भणतस्तु तु कुलपतेस्तया तापस्याऽहम् । कर्णे भूत्वा भणिता भगवान् वरज्ञानयुक्तोऽयम् ।।२९।।
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गुजराती अनुवाद :____ आ प्रमाणे कुलपति कहेता हता त्यारे तापसीस मने कानमां कडं. आ भगवान कुलपति बहु ज्ञानी छे. हिन्दी अनुवाद :
जब कुलपति ऐसा कह रहा था तभी उस तपस्विनी ने मेरे कान में कहा, यह भगवान कुलपति बहुत ज्ञानी हैं। गाहा :
तो पुच्छ इच्छियत्थं भणियाए ताहि विणय-पणयाए । पुट्ठो मए महा-यस! केण हिओ नंदणो मज्झ? ।।३०।। संस्कृत छाया :ततः पृच्छेप्सितार्थ भणितया तदा विनयप्रणतया ।
पृष्टो मया महायश ! केन हृतो नन्दनो मम ? ।।३०।। गुजराती अनुवाद :
तेथी मनोवांछित अर्थने पूछी ले, त्यारे में विनयपूर्वक कर्दा के हे महायश! मार पुत्रनु अपहरण कोणे कर्यु? हिन्दी अनुवाद :___इसलिए मनोवांछित अर्थ पूछ लो। तब मैंने विनयपूर्वक कहा हे महायश! मेरे पुत्र का अपहरण किसने किया? गाहा :किं जीवइ अहव मओ पिक्खिस्समहं कयाइवि नवत्ति? ।
अह भणियं कुलवइणा सम्मं दाऊण उवओगं ।।३१।। संस्कृत छाया :किं जीवति अथवा मृतः प्रेक्षिष्येऽहं कदाचिदपि न वेति ।
अथ भणितं कुलपतिना, सम्यग्दत्त्वोपयोगम् ।।३१।। गुजराती अनुवाद :
पुत्र अपहरणादि प्रश्नोत्तर ___ माटो पुत्र शुं जीवे छे के मटी गयो छे? क्यारे पण हुं तेने जोइश के नहि? त्यारे सारी ते उपयोग मूकीने कुलपतिस मने कह्यु.
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हिन्दी अनुवाद :
पुत्र अपहरणादि प्रश्नोत्तरहे कुलपति! आप अपने ज्ञान से यह पता कर बताइए कि मेरा पुत्र मर गया है या अभी जीवित है। मैं कभी उसे देख पाऊँगी या नहीं? तब कुलपति ने ध्यान से देखकर कहागाहा :
वच्छे! उच्छंग-त्थो तुह तणओ अवहिओ उ देवेण । पाण-विओयण-हेडं पुव्व-विरुद्धण कुद्धेण ।।३२।। संस्कृत छाया :
वत्से ! उत्सङ्गस्थस्तव, तनयोऽपहृतस्तु देवेन ।
प्राणवियोजनहेतुं, पूर्वविरुद्धेन कुद्धेन ।।३२।। गुजराती अनुवाद :
हे वत्स! पूर्वभवना विरोधी (क्रोधी) देवे मारी नाखवाना हेतुथी खोळामां रहेला तारा पुरनु अपहरण कर्यु छे. हिन्दी अनुवाद :
हे पुत्री! पूर्व जन्म का विरोधी क्रोधी देव ने मार डालने के लिये तुम्हारे पुत्र का अपहरण किया है। गाहा :
वेयड-गिरि-निउंजे नेऊण सिला-यलम्मि विउलम्मि।
मुक्को छुहाभिभूओ किल किच्छेणेस मरउत्ति ।।३३।। संस्कृत छाया :
वैतान्यगिरिनिकुञ्ज, नीत्वा शिलातले विपुले । मुक्तः क्षुधाभिभूतः किल कृच्छ्रेण एष प्रियतामिति ।।३३।। गुजराती अनुवाद :
वेताढ्य पर्वत उपर ना वनमां लइ जईने मोटी शिला ऊपर तेने मूक्यो, जेथी भूखथी पीडायेलो कष्ट पूर्वक बाळक मरी जाय. हिन्दी अनुवाद :
उसने वैताढ्य पर्वत के ऊपर स्थित वन में उसे ले जाकर बड़ी शिला पर रखा ताकि भूख से व्याकुल बालक कष्टपूर्वक मर जाय।
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गाहा :
अह कहवि विहि-वसेणं समागओ तत्थ नह-यरो एक्को। निय-भारिया-समेओ तेण य पुत्तोत्ति सो गहिओ ।।३४।। संस्कृत छाया :
अथ कथमपि विधिवशेन समागतस्तत्र नभश्चर एकः । निजभार्यासमेतस्तेन, च पुत्र इति स गृहीतः ।।३४।। गुजराती अनुवाद :
परंतु कोई भाग्यना योगथी त्यां पोतानी पत्नी सहित एक विद्याधर आव्यो. अने आ कोईनो 'पुत्र' छे सम विचारी ग्रहण कर्यो. हिन्दी अनुवाद :
किन्तु किसी भाग्य के योग से वहाँ अपनी पत्नी सहित एक विद्याधर आ गया, और वह यह किसी का पुत्र है, ऐसे विचार कर उसे ग्रहण कर लिया। गाहा :
खयरस्स तस्स गेहे वुड्डिं जाही सुहेण, तत्तो य ।
संपत्त-जोव्वणो सो मिलिही तुह हत्थिणपुरम्मि ।।३५।। संस्कृत छाया :
खचरस्य तस्य गृहे वृद्धिं यास्यति सुखेन, ततश्च ।
सम्प्राप्तयौवनः स मिलिष्यति तव हस्तिनापुरे ।।३५।। गुजराती अनुवाद :
विद्याधरना घरे सुखपूर्वक ते बालक वृद्धिने पामशे, त्यारबाद यौवन वयने प्राप्त थयेलो तने हस्तिनापुरमा मळशे. हिन्दी अनुवाद :
विद्याधर के घर वह बालक सुखपूर्वक बड़ा होगा और बाद में युवावस्था प्राप्त होने पर हस्तिनापुर में मिलेगा। गाहा :
एवं च तेण भणिए पणट्ठ-सोगा नरिंद! जाया है । फल-मूल-कयाहारा विणय-परा तावसि-जणस्स ।।३६।।
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संस्कृत छाया :___ एवं च तेन भणिते, प्रनष्टशोका नरेन्द्र ! जाताऽहम् ।
फलमूलकृताहारा, विनयपरा तापसीजनस्य ।।३६।। गुजराती अनुवाद :
हे राजन्! आ प्रमाणे कुलपतिना कहेवाथी हुं शोक रहित थई. फलफूल नो आहार करती तापसी-समूहना विनयमां रत बनी. हिन्दी अनुवाद :
__ हे राजन! कुलपति के इस प्रकार कहने पर मैं शोक रहित हो गयी और फल-फूल खाकर तपस्वी समूह की सेवा में लग गयी। गाहा :_पिय! कइवय-दिवसाइं अच्छामि तहिं तु आसमे जाव ।
ता अन्न-दिणे कुलवइ मूले धम्मं सुणिंतीए ।। ३७।। संस्कृत छाया :- . प्रिय ! कतिपयदिवसानि, आसे तत्र त्वाश्रमे यावत् । तावदन्यदिने कुलपति-मूले धर्मं शृण्वन्त्याम् ।।३७।। गुजराती अनुवाद :
सुरथकुमारनु आगमन हे प्रिय! केटलाक दिवस हुं ते आश्रममां रही, एक वखत बहु तापसीओनी साथे कुलपति पासे धर्म श्रवण करती हती. हिन्दी अनुवाद :
सुरथ कुमार का आगमन_हे प्रिय! मैं बहुत दिनों तक उस आश्रम में रही। एक बार बहुत से तपस्वियों के साथ मैं कुलपति के पास धर्म श्रवण कर रही थी। गाहा :बहु-तावसि-सहियाए सहसा आसेण वेग-जुत्तेण ।
अवहरिओ संपत्तो राय-सुओ तत्थ एगागी ।। ३८।। संस्कृत छाया :बहुतापसीसहितायां सहसाऽश्वेन वेगयुक्तेन । अपहृतः सम्प्राप्तो राजसुतस्तत्रैकाकी ।।३८।। युग्मम् ।।
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गुजराती अनुवाद :
तेटलान्मां अकस्मात् वेगवाला घोडाथी अपहरण करायेलो एक स्कलो राजपुत्र त्यां आव्यो. हिन्दी अनुवाद :
तभी अचानक वेग वाले घोड़े से अपहृत एक अकेला राजपुत्र वहाँ आया। गाहा :
अह अतिहि-वच्छलेहिं तावस-कुमरेहिं विहिय-संमाणो ।
आगम्म विहिय-विणओ उवविट्ठो कुलवइ-समीवे ।।३९॥ संस्कृत छाया :
अथाऽतिथिवत्सलैस्तापसकुमारै-विहितसन्मानः ।
आगम्य विहितविनय उपविष्टः कुलपति-समीपे ।।३९।। गुजराती अनुवाद :
त्यारबाद अतिथि वत्सल स्वा तापस कुमारोस तेनु सन्मान कर्यु. करेला विनयवाळो ते पण कुलपतिनी पासे बेठो. हिन्दी अनुवाद :
उसके बाद अतिथि-प्रेमी तापस कुमारों ने उसका सम्मान किया। सम्मान किया हुआ वह राजपुत्र कुलपति के पास बैठा। गाहा :
कुलवइणा सो पुट्ठो को सि तुमं आगओ कुओ भइ!? । तत्तो य तेण भणियं कहेमि निसुणेह भयवं! ति ।।४०।। संस्कृत छाया :
कुलपतिना स पृष्टः कोऽसि त्वं ? आगतः कुतो भद्र ! ?।
ततश्च तेन भणितं, कथयामि निशृणुत भगवन् ! इति ।।४०।। गुजराती अनुवाद :____ कुलपतिस पूछयु- हे भद्र! तुं कोण छे? क्याथी आव्यो छे? त्यारे तेणे कडुं- 'हे भगवन्! कहुं छु ते तमे सांथलो.
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हिन्दी अनुवाद :
कुलपतिस पूछयुं- 'हे भद्र! तुं कोण छे? क्याथी आव्यो छे? त्यारे तेणे का- 'हे भगवन! कहुं छु ते तमे सांधलो. गाहा :
सिद्धत्थपुरे राया सुग्गीवो नाम आसि विक्खाओ। · कणगवई से देवी तीए सुओ सुरह-नामो हं ।।४१।। संस्कृत छाया :सिद्धार्थपुरे राजा सुग्रीवो नामाऽऽसीद् विख्यातः ।
कनकवती तस्य देवी तस्याः सुतः सुरथनामाऽहम् ।।४१।। गुजराती अनुवाद :
सिद्धार्थपुंटमां विख्यात सुग्रीव नामनो राजा हतो. ते राजानी कनकवती राणी हती तेनो सुरथ नामनो हुँ पुत्र छु. हिन्दी अनुवाद :
सिद्धार्थपुर में एक प्रसिद्ध राजा सुग्रीव था। उसकी रानी कनकवती का सुरथ नामक मैं पुत्र हूँ। गाहा :
अइवल्लहोत्ति पिउणा जुवराय-पयम्मि बाल-भावेवि ।
अहिसित्तो अवमन्निय पुत्तं जिटुं तु सुप्पइष्टुं ।।४२।। संस्कृत छाया :
अतिवल्लभ इति पित्रा, युवराजपदे बालभावेऽपि ।
अभिषिक्तोऽवमत्य, पुत्रं ज्येष्ठं तु सुप्रतिष्ठम् ।।४२।। गुजराती अनुवाद :
माता-पिताने अत्यंत प्रिय होवाथी पोताना मोटा पुत्र सुप्रतिष्ठनी अवगणना कीने बाल्यावस्थामां ज मने पितास युवराजपदे स्थापन कर्यो! हिन्दी अनुवाद :
माता-पिता को अत्यन्त प्रिय होने से उन्होंने अपने बड़े बेटे सुप्रतिष्ठ की अवगणना कर बाल्यावस्था में ही मुझे युवराज पद पर स्थापित कर दिया।
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गाहा :
अह अन्नया कयाइवि खय-वाहीए मयम्मि जणयम्मि । तस्स पए हं राया अहिसित्तो मंति-वग्गेण ।।४३।। संस्कृत छाया :
अथान्यदा कदाचिदपि, क्षयव्याधिना मृते जनके । - तस्य पदेऽहं राजाऽभिषिक्तो मन्त्रिवर्गेण ।।४३।। गुजराती अनुवाद :. हवे कोइ वखत क्षयना रोगथी पिता मृत्यु पामे छते मंत्रीवर्गे पिताना स्थाने मारो राजा रुपे अधिषेक कर्यो. हिन्दी अनुवाद :
बाद में क्षयरोग से पिता की मृत्यु हो जाने पर मन्त्रियों ने पिता के स्थान पर राजा के रूप में मेरा अभिषेक कर दिया।
गाहा:
जिट्ठस्स अन्न-जणणी-तणयस्स उ तस्स सुप्पइट्ठस्स । विज्जाहरण केणवि कय-उवयारेण दिनाओ ।।४४।। नहगामिणि-पमुहाओ विज्जाओ तप्पभावओ तेण ।
काऊण य संगाम अहिट्ठियं अप्पणा रज्जं ।।४५।। युग्मम्।। संस्कृत छाया :
ज्येष्ठस्य अन्यजननीतनयस्य तु तस्य सुप्रतिष्ठस्य । विद्याधरेण केनाऽपि कृतोपकारेण दत्ताः ।।४४।। नभोगामिनिप्रमुखा विद्यास्तत्प्रभावतस्तेन ।
कृत्वा च सझाममधिष्ठितमात्मना राज्यम् ।।४५।। युग्मम्।। गुजराती अनुवाद :
ते ओरमान मोटा भाई सुप्रतिष्ठने तेना उपकारथी खुश थयेला कोई विद्याधरे नभोगामिनी वगेरे विद्या तेने आपी- अने ते विद्याना प्रभाव थी युद्ध करीने तेणे पोता, राज्य मेलव्यु, हिन्दी अनुवाद :
बड़े भाई सुप्रतिष्ठ को उनके उपकार से खुश हुए किसी विद्याधर ने
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नभोगाभिनी विद्या दी और उस विद्या के प्रभाव से युद्ध करने पर उन्हें अपना राज्य मिल गया। गाहा :
तस्स भएण अहंपि हु समागओ पुर-वरीए चंपाए ।
जणणि-समेओ पासे मायामह-कित्तिधम्मस्स ।।४६।। संस्कृत छाया :तस्य भयेनाहमपि खल, समागतः पुरवर्यायां चम्पायाम् ।
जननीसमेतः पार्थे, मातामह-कीर्तिधर्मस्य ।।४६।। गुजराती अनुवाद :
तेना अयथी हुं पण मातानी साथे चंपा नगरीमां नाना (माताना पिता) कीर्तिधर्म राजा पासे आव्यो. हिन्दी अनुवाद :
उनके भय से मैं अपनी माँ के साथ चम्पानगरी में अपने नाना कीर्तिधर्म के पास आ गया।
गाहा :
तेणवि निय-देसंते दिन्नं गामाण सहस्सयं एगं।
तत्थ य जणणी-सहिओ भयवं! अच्छामि अहयंति ।।४७।। संस्कृत छाया :
तेनाऽपि निजदेशान्ते दत्तं प्रामाणां सहममेकम् । तत्र च जननीसहितो, भगवन् ! आसेऽहमिति ।।४७।। गुजराती अनुवाद :
तेमणे पण मने पोताना देशना छेवाडे रहेला एक हजार गाम आप्या. अने त्यां हे अगवन्! माता सहित हुं रहुं छु. हिन्दी अनुवाद :
उन्होंने भी मुझे अपने देश के किनारे रहे हुए एक हजार गाँव दिए। हे भगवन्! मैं वहीं अपनी माँ के साथ रहता हूँ। गाहा :
कइवय-दिणेहिं इंतो इमाइ अडवीइ वाणियग-सत्थो । मह पुरिसेहि विलुत्तो पत्तं वित्तं तहिं पउरं ।।४८।।
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संस्कृत छाया :
कतिपयदिनैर्यन् अस्यामटव्यां वाणिजसार्थः ।
मम पुरुषै- विलुप्तः, प्राप्तं वित्तं तत्र प्रचुरम् ।। ४८ ।।
गुजराती अनुवाद :
केटलाक दिवसो पसार थया बाद आज अटवीमां मारा पुरुषोर वणिक लोको नो सार्थ लुट्यो अने तेमनी पासेथी घणुं धन प्राप्त कर्यु !
हिन्दी अनुवाद :
कितने दिन बीत जाने के बाद आज जंगल में हमारे लोगों ने बनियों के एक कारवां को लूटा और उनके पास से काफी धन प्राप्त किया।
गाहा :
अन्नं च तत्थ पत्ता तुक्खार - तुरंगमा बहुविहीया । ताणावाहण - हेउ अज्जेव पभाय - समयम्मि ।। ४९ ।। बाहिं नीहरिओ हं कमेण तुरगे ओ जाव वाहेमि । ताविक्केणं सहसा हरिओ विवरीय- सिक्खेण ।। ५० ।।
संस्कृत छाया :
अन्यच्च तत्र प्राप्ताः, तुक्खार - तुरङ्गमा बहुविधाः । तेषामावहनहेतुरद्यैव प्रभातसमये ।। ४९ ।। बहि र्निसृतोऽहं क्रमेण तुरगान् ओ यावद् वाहयामि । तावदेकेन सहसा, हृतो विपरीतशिक्षेण ।। ५० ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :
तथा वेमां उत्तम जातिना घोडा पण प्राप्त थया. ते घोडाओनां परीक्षा हेतु आजे ज सवारे हुं बहार नीकल्यो. क्रमवड़े अश्वोने ज्यां सुधी वहन करुं छं. त्यां तो एक विपरीत शिक्षावाळा घोडाए मारुं अपहरण कर्यु. हिन्दी अनुवाद :
उसमें उत्तम जाति के घोड़े भी प्राप्त हुए। उन घोड़ों की परीक्षा हेतु आज सबेरे बाहर निकला। क्रम से मैं घोड़ों की परीक्षा कर रहा था तभी एक विपरीत शिक्षावाले घोड़े ने मेरा अपहरण कर लिया।
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गाहा :- अविय।
जह जह ओक्खंचिज्जइ तह तह वेगं पगिण्हमाणेण ।
भयवं! तुरंगमेणं इहाणिओ आसमे तुम्ह ।।५१।। संस्कृत छाया :
अपि चयथा यथाऽऽकृष्यते तथा तथा वेगं प्रगृह्णता ।
भगवन् ! तुरङ्गमेणेहानीत आश्रमे तव ।।५१।। गुजराती अनुवाद :
.. अने वळी जेम-जेम लगाम खेचतो गयो तेम तेम वधारे वेगने ग्रहण करतो ते घोड़ो मने तमारा आश्रममा लाव्यो. हिन्दी अनुवाद :
और जैसे-जैसे मैं लगाम खींचता गया वैसे-वैसे वह और तेज होता गया और यह मुझे आपके आश्रम में ले आया। गाहा :
एवं च जाव साहइ सो सुरहो कुलवइस्स वुत्तंतं ।
तुरयमणुमग्ग-लग्गं ताव य सिन्नपि से पत्तं ।। ५२।। संस्कृत छाया :
एवञ्च यावत् कथयति, स सुरथः कुलपतेर्वृत्तान्तम् ।
तुरगमनुमार्गलग्नं तावच्च सैन्यमपि तस्य प्राप्तम् ।।५२।।। गुजराती अनुवाद :
___आ प्रमाणे ज्यां ते सुरथ, कुलपतिने वृत्तांत जणावे छे तेटलीवारमा तो अश्वनी पाछळ लागेलु सैन्य पण त्यां आवी गद्यु। हिन्दी अनुवाद :
___ इस प्रकार जब तक सुरथ कुलपति को वृत्तान्त बताता है उतनी देर में उसके .. पीछे लगे सैनिक भी वहाँ आ पहुँचे। गाहा :
अह भणियं सुरहेणं भयवं! वच्चामि नियय-ठाणम्मि । जं किंचि मए इण्हिं कायव्वं तं च आइससु ।। ५३।।
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संस्कृत छाया :
अथ भणितं सुरथेन भगवन् ! व्रजामि निजस्थाने ।
यत्किञ्चिन्मयेदानी कर्तव्यं तच्चादिशत ।।५३।। गुजराती अनुवाद :___त्यारपछी सुरथे कहयुं 'हे भगवन्! मारा स्थानमां जउं छु हवे जे कंई पण मारे हालमा करवानुं होय तेनी आज्ञा फरमावो. हिन्दी अनुवाद :___तब सुरथ ने कहा हे भगवन्! मैं अपने स्थान पर जा रहा हूँ। इसलिए जो कुछ भी मुझसे करवाना हो, उसकी आज्ञा दें। गाहा :
अह कुलवइणा भणियं गुरु-जण-पूयाइ-धम्म-करणम्मि ।
जह-सत्तीइ पयट्टस सरणागय-वच्छलत्ते य ।। ५४।। संस्कृत छाया :
अथ कुलपतिना भणितं गुरुजनपूजादिधर्मकरणे ।
यथाशक्त्या प्रवर्तस्व शरणागतवत्सलत्वे च ।।५४।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे कुलपतिस कहयुं- 'गुरुजननी पूजा विगेरे धर्मकार्यमां तथा शरणागतने विषे वात्सल्य राखवा माटे यथाशक्ति प्रयत्न करवो. हिन्दी अनुवाद :
तब कुलपति ने कहा, गुरुजनों की पूजा आदि धर्मकार्य में तथा जो शरणागत हुआ हो उसके प्रति वात्सल्य रखने का यथाशक्ति प्रयास करो। गाहा :. अन्नं च भद्द! निसुणसु एसा रन्नो य अमरकेउस्स ।
देवी गय-अवहरिया अच्छई कमलावई नाम ।।५५।। संस्कृत छाया :
अन्यच्च भद्र ! निशृणु एषा राजश्चाऽमरकेतोः । देवी गजापहृताऽऽस्ते कमलावती नाम्नी ।।५५।।
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गुजराती अनुवाद :
__ अने वळी हे द्र! सांभळ हाथीवड़े अपहरण करायेली अमरकेतु राजानी कमलावती नामनी आ देवी छे-टाणी छे. हिन्दी अनुवाद :
और हे भद्र सुनो! हाथी द्वारा अपहरण की गयी अमरकेतु राजा की यह कमलावती रानी है। गाहा :
दूरे हथिणनयरं सावय-पउरा य दुग्गमा अडवी । हल-किट्ठ-महीए तहा वियरंति न तावस-कुमारा ।। ५६।। संस्कृत छाया :
दूरे हस्तिन(ना)नगरं श्वापदप्रचुरा च दुर्गमाऽटवी । हलकृष्टमां तथा विचरन्ति न तापसकुमाराः ।।५६।। गुजराती अनुवाद :
हस्तिनापुर नगर दूर छे, जंगलीप्राणीओथी प्रचुर तथा दुःखपूर्वक जइ शकाय तेवी अटवी छे. अने हळथी खेडेळी जमीन पर तापस कुमारो विचरण करी शकता नथी। हिन्दी अनुवाद :
__ हस्तिनापुर नगर यहाँ से दूर है जिसमें अनेक जंगली जानवर हैं तथा जिसमें बड़ी कठिनाई से जाया जा सकता है, ऐसा जंगल है। हल से खोदे गए जमीन पर तापस कुमार विचरण कर सकते नहीं। गाहा :
तेण न एसा सक्कइ पराणिउं निय-पुरम्मि अम्हेहिं ।
न य कोवि तहा-रूवो अन्नो इह आगओ सत्थो ।।५७।। संस्कृत छाया :
तेन नैषा शक्यते पराणेतुं निजपुरेऽस्माभिः ।
न च कोऽपि तथारूपोऽन्य इहागतस्सार्थः ।।५७।। गुजराती अनुवाद :
तेथी अमारावड़े तेणी ने पोताना नगरमां पहोचाडवानुं काम शक्य नथी, वली तेवा प्रकारनो बीजो कोई सारो सार्थ पण अहीं आव्यो नथी।
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हिन्दी अनुवाद :
अत: मेरे द्वारा इन्हें अपने नगर में पहुँचाना सम्भव नहीं है। उस प्रकार का दूसरा कोई सार्थ भी यहाँ नहीं आया है। गाहा :
एसा सुकुमाल-तणू अच्छइ किच्छेण इत्थ वण-वासे ।
ता जइ तुमं पराणसि स-ट्ठाणं होइ ता लढें ।।५८।। संस्कृत छाया :
एषा सुकुमारतनुरास्ते, कृच्छ्रेणात्र वनवासे ।
तस्माद् यदि त्वं पराणयसि, स्वस्थानं भवति तदा लष्टम् ।।५८।। गुजराती अनुवाद :____ आ सुकोमल शरीरवाळी कष्टपूर्वक वनमा रही छे. तेथी जो तुं तेना स्थाने पहोचाडे तो सुंदर थाय । हिन्दी अनुवाद :____ यह सुकोमल शरीरवाली रानी बड़े कष्ट से बन में रह रही है। इसलिए यदि तुम इन्हें अपने स्थान पर पहुँचा दो तो बहुत अच्छा होगा। गाहा :___ अह सुरहेणं भणियं भयवं! जं भणह तं करेमित्ति । __ गंतुं सयमेव अहं अप्पिस्सं अमरकेउस्स ।।५९।। संस्कृत छाया :
अथ सुरथेण भणितं भगवन् ! यद् भणत तत् करोमीति । गत्वा स्वयमेवाहमर्पिष्याम्यमरकेतवे ।।५९।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे सुरथे कहो-'हे भगवन्! आप जे आज्ञा को ते करीश. हुं त्यां जईने जाते ज अमरकेतु राजा ने समर्पित करीश। हिन्दी अनुवाद :
तब सुरथ ने कहा, 'हे भगवन्! आप जैसी आज्ञा देंगे वैसा करूँगा। वहाँ जाते ही अमरकेतु राजा को इन्हें समर्पित कर दूंगा।
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गाहा :
भणिया हं कुलवइणा वच्छे! सुरहस्स भासियं निसुयं? ।
ता वच्चसु सह इमिणा अन्नो पुण दुल्लहो सत्थो ।।६।। संस्कृत छाया :
भणिताऽहं कुलपतिना वत्से ! सुरथस्य भाषितं निश्श्रुतम् ? । तदा व्रज सहाऽनेन, अन्यः पुन-दुर्लभः सार्थः ।।६०।। गुजराती अनुवाद :
कुलपतिस मने कह्यु, हे वत्से! सुरथनु कहेलु सांथलयु? तेथी आ सुरथ साथे जा, वळी बीजो सार्थ मळवो दुर्लभ छे. हिन्दी अनुवाद :
कुलपति ने मुझसे कहा, 'हे वत्स! तुमने सुरथ का कहा हुआ सुना? इसलिए इस सुरथ के साथ जाओ, वैसे भी दूसरा सार्थ मिलना दुर्लभ है।' गाहा :
अह चिंतियं मए किं इमेण सह होइ गमणमम्हाणं ।
जुग्गं अहवा जाणइ भयवं चिय एत्थ जं उचियं ।।६१।। संस्कृत छाया :
अथ चिन्तितं मया किमनेन सह भवति गमनमस्माकम् ।
योग्यमथवा जानाति, भगवान् एवात्र यदुचितम् ।।६१।। गुजराती अनुवाद :___ त्यारे मारा वड़े विचारायु- शुं आनी साथे जq ते मारे योग्य छे, खरोखर तो भगवान कुलपति ज उचित ने जाणे छे... हिन्दी अनुवाद :
तब मैंने विचार किया क्या इनके साथ मेरा जाना उचित होगा? वैसे भगवान् कुलपति ही जो उचित है, जानते हैं। गाहा :इय चिंतिऊण भणियं भयवं! जं भणसि तं करेमित्ति । जइ एवं ता वच्छे ! पयट्ट इइ तेण भणिया हं ।।६२।।
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संस्कृत छाया :
इति चिन्तयित्वा भणितं, भगवन् ! यद् भणसि तत्करोमीति । यद्येवं तर्हि वत्से ! प्रवर्तस्व इति तेन भणिताऽहम् ।। ६२ ।। गुजराती अनुवाद :
म विचारीने में कहयुं - हे भगवन्! जे आप कहो ते करीश ? जो आ प्रमाणे छे तो हे वत्से ! प्रयाण कर...ए प्रमाणे ते कुलपतिए मने कह्युं. हिन्दी अनुवाद :
ऐसा विचार कर मैंने कहा, हे भगवन्! जैसा आप कहेंगे वैसा करूंगी। तब कुलपति ने मुझसे कहा कि प्रयाण करो।
गाहा :
बहु मन्निय तव्वयणं ताहे चलिया नरिंद! तेण समं । तक्कालुचियं काउं तावसि - संभासणाईयं ।। ६३ ।।
संस्कृत छाया :
बहुमत्वा तद्वचनं तदा चलिता नरेन्द्र ! तेन समम् । तत्कालोचितं कृत्वा, तापसीसम्भाषणादिकम् ।। ६३ ।।
गुजराती अनुवाद :
त्यारपछी कुलपतिना वचनने मान्य करी हे राजन् ! ते समयने उचित तापसी साथै वात करीने हुं सुरथ साथे चाली.
हिन्दी अनुवाद :
तब हे राजन्! कुलपति की बात को उचित मानते हुए तापसी से बात कर सुरथ के साथ चल पड़ी।
गाहा :
जाव य कंमेण पत्ता एत्थ पएसम्मि ताव सुरहो सो । किंपि मिसं काऊणं थक्को एत्थेव रण्णम्मि ।। ६४ ।।
संस्कृत छाया :
यावच्च क्रमेण प्राप्तात्र प्रदेशे तावत्सुरथः सः ।
किमपि मिषं कृत्वा स्थितोऽत्रैवारण्ये ।। ६४ ।।
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गुजराती अनुवाद :___अनुक्रमे ते सुरथ ज्यारे आ प्रदेशमां आव्यो त्यारे कंडक बहानुं काढीने आ ज अरण्यमां ते रही गयो. हिन्दी अनुवाद :
क्रम से जब वह सुरथ इस प्रदेश में आया, कोई बहाना बनाकर इस जंगल में रुक गया। गाहा :
आवासिऊण सिन्नं दिणे दिणे एइ मह समीवम्मि । दंसेइ य बहु-माणं, अह अन्न-दिणम्मि एगते ।।६५।। संस्कृत छाया :
आवास्य सैन्यं दिने दिने एति मम समीपे । दर्शयति च बहुमानं, अथान्यदिने एकान्ते ।।६५।। गुजराती अनुवाद :
त्यां सैन्यनो पडाव नांखी दररोज मारी पासे आववा लाग्यो. अने मारा प्रति बहुमान दर्शाववा लाग्यो. हिन्दी अनुवाद :
वहाँ जंगल में सैनिकों का पड़ाव डालकर रोज मेरे पास आने लगा और मेरे प्रति सम्मान जताने लगा। गाहा :
धित्तुं आहरणाई मह पासे आगओ भणइ एवं ।
एयाइं गिण्ह सुंदरि! न सोहसे तं निराभरणा ।।६६।। संस्कृत छाया :
गृहीत्वाऽऽ भरणानि मम पार्थे आगतो भणत्येवम् ।
एतानि गृहाण सुन्दरि ! न शोभसे त्वं निराभरणा ।।१६।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :
हवे एक दिवस एकांतमां आभूषणो लइने मारी पासे आवीने कहेवा लाग्यो, हे सुंदरी! आ आभूषणो ग्रहण कर-आभूषण वगरनी तुं शोभती नथी!
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हिन्दी अनुवाद :
एक दिन एकान्त में आभूषण ले मेरे पास आकर कहने लगा। हे सुन्दरी! यह आभूषण ग्रहण करो, आभूषण के बिना तुम अच्छी नहीं लगती। गाहा :
तं देव-दिन-कुंडल-पमुहं सव्वंपि नियय-आभरणं ।
परियाणिऊण विम्हिय-हियाए मए इमं भणिओ ।।६७।। संस्कृत छाया :
तद् देवदत्तकुण्डलप्रमुखं सर्वमपि निजकाभरणम् ।
परिज्ञाय विस्मितहृदयया मयेदं भणितः ।।६७।। गुजराती अनुवाद :
- देवतास आपेल कुंडल वि. सर्वे मारा अलंकार जोइने आश्चर्यपूर्वक में तेने कह्युहिन्दी अनुवाद :
देवता द्वारा मुझे दिए गए कुंडल वगैरह समस्त आभूषण देखकर आश्चर्य पूर्वक मैंने उससे कहा। गाहा :
एयाई कुओ तुमए पत्ताई सुरह! मज्झ साहेसु । सो भणइ सुणसु सुंदरि! पुव्वं मह भिल्ल-पुरिसेहिं ।।६८।। इह अडवीइ समिद्धो कुसग्गपुर-पत्थिओ वणिय-सत्यो।
गहिओ तहिं च पत्तं एयं तुह जोग्गमाभरणं ।।६९।। संस्कृत छाया :
एतानि कुतस्त्वया प्राप्तानि सुरथ ! मह्यं कथय । स भणति शृणु सुन्दरि ! पूर्व मम भिल्लपुरुषैः ।।६८।। इहाटव्यां समृद्धः कुशाप्रपुर-प्रस्थितो वणिक्सार्थः ।
गृहीतस्तदा च प्राप्तमेतत्तव योग्यमाभरणम् ।।६९।। युग्मम्।। गुजराती अनुवाद :
हे सुरथ! आ अलंकारो तने क्याथी मळ्या ते मने कहे त्यारे तेणे कहूं.'हे सुंदरी! सांधळ, पूर्वे मारा भिल्ल पुरुषो वडे
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आ अटवीमां कुशायपुर तरफ जतो समृद्धिवाळो एक वणिक सार्थ लुटायो हतो. ते बखते तारे योग्य आ सर्व आभूषणो प्राप्त थया. हिन्दी अनुवाद :
हे सुरथ! ये आभूषण तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुए, मुझे बताओ। तब उसने कहा, 'हे सुन्दरी! सुनो! पहले मेरे भिल्ल पुरुषों द्वारा इस जंगल में कुशाग्रनगर की तरफ जाते हुए समृद्धशाली एक सार्थ लूटा गया था। उस समय तुम्हारे योग्य ये सभी आभूषण प्राप्त हुए थे। गाहा :
तत्तो य मए भणियं महं संतियमेवमाभरणमेयं । सिरिदत्त-नामगस्स ओ वणियस्स समप्पियं आसि ।।७।। हरिसिय-मुहेण भणियं जइ एवं तरिहि सुंदरतरंति ।
ता गेण्ह इमं सुंदरि! इमस्स जोग्गा तुमं, नन्ना ।।७१।। संस्कृत छाया :
ततश्च मया भणितं ममसत्कमेवाभरणमेतद् । श्रीदत्तनामकाय ओ ! वणिजाय समर्पितमासीत् ।।७०।।
हर्षितमुखेन भणितं यद्येवं तर्हि सुन्दरतरमिति । - तावद् गृहाणेदं सुन्दरि ! अस्य योग्या त्वं, नान्या ।।७१।। गुजराती अनुवाद :- . ___ त्यारे मे कह्यु :आ सर्व अलंकार मारा जछे जे श्रीदत्त नामना वणिकने आंप्या हता.
हर्षित मुखे तेणे कर्खा- 'जो सम होय तो बहु सारु. हे सुंदरी! तो आ अलंकाराने ग्रहण कर. तुंज आने योग्य छे. बीजी कोइ स्त्री नहि. हिन्दी अनुवाद :
तब मैंने कहा कि यह सारा आभूषण मेरा है जिसे श्रीदत्त नामक वणिक को मैनें दिया था। हर्षित मुखवाला उसने कहा, 'यदि ऐसा है तो बहुत अच्छा। हे सुन्दरी! यह आभूषण तुम रखो क्योंकि तुम इसके योग्य हो, दूसरी कोई स्त्री नहीं। गाहा :
अह तस्स दुट्ठ-भावं अन्नाऊणं तयं मए गहियं । तत्तो य पइदिणं सो उवयरइ ममं असुह-भावो ।।७२।।
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संस्कृत छाया :
अथ तस्य दुष्टभावमज्ञात्वा तन्मया गृहीतम् । ततश्च प्रतिदिनं स उपचरति मामशुभभावः ।।७२।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे तेना दुष्टयावने नहि जाणीने में अलंकारादि ग्रहण कर्या. त्यारबाद अशुभभाववालो ते हमेशा मारु सन्मान करवा लाग्यो. हिन्दी अनुवाद :
उसके बुरे विचारों को न जानती हुई मैंने वह आभूषण ग्रहण कर लिया। उसके बाद अशुभ विचारोंवाला वह हमेशा मेरा सम्मान करने लगा। गाहा :
आगच्छइ एगंते परिहास-कहाओ कहइ मह पुरओ।
सवियारं च पलोयइ दसइ अणुरत्तमप्याणं ।।७३।। संस्कृत छाया :
आगच्छत्येकान्ते परिहासकथाः कथयति मम पुरतः ।
सविकारं च प्रलोकयति, दर्शयत्यनुरक्तमात्मानम् ।।७३।। गुजराती अनुवाद :
मारी पासे एकांतमा आवीने विनोद कथाओ करवा लाग्यो. विकारपूर्वक मारी सामे जुवे छे अने पोतानो अनुराग बतावे छे. हिन्दी अनुवाद :
मेरे पास एकान्त में आकर विनोद कथा आदि करने लगा। बुरी नजर से मुझे देखता था और अपना प्रेम प्रकट करता था। गाहा :
अह अन्न-दिणे पिययम! पावेणं तेण मयण-मूढेण । अगणिय कुल-मज्जायं उज्झिय लज्ज सुदूरेण ।।७४।। बहु मन्निय अविवेयं भणिया एगंत-संठिया एवं ।
वम्मह-पीडिय-देहो सरणं तुह सुयणु! अल्लीणो ।।७५।। संस्कृत छाया :
अथान्यदिने प्रियतम ! पापेन तेन मदनमूढेन । अगणयित्वा कुलमर्यादामुज्झित्वा लज्जा सुदूरेण ।।७४।।
७४।।
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बहुमत्वाऽविवेकं भणिता एकान्तसंस्थिता एवम् ।।
मन्मथपीडितदेहः शरणं तव सुतनो ! आलीनः ।।७५।। गुजराती अनुवाद :
सुरथनो दुराचार हे प्रियतम! हवे कोई दिवसे कामथी मूढ स्वा ते पापीस कुलमर्यादाने अवगणीने लज्जाने दूर मूकीन, अविवेक- आचरण करीने सकांतमा रहेली मने कह्यु- हे सुतनो! विकारथी पीड़ित मने तारुं शरण छे. हिन्दी अनुवाद :
सुरथ का दुराचारहे प्रियतम! एक दिन कामभावना से मूढ़ वह पापी कुलमर्यादा और लाज छोड़कर अविवेक पूर्वक आचरण करते हुए मुझसे कहा, हे देवी! काम विकार से पीड़ित मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। गाहा :
निय-यंग-संगमेणं सहलं मह कुणसु-जीवियं अज्ज ।
तुह आयत्ता पाणा सव्वस्सवि सामिणी तं सि ।।७६।। संस्कृत छाया :निजाङ्गसङ्गमेन सफलं मम कुरु जीवितमद्य ।
तवायत्ताः प्राणाः, सर्वस्याऽपि स्वामिनी त्वमसि ।।७६।। गुजराती अनुवाद :
तारा अंगना संगवडे आजे माझं जीवन सफल कर. मारा प्राण तने आधीन छे. आ सर्व राज्यादिकनी पण तुं स्वामिनी छे. हिन्दी अनुवाद :
अपने अंग से लगाकर आज मेरा जीवन सफल कर दो। मेरा प्राण तेरे वश में है। इस सम्पूर्ण राज्य की तू स्वामिनी हो। गाहा :तुह सुयण! किंकरो हं आणा-कारी य परियणो सव्वो। गाढाणुराग-रत्तं किं बहुणा इच्छसु ममंति ।।७७।।
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संस्कृत छाया :
तव सतनो ! किरोऽहमाज्ञाकारी च परिजनः सर्वः ।
गाढानुरागरक्तं किं बहुना ? इच्छ मामिति ।।७७।। गुजराती अनुवाद :
हे सुतनो! हुं तारो किंकर छु, सर्व परिजन पण तारी आज्ञाने पाळनार छे. हवे बहु कहेवा वडे शृं? गाढ अनुरागी स्वा मारी इच्छा पूर्ण कर! हिन्दी अनुवाद :
हे देवी! मैं तुम्हारा सेवक हूँ। सभी लोग तुम्हारी आज्ञा का पालन करने वाले हैं। अब अधिक क्या कहना! प्रगाढ़ प्रेमी की तरह मेरी इच्छा पूर्ण करो। गाहा :तव्वयणं सोऊणं सहसा वज्जेण ताडियाव अहं ।
उप्पन्न-गरुय-दुक्खा पिययम! चिंताउरा जाया ।।७८।। संस्कृत छाया :
तद्वचनं श्रुत्वा सहसा वज्रेण ताडितेवाऽहम् ।
उत्पन्नगुरुदुःखा प्रियतम ! चिन्तातुरा जाता ।।७८।। युग्मम्।। गुजराती अनुवाद :
तेना ते वचन सांभलीने हे! प्रियतम्! अकळमात् वज्र थी हणायेलानी जेम हुँ अतिशय दुःखवाळी चिंतातुर बनी। हिन्दी अनुवाद :
उसका वह वचन सुनकर हे प्रियतम! वज्र से घायल जैसे अतिशय दुःखवाली मैं चिन्तित हो गयी। गाहा :
हा! पाविट्ठो एसो बलावि सील-खंडणं काही।
सरण-विहूणाइ ममं, ता इण्डिं किं करेमित्ति? ।।७९।। संस्कृत छाया :
हा ! पापिष्ठ एष बलादपि शीलखण्डनं करिष्यति । शरणविहीनाया मैम, तस्मादिदानी किं करोमीति ? ।।७९।।
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गुजराती अनुवाद :
___ अरे! आ पापिष्ठ! बळात्कारे मारुं शीलखंडन करशे तो शरण रहित . हवे हुं शुं करूं? हिन्दी अनुवाद :
अरे! यह पापी बलपूर्वक यदि मेरा शील भंग करेगा तो शरणरहित मैं क्या करूंगी। गाहा :निम्मत्थामि गिराहिं संपइ अइनिहराहिं जइ एयं ।
ता एस अमज्जाओ इण्हिपि विरूवयं कुज्जा ।।८।। संस्कृत छाया :
निर्भर्त्सयामि गिराभिः सम्प्रत्यतिनिष्ठुराभिर्यचेतम् । तयेषोऽमर्याद इदानीमपि विरूपकं कुर्यात् ।।८।। गुजराती अनुवाद :___ जो अति निष्ठुर वाणी वडे सनो तिरस्कार कटीश तो निर्लज्ज स्वो ते वधु खराब करशे! हिन्दी अनुवाद :
यदि कड़े शब्दों में इसका तिरस्कार करती हूं तो यह निर्लज्ज मेरे साथ बहुत बुरा करेगा। गाहा :
ता संपइ मूयत्तं जुत्तं अवलंबिउं तओ पच्छा।
पत्थावं लहिऊणं नासिस्समिमाओ पावाओ ।।८।। संस्कृत छाया :तस्मात् सम्प्रति मूकत्वं युक्तमवलम्बितुं ततः पश्चात् ।
प्रस्तावं लब्ध्वा नक्ष्याम्यस्मात् पापात् ।।८१।। गुजराती अनुवाद :
तेथी हालमां मौननो आश्रय लेवो योग्य छे. पछी अवसर प्राप्त कटीने ते पापी पासे थी नासी जइश.
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हिन्दी अनुवाद :
इसलिए इस स्थिति में मौन रहना ही उचित है बाद में अवसर पाकर उस पापी से दूर हो जाऊँगी। गाहा :
इय चिंतिय तुहिक्का अहो मुहं काउं तत्थ थक्का हं।
सोवि य दवण ममं निरुत्तरं उढिओ तत्तो ।।८२।। संस्कृत छाया :
इति चिन्तयित्वा तूष्णीकाऽधोमुखं कृत्वा तत्रस्थिताऽहम् । सोऽपि च छट्वा मां निरुतरामुत्थितस्ततः ।।०२।। गुजराती अनुवाद :
सम विचाटीने मुंगी स्वी हुं नीचुं मुख कटीने त्यां रही ते पण मने निरुत्तर जोईने उठी गयो! हिन्दी अनुवाद :
ऐसा विचार कर गूंगी की तरह नीचे मुखकर पड़ी रही। वह भी मुझे निरुत्तर जान उठकर चला गया। गाहा :
पत्ताए रयणीए निब्भर-सुत्ते य सयल-सिन्नम्मि । गहिऊण तमाभरणं पासाइं पलोयणमाणा ।। ८३।। निहुय-गईए चलिया भएण कंपंत-तणु-लया गाढं । वंचिय पाहरिए हं नीहरिया ताओ सिन्नाओ ।।८४।। चित्तूण य एग-दिसं चलिया घण-तरु-वणस्स मज्झेणं । निसुणंती बहु-सावय-भीसण-सद्दे बहु-विही (ह?)ए ।।८५।। संस्कृत छाया :प्राप्तायां रजन्यां निर्भरसुप्ते च सकलसैन्ये । गृहीत्वा तदाभरणं पाणि प्रलोकमाना ।।८३।। निभृतगत्या चलिता भयेन कम्पमानतनुलता गाढम् । वञ्चयित्वा प्राहरिकानहं निःसृता तस्मात् सैन्यात् ।।८४।।
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गृहीत्वा चैकदिशं चलिता घनतरुवनस्य मध्येन । निशृण्वती बहुधापदभीषणशब्दान् बहुविधान् ।।८५।। त्रिभिः कुलकम्।। गुजराती अनुवाद :
कमलावतीनुं निर्गमन रात्री थये छते सकलसैन्य निद्रावश थयुं त्यारे ते आमरणोने लईने आजु-बाजु जोती. अयथी एकदम कंपती शरीरवाळी चोकीदारोने ठगी ने धीमा पगले चालती ते सैन्यनी बहार नीकळी गई. अने एक दिशानं लक्ष्य कटीने गाढ वृक्षोथी व्याप्त स्वा जंगलनी वच्चे घणा जंगली प्राणीओना अनेक प्रकार ना भयंकर शब्दोने सांभळती हुं चाली. विधिः कुलकम्। हिन्दी अनुवाद :
कमलावती का निर्गमनरात्रि होने पर जब सभी सैनिक सो गए तब अपने आभूषण लेकर इधरउधर देखती, डर से एकदम कांपते शरीरवाली, चौकीदारों को पता न चले इसलिए धीरे-धीरे चलती उस सैनिक पड़ाव से बाहर आ गयी।
घने वृक्षों से व्याप्त ऐसा जंगल जिसमें जंगली प्राणी अनेक प्रकार की आवाजें कर रहे थे, को सुनती उसके बीच से चली। गाहा :पवणाकंपिय-पायव-चलंत पत्ताण सणसणारावं । सीहोरालि-समाणं मन्नती वेविर-सरीरा ।।८६।। वेगेण य गच्छंती घणंधयाराए तीइ रयणीए । दीहर-घण-तण-ओच्छाइयाए विसमाए भूमीए ।।८७।। अवियाणिय-परमत्था झडत्ति पडिया य एत्थ कृवम्मि । पिययम! कय-बहु-पावा जीवा इव घोर-नरयम्मि ।।८८।। संस्कृत छाया :
पवनाकम्पितपादपचलत्पत्राणां सणसणारावम् । सिंहौरालीसमानं मन्यमाना वेपमानशरीरा ।।८६।। वेगेन च गच्छन्ती धनान्यकारायां तस्यां रजन्याम् । दीर्घघनतृणावच्छादितायां विषमायां भूमौ ।।८७।। अविज्ञातपरमार्था झटिति पतिता चात्र कूपे । प्रियतम ! कृतबहुपापा जीवा इव घोरनरके ।।८८।।
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गुजराती अनुवाद :
पवनथी कंपता वृक्षोना पांदडाओना सणसणाट अवाजने सिंहना गंभीर ध्वनि समान मानती, धूजता शरीरवाळी, गाढ अंधकारथी व्याप्त ते रात्रिमा ऊंचा-ऊँचा घांस वडे आच्छादित विषम भूमिमां वेग वड़े जता, हे प्रियतम! बहु पापी जीवो घोर नरकमां पड़े छे. तेम हुं पण अजाणतां आ कूवामां एकदम पड़ी गई. ।। विधिः विशेषकम्।। हिन्दी अनुवाद :
हवा से कांपते वृक्षों की पत्तियों की सरसराहट मझे सिंह की गर्जना जैसी लग रही थी, डरी और कांपती शरीरवाली, घने अंधकार वाली रात में ऊँचे-ऊँचे घासों से आच्छादित भूमि पर चलती हुई हे प्रियतम्! मैं उसी प्रकार इस कुएं में अचानक गिर पड़ी जैसे अधिक पाप करने वाले पापी घोर नरक में गिर पड़ते हैं। गाहा :
भवियव्यया-वसेणं न मया गंभीर-जल निबुड्डावि ।
अगडस्स तडिं पाविय तत्थ निलुक्का अहं राय! ।।८९।। संस्कृत छाया :
भवितव्यतावशेन न मृता, गम्भीरजलनिमग्नाऽपि ।
अवटस्य तटीं प्राप्य तत्र निलीनाऽहं राजन् ।।८९।। गुजराती अनुवाद :
उंडा पाणीमां पडवा छतां भवितव्यताना योगे हु मटी नहि अने कूवाना तटने पकड़ी हे राजन्! त्यां हुं छुपाई गई. हिन्दी अनुवाद :
गहरे पानी में गिरने पर भी भाग्य के योग से मैं मरी नहीं और कुँए के किनारे को पकड़कर हे राजन्! वहाँ छुप गयी। गाहा :
मरणे उठिएवि हु सीलं संरक्खियंति तुट्ठ-मणा।
अप्पाणं स-कयत्यं मन्नता सुरह-भय-मुक्का ।।९।। संस्कृत छाया :
मरणे उपस्थितेऽपि खल, शीलं संरक्षितमिति तुष्टमनाः ।। आत्मानं स्वकृतार्थ मन्यमाना सुरथभयमुक्ता ।।१०।।
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गुजराती अनुवाद :
मरण समान कष्ट आव्युं छतां पण शीलनी रक्षा थइ तेथी मने खूब संतोष थयो अने पोतानी जातने कृतार्थ मानती सुरथना भयथी मुक्त बनी ! हिन्दी अनुवाद :
मृत्यु के समान कष्ट आने पर भी शील की रक्षा कर सकी, इससे मुझे अधिक संतोष हुआ और अपने को धन्य मानती सुरथ के भय से मुक्त हो गयी।
गाहा :
गाढं छुहाभिभूया चत्तारि दिणाणि एत्थ कुवम्मि । परिचत्त-जीवियासा ठिया अहं सरण-परिहीणा । । ९१ ।।
संस्कृत छाया :
गाढं क्षुधाभिभूता चत्वारि दिनान्यत्र कूपे ।
परित्यक्तजीविताशा, स्थिताऽहं शरणपरिहीणा ।।९१ । ।
गुजराती अनुवाद :
क्षुधाथी अत्यंत पीडायेली, जीवितनी आशाथी रहित, शरण विनानी हूं चार दिवस आ कुवामां रही ।
हिन्दी अनुवाद :
भूख से अतिव्याकुल, जीवित रहने की आशा से रहित, बिना किसी शरण के चार दिन उस कुएं में रही ।
गाहा :
अज्ज पुण कलयलेणं सिबिरं आवासियंति नाऊण । सुरहासंकाए पुणो समाउला नाह! संजाया । । ९२ । । संस्कृत छाया :
अद्य पुनः कलकलेन शिबिरमावासितमिति ज्ञात्वा । सुरथाशङ्कया पुनः समाकुला नाथ ! सञ्जाता ।। ९२ ।।
गुजराती अनुवाद :
वळी आजे कोलाहल वड़े कोई छावणीनो पडाव छे, एम जाणी सुरथनी शंका वडे हे नाथ! हुं फरी आकुल-व्याकुल थई !
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हिन्दी अनुवाद :
किन्तु किसी बड़ी छावनी का पड़ाव है, जिसके कारण अधिक शोरगुल हो रहा है, ऐसा सोचकर सुरथ के आस-पास होने की आशंका के कारण मैं पुनः व्याकुल हो गयी। गाहा :
तत्तो कूव-पविटुं तुम्ह नरं पासिऊण सुट्ठयरं ।
भीयाइ पुच्छियाइवि न उत्तरं किंचि मे दिन्नं ।।१३।। संस्कृत छाया :
ततः कूपप्रविष्टं तव नरं दृष्ट्वा सुष्टुतरम् । । ।
भीतया पृष्टयाऽपि नोत्तरं किञ्चिद् मया दत्तम् ।।१३।। गुजराती अनुवाद :
त्यारबाद कूवामां उतरेला तमारा माणसने जोइ हुं अत्यंत भयभीत थई- मने तेणे पूछयुं पण में कोई जवाब न आप्यो. हिन्दी अनुवाद :
उसके बाद कएं में उतरे आपके आदमियों को देखकर मैं अत्यन्त भयभीत हो गयी। उन लोगों ने मुझसे पूछा भी पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया। गाहा :
पुणरवि य तुम्ह नामं सोऊणं विगय-अन्न-आसंका ।
हरिस-भर-निम्मरंगी उत्तरिया देव! कूवाओ ।।१४।। संस्कृत छाया :
पुनरपि च तव नाम श्रुत्वा विगतान्याऽऽशङ्का । हर्षभरनिर्भराङ्गी उत्तीर्णा देव ! कूपात् ।।९४।। गुजराती अनुवाद :
फरी आपनुं नाम सांभळी मारी बीजी सुरथसंबंधी शंकाओ दूर थई गई. हर्षथी छलकायेली हुं कूवामाथी बहार नीकळी. हिन्दी अनुवाद :
फिर आपका नाम सुनकर सुरथ सम्बन्धी दूसरी सभी आशंकाएँ दूर हो गयीं। खुशी से छलकती हुई मैं कुएं से बाहर आई।
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गाहा :
एयं मएऽणुभूयं सरण-विहूणाए तुम्ह विरहम्मि । निसुएण जेण जायइ दुक्खं पास-ट्ठियाणंपि ।।९५।। संस्कृत छाया :
एतन्मयानुभूतं शरणविहीनया तव विरहे । निश्रुतेन येन जायते दुःखं पार्थस्थितानामपि ।।९५।। गुजराती अनुवाद :
___ आ प्रमाणे शरण रहित में आपना विरहमा आवु अत्यंत दुःख अनुभव्यु. जे दुःखने सांधळीने पासे रहेलाओने पण दुःख पेदा कटे तेवं छे. हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार शरण रहित मैंने आपके वियोग में ऐसे द:खों का अनुभव किया. यह दुःख जिसे सुनकर पास रहा हुआ दूसरा भी दुःखी हो जाय, ऐसा है। गाहा :
इय कमलावइ-भणियं आयनिय अमरकेउ-नरनाहो।
बाह-जलाविल-नयणो गुरु-सोगो भणिउमाढत्तो ।।९६।। संस्कृत छाया :
इति कमलावतीभणितमाकाऽमरकेतुनरनाथः ।
बाष्पजलाविलनयनो गुरुशोको भणितुमारब्धः ।।९६।। गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे कमलावती, कहेलुं सांभळीने अमरकेतु राजा अत्यंत शोकवाळा थया अने अश्रुथी सजल नेत्रवाळां कहेवा लाग्या. हिन्दी अनुवाद :
___ कमलावती का कहा हुआ यह वृत्तान्त सुनकर अमरकेतु राजा अत्यन्त दु:खी हो गये और आंसुओं से भरी आँखों के साथ कहने लगे। गाहा :किं देव! इत्थ कीरइ स-कम्म-वसयाण नवरि जीवाण । जायंति दूसहाई दुक्खाइं एत्थ संसारे ।।९७।।
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संस्कृत छाया :
किं दैव ! अत्र क्रियते स्वकर्मवशगानां नवरं जीवानाम् ।
जायन्ते दुःसहानि दुःखान्यत्र संसारे ।। ९७ ।।
गुजराती अनुवाद :
अमरकेतु राजा वड़े आश्वासन
कर्मवश जीवोने आ संसारमां दुःसह दुःखो सहन करवा पडे छे. तो हे देव! तेमां शुं करी शकाय ?
हिन्दी अनुवाद :
अमरकेतु राजा द्वारा आश्वासन
हे देवी! कर्म के कारण जीवों को इस संसार में दुसह दुःखों को सहन करना पड़ता है, इसमें क्या किया जा सकता है ?
गाहा :
स- कयं सुहमसुहं वा इक्को अणुहवइ विविह- जोणीसु । माया पिया य भत्ता बंधु-जणो वावि न हु सरणं । । ९८ ।।
संस्कृत छाया :
स्वकृतं शुभमशुभं वा एकोऽनुभवति विविधयोनिषु ।
माता पिता च भर्ता बन्धुजनो वापि न खलु शरणम् । । ९८ । ।
गुजराती अनुवाद :
वळी पोते एकलो ज अनेक प्रकारनी योनिओमां शुभ अथवा अशुभ कर्मने भोगवे छे. दुःखना समये माता-पिता- भाई-बंधुजन वि. कोई पण शरण तु नयी.
हिन्दी अनुवाद :
वह अकेले अपने ही अनेक प्रकार की योनियों में शुभ या अशुभ कर्म भोगता है। दुःख के समय माता-पिता, भाई-बन्धु आदि कोई भी शरणदाता नहीं होता।
गाहा :
राग-द्दोस-वसाए असुह- फलं आसि जं कयं कम्मं । तस्स वसाओ सुंदरि ! संपत्ता वसण - रिछोली ।। ९९ ।।
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संस्कृत छाया :
रागद्वेषवशया(त्वया)अशुभफलमासीत् यत्कृतं कर्म । तस्य वशात् सुन्दरि ! सम्प्राप्ता (तव) व्यसनरिज्छोली ।।१९।। गुजराती अनुवाद :
राग-द्वेषने वश थइ जे कंइ अशुभ कर्म करायुं हशे तेना कारणे हे सुंदरी! आवी दुःखनी परंपरा प्राप्त थइ छे. हिन्दी अनुवाद :
राग-द्वेष के वश में आकर जो कोई अशुभ कर्म किए गए उसी के कारण हे सुन्दरी! यह दुःख की परम्परा प्राप्त हुई है। गाहा :
एवं गएवि जं देवि! एत्य कुवम्मि निवडिया एवं ।
संपत्ता तं मन्ने अनण्ण-पुण्णोदओ कोवि ।।१०।। संस्कृत छाया :
एवं गतेऽपि यद् देवि ! अत्र कूपे निपतिता एवम् ।
सम्प्राप्ता तन्मन्येऽनन्यपुण्योदयः कोऽपि ।।१०।। गुजराती अनुवाद :
आवी प्रतिकूळताओ आवी, तुं आ कुवामां पडी, ते छतां आ प्रमाणे ताटो समागम थयो तेथी कोई अपूर्व पुण्योदय छे तेम हुं मानुं छु हिन्दी अनुवाद :
ऐसी प्रतिकूलताएँ आईं, तुम कुएं में गिरी, उसके बाद इस प्रकार तुम्हारा समागम हुआ, यह सब किसी अपूर्व पुण्योदय से हुआ है, ऐसा मैं मानता हूँ। गाहा :
पडिकूड-कारिणावि हु विहिणा विहियं तु एत्तियं लढें ।
जं अक्खय-देहाए तुमए सह संगमो विहिओ ।।१०१।। संस्कृत छाया :प्रतिकूलकारिणाऽपि खलु विधिना विहितं तु एतावल्लष्टम् । यदक्षतदेहया, त्वया सह सङ्गमो विहितः ।।१०१।।
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गुजराती अनुवाद :
प्रतिकूलकारी स्वा भाग्ये आटलुं तो सारु कर्यु के जेथी जीवित स्वी तारी साथे मारो संगम थइ गयो. हिन्दी अनुवाद :
प्रतिकूलकारी भाग्य ने इतना तो अच्छा किया कि जिससे जीवित तुम्हारे साथ मेरा संगम हो गया। गाहा :
एमाइ-बहु-विगप्पं देविं आसासिऊण सो राया। निय-सिन्नेण समेओ समागओ गयपुरं कमसो।।१०२।। संस्कृत छाया :
एवमादिबहुविकल्पं देवीमावास्य स राजा । निजसैन्येन समेतः समागतो गजपुरं क्रमशः ।।१०२।। गुजराती अनुवाद :
इत्यादि बहु वचनो बड़े देवीने आश्वासन आपीने ते राजा पोताना सैन्यनी साथे अनुक्रमे हस्तिनापुर नगरम पहोंची गयो। हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार के वचनों से देवी को आश्वासन देकर राजा अपने सैनिकों सहित हस्तिनापुर नगर पहुँच गया। गाहा :
कारिय-गरुय-पमोओ थुव्वंतो नयर-नारि-निवहेण । कमलावई-समेओ दाणं देंतो अमरकेऊ ।।१०३।। कय-मंगलोवयारो नायर-जण-जणिय-हियय-आणंदो । निय-मंदिरे पविट्ठोपक्कल-पाइक्क-परियरिओ ।।१०४।। युग्मम्।। संस्कृत छाया :
कारितगुरुप्रमोदः स्तूयमानो नगरनारीनिवहेन । कमलावती-समेतो दानं ददन्नमरकेतुः ।।१०३।। कृतमङ्गलोपचारो नागरजनजनितहृदयानन्दः । निजमन्दिरे प्रविष्टः पक्कलपदातिपरिवृतः ।।१०४।। युग्मम्।।
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गुजराती अनुवाद :
नगर जनोस करेला प्रवेश महेत्सवथी खुश थयेला, कराता मंगल उपचाटवाळा, नगरनी नारीओथी स्तुति कराता, तथा नगरजनोने आनंदित कर्या छे. तेवा राजास समर्थ पायदळनी साथे कमलावती राणी साथे दान
आपता पोताना राजमहेलमा प्रवेश कर्यो। ।।युग्मम्।। हिन्दी अनुवाद :
नगरजनों के द्वारा किए गए प्रवेश महोत्सव से खुश हुए, लोग जिसका मंगल उपचार कर रहे थे, नगर की नारियाँ जिसकी स्तुतिगान कर रही थीं, तथा जिसने नगरजनों को आनन्दित कर दिया था, वह राजा अपने पैदल लश्कर सहित कमलावती रानी के साथ लोगों को दान देता हुआ अपने राजमहल में प्रवेश किया। गाहा :
एवं च तस्स रन्नो अदिट्ठ-दुक्खस्स देवि-सहियस्स ।
वोलीणाई कइवि हु वरिसाणं सय-सहस्साई ।।१०५।। संस्कृत छाया :
एवञ्च तस्य राज्ञोऽष्टदुःखस्य देवीसहितस्य ।
व्यतिक्रान्तानि कत्यपि खलु वर्षाणां शत-सहस्राणि ।।१०५।। गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे कमलावती राणी सहित सुखपूर्वक ते राजाना हजारो वर्ष पसार थई गया। हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार कमलावती रानी के साथ सुख पूर्वक रहते हजारों वर्ष बीत गए। गाहा :
अह अन्नया कयाइवि अत्थाण-गयस्स राइणो तस्स ।
पडिहाराणुनाओ समंतभहोत्ति नामेण ।।१०६।। संस्कृत छाया :
अथान्यदा कदाचिदपि आस्थानगतस्य राज्ञस्तस्य । प्रतिहारानुज्ञातः समन्तभद्र इति नाम्ना ।।१०६।।
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गुजराती अनुवाद :
त्यारपछी एक दिवसे अमरकेतु राजा सभामां बेठा हता त्यारे द्वारपालनी आज्ञा वड़े पोताना उद्यानमां नियुक्त करेलो समंतभद्र नामनो सेवक आव्यो.
हिन्दी अनुवाद :
तत्पश्चात् एक दिन जब राजा अमरकेतु राजसभा में बैठा हुआ था तभी द्वारपाल की आज्ञा द्वारा अपने उद्यान में नियुक्त समन्तभद्र नामक सेवक आया।
याहा :
उज्जाणम्मि निउत्तो पत्तो पणमित्तु राय-पय- कमलं ।
सीस- निवेसिय-कर-कमल- संपुडो हरिसिओ भाइ ।। १०७ ।
संस्कृत छाया :
उद्याने नियुक्तः प्राप्तः प्रणम्य राजपदकमलम् । शीर्षनिवेशितकरकमलसम्पुटो हर्षितो भणति । । १०७।। युग्मम्।।
गुजराती अनुवाद :
अने ते राजाना चरण-कमलमां प्रणाम करीने मस्तक पर स्थापन करेला करकमलयुगलवाळो हर्ष पामेलो बोळ्यो.
हिन्दी अनुवाद :
तब उसने राजा के चरणकमलों में प्रणाम कर अपने सिर पर स्थापित कर कमलयुगल के साथ हर्षित होकर कहा
गाहा :
पुव्वं देवेण अहं नेमित्तिय सुमइ-वयणयं सोच्चा ।
कुसुमायर - उज्जाणस्स पालगत्ते निउत्तो म्हि ।। १०८ ।।
संस्कृत छाया :
पूर्वं देवेनाऽहं नैमित्तिकसुमतिवचनं श्रुत्वा । कुसुमाकरोद्यानस्य पालकत्वे नियुक्तोऽस्मि ।। १०८ ।।
गुजराती अनुवाद :
सुमति नैमित्तिकनुं वचन सांभळीने आपे कुसुमाकर उद्यानमा रक्षण मटि पहेलां मने नियुक्त कर्यो हतो ।
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हिन्दी अनुवाद :
सुमति ज्योतिषी की बात मानकर आपने हमारी नियुक्ति पहले कुसुमाकर उद्यान की रक्षा के लिए की थी। गाहा :
तं च ति-संझं निच्चं पलोयमाणस्स एत्तिओ कालो। वोलीणो न य दिटुं किंचिवि नेमित्तियाइ8 ।।१०९।। संस्कृत छाया :
तच्च त्रिसन्थ्यं नित्यं, प्रलोकयत एतावान् कालः ।
गतो न च छटं, किञ्चिदपि नैमित्तिकादिष्टम् ।।१०९।। गुजराती अनुवाद :
त्यां त्रणे काळ हमेशा नजर राखता आटलो काळ पसार थयो पण नैमित्तिके कहेलुं कांइपण जोवामां आव्युं नहि। हिन्दी अनुवाद :
वहाँ तीनों वक्त हमेशा नजर रखते हुए इतने दिन बीत गए किन्तु ज्योतिषी के कहने के अनुसार कुछ भी दिखाई नहीं दिया। गाहा :
अज्ज पुण अप्पभाए गयणे उज्जाण-मज्झयारम्मि । कुसुमिय-साहि-समूहं इओ तओ पिच्छमाणेण ।।११०।। एगम्मि दिसा:भाए वल्लर-वेल्ली-सणाह-दुम-गहणे। उत्तासिय-हंस-उलो उट्ठाविओ सउण संदोहो ।।१११।। निसुओ विम्हय-जणओ बहिरिय-आसन्न-सत्त-सुइ-विवरो।
मुहरिय-दिसा-विभागो गरुय-खडक्कार-संसहो ।।११२।। संस्कृत छाया :
अद्य पुनरप्रभाते गगन उद्यानमध्ये । कुसुमितशाखिसमूहं इतस्ततः प्रेक्षमाणेन ।।११०।। एकस्मिन् दिग्भागे वल्लरवल्लिसनाथद्गुमगहने । उत्रासितहंसकुल उत्थापितः शकुनसन्दोहः ।।१११।।
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निश्नुतो विस्मयजनको, बधिरितासन्नसत्त्वश्रुतिविवरः ।
मुखरित-दिग्विभागो, गुरुकखटत्कारसंशब्दः ।।११२।।तिसृभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद :
परंतु आजे रात्रिना अंते उद्याननी मध्ये विकसित वृक्षोना समूहने आम तेम जोतो हतो तेवामां एक दिशामां बहु वेलडीओधी छवाई गयेल वृक्षनी झाडीमां, जेणे हंसना समूहने बास पमाडयो छे पक्षीओना समूहने उडाडी दीधो छे. नजीकमा रहेला प्राणीओना कानने बहेरा बनावी दीधा छे. दिशाना विधागने जेणे वाचाळ बनावी दीयो छे तेवो मोटो धबकारनो शब्द में साधळयो. विधिः कुलकम, हिन्दी अनुवाद :
किन्तु आज रात्रि के अन्त में उद्यान के मध्य में विकसित वृक्षों के समूह को मैं इधर-उधर देख रहा था तभी एक दिशा में बहुत सी लताओं से आच्छादित हो गए एक वृक्ष की झाड़ी से, जिससे हंसों का समूह भी डर गया हो, जिसने पक्षियों के समूह को उड़ा दिया था तथा जो नजदीक पड़े प्राणियों को बहरा बना दिया था, दिशा के खण्डों को जिसने वाचाल बना दिया था, ऐसी बड़ी ठोस आवाज मैंने सुनी। गाहा :
सोऊण य तं सई विम्हिय-उप्फुल्ल-लोयणेण मए ।
पुलइय तत्तोहुत्तं चिंतियमव्वो! किमेयंति ।।११३।। संस्कृत छाया :
श्रुत्वा च तच्छब्दं विस्मितोत्फुल्ललोचनेन मया ।
दृष्ट्वा तदभिमुखं (तत्तोहुत्त) चिन्तितं अहो ! किमेतदिति ।।११३।। गुजराती अनुवाद :
ते शब्द सांभळीने अरे! आ शुं थयुं? स प्रमाणे विस्मयथी पहोळा थयेला नेत्रवाळा में ते तरफ जोयुं अने विचार्यु. हिन्दी अनुवाद :
- वह आवाज सुनकर अरे! यह क्या हुआ? इस प्रकार विस्मय से विस्फारित नेत्रों वाला मैं उस तरफ देखा और विचार किया।
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गाहा :
कस्स पुण एस सद्दो समुट्ठिओ एत्थ वण-निगुंजम्मि । __ इय चिंतंतो कोऊहलेण तत्तोमुहो चलिओ ।।११४।। संस्कृत छाया :
कस्य पुनरेष शब्दः समुत्थितोऽत्र वननिकुञ्जे । इति चिन्तयन् कुतूहलेन ततोमुखश्चलितः ।।११४।। गुजराती अनुवाद :
अरे! आ वननां निकुंजन्मां आ कोनो अवाज आव्यो! र प्रमाणे विचारता कुतूहलथी हुं ते तरफ चाल्यो. हिन्दी अनुवाद :
अरे! इस बन निकुंज में यह किसकी आवाज आई? यह विचार करता हुआ कुतूहल के साथ उस तरफ चला। गाहा :
ताव य दिट्ठा भू-पट्ठि-संठिया बउल-पायव-समीवे । मुच्छा-निमीलियच्छी अधरिय-सुर-सुंदरी-रूवा ।।११५।। अहिणव-जोव्वण-उन्भेय-सुंदरा सयल-मणहरावयवा । पउम-चुया इव लच्छी नर-वर! वर-बालिया एक्का ।।११६।। संस्कृत छाया:
तावच्च छटा भूपृष्ठसंस्थिता बकुलपादपसमीपे । मूर्छानिमीलिताक्षी अधरितसुरसुन्दरीरूपा ।।११५।।
अभिनवयौवनोद्भेद-सुन्दरा सकलमनोहरावयवा । पद्मच्युतेव लक्ष्मीः नरवर ! वरबालिकैका ।।११६।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :. हे राजा! तेटलामां त्यां बकुल वृक्षनी पासे. भूमि पर पडेली, मूर्छा वड़े मींचाई गयेला नेत्रोवाळी, देवांगनाओना छपने पण तिरस्कार करती.
अधिनव यौवन प्रगट थवाथी सुंदर, मनोहर छे जेना समस्त अवयवो तेवी, कमला उपरथी च्युत थयेली जाणे लक्ष्मी न होय तेवी सुंदर बालिका
जोई।
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हिन्दी अनुवाद :
हे राजा! उतने में वहाँ बकुल वृक्ष के पास मूर्छा की वजह से बन्द आँखों वाली देवांगनाओं के रूप का भी तिरस्कार कर दे, ऐसे रूपवाली, नवयुवती होने से जिसके शरीर के सारे अंग सुन्दर थे, जैसे लक्ष्मी कमल के ऊपर से गिर पड़ी हों, ऐसी सुन्दर लड़की को देखा। गाहा :
नूणं नह-त्थलाओ निवडतीए इमीए भूमीए ।
जुवईए पडिसहो समुट्ठिओ एस सहसत्ति ।।११७।। संस्कृत छाया :
नूनं नमस्तलाद् निपतन्त्या अस्या भूम्याम् ।
युवतेः प्रतिशब्दः समुत्थित एष सहसेति ।।११७।। गुजराती अनुवाद :
जरुर आकाशमाथी आ भूमि पर पडती युवतिनो आ अकस्मात् जोरदार अवाज आव्यो छे. हिन्दी अनुवाद :
निश्चय ही आकाश से पृथ्वी पर गिरी इस युवती के कारण वहां जोरदार आवाज आई। गाहा :
कह मन्ने एरिसस्सवि जुवई-रयणस्स एरिसाऽवत्था । विबुह-जण-सोयणिज्जा धी! विहिणो विलसियं चित्तं ।।११८।। संस्कृत छाया :
कथं मन्ये ईशस्यापि युवतिरलस्य ईश्यवस्था । विबुधजनशोचनीया धिग् ! विधे-विलसितं चित्रम् ! ।।११८।। गुजराती अनुवाद :
आवी दिव्यरूपवाळी श्रेष्ठ युवतिनी पंडितोने पण करुणा जगाडे तेवी अवस्था केवी रीते। खरेखर! भाग्य, चित्त विलास वाळु छे. हिन्दी अनुवाद :- .
ऐसी दिव्य रूपवाली श्रेष्ठ युवती जो पंडितों में भी करुणा जगा दे, उसकी ऐसी अवस्था कैसे हुई? निश्चित ही यह भाग्य का विचित्र विलास है।
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गाहा :
इय चिंततेण मए सीयल-जल-सीयरेहिं संसित्ता । मिउ-पवण-करण-विहिणाअह विहिया सासमासत्या ।।११९।। संस्कृत छाया :
इति चिन्तयता मया शीतलजलशीकरैः संसिक्ता ।
मृदुपवनकरणविधिनाऽथ विहिता सा समावस्ता ।।११९।। गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे विचारता शीतलजल बिंदुओ बड़े सिंचन कर्यु. अने मंद मंद पवन नाखीने तेणी ने में स्वस्थ करी! हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार विचार करते हुए शीतल जल की बूंदों से उसे सींचा तथा धीरेधीरे हवा देकर मैंने उसे स्वस्थ किया। गाहा :
हरिणिव्व जूह-भट्ठा सतरल-तारं दिसाओ पुलयंती ।
भणिया मए सुमहुरं कीस तुमं सुयण! बीहेसि? ।।१२०।। संस्कृत छाया :
हरिणीव यूथभ्रष्टा सतरलतारं दिशः पश्यन्ती ।
भणिता मया सुमधुरं कस्मात्त्वं सुतनो ! बिभेषि ? ।।१२०।। गुजराती अनुवाद :
यूथथी भ्रष्ट थयेली हरिणीनी जेम चपल दृष्टिथी दिशाओने जोती हती त्यारे में सुमधुर स्वरे कडं हे सुतनु! तुं शा माटे डटे छे? हिन्दी अनुवाद :
___ अपने दल से बिछड़ी हिरणी जैसी चंचल दृष्टि से जब वह इधर-उधर चारों दिशाओं में देख रही थी, तभी मैंने मधुर स्वर में कहा, हे सुतनु! तूं क्यों डर रही हो? गाहा :
मा भद्दे! कुणसु भयं थेवंपि, हु.जणय-निव्विसेसो हं। का सि तुमं कत्तो वा इह पडिया मज्झ साहेसु? ।।१२१।।
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संस्कृत छाया :
मा भद्रे ! कुरु भयं स्तोकमपि, खलु जनकनिर्विशेषोऽहम् ।
काऽसि त्वं ? कुतो वेह पतिता ? मम कथय ।।१२१।। गुजराती अनुवाद :
हे भद्रे! तुं जरापण भय न राख, हुं तारा पिता समान छु. तुं कोण छे? अहींया तुं क्याथी पडी? ते मने कहे? हिन्दी अनुवाद :
हे बेटी! तू जरा भी भयभीत न हो, मैं तुम्हारे पिता समान हूँ। तुम कौन हो? और यहाँ कैसे गिर पड़ी, वह मुझे बताओ। गाहा :
अविय। सग्गाओ निवडिया किं साव-प्पहया सुरंगणा तं सि । किं वावि भट्ठ-विज्जा विज्जाहर-बालिया सुयणु!? ।।१२२।। संस्कृत छाया :
अपि च । स्वर्गाद् निपतिता किं शापाहता सुराङ्गना त्वमसि ।
किं वाऽपि प्रष्टविद्या विद्याधरबालिका सुतनो! ? ||१२२।। गुजराती अनुवाद :
. वळी हे सुतनु! तुं स्वर्गलोकमाथी पड़ी के श्रापथी हणायेली तुं देवांगना छ? के विद्याथी भ्रष्ट थयेली कोइ विद्याधर बाळा छे. हिन्दी अनुवाद :
हे सुतनु! तू स्वर्गलोक से आई हो या शाप से शापित कोई देवांगना हो, या विद्या से भ्रष्ट हुई किसी विद्याधर को बेटी हो। गाहा :
तुह-रूव-दंसणुप्पन्न-हरण-बुद्धिस्स नह-पयट्टस्स । विज्जाहरस्स कस्सवि किंवा हत्थाओ पन्भट्ठा? ।।१२३।। संस्कृत छाया :
त्वद्रूपदर्शनोत्पन्नहरणबुद्धे-नभःप्रवृत्तस्य । विद्याधरस्य कस्याऽपि किं वा हस्तात् प्रप्रष्टा ? ।।१२३।।
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गुजराती अनुवाद :
अथवा तारा रूपना अवलोकनथी अपहरण करवानी बुद्धिवाला आकाश मां गमन करतां कोई विद्याधरना हाथमांथी तुं पडी गई छे?
हिन्दी अनुवाद :
अथवा तुम्हारा रूप देखकर अपहरण बुद्धि वाले आकाशगामी किसी विद्याधर के हाथ से छूटकर तू यहाँ गिर पड़ी?
गाहा :
साहेसु सुयणु ! एवं महंत कोऊहलं इमं मज्झ । नीसाहारा कह नह-यलाओ पडिया इहुज्जाणे ? ।। १२४ ।।
संस्कृत छाया :
कथय सुतनो ! एतद् महत्कुतूहलमिदं मम ।
निःस्वाधारा कथं नभस्तलात्पतिता इहोद्याने ? ।। १२४ ।
गुजराती अनुवाद :
हे सुतनु ! तुं आ वृत्तांत जणाव... मने ए सांभळवा विशेष कुतूहल छे. के आधार विनानी तुं गगनतलथी आ उद्यानमां केवी रीते पडी ?
हिन्दी अनुवाद :
हे बेटी ! तू यह वृत्तान्त मुझे बताओ। यह सुनने का मुझमें विशेष कुतूहल है कि बिना किसी आधार के आकाश से इस उद्यान में कैसे गिरी ?
गाहा :
इय सा भणिया भू- नाह! मज्झ पडिउत्तरं अदाऊण । गुरु- दुक्ख-सूयण- परं अंसु-जलं मोत्तुमारद्धा । । १२५ । ।
संस्कृत छाया :
इति सा भणिता भूनाथ ! मम प्रत्युत्तरमदत्त्वा ।
गुरुदुःखसूचनपरमश्रुजलं मोक्तुमारब्धा । । १२५ ।।
गुजराती अनुवाद :
विना
हे राजन् ! में तेने आ प्रमाणे पूछयुं त्यारे मने कंइपण प्रत्युत्तर आप्या बहु शोकने सूचनार एवा अश्रुजलने वहाववा मांडी.
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हिन्दी अनुवाद :
हे राजन्! मैंने उससे इस प्रकार पूछा। वह बिना कोई उत्तर दिए अत्यन्त दुःखी होकर अश्रुजल बहाने लगी (रोने लगी)। गाहा :
अह तं तहाविहं पासिऊण परिचिंतियं मए एयं । तं एवं संजायं जं पुव्वं सुमइणा भणियं ।।१२६।। संस्कृत छाया :
अथ तां तथाविधां छट्वा परिचिन्तितं मयैतद् । तदेतत् सज्जातं यत्पूर्वं सुमतिना भणितम् ।।१२६।। गुजराती अनुवाद :___ त्यारपछी तेवा प्रकारनी तेनी स्थिति जोइ में विचार कर्यों प्रथम जे सुमति नैमित्तिके कहयुं हतुं ते प्रमाणे आ थयुं छे के. हिन्दी अनुवाद :
उसके पश्चात् उसकी इस प्रकार की स्थिति देखकर मैं विचार करने लगा कि पहले सुमति ज्योतिषी ने जैसा कहा था क्या यह उसी प्रकार हुआ है? गाहा :
कुसुमायर-उज्जाणे जइया गयणाओ कन्नगा पड़िही।
तत्तो य सिग्यमेव हि पुत्तेण समागमो होही ।।१२७।। संस्कृत छाया :
कुसुमाकरोद्याने यदा गगनात् कन्यका पतिष्यति । ततश्च शीघ्रमेव हि पुत्रेण समागमो भविष्यति ।।१२७।। गुजराती अनुवाद :
"ज्यारे कुसुमाकर उद्यानमा आकाशमाथी कन्या पडशे त्यारबाद जल्दी पुत्रनो समागम थशे." हिन्दी अनुवाद :
जब कुसुमाकर उद्यान में लड़की गिरेगी उसके बाद जल्द ही पुत्र से समागम होगा।
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गाहा :
ता किं इह पुट्ठाए इमाए वरईए ताव साहेमि ।
गंतुं वइयरमेयं जहट्ठियं चेव नर-वइणो ।।१२८।। संस्कृत छाया :
तत्किमिहपृष्ट्यानया वराक्या, तावत्कथयामि ।
गत्वा व्यतिकरमेतद् यथास्थितमेव नरपतेः ।।१२८।। गुजराती अनुवाद :- तेथी अहीं आ विचारीने पुछवानुं कंह कारण नथी, हवे तो राजा पासे जइने आ सर्व हकीकत तेमने ज जणावं. हिन्दी अनुवाद :
इसलिए यहाँ ऐसा विचार कर पूछने का कोई कारण नहीं है। अब तो राजा के पास जाकर इस सम्पूर्ण हकीकत को उनसे ही बताना चाहिए। गाहा :इय चिंतिऊण तत्तो आसासित्ता सुमहर-वयणेहिं ।
आणीया निय-गेहे समप्पिया सा स-भज्जाए ।।१२९।। संस्कृत छाया :- इति चिन्तयित्वा तत आवास्य सुमधुरवचनैः ।
आनीता निजगेहे समर्पिता सा स्वभार्यायै ।।१२९।। गुजराती अनुवाद :
सप्रमाणे विचारीने त्यारयाद सुमधुर वचनो वडे तेने आश्वासन आपीने मारा घरे लइ आव्यो. अने मारी पत्नीने सोंपी छे. हिन्दी अनुवाद :
ऐसा विचार कर उसके बाद मधुर वचनों से, उसे आश्वासन देकर मेरे घर ले आया और मेरी पत्नी को सौंप दिया। गाहा :निय-परियणं च सव्वं सरीर-संवाहणाइ-वावारे । तीए निउइऊणं समागओ देव-पासम्मि ।।१३०।।
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संस्कृत छाया :निजपरिजनं च सर्व शरीरसंवाहनादिव्यापारे ।
तस्या नियोज्य समागतो देवपार्थे ।।१३०।। गुजराती अनुवाद :
मारा सर्वे परिजनने तेणीनी सारवार आदिना कार्यमा जोडीने हुं आपनी पासे आव्यो छु. हिन्दी अनुवाद :
अपने सभी परिजनों को उसकी सेवा आदि कार्य में लगाकर मैं आपके पास आया हूँ। गाहा :
एवं समंतभद्देण साहियं वइयरं निसामित्ता।। विम्हिय-हियओ राया अह एवं भणिउमाढत्तो ।।१३१।। संस्कृत छाया :
एवं समन्तभद्रेण कथितं व्यतिकरं निशम्य । विस्मितहृदयो राजाऽथैवं भणितुमारब्धः ।।१३१।। गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे समंतभद्र, कहेलुं वृत्तांत सांधळीने विस्मित थयेला राजारा बोलवानो प्रारंभ कर्योहिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार समन्तभद्र द्वारा कहे गए वृत्तान्त को सुनकर आश्चर्यचकित हुए राजा ने बोलना प्रारम्भ किया। गाहा :
अव्वो! हु अवितहं तं पिच्छह नेमित्तियस्स सुमइस्स ।
ता पुत्तेण समाणं आसन्नं दंसणं इण्हिं ।।१३२।। संस्कृत छाया :
अहो ! खल्ववितथं तत् प्रेक्षध्वं नैमित्तिकस्य सुमतेः । तदा पुत्रेण सममासनं दर्शनमिदानीम् ।।१३२।।
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गुजराती अनुवाद :
अरे! जुओ सुमति नैमित्तिक- वचन बरोबर सत्य छे. तेथी हवे मने जल्दी पुत्रनुं दर्शन थशे. हिन्दी अनुवाद :
अरे देखो! सुमति नैमित्तिक का कथन विलकुल सच है। इसलिए मुझे शीघ्र ही पुत्र का दर्शन होगा। गाहा :
ता भो समंतभद्दय! सिग्धं आणेह बालियं तमिह ।
जीए पभावेण मए पिक्खेयव्वो स-पुत्तोत्ति ।। १३३।। संस्कृत छाया :तस्मात् भोः समन्तभद्र ! शीघ्रमानयत बालिकां तामिह ।
यस्याः प्रभावेण मया प्रेक्षितव्यः स्वपुत्र इति ।।१३३।। गुजराती अनुवाद :
तेथी हे समंतभद्र! ते बालिकाने जल्दी अहीं लाव. जेना प्रभावथी मारा पुत्रनुं दर्शन थशे। हिन्दी अनुवाद :___इसलिए हे समन्तभद्र! उस बालिका को शीघ्र यहाँ ले आओ जिसके प्रभाव से मेरे पुत्र का दर्शन होगा। गाहा :
वयणाणंतरमेव हि समंतभद्देण गंतुमाणीया। .
सा बालिया विणिज्जिय-सुर-जुवई-रूव-सोहग्गा ।।१३४।। संस्कृत छाया :
वचनान्तरमेव हि समन्तभद्रेण गत्वाऽऽनीता ।
सा बालिका विनिर्जितसुरयुवतिरूपसौभाग्या ।।१३४।। गुजराती अनुवाद :
सुरसुंदरीनुं आगमन राजानी आज्ञा थइ के तरत ज जेणे देवांगनाना रूप अने सौधाग्यनो तिरस्कार कर्यो छे तेवी ते बालिकाने समंतभद्र जइने लई आव्यो।
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हिन्दी अनुवाद :
सुरसुन्दरी का आगमनराजा की आज्ञा हुई कि जिसने देवांगना के रूप और सौभाग्य का तिरस्कार किया है उस बालिका को समन्तभद्र जाकर तुरन्त ले आयें। गाहा :तीए सरीर-सोहं पिच्छिय रन्ना विचिंतियं अव्वो! ।
आगारो च्चिय सूयइ इमीए सुकुलम्मि संभूई ।।१३५।। संस्कृत छाया :तस्याः शरीरशोभा प्रेक्ष्य राज्ञा विचिन्तितं अहो ! ।
आकार एव सूचयत्यस्याः सुकुले सम्भूतिम् ।।१३५।। गुजराती अनुवाद :
तेना शरीरनी शोध्या जोईने राजार विचार्यु अरे! आ बालानी आकृति तेनी सुकुलमा उत्पत्ति जणावे छे. हिन्दी अनुवाद :
उस बालिका के शरीर का सौन्दर्य देखकर राजा ने विचार किया कि अरे इस बालिका की आकृति से इसके किसी अच्छे कुल में पैदा होने का ज्ञान होता है। गाहा :उचियासणोवविठ्ठा सा कन्ना अमरकेउ-नरवइणा।
भणिया हिययन्मंतर-गुरु-सोगुव्वाय-पंडु-मुहा ।।१३६।। संस्कृत छाया :
उचितासनोपविष्टा सा कन्या अमरकेतु-नरपतिना ।
भणिता हृदयाभ्यन्तरगुरुशोकोद्वातपाण्डुमुखा ।।१३६ ।। गुजराती अनुवाद :
हृदयमा रहेला अतिशोकनी व्यथा वड़े फीक्का मुखवाली अने उचित आसन उपर बेठेली ते कन्याने अमरकेतु राजास पूछयु. हिन्दी अनुवाद :
हृदय में अति व्यथा के कारण फीके मुखवाली उचित आसन पर बैठी उस कन्या से अमरकेतु राजा ने पूछा।
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गाहा :
वच्छे! उज्झसु सोयं चयसु भयं जणय - निव्विसेसस्स । साहिज्जउ मह एयं कम्मि पुरे तं समुप्पन्ना ? ।। १३७ ।। संस्कृत छाया :
वत्से ! उज्झ शोकं त्यज भयं जनकनिर्विशेषस्य । कथ्यतां ममैतत् कस्मिन् पुरे त्वं समुत्पन्ना ? ।। १३७ ।। गुजराती अनुवाद :
हे वत्से ! शोक छोडी दे, भयनो त्याग कर, पिता समान मने सर्ववृत्तांत कहे. क्या नगरमा तारो जन्म थयो छे.
हिन्दी अनुवाद :
हे पुत्री ! शोक को छोड़ दो और भय का त्याग कर दो और पिता समान मुझसे पूरा वृत्तान्त सुनाओ कि किस नगर में तेरा जन्म हुआ है ?
गाहा :
कस्रा व धूया कह वा इहागया कह व मज्झ उज्जाणे । पडिया सि नहयलाओ साहेसु सवित्यरं एवं ।। १३८ ।। संस्कृत छाया :
कस्य वा दुहिता ? कथं वा इहाऽऽगता ? कथं वा ममोद्याने । पतिताऽसि नभस्तलात् कथय सविस्तरमेतद् ।। १३८ ।।
गुजराती अनुवाद :
तुं कोनी पुत्री छे? क्यां थी आई? अने नभस्तलमांथी अहीं मारा उद्यानमा केवी रीते पडी ? ए सर्ववृत्तांत विस्तारपूर्वक कहे.
हिन्दी अनुवाद :
तूं किसकी पुत्री है ? कहां से आई है? और आकाश से मेरे इस उद्यान में तूं कैसे गिरी ? यह सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताओ ।
गाहा :
अह सा एवं भणिया गुरु सोया सज्झसेण अभिभूया । उम्मुक्क- दीह - सासा न किंचि पडिउत्तरं देइ ।। १३९ ।।
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संस्कृत छाया :
अथ सैवं भणिता गुरुशोका साध्वसेनाऽभिभूता । उन्मुक्तदीर्घश्वासा न किञ्चित् प्रत्युत्तरं ददाति ।।१३९।। . गुजराती अनुवाद :
___ आ प्रमाणे राजाना कहेवाथी अत्यंत शोकमां गरकाव थयेली, बहु भय वड़े पीडायेली ते बालार मोटो निःश्वास मूक्यो परंतु कंइपण बोली शकी नहि. हिन्दी अनुवाद :
राजा के ऐसा कहने पर अत्यन्त शोक सन्तप्त और भययुक्त वह बालिका एक लम्बी श्वास छोड़ी किन्तु कुछ बोल नहीं पायी। गाहा :
अह पुणरुत्तं रन्ना पुट्ठाए तीए कहवि संलत्तं । ताय! चएमि न वोत्तुं बहु-दुक्खं नियय-वुत्तंतं ।। १४०।। संस्कृत छाया :
अथ पुनरुक्तं राज्ञा पृष्टया तया कथमपि संलपितम् । तात ! शक्नोमि न वक्तुं बहुदुःखं निजवृत्तान्तम् ।।१४०।। गुजराती अनुवाद :
त्यारबाद फरी राजार पूछयु- स्टले बहकष्टथी ते बोली हे तात! बहु दुःखमय स्वो आटो वृत्तांत कहेवा हुं समर्थ नथी. हिन्दी अनुवाद :
उसके बाद जब राजा ने पुन: पूछा तो बड़े कष्ट के साथ उसने कहा, 'हे तात! बहुत दु:खमय है हमारा वृत्तान्त, जिसे मैं कहने में समर्थ नहीं हैं। गाहा :
तहवि हु अलंघणीया आणा तायस्स तेंण साहेमि ।
जंबुद्दीवे भरहे कुसग्गनयरम्मि नामेण ।।१४१।। संस्कृत छाया :
तथापि खल्वलधनीयाऽऽज्ञा तातस्य तेन कथयामि ।। जम्बूद्वीपे भरते कुशाप्रनगरे नाम्ना ।।१४१।।
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गुजराती अनुवाद :
तो पण पितानी आज्ञा उल्लंघनीय नथी तेम मानी कहुं छु. जंबुद्धीपना धरतक्षेत्रमा अति प्रसिद्ध कुशाय नामना नगरमां नरवाहन नामनो राजा छे. हिन्दी अनुवाद :
फिर भी पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, ऐसा मानकर मैं वृत्तान्त कह रही हूँ। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुशाग्रनगर नामक नगर में नरवाहन नाम का राजा है। गाहा :
अत्थि पुरं सुपसिद्धं तत्य य नर-वाहणो पुहइ-नाहो । रयणवई से देवी तीए घूया अहं ताय! ।।१४२।। संस्कृत छाया :
अस्ति पुरं सुप्रसिद्धं तत्र च नरवाहनः पृथिवीनाथः । रत्नवती तस्य देवी तस्या दुहिताऽहं तात ! ।।१४२।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :___ रत्नवती नामनी तेनी राणी छे. हे पिता! तेमनी हु सुरसुंदरी नामनी पुत्री छु. हिन्दी अनुवाद :
रत्नवती नाम की उसकी रानी है। हे तात! मैं उन्हीं की सुरसुन्दरी नाम की पुत्री हूँ। गाहा :
सुरसुंदरित्ति-नामा पुव्विं दुविहिय-कम्म-परिणामा।
वेरिय समेण केणइ पिसाय-रूवेण अवहरिया ।। १४३।। संस्कृत छाया :
सुरसुन्दरीतिनाम्नी पूर्व दुर्विहितकर्मपरिणामा ।
वैरिसमेन केनाऽपि पिशाचरूपेणाऽपहृता ।।१४३।। . गुजराती अनुवाद :
पूर्वना दुर्विहित कर्मना विपाकने लीधे पिशाचरूप दुश्मन समान कोइए माझं हरण कर्यु.
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हिन्दी अनुवाद :
पूर्व में किसी दुर्विहित कर्म के विपाक के कारण किसी पिशाचरूप दुश्मन ने मेरा अपहरण किया। गाहा :
एत्तियमित्तं भणिउं सोय-समुन्भुय-गरुय मन्नु-वसा ।
थूलंसुए मुयंती निहुयं रोउं पवत्ता सा ।।१४४।। संस्कृत छाया :
एतावन्मानं भणित्वा शोकसमुद्भूतगुरुमन्युवशात् ।
स्थूलाश्रूणि मुञ्चती निभृतं रोदितुं प्रवृत्ता सा ।।१४४।। गुजराती अनुवाद :
आटलुं मात्र कहीने तरत ज बहु शोकथी उत्पन्न थयेल संताप वडे अश्रुपात करती जोरथी ते रुदन करवा लागी. हिन्दी अनुवाद :
___ इतना मात्र कहकर तुरन्त उत्पन्न हुए शोक के कष्ट के कारण आँसू बहाते हुए वह जोर-जोर से रोने लगी। गाहा :
एत्यंतरम्मि रन्नो अद्धासण-संगयाए देवीए ।
कमलावईए गहिया रोवंती सा निजुच्छंगे।।१४५।। संस्कृत छाया :
अत्रान्तरे राज्ञोऽर्धासनसङ्गतया देव्या ।
कमलावत्या गृहीता रुदन्ती सा निजोत्सङ्गे ।। १४५।। गुजराती अनुवाद :
स्टलामां राजानां अर्धासने बठेली देवी कमलावतीस रुदन करती ते बालाने पोतानां खोळामां लइ लीधी. हिन्दी अनुवाद :
इतने में राजा के आधे आसन पर बैठी कमलावती रानी रोती हुई बाला को अपनी गोद में ले ली।
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गाहा :
भणिया वच्छे! मा रुय न होई दीवंतरं इमं सुयणु! । हत्थिणपुरं हि एवं एसो राया अमरकेऊ ।।१४६।। संस्कृत छाया :
भणिता वत्से ! मा रुदिहि न भवति द्वीपान्तरमिदं सुतनो ! ।
हस्तिनापुरं येतदेष राजाऽमरकेतुः ।।१४६।। गुजराती अनुवाद :
__ अने कडं हे वत्से! (बेटा) तुं रड नहीं, आ कंई बीजो द्वीप नथी, हे सुतनु! आ हस्तिनापुर नगर छे. आ अमरकेतु राजा छे. हिन्दी अनुवाद :
और बोली 'हे पुत्री तूं रो नहीं, यह कोई दूसरा द्वीप नहीं है। हे पुत्री! यह हस्तिनापुर नगर है और यह अमरकेतु राजा हैं। गाहा :
कमलावई अहंपि हु, सहोयरो होइ तुह पिया मज्झ ।
वच्छे! तुमंपि अम्हं सुय-पुव्वा नाममेत्तेण ।।१४७।। संस्कृत छाया :
कमलावत्यऽहमपि खल, सहोदरो भवति तव पिता मम ।
वत्से ! त्वमपि अस्माकं श्रुतपूर्वा नाममात्रेण ।।१४७।। गुजराती अनुवाद :
हुं पण कमलावति छु. तारा पिता मारा सहोदर छे. हे वत्से! तने पण अमे मात्र नामथी पहेला सांधळी छे. हिन्दी अनुवाद :
__ मैं भी कमलावती हूँ। तुम्हारे पिता मेरे सहोदर भाई हैं फिर भी हे पुत्री! मैंने पहले भी तुम्हारा नाम सुना है। गाहा :बहुविह-पओयणेणं कुसग्गनयराओ जो जणो एंतो। सो सव्वो सुरसुंदरि! तुह गुण-निवहं मह कहिंतो ।।१४८।।
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संस्कृत छाया :बहुविधप्रयोजनेन कुशाग्रनगराद् यो जन आयन् ।
स सर्वः सुरसुन्दरि ! तव गुणनिवहं मम कथयन् ।।१४८।। गुजराती अनुवाद :
वळी हे सुरसुंदरी कार्यवश कुशाय नगरमाथी जे लोको अहीं आवे छे ते सर्वे तारा गुण समुदायने मारी आगळ कहे छे. के, हिन्दी अनुवाद :
हे सुरसुन्दरी! अनेक कार्यों से कुशाग्रनगर से जो लोग यहाँ आते हैं सभी . तुम्हारे गुणों को मुझसे कहते हैं कि... गाहा :
एवं सुरूव-कलिया एवं पिउणो य वच्छला बाढं ।
एवं कलासु कुसला एवं दक्खिन्न-दय-जुत्ता ।।१४९।। संस्कृत छाया :
एवं सुरूपकलिता एवं पितुश्च वत्सला बाढम् । एवं कलासु कुशला एवं दाक्षिण्यदयायुक्ता ।।१४९।। गुजराती अनुवाद :
"सुरसुंदरी स्वरूपवती छे. तेना पितानी बहु ज लाडकी छे, सर्व कलामां कुशल छे तथा दाक्षिण्य तथा दयाथी युक्त छे." हिन्दी अनुवाद :
सुरसुन्दरी रूपवान है, अपने पिता की चहेती है, सभी कलाओं में पारंगत दाक्षिण्य तथा दयायुक्त है। गाहा :
ता मा कुणसु विसायं एयंपि य पिउ-हरं निजं तुज्झ ।
अच्छसु वीसत्थ-मणा कीडंती विविह-कीडाहिं ।।१५०।। संस्कृत छाया :तस्मात् मा कुरु विषादमेतदपि च पितृगृहं निजं तव । आस्स्व विश्वस्तमनाः क्रीडयन्ती विविधक्रीडाभिः ।।१५०।।
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गुजराती अनुवाद :
तेथी तुं शोक न कर, आ पण तारा पितार्नु ज घर छे. विविध क्रीडाओ वडे. रमती विश्वासपूर्वक रहेजे! हिन्दी अनुवाद :___इसलिए तूं शोक न कर, यह भी तुम्हारे पिता का ही घर है। यहाँ विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए विश्वास पूर्वक रहो। गाहा :
एवंविह-वयणेहिं आसासित्ता निजुत्तरीएण। अंसुय-धोय-कवोलं तीए मुहं संपमज्जित्ता ।।१५१।। मुह-सोयं दाऊणं नीया देवीए मंदिरे नियए।
तत्थवि उधिग्ग-मणा अच्छइ गुरु-सोय-संतत्ता ।।१५२।। संस्कृत छाया :
एवंविधवचनैराश्चास्य निजोत्तरीयेण । अश्रुकधौतकपोलं तस्या मुखं सम्प्रमृज्य ।।१५१।। मुखशौचं दत्त्वा नीता देव्या मन्दिरे निजके ।
तत्राऽप्युद्विग्नमना आस्ते गुरुशोकसन्तप्ता ।।१५२ ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :
स प्रमाणे मधुर वचनो वडे आश्वासन आपीने पोताना उत्तरीय वस्त्रवड़े अश्रुजलथी श्रीना थइ गयेला गंडस्थलवाळा तेना मुखने लुछी नाखीने. मुख शुद्धि करावीने पछी कमलावती देवी तेने पोताना महेलमां लइ गइ. त्यां पण शोकातुर रवी ते खुब ज उद्विग्न मनवाळी रहे छे. युग्मम्. हिन्दी अनुवाद :
ऐसे मधुर वचन से आश्वासन देकर अपने उत्तरीय (वस्त्र) से उसके आँसुओं से भीगे ललाट वाले मुँह को पोछकर...
मुख शुद्धि कराकर कमलोवती देवी उसे अपने महल में ले गयी। वहाँ भी शोकातुर वह उद्विग्न मनवाली रहती है। गाहा :
नीससइ दीह-दीहं खणेण थूलंसुगई मिल्लेइ । मुच्छिज्जई खणेणं खणेण संवरइ अप्पाणं ।।१५३।।
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संस्कृत छाया :
निःश्वसिति दीर्घदीर्घ क्षणेन स्थूलाश्रूणि मुञ्चति ।
मूर्च्छति क्षणेन क्षणेन संवृणोत्यात्मानम् ।।१५३।। गुजराती अनुवाद :
मोटा निःश्वास मुके छे. अश्रुजल वहेवरावे छे. क्षणवारमा मूच्छित थई जाय छे. क्षणमां पोतानां आत्माने छुपावी दे छे. हिन्दी अनुवाद :
लम्बी नि:स्वास छोड़ती है, आँसू बहाती है, क्षणभर में मूर्च्छित हो जाती हैं, क्षण में अपनी आत्मा को छुपा लेती है। गाहा :विलवइ खणेण विहसइ रोवइ खणेण मूयल्लिया होइ ।
गुरु-चिंता-भर-विहुरिय-हियया परिहाइ अणुदियहं ।।१५४।। संस्कृत छाया :विलपति क्षणेन विहसति रोदिति क्षणेन मूका भवति ।
गुरुचिन्ताभरविथुरितहृदया परिजहात्यनुदिवसम् ।।१५४।। गुजराती अनुवाद :
ते क्षणवाट विलास करे छे. क्षणमा हास्य कटे छे. क्षणमा रुदन करे छे, क्षणवार मुंगी थई जाय छे. प्रतिदिन अतिशय चिंताना भारथी खिन्न हृदयवाळी, मुखवाळी ते देखाय छे. हिन्दी अनुवाद :
क्षणभर में वह प्रसन्न हो जाती है, क्षण में हँसने लगती है क्षण में रोने लगती है, क्षण में वह चुप हो जाती है। वह प्रतिदिन अति चिंता के भार से खिन्न हृदयवाली दिखाई देती है। गाहा :अह तं विगयाणंद पिच्छिय कमलावई विचिंतेइ ।
आणाकारी सव्वोवि परियणो ताव एईए ।।१५५।। संस्कृत छाया :
अथ तां विगताऽऽनन्दां प्रेक्ष्य कमलावती विचिन्तयति । आज्ञाकारी सर्वोऽपि परिजनस्तावदेतस्याः ।।१५५।।
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गुजराती अनुवाद :
कमलावतीराणीना उपाय
आनंदशून्य स्वी ते बालाने जोइ कमलावती विचारे छे. आ मारो सर्व परिवार एनी आज्ञानुं पालन करनार छे.
हिन्दी अनुवाद :
कमलावती रानी का उपाय
आनन्द से शून्य उस बालिका को देखकर कमलावती रानी विचार करती है । यह हमारा पूरा परिवार उसकी आज्ञा का पालन करने वाला है।
गाहा :
तह य समाण - वयाओ सिणेह साराओ राय - कन्नाओ । नाणाविह चेट्ठाहिं अणुदियहमिमं विणोएंति । । १५६ । ।
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संस्कृत छाया :
तथा च समानवयसः स्नेहसारा राजकन्याः ।
नानाविधचेष्टाभिरनुदिवसमिमां विनोदयन्ति । । १५६ । ।
गुज़राती अनुवाद :
अने समानवयवाळी अने स्नेहल राजकन्याओ विविध क्रीडाओ वड़े रोज तेने आनंद करावे छे.
हिन्दी अनुवाद :
और समान उम्र वाली प्रेमी राजकन्या अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से रोज आनन्द प्रमोद कराती है।
गाहा :
तहवि हु रई न पावइ एसा चिंताए सुसइ अणुदियहं । ता मन्ने का चिंता जीए एसा उ परिहाइ ।। १५७ ।। संस्कृत छाया :
तथापि खलु रतिं न प्राप्नोत्येषा चिन्तया शुष्यत्यनुदिवसम् । तस्माद् मन्ये का चिन्ता यस्या एषा तु परिजहाति ।। १५७ ।। गुजराती अनुवाद :तो पण ते खुश थती नथी, चिंता वड़े आ प्रतिदिन सूकाती जाय छे. तेथी एवी कंइ चिंता हशे के जेथी आ बाला सुकाइ रही छे.
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हिन्दी अनुवाद :
फिर भी वह खुश नहीं है। चिन्ता से प्रतिदिन सूखती जा रही है। ऐसी क्या चिन्ता है जिससे यह प्रतिदिन सूखती जा रही है? गाहा :
जइ ता माउ-पिऊणं सुमरइ ता किं कहेइ न हु मज्झ? ।
मयण-वियार-सरिच्छा नेय वियारा तहिं हुंति ।।१५८।। संस्कृत छाया :
यदि तावत् मातापित्रोः स्मरति तर्हि किं कथयति न खलु मम ? ।
मदनविकारसमक्षा नैव विकारास्तत्र भवन्ति ।।१५८।। गुजराती अनुवाद :
जो ते माता-पिताने याद करती होय तो मने केम कहेती नथी? तथा कामविकार जेवा कोई तेवा विकार पण स्नान्मां जणाता नथी! हिन्दी अनुवाद :
यदि वह माता-पिता को याद करती है तो मुझसे कहती क्यों नहीं? काम विकार जैसे कोई विकार भी उसमें हैं, ऐसा मालूम नहीं होता। गाहा :
एगंतं जह सेवइ विहडिय-चक्काइं जह य मेल्लेइ । पिय-संगम-साराओ कहाओ जह सुणइ तच्चित्ता ।।१५९।। तह मन्ने पेम्म-गहो विलसइ एवंविहाहिं चिट्ठाहिं । ता जइ एसा मज्झं तहट्टियं साहइ सरूवं ।।१६० ।। ता तस्स पावणम्मिवि कोवि उवाओवि लम्भए नूणं ।
न य एसा वज्जरिही पुट्ठावि जट्टियं मज्झ ।।१६१।। संस्कृत छाया :
एकान्तं यथा सेवते विघटितवाक्यानि यथा च मुञ्चति । प्रियसङ्गमसाराः कथा यथा शृणोति तच्चित्ता ।। १५९।। तथा मन्ये प्रेमग्रहो विलसत्येवंविधाभिश्चेष्टाभिः । तर्हि यद्येषा मम तथास्थितं कथयति स्वरूपम् ।।१६०॥
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तदा तस्य प्रापणेऽपि कोऽपि उपायोऽपि लभ्यते नूनम् ।
न चैषा कथयिष्यति पृष्टाऽपि यथास्थितं मह्यम् ।।१६१।। त्रिभिः कुलकम्। गुजराती अनुवाद :
जो ते एकांतनु सेवन करें, वियुक्त चक्रो ने एकत्रित करे, प्रिय ना संगमवाळी वार्ताओं ने तल्लिन थइ सांभळती होय तो हुंजाणु के स्वा प्रकारनी चेष्टाओ वड़े स्नामां प्रेमयह विलास करे छे. अने जो ते पोतानो यथास्थित वृत्तांत जणावे तो सनी प्राप्ति नो कोई उपाय पण जकर मळे. परंतु पूछवा छतां पण आ बाला वास्तविक अर्थ जणावती नथी। विधिः कुलकम्। हिन्दी अनुवाद :- यदि वह एकान्त का सेवन करे, वियुक्त चक्रों को एकत्रित करे, प्रिय से मिलन वाली बातों को तल्लीन होकर सुनती हो....
तो मैं समझं कि इस प्रकार की क्रियाएँ उसमें प्रेम विलास कर रही हैं। यदि वह अपनी वस्तुस्थिति से अवगत कराए...
तो उसके समाधान का कोई उपाय जरूर मिले किन्तु पूछने पर भी यह बालिका वास्तविक अर्थ नहीं बता रही है। गाहा :
वाम-सहावी मयणो अक्खिज्जंतो न पायडो होइ। नज्जइ आगारेहिं गोविज्जंतोवि छएहिं ।।१६२।। संस्कृत छाया :
वामस्वभावो मदन आख्यायमानो न प्रकटो भवति ।
ज्ञायत आकारै-र्गोप्यमानोऽपिच्छेकैः ।।१६२।। गुजराती अनुवाद :
विपरीत स्वभाववाळो कामदेव वातचीतथी प्रगट थतो नथी. परंतु मानसिक चेष्टाओ बड़े गोपवी राखेलो काम विकार विचक्षणो वड़े जाणी शकाय छे. हिन्दी अनुवाद :
विपरीत स्वभाव वाले कामदेव की बात-चीत से कुछ प्रगट नहीं होता किन्तु यदि काम विकार छुपा कर रखती हो तो उसकी मानसिक चेष्टाओं से उसे जाना जा सकता है।
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गाहा :
तहवि हु लहामि केणवि हंदि ! उवाएण भावमेईए । इय चिंतिय आणत्ता निय- चेडी हंसिया नाम ।। १६३ । । संस्कृत छाया :
तथाऽपि खलु लभे केनाऽपि हन्दि ! उपायेन भावमेतस्याः । इति चिन्तयित्वाऽऽज्ञप्ता निजचेटी हंसिकानाम्नी ।। १६३ । । गुजराती अनुवाद :
एम छतां पण हुं कोई पण उपाय वड़े एणीना मनोगत भाव जाणु एमविचारी कमलावतीए हंसिका नाम नी पोतानी दासी ने आज्ञा करी. हिन्दी अनुवाद :
फिर भी मैं किसी न किसी उपाय से उसके मनोगत भाव को जानूं, ऐसा विचार कर कमलावती ने हंसिका नाम की अपनी दासी को आज्ञा दी कि ...
गाहा :
सुरसुंदरी उव्वेव कारणं लहसु हंसिए! कहवि ।
तुज्झ समाण - वयाए साहिस्सइ हियय - सब्भावं । । १६४ । ।
-
संस्कृत छाया :
सुरसुन्दर्या उद्वेगकारणं लभस्व हंसिके ! कथमपि ।
तव समानवयसः कथयिष्यति हृदयसद्भावम् । । १६४ । ।
गुजराती अनुवाद :
हे हंसिका ! गमे ते करी ने सुरसुंदरीना उद्वेगनुं कारण तुं जाणी ले, तारा समानवयनी छे. तेथी हृदयनी वात अवश्य करशे.
हिन्दी अनुवाद :
हे हंसिका! किसी भी प्रकार से तुम सुरसुन्दरी के उद्वेग के कारणों का पता लगाओ। वह तुम्हारी हमउम्र है इसलिए तुमसे वह अपने दिल की बात अवश्य कहेगी।
गाहा :
जं आणवेसि सामिणि! इय भणिउं हंसिया गया झति । एगंत-ट्ठिय- सुरसुंदरीए पासम्मि अल्लीणा ।। १६५ ।।
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संस्कृत छाया :
यदाज्ञापयसि स्वामिनि ! इति भणित्वा हंसिका गता झटिति एकान्तस्थितसुरसुन्दर्याः पार्श्वेऽऽलीना । । १६५ ।।
गुजराती अनुवाद :
"हे स्वामिनी! आपनी आज्ञा प्रमाण छे' एम कही ने हंसिका जल्दी गइ अने एकांत रहेली सुरसुंदरी नी पासे बेठी!
हिन्दी अनुवाद :
हे स्वामिनी ! आपकी आज्ञा प्रमाण है, ऐसा कहकर हंसिका शीघ्र जाकर सुरसुन्दरी के पास बैठी।
गाहा :
सम्भाव नेह-सूयग- वीसंभ- कहाहिं विविह- भणिईहिं । उप्पाय वीसंभं भणिया सुरसुंदरी तीए ।। १६६।।
संस्कृत छाया :
1
सद्भाव स्नेहसूचकविश्रम्भकथाभिर्विविधभणितिभिः । उत्पाद्य विश्रम्भं भणिता सुरसुन्दरी तया ।। १६६ ।।
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गुजराती अनुवाद :
सद्भाव अने स्नेहसूचक एवी केटलीक विविध वातो बड़े विश्वास पैदा करी ते हंसिकाए सुरसुंदरी ने पूछयुं
हिन्दी अनुवाद :
सद्भाव और प्रेमपरक ऐसी कई बातों से विश्वास पैदा करने के बाद हंसिका ने सुरसुन्दरी से पूछा।
गाहा :
सुरसुंदरि ! तुह चरियस्स निसुणणे अत्थि कोउगं मज्झ । कह केण किं निमित्तं अवहरिया किंच अणुभूयं ? ।। १६७ ।।
संस्कृत छाया :
सुरसुन्दरि ! तव चरितस्य निश्रवणेऽस्ति कौतुकं मम ।
कथं केन किं निमित्तमपहृता किञ्चाऽनुभूतम् ? ।। १६७ ।।
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गुजराती अनुवाद :
हे सुरसुंदरी! तारूं चरित्र सांभलवानी मने उत्कंठा छे. कोना बड़े कया निमित्ते तास अपहरण करायु अने तने शु अनुभव थयो छे? हिन्दी अनुवाद :
हे सुरसुन्दरी! आपका चरित्र सुनने की हमारी इच्छा है। किस प्रकार, किस कारण से आपका अपहरण किया गया और आपको कैसा अनुभव हुआ है? गाहा :
सुरसुंदरीए भणियं ताएणवि आसि पुच्छिया एव । किं पुण लज्जाए मए न सक्कियं तत्थ वज्जरिऊ ।।१६८।। संस्कृत छाया :
सुरसुन्दर्या भणितं तातेनाऽपि आसीत् पृष्टा एव ।
किं पुनर्लज्जया मया न शक्यं तत्र कथयितुम् ।।१६८।। गुजराती अनुवाद :
सुरसुंदरीस कां-"पितास पण मने पूछयु हतुं पण लज्जा वड़े तेमने कहेवा हुं समर्थ न थई!" हिन्दी अनुवाद :
सुरसुन्दरी ने कहा,-पिताजी ने भी मुझसे पूछा था किन्तु लज्जा के कारण में उनसे कहने में समर्थ नहीं हो सकी। गाहा :किंच। मह चरियं सुम्मंतं जणेई पास-ट्ठियाणवि दुक्खं ।
तेण न वोत्तुं जुत्तं मज्झवि गुरु-दुक्ख-संजणगं ।।१६९।। संस्कृत छाया :किञ्च । मम चरितं श्रूयमाणं जनयति पार्थस्थितानामपि दुःखम् । तेन न वक्तुं युक्तं ममाऽपि गुरुदुःखसञ्जनकम् ।।१६९।।
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गुजराती अनुवाद :
'वळी, हे सखी! माझं चरित्र पासे रहीने सांभळनार ने पण दुःख पेदा करे छे। तेथी अति दुःखकारक स्वो ते वृत्तांत कहेवो मने योग्य नथी। हिन्दी अनुवाद :
हे सखी! हमारा चरित्र पास में रहकर सुनने वाले को भी दुःखी कर देता है। इसलिए अति दुःख पैदा करनेवाले ऐसे वृत्तान्त कहने के योग्य मैं नहीं हूँ। गाहा :तहवि हु तुमए पुट्ठा वयंसि! कोऊहलेण गरुएण ।
साहेमि तेण निसुणसु एग-मणा वज्जरिज्जंतं ।।१७०।। संस्कृत छाया :तथापि खलु त्वया पृष्टा वयस्ये ! कुतूहलेन गुरुणा ।
कथयामि तेन निशृणु एकमनाः कथ्यमानम् ।।१७०।। गुजराती अनुवाद :
सुरसुंदरी वृत्तांत तो पण, हे सखी! घणा कुतूहल वड़े ते मने पूछयु छे तेथी कहुं छु. तो ते कहेवातो वृत्तांत स्कायता पूर्वक सांधळ। हिन्दी अनुवाद :
फिर भी हे सखी! बड़े कुतूहल के साथ तुमने पूछा है, इसलिए कह रही हूँ, कहे हुए वृत्तान्त को एकाग्रता पूर्वक सुनो। गाहा :
अस्थि पुहई-पयासं निरग्गलोदग्ग-वग्गिर-तुरंगं । वग्गिर-तुरंग-खर-खुरुक्खय-खेहाइन्न-रिक्ख-पहं ।। १७१।। रिक्खपह-पवण-कंपिर-धय-वड-रेहंत-भूरि-साणूरं । साणूर-गहिर-वज्जिर-तूर- रवुप्फुण्ण-दिसि-चक्कं ।। १७२।। दिसि-चक्क-गेय-सत्थाह सत्थ-किज्जत-वज्ज-वाणिज्ज । वाणिज्ज-कला-पत्तट्ठ-लट्ठ-वाणियग-रमणीयं ।।१७३।।
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रमणीयण-वर-वज्जिर-नेउर-झंकार-रुद्ध-सुइ-विवरं । विवरीय-रय-वियक्खण-विलासिणी-लोय-पडिपुन्नं ।।१७४।। पुन्नुक्कड-जण-वासं इन्भ-सहस्सोवसोहियं विउलं । विउल-रसा-यल-परिगय-परिहा-पायार-सोहिल्लं ।।१७५।। सोहिल्ल-तिय-चउक्कं उक्कड-दप्पिट्ठ-जोह-सय-कलियं । नामेण कुसग्गपुरं नयरं दिय-लोय-सारिच्छं ।।१७६।। संस्कृत छाया :
अस्ति पृथिवीप्रकाशं निरर्गलोदप्रवेगवत्तुरङ्गम् । वेगवत्तुरङ्गखरखुरोत्खातखेहा (धूली)ऽऽकीर्णक्षपथम् ।। १७१।। ऋक्षपथपवनकम्पवत्ध्वजपटराजमानभूरिसाणूरं (देवगृहम्) । साणूरगभीरवदितृतूर्यरवोत्फुण्ण(पूर्ण)दिक्चक्रम् ।। १७२।। दिक्चक्रगेयसार्थवाहसार्थक्रियमाणवर्यवाणिज्यम् । वाणिज्यकलाप्राप्तार्थलट्ठ(लष्ट)वाणिजकरमणीयम् ।।१७३।। रमणीजनवरवदितृनूपुरझङ्काररुद्धश्रुतिविवरम् । विपरीतरतविचक्षणविलासिनीलोकप्रतिपूर्णम् ।।१७४।। पुण्योत्कटजनवासं इभ्यसहस्रोपशोभितं विपुलम् । विपुलरसातलपरिगतपरिखाप्राकारशोभावद् ।। १७५।। शोभावत्रिकचतुष्कं, उत्कटदर्पिष्टयोधशतकलितम् । नाम्ना कुशाग्रपुर नगरं देवलोकसक्षम् ।।१७६ ।। षभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद :
कुशायपुर नगर पृथ्वी ने विषे प्रकाशमान, निरंतर उत्तम वेगवाळा अन्धोथी युक्त, वेगवाळा घोडानी प्रचंड खरी थी उड़ती रजकणो थी व्याप्त कर्यों छे आकाश मार्ग जेणे... गगन मार्ग मां पवन थी डोलती ध्वजपटथी शोधता देवालय जेन्मां छे, देवालयो मां गंभीर वागतां वाजीबो ना नाद बड़े पूराया छे दिशाना भाग जेन्मा... दरेक दिशाओ मां धनाढ्य सार्थवाह ना समूह बड़े ज्यां व्यापार कराय छे, वाणिज्य कला मां कुशल स्वां श्रेष्ठ वणिकजनो थी विभूषित, रमणी जनो ना वागता नूपुर ना झंकार ना नाद थी कान ने बधिर करतुं, विपरीत स्वी मैथुन क्रीडा मां निपुण स्वी विलासीनी लोक वड़े परिपूर्ण... पुण्यनिष्ठ
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पराकाष्ठावाळा लोको नो जेमां वास छे, हजारो श्रेष्ठिओ वड़े शोभायमान विशाल... विशाल रसातल उपर रहेली परिखा तथा किल्लाओथी सुशोभित... त्रिक अने चतुष्क थी मनोहर... पराक्रम ना गर्व थी उत्कृष्ट सेंकडो सुभटो थी व्याप्त ... तेम ज देवपुरी समान कुशाग्रपुर नाम नुं नगर छे.
हिन्दी अनुवाद :
कुशाग्रपुर नगर- पृथ्वी पर प्रकाशमान उत्तमवेग वाले घोड़ों से युक्त: उनकी खरी से उड़ते धूलकणों से व्याप्त कर दिया है आकाशमार्ग जिसने, जिसमें आकाश में पवन से उड़ते ध्वज पताकाओं से शोभित देवालय हैं, जहाँ देवालयों में बज रहे गम्भीर वाद्ययन्त्रों से दिशाएँ आपूरित हैं, जहाँ प्रत्येक दिशाओं में धनाढ्य व्यापारियों का समूह व्यापार करता है, श्रेष्ठ वणिकजनों से विभूषित, जहाँ रमणियों के नूपुर के झंकार से कान भी बहरे हो जायें, जहाँ विपरीत और मैथुन क्रीड़ा में निपुण ऐसे विलासी लोग भरे हुए हैं, पुण्य की पराकाष्ठा वाले लोगों का जिसमें वास है, जो हजारों श्रेष्ठियों से शोभित है, जो विशाल रसातल ऊपर परिखा और किलों से सुशोभित त्रिक और चतुष्क से मनोहर है, पराक्रम के गर्व से गर्वित सैकड़ों वीरों से व्याप्त देवपुरी समान कुशाग्रपुर नाम का शहर है।
गाहा :
अक्कंत-गुरु- परक्कम -अच्छंतुक्कड - पयाव - पडिवक्खो । तत्थत्थि सुविक्खाओ राया नरवाहणो नाम ।। १७७ ।।
संस्कृत छाया :
आक्रान्तगुरुपराक्रमात्यन्तोत्कटप्रतापप्रतिपक्षः ।
तत्राऽस्ति सुविख्यातो राजा नरवाहनो नामा ।। १७७ ।।
गुजराती अनुवाद :
ते कुशाग्रपुर नगरमां उत्यंत पराक्रम वड़े निर्मूल कर्या छे महाप्रतापवाळा शत्रुओ जेणे एवो सुप्रसिद्ध नरवाहन नामे राजा राज्य करे छे.
हिन्दी अनुवाद :
उस कुशाग्रपुर में सुप्रसिद्ध नरवाहन नामक राजा राज्य करते हैं जो अत्यन्त पराकम्री हैं तथा महाप्रतापी शत्रुओं को भी धराशायी कर देने वाले हैं।
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गाहा :तस्स य रन्नो मित्तो कुमारभावम्मि कहवि संजाओ।
वेयड्ड-कुंजरावत्त-चित्तभाणुस्स अंगरुहो ।।१७८।। संस्कृत छाया :
तस्य च राज्ञो मित्रं कुमारभावे कथमपि सञ्जातः ।
वैतान्यकुञ्जरावर्तचित्रभानोरङ्गरुहः ।।१७८।। गुजराती अनुवाद :
हवे वैताढ्य पर्वत ने विषे कुंजरावर्त नगर मां चित्रभानु ना पुबनी साथे, ते नरवाहन राजा ने कोइपण कारणे कुमारपणा मां मित्रता थइ. हिन्दी अनुवाद :
वैताढ्य पर्वत के कुंजरावर्त नगर में चित्रभानु के पुत्र के साथ उस नरवाहन राजा की किसी प्रकार मित्रता हो गयी। गाहा :'नामेण भाणुवेगो तेण य पीई-थिरत्तण-निमित्तं ।
दिना नियया भगिणी रयणवई नाम एयस्स ।।१७९।। संस्कृत छाया :नाम्ना भानुवेगस्तेन च प्रीतिस्थिरत्वनिमित्तम् ।
दत्ता निजका भगिनी रलवती नाम्नी एतस्मै ।।१७९।। गुजराती अनुवाद :
परस्पर प्रीतिनी स्थिरता माटे नरवाहन राजास ते भानुवेग ने पोतानी रत्नवती नामनी बहेन ने परणावी. हिन्दी अनुवाद :
परस्पर प्रेम को और स्थिर बनाने के लिए नरवाहन राजा ने भानुवेग के साथ अपनी बहन रत्नवती का विवाह कर दिया। गाहा :
सयलंतेउर-पवरा जाया सा तस्स हियय-वल्लहिया। तीइ सह विसय-सोक्खं अणुहवमाणस्स कालेणं ।।१८०।।
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संस्कृत छाया :
सकलान्तःपुरप्रवरा जाता सा तस्य हृदयवल्लभा ।
तया सह विषयसौख्यमनुभवतः कालेन ।।१८०।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद :
रत्नवती राजा (नरवाहन) ना समस्त अंतःपुर मां मुख्य थइ. राजा ने अत्यंत प्रिय रवी तेनी साथे विषयसुख भोगवता केटलाक समये.. हिन्दी अनुवाद :
रत्नवती नरवाहन राजा के अन्त:पुर की मुख्य रानी हो गयी। राजा को अत्यन्त प्रिय उस रानी के साथ उन्होंने बहुत समय तक सुख भोगा। गाहा :
एक्कच्चिय धूया हं जाया जम्मम्मि मज्झ ताएण।
सुय-जम्मण-अम्महिओ नयरम्मि महोच्छवो विहिओ ।।१८१।। संस्कृत छाया :
एकैव दुहिताऽहं जाता जन्मनि मम तातेन ।
सुतजन्माभ्यधिको नगरे महोत्सवो विहितः ।।१८१।। गुजराती अनुवाद :
हुँ एक ज पुत्री थई. पितास मारा जन्म समये पुत्र-जन्मथी पण अधिक महोत्सव नगरयां को. हिन्दी अनुवाद :___उन्हें मैं एक ही पुत्री हुई। पिता ने मेरे जन्म पर पुत्र जन्म पर जो महोत्सव होता है, उससे भी बड़ा महोत्सव किया। गाहा :
सुरसुंदरि-सम-रूवा एसा इइ चिंतिऊण ताएण ।
सुरसुंदरित्ति नामं पइट्ठियं उचिय-समयम्मि ।।१८२।। संस्कृत छाया :
सुरसुन्दरीसमरूपैषा इति. चिन्तयित्वा तातेन । सुरसुन्दरीति नाम प्रतिष्ठितमुचितसमये ।।१८२।।
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गुजराती अनुवाद :__आ देवांगना सन्मान छपवाळी छे, सम्म विचारी पितास योग्य समये मास 'सुरसुंदरी' र प्रमाणे नाम पाड्यूं. हिन्दी अनुवाद :
यह सोचकर कि यह देवांगना समान रूपवती है, इसलिए पिता ने मेरा नाम सुरसुन्दरी रखा। गाहा :
कमसो पवड्डमाणा कुमारभावम्मि जुवइ जोग्गाओ ।
गाहाविया कलाओ जाया य कमेण तक्कुसला ।।१८३।। संस्कृत छाया :
क्रमशः प्रवर्धमाना कुमारभावे युवतियोग्याः ।
ग्राहिताः कला जाता च क्रमेण तत्कुशलाः ।।१८३।। गुजराती अनुवाद :
__ अनुक्रमे वृद्धि पामती में कुमार पणा मां युवति ने योग्य कलाओ ग्रहण करी अने क्रमपूर्वक तेमां कुशल बनी। हिन्दी अनुवाद :
क्रम से बढ़ती हुई कुमारपने में ही मैं युवायोग्य कलाओं को ग्रहण कर उसमें प्रवीण हो गयी। गाहा :
अविय। वित्ते नट्टे गीए पत्त-च्छेज्जे य हत्थ-कंडेसु । वीणा-सर-लक्खण-वंजणेसु वायरण-तक्केसु ।।१८४।। जाया वियक्खणा हं बुद्धीए सुर-गुरुस्स सारिच्छा ।
एक्कम्मि पए लद्धे सेंसं ऊहेमि लद्धीए ।। १८५।। संस्कृत छाया :
अपि च । वृत्ते नाट्ये गीते पत्रच्छेधे च हस्तकाण्डेषु । वीणास्वरलक्षणव्यञ्जनेषु व्याकरणतर्केषु ।।१८४।।
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जाता विचक्षणाऽहं बुद्ध्या सुरगुरोः सध्क्षा ।
एकस्मिन् पदे लब्धे शेषमूहे लब्ध्या ।।१८५।। गुजराती अनुवाद :
तेम ज वार्ता, नाट्य, गीत, पत्रच्छेद, हस्तकांड (हस्तकला) वीणा, स्वर, लक्षण (शास्त्र), व्यंजन (पाकशास्त्र), व्याकरण, न्यायशास्त्र आदि मां हुं विचक्षण थई, बुद्धिमां बृहस्पति समान गणावा लागी, श्लोक ना एक पद परथी बाकी नो श्लोक लब्धि बड़े पूर्ण की शकवा समर्थ बनी। हिन्दी अनुवाद :
उसमें वार्ता, नाट्य, गीत, पत्रच्छेद, हस्तकला, वीणा, स्वर, लक्षण शास्त्र, पाकशास्त्र, व्याकरण, न्यायशास्त्र आदि में... ____ मैं विचक्षण हो गयी। बुद्धि में बृहस्पति के समान गिनी जाने लगी। श्लोक के एक पद से सम्पूर्ण श्लोक को बताने में समर्थ बन गयी। गाहा :
अंबाए तायस्स य सयलस्स य परियणस्स आणंदं । कुणमाणा संपत्ता कमसो हं जोव्वणं पढमं ।।१८६।। संस्कृत छाया :
अम्बायास्तातस्य च सकलस्य परिजनस्याऽऽनन्दम् । कुर्वन्ती सम्प्राप्ता क्रमशोऽहं यौवनं प्रथमम् ।।१८६।। गुजराती अनुवाद :
माता-पिता तथा सकल परिवार ने आनंद आपती अनुक्रमे हुं नवीन यौवन ने पामी. हिन्दी अनुवाद :
___ माता-पिता और पूरे परिवार को आनन्द देती मैं क्रम से युवा हो गयी। गाहा :
दगुण जोव्वणं मह ताओ चिंताउरो दढं जाओ। ... को अणुरूवो होही भत्ता इह मज्झ धूयाए? ।। १८७।।
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संस्कृत छाया :
छट्वा यौवनं मम तातश्चिन्तातुरो छं जातः ।
कोऽनुरूपो भविष्यति भत्तेह मम दुहितुः ? ।।१८७।। गुजराती अनुवाद :
पिता नी चिंता माझं खीलेलुं यौवन जोइने पिताजी खूब चिंता करवा लाग्या, के 'मारी पुत्री नो उचित अर्ता कोण थशे? हिन्दी अनुवाद :
पिता की चिन्तामेरे खिले यौवन को देखकर पिताजी खूब चिन्ता करने लगे कि मेरी पुत्री के लिए उचित वर कौन होगा? गाहा :
अह अन्नया य सुमई नेमित्ती आगओ तहिं रन्ना । पुट्ठो मह धूयाए को होही भद्द! भत्तारो? ।।१८८।। संस्कृत छाया :
अथाऽन्यदा च सुमति-नैमित्तिक आगतो तदा राज्ञा ।
पृष्टो मम दुहितुः को भविष्यति भद्र ! भर्ता ? ।।१८८।। गुजराती अनुवाद :
हवे कोई समये सुमति नामे स्क नैमित्तिक आव्यो, त्यारे राजास पूछयु हे भद्र! मारी कन्या नो अर्ता कोण थशे? हिन्दी अनुवाद :
किसी समय वहाँ सुमति नाम का एक नैमित्तिक आया। तब उससे राजा ने पूछा हे भद्र! मेरी कन्या का पति कौन होगा? गाहा :
भणियं च तेण नर-वर! विज्जाहर-चक्कवट्टिणो एसा ।
होही सयलंतेउर-पवरा अइवल्लहा देवी ।।१८९।। संस्कृत छाया :
भणितं च तेन नरवर ! विद्याधरचक्रवर्तिन एषा । भविष्यति सकलान्तःपुरप्रवराऽतिवल्लभा देवी ।। १८९।।
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गुजराती अनुवाद :
नैमित्तिके कडूं- 'हे राजन! विद्याधरो ना चक्रवर्तीना सकल अंतःपुर मां श्रेष्ठ तथा अतिवल्लभ देवी थशे.'' हिन्दी अनुवाद :
नैमित्तिक ने कहा, 'हे राजन्! विद्याधरों के चक्रवर्ती के पूरे अन्त:पुर में श्रेष्ठ तथा अतिवल्लभ देवी होगी। गाहा :-व्वयणं सोऊणं मणम्मि आणदिएण ताएण ।
दाऊण भूरि-दव्वं पट्टविओ सुमइ नेमित्ती ।।१९०।। संस्कृत छाया :तद्वचनं श्रुत्वा मनस्यानन्दितेन तातेन ।
दत्त्वा भूरिद्रव्यं प्रस्थापितः सुमतिर्नमित्तिकः ।।१९०।। गुजराती अनुवाद :__नैमित्तिक नुं ते वचन सांधलीने मनमा आनंद पामेला राजार घणुं द्रव्य आपी ने सुमति नैमिात्तक ने विदाय आपी. हिन्दी अनुवाद :
नैमित्तिक का वचन सुनकर मन में आनन्दित राजा ने सुमति नैमित्तिक को अधिक द्रव्य देकर विदा किया। गाहा :
अह अन्नया य अहयं परियरिया बहुविहाहिं चेडीहिं । निय-सहि-यण-संजुत्ता पत्ता पुर-बाहिरुज्जाणे ।।१९१।।। संस्कृत छाया :
अथान्यदा च अहं परिवृता बहुविधाभिश्चेटीभिः । निजसखीजनसंयुक्ता प्राप्ता पुरबाझोधाने ।।१९१।। गुजराती अनुवाद :
प्रियंवदा नुं मिलन हवे कोई समये अनेक प्रकार नी दासीओथी परिवरेली हुं पोतानी सखीओ सहित नगर नी बहार उद्यानमां गई हती।
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हिन्दी अनुवाद :
प्रियंवदा का मिलनएक बार मैं अनेक प्रकार की दासिओं से युक्त अपनी सखिओं सहित बाहर उद्यान में गयी थी। गाहा :
तत्थ य विविह-पगारं कीडंतीए तदेग-देसम्मि । दिट्ठा, पढम-वयत्था विज्जाहर-बालिया एक्का ।।१९२।। संस्कृत छाया :तत्र च विविधप्रकारं क्रीडयन्त्या तदेकदेशे ।
छष्टा प्रथमवयःस्था विद्याधरबालिकैका ।।१९२।। गुजराती अनुवाद :
त्यां विविध प्रकार नी क्रीडा करतां-करतां मे एकांत स्थान मां रहेली नवयौवना एक विद्याधर नी कन्या जोई। हिन्दी अनुवाद :
वहाँ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करती-करती मैं एकान्त स्थान में बैठी एक युवा विद्याधर की कन्या को देखी। गाहा :
परिजविय किंचि मंतं उप्पइउ-मणा पसारइ भुयाओ।
उल्ललइ नह-यलम्मि निवडइ धरणीइ पुणरुत्तं ।।१९३।। संस्कृत छाया :
परिजप्य किञ्चिद् मन्त्रमुत्पतितुमनाः प्रसारयति भुजे ।
उल्ललति नभस्तले निपतति धरण्यां (पुण रुत्त) वारंवारम् ।।१९३।। गुजराती अनुवाद :
ते विद्याधर कन्या कोई मंत्रनो जाप कटी आकाशमा उडवा भुजाओ ऊंची करती हती, ऊपर आकाश मां उछळी फटी-फरी पृथ्वी ऊपर पडती हती! हिन्दी अनुवाद :
वह विद्याधर कन्या किसी मंत्र का जाप करते हुए आकाश में उड़ने के लिए अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर करती थी और आकाश में उछल-उछल कर नीचे जमीन पर गिर पड़ती थी।
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गाहा :तं दटुं विम्हिया हं संपत्ता तीइ अंतियं तुरियं ।
भणिया य मए सुंदरि! का सि तुमं किंच कुणसि इमं? ।।१९४।। संस्कृत छाया :
तां छष्ट्वा विस्मिताऽहं सम्प्राप्ता तस्या अन्तिकं त्वरितम् ।।
भणिता च मया सुन्दरि ! काऽसि त्वं किञ्च करोषीदम् ? ।।१९४।। गुजराती अनुवाद :
तेनी आवी रीत जोई ने मने खूब आश्चर्य थयुं अने तरत तेनी पासे गई. अने में कडं हे सुंदरी! तुं कोण छे? अने आ शुं करे छे? हिन्दी अनुवाद :
उसे इस प्रकार देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ मैं तुरन्त उसके पास गयी और बोली हे सुन्दरी! तुम कौन हो और यह क्या कर रही हो? गाहा :तीए भणियं भद्दे! आयनसु, गिरि-वरम्मि वेयड्डे ।
दक्षिण-सेढीए रयणसंचयं अत्थि वर-नयरं ।।१९५।। संस्कृत छाया :
तया भणितं भद्रे ! आकर्णय गिरिवरे वैताब्ये ।
दक्षिणश्रेण्यां रत्लसञ्चयमस्ति वरनगरम् ।।१९५।। गुजराती अनुवाद :
तेणीर कडं, हे अद्रे! तुं सांभळ! वैताढ्य पर्वत पर दक्षिण श्रेणि मां रत्नसंचय नामर्नु उत्तम नगर छे. हिन्दी अनुवाद :
उसने कहा, 'हे भद्रे! सुनो। वैताढ्य पर्वत के दक्षिण श्रेणी में रत्नसंचय नाम का उत्तम नगर है। गाहा :विज्जाहर-वर-चक्की राया तत्यत्थि चित्तवेगोत्ति । राया य भाणुवेगो अत्थि पुरे कुंजरावते ।। १९६।।
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संस्कृत छाया :विद्याधरवरचक्री राजा तत्रास्ति चित्रवेग इति ।
राजा च भानुवेगोऽस्ति पुरे कुञ्जरावर्ते ।।१९६।। गुजराती अनुवाद :
'त्यां विद्याधरो नो चक्रवर्ती चित्रवेग नाम नो राजा छे. अने कुंजयरावर्तमां भानुवेग नामनो राजा छे.. हिन्दी अनुवाद :
_ वहाँ विद्याधरों का चक्रवर्ती चित्रवेग नाम' का राजा है और कुंजरावर्त में भानुवेग नाम का राजा है। गाहा :
तस्स य दो भगिणीओ सहोयराओ य अईव इट्ठाओ।
पढमा ओ बंधुदत्ता रयणवई नाम बीया उ ।। १९७।। संस्कृत छाया :तस्य च द्वे भगिन्यौ सहोदरे चातीवेष्टे ।
प्रथमा ओ ! बन्युदत्ता रलवती नाम द्वितीया तु ।।१९७।। गुजराती अनुवाद :___ "भानुवेग ने चे सगी बहेनो छे, तेने ते बहेनो अतीव प्रिय छे. तेमां स्क - नाम बंधुदत्ता अने बीजी नु नाम रत्नवती छे.'' हिन्दी अनुवाद :____ भानुवेग की दो सगी बहने हैं। उन्हें वे बहनें बहुत प्रिय हैं, उनमें एक का नाम बंधुदत्ता और दूसरी का नाम रत्नवती है। गाहा :
सा सुयणु! बंधुदत्ता परिणीया चित्तवेग-नरवडणा।
तीए धूया अहयं नामं च पियंवया मज्झ ।।१९८।। संस्कृत छाया :
सा सुतनो ! बन्युदत्ता परिणीता चित्रवेगनरपतिना । तस्या दुहिताऽहं नाम च प्रियंवदा मम ।।१९।।
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गुजराती अनुवाद :
हे सुतनु ! ते बंधुदत्ता चित्रवेग राजा ने परणी छे. तेनी हुं पुत्री छु. अने मारु नाम प्रियंवदा छे.
हिन्दी अनुवाद :
हे सुतनु! वह बन्धुदत्ता चित्रवेग राजा के साथ ब्याही है। उनकी मैं पुत्री हूँ और मेरा नाम प्रियंवदा है।
गाहा :
अन्नावि महा- देवी तायस्स उ अत्थि कणगमालत्ति । तीए य अत्थि पुत्तो नामेणं मयरकेउत्ति । । १९९।।
संस्कृत छाया :
अन्याऽपि महादेवी तातस्य त्वस्ति कनकमालेति । तस्याश्चास्ति पुत्रो नाम्ना मकरकेतुरिति । । १९९ ।।
गुजराती अनुवाद :
तथा मारा पिता ने बीजी पण कनकमाला नामनी मुख्य राणी छे, तेने मकरकेतु नामनो पुत्र छे.
हिन्दी अनुवाद :
तथा मेरे पिता की कनकमाला नाम की एक और मुख्य रानी है जिसका मकरकेतु नाम का पुत्र है ।
गाहा :
सो मह अईव इट्ठो विरहं न सहामि तस्स निमिसंपि । संप पुण ताणं दिन्नाओ तस्स विज्जाओ ।। २०० ।।
संस्कृत छाया :
स ममातीवेष्टो विरहं न सहे तस्य निमेषमपि ।
सम्प्रति पुनस्तातेन दत्तास्तस्मै विद्याः ।। २०० ॥
गुजराती अनुवाद :
ते मकरकेतु मने बहु ज प्रिय छे. निमेष मात्र पण तेना वियोग ने हुं सहन करी शकती नथी, वळी हमणां मारा पिताए तेने विद्याओ आपेली छे.
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हिन्दी अनुवाद :
. वह मकरकेतु मुझे बहुत प्रिय है। क्षण भर के लिए भी मैं उसका वियोग सहन नहीं कर पाती। अभी मेरे पिता ने उसे विद्या दी है। गाहा :विज्जाण साहणत्थं पसत्त-खित्तम्मि सो गओ विजणे ।
जह-भणिय-विहाणेणं साहइ सो तत्थ विज्जाओ ।। २०१।। संस्कृत छाया :विद्यानां साधनाथ प्रशस्तक्षेत्रे स गतो विजने ।
यथामणितविधानेन साधयति स तत्र विद्याः ।।२०१।। गुजराती अनुवाद :
विद्याओ साधवा माटे पवित्र क्षेत्रमा ते एकांत मां गयो छे त्यां ते शास्त्रोक्त विधि प्रमाणे विद्याओ साधे छे. हिन्दी अनुवाद :
- विद्या को साधने के लिए वह एकान्त स्थान में गया है। वहाँ वह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार विद्या की साधना कर रहा है। गाहा :
वट्टइ बीओ मासो विज्जाओ तस्स साहयंतस्स ।
अहमवि तस्स विओगे तरामि नो जाव अच्छेउं ।।२०२।। संस्कृत छाया :वर्तते द्वितीयो मासो विद्यास्तस्य साधयतः ।
अहमपि तस्य वियोगे शक्नोमि नो यावदासितम् ।।२०२।। गुजराती अनुवाद :
विद्या साधतां तेने चीजो महिनो चाले छे हुँ पण तेना वियोग मां रहेवा समर्थ न बनी! हिन्दी अनुवाद :
- विद्या साधते उसका दूसरा महीना है। मैं उसके वियोग में रहने में समर्थ नहीं हो पायी।
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गाहा :
ता पुच्छिऊण जणगं चलिया हं तस्स दरिसण-निमित्तं ।
आगमण-परिस्संता ओइन्ना इत्थ उज्जाणे ।।२०३।। । संस्कृत छाया :तस्मात् पृष्ट्वा जनकं चलिताऽहं तस्य दर्शननिमित्तम् ।
आगमनपरिश्रान्ताऽवतीर्णाऽत्रोधाने ।। २०३।। गुजराती अनुवाद :
तेथी पिताजी ने पूछी ने तेना दर्शन माटे हुँनीकळी अने मार्गथी थाकेली हुं आ उघान मां उतरी छु. | हिन्दी अनुवाद :
इसलिए पिताजी से पूछकर उसके दर्शन के लिए निकली मैं मार्ग में थककर इस उद्यान में उतरी हैं। गाहा :
अहिणव-पढियत्तणओ विज्जाए कहवि मज्झ पयमेगं । पम्हमहन्नाए तेण य न चएमि उप्पइउं ।।२०४।। संस्कृत छाया :
अभिनवपठितत्वतो विद्यायाः कथमपि मम पदमेकम् । (पम्ह) विस्मृतमधन्ययास्तेन च न शक्नोम्युत्पतितुम् ।।२०४।। गुजराती अनुवाद :
नवा अभ्यास ना कारणे ते विद्यार्नु एक पद हुं भूली गई छु तेथी मंदधाग्यवाली हुं आकाशमा उडवा माटे शक्तिमान नथी. हिन्दी अनुवाद :
नये अभ्यास के कारण उस विद्या का एक पद मैं भूल गयी हूँ। इसलिए मंद भाग्य वाली मैं उड़ने में समर्थ नहीं हूँ। गाहा :
तं जं तुमए पुढे तं एवं साहियं सुयणु! तुज्झ। विज्जा-वयस्स भंसे स-ट्ठाणं कहणु पाविस्सं? ।।२०५।।
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संस्कृत छाया :
तद् यत्त्वया पृष्टं तदेतद् कथितं सुतनो ! तव ।
विद्यापदस्य से स्वस्थानं कथं नु प्राप्स्यामि ? ।। २०५ ।।
गुजराती अनुवाद :
हे सुतनो! ते जे पूछयुं तेनो में तने उत्तर आप्यो, हवे विद्यानु विस्मरण थये छते हुं पोताना स्थान मां केवी रीते पहोंचु ?
हिन्दी अनुवाद :
हे देवी! तुमने जो पूछा उसका मैंने उत्तर दिया। अब विद्या भूल जाने के बाद मैं अपने स्थान पर कैसे पहुँचूँ ?
गाहा :
पुणरुत्तंपि हु पढिए संभरइ न मज्झ तं पयं कहवि । उत्तट्ठ - मय- सिलिंबच्छि ! तेणमहमाउला जाया । । २०६ ।।
संस्कृत छाया :
वारंवारमपि खलु पठिते संस्मरति न मम तद् पदं कथमपि । उत्त्रस्तमृग (सिलिंब) शावाक्षि ! तेनाऽहमाकुला जाता ।। २०६ । । गुजराती अनुवाद :
ते विधानुं पद बारंबार बोलवा छतां याद आवतुं ज नथी, हे मृगाक्षि ! तेथी हुं आकुल व्याकुल थइ छं.
हिन्दी अनुवाद :
उस विद्या का पद बार-बार बोलने पर भी याद आता ही नहीं है। हे मृगनयनी ! इस लिए मैं काफी परेशान हूँ ।
गाहा :
तत्तो य मए भणियं पियंवए! अत्थि तीइ विज्जाए ।
एसो कप्पो जं किल साहिज्जइ हंदि ! अन्नस्स ? ।। २०७।।
संस्कृत छाया :
ततश्च मया भणितं प्रियंवदे ! अस्ति तस्या विद्यायाः ।
एष कल्पो यत्किल कथ्यते हन्दि ! अन्यस्य ? ।। २०७ ।।
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गुजराती अनुवाद :
त्यारे मे कह्युं 'हे प्रियंवदे! ते विद्यानो बीजा नी आगल कही शकाय वो जो कल्प होय तो तुं मारी आगल ते मंत्र बोल.
हिन्दी अनुवाद :
तब मैंने कहा, 'हे प्रियंवदे! उस विद्या को दूसरे के आगे यदि कहा जा सकता हो तो मेरे आगे बोलो' ।
गाहा :
भणियं पियंक्याए साहिज्जइ नत्थि कोवि दोसोत्ति ।
जइ एवं ता साहसु मा कहवि पयं उवलभिज्जा ।। २०८ ।।
संस्कृत छाया :
भणितं प्रियंवदया कथ्यते नास्ति कोऽपि दोष इति । यद्येवं तर्हि कथय मां कथमपि पदमुपलभ्येत ।। २०८ ।।
गुजराती अनुवाद :
त्यारे प्रियंवदा बोली, 'ते बोलवामां कोइ पण प्रकार नो देष नथी. पछी में कयुं, जो एम होय तो ते मंत्र तुं बोल, तेनुं पद मने कदाच याद आवी
जाय.
हिन्दी अनुवाद :
तब प्रियंवदा ने कहा, 'इसे बोलने में किसी प्रकार का दोष नहीं है'। तब मैंने कहा कि ऐसा हैं तो वह मन्त्र तूं बोला हो सकता है उसका आगे का पद कदाचित् मुझे याद आ जाय ।
गाहा :
एवं च मए भणिए समाणसिद्धित्ति तीइ भणिऊण ।
ठाऊण कन्न- मूले पढिया सणियं तु सा विज्जा ।। २०९ ।।
संस्कृत छाया :
एवं च मया भणिते समानसिद्धिरिति तस्या भणित्वा । स्थित्वा कर्णमूले पठिता शनैस्तु सा विद्या ।। २०९ ।।
गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे मे कह्युं त्यारे, आपणने बने ने समान लाभ छे. एम कही ते, मारी पासे आवी कान मां धीमे थी ते विद्या बोली.
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हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार मैंने कहा तो 'इसमें तुम्हारा हमारा दोनों का लाभ हैं', ऐसा कहती हुई वह मेरे पास आकर कान में धीरे से वह विद्या बोली ।
गाहा :
तत्तो चितंतीए लहुमेव मए तयं पयं लद्धं ।
लहिऊण ती सिद्धं भवइ इमं किं नु एवंति ? ।। २१० ।।
संस्कृत छाया :
ततश्चिन्तयन्त्या लध्वेव मया तत् पदं लब्धम् ।
लब्ध्वा तस्यै शिष्टं भवतीदं किन्नु एवमिति ? ।। २१० ।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे विचारतां तर ज ते विद्यानुं पद मने आवडी गयुं याद करीने में प्रियंवदा ने कह्युं शुं तारुं भूलाई गयेलुं पद आ छे?
हिन्दी अनुवाद :
ऐसा विचार करते हुए तुरन्त उस विद्या का पद मुझे याद आ गया। याद कर मैंने प्रियंवदा से कहा क्या तुम्हारा भूला हुआ पद यह है ?
गाहा :
वियसिय-मुह कमलाए तीए भणियं तु सुट्टु उवलद्धं । चलणेसु निवडिऊणं भणियं मह होसि तं गुरुणी ।। २११ ।।
-
संस्कृत छाया :
विकसितमुखकमलया तया भणितं तु सुष्ठुपलब्धम् ।
चरणयो- र्निपत्य भणितं मम भवसि त्वं गुर्वी ।। २११ ।।
गुजराती अनुवाद :
विकसित मुखवाळी तेणीस कहूं- 'तमने सालं पद याद आवी गयुं त्यारबाद चरणमां पडी ने कह्युं 'तमे हवे मारा गुरुणी छे
हिन्दी अनुवाद :
तब विकसित मुखवाली उसने कहा, तुम्हें अच्छा पद याद आ गया और उसके पश्चात् मेरे चरणों में गिर कर कहा, 'तुम मेरी गुरुणी' हो ।
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गाहा :
जीए विज्जा दिन्ना, ता मह साहेसु तुज्झ किं नामं.?।
एत्थ पुरम्मी कस्स व धूया तं सुकय-पुन्नस्स? ।। २१२।। संस्कृत छाया :
यया विद्या दत्ता, तर्हि मम कथय तव किं नाम ? ।
अत्र पुरे कस्य वा दुहिता त्वं सुकृतपुण्यस्य ? ।।२१२।। गुजराती अनुवाद :
कारण के तमे विद्या आपी छे. तेथी मने कहो, तमाझं नाम शुं छे? आ नगर ना क्या पुण्यशाळी नी आप पुत्री छो? हिन्दी अनुवाद :
क्योंकि तुमने मुझे विद्या दी है। इसलिए मुझे बताओ तुम्हारा नाम क्या है? इस नगर के किस पुण्यशाली की तुम पुत्री हो? गाहा :
मज्झ सहीए भणियं भहे! नरवाहणस्स नरवइणो। रयणवइ-देवीए धूया सुरसुंदरी एसा ।।२१३।। संस्कृत छाया :
मम सख्या भणितं भद्रे ! नरवाहनस्य नरपतेः ।
रत्नवतीदेव्या दुहिता सुरसुन्दरी एषा ।।२१३।। गुजराती अनुवाद :
त्याटे माटी सखीस कह्यु- हे अद्रे! नरवाहन राजा नी साणी रत्नवती देवी नी पुत्री आ सुरसुंदरी छे. हिन्दी अनुवाद :
तब मेरी सखी ने कहा, 'हे भद्रे! नरवाहन राजा की रानी रत्नदेवी की यह सुरसुन्दरी नामक पुत्री है। पाहा :
अच्चन्मय-गुण-नियरा किं न सुया सयल-लोय-विक्खाया। विज्जाहर-धूयाए घूया सुरसंदरी भहे!? ।।२१४।।
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संस्कृत छाया :
अत्यद्भुतगुणनिकरा किं न श्रुता सकललोकविख्याता । विद्याधरदुहितुर्दुहिता सुरसुन्दरी भद्रे ! ? ।। २१४।।
गुजराती अनुवाद :
हे भद्रे ! विशिष्ट गुण समुदाय थी युक्त सकललोकमां प्रख्यात तथा विद्याधर नर पुत्री नी पुत्री स्वी आ सुरसुंदरी कन्याने शुं तुं नथी जाणती?
हिन्दी अनुवाद :
हे भद्रे ! विशिष्ट गुणसमूह से युक्त पूरे विश्व में प्रसिद्ध तथा विद्याधर की पुत्री की पुत्री ऐसी सुरसुन्दरी कन्या को तूं क्या नहीं जानती हो ?
गाहा :
एवं तीए वयणं सोऊणं हरिस बाह- पुण्णच्छी । गहिऊण मम कंठ पियंवया भणिउमाढत्ता ।। २१५ । ।
संस्कृत छाया :
एवं तस्या वचनं श्रुत्वा हर्षबाष्पपूर्णाक्षी ।
गृहीत्वा मम कण्ठे प्रियंवदा भणितुमारब्धा ।। २१५।।
गुजराती अनुवाद :
आ प्रमाणे तेणीना वचन सांभळीने हर्षाश्रुंथी पूर्ण नेत्रवाळी प्रियंवदा मारा गळे वळगी ने कहेवा लागी !
हिन्दी अनुवाद :
इस प्रकार उसका वचन सुनकर खुशी के आँसुओं से पूर्ण नेत्रवाली प्रियंवदा मेरे गले लगकर कहने लगी ।
गाहा :
अंबा मज्झ पुव्विं वज्जरियं आसि, मज्झ लहु- भगिणी । भूमिचर - मित्तस्स उ रन्नो मह भाउणा दिन्ना ।। २१६।।
संस्कृत छाया :
अम्बया मम पूर्वं कथितमासीत्, मम लघुभगिनी 1 भूमिचरमित्रस्य तु राज्ञो मम भ्रात्रा दत्ता ।। २१६ ।।
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गुजराती अनुवाद :
मारी माता मने पहेलां कह्युं हतु के मारी नानी बेन ने मारा भाईए (भूचर) राजाना मित्र एवा भानुवेग राजा ने आपेली छे.
हिन्दी अनुवाद :
मेरी माता ने पहले मुझसे कहा था कि मेरी छोटी बहन मेरे भाई (भूचर) राजा के मित्र, ऐसे भानुवेग राजा को दी गयी है ।
गाहा :
ता माऊ - सिया-धूया भगिणी तं होसि मज्झ चंद- मुहि! | इय जंपिऊण दिन्नं तीए मह साइयं गरुयं । । २१७ । । संस्कृत छाया :
तस्मात् मातृष्वसृदुहिता भगिनी त्वं भवसि मम चन्द्रमुखि ! । इति जल्पित्वा दत्तं तया मम स्वागतं गुरुकम् ।। २१७।।
गुजराती अनुवाद :
तेथी हे चंद्रमुखी! तुं तो मारी मासी नी दीकरी बहेन थाय छे. एम कहीने तेणी मारो बहु सत्कार कर्यो.
हिन्दी अनुवाद :
इसलिए हे चन्द्रमुखी! तूं तो मेरी मौसी की लड़की या मौसेरी बहन हो, ऐसा कहकर उसने मेरा बहुत सत्कार किया।
गाहा :
तत्तो य मए भणियं आगच्छसु भगिणि! मज्झ गेहम्मि | बंधु-जण- वच्छलाए अंबाए दंसणं कुणसु ।। २१८ ।।
संस्कृत छाया :
ततश्च मया भणितमागच्छ भगिनि ! मम गेहे ।
बन्धुजनवत्सलाया अम्बाया दर्शनं कुरु ।। २१८ ।।
गुजराती अनुवाद :
त्यार पछी में कयुं- 'हे बहेन ! आजे तुं अमारा घरे चाल, अने बंधुजन ने वत्सल एवी मारी माता नुं दर्शन कर ।
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हिन्दी अनुवाद :
तब मैं कहा, हे बहन! आज तुम मेरे घर चलो और मेरे भाइयों की वत्सला
मेरी माँ का दर्शन करो।
गाहा :
भणियं पियंक्याएं पिक्खिस्सं माउसिं पडिनियत्ता । कारण- वसेण संपइ गच्छिस्सं भाउय- समीवं ।। २१९ ।।
संस्कृत छाया :
भणितं प्रियंवदया प्रेक्षिष्ये मातृष्वसारं प्रतिनिवृत्ता ।
कारणवशेन सम्प्रति गमिष्यामि भ्रातृसमीपम् ।। २१९ ।।
गुजराती अनुवाद :
प्रियंवदास कह्युं - 'हमणां खास कारणने लीधे हूं मारा भाई नी पासे जउं छं पाछा फरतां हूं मासीने मलीश !
हिन्दी अनुवाद :
प्रियंवदा कथन
अभी विशेष कारण को लेकर मैं अपने भाई के पास जा रही हूँ। वापस लौटते वक्त मैं मौसी से मिलूंगी।
गाहा :
इत्यत्थे निब्बंधं मा काहिसि उच्छुगा अहं इण्हिं ।
तत्तो य मए भणियं एवंति य किंतु पुच्छामि ।। २२० ।।
संस्कृत छाया :
अत्रार्थे निर्बन्धं मा कार्षीः उत्सुकाऽहमिदानीम् ।
ततश्च मया भणितमेवमिति च किन्तु पृच्छामि ।। २२० ।।
गुजराती अनुवाद :
प्रियंवदा कथन
आ विषय मां मने आग्रह करशो नहि कारणके भाईने मळवा हुं खुब उत्सुक घुं त्यारे मे कह्युं ठीक छे, पण हुं कंइक पूछवा मांगु छु. हिन्दी अनुवाद :
इस विषय में मुझसे आग्रह मत करना क्योंकि भाई से मिलने के लिए मैं खूब उत्सुक हूँ। तब मैंने कहा ठीक है लेकिन मैं कुछ पूछना चाहती हूँ।
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गाहा :
किंचिवि तं मह साहसु, तीए भणियं तु पुच्छ, साहेमि । भणियं च मए भद्दे ! कक्खाए गोविए एत्थ ? ।। २२१ ।। चित्त- पडे किं अच्छइ लिहियं, चित्तम्मि कोउगं मज्झ । ता दंसिज्जउ एवं जइ जोग्गं दंसिउं भगिणि! ।। २२२ । । संस्कृत छाया :
"
किञ्चिदपि त्वं मम कथय, तया भणितं तु पृच्छ, कथयामि । भणितं च मया भद्रे ! कक्षायां गोपितेऽत्र ? ।। २२१ ।।
चित्रपटे किमास्ते लिखितं?, चित्ते कौतुकं मम । तस्मात् दर्शयतामेतद् यदि योग्यं दर्शयितुं भगिनि ! ।। २२२ ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद :
तूं तेनो जवाब आप, 'तेणे कघुं' तमे पूछो, हुं जवाब आपीश, त्यारे में क. हे भद्रे ! तारी कांख (पडखा) मां छूपावेला चित्रपटमां कोनु चित्र छे? मने ते जोवानुं विशेष कौतुक छे. माटे हे भगिनी! जो ते चित्र बताववा योग्य होय तो तुं मने बताव.
हिन्दी अनुवाद :
तुम उसका उत्तर दो। तब उसने कहा तुम पूछो मैं उत्तर दूँगी। मैंने पूछा हे भद्रे ! तुम्हारी कांख में छुपाये चित्रपट में किसका चित्र है, मुझे उसे देखने की विशेष इच्छा है, इसलिए हे बहन ! यदि वह चित्र दिखाने लायक हो तो मुझे दिखाओ।
गाहा :
वियसिय मुहाइ तीए पसारिडं दंसिओ पडो अमः ।
भणियं च तीइ एसो भए स- हत्थेण लिहिउत्ति ।। २२३ ।।
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संस्कृत छाया :
विकसितमुखया तया प्रसार्य दर्शितः पटोऽस्माकम् ।
भणितं च तया एष मया स्वहस्तेन लिखित इति ।। २२३ । ।
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गुजराती अनुवाद :
विकसित थयेला मुखवाळी प्रियंवदास चित्रपट खुल्लो कटी मने बाताव्यो अने कह्यु 'आ चित्रपट में मारा हाथे चित्रेल छे'! हिन्दी अनुवाद :
तब विकसित मुखवाली प्रियंवदा ने चित्रपट खोलकर मुझे दिखाया और बोली- इस चित्र में जो है वह मेरे हाथ से बना है। . गाहा :तत्थ य पडम्मि लिहियं दट्टणमणंग-संनिभं तरुणं ।
अमएणव सित्ता हं जाओ हिययस्स आणंदो ।। २२४।। संस्कृत छाया :तत्र च पटे लिखितं छट्वाऽनङ्गसंनिभं तरुणम् ।
अमृतेनेव सिक्ताऽहं जातो हृदयस्याऽऽनन्दः ।।२२४।। गुजराती अनुवाद :
सुरसुंदरी मूर्छ ते चित्रपटमां कामदेव समान युवानना चित्रने जोइने जाणे अमृत थी सिंचायेली न होय तेम मारा हृदयमां आनंद थयो. हिन्दी अनुवाद :
_ सुरसुन्दरी मूर्छाउस चित्रपट में कामदेव समान युवक का चित्र को देखकर जैसे अमृत से सींचा गया हो, ऐसा हृदय में आनन्द हुआ।
गाहा:
चिर-परिचियव्व दिट्ठो दिट्ठी आणंद-बाह-पडिहत्था ।
जाया सव्व-सरीरे समुट्ठिओ बहल-रोमंचो ।।२२५।। संस्कृत छाया :
चिरपरिचित इव छटो, इष्टरानन्दबाष्पपडिहत्था(पूर्णा) ।
जाता सर्वशरीरे समुत्थितो बहलरोमाञ्चः ।। २२५।। गुजराती अनुवाद :
जाणे घणा समयनो परिचित न होय तेम ते चित्रमा रहेला युवान ने जोयो, दृष्टि हश्रुिथी भाइ गइ - सर्व शरीर खूब ज रोमांचित थयु.
गुजराती अणा समयताइ गइ
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हिन्दी अनुवाद :
जैसे बहुत समय से कोई परिचित न हो ऐसे उस युवक को देखा। आँखों में आँसू भर गए, पूरा शरीर रोमांचित हो गया। गाहा :
फुरफुरियं अहरेणं उल्लसियं भुय-लयाहिं सहसत्ति ।
ऊससियं च थणेणं थरहरियं ऊरु-जुयलेणं ।। २२६।। संस्कृत छाया :पोस्फुरितमघरेणोल्लसितं भुजलताभ्यां सहसेति ।
उच्छ्वसितं च स्तनेन (चरहरियं) कम्पितं अरुयुगलेन ।।२२६।। गुजराती अनुवाद :
अधरोष्ठ फरकवा लाग्या, सहसा बाहु लताओ उल्लसित थइ. स्तनयुग्म उछळवा लाग्या, छने साथळ कंपवा लाग्या. हिन्दी अनुवाद :
होठ फड़कने लगे। अचानक दोनों बाहू उल्लसित हो गए, स्तनद्वय उछलने लगे, दोनों जांघे काँपने लगीं। गाहा :
सुत्ताव मुच्छिया इव मत्ता इव विगय-चेयणा जाया।
सोहग्ग-मंदिरं तं दद्वणं चित्त-लिहियंपि ।। २२७।। संस्कृत छाया :
सुप्तेव मूर्छितेव मत्तेव विगतचेतना जाता ।
सौभाग्यमन्दिरं तं छट्वा चित्रलिखितमपि ।। २२७।। गुजराती अनुवाद :
चित्रपटमां आलेखेल सौभाग्यना मंदिर समान ते युवानने मात्र जोईने पण सुप्त-मूर्छित अने मोहितनी जेम हुं चेतना रहित थई। हिन्दी अनुवाद :
चित्रित सौभाग्य के मन्दिर के समान उस युवक को देखकर जैसे मोहित होकर नींद में सोए हुए के समान चेतना रहित हो गयी।
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गाहा :
नाऊण मज्झ भावं बसंतियाए सहीइ संलत्तं ।
को एस तए लिहिओ पियंवए! लोयणाणंदो? ।। २२८।। संस्कृत छाया :
ज्ञात्वा मम भावं वसंतिक्या सख्या संलपितम् ।
क एष त्वया लिखितः प्रियंवदे ! लोचनानन्दः ? ।।२२८।। गुजराती अनुवाद :
मारा भावने जाणी ने मारी सखी वसंतिकास पूछयु- हे प्रियंवदे! नेत्रो ने आनंद आपनार आ कोनुं चित्र ते आलेख्युं छे? हिन्दी अनुवाद :
मेरे भाव को समझकर वसंतिका ने पूछा हे प्रियंवदे! आँखों को सुख देने वाले किसका चित्र तुमने बनाया है? गाहा :
भणियमह कुमुइणीए वसंतिए! किं तुहित्थ पुच्छाए? ।
कामिणि-हिययाणंदो लिहिओ रइ-विरहिओ मयणो ।। २२९।। संस्कृत छाया :
भणितमथ कुमुदिन्या वसंतिके ! किं तवात्र पृच्छया ?।
कामिनीहृदयाऽऽनन्दो लिखितो रतिविरहितो मदनः ।।२२९।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे कुमुदिनी बोली, हे वासंतिके? ताटे आ बाबतमां पूछवानी शी जफर छे? कामिनी ना हृदय ने आनंददायक रति रहित कामदेव चित्रेलो
हिन्दी अनुवाद :
. तब कुमुदिनी बोली हे वसंतिके! तुम्हें इस विषय में पूछना क्या जरूरी है? कामिनी के हृदय को आनन्द देने वाले रति रहित कामदेव का चित्र बनाया है।
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गाहा :
ईसिं हसिऊण तओ सिरिमइयाए सहीए संलत्तं । एत्तिय कालं रइ - विरहिओ इमो आसि पंचसरो ।। २३० ।। संपइ रईए सहिओ एसो मयणोत्ति किं न मुलएसि ? । पयडा रईवि एसा आसन्ना चेव एयस्स ।। २३१ ।। संस्कृत छाया :
ईषद्धसित्वा ततः श्रीमत्या सख्या संलपितम् । एतावत्कालं रतिविरहितोऽयमासीत् पञ्चशरः ।। २३० ।। सम्प्रति रत्या सहित एष मदन इति किं न पश्यसि ? । प्रकटा रतिरपि एषाऽऽसन्ना चैवैतस्य ।। २३१।।
गुजराती अनुवाद :
कइंक हास्य करीने श्रीमती सखीए कघुं- 'अत्यार सुधी आ कामदेव रतिथी वियुक्त हतो. हमणां आ कामदेव रति सहित थयो ते शुं तुं नथी जोती? साक्षात् आ रतिपण आनी समीपमां ज छे.
हिन्दी अनुवाद :
कुछ हंसकर श्रीमती सखी ने कहा, आज तक यह कामदेव रति से अलग था। आज यह रति सहित हुआ क्या तुम यह नहीं देख रही हो? साक्षात् यह रति इनके समीप में ही है।
गाहा :
तं सोउं सव्वाहिं सहत्थ - तालं तु पहसिउं भणियं ।
एवं एवं सिरिमइ ! सम्मं हि विणिच्छियं तुमए ।। २३२ ।।
संस्कृत छाया :
तच्छ्रुत्वा सर्वाभिः सहस्ततालं तु प्रहस्य भणितम् ।
एवमेतद् श्रीमति ! सम्यग् हि विनिश्चितं त्वया ।। २३२ ।।
गुजराती अनुवाद :
ते वचन सांभळी ने सर्व सखीओ हाथ नी ताली दइ हास्य पूर्वक बोली हे श्रीमती ! आ सत्य ज छे. तारो निर्णय योग्य ज छे.
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हिन्दी अनुवाद :
यह बात सुनकर सभी सखियाँ हाथ से ताली बजाकर हंसती हुई बोलीं, हे श्रीमती ! यह सत्य है, आपका निर्णय योग्य ही है।
गाहा :
अह लद्ध - चेयणाए विन्नाया हंति जाय- लज्जाए । आगारं विणिगूहिय सकोवमेवं मए भणियं ।। २३३।।
संस्कृत छाया :
अथ लब्धचेतनया विज्ञाताऽहमिति जातलज्जया ।
आकारं विनिगूह्य सकोपमेवं मया भणितम् ।। २३३।।
गुजराती अनुवाद :
तेटला मां प्राप्त थयेली चेतनावाळी रवी में तेमना उपहास नुं कारण जाण्युं, उत्पन्न- थयेली लज्जावाळी में आकार ने छुपावी कोप सहित कां. हिन्दी अनुवाद :
इतने में जैसे मुझे चेतना आ गई हो, उसके उपहास का कारण जानकर, लज्जावाली मैं आकार को छुपाते हुए क्रोध में बोली।
गाहा :
हंभो ! अलिय - पलाविणि! दंसणमित्तंपि नत्थि एएण । कत्तो आसन्नत्तं जेण कया हं रई तुमए ? ।। २३४।।
संस्कृत छाया :
हं भो ! अलीकप्रलापिनि ! दर्शनमात्रमपि नास्त्येतेन । कुत आसन्नत्वं येन कृताऽहं रतिस्त्वया ? ।। २३४।। गुजराती अनुवाद :
हे असत्य बोलनारी सखी! एनुं दर्शन मात्र पण मने नथी थयुं, तो नुं समीपपणुं क्यां थी ? के जेथी रति तरीके ते कल्पना करी? हिन्दी अनुवाद :
हे असत्य बोलने वाली सखी! इनका दर्शन मात्र भी मुझे नहीं हुआ है तो इनके समीप कहाँ से गई कि जिससे तुमने रति के रूप में कल्पना की।
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गाहा :
तीए भणियं मा सहि! रूसस, दिम्मि जेण एयम्मि ।
चित्तम्मि रई जाया तेण रई तं मए भणिया ।।२३५।। संस्कृत छाया :
तया भणितं मा सखि ! रुष्य छटे येनैतस्मिन् । चित्ते रति जर्जाता तेन रतिस्त्वं मया भणिता ।। २३५ ।। गुजराती अनुवाद :
तेणीस कह्यु- 'हे सखी! कोप न कर, आ चित्रपट जोये छते तारा चित्तमां आनंद थयो, तेथी में तने रति कही छे. हिन्दी अनुवाद :
उसने कहा हे सखी! क्रोध न कर यह चित्रपट देखकर तुम्हें हृदय में आनन्द हुआ इसलिए मैंने तुम्हें रति कहा। . गाहा :
भणियं च मए किं वा असमंजस-भासिणीहिं एयाहिं । ..... ताव य, पियंवए! कहसु एस को वा तए लिहिओ? ।। २३६।। संस्कृत छाया :
भणितं च मया किं वाऽसमञ्जसभाषिणीभिरेताभिः । तावच्च, प्रियंवदे ! कथय एष को वा त्वया लिखितः ? ।।२३६।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे में कह्यु- हे प्रियंवदे! गमे तेम इच्छा प्रमाणे बोलनार ते मारी सखीओ बड़े शुं? पहेलातो तुं ज कहे आ चित्रपटमां कोनुं चित्र आलेखेलु
हिन्दी अनुवाद :
तब मैंने कहा, 'हे प्रियंवदे! अपनी इच्छा से बोलने वाली मेरी 'सखियों का क्या'? पहले तो बता तूंने इस चित्रपट्ट में किसका चित्र उकेरा है? गाहा :
भणियं पियंवयाए भाया मह एस मयरकेउत्ति। रुवेण जो अणंगो सूरो चाई कला-कुसलो ।।२३७।।
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संस्कृत छाया :
भणितं प्रियंवदया भ्राता ममैष मकरकेतुरिति । रूपेण योऽनङ्गः शूरस्त्यागी कलाकुशलः ।। २३७।। गुजराती अनुवाद :
प्रियंवदा बोली, आ मकरकेतु नामे मारो ध्याई छे. छप थी ते कामदेव समान छे, शूरवीर, त्यागी तथा कलाओमां कुशल छे. हिन्दी अनुवाद :
प्रियंवदा बोली, 'यह मकरकेतु नाम का मेरा भाई है।' रूप में वह कामदेव समान है। वह शूर-वीर त्यागी तथा कलाओं में कुशल है। गाहा :
कइयावि चित्तफलए कइयावि पडम्मि तस्स पडिरूवं । लिहिऊण मए अप्या विणोइओ एत्तियं कालं ।। २३८।। संस्कृत छाया :
कदाचिदपि चित्रफलके कदाचिदपि पटे तस्य प्रतिरूपम् । लिखित्वा मयाऽऽत्मा विनोदित एतावन्तं कालम् ।। २३८।। गुजराती अनुवाद :
क्यारेक पाटीया ऊपर, क्यारेक वस्त्र ऊपर तेनुं चित्र आलेखीने आटलो समय में मारा आत्मा ने विनोद कराव्यो. हिन्दी अनुवाद :
__ कभी पट के ऊपर, कभी कपड़े के ऊपर उसका चित्र बनाकर इतने समय तक मैंने मेरी आत्मा को विनोद कराया। गाहा :
संपइ पुण असमत्था सहिउँ विरहं इमस्स चलिया हं।
ता भगिणि! मुंच वच्चामि जेण पासम्मि तस्सेव ।। २३९।। संस्कृत छाया :
सम्प्रति पुनरसमर्था सोढुं विरहमस्य चलिताऽहम् । तस्माद् भगिनि ! मुञ्च व्रजामि येन पार्श्वे तस्यैव ।। २३९।।
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गुजराती अनुवाद :
हवे तेना विरह ने सहवा असमर्थ हुं तेनी पासे जवा नीकळी छु. माटे हे भगिनी! मने रजा आप, जेथी तेनी पासे जाउं. हिन्दी अनुवाद :
अब मैं उसके विरह को सहन करने में असमर्थ हूँ। उसके पास जाने के लिए निकली हूँ। इसलिए हे बहन! मुझे जाने दे जिससे मैं उसके पास जा सकूँ। गाहा :
भणियं च सिरिमईए एवं जो गरुय-गुण-गणावासो ।
सो तुह भायाऽवस्सं दह्रव्यो होइ अम्हंपि ।। २४०।। संस्कृत छाया :
भणितं च श्रीमत्या एवं यो गुरुगुणगणावासः ।
स तव भ्राताऽवश्यं दृष्टव्यो भवत्यस्माकमपि ।। २४०।। गुजराती अनुवाद :
त्यारे श्रीमती बोली- आ प्रमाणे होय तो श्रेष्ठ गुण समूहवाळो जे तारो भाई छे. ते अवश्य अमारे जोवो जोइस. हिन्दी अनुवाद :
ऐसी बात है तो श्रेष्ठ गुणसमूहवाला जो तुम्हारा भाई है, उसे हमें अवश्य देखना चाहिए।
गाहा:
चित्त-गएणवि ताव य आणंदो सहि-जणस्स संजणिओ।
इण्डिं पच्चक्खंपि हु दंसिज्जओ अमय-भूओ सो।।२४१।। संस्कृत छाया :चित्रगतेनाऽपि तावच्चाऽऽनन्दः सखिजनस्य सञ्जनितः ।
इदानी प्रत्यक्षमपि खलु दर्शनीयोऽमृतभूतः सः ।। २४१।। गुजराती अनुवाद :
चित्रपटमा आलेखेल मात्र तेना दर्शनथी सखीजन ने आनंद पेदा थयो तो हवे अमृत समान ते कुमार प्रत्यक्ष दर्शनीय छे.
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हिन्दी अनुवाद :
चित्रपट में बनाए चित्र के दर्शन से सखीजनों को आनन्द हुआ तो अमृत समान वह कुमार तो प्रत्यक्ष दर्शनीय है।
गाहा :
विहसिय पियंवयाए भणियं मा सहि ! समुच्छुगा होसु । विज्जाओ ताव साहउ पच्छा सव्वं करिस्सामो ।। २४२ ।। संस्कृत छाया :
विहस्य प्रियंवदया भणितं मा सखि ! समुत्सुका भव । विद्यास्तावत् साधयतु पश्चात् सर्वं करिष्यामः ।। २४२ । । गुजराती अनुवाद :
प्रियंवदार हसीने कां- हे सखि ! तुं उत्सुक न था! हमणा तेने विद्या साधवा दो, पछी सर्व कार्य सिद्ध करीशु.
हिन्दी अनुवाद :
प्रियंवदा ने हँसकर कहा, 'हे सखी? तुम उत्सुक मत हो । अभी उसे विद्या साधने दो, बाद में सारे कार्य सिद्ध करेंगे।
गाहा :
अविय ।
जइ ताव कावि हु अहं ताऽवस्सं तस्स संगमेण सुहं । कायव्वं भगिणीए अणुकूलो जइ विही होही ।। २४३।। संस्कृत छाया :
अपि च ।
यदि तावत् काऽपि खल्वहं तर्हि अवश्यं तस्य सङ्गमेन सुखम् । कर्तव्यं भगिन्याऽनुकूलो यदि विधिर्भविष्यति ।। २४३।।
गुजराती अनुवाद :
वळी जो त्यारबाद भाग्य अनुकूल हशे तो अवश्य तेना समागम बड़े भगिनी ने सुखी करीश.
हिन्दी अनुवाद :
यदि इसके बाद भाग्य अनुकूल होगा तो अवश्य उसके मिलन से बहन को सुखी करूंगी।
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गाहा :
भणियं च मए ताव य एयाओ हवंतु अलिय-भणिरीओ। पिय-सहि! तुमंपि संपइ असमंजस-भासिणी जाया ।। २४४।। संस्कृत छाया :
भणितं च मया तावच्चैता भवन्तु अलीकभणित्र्यः । प्रियसखि ! त्वमपि सम्प्रति असमञ्जसभाषिणी जाता ।। २४४।। गुजराती अनुवाद :. त्यारे में कह्यु, हे प्रिय सखी! आ सर्व सखीओ तो मिथ्या बोलनारी छे. परंतु तुं पण हमणां विपरीत (उपहास वचन) बोलनारी थइ. हिन्दी अनुवाद :
तब मैंने कहा, 'हे प्रिय सखी! ये सभी सखियाँ तो झूठ बोलने वाली है परन्तु तूं भी अभी उल्टा (उपहास) बोलने वाली हो गयीं। गाहा :
अइनिउणं किल चित्तं अम्हे कोऊहलेण पुलएमो।
तुम्हे सढ-हिययाओ अन्नह सव्वं वियप्पेह ।।२४५।। संस्कृत छाया :
अतिनिपुणं किल चित्रं वयं कुतूहलेन पश्यामः ।
यूयं शठहृदयाऽन्यथा सर्व विकल्पयत ।। २४५।। गुजराती अनुवाद :
___ अमे तो अति सुंदर आ चित्रने कुतूहल मात्र थी जोइस छीस. ज्यारे शठ हृदयवाळा तमे जूठी ज कल्पना करो छो. हिन्दी अनुवाद :
हम तो अति सुन्दर इस चित्र को कुतूहल मात्र के कारण देख रहे हैं जबकि शठ हृदयवाली तुम झूठी कल्पना कर रही हो। गाहा :
अह कुमुइणीए, भणियं एवं एयंति नत्थि संदेहो । ता सहि! तुमंपि एयं चित्तं लिहिउं समन्मससु ।। २४६।।
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संस्कृत छाया :
अथ कुमुदिन्या भणितमेवं एतदिति नास्ति सन्देहः ।
तस्मात् सखि ! त्वमपि एतत् चित्रं लेखितुं समभ्यस्य ।। २४६ ।। गुजराती अनुवाद :
ते सांभली कुमुदिनी बोली, 'हा ते प्रमाणे छे. एमां कोई शंका नथी, माटे हे सखी । तुं पण आ प्रमाणे चित्र दोवा प्रयत्न कर.
हिन्दी अनुवाद :
यह सुनकर कुमुदिनी बोली, 'हाँ उसके ही मुताबिक है, इसमें कोई शंका नहीं है।' इसलिए हे सखी! तूं भी इसी प्रकार चित्र बनाने का प्रयत्न करो।
गाहा :
अप्पे पडं एयं प्रियंवए! जेण चित्तमब्भसइ ।
तुह भगिणी, अह तीए समप्पिओ कुमुइणीइ पडो ।। २४७ ।।
संस्कृत छाया :
अर्पय पटमेतत् प्रियंवदे ! येन चित्रमभ्यस्यति ।
तव भगिनी, अथ तया समर्पितः कुमुदिन्यै पटः ।। २४७ ।।
गुजराती अनुवाद :
हे प्रियंवदे! आ चित्रपट एने आपी दे, जेथी चित्र दोरवानो अभ्यास करे, त्यारे तेणी चित्रपट कुमुदिनी ने आप्यो.
हिन्दी अनुवाद :
हे प्रियंवदे! यह चित्रपट इन्हें दे दो जिससे यह चित्र बनाने का अभ्यास करें। तब उसने कुमुदुनी को चित्रपट दिया ।
गाहा :
संभासिउ ताहिं पियंवया सा तओ ममं उप्पइया नहग्गे । सहीहि जुत्ता बहु- केलियाहिं अहंपि पत्ता निय-मंदिरम्मि ।। २४८ । ।
संस्कृत छाया :
सम्भाष्य तदा प्रियंवदा सा ततो मामुत्पतिता नभोऽग्रे ।
सखीभिर्युक्ता बहुकेलिकाभिरहमपि प्राप्ता निजमन्दिरे ।। २४८ ।।
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गुजराती अनुवाद :
पछी ते प्रियंवदा मारी साथे वात करी आकाश मार्गे चाली गइ. हुं पण अनेक प्रकार नी क्रीडा करती सखीओ साधे पोताना आवासे गइ। हिन्दी अनुवाद :
उसके बाद प्रियंवदा मेरे साथ बात कर आकाश मार्ग से चली गई। मैं भी अनेक प्रकार की क्रीड़ा करती हुई सखियों के साथ अपने घर चली आई।
गाहा :
साहु- धणेसर - विरइय-सुबोह- गाहा - समूह - रम्माए । रागग्ग-दोस - विसहर - पसमण - जल- मंत- भूयाए ।। २४९ । । एसोवि परिसमप्पड़ पियंवया दंसणोत्ति नामेण ।
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सुरसुंदरी - कहाए एक्कारसमो परिच्छेओ ।। २५० ।।
एकादशः परिच्छेदः समाप्तः
संस्कृत छाया :
साधुधनेश्वरविरचितसुबोधगाथासमूहरम्यायाः
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रागाग्निद्वेषविषधरप्रशमनजलमन्त्रभूतायाः ।। २४९।। एषोऽपि परिसमाप्यते प्रियंवदादर्शन इति नाम्ना । सुरसुन्दरीकथायाः एकादशमः परिच्छेदः ।। २५० ।। ।। एकादशः परिच्छेदः समाप्तः । ।
गुजराती अनुवाद :
धनेश्वरमुनि विरचित सुबोधगाथा ना समूह थी मनोहर राग रूप अभि तेम ज द्वेष रूप सर्प ना प्रशमन माटे जल तथा मंत्ररूप प्रियंवदा दर्शन' नाम नो सुरसुंदरी कथानो अग्यारमो परिच्छेद समाप्त थयो (पूर्ण थयो) हिन्दी अनुवाद :
धनेश्वर मुनि विरचित सुबोध गाथा के समूह रूप मनोहर रागरूप अग्नि और उसमें द्वेषरूप सर्प को समाप्त करने के लिए जल तथा मन्त्ररूप 'प्रियंवदा दर्शन' नामक सुरसुन्दरी कथानक का ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।
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________________ भक्तामर यंत्र-४ Bhaktamara Yantra - 4 बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ ! नै नमो भगवते पानमा कालाका मो परमोहि मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्? // 3 // स्वयंरूपाय नमः सिद्धिदायकै क्लाक्ला जिणाणा" परमतत्त्वार्थ भावकार्यसिद्धये स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् / / सर्वसिा apile Resource K SIK -nejbala Phe PANE ऋद्धि - ॐ हीं अहँ णमो सव्वोहिजिणाणं। मंत्र - ऊँ हीं थीं क्लीं जलदेवताभ्यो नमः स्वाहा। प्रभाव - जाल में मछलियाँ नहीं फँसती हैं तथा जल का भय दूर होता है। Spreading of non-violence and removal of fear of water. Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5