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सम्पादकीय वर्षावास का समय आसन्न है। यह काल धर्माराधना के लिये सर्वोत्तम माना गया है। धर्माराधना और तप:साधना के लिये वार्षावास, चातुर्मास का समय सर्वथा अनुकूल माना जाता है। २७ नक्षत्रों में वर्षाकाल के १० नक्षत्र और १२ महीने में चातुर्मास के ४ मास ऋतुचक्र की धुरी हैं। श्रावण-भाद्रपद के दो महीनों में एक ही स्थान पर निवास करने को जैन आगमों में वासावास कहा गया है। आसोज और कार्तिक मास मिलकर चातुर्मास के चार मास होते हैं। चातुर्मास की यह परम्परा वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराओं में पाई जाती है। परिव्राजक, ऋषि, श्रमण, निग्रंथ एक स्थान पर इस अवधि में रुक कर धर्माराधना करते हैं। जैन परम्परा में आज भी चातुर्मास की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीनों तक पादविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते हैं। वैसे तो चातुर्मास में हिंसा का वर्जन, इन्द्रियों का संयम और धर्माराधना करने का विधान सम्पूर्ण भारतीय संस्कृत में व्याप्त है किन्तु जैन परम्पस में इसका विशेष महत्त्व है। जैन परम्परा में चातुर्मास या वर्षावास के दो प्रमुख उद्देश्य माने गये हैं- (१) जीवदया अथवा जीव विराधना व हिंसा से बचाव करना तथा, (२) धर्माराधना या व्रत आराधना। चूंकि वर्षाकाल का समय सूक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर अनन्तानन्त जीवों तथा अनेक प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति का समय होता है, इसलिये श्रमण के लिये यह विधान किया गया कि ऐसे समय में जीवों की हिंसा से बचने के लिये वह इधर-उधर विहार, गमनागमान, यात्रा न करे- 'वासावासे गामाणुगामं दूइज्जेज्जा'। धर्माराधना के लिये यह समय इसलिये अनुकूल है क्योंकि इसमें वर्षा के कारण भूमि की उष्णता कम हो जाती है, वर्षा की रिमझिम से पाचनशक्ति कमजोर पड़ जाती है, न अधिक भूख लगती है न अधिक प्यास। ऐसे वातावरण के कारण यह ऋतु तपस्या के लिये अत्यन्त अनुकूल होती है। यही कारण है कि श्रावण-भादों में जैन समाज में जितनी तपस्या होती है उतनी समूचे वर्ष में भी नहीं होती। सभी अपनीअपनी सामर्थ्य के अनुसार उपवास, बेला, तेला, अठाई, मासखमण आदि तप की आराधना में जुट जाते हैं। उपवास के अलावा भी आयंबिल, एकासना, द्रव्यसंयम आदि द्वारा भी तप की आराधना की जा सकती है। साधक कुछ भी न करे यदि वह रात्रि-भोजन का त्याग भी चार महीने तक कर ले तो दो महीने का निराहार तप तो वह कर ही लिया। तपाराधना के साथ चातुर्मास से आरोग्य लाभ भी होता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कम खाने से पाचनतन्त्र ठीक रहता है। आयंबिल से अनेक उदर रोग ठीक हो जाते हैं। चातुर्मास में पड़नेवाला पर्युषण पर्व पर्वाधिराज है। पर्व तो वह है जो जिसमें या जिन दिनों में विशेष धर्म साधना द्वारा आत्मा को भावित किया जाये। किन्तु