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पर्युषण के आठ दिन महापर्व या पर्वाधिराज कहलाते हैं। इसकी उत्तमता और श्रेष्ठता इसी में निहित है कि यह मानव आत्मा के विकास और विशुद्धि की प्रेरणा देता है। पर्यषण को 'पज्जोसवणा', 'पज्जसणा' या 'पज्जोसमणा' भी कहा जाता है जिसका अर्थ है- पर्युपासना। 'उपासना' शब्द जिसका सीधा अर्थ होता है अपने इष्ट के सम्मुख या समीप आना। इसमें जब 'परि' उपसर्ग लगता है तो उसका अर्थ अधिक व्यापक हो जाता है। अर्थात् सम्पूर्ण निष्ठा के साथ, तन्मय होकर अपने इष्ट के समीप बैठना, उसकी भावना, ध्यान और चिन्तन करना- यही है पर्युपासना या पर्युषणा। किन्तु इष्ट है कौन जिसके समीप बैठना चाहिये? वह इष्ट है आत्मा। आत्मा का, आत्मा में, आत्मा से ध्यान करना, आत्मा के पास बैठना यही पर्युषणा है। आत्मा का लक्षण है ज्ञान-दर्शनचारित्र। ज्ञान की उपासना, आत्मा की उपासना, ज्ञानी की सेवा आत्मा की सेवा, ज्ञान का प्रचार आत्मा की प्रभावना। दर्शन अर्थात् अपनी शक्तियों, अपनी शुद्धता-पवित्रता में विश्वास। चारित्र समस्त कर्मों से, कषायों से, विभावों से खाली हो जाने के अलावा कुछ नहीं है- चायरित्तकरणं चारित्तं। 'पर्युशमना' शब्द का अर्थ है- क्रोध, मान, दम्भ, राग, द्वेष रूपी कषायाग्नि को शील, सदाचार, विनम्रता, करुणा, क्षमा तथा प्रेम की वर्षा से शान्त करना, उनका शमन करना। अतः पर्युषण आत्मशुद्धि का, आत्म-शोधन का, आत्मचिन्तन का पर्व है। इस पर्व में आत्मा के चारों तरफ लिपटे कर्मों को हटाने का पुरुषार्थ किया जाता है। चातुर्मास के चार महीनों में साधु-साध्वी या साधक द्रव्य से एक स्थान पर वास करते हैं किन्तु भाव से अपनी आत्मा में वास करते हैं। पर्युषण के इन दो प्रमुख अर्थों को समझकर यदि हम चातुर्मास के इन चार महीनों में करणीय चार कार्यों - (१) पौषध-व्रत, (२) ब्रह्मचर्य का पालन, (३) आरम्भ-समारम्भ का त्याग एवं (४) विशेष तप को करते हुये धर्माराधना करें तो अवश्य ही हम अपना जीवन सफल बना सकते हैं। 'श्रमण' के इस अंक में वर्षावास और तप, श्रावक-प्रतिमाओं पर आधारित कुछ लेख प्रकाशित कर रहे हैं साथ ही कहायणकोस' के कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य साधु धनेश्वरसूरि द्वारा विरचित 'सुरसंदरीचरिअंके ग्यारहवें परिच्छेद को मूल, उसकी संस्कृत च्छाया; गुजराती तथा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर रहे हैं। सभी परिच्छेदों की संस्कृत च्छाया तथा गुजराती अनुवाद.प.पू. आचार्यप्रवर श्री राजयशसूरीश्वरजी के शिष्य प.पू. गणिवर्य उपाध्याय श्री विश्रुतयश विजयजी म.सा. ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद एवं अंग्रेजी में परिचय लेखन स्वयं सम्पादक ने किया है। आशा है पाठकगणों को 'श्रमण' का यह अंक रुचिकर लगेगा।
-सम्पादक