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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 35 वाराणसी क्षेत्र में मध्य गंगा घाटी के समान नैग्मेषी तथा नैग्मेष मृणाकृतियाँ कुषाणकाल में बहुप्रचलित थीं। इनका उत्तर प्रचलन गुप्तकाल में भी प्रमाणित है। चिरंतन व शैलीगत वर्गों में गढ़ी यह मृणमूर्तियाँ पूजन आकृतियाँ थीं। नैग्मेष मृणाकृतियों में अब स्त्री एवं पुरुष (अजमुखी) के अलावा मानवमुखी अजकर्ण की मृणाकृतियाँ भी बनने लगी थीं। मृण्मूर्तियों में यज्ञोपवीत सूत्र के स्थान पर आभूषण का अंकन महत्त्वपूर्ण है। इन सभी नैग्मेष आकृतियों की संख्या पूर्व की अपेक्षा अधिक (२८) है। (द) नैग्मेष मानव मुख प्रकार : नैग्मेष प्रतिमाओं के इस वर्ग में हस्तनिर्मित अजमुख के स्थान पर साँचा निर्मित मानव मुख का अंकन है। परन्तु इनमें लटकते लम्बे अजकर्ण का अंकन पहले की ही भाँति है, साथ ही द्विश्रंगी केश विन्यास एवं स्त्री पुरुष दोनों की ही प्रतिमाएँ प्राप्त हैं। ये प्रतिमाएँ राजघाट (४), रामनगर (१), सारनाथ (१) एवं सराय-मोहाना (१) से प्राप्त है। राजघाट के काल IV (३००७०० ई०) में नैग्मेष प्रतिमाओं में मानव मुख का अंकन प्रारम्भ होने लगा। संभवत: यह मिट्टी के लोंदों पर मानव मुख का अंकन था (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XIX१)। क्रम सं० ७ राजघाट, खात सं० XI,, स्तर सं० ४; ए०सी०सी० नं० ४८९ चित्र सं० ७ मानवमुखी अजकर्ण की नैग्मेष मृण्मूर्ति के शीर्ष एवं धड़ (बाँह एवं पैर भग्न) असमान, पके एवं साँचा निर्मित हैं। “अजकर्ण युक्त मानव मृण्मूर्ति" (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ९०-९१) के लम्बे चीरे हए कान हैं। यह मृणमूर्ति राजघाट के काल IV (३०० से ७०० ई०) से प्राप्त है। राजघाट के काल IV से इसके अतिरिक्त २ अन्य प्रतिमायें (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८; फलक XIX, २.३) सराय-मोहाना से (आइ०ए०आर०, १९६७-६८; फलक XXIII Z, ३), सारनाथ (ए०सी०सी० नं० ३२७/२८, ४९९) एवं राजघाट (ए०सी०सी०नं० १८३०, २०९५) से भी प्राप्त हैं। गंगा घाटी में मानवमुखी अजकर्ण विशेषता की मानव मृणाकृतियाँ अहिच्छत्रा के स्ट्रेटम III (३५०-७५० ई०) (अग्रवाल वी०एस०, १९८५ : ३२; फलक XVIII, १३१.१३३) से कौशाम्बी के शक-पार्थियन, कुषाण एवं उत्तर कुषाण काल (शर्मा जी०आर०, १९६९: ६०-६१, ६५-६६; फलक XXIX,B;XXXVI, B) से प्राप्त हैं। गंमा घाटी के अन्य स्थलों से तुलना करने पर इन मृण्मूर्तियों की तिथि उत्तर कुषाण से गुप्त काल प्रतीत होती है। .