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वाराणसी की नैग्मेष मृण प्रतिमाएं : एक अध्ययन : 37 मानवीय मृणमूर्ति प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० एवं बारहवीं शताब्दी ई० के मध्य, गंगा घाटी में फैली हुई है। गंगा घाटी में इनका विस्तृत प्रयोग दिखता है। विदुला जायसवाल ने खैराडीह से प्राप्त नैग्मेष/नैग्मेषी मृणमूर्तियों के आधार पर इस विषय पर विस्तृत विवरण दिया है (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४०-४५), प्राचीन साहित्य में नैग्मेष या हरिनैग्मेष का वर्णन मिलता है जिससे इनके प्रतिमा लक्षण, प्रकृति एवं इस देवी-देवता की पूजा पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। नेमिनाथ चरित में कथानक है कि सत्यभामा की प्रद्युम्न सदृश पुत्र को प्राप्त करने की अभिलाषा को पूरा करने के लिए कृष्ण ने नैग्मेष देव की आराधना की और उसने प्रकट होकर उन्हें एक हार दिया जिसके पहनने से सत्यभामा की मनोकामना पूरी हुई। इस आख्यान में नैरमेष देव का सन्तानोत्पत्ति के साथ विशेष सम्बन्ध स्थापित होता है। उक्त देव या देवी भी प्रायः समस्त हार पहने हुए हैं जो संभवतः इस कथानक के हार का प्रतीक है (जैन हीरालाल, १९७२ : ३६१)। नग्मेष मृण्मूर्तियों में हार एवं आभूषण की पुष्टि इस कथानक से की जा सकती है। वाराणसी से प्राप्त ६ बैग्मेष/नैग्मेषी प्रतिमाओं में हार एवं यज्ञोपवीत सूत्र का अंकन है परन्तु इनका बालकों के साथ अंकन नहीं दिखता है। परन्तु वैशाली उत्खनन से गढ़ी क्षेत्र के चतुर्थ काल से नैग्मेष दम्पति तथा उनके बच्चे की भी मूर्तियाँ प्राप्त है जिसमें नैग्मेष परिवार/दम्पति तथा शिशु नैग्मेष (सिन्हा, बी०पी० एवं सीताराम राय, १९६९ : १६२-१६३; फलक LII) का अंकन है। .... जैन आगम अन्तगडदसाओ (३/३६ से ३८, ४१, ४७ से ५०) में वर्णन है कि हरिनैग्मेषी कृष्ण के सम्मुख प्रकट होने पर बड़ा कर्णाभूषण, मुकुट एवं कटिसूत्र पहने हुए है (दिव्यप्रभा एस०, १९८१ : ४६; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२)। अन्य वर्णन है कि सज्जित वस्त्र की पोशाक जो पाँच रंगीन घंटियों से सज्जित है पहने है (बर्नेट एल०डी०, १९७३ : ७०)। इसके अतिरिक्त सज्जित केशविन्यास संभवत: मुकुट है। अन्य सभी विशेषताएं नहीं दिखती हैं जो इन मृणमूर्तियों की उपासना में प्रयोग होती हैं। इन मूर्तियों के पंखाकार केश विन्यास में एक या दो छिद्र दिखते हैं जिसकी व्याख्या नहीं हो पायी है (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२)। कल्पसूत्र में नैग्मेष/हरिनैग्मेषी की भूमिका महावीर के जन्म के समय मिलती है (जैकोबी एच०, १९६४ : १९०-१९९; २२७-२२९)। अन्तगडदसाओ की एक कथा मिलती है (जैकोबी एच०, १९६४ : १९४-१९५; २२७-२२९) जिसमें वर्णित है कि सुलसा के नवजात बालक को देवाई रानी से सफलतापूर्वक बदल दिया गया था, इस घटना में उसके खाली/धसे हाथ पर महत्व दिया गया है, जो इस संवेदना को प्रकट करता है। इससे मृणमूर्तियों में प्याले समान, धसे हाथों की तुलना