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________________ 14 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 को भी रोका जाना आवश्यक है। हाँ, यदि किसी व्यक्ति के मन में दीक्षा का भाव है, वह साधना का मर्म जान चुका है, वैराग्य अभ्यास परिपक्व है, अन्यान्य अपेक्षाएं पूर्ण कर चुका है, पर लोच के कारण आंशकित है, वह यदि केश लोच करवाता है तो वाजिब हो सकता है परन्तु यह विवेक तो उसे भी रखना होगा कि केशलोच एकान्त में हो, सार्वजनिक रूप से नहीं। जैसे कि दिगम्बर परम्परा में दीक्षा के इच्छुक व्यक्ति एकान्त में नग्नत्व का अभ्यास करते हैं, सार्वजनिक नहीं। एक बार नग्नत्व सार्वजनिक हो जाए तो वह नग्नत्व सार्वकालिक मुनित्व में परिणित मान लिया जाता है, ऐसे ही श्वेताम्बर परम्परा में सार्वजनिक लोच होने के बाद साधुत्व का अंगीकार अवश्यंभावी होना चाहिए। अप्रकट अवस्था में एक दो बार करवा लिया तो विरोध भी नहीं होना चाहिए। विश्व के इतिहासकारों ने जैनों की आत्यन्तिक निवृत्ति प्रधान जीवन शैली पर भारी कटाक्ष किए हैं। उन्हें तो मनियों का केशलोच भी अप्राकृतिक एवं अत्याचार सा प्रतीत होता है। उन्हें इसके पीछे निहित भाव और तर्कों से सहमत करना ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे में गृहस्थों का केशलोच उन्हें समझ आ जाएगा, यह कल्पना से बाहर है। जनमानस में जिनशासन के प्रति बिलगाव या अरुचि का भाव इस या इस तरह की क्रियाओं से बढ़ने की संभावना है। यह जिन शासन की सेवा न होकर अशातना भी बन सकती है। वस्तुत: तो साधुवर्ग अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखे, श्रावक वर्ग अपनी। एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने से दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती है। अमेरिका, यूरोप में तीव्र, मध्यम और मन्द गति के वाहनों के लिए अलग-अलग सरणियां (Lanes) होती हैं, कोई भी वाहन अपनी सरणि छोड़कर दूसरी सरणि में नहीं घुसता। अतएव वहां दुर्घटनाएं न के बराबर होती हैं। भारत में सरणियां तो बनती जा रही हैं पर दूसरी सरणि में घुसने की मानसिकता नहीं छूट रही, इसलिए दुर्घटनाएं हैं। भगवान महावीर ने भी साधु और श्रावक की दो सरणियां बनाई थी। दोनों के पृथक्-पृथक् नियम बनाए। यदि साधु श्रावकों के तथा श्रावक साधुओं के नियमों की होड़ में आएंगे तो सब कुछ गड्डमड्ड हो जाएगा। यदि किसी को तीव्रगति से चलने की रुचि है तो उसे अपना वाहन बदलना होगा। मंदगति का वाहन जब तक आपके पास है तब तक गति भी, सरणि भी वही रखनी होगी। वाहन मंदगति का पर सरणि तेजवाली और गति भी तेज दुर्घटना का निमन्त्रण है। श्रावक जीवन जब तक है तब तक श्रावकोचित नियम निभाएं। अधिक नियमों की रुचि बन रही है तो साधु बनें। बारह व्रतों को अधिक शुद्धि के साथ, मन, वचन, काया की समग्रता से निभाने में तीर्थधर्म की सुरक्षा है न कि
SR No.525096
Book TitleSramana 2016 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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