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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच 11 किए बिना एकलविहार प्रतिमा अनुमत नहीं है। यह दृष्टिकोण आगम का दृष्टिकोण समझने वाले हर मुनि का, संघ एवं सम्प्रदाय का है।
इसलिए पंचम काल में जिनकल्प तथा एकलविहार प्रतिमा का निषेध सभी ने स्वीकार किया है तथा अकेले विचरने वाले साधु-साध्वी से अधिक सम्पर्क नहीं रखा जाता। प्रोत्साहन की बात ही अलग है।
एक विहार प्रतिमा बहुत ऊँची साधना है मगर उसके लिए अन्यान्य योग्यताएं होंगी तभी तो वह ऊँची कहलाएगी । अन्यान्य योग्यताएं पूर्ण किए बिना जैसे एकांकी विचरण गलत है वैसे ही बारह व्रत के पर्याप्त पालन तथा ग्यारहवीं प्रतिमा तक पहुंचे बिना लोच करना श्रावक के लिए गलत होना चाहिए। साधु-साध्वी भी प्रोत्साहन दे तो आगम विरोध मानना चाहिए ।
श्रावक वर्ग में त्यागरुचि जागृत हो, भोग प्रवृत्ति न्यून हो, यह प्रयास सर्वथा अनुमोदनीय है और इसी विचारधारा से श्रावक वर्ग में अचित्त भोजन, दिवा भोजन, शीलपालन विविध तपस्याएं चलीं और चलने दी गयीं। यद्यपि इन सबके लिए आगमों में कोई विधान नहीं पर युग प्रवाह के साथ ये प्रारम्भ हुए तो चल ही रहे हैं। इनको बरकरार रखा जाए मगर लोच जैसी कठोर चर्या गृहस्थों तक पहुंचाकर इसकी गरिमा का ह्रास न किया जाए।
एक ओर सरकारी तन्त्र में जैन मुनियों की लोच पद्धति को लेकर दुष्प्रचार किया जा रहा है कि ये छोटे-छोटे बाल मुनियों और साध्वियों के केश फाड़कर अत्याचार कर रहे हैं, दूसरी ओर कुछ अत्युत्साही जैन मुनि वर्ग की निजी व्यवस्था को सार्वजनिक बनाने पर तुले हुए हैं। जैन धर्म की मूल दृष्टि को यदि अजैन विचारक समझ नहीं पा रहे तो लगता है शायद जैन भी समझने से काफी दूर हैं। मुनि चर्या से जुड़े पहलू जैसे-जैसे श्रावकों के द्वारा अपनाए जाने लगे हैं, वैसे-वैसे उनकी गुणवत्ता, गंभीरता, उपयोगिता और प्रासंगिकता घटने लगी है। श्रावकों का लोच करना या करवाना 'जिन शासन' के समुज्ज्वल इतिहास की विकृति बन सकती है और भविष्य के लिए पैरों की जंजीर। आगमों में कोई तो उदाहरण हो जो इस नवीन उद्भावना को समर्थित कर दे।
आनन्द आदि दस श्रावकों के अलावा औपपातिक सूत्र' में वर्णित अम्बड़ परिव्राजक ज़ैसे त्यागी श्रावक ने भी लोच को अपनी चर्या का अंग नहीं बनाया । जरा उसकी चर्या का अवलोकन करें और अधुनातन श्रावकों के जीवन की तुलना करें जो भावुकता वश लोच को सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि मान रहे हैं ।