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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा : 21 दिगम्बर परम्परा में ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम उद्दिष्टत्याग है। यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और ऐलक- ये दो भेद किये गये हैं।२८ क्षुल्लक एक ही वस्त्र रखता है। वह मुनियों की तरह खड़े-खड़े भोजन नहीं करता। उसके लिए आतापन योग, वृक्षमूलक योग प्रभृति योगों की साधना का भी निषेध है। वह क्षौर कर्म से मण्डन भी करवा सकता है और लोंच भी। पाणिपात्र में भी भोजन कर सकता है और कांसे के पात्र आदि में भी। कोपीन लगाता है, इसलिए वह क्षुल्लक कहलाता है। दूसरा भेद ‘ऐलक' है। ऐलक शब्द ग्यारहवीं प्रतिमाधारक नाम मात्र का वस्त्र धारण करने वाले उत्कृष्ट श्रावक के लिए व्यवहृत होने लगा। वह केवल कोपीन के अतिरिक्त सभी प्रकार के वस्त्रों का परित्यागी होता है। साथ ही मुनियों की तरह खड़ेखड़े भोजन करता है, केशलुंचन करता है और मयूर पिच्छी रखता है। . ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक के लिए आचार्य सकलकीर्ति ने केवल मुहूर्त प्रमाण निद्रा लेने का उल्लेख किया है।२९ लाटी संहिता में क्षुल्लक के लिए कांस्य या लौह-पात्र में भिक्षा लेने का विधान है। सकलकीर्ति ने सर्वधातु का कमण्डलु और छोटा पात्र यानी थाली रखने का विधान किया है।३१ इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ-साधना की उपरोक्त भूमिकाओं और कक्षाओं की व्यवस्था इस प्रकार से की गयी है कि जो साधक वासनात्मक जीवन से एकदम ऊपर उठने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त कर सके।३२
सन्दर्भ
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(क) प्रतिमा- प्रतिपत्ति: प्रतिशेतियावत् - स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ (ख) प्रतिमा- प्रतिज्ञा अभिग्रहः - वही, पत्र - १८४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ० सागरमल जैन, भाग-२, पृ० ३१७ वही, पृ० ३१७ (क) दशाश्रुतस्कन्ध, ६ दशा तथा (ख) विंशिका- १०वी प्रतिमा- ले०आचार्य हरिभद्र चारित्रपाहुड-२२, रत्नकरण्ड श्रावकाचार- १३७-१४७, वसुनन्दि श्रावकाचार
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वसुनन्दि श्रावकाचार की भूमिका, पृ० ६० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-३, पृ० ३१८ वही, पृ० ३१९