________________
20 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 १०. उद्दिष्टभक्तत्याग प्रतिमा : प्रस्तुत प्रतिमा धारण के बाद अपने निमित्त से बना हुआ आहार भी श्रावक ग्रहण नहीं करता। वह निरन्तर स्वाध्याय और ध्यान में तल्लीन रहता है। वह अपने शिर के बालों का शस्त्र से मुण्डन करवाता है, किन्तु चोटी अवश्य रखता है, क्योंकि वह गृहस्थाश्रम का चिह्न है।२५ प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक की यह विशेषता है कि वह जिसके सम्बन्ध में जानता है तो पूछने पर कहे कि 'मैं जानता हूँ'
और यदि नहीं जानता है तो स्पष्ट रूप से कह दे कि 'मैं नहीं जानता हूँ।' वह ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता, जिससे किसी को हानि हो। वह भाषा का पूर्ण विवेक रखता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग प्रतिमा है। जिसका अर्थ है- जो भी आरम्भ आदि के कार्य हैं, उनके लिए वह अनुमति भी नहीं देता। वह घर में रहकर भी इष्ट-अनिष्ट कार्यों के प्रति न राग करता है, न द्वेष ही करता है। कमल की तरह निर्लिप्त रहता है। भोजन का समय होने पर भोजन के लिए आमंत्रित करने पर वह भोजन कर लेता है। भले ही वह भोजन उसके लिए निर्मित हो। किन्तु भोजन की अनुमोदना नहीं करता। वह परिमित वस्त्र धारण करता है। अपने निमित्त बने हुए भोजन व वस्त्र के अतिरिक्त वह किसी भी भोगोपभोग सामग्री का उपयोग नहीं करता। जब उसे प्रतीत होता है कि घर में रहने से आकुलता रहती है, जिससे साधना में बाधा उपस्थित होती है, तो वह घर का परित्याग कर निर्ग्रन्थ श्रमणों की सेवा में पहुँच जाता है। उसके पश्चात् वह मुनि बन जाता है। ११. श्रमणभूत प्रतिमा : प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक श्रमण के सदृश जीवन यापन करता है। वह श्रमण के समान निर्दोष भिक्षा, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, समाधि आदि में लीन रहता है। सभी प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है। उसकी वेश-भूषा निम्रन्थ की भाँति होती है। वह मुख पर मुखवस्त्रिका, चोलपट्टक, चद्दर तथा रजोहरण, आदि जो श्रमण की वेश-भूषा है, उसी तरह धारण करता है। यदि शरीर में शक्ति हो तो दाढ़ी-मूंछ आदि का लुंचन करता है और शक्ति के अभाव में उस्तरे आदि से भी मुण्डन करवा सकता है। पंच समिति का पालन करता है। वह श्रमण की भाँति हर घर से भिक्षा लेता है, किन्तु स्वजाति और स्वघरों से भिक्षा ग्रहण करता है, अज्ञात कुल से नहीं। जब वह किसी गृहस्थ के घर भिक्षा के लिए जाता है, तब वह कहता है- 'प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो।' वह श्रमण की तरह मौन होकर भिक्षा के लिए नहीं जाता। दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पन्न कर श्रमणोपासक श्रमण बन जाता है।२६ आचार्य हरिभद्र का मन्तव्य है कि साधक कितनी ही बार संक्लेश बढ़ जाने से श्रमण न बनकर गृहस्थ भी हो जाता है।२७