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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच
श्री जयमुनि जी
धर्म का उद्गम विवादों के शमनार्थ हुआ किन्तु धीरे-धीरे धर्म ही विवादास्पद हो चला। जैन धर्म ने अनेकान्तवाद के माध्यम से धार्मिक विवादों का निपटारा करना चाहा लेकिन जैन धर्म में विविध विवाद प्रकट हो गये ।
माना यह जाता है कि विवाद का मुद्दा जर, जोरू और जमीन होते हैं, परन्तु धार्मिक विवाद इनसे उत्पन्न होने के बजाय मान्यताओं की भूमिका से उपजते हैं। मैं श्रेष्ठ, मैं सही, मैं प्राचीन, मैं मौलिक ये अहं सत्यता, अहं मन्यता धर्मक्रियाओं में विवाद की जननी रही है। भोग से संघर्ष की उत्पत्ति सहज समझ में आती है पर त्याग उससे भी ज्यादा विवादों को जन्म देता है।
इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि गृहस्थ को यदि अधिक कमाई का गर्व हो सकता हैं तो संन्यासी को अधिक त्याग तपस्या का गर्व हो सकता है। भगवान महावीर ने कर्मबन्धन के कारणों को कर्म निर्जरा का तो कर्म निर्जरा के कारणों को कर्म बन्धन का कारण बताकर इस गहन सत्य को सार्वजनिक किया है। उत्कृष्ट त्याग के लिए विख्यात जैन समाज में समय-समय पर विवादस्पद मुद्दे उभरते रहे हैं।
कुछ वर्षों से जैन समाज में " श्रावकों का लोच" ऐसा ही विषय उभर कर सामने आया है, जो विचारणा की मांग कर रहा है।
केशलोच कायक्लेश तप के अन्तर्गत आता है । तप के लिए भगवान महावीर ने बड़ी सावधानियां दी हैं। पहली सावधानी तो यह कि जो साधक सम्यक् ज्ञान दर्शन का धारक होकर चरित्र का आराधक बन जाए, वही तप के क्षेत्र में प्रवेश करे। जिसने प्रथम तीन मोक्ष मार्गों (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) का अवलम्बन नहीं लिया, वह कठोर से कठोर तपस्या भी कर ले तो अज्ञान कष्ट या बालतपस्या का अधिकारी ही कहलाएगा, सकाम निर्जरा का नहीं ।
उत्तराध्ययन सूत्र २८वें अध्ययन में
" नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। ऐस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं । । ""