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________________ 24 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 संक्लेश का परिहार करने के लिए है। अथवा ऋतु-ऋतु दो (दो माह की एक ऋतु) अर्थात् प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक रहना चाहिए और एक-एक मास तक विहार करना चाहिए। ऐसा यह मास नामक श्रमण कल्प है। अथवा वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना और चार महिनों में नन्दीश्वर करना मास श्रमण कल्प है।' भगवती आराधना में कहा गया है कि वर्षाकाल में चार मास में एक ही स्थान में रहना अर्थात् भ्रमण का त्याग यह पाद्य नामक दसवाँ स्थिति कल्प है। वर्षाकाल में जमीन स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त होती है। ऐसे समय में मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा, जलवृष्टि से, पेड़ से हवा बहने से आत्म विराधना होगी अर्थात् ऐसे समय में विहार करने से मुनि अपने आचार से च्युत हो जायेंगे, वर्षाकाल में भूमि जलमय होने से कुंआ, खड्डा इत्यादिक में गिर जाने की संभावना होती है, खूट, कंटकादिक पानी से ढक जाने से विहार करते समय उनसे बाधा होने की संभावना होती है, कीचड़ में फंसने की भी सम्भावना रहती है, इत्यादि दोषों से वचने के लिए मुनि एक सौ बीस दिवस एक स्थान में रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थान में ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से प्रारम्भ कर कार्तिक पूर्णिमा के आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते हैं। अध्ययन, वृष्टि की अधिकता, शक्ति का अभाव, वैयावृत्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते हैं। मारी रोग, दर्भिक्ष आदि के कारण ग्राम के लोगों का अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिकों में जाना, गच्छ का नाश होने का निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मास में भी अन्य स्थान को जाते हैं, नहीं जाने पर उनके रत्नत्रय का नाश होगा इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा व्यतीत होने पर प्रतिपदा वगैरह तिथि में अन्यत्र चले जाते हैं, इसलिए बीस दिन एक सौ बीस दिनों में कम किये जाते हैं। तीसरा शब्द है 'वर्षावास'६। यह शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आगम ग्रन्थ आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में मिलता है। इस ग्रंथ में लिखा है कि वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहत से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत से बीज अंकुरित हो जाते हैं, इस स्थिति को जानकर साधु को वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षकाल में यथावसर प्राप्त वसति में ही संयम रखकर वर्षावास व्यतीत करना चाहिए। आचारांग-सूत्र में ही लिखा है कि वर्षावास में कहाँ, कैसे क्षेत्र में और कब तक रहें ? साधु-साध्वी के लिए वर्षावास से सम्बन्धित ईर्या के नियम भी बताए गये हैं। इन नियमों का निर्देश करने के पीछे बहत दीर्घदर्शिता, संयम-पालन, अहिंसा एवं
SR No.525096
Book TitleSramana 2016 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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