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________________ संस्कृत छाया : अथ तापस्या भणितमस्य, योग्या न भवसि त्वं सुतनो ! । तथापि खलु किमत्र क्रियते, स्वकर्मवशके जीवलोके ? ।। १८ ।। गुजराती अनुवाद : त्यारे तापसी का हे सुतनु! आवा दारुण दुःख ने योग्य तुं नथी, परंतु पोताना कर्मने वश एवा आ जीवलोकमां आपणे शु करी शकीए ? हिन्दी अनुवाद : तब तपस्विनी ने कहा हे बेटी ! तू इस दारुण दुःख के योग्य नहीं हो। किन्तु अपने कर्मों के अधीन हम इस जीवलोक में क्या कर सकते हैं ? गाहा : सुंदरि ! कम्म - वसाणं सत्ताणं इह भवे वसंताणं । एवंविह- दुक्खाई हवंति जं एत्थ न हु चोज्जं ।। १९ । । संस्कृत छाया : सुन्दरि ! कर्मवशानां सत्त्वानामिह भवे वसताम् । एवंविधदुःखानि भवन्ति यदत्र न खलु चोद्यम् ।। १९ । । गुजराती अनुवाद : हे सुंदरी! संसारमा परिभ्रमण करतां कर्मने वश एवा प्राणीओने आवा प्रकारना दुःखो आवी पड़े छे तेमां कांइज आश्चर्य नथी । हिन्दी अनुवाद : हे सुन्दरी! इस संसार में परिभ्रमण करते कर्म के अधीन ऐसे प्राणियों को इस प्रकार के दुःख आ पड़ते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । गाहा : जं किंचि असुह- कम्मं अन्न- भवे संचियं तुमे आसि । तस्स विवागाओ इमं समागयं सुयणु ! गुरु- वसणं ।। २० ।। संस्कृत छाया : यत् किञ्चिदशुभकर्माऽन्यभवे सञ्चितं त्वयासीत् । तस्य विपाकादिदं समागतं सुतनो ! गुरुव्यसनम् ।। २० ।।
SR No.525096
Book TitleSramana 2016 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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