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8 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 पूर्ण नहीं हो जाएं तब तक लोच की अनुमति नहीं है। किसी अयोग्य व्यक्ति के साथ जुड़कर लोच शोचनीय बन सकता है। साधु-साध्वी के लिए लोच अवश्य करणीय है, पर श्रावक के लिए 'श्रमणभूत प्रतिमा' ग्यारहवीं प्रतिमा के पालन के समय ही अनुमत है, उससे पूर्व नहीं। उस समय भी वैकल्पिक रूप से ही प्रावधान है, अनिवार्य विधान नहीं। ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक साधना का अंतिम पड़ाव है। जो श्रावक पहले १० प्रतिमाओं का सम्यक् पालन कर चुका है वही ग्यारहवीं प्रतिमा का अधिकारी है। पूर्ववर्ती दस प्रतिमाओं को बिना निभाए ग्यारहवीं प्रतिमा के नियमों का पालन निषिद्ध है। प्रतिमाओं का प्रारम्भ करने से पहले बारह व्रतों का दीर्घावधि तक निष्ठापूर्वक निर्वाह करना भी आवश्यक है। जिस व्यक्ति ने बारह व्रत अंगीकार नहीं किए, उनका लम्बे समय तक पालन नहीं किया, वह प्रतिमाओं की ओर बढ़ने के लिए अनधिकृत है। चाहे प्रतिमाओं की कुछ बातें उसे लुभाती हों, वह उन्हें निभा भी सकता हो, पर उन्हें अपनाने का प्रयास तभी मान्य होगा जब वह पूर्ववर्ती शर्तों को पूरा कर चुका हो अन्यथा अनधिकार चेष्टा कहलाएगी। प्रतिमाओं की आराधना से पूर्व किस-किस शर्त को निभाना चाहिए, इसका सजीव उदाहरण उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक के जीवन से प्राप्त होता है। तथाहिजब आनन्द श्रावक १४ वर्षों तक अपने व्रतों को निभा चुका तो एक बार धर्मजागरण के दौरान एक विचार कौंधा कि वाणिज्य ग्राम के सामाजिक प्रपंचों एवं पारिवारिक झंझटों के कारण अधिक धर्माराधना नहीं कर पाता। अब मैं अपने बड़े पुत्र को दायित्व सौंपकर पोषधशाला में रहूं और धर्माराधना में जीवन गुजारूं।" इस विचार को उसने शीघ्र ही मूर्त रूप दिया। पौषधशाला में आकर उसने पहली उपासक प्रतिमा का निर्वहण किया। पहली के बाद दूसरी, तीसरी
और क्रमश: ग्यारहवीं प्रतिमा तक उसने अपने चरण बढ़ाए। पहली तीन प्रतिमाएं तो पूर्वगृहीत सम्यक्त्व, अणुव्रत तथा शिक्षा व्रतों को नए सिरे से, शुद्धि और दृढ़ता पूर्वक अपनाना है। यद्यपि पहली प्रतिमा का कालमान एक महीना, दूसरी का दो महीने और तीसरी प्रतिमा का तीन महीने माना है, पर यह परम्परा प्राप्त धारणा है। मूल में आगमकारों ने इन तीन का समय निर्धारित नहीं किया। दशाश्रुतस्कन्ध की छठी दशा के अध्ययन से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है। जल्दबाजी में कोई साधक सम्यक्त्व, अणुव्रत, शिक्षाव्रतादि की उपेक्षा करके अगले कठोर नियमों के लिए तत्पर न हो जाए, इसलिए इन तीनों की परिपक्वता आवश्यक मानी गई है। अगली प्रतिमाओं में एक-एक महीने की कालावधि भी बढ़ती जाती है, साधना के नियम भी सख्त होते हैं। चार माह तक आनन्द ने अष्टमी पक्खी आदि पर्व तिथियों पर पौषध की विशिष्ट आराधना की। फिर पांच