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जैन परम्परा में श्रावक प्रतिमा की अवधारणा : 17 जोड़कर की गई है, जबकि दिगम्बर परम्परा में वह उद्दिष्टत्याग के अन्तर्गत ही है, क्योंकि श्रमणभूतता और उद्दिष्टत्याग समानार्थक ही हैं। . ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप : १. दर्शन-प्रतिमा : साधक की अध्यात्म-मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शन-प्रतिमा है। दर्शन का अर्थ है दृष्टिकोण और आध्यात्मिक विकास के लिए दृष्टिकोण की विशुद्धता प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है। दर्शनविशुद्धि की प्रथम शर्त है- क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषायचतुष्क की तीव्रता में मन्दता। जब तक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। दर्शनप्रतिमा में साधक इन कषायों की तीव्रता को कम कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह गृहस्थ-धर्म की प्रथम भूमिका है। इस अवस्था में साधक शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है, लेकिन उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह शुभाचरण करे ही। २. व्रत प्रतिमा : अतिचार रहित पंच अणुव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उनमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं लाने देना व्रत प्रतिमा के अन्तर्गत माना गया है।१० इस प्रतिमा का साधक तीनों शल्यों से मुक्त होता है। वह शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान आदि का भी अभ्यास करता है। द्वादश व्रतों में आठवें व्रत तक तो वह नियमित रूप से पालन करता है, पर सामायिक, देशावकाशिक व्रतों की आराधना परिस्थिति के कारण नियमित रूप से सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाता। लेकिन उनकी श्रद्धाप्ररूपणा सम्यक् होती है। सामान्य श्रावक अणुव्रत और गुणव्रत को धारण करता भी है और नहीं भी करता है, जबकि व्रत प्रतिमा में अणुव्रत और गुणव्रत धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। ३. सामायिक प्रतिमा : इस प्रतिमा में साधक “समत्व' प्राप्त करता है। 'समत्व' के लिए किया जाने वाला प्रयास सामायिक कहलाता है। इसमें साधक अपने अपूर्व बल, वीर्य व उल्लास से पूर्व प्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से पालन करता है और अनके बार सामायिक की साधना करता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण प्रौषध भी करता है। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार सामायिक प्रतिमा में तीनों संध्याओं में सामायिक करना आवश्यक माना गया है। सामायिक में उत्कृष्ट काल छ: घड़ी का है। एक बार में दो घड़ी का है। आचार्य समन्तभद्र का यह अभिमत है१२ कि इसमें जो सामायिक होती है, वह 'यथाजात होती है। यथाजात से इनका तात्पर्य यह है कि नग्न होकर सामायिक की जाय। तीन बार दिन में दो-दो घड़ी तक नग्न