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ISSN-0972-1002
ŚRAMANA
| A Quarterly Research Journal of Jainology Vol. LIX No. I January-March 2008
i Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
पार्श्व ना थ विद्या पीठ, वा रा ण सी
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श्रमण ŚRAMANA
A Quarterly Research Journal of Jainology
Vol. LIX
No. I
Hindi Section Dr. Vijaya Kumar
Editor
Publisher
January-March 2008
English Section Dr. S.P. Pandey
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi Recognized by Banaras Hindu University as an external Research Centre
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श्रमणः
Śramana:
Vol. LIX
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जैनशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका
A Quarterly Research Journal of Jainology
January-March 2008
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No. I
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१-३२
श्रमण
जनवरी-मार्च २००८ विषयसूची
हिन्दी खण्ड १. प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय २. महामंत्र नवकार की साधना और उसका प्रभाव
डॉ. सुधा जैन ३. परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत
डॉ० सोहनराज तातेड़ ४. पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में डॉ. दीपक रंजन
३३-४०
ज
४१-५० ५१-५७
५९-६२
६३-६४
. पुरस्कृत निबन्ध
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता ५. हिमांशु सिंघवी ६. कु. निकिता चोपड़ा ७. कु. प्रियंका चोरड़िया ८. श्रीमती सरोज गोलेछा ९. श्रीमती कमलिनी बोकरिया १०. छैल सिंह राठौड़ ११. रामस्वरूप जैन
६५-६८
६९-७५
७६-८८ ८१-८७ ८८-८९
ENGLISH SECTION 12. Concept of Sīla in Jainism
Dr. S. P. Pandey 91-116 13 Concept of Jiva in Jaina Metaphysics
Dr. Vijaya Kumar 117-122 १४. पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्राङ्गण में
१२३-१२६ १५. जैन जगत्
१२७-१२८ १६. साहित्य सत्कार
१२९-१३०
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हिन्दी खण्ड
प्रज्ञापना - सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय • महामंत्र नवकार की साधना और उसका
प्रभाव
डॉ० सुधा जैन
परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत
• पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
• हिमांशु सिंघवी
• कु० निकिता चोपड़ा
• कु० प्रियंका चोरड़िया
श्रीमती सरोज गोलेछा
पुरस्कृत निबन्ध
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
• श्रीमती कमलिनी बोकरिया
• छैल सिंह राठौड़ रामस्वरूप जैन
डॉ० सोहनराज तातेड़
डॉ० दीपक रंजन
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन
डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय
प्रज्ञापना जैन आगमिक साहित्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । बारह उपांगों में प्रज्ञापना का विशिष्ट स्थान है । यह जैन आगम साहित्य का चतुर्थ उपांग है । इस उपांग के संकलयिता श्रीश्याम आर्य ने इसका नाम 'अध्ययन दिया है जोइसका सामान्य नाम है। इसका विशिष्ट और प्रचलित नाम प्रज्ञापना या पण्णवणा है। श्यामाचार्य ने स्वयं प्रज्ञापना का परिचय देते हुए कहा है कि - जिस प्रकार भगवान ने सर्वभावों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा) उपदिष्ट की है, उसी प्रकार मैं भी प्रज्ञापना करने वाला हूं। अतएव इसका विशेषनाम प्रज्ञापना है। उत्तराध्ययन की तरह इस ग्रंथ का नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन स्थिर किया जा सकता है। दोनों में अन्तर यह है कि जहां प्रज्ञापना का समग्र ग्रंथ एक अध्ययन रूप है वहां उत्तराध्ययन में अनेक अध्ययन हैं। 'प्रज्ञापना' शब्द का उल्लेख
भगवान महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त होने के पूर्व दस महास्वप्न देखे थे। तीसरे महास्वप्न के वर्णन के प्रसंग में उनके फल को बताते हुए भगवती में कहा गया है कि 'समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमय-परसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आधवेति पन्नवेति परूवेति....' अतः स्पष्ट है कि भगवान महावीर द्वारा दी गयी देशनाओं का वास्तविक नाम प्रज्ञापयति, प्ररूपयति आदि क्रियाओं के आधार पर प्रज्ञापना या प्ररूपणा है। उन्हीं देशनाओं के आधार पर सम्भवतः इसका नाम प्रज्ञापना रखा गया है । इसके अतिरिक्त इसी उपांग में तथा अन्य अंग शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रश्नोत्तर में, अतिदेश में, तथा संवादों में पण्णत्ते, पण्णत्तं, पण्णत्ता आदि शब्दों का अनेकशः प्रयोग हुआ है। प्रज्ञापना का महत्त्व
प्रज्ञापना के प्रत्येक पद' के अन्त में 'पण्णवणाए भगवतीए ऐसा उल्लेख मिलता है जिससे पांचवें अंग आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती की भाँति उपांगों में प्रज्ञापना का विशेष महत्त्व परिलक्षित होता है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर 'जहा पण्णवणाये कहकर प्रज्ञापना के १,२,५,६,११,१५,१७,२४,२५,२६ और २७ वें पद से प्रस्तुत विषय की पूर्ति करने हेतु सूचना दी गयी है । यह इस ग्रंथ की विशेषता है। * सहनिदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
कहा जाता है कि भगवान महावीर के पश्चात् २३वें पट्टधर आर्य श्याम पूर्वश्रुत में निष्णात थे । उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ में अपनी विशिष्ट शैली और ज्ञान का उपयोग किया जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की सम्पूर्ण जानकारी के लिये प्रज्ञापना का अवलोकन करने को निर्देशित किया गया है।
प्रज्ञापना का अर्थ
प्रज्ञापना का अर्थ क्या है ? इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार ने बताया है जीव और अजीव के सम्बन्ध में जो प्ररूपणा है, वह प्रज्ञापना है । पद में प्रयुक्त 'प्र' उपसर्ग भगवान महावीर के उपदेश की विशेषता सूचित करता है अर्थात् जीव, अजीव का जैसा सूक्ष्म विवेचन एवं विश्लेषण भगवान महावीर ने किया है उतना सूक्ष्म उस युग के किन्हीं अन्यतीर्थिक आचार्य ने नहीं किया ।
प्रज्ञापना का आधार
प्रज्ञापना उपांगों के क्रम में चौथा उपांग है। जैन आगम में बारह अंग हैं जिनमें दृष्टिवाद का लोप हो गया है । किन्तु बारह उपांगों में सभी उपांग उपल्ब्ध हैं । अंगउपांग के सम्बन्ध या किस अंग का कौन-सा उपांग है, यह कब निश्चय किया गया यह कहना तो कठिन है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जब संस्कृत टीकायें लिखी जाने लगी तभी इसका निर्धारण हुआ होगा। आचार्य मलयगिरि के अनुसार, यह समवायांगसूत्र का उपांग हैं । किन्तु ऐसा कोई सम्बन्ध प्राचीनकाल में जुड़ा हुआ नहीं दिखता । क्योंकि ग्रंथ का प्रारम्भ करते हुए स्वयं कर्ता ने यह प्रज्ञापना दृष्टिवाद में से निर्झरित होता रस है, ऐसा कहा है।
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अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्ठिवायणीसदं ।
जह वण्णियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि ।। "
अर्थात् दृष्टिवाद के विस्तृत वर्णन में से सारभूत वर्णन प्रज्ञापना में लिया गया है । किन्तु चूंकि दृष्टिबाद अपने समक्ष नहीं है, अतः इन दोनों के सम्बन्ध की कल्पना ही की जा सकती है। फिर भी प्रज्ञापना का सम्बन्ध दृष्टिवाद के ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद से जोड़ा जा सकता है। षट्खण्डागम की टीका धवला में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व से जोड़ा गया है । प्रज्ञापना और षट्खण्डागम के वर्ण्य विषय समान होने से प्रज्ञापना का सम्बन्ध भी अग्रायणीपूर्व से जोड़ा जा सकता है । आचार्य मलयगिरि ने वर्ण्य विषयों की समानता के आधार पर ही इसका सम्बन्ध समवायांग के साथ जोड़ा है। समवायांग में भी जीव, अजीव आदि तत्त्वों का मुख्य रूप से निरूपण हुआ है । परन्तु स्वयं कर्ता ने ऐसा कोई सूचन नहीं किया है ।
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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन :
३
रचना शैली
ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल गाथा और ग्रंथ की प्रतिज्ञा के बाद इसके प्रतिपाद्य विषयों का सूचन है । इसमें ३६ विषयों का निर्देश है जिन्हें ३६ प्रकरणों में बाँट दिया गया है । प्रत्येक पद को 'प्रकरण' नाम दिया गया है । आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि 'पदं प्रकरणम् अर्थाधिकार इति पर्यायाः' ।
समग्र ग्रंथ की रचना प्रश्नोत्तर रूप में हुई है । प्रारम्भ के ८१वें सूत्र तक प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता का कोई परिचय नहीं मिलता । इसके पश्चात् ८२वें सूत्र में भगवान महावीर और गणधर गौतम का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है। ८३-९२ सामान्य प्रश्नोत्तर तथा ९३ वें सूत्र में पुन: भगवान महावीर और गणधर गौतम का प्रश्नोत्तर है । इसके अतिरिक्त जहां भगवान महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर हैं उन स्थलों में मुख्य हैं- सूत्र १४८-२११ अर्थात् समग्र दूसरा पद, तीसरे पद में सूत्र २२५.२७५, ३२५, ३३०-३३३; चौथे पद के सभी सूत्र । जिस प्रकार प्रारम्भ में समग्र शास्त्र की अधिकार गाथायें दी गयी हैं उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में विषयसंग्रहणी गाथायें भी प्रस्तुत की गयी हैं। जैसे-३, १८ और २० एवं २३वें पद के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथायें दी गयी हैं । इसी प्रकार दसवें पद के अन्त में और ग्रन्थ के मध्य में यथावश्यक गाथायें दी गयी हैं । इनमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल २३१ गाथायें हैं और शेष गद्य पाठ हैं । प्रज्ञापनासूत्र की संग्रहणी गाथाओं का रचयिता कौन है? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। प्रस्तुत सम्पूर्ण आगम
का श्लोक प्रमाण ७८८७ है। विषय-विभाग
प्रज्ञापना के समग्र पदों का विषय जैन-सिद्धान्त-सम्मत है। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना में प्ररूपित विषयों का सम्बन्ध जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों के निरूपण के साथ निम्न प्रकार संयोजित किया है : १-२ जीव-अजीव
= पद १,३,५,१० और १३ ३ आस्रव
= पद १६-२२ ४ बन्ध
= पद २३ ५-६-७ संवर, निर्जरा और मोक्ष = पद ३६ में
इन पदों के अतिरिक्त शेष पदों में कहीं-कहीं किसी न किसी तत्त्व का निरूपण है। आचार्य मलयगिरि ने जैन दृष्टि से द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया
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: श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
है।" द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव इन चार भेदों में विषय निरूपण की पद्धति प्राचीन प्रतीत होती है । यह पद्धति भगवती में अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होती है । परन्तु तत्त्व सात प्रकार के हैं यह व्यवस्था परवर्ती है। इससे आचार्य मलयगिरि ने जिस प्रकार प्रस्तुत आगम में सात प्रकार का विभाजन किया है वैसा ही मत श्याम आर्य का था, यह नहीं माना जा सकता । किन्तु उनके समय में जो परम्परा निश्चित थी उसके साथ प्रज्ञापना की समता दिखाने का प्रयास आचार्य मलयगिरि ने किया है । स्वयं प्रज्ञापना में सराग दर्शनार्य के निरूपण में निसर्गरुचि जीवों के लक्षण में जो गाथा (१२०) दी गयी हैं उसमें भी सात तत्त्वों का उल्लेख नहीं है।
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प्रज्ञापना आर्य श्याम की रचना है किन्तु उन्होंने सभी बातें स्वयं विचार करके कही हों, ऐसा नहीं है । इनका प्रयोजन तो श्रुत परम्परा में से तथ्यों का संग्रह करना और उनका संकलन करना था। जैसे प्रथम पद में जीव के जो भेद बताये हैं, उन्हीं भेदों को लेकर द्वितीय स्थान आदि द्वारों को घटित करके प्रस्तुत नहीं किया बल्कि स्थान आदि द्वारों का जो विचार जिन विविध रूपों में पूर्वाचार्यों ने किया था, उन्होंने उन-उन द्वारों और पदों में उन उन विचारों का संग्रह एवं संकलन किया। अतः प्रज्ञापना उस काल की विचार परम्परा का व्यवस्थित संग्रह है। यही कारण है कि जब आगम लिपिबद्ध किये गये, तब उन-उन विषयों की समग्र विचारणा के लिये प्रज्ञापना का अतिदेश किया गया।
पद विभाग एवं निरूपण का क्रम
सूत्रकालीन साहित्य की यह विशेषता रही है कि ग्रंथ के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषयों की सूची दे दी जाती है । 'न्यायसूत्र' आदि ग्रंथों में इस पद्धति का अनुसरण किया गया है । प्रज्ञापना में भी प्रारम्भ में उसके विषय-विभाग (सूत्र - २ ) की प्रज्ञापना उद्देश रूप में निर्दिष्ट है और बाद में एक-एक कर ३६ पदों का विवेचन किया गया है। । प्रज्ञापना में विषयों का निरूपण पहले लक्षण बना कर नहीं किया गया, अपितु विभाग- उपविभाग द्वारा किया गया है। भेद का जिस क्रम में निर्देश होता है उसी क्रम में उपभेदों की भी चर्चा होती है । किन्तु ग्रंथकार ने जहां जिस उपभेद का निरूपण संक्षिप्त है उसका निरूपण पहले कर पश्चात् विस्तृत भेदवाला उपभेद निरूपित किया
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है । जैसे- सूत्र ३ में प्रथम जीव प्रज्ञापना निर्दिष्ट है और बाद में अजीव प्रज्ञापना । किन्तु चौथे सूत्र में पहले अजीव प्रज्ञापना कर पश्चात् चौदहवें सूत्र से जीव प्रज्ञापना के प्रभेद निर्दिष्ट हैं । उसी प्रकार प्रज्ञापना सूत्र १४ में जीव के संसारी और असंसारी दो भेद र संक्षेप के कारण १५ वें सूत्र में असंसारी जीवों का १८वें सूत्र में संसारी जीवों का वर्णन किया गया है। इस व्यतिक्रम का कारण मलयगिरि के अनुसार अल्पवक्तव्य विषय का निरूपण पहले और बहुवक्तव्य विषय का निरूपण बाद में करना है। "
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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : ५ दार्शनिक शब्दावली में कहा जाय तो इस ग्रंथ में उद्देश, निर्देश और विभाग हैं परन्तु परीक्षा नहीं है। प्रज्ञापना का विशेषण भगवती
पांचवां अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवती नाम से अधिक प्रसिद्ध है। प्रज्ञापना को भी 'भगवती' विशेषण दिया गया है जो इसकी विशेषता को दर्शाता है। भगवती में प्रज्ञापनासूत्र की १,२,५,६,११,१५,१७,२४,२५,२६ और २७वें पदों में से विषयपूर्ति कर लेने का निर्देश किया गया है । यह सूचित करता है कि उन-उन विषयों की प्रज्ञापन शैली प्रज्ञापना में अधिक व्यवस्थित है। ज्ञातव्य है कि प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन उसमें नहीं है । महायान बौद्ध दर्शन में प्रज्ञापारमिता नामक ग्रंथ का अधिक महत्त्व है। उसमें अष्टसहस्रिका पारमिता का भी अपरनाम भगवती मिलता है। प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम
प्रज्ञापना में जीव-अजीव की प्रज्ञापना है तथा जीवाजीवाभिगम में जीवअजीव का अभिगम है । प्रज्ञापना और अभिगम दोनों शब्दों का भावार्थ एक है। दोनों ग्रंथ बाह्य आगम तथा स्थविरकृत हैं । प्रज्ञापना चौथे अंग का उपांग है तो जीवाजीवाभिगम तीसरे अंग स्थानांग का उपांग है। दोनों का मुख्य प्रतिपाद्य एक होने पर एक चौथे अंग
और दूसरे का सम्बन्ध तीसरे अंग से है । प्रश्न उठता है कि क्या इनमें कोई ऐतिहासिक क्रम है?
__जीवाजीवाभिगम का मुख्य विषय जीव-अजीव प्रारम्भ में प्रज्ञापना की भांति ही है। उसमें भी जीव-अजीव में से पहले अजीव का निरूपण करने के बाद जीव का निरूपण हुआ है। जीव निरूपण का क्रम जीवाजीवाभिगम में उनके जो मुख्य भेद हैं, उन्हीं पर आधारित है। क्योंकि पहले संसारी जीवों के दो भेद कर उनके १० प्रभेदों
और पुनः सभी जीवों के दो विभाग कर उनके १० प्रभेदों की चर्चा हुई है । ध्यातव्य है कि स्थानांग में भी १० स्थान हैं और जीव-अजीव से सम्बन्धित एक, दो, तीन
और इसी प्रकार १० तक की संख्या का निरूपण हुआ है, दस तक का निरूपण दोनों में समान है । प्रज्ञापना में यह क्रम आगे बढ़ता है । जीवाजीवाभिगम में प्रज्ञापना और उसके पदों की चर्चा अनेक बार (सूत्र ४, ५, १३, १५, २०, ३५, ३६, ३८,४१, ८६, ९१, १००, १०६, ११३, ११७, ११९-१२२) हुई है। वहां राजप्रश्नीय का उल्लेख भी १०९, ११० तथा औपपातिक" का भी उल्लेख सूत्र १११ में हुआ है। इन सूत्रों के उल्लेख से यह जिज्ञासा सहज रूप से हो सकती है कि इन आगमों के नाम वलभी वाचना के समय सुविधा की दृष्टि से उसमें रखे गये हैं या स्वयं आगम रचयिता स्थविर भगवान ने रखे हैं। यदि लेखक ने रखे हैं तो जीवाभिगम की रचना
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प्रज्ञापना के बाद होनी चाहिये। किन्तु जीवाजीवाभगम की रचना शैली इस प्रकार की है कि उसमें क्रम से जीव-भेद निरूपण और पुनः उन भेदों में उन-उन जीवों की स्थिति, अंतर, अल्प-बहुत्व आदि का निरूपण किया गया है। प्रज्ञापना में सम्पूर्ण ग्रंथ को ३६ पदों में बांटा गया है और भेद निरूपण केवल प्रथम पद में किया गया है । क्योंकि जीव-अजीव के जो भी भेद-प्रभेद हैं उनका समग्रभाव निरूपण प्रथम पद में हुआ है । उसके अनन्तर पदों में जीवों के स्थान, स्थिति, अंतर, अल्प-बहुत्व आदि को अनेक विषयों के क्रम में निरूपित किया गया है । एक ही स्थान पर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन प्राप्त है । परन्तु जीवाजीवाभिगम में उन सभी विषयों की चर्चा एक साथ नहीं है । वहीं प्रज्ञापना में उन-उन पदों में सभी जीवों की स्थिति आदि विषयों का एकत्र परिचय जान सकते हैं। दूसरे शब्दों में जहां अनेक विषयों की चर्चा प्रज्ञापना के शेष ३५ (२-३६) पदों में है, उन सभी विषयों की चर्चा जीवाजीवाभिगम में नहीं है । इस प्रकार की निरूपण पद्धति का भेद दोनों में है फिर भी प्रज्ञापना में वस्तुविचार का आधिक्य है।
इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि जीवाजीवाभिगम की रचना प्रज्ञापना से कदाचित् पूर्व हुई है। अब प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जो जीवाजीवाभिगम में है, उसका समाधान यह है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है । यही कारण है कि प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग साहित्य में हुआ है। जिस प्रकार अंग ग्रथों में प्रारम्भ में मंगल सूचक गाथा नहीं है उसी प्रकार जीवाजीवाभिगम में भी मंगल सूचक गाथा नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि जिनमत, जिनानुमत...जिनदेशित... जिनप्रशस्त का अनुचिंतन कर उसमें श्रद्धा रखते हुए स्थविर भगवंतों ने जीवाजीवाभिगम ग्रंथ की प्रज्ञापना की है। ग्रंथप्रारम्भ की यह पद्धति अंग-ग्रंथों की रचना का अनुसरण करती है । उसमें जिस प्रकार ‘एवं मे सुयं' इस प्रकार प्राप्त श्रुत का उपदेश आर्य सुधर्मा जम्बू को देते हैं, कहा गया है उसी प्रकार 'स्थविरों ने जो जिनोपदेश प्राप्त किया था उसमें श्रद्धा रख उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रज्ञापना की रचना ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल की प्रथा की शुरुआत होने के बाद हुई है जबकि उस समय तक जीवाजीवाभिगम की रचना हो चुकी थी? प्रज्ञापना और षट्खण्डागम
प्रज्ञापना और षट्खण्डागम दोनों का मूल दृष्टिवाद नामक अंग आगम है जिसका वर्तमान में लोप हो गया है । इसलिये दोनों की सामग्री का आधार भी एक है। दोनों संग्रह ग्रन्थ हैं और दोनों ही आगमों का विषय जीव और कर्म का सैद्धान्तिक दृष्टि से विश्लेषण करना है । फिर भी दोनों की निरूपण शैली में जो भेद है, वह उल्लेखनीय है । प्रज्ञापना में जीव को केन्द्र में रखकर ३६ पदों का नियोजन है जबकि
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन :
षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में कर्म के ह्रास के कारण निष्पन्न गुणस्थान (जिसे जीवस्थान नाम से अभिहित किया गया है) की मार्गणा जीव के मार्गणा स्थानों, गति आदि द्वारा की गयी है। शेष खण्डों में से खुद्दाबन्ध, बंधस्वामित्व, वेदना में कर्म को केन्द्र में रखकर जीव का विचार किया गया है । वर्गणा खण्ड में मुख्य कर्मवर्गणा है, शेष वर्गणाओं की चर्चा तो उसको समझने के लिये है । छठें खण्ड महाबन्ध में भी कर्म की प्रमुख रूप से चर्चा है ।
प्रज्ञापना के ३६ पदों में से कर्म (२३), कर्मबन्धक (२४), कर्मवेदक (२५), वेदबन्धक (२६), वेदवेदक (२७), वेदना (३५) -- इन पदों का नाम जो प्रज्ञापना मूल में आते हैं और षट्खण्डागम में जिन-जिन खण्डों में टीकाकार ने इन्हें सूचित किया है, की तुलना की जा सकती है। उन-उन नाम पदों में जो चर्चा प्रज्ञापना में देखने को मिलती है उससे विकसित और सूक्ष्म चर्चा षट्खण्डागम में समान नाम से सूचित खण्डों में मिलती है । इस प्रकार प्रज्ञापना जीव प्रधान है तो षट्खण्डागम कर्म प्रधान है ।
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प्रज्ञापना एक ही आचार्य द्वारा संग्रहीत है जबकि षट्खण्डागम के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । प्रज्ञापना में कोई चूलिका नहीं है जबकि षट्खण्डागम में अनेक चूलिकाएं जोड़ी गयी हैं" । ये चूलिकायें कब और किसके द्वारा जोड़ी गयीं इसकी कोई सूचना नहीं है पर चूलिका नाम से ही यह स्पष्ट है कि ये बाद में जोड़ी गयी हैं जैसेदशवैकालिक आदि आगमों में देखने को मिलता है। प्रश्नोत्तर शैली निबद्ध - प्रज्ञापना की रचना सूत्ररूप में हुई है जबकि उद्देश - निर्देश रूप षट्खण्डागम में सूत्र के बाद अनुयोग व्याख्या शैली का अनुसरण किया गया है। क्योंकि उसमें अनेक बार अनुयोगद्वारों के आधार पर विचारणा की गयी है । इसके अतिरिक्त कृति, वेदना, कर्म जैसे शब्दों की व्याख्या नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आधार पर की गयी है जो जैन की नियुक्ति प्रकार की व्याख्या शैली का स्पष्ट अनुसरण है"। अनुगम", संतपरूवणा", निद्देस, विहासा" (विभाषा) जैसे शब्दों का प्रयोग भी व्याख्याशैली की तरफ संकेत करते हैं । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में जैसे अनेक प्रकार के अनुयोगद्वारों का वर्णन है वैसी व्यवस्था अब तक प्रज्ञापना में नहीं हो पाई थी, ऐसा लगता है । क्योंकि उसमें केवल अनुयोगद्वारों की गणना है, कोई निरूपण नहीं है जबकि षट्खण्डागम में आठ अनुयोगद्वारों का निर्देशपूर्वक निरूपण किया गया है। ऐसे अनुयोगद्वारों की निर्माण भूमिका तो प्रज्ञापना में है जिसके आधार पर बाद में अनुयोगद्वारों का निरूपण होने लगा । तत्त्वार्थसूत्र (१-८) में सत्, संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश है, ऐसा कोई निर्देश प्रज्ञापना में नहीं है । किन्तु प्रज्ञापना के भिन्न-भिन्न पदों में से अनुयोगद्वारों का संकलन किया जा सकता है। ऐसा निश्चित संकलन षट्खण्डागम में हुआ है जो दोनों रचनाओं के काल विषयक चर्चा पर प्रकाश
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
डालता है। प्रज्ञापना और षट्खण्डागम में अनेक स्थलों पर निरूपण के अतिरिक्त शब्दसाम्य भी है जिससे पता चलता है कि दोनों के पास समान परम्परा थी । दोनों ग्रंथ मुख्य रूप से गद्य में लिखित हैं पर उनमें गाथाएं भी हैं । उन गाथाओं में से कितनी तो संग्रहणी गाथायें हैं।
जहां तक अन्तर का प्रश्न है प्रज्ञापना में जहां अल्प-बहुत्व में ९८ भेद हैं वहां षटखण्डागम में उनकी संख्या ७८ है । इसका कारण प्रभेदों का गौण-मुख्य भाव है। प्रज्ञापना में अल्प-बहुत्व पर अनेक द्वारों के द्वारा विचार किया गया है । उनमें जीवअजीव विचार दोनों का विचार है । षटखण्डागम में १४ गुणस्थानों में गति आदि मार्गणा द्वारा अल्प-बहुत्व विचार किया गया है जो प्रज्ञापना की तुलना में अधिक सूक्ष्म है । प्रज्ञापना में अल्प-बहुत्व के मार्गणाद्वारों की संख्या २६ है जबकि षट्खण्डागम में गति आदि १४ द्वार हैं। उनमें गति आदि १४ दोनों में समान हैं। ध्यान देने योग्य है कि प्रज्ञापना और षट्खण्डागम दोनों में इस प्रकरण के अंत में महादण्डक है। दोनों में एक दूसरी समानता यह है कि गति आदि की चर्चा में दोनों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव पद प्राप्ति की चर्चा है। किन्तु प्रज्ञापना में माण्डलिक पद और रत्नपद ये दो पद विशेष हैं।
इस प्रकार प्रज्ञापना और षट्खण्डागम में अनेक विषयों के निरूपण-शैली का अवलोकन किया जाय तो स्पष्ट लगता है कि षटखण्डागम में प्रत्येक विचारणा प्रज्ञापना की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं विकसित है जो प्रकारान्तर से प्रज्ञापना को पहले और षटखण्डागम को बाद में स्थिर करती है। प्रज्ञापना का समय ई०पू० है जबकि षट्खण्डागम का समय पांचवीं सदी का उत्तरार्द्ध है । प्रज्ञापना का कर्ता और उसका समय
प्रज्ञापना मूल में कहीं भी उसके कर्ता का निर्देश नहीं है । किन्तु इसके प्रारम्भ में मंगल के बाद दो गाथायें हैं जिसकी व्याख्या आचार्य हरिभद्र और मलयगिरि ने की है, यद्यपि दोनों आचार्य दोनों गाथाओं को प्रक्षिप्त मानते हैं । इन गाथाओं में आर्य श्याम को कर्ता बताया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य हरिभद्र के पहले तक प्रज्ञापना आर्य श्याम को ही कृति के रूप में प्रसिद्ध थी।
____ आचार्य मलयगिरि ने आर्य श्याम के लिये 'भगवान' पद का उल्लेख किया है -
'भगवान आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति' (टीका पत्र-७२), आर्यश्यामः पठति (टीका पत्र-४७), सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका पत्र३८५) 'भगवदार्यश्याम प्रतिपत्तौ'
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन M
(टीका पत्र - ३८५) । इन गाथाओं से एक तो लेखक का महत्त्व पता चलता है दूसरे उक्त दो प्रक्षिप्त गाथाओं से यह पता चलता है कि आर्य श्याम वाचक वंश में हुए हैं जो पूर्वश्रुत में परम निष्णात् थे । प्रज्ञापना की रचना में विषयों का गुम्फन करते हुए उन्होंने अपनी असाधारण बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया है। यही कारण है कि अंग और उपांग भी विभिन्न विषयों की विशद् चर्चा हेतु प्रज्ञापना के अध्ययन का निर्देश करते हैं ।
नन्दीसूत्र (वि.सं. ५वीं शताब्दी) की स्थविरावली जिसमें सुधर्मा से लेकर क्रमश आचार्यों की परम्परा का उल्लेख है । उनमें ग्यारहवां नाम 'वंदिमो हारियं च सामज्जं आर्य श्याम का' आता है और उन्हें हारीत गोत्र का बताया गया है किन्तु प्रारम्भ की दो प्रक्षिप्त गाथाओं में उन्हें वाचकवंश में २३वें पट्ट पर रखा गया है । उसी का अनुसरण कर आचार्य मलयगिरि उन्हें २३ वें पाट पर गिनते हैं । इसमें केवल २३वें पाट का निर्देश है, सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक के नामों का कोई सूचन नहीं है ।
पट्टावलियों के अध्ययन से यह परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नाम से तीन आचार्य हुए। प्रथम कालकाचार्य वे हैं जो वी. नि. ३७६ में देवलोक को प्राप्त हुए (धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार; जबकि खरतरगच्छीय पट्टावली के अनुसार'आद्यः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोदविचारवक्ता श्यामाचार्या परनामा । स तु वीरात् ३७६ वर्षैर्जातः) । दूसरे कालकाचार्य वे हैं जो गर्धभिल्लोच्छेदक थे और जिनका समय विक्रम शताब्दी प्रारम्भ होने के पूर्व अर्थात् वी.नि. ४५३ है । तीसरे कालकाचार्य वे हैं जिन्होंने संवत्सरी तिथि को पांचम की जगह चौथ को मनाया था, उनका समय वी. नि. ९९३ (वि.स. ५२३) माना जाता है ।
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पट्टावली से ज्ञात होता है कि इन तीनों में से प्रथम कालक और श्यामाचार्य जिन्होंने प्रज्ञापना की रचना की, दोनों एक हैं। अतः तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य श्यामाचार्य नाम से प्रसिद्ध हैं । वे अपने 'युग' के महाप्रभावक आचार्य थे। उनका जन्म वी. नि. २८० (वि. पू. १९० ) है । संसार से विरक्त होकर वी. नि. ३०० (वि. पू. १७० ) में बीस वर्ष की आयु में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की । उनकी योग्यता के आधार पर उन्हें वी. नि. ३३५ (१३५ वि. पू.) में उन्हें युगप्रधान पदवी द्वारा विभूषित किया गया । पट्टावली में उन्हें २३वां स्थान नहीं दिया गया है जबकि दोनों प्रक्षिप्त गाथाओं में उन्हें २३वें स्थान पर परिगणित किया गया है । अतः पाट विषयक उल्लेख को गौण मानकर ही समय का विचार करना होगा । अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्ता नहीं हैं क्योंकि नन्दीसूत्र जो वी. नि. ९९३ के पूर्व रचित है उसमें प्रज्ञापना को आगम सूची में स्थान दिया गया है। अब प्रथम दो कालकों में से कौन से कालक श्यामाचार्य हैं, यह प्रश्न विचार के लिये बाकी रह जाता है। डा० यू० पी०
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गा.७३
१० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ शाह का मत है कि यदि दोनों कालक एक हैं तो ११वें पाट पर उल्लिखित श्यामाचार्य और गर्धभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य एक ठहरते हैं। पट्टावली में जहां दोनों को अलग-अलग बताया गया है वहां भी एक की तिथि वी. नि. ३७६ और दूसरे की वी. नि. ४५३ है । ३७६ में जन्म होने पर भी वे उनकी मृत्यु तिथि अन्यत्र दिखाते हैं इसलिये दूसरे कालक का ४५३ मृत्यु समय है। यदि वी.नि.३७६ प्रथम कालक के जन्म का वर्ष माना जाय तो भी दोनों कालकों में मात्र ७७ वर्ष का अन्तर होगा । अतः जिसने भी प्रज्ञापना की रचना की हो, वे प्रथम कालक हों या दूसरे, यदि दोनों एक भी हों तो इतना तो निश्चित है कि यह विक्रम पूर्व में होने वाले कालक की रचना है ।
प्रज्ञापना में जो गाथाएं मिलती हैं उनमें से कुछ गाथाएं सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, आवश्यकनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति में भी मिलती हैं । आइये इन गाथाओं की तुलना करें: प्रज्ञापना सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन अ.३६ आचारांगनियुक्ति सू. २४ गा०८ २.३.१९ गा.१ गा.७४ सू. २४ गा० ९ २.३.१९ गा.२ गा. ७५
गा. ७४ सू. २४ गा० १० २.३.१९ गा.३ गा.७६ सू. २४ गा० ११ २.३.१९ गा.४ गा.७७
गा. ७६ आचारांगनियुक्ति (गा.७२,७६) और उत्तराध्ययन (गा.७३) में स्पष्ट ३६ भेद बताये गये हैं। फिर भी उत्तराध्ययन में ये भेद ४० हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मूल में ३६ भेद ही गिने जाते रहे होंगे, बाद में उनमें ४ गाथायें मिला दी गयी होंगी। इससे प्रज्ञापना में उन गाथाओं को अन्यत्र से उद्धृत मानना पड़ेगा। सूत्रकृतांग में भी वे गाथायें हैं। इन गाथाओं का सबसे प्राचीनतम रूप आचारांगनियुक्ति में उपलब्ध है। अत: यह सम्भव है कि सूत्रकृतांग में ये गाथायें कहीं अन्यत्र से उद्धत हों। क्योंकि इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ' ऐसा कहकर गाथायें दी गयी हैं (तुलनीय- 'एएसिंणं इमाओगाहाओ अणुगंतव्वाओ' प्रज्ञापना-५५)। यदिआचार्य भद्रबाहु-प्रथम या द्वितीय को नियुक्तियों का कर्ता मान लिया जाय तो भी इसकी सम्भावना अत्यन्त क्षीण है कि उनमें से सभी गाथायें आचार्य भद्रबाहु ने ही रची हों । बल्कि यह मानना उचित होगा कि उनमें भी अनेक संग्रहणी गाथायें अन्तर्भावित कर ली गयीं। इसलिये नियुक्ति के आधार पर प्रज्ञापना का समय निर्धारण सम्भव नहीं है।
उत्तराध्ययन के ३६वें अध्ययन 'जीवाजीवाविभक्ति' की तुलना प्रज्ञापना के प्रथम पद से करना यह दर्शाता है कि उत्तराध्ययन पश्चात् प्रज्ञापना में जीवविचार हुआ
गा. ७५
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होगा और इस रूप में उत्तराध्ययन का वह अध्ययन प्रज्ञापना से प्राचीन है । सिद्धों के विषय में अनेक गाथायें प्रज्ञापना और औपपातिक में पाई जाती हैं जिनमें से कुछ उत्तराध्ययन और आवश्यकनियुक्ति में भी देखने को मिलती हैं । उत्तराध्ययन की गाथाओं से लगता है कि सिद्ध विषयक उसकी गाथायें भूमिका रूप हैं जिनका अन्य ग्रंथों में विस्तार किया गया है। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि उत्तराध्ययन का यह प्रकरण जिसका विशेष सम्बन्ध प्रज्ञापना के साथ है, वह प्रज्ञापना से प्राचीन है । औपपातिक और प्रज्ञापना में प्रारम्भ और अन्त की गाथाओं में भेद है । सम्भावना तो यह भी है कि प्रज्ञापना औपपातिक से प्राचीन हो ।
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जैन परम्परा यह मानती है कि निगोद-व्याख्याता 'कालक' और 'श्याम' आचार्य एक हैं । क्योंकि ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। परम्परा के अनुसार वे वी. नि. ३३५ में युगप्रधान हुए और वी. नि. ३७६ तक जीवित रहे । यदि प्रज्ञापना इस कालक की रचना हो तो वी. नि. ३३५-३७६ ( ईसा पू. १३५ - ९४ या ई. सन् ७९ - ३८) के बीच की रचना होनी चाहिये । (डा० शार्पेन्टियर के अनुसार आर्य श्याम का समय ई. पू. ६० है, उत्त० प्रस्तावना पृ० - २७) यदि निर्युक्ति को प्रथम भद्रबाहु की रचना मान लें और यह मान लें कि उसके मूल में जीव भेद उत्तराध्ययन के अनुसार ३६ स्वीकार किये गये थे, तो प्रज्ञापना को नियुक्ति बाद की रचना मानना पड़ेगा और तब प्रज्ञापना के समय के साथ भद्रबाहु के समय का विरोध भी नहीं होगा क्योंकि वे नि:संदेह प्रज्ञापना से प्राचीन हैं ।
षट्खण्डागम आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की रचना है जो उस धरसेन के पश्चातवर्ती हैं जिनका समय वी. नि. ६८३ माना जाता है । अतः प्रज्ञापना को षट्खण्डागम के पूर्व मानने में कोई बाधा नहीं आती । षट्खण्डागम के विचारों की प्रौढ़ता, उसका व्यवस्थित रूप एवं अनुयोग शैली का अनुसरण निश्चित ही उसे उत्तरवर्ती सिद्ध करता है । नन्दीसूत्र में दी गयी आगमों की सूची में प्रज्ञापना का उल्लेख है । नन्दीसूत्र वि.पू. ५२३ की रचना है अतः उसके समय के साथ भी प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं है ।
प्रज्ञापनासूत्र की व्याख्यायें
१. आचार्य हरिभद्रकृत प्रदेशव्याख्या
प्रज्ञापना की प्रदेशव्याख्या के लेखक आचार्य हरिभद्र ( ई० सन् ७४०- ७८५) हैं । व्याख्या के प्रारम्भ में 'प्रज्ञापनाख्योपांगप्रदेशानुयोगः प्रारभ्यते' कहकर उन्होंने प्रज्ञापना के अमुक अंशों को अनुयोग-व्याख्यान अभिप्रेत बताया है । उन्होंने प्रज्ञापना को उपांग ग्रंथ बताया है परन्तु मलयगिरि की भांति उसे समवायांग का उपांग नहीं
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१२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
कहा। एक स्थल पर आचार्य ने 'अलमतिप्रसंगेन अवचूर्णिकामात्रमेतदिति' ऐसा उल्लेख किया है, जिससे इसे अवचूर्णिका भी कहा जा सकता है ।
आचार्य हरिभद्र की इस व्याख्या के पहले भी किसी ने चूर्णि रूप छोटी-मोटी टीका लिखी थी, ऐसा व्याख्या के कतिपय उल्लेखों से पता चलता है । उन्होंने अनेक स्थलों पर 'एतदुक्तं भवति', 'किमुक्तं भवति', 'अयमत्र भावार्थ:', 'इदमत्र हृदयम', 'एतेसिं भावणा' इत्यादि शब्दों के साथ या उसके बिना जो विवरण मिलता है, वह कुछ प्राकृत और कुछ संस्कृत में है । व्याख्या में कई एक स्थलों पर मतांतरों के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट निर्णय बताये बिना मात्र गुरु के मत को दिया है - एवं तावत् पूज्यपादा व्याचक्षते, अने पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनरति... (पृ. ७५ ११८ ) ।
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व्याख्याकार ने उमास्वाति ( ई० सन् ३५० - ३७५) कृत तत्त्वार्थसूत्र का नाम लिये बिना अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है और तत्त्वार्थभाष्य से भी उद्धरण दिया है । उन्होंने अपनी आवश्यकटीका (पृ. २) के अतिरिक्त अनेक ग्रंथों और ग्रंथकारों का नाम कहीं देते हुए, कहीं न देते हुए उल्लेख किया है जैसे- 'नियुक्ति कारेण' (पृ. १०५); सिद्धप्राभृत (पृ. ११); अनुयोगद्वार (पृ. ३२); जीवाभिगम (पृ. २८) आदि । हरिभद्र ने पूरी टीका में 'उक्तं च' कहकर अनेक प्राकृत गाथाओं का उल्लेख किया है। आचार्य मलयगिरि ने इन गाथाओं का भरपूर उपयोग किया है साथ ही उनका निर्देश भी किया है।
२. आचार्य अभयदेवकृत प्रज्ञापना तृतीयपद संग्रहणी और उसकी अवचूर्णि
प्रज्ञापना में जीवों की अल्प - बहुत्व विषयक चर्चा तीन पदों में है । वे पद १३३वीं गाथा में निबद्ध हैं । आचार्य अभयदेव ( वि.सं. १९२०) ने इस संग्रह की निम्न संज्ञा दी है :
इयं अट्ठाणउपयं सव्वजियप्पबहुमियं पयं तइयं । पत्रवणाए सिरिअभयदेवसूरिहिं संगहियं ॥
परन्तु वे 'धर्मसंग्रहणी' तथा 'प्रज्ञापनोद्धार' इन नामों से भी जानी जाती हैं। क्योंकि उनकी समाप्ति पर और उनकी अवचूरि के अंत में भी यह नाम निर्देश है (देखें - कुलमंडनकृत अवचूर्णि, एल. डी. इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी, हस्तप्रत नं. ३६७३ तथा मुनि पुण्यविजय-संग्रह नं. ६६४)
यह प्रज्ञापना तृतीयपदसंग्रहणी उसकी अवचूर्णि सहित वि.सं. १९७४ में श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित है ।
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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : १३
३. अचार्य मलयगिरिकृतविवृति
- आचार्य मलयगिरि (वि०सं० ११८८-१२६०) ने प्रज्ञापना पर आचार्य हरिभद्र से लगभग चौगुनी विस्तृत व्याख्या लिखी है जो प्रज्ञापना को समझने के लिये अत्यन्त उपयोगी है । उनकी इस व्याख्या का आधार आचार्य हरिभद्रकृत प्रदेश व्याख्या है किन्तु उसमें अनेक ग्रंथों का उन्होंने स्वतन्त्रभाव से उपयोग कर इसे अधिक समृद्ध बना दिया है । उदाहरणार्थ -स्त्री तीर्थंकर हो सकती है या नहीं, इस चर्चा को हरिभद्र ने अपनी प्रदेशव्याख्या में मात्र सिद्धप्राभृत का उदाहरण देकर समाप्त कर दिया है जबकि मलयगिरि ने स्त्री-मोक्ष की चर्चा पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष को रखकर आचार्य शाकटायन का आधार लेकर विस्तृत रूप से किया है (पत्र २०) । इसी प्रकार सिद्ध स्वरूप की व्याख्या में भी उसकी अन्य दार्शनिकों के मतों से तुलना कर उन्होंने जैन मत की स्थापना की है।
प्रज्ञापना के पाठान्तरों की चर्चा भी अनेक स्थलों पर है -जैसे पत्र ८०,८८, ९६,१६५, २९६, ३७२, ४१२, ४३०,६०० । आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीकाओं
और दूसरे अन्य लेखकों के ग्रंथों का उद्धरण अपनी व्याख्या में देते हैं जो उनके पांडित्य को दर्शाता है । 'पाणिनि स्वप्राकृत व्याकरणे' - पत्र ५, ३६४; 'उत्तराध्ययननियुक्तिगाथा'-पत्र १२; अनुयोगद्वारेषु- पत्र १४४, जिनभद्रगणिपूज्यपादाःपत्र ३८० आदि।
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रज्ञापना की किसी प्राचीन आचार्य द्वारा लिखी कोई चूर्णि होगी जो आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि के समक्ष उस पर टीका लिखते समय रही होगी। प्रज्ञापना टीका में आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना, संग्रहणी, श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मसार की मूल गाथाओं का उल्लेख कर उनके अवतरण दिये हैं । टीका में संग्रहणी तथा धर्मसार की मूलटीका आचार्य हरिभद्र की बतायी गयी है । जबकि श्रावकप्रज्ञप्ति की केवल मूल टीका का उल्लेख है और प्रज्ञापना के सम्बन्ध में मूलटीका तथा मूलटीकाकार का उल्लेख है । उन्होंने दोनों टीकाओं के कर्ता का उल्लेख नहीं किया है। इससे ऐसा लगता है कि मलयगिरि द्वारा बताई गयी प्रज्ञापना मूलटीका और श्रावकप्रज्ञप्ति मूलटीका दोनों हरिभद्रसूरिकृत टीकाएं हैं। ४. श्री मुनिचन्द्रसूरिकृत वनस्पतिविचार
श्री मुनिचन्द्रसूरि (स्वर्गवास वि.सं.११७८) ने प्रज्ञापना के प्रारम्भिक पद्यों के वनस्पतिविचार को७१ गाथाओं वाली वनस्पतिसप्ततिका में दिया है। उसकी अवचूरि भी उपलब्ध है । यह किसके द्वारा रचित है, इसको जानने का कोई साधन नहीं मिलता। इस कृति के प्रारम्भ में विशेषकर प्रत्येक और अनन्त प्रकार की वनस्पतियों की चर्चा देखने को मिलती है और अन्त में:
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
एवं पन्नवणाए पण्णवणाए लवो समुद्धरिओ । भवियाणऽणुग्गहकए सिरिमंमुणिचंदसूरिहिं ।। ७१।।
इति वणप्फइसत्तरी ।। इस 'वनस्पतिसप्ततिका' की विक्रम की १६वीं शती में लिखित प्रति लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के पू० मुनिराज श्री कीर्तिमुनिजी महाराज ग्रन्थ-संग्रह में है जिसका क्रमांक १०६०१ है । इस ७७ गाथाओं वाले ग्रन्थ में सम्भव है ६ गाथाएं प्रक्षिप्त हों, इसकी मूल गाथाएं ७१ ही हैं । इस प्रति के अन्त में 'प्रज्ञापनाद्यपदगतो वनस्पतिविचारः सम्पूर्णः' ऐसा उल्लेख है । इस सम्पूर्ण प्रत में प्रारम्भ में अंचलगच्छ के महेन्द्रसूरिकृत 'विचारसत्तरि' और उसकी अवचूर्णि, पश्चात् उक्त वनस्पतिविचार अवचूर्णि के साथ और अन्त में 'प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी' अभयदेवीय अवचूर्णि के साथ लिखी है । अंतिम अवचूर्णि के अन्त में कुलमण्डनसूरि के कर्तृत्व का उल्लेख है। लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के संग्रह की इस प्रत का क्रमांक ३६७४ तथा लेखन काल वि.सं १६७० है । ५. प्रज्ञापनाबीजक
हर्षकुलगणि द्वारा रचित भगवतीबीजक के साथ प्रज्ञापनाबीजक भी लिखा गया है। यह भी हर्षकुलगणि द्वारा रचित जान पड़ता है। प्रारम्भ या अन्त में इस विषय में कोई सूचना नहीं है। इसमें प्रज्ञापना के ३६ पदों की सूची दी गयी है। भाषा संस्कृत है । लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर की प्रत नं० ५८०५ है जिसमें पत्र ११ ब से प्रारम्भ कर यह १४ ब में समाप्त हो जाती है । इसका लेखन काल संवत् १८५९ है । ६. श्रीपद्मसुन्दरकृत अवचूरि
आचार्य मलयगिरि की टीका के आधार पर यह अवचूरि रचित है । इसकी एक हस्तप्रत लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर संग्रह में है जिसका क्रमांक ७४०० है। यह हस्तप्रत सं. १६६८ में आगरा में बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में लिखी गयी है। यह तपागच्छीय पद्मसुन्दर अकबर बादशाह के मित्र थे और अकबर को उन्होंने जैन-अजैन अनेक पुस्तकें भेंट की थीं । इनका 'अकबरशाहीशृंगारदर्पण' नाम की पुस्तक गंगा ओरियेन्टल पुस्तकालय में सं. २००० में प्रकाशित हुई है। उनका 'यदुसुन्दर', नामक महाकाव्य, तथा 'पार्श्वनाथचरित' महाकाव्य की हस्तप्रतें तथा 'प्रमाणसुन्दर नामक तत्त्वज्ञान का ग्रंथ लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर संग्रह में हैं। विशेष जानकारी के लिये 'अकबरशाहीशृंगारदर्पण' की प्रस्तावना द्रष्टव्य है।
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन 10
७. श्रीधनविमलकृत टबो (बालावबोध )
इस टबो का रचना समय सं. १७६७ है । प्रज्ञापनासूत्र की भाषानुवाद कृतियों में सम्भवतः यह पहली रचना है । टब्बाकार ने आदि और अन्त में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है जिससे यह ज्ञात होता है कि श्रीसोमविमलसूरि (सं. १५९१-१६३३)
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गच्छ में हुए श्री विनयविमलजी के शिष्य श्री धनविमल ने इस टबो की रचना की है । रचना का समय नहीं दिया गया है किन्तु ऐसा अनुमान है कि इसकी रचना १७वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुई होगी ।
प्रज्ञापनासूत्रटबा की एक दूसरी हस्तप्रत लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के मुनि पुण्यविजय संग्रह में है । उसका क्रमांक २३२९ और लेखन सं. १९२० है। ८. श्रीजीवविजयकृत टबो ( बालावबोध )
इस बालावबोध की सूचना जिनरत्नकोश में है । जिनरत्नकोश के अनुसार इस स्तबक की रचना सं. १७८४ में हुई । इसकी एकाधिक प्रतें लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के मुनि पुण्यविजय संग्रह में क्रमांक १०५८-४९ पर हैं। लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर संग्रह में इसका नं. २०९४ और श्रीकीर्ति मुनि संग्रह में नं. १०२१४, ११०७९ है ।
९. श्रीपरमानन्दकृत स्तबक
श्रीपरमानन्दकृत स्तबक-टबो राय धनपतसिंह बहादुर की प्रज्ञापना आवृत्ति में प्रकाशित है। इस टबो की रचना सं. १८७६ में श्री लक्ष्मीचंदसूरि के समय में श्री आनन्दचन्द्र के शिष्य परमानन्द ने की थी, ऐसा उल्लेख इसके अन्त में है ।
१०. श्रीनानकचन्द्रकृत संस्कृत छाया
रायधनपतसिंह की आवृत्ति में टाइटिल में 'लोंकागच्छीय रामचंद्रगणिकृत संस्कृतानुवाद' ऐसा लिखा है। किन्तु प्रशस्ति में रामचंद्र गणि के शिष्य नानकचंद्र ने संस्कृतानुवाद किया है, ऐसा कहा गया है। इस नानकचंद्र ने प्रज्ञापना का संपादनसंशोधन किया था अत: उनके अस्तित्वकाल में प्रज्ञापना प्रकाशित हुई थी, अर्थात् ई. सन् १८८४ में वे विद्यमान थे ।
११. अज्ञातकर्तृक वृत्ति ?
इस वृत्ति की सूचना जिनरत्नकोश में है और इसकी अनेक प्रतें उपलब्ध हैं, ऐसा सूचन है ।
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१६ 1. श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
१२. प्रज्ञापनासूत्र भाषान्तर
पं० भगवानदास हरखचंद द्वारा रचित यह भाषान्तर वि.सं. १९९१ में प्रकाशित हुआ । ऊपर सूचित प्रज्ञापनासूत्र की व्याख्याओं के अतिरिक्त प्रज्ञापनाचूर्णि भी थी, किन्तु उसकी हस्तप्रत उपलब्ध नहीं है। प्रज्ञापनासूत्रसारोद्धार की हस्तप्रत का सूचन पिटर्सन रिपोर्ट भाग एक के 'परिशिष्ट'-- खंभात के श्रीशांतिनाथ भंडार की सूची में- पृ० ६३ में है । यह आचार्य अभयदेवकृत 'प्रज्ञापनोद्धार' अथवा 'प्रज्ञापनासंग्रहणी' दोनों ग्रंथों से भिन्न है । क्योंकि प्रज्ञापनासूत्रसारोद्धार एक गद्य रचना है जबकि प्रज्ञापनोद्धार पद्यमय रचना है ।
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१३. प्रज्ञापना पर्याय
लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के मुनि पुण्यविजय संग्रह की ४८०१ नं. की हस्तप्रत 'सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय है जिसके प्रारम्भ में पंचवस्तुक पर्याय दिये गये हैं । उसके बाद आचारांग आदि का पर्याय पत्र २-ब से प्रारम्भ होता है । उसमें पत्र ५-अ से प्रज्ञापना की पर्याय प्रारम्भ होती है । इसमें ग्रंथकार ने जिसका पर्याय देना है उसके पद का नाम देकर उन-उन शब्दों के विवरण या पर्याय दिये हैं। इसमें सर्वप्रथम अठारहवें पद में से अनाहारक पद का विवरण है और पत्र ६ - ब में तो प्रज्ञापना की पर्याय समाप्त कर निशीथचूर्णि आदि की पर्याय दी गयी है । उसके पश्चात् पत्र ६३ - अ से पत्र ६४-ब तक में 'प्रज्ञापनाविवरणविषमपदपर्याय' है। लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के संग्रह की प्रत में विषमपदपर्याय की दो प्रकार की कृतियां संगृहीत हैं । यह प्रति भी अन्यान्य भण्डारों में उपलब्ध है । इसमें अनेक अशुद्धियां हैं तथा अनेक स्थलों पर पदच्छेद भी अशुद्ध हैं ।
प्रज्ञापना के प्रकाशित संस्करण
१. वि.सं. १९४० मे ऋषि श्री नानकचंद जी द्वारा संपादित हुआ प्रज्ञापना सूत्र राय श्री धनपतिसिंह जी द्वारा सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था । इस ग्रंथ में प्रज्ञापना सूत्र मूल, श्रीरामचन्द्रगणिकृत प्रज्ञापनासूत्र मूलपाठ का अनुवाद, आचार्यश्री मलयगिरिरचित प्रज्ञापनासूत्र टीका तथा परमानन्दर्षिकृत प्रज्ञापनासूत्र की भाषाटीका प्रकाशित हुई है।
२. च. पू. पा. आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानन्दसूरिजी द्वारा संपादित और श्री आगमोदय समिति द्वारा दो भागों में प्रकाशित हुई प्रज्ञापनासूत्र की आवृत्ति । इस ग्रंथ में प्रज्ञापनासूत्र मूल तथा उसकी आचार्य श्री मलयगिरिरचित टीका प्रकाशित हुई है। इसमें पूर्व प्रकाशित आवृत्ति की अपेक्षा बहुत अशुद्धियां हैं ।
३.वी.सं. २४४५ (वि.सं. १९७५) में मुनि श्री अमोलकऋषि द्वारा सम्पादित और लालाश्री सुखदेव सहायजी द्वारा प्रकाशित हुई आवृत्ति प्राप्त होती है। इस ग्रंथ में
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : १७
प्रज्ञापनासूत्र मूल तथा मुनि श्री अमोलकऋषिकृत हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ है I इसमें प्रज्ञापना मूल की वाचना अति शुद्ध है। मुनि श्री अमोलकऋषि ने यहां पहले की रायश्रीधनपति सिंहजी की आवृत्ति का अनुसरण नहीं किया है ।
४. वि.सं. १९९१ में पं० श्रीभगवानदास हर्षचन्द्र द्वारा सम्पादित तीन भागों में प्रकाशित आवृत्ति । इस ग्रंथ में प्रज्ञापनासूत्र मूल, मूल वाचना का गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुआ है । इस आवृत्ति की मूल वाचना तैयार करने में समिति की आवृत्ति को सामने रखकर विशेष संशोधन के लिये अहमदाबाद के श्री शांतिसागर भंडार की एक सटीक और त्रुटित प्रज्ञापनासूत्र की हस्तलिखित प्रत का उपयोग किया गया है। मौलिक शुद्ध पाठ होते हुए भी इसमें कहीं-कहीं छोटी-मोटी त्रुटियां रह गयी हैं।
५. वि.सं. १९९८ (वीर नि. सं. २४६८) में आगम मन्दिर ( पालिताणा ) में शिला पर उत्कीर्ण समस्त आगमों को प्रकाशित करने के उद्देश्य से मर्यादित संख्या में प्रकाशित आगमरत्नमंजूषा नामक महाग्रन्थ के अन्तर्गत प्रकाशित प्रज्ञापना की आवृत्ति । सूत्रपाठों को संक्षिप्त करने में कहीं-कहीं मूल स्वरूप विकृत-सा हो गया है । यह आवृत्ति भी संतोषजनक नहीं है।
६. मुनिराजश्री पुष्पभिक्षु - फूलचन्द्र द्वारा सम्पादित 'सुत्तागमें' नामक ग्रंथ के दूसरे अंश में अंग आगमों के अलावा २१ आगम प्रकाशित हुए हैं । उसमें प्रज्ञापना सूत्र भी प्रकाशित है । उक्त सुत्तागमें का दूसरा भाग वि.सं. २०११ में सूत्रागम समिति, asia द्वारा प्रकाशित है । सुत्तागमे के पहले भाग की प्रस्तावना लेखक मुनिश्री जिणचन्द्र भिक्खू हैं तथा दूसरे भाग के सम्पादक लेखक श्रीपुष्पभिक्षुजी स्वयं हैं । इसमें (१) पाठ शुद्धि का पूरा-पूरा खयाल रखा गया है (२) इसके सम्पादन में शुद्ध प्रतियों का प्रयोग किया गया है (३) पाठान्तर नवीन पद्धति से दिये गये हैं । परन्तु मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार इन नियमों के पालन का अभाव इस आवृत्ति में है ।
७. ई० सन् १९६९-७१ में मुनि श्रीपुण्यविजयजी, पं. दलसुख मालवणिया एवं पं. अमृतलाल भोजक द्वारा सम्पादित जैन आगम ग्रन्थमाला श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा दो भागों में 'पण्णवणासुत्तं' नाम से प्रकाशित आवृत्ति । यह आवृत्ति अब तक की प्रकाशित सभी आवृत्तियों में सर्वथा शुद्ध है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने इसमें इसके पूर्व की समस्त आवृत्तियों का लेखा-जोखा निष्पक्ष प्रस्तुत किया है।
इसके अतिरिक्त आगमसुधा-सिन्धु (लाखाबावल - १९७७), उवांगसुत्ताणि ( आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती - १९८७), आगमसुत्ताणि, संपा० मुनि दीपरत्नसागर, अहमदाबाद १९९५), आगमदीप ( मुनि दीपरत्नसागर, अहमदाबाद १९९७) आदि प्रज्ञापना के प्रमुख प्रकाशित संस्करण हैं ।
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प्रज्ञापना की विषयवस्तु प्रज्ञापना पद
छत्तीस पदों वाले प्रज्ञापनासूत्र का प्रथम पद प्रज्ञापना पद है । इसमें जैन दर्शन सम्मत जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व की प्रज्ञापना --प्रकर्षरूपेण प्ररूपणा भेदप्रभेद बताकर की गयी है । सूत्र २ में ३६ पदों के विवेचन के बाद सूत्र ३ में प्रज्ञापना के स्वरूप और प्रकार की चर्चा की गयी है । सूत्र ४ में अजीव प्रज्ञापना के स्वरूप
और प्रकार बताये गये हैं । अजीव प्रज्ञापना जीव प्रज्ञापना के पूर्व की गयी है, क्योंकि इसमें जीवतत्त्व की अपेक्षा वक्तव्य अल्प है । पश्चात् अजीवों के निरूपण में रूपी, अरूपी नामक दो भेद और उनके प्रभेद किये गये हैं । सूत्र ५-१३ तक अरूपी अजीव प्रज्ञापना उसके भेद-प्रभेदों - धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश और अद्धासमय (काल) की प्रज्ञापना की गयी है । रूपी अजीवप्रज्ञापना चार प्रकार की हैं- स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल । सूत्र १४ में जीवप्रज्ञापना के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसके दो प्रमुख भेदों -असंसार समापन एवं संसार समापन जीवों की चर्चा की गयी है। सूत्र १५ से १७ तक असंसार समापन्न जीवों की प्रज्ञापना की गयी है और सिद्ध जीवों के १५ भेद बताये गये हैं। सूत्र १८ से १४७ तक संसार समापन्न जीवों के भेद-प्रभेदों की चर्चा की गयी है । इसमें एकेन्द्रिय संसारी जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकारों की चर्चा है- पृथ्वीकायिक (२०-२५), अप्कायिक (२६-२८), तेजस्कायिक (२९-३१), वायुकायिक (३२-३४) और वनस्पतिकायिक (३५५३) । वनस्पतिकायिक जीवों में प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों के १२ भेद,; साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों में वृक्षादि के १२ भेदों की व्याख्या, अनन्तजीवों वाली वनस्पति के लक्षण, बीज का जीव मूलादि का जीव बन सकता है या नहीं? तथा साधारण शरीर वनस्पतिकायिक जीवों का लक्षण बताया गया है (५४-५५)। सूत्र ५६ से ६० तक द्वीन्द्रिय संसार समापन्न जीवों की जाति एवं योनियां, त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों की प्रज्ञापना, चतुर्विध पंचेन्द्रिय तथा नैरयिक जीवों की प्रज्ञापना की गयी है। सूत्र ६१ से ६८ तक समग्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों के भेद,६९ से ८१ थलचर पंचेन्द्रिय,८२-८५ आसालिकों की उत्पत्ति,८६-९१ खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक के विविध भेद,९२-९७ तक समग्र मनुष्य जीव, सम्मूर्छिम मनुष्य उत्पत्ति के स्थान, गर्भज के तीन प्रकार, अन्तर्दीपिक मनुष्य के २८ भेद, अकर्मक मनुष्य के तीस भेद तथा कर्मभूमक मनुष्य के दो भेद- आर्य और म्लेच्छ की प्रज्ञापना की गयी है। सूत्र ९८ से १०६ में म्लेच्छ-आर्य के भेद, ऋद्धिप्राप्त आर्यों के ६ भेद, ऋद्धि-अप्राप्त आर्यों के ९ भेद, क्षेत्रार्य के २६ भेद, जात्यार्य, कुलार्य के ६
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६ भेद तथा कर्मार्य-शिल्पार्य के विविध भेदों का निरूपण किया गया है । सूत्र १०८ से १३८ तक ज्ञानार्य-दर्शनार्य-चारित्रार्य के विविध भेद तथा विविध समीक्षायें दी गयी हैं। सूत्र १३९ से १४७ तक चतुर्विध देवों, दश प्रकार के भवनवासी, आठ प्रकार के वाणव्यन्तर, पांच प्रकार के ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों के दो तथा देवों के विविध रूपों की प्रज्ञापना की गयी है । जीव- अजीव के मौलिक भेदों की चर्चा करते हुए कहीं भी सामान्य पदों जैसे द्रव्य, तत्त्व या पदार्थ की चर्चा नहीं की गयी है । यह अपने आप में इस आगम की प्राचीनता का द्योतक है। स्थानपद
दूसरे स्थानपद में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध जीवों के वासस्थान का वर्णन किया गया है । जीवों के निवास स्थान दो प्रकार के हैं- १. स्वस्थान, जहां जीव जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त रहता है और २. प्रासंगिक वासस्थान अथवा उपपात और समुद्घात के समय जीव का स्थान। (१४८-२११) अल्पबहुत्व पद
तृतीय अल्प-बहुत्व पद है जिसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल और महादण्डक इन सत्ताइस द्वारों की अपेक्षा से जीवों के अल्प-बहुत्व का विचार किया गया है । (२१२-३३४) स्थितिपद
चतुर्थ स्थितिपद में नैरयिक, भवनवासी, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों की स्थिति का वर्णन है ।(३३५-४३७) विशेषपद या पर्यायपद
पंचम विशेषपद या पर्यायपद में चौवीसी दण्डकों के क्रम से प्रथम जीवों के नैरयिक आदि विभिन्न भेद-प्रभेदों को लेकर वैमानिक देवों तक के पर्यायों की विचारणा की गयी है। तत्पश्चात् अजीव-पर्याय के भेद-प्रभेद तथा अरूपी अजीवके भेद-प्रभेदों की अपेक्षा से पर्यायों की संख्या पर विचार किया गया है । (४३८-५५८)
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व्युत्क्रान्तिपद
छठे व्युत्क्रान्तिपद में बारह मुहूर्त और चौबीस मुहूर्त का उपपात और उद्वर्तन (मरण) सम्बन्धी विरहकाल क्या है? कहां जीव सान्तर उत्पन्न होता है?, एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते और मरते हैं? कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? मर कर कहां जाते हैं?, परभव की आयु कब बंधती है ? आयुबन्ध सम्बन्धी आठ आकर्ष कौन से हैं-इन आठ द्वारों से जीव की प्ररूपणा की गयी है। (५५९-६९२) उच्छ्वासपद
सातवें उच्छ्वासपद में नैरयिक आदि के उच्छ्वास ग्रहण करने और छोड़ने के काल का वर्णन है। (६९३-७२४) संज्ञापद
आठवें संज्ञापद में जीव के आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और औघ, इन दस १० संज्ञाओं का २४ दण्डकों की अपेक्षा से निरूपण किया गया है। (७२५-७३७) योनिपद
नौवें योनिपद में जीव की शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत्त, संवत्त-विवृत्त, कूर्मोनत, शंखावर्त और वंशीपत्र, इन योनियों के आश्रय से समग्र विचार किया गया है। (७३८-७७३) चरम-अचरम पद
दसवें चरम-अचरम पद में --चरम है, अचरम है, अनेक चरम हैं, अनेक अचरम हैं, चरमान्त प्रदेश हैं, अचरमान्त प्रदेश हैं, इन छ: विकल्पों को लेकर २४ दण्डकों के जीवों का गत्यादि की दृष्टि से तथा विभिन्न द्रव्यों का लोक-अलोक आदि की अपेक्षा से विचार किया गया है। (७७४-८२९) भाषापद
ग्यारहवें भाषापद में भाषा सम्बन्धी विचार करते हुए बताया गया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है, उसकी आकृति किस प्रकार की है। इसके साथ ही भाषा के प्रकार के अन्तर्गत सत्य भाषा, मृषाभाषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा के क्रमशः दस और सोलह प्रकार बताये गये हैं । सत्य भाषा के दस प्रकार बताते हुएजनपदसत्य, संयतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीतसत्य, अपेक्षासत्य, व्यवहारसत्य, योगसत्य एवं उपमासत्य । मृषाभाषा दस प्रकार की होती है- क्रोधनिश्रित, माननिश्रित, मायानिश्रित, लोभनिश्रित, प्रेमनिश्रित, द्वेषनिश्रित, हास्यनिश्रित, भयनिश्रित
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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २१
आख्यायिकानिश्रित, व उपघातनिश्रित । सत्यमृषा भाषा दस प्रकार की है-उत्पन्नमिश्रित, विगतमिश्रित, उत्पन्नविगतमिश्रित, जीवमिश्रित, अजीवमिश्रित, जीवाजीवमिश्रित, अनन्तमिश्रित, प्रत्येकमिश्रित, अद्धामिश्रित एवं अद्धाद्धमिश्रित । इसीप्रकार असत्यामृषा भषा के १२ प्रकार हैं- आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, पृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छालोमा, अनभगृहीता, अभिगृहीता, संशयकरणी, व्याकृता एवं अव्याकृता । अन्त में सोलह प्रकार के वचनों -- एकवचन, द्विवचन, बहुवचन, स्त्रीवचन, पुरुषवचन, नपुंसकवचन, अध्यात्मवचन, उपनीतवचन, अपनीतवचन, उपनीतापनीतवचन, अपनीतोपनीतवचन, अतीतवचन, प्रत्युत्पन्नवचन, अनागतवचन, प्रत्यक्षवचन व परोक्षवचन का उल्लेख किया गया है। (८३०-९००) शरीरपद
__बारहवें शरीरपद में पांच शरीरों की अपेक्षा से २४ दण्डकों में से किसके कितने शरीर होते हैं । इसमें औदारिक, वैक्रयिक, आहारक, तैजस और कार्मण इन पांच शरीरों की अपेक्षा से जीवों का वर्णन है । (९०१-९२४) परिणामपद
तेरहवें परिणामपद में जीव के दस प्रकार के परिणाम बतलाये गये हैंगतिपरिणाम, इन्द्रियपरिणाम, कषायपरिणाम,लेश्यापरिणाम, योगपरिणाम, उपयोगपरिणाम, ज्ञानपरिणाम, दर्शनपरिणाम, चारित्रपरिणाम और वेदपरिणाम (१-३)। अजीवपरिणाम भी दस प्रकार का होता है- बंधनपरिणाम, गतिपरिणाम, संख्यानपरिणाम, भेदपरिणाम, वर्णपरिणाम, गंधपरिणाम, रसपरिणाम,स्पर्शपरिणाम,अगुरूलघुपरिणाम तथा शब्दपरिणाम। (९२५-९५७) कषायपद
चौदहवें कषायपद में क्रोधादि चार कषाय, उनकी प्रतिष्ठा, उत्पत्ति, प्रभेद तथा उनके द्वारा कर्म-प्रकृतियों के चयोपचय एवं बन्ध की प्ररूपणा की गई है । प्रकार के सन्दर्भ में क्रोध, मान, माया, लोभ; उत्पत्ति के सन्दर्भ में -क्षेत्र, वस्तु, शरीर व उपधि तथा प्रभेदों में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन आदि चार कषायों का निर्देश किया गया है ।(९५८-९७१) इन्द्रियपद
पन्द्रहवें इन्द्रियपद में दो उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, और स्पर्शेन्द्रिय इन पांच इन्द्रियों का संस्थान आदि २४ द्वारों के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशक में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तना, निर्वर्तनासमय, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रिय-उपयोग आदि तथा इन्द्रियों की अवगाहना, अवग्रह, धारणा
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आदि बारह द्वारों के माध्यम से चर्चा की गयी है । अन्त में इन्द्रियों के भेद-प्रभेद का विचार प्रस्तुत किया गया है । (९७२-१०६७)
प्रयोगपद
सोलहवें प्रयोगपद में सत्यमनः प्रयोग, असत्यमन: प्रयोग, सत्यमृषामनः प्रयोग, असत्यमृषामनः प्रयोग; इसी प्रकार वचन प्रयोग के चार भेद- औदारिकशरीरकाय प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियकमिश्रकायप्रयोग, आहारकशरीरकायप्रयोग, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग तथा तैजसकार्मणशरीरकायप्रयोग, (१-५) बताये गये हैं । गतिप्रपात के पांच भेद बताये गये हैं- प्रयोगगति, ततगति, बंधनछेदनगति, उपपातगति और विहायगति । (१०६८ - ११२२)
लेश्यापद
सत्रहवें लेश्यापद में छः उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में समकर्म, समवर्ण, समलेश्या, समवेदना, समक्रिया, और समआयु नामक अधिकार हैं । दूसरे उद्देशक में- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है। तीसरे उद्देशक में लेश्या सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। चौथे उद्देश में परिणाम, वर्ण, रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाढ, वर्गणा, स्थान और अल्प - बहुत्व नाम के अधिकारों का वर्णन है । साथ ही लेश्याओं के वर्ण और स्वाद का भी वर्णन है। पांचवें उद्देशक में लेश्या का परिणाम बताया गया है। छठें उद्देशक में किसकी कितनी लेश्याएं होती हैं? इस विषय का वर्णन है । (११२३ - १२५८ )
काय स्थितिपद
अठारहवें कायस्थितिपद में जीव, गति, इन्द्रिय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, अस्तिकाय और चरम के आश्रय से कायस्थिति का वर्णन है । (१२५९१३९८)
सम्यक्त्वपद
उन्नीसवें सम्यक्त्वपद में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यक्-मिथ्यादृष्टि के भेद से जीवों का वर्णन है । (१४०५)
अन्तक्रियापद
बीसवें अन्तक्रियापद में यह बताया गया है कि कौन-सा जीव अन्तक्रिया कर सकता है और क्यों? साथ ही अन्तक्रिया शब्द वर्तमान भव का अन्त करके नवीन
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २३
भव-प्राप्ति अथवा (मृत्यु) के अर्थ में भी यहां प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार की अन्तक्रिया का विचार चौबीस दण्डकवर्ती जीवों से सम्बन्धित किया गया है। कर्मों की अन्तरूप अन्तक्रिया तो एक मात्र मनुष्य ही कर सकते हैं। इसका वर्णन छः द्वारों के माध्यम से किया गया है । (१४०६ -- १४७३)
अवगाहना-संस्थान या शरीरपद
इक्कीसवें अवगाहना-संस्थान या शरीरपद में शरीर की विधि (भेद), संख्यान, प्रमाण, पुद्गलों के चय, शरीरों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनके द्रव्य, प्रदेश, द्रव्यप्रदेशों तथा अवगाहना के अल्प - बहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । (१४७४ - १५६६) क्रियापद
बाईसवें क्रियापद में कायिकी, अधिकरिणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी व प्राणातिपातिकी इन ५ क्रियाओं तथा इनके भेदों की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों का विचार किया गया है । (१५६७-१६६३)
कर्मप्रकृतिपद
तेईसवें कर्मप्रकृतिपद के पहले उद्देशक में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में से कौन जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है, इसका विचार है। द्वितीय उद्देशक में कर्मों की उत्तरप्रकृतियों और उनके बन्ध का वर्णन है । (१६६४ - १७५३)
कर्मबंधपद
चौवीसवें कर्मबंधपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है ? इसका विचार किया गया है । (१७५४-१७६८) कर्मवेदपद
पच्चीसवें कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया गया है। (१७६९-१७७४) कर्मवेदबन्धपद
छब्बीसवें कर्मवेदबन्धपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है? इसका विचार किया गया है। (१७७५-१७८६) कर्मवेदवेदपद
सत्ताइसवें कर्मवेदवेदपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? इसका विचार किया गया है। (१७८७१७९२)
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२४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
आहारपद
अट्ठाईसवें आहारपद के पहले उद्देशक में सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक, किसका आहार करता है, क्या सर्वात्मप्रदेशों द्वारा आहार करता है? कितना भाग आहार करता है? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है, किस रूप से उसका परिणमन होता है ? क्या एकेन्द्रिय शरीर आदि का आहार करता है ? लोमाहार और मनोभक्षी क्या है -आदि का विचार किया गया है (१-९) । दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति-- इन तेरह अधिकारों का वर्णन है । (१७९३-१९०७)
उपयोगपद
उनतीसवें उपयोगपद में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग इन दो उपयोंगों की चर्चा की गयी है । साकार उपयोग के आठ भेद होते हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान व विभंगज्ञान । अनाकार उपयोग चार होते हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन। (१९०८१९३५)
पश्यत्तापद
तीसवें पश्यत्तापद में भी पूर्ववत साकारपश्यत्ता और अनाकार - पश्यत्ता ये दो भेद बताकर पुनः साकारपश्यत्ता के श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान व विभंगज्ञान भेद और अनाकार पश्यत्ता के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन आदि तीन भेद किये गये हैं । (१९३६१९६४)
संज्ञीपद
इकतीसवें संज्ञीपद में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी के आश्रय से जीवों का वर्णन है । (१९६५-१९७३)
संयतपद
बत्तीसवें संतपद में संयत, असंयत और संयतासंयत के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है । (१९७४-१९८०)
अवधिपद
तैंतीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यंतरावधि, बाह्यावधि, देशावधि, क्षय-अवधि, वृद्धि - अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती- इन द्वारों की व्याख्या की गयी है । (१९८१-२०३१)
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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २५
परिचारणापद
चौंतीसवें परिचारणापद (प्रवीचार) में अनन्तरागत आहारक (उत्पत्ति के समय तुरन्त आहार करने वाला), आहार विषयक आभोग और अनाभोग, आहार रूप से ग्रहण किये हुए पुलों की अज्ञानता, अध्यवसायकथन, सम्यक्त्तव - प्राप्ति तथा कायस्पर्श, रूप, शब्द और मन के सम्बन्ध में परिचारणा-विषयोपभोग, उनका अल्प- बहुत्व इन अधिकारों का वर्णन है । (२०३२-२०५३)
वेदनापद
पैंतीसवें वेदनापद में शीत, उष्ण, शीतोष्ण, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक, मानसिक, शारीरिक-मानसिक; साता, असाता, साता-असाता; दुःखा, सुखा, अदुःखासुखा; अभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी; निदा (चित्त की संलग्नता ), अनिदा नामक वेदनाओं के आश्रय से जीवों का वर्णन है । (२०५४-२०८४)
समुद्घातपद
अन्तिम छत्तीसवें समुद्घातपद में वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात का विस्तार से वर्णन किया गया है । ( २०८५ - २१६७)
दार्शनिक समीक्षा
प्रज्ञापना का दर्शन के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान है। भगवान महावीर के समय में श्रमण परम्परा के अन्य पांच सम्प्रदाय विद्यमान थे । उन पांचो सम्प्रदाय का नेतृत्व क्रमशः पूरण कश्यप, मंखलीगोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुध कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्त कर रहे थे। साथ ही तथागत बुद्ध की भी परम्परा उनके सामने थी। यदि हम उन सभी धर्माचार्यों के दार्शनिक पहलुओं का चिन्तन करें तो स्पष्ट होगा कि भगवान महावीर ने जीव- अजीव तत्त्वों का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण किया, वैसा सूक्ष्म विश्लेषण उस युग का कोई भी धर्माचार्य नहीं कर सका । भगवान बुद्ध तो 'अव्याकृत' कहकर आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी प्रश्नों को टालते रहे। जबकि जीव एवं अजीव जैन दर्शन के केन्द्रीभूत विषय रहे हैं । समस्त दार्शनिक विश्लेषण इन्हीं दो तत्त्वों के परितः घूमता है। जैन दर्शन ही नहीं अपितु समस्त भारतीय दर्शन का ध्येय है- दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति या मोक्ष प्राप्ति और मोक्ष का समूचा सिद्धान्त जीव के लिये ही तो है । प्रज्ञापना इन जीव और अजीव तत्त्वों का अनेक आयामों से विशद् विवेचन करती है। जीव एवं अजीव की चर्चा आगमों में - समवायांग, स्थानांग, जीवाजीवाभिगम, षट्खण्डागम आदि में अनेक आचार्यों द्वारा की गयी है । किन्तु जितना सूक्ष्म विवेचन प्रज्ञापना में उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है ।
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२६ : श्रमण,
वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
जीव - अजीव की विस्तृत व्याख्या
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प्रज्ञापना जीव - अजीव का उनके प्रत्येक सम्भव भेद-प्रभेदों के साथ चर्चा करती है । अजीवों के निरूपण में रूपी, अरूपी नामक दो भेद और उनके प्रभेद किये गये हैं। सूत्र ५ - १३ तक अरूपी अजीवप्रज्ञापना उसके भेद - प्रभेदों - धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश और अद्धासमय (काल) की प्रज्ञापना की गयी है। रूपी अजीवप्रज्ञापना चार प्रकार की है- स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल सूत्र १४ में जीवप्रज्ञापना के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसके दो प्रमुख भेदों - असंसार समापन्न एवं संसार समापन्न जीवों की चर्चा की गयी है। सूत्र १५ से १७ तक असंसार समापन्न जीवों की प्रज्ञापना की गयी है और सिद्ध जीवों के १५ भेद बताये गये हैं । सूत्र १८ से १४७ तक संसार समापन जीवों के भेद-प्रभेदों की चर्चा की गयी है । इसमें एकेन्द्रिय संसारी जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकारों की चर्चा हैपृथ्वीकायिक (२०-२५), अप्कायिक ( २६ - २८), तेजस्कायिक (२९-३१), वायुकायिक (३२-३४) और वनस्पतिकायिक (३५-५३) । वनस्पतिकायिक जीवों में प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक जीवों के १२ भेद, साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों में वृक्षादि के १२ भेदों की व्याख्या की गयी है। सूत्र ५६ से ६० तक द्वीन्द्रिय संसार समापन्न जीवों की जाति एवं योनियां, त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय जीवों की प्रज्ञापना, चतुर्विध पंचेन्द्रिय तथा नैरयिक जीवों की प्रज्ञापना की गयी है । सूत्र ६१ से ६८ तक समग्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों के भेद, ६९ से ८१ थलचर पंचेन्द्रिय, ८२-८५ आसालिकों की उत्पत्ति, ८६-९१ खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक के विविध भेद, ९२-९७ तक समग्र मनुष्य जीव, सम्मूर्च्छिम मनुष्य उत्पत्ति के स्थान, गर्भज के तीन प्रकार, अन्तद्वीपिक मनुष्य के २८ भेद, अकर्मक मनुष्य के तीस भेद तथा कर्मभूमक मनुष्य के दो भेद- आर्य और म्लेच्छ की प्रज्ञापना की गयी है । सूत्र ९८ से १०६ में म्लेच्छ-आर्य के भेद, ऋद्धिप्राप्त आर्यों के ६ भेद, ऋद्धिअप्राप्त आर्यों के ९ भेद, क्षेत्रार्य के २६ भेद, जात्यार्य, कुलार्य के ६-६ भेद तथा कर्मार्य-शिल्पार्य के विविध भेदों का निरूपण किया गया है। सूत्र १०८ से १३८ तक ज्ञानार्य - दर्शनार्य - चारित्रार्य के विविध भेद तथा विविध समीक्षायें दी गयी हैं । सूत्र १३९ से १४७ तक चतुर्विध देवों, दस प्रकार के भवनवासी, आठ प्रकार के वाणव्यन्तर, पांच प्रकार के ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों के दो तथा देवों के विविध रूपों की प्रज्ञापना की गयी है ।
इसके अतिरिक्त जिन प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण हुआ है उनमें अस्तिकाय की अवधारणा, जीवों का निवास स्थान, पर्याय, जीव के शरीर, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या, कर्म - सिद्धान्त, उपयोग- पश्यत्ता तथा ज्ञान-दर्शन आदि प्रमुख हैं।
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आस्तिकाय की अवधारणा
प्रज्ञापना में अजीव का निरूपण रूपी और अरूपी इन दो भेदों में करके पुद्गल द्रव्य का निरूपण किया गया है। अरूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगम में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया गया है । किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से अस्तिकाय शब्द 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों के मेल से बना है । अस्ति का अर्थ है 'सत्ता' और काय का अर्थ यहां पर शरीर रूप अस्तिवान के रूप में नहीं हुआ है। क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त सभी अमूर्त हैं । अतः यहां काय क लाक्षणिक अर्थ है- जो अवयवी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयव द्रव्य हैं वे अनस्तिकाय हैं । किन्तु कायत्व का अर्थ सावयवत्व यदि मानते हैं तो एक समस्या यह उत्पन्न होती है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयव हैं तो क्या वह अस्तिकाय नहीं हैं । परमाणु पुद्गल का ही एक विभाग है फिर भी उसे अस्तिकाय माना है। जैन आचार्यों ने इसका समाधान किया है। यह सत्य है कि धर्म, अधर्म, आकाश अविभाज्य और अखण्ड द्रव्य हैं किन्तु क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी हैं । इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा से सावयत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गयी है । परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है, वह काय रूप नहीं है किन्तु जब वह परमाणु स्कन्ध का रूप धारण करता है तो वह कायत्व और सावयत्व को धारण कर लेता है । प्रज्ञापना १८वें पद के २१वें अस्तिकायद्वार में इस पर चर्चा करती है ।
जीवों का स्थान
संसारी और सिद्ध के भेद और प्रभेद की चर्चा करने के पश्चात् उन जीवों के निवास स्थान का चिंतन किया गया है । इस चिंतन का मूल कारण यह है कि आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में अनेक मत मिलते हैं । वैदिक दर्शनन्याय-वैशेषिक, मीमांसा, शांकर वेदान्त जहां आत्मा को व्यापक या विभु मानते हैं, वहां जैन दर्शन आत्मा को सर्वव्यापक या विभु न मानकर शरीर परिमाणवाला मानता है । उसमें संकोच और विस्तार दोनों गुण हैं । जैन दर्शन आत्मा को वैदिकों की भांति कूटस्थ नित्य न मानकर परिणामी नित्य मानता है । इस विराट् विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन-सा जीव किस स्थान में है ? इस प्रश्न का चिंतन प्रज्ञापना द्वितीय पद में करती है। जैन दृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान का ग्रहण करता है । स्थान दो प्रकार के हैं - एक स्थायी दूसरा प्रासंगिक । एक जीव
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देवाय पूर्णकर मानव बनने वाला है; वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है । वह तो प्रासंगिक यात्रा है जिसे उपपात स्थान कहा गया है । दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है । वेदना, मृत्यु, विक्रिया प्रभृत आदि विशिष्ट प्रसंगों पर जो जीव का विस्तार होता है वह समुद्घात है । प्रज्ञापना तीनों स्थान का विश्लेषण करती है। एकेन्द्रिय जाति की जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। नारक और तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव के लिये पृथक्-पृथक् स्थानों का निर्देश किया गया है तथा सिद्धलोक के अग्रभाग में अवस्थित है ।
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प्रज्ञापना में अजीव के स्थान के सन्दर्भ में विचार नहीं किया गया है। इसका कारण है कि जिस प्रकार जीवों के प्रभेदों में अमुक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुद्गल के सम्बन्ध में नहीं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं इसलिये उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी ।
पर्याय
पर्याय शब्द का यहां अर्थ 'विशेष' है। विशेष शब्द के दो अर्थ हैं- प्रकार और पर्याय । भेदों का निरूपण तो प्रथम पद I 'था परन्तु प्रत्येक भेद में अनन्त पर्यायें हैं, यह पांचवें पद में बताया गया है। इसमें २४ दण्डक और २५ वें सिद्ध इस प्रकार उनकी संख्या और पर्यायों का विचार किया गया है। जीव द्रव्य के नरकादि भेदों व पर्यायों का विचार अनेक दृष्टियों से किया गया है। इसमें जैन सम्मत अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग हुआ है । जीव के नरकादि के जिन भेदों की पर्यायों का निरूपण है, उसमें द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, अवगाहनार्थता, स्थिति, कृष्णादि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, ज्ञान और दर्शन- इन दस दृष्टियों से विचार किया गया है। आचार्य मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में इन दस दृष्टियों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों में विभक्त किया है।
परमाणुवादी न्याय-वैशेषिक परमाणु को नित्य मानते हैं और उसके परिणाम पर्याय परिणाम नहीं मानते । जैन परमाणु को भी परिणामी नित्य मानते हैं, परमाणु स्वतन्त्र होने पर भी उसमें परिणाम होता है, यह प्रस्तुत पद से स्पष्ट होता है । इस प्रकार प्रज्ञापना अस्तिकाय के सम्बन्ध में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करती है।
जीवों के शरीर
प्रज्ञापना बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिंतन करती है । उपनिषदों में जिसप्रकार आत्मा के अन्नमय, प्राणमय आदि पांच कोशों का वर्णन है,
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उसी प्रकार प्रज्ञापना जीव के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच भेद करती है । प्रज्ञापना की इस अवधारणा की उपनिषदों के पंचकोशों से तुलना की जा सकती है । उपनिषदों में वर्णित पंचकोशों में अन्नमय (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है), प्राणमय (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व),मनोमय (मन की विकल्पात्मक क्रिया), विज्ञानमय (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) तथा आनन्दमय (आनन्द की स्थिति) ये पांचकोश बताये गये हैं । जैन दर्शन में औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मण शरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मण शरीर के कारण ही स्थूल शरीर उत्पन्न होती है। कार्मण शरीर की तुलना नैयायिकों के अव्यक्त शरीर तथा सांख्यों के अव्यक्त सूक्ष्म या लिंग शरीर से की जा सकती है।
___ चौबीस दण्डकों में कितने-कितने शरीर हैं,यह चिंतन कर बताया गया है कि औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं। औदारिक शरीर तिर्यंचों को, वैक्रिय शरीर नैरयिक और देवों को होता है। वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यंचों तथा वायुकाय को औदारिक शरीर होता है । आहारक शरीर वह है जो आहारक नामक लब्धि विशेष से निष्पन्न हो। उसी प्रकार तैजस् शरीर तेजोलब्धि से प्राप्त एवं कार्मण शरीर कर्म समूह से निष्पन्न होता है । तैजस और कार्मण सभी सांसारिक जीवों में होता है। कषाय का स्वरूप
प्रज्ञापना के चौदहवें सूत्र में कषाय का वर्णन किया गया है । कर्मबन्धन का कारण मुख्य रूप से कषाय ही हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारो कषाय चौवीस दण्डकों में बताये गये हैं । क्षेत्र, वस्तु, शरीर और उपाधि को लेकर सम्पूर्ण शारीरिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है । प्रज्ञापना में यह बताया गया है कि कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी वार बिना निमित्त के कषाय उत्पन्न होता है। कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हुए भी आत्म विकास के घात की दृष्टि से प्रत्येक के- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्ख्यानावरण, प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन, ये चार स्तर हैं। ये चारो प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर मंद, मन्दतर होते हैं। साथ ही अभोगनिवर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त इस प्रकार के भेद भी किये गये हैं। लेश्या सिद्धान्त
जैनदर्शन में लेश्या को एक प्रकार का पौगलिक पर्यावरण माना गया है । उत्तराध्ययन-बृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है । टीकाकार ने लेश्या का अर्थ कषाय अनुरंजित योग-प्रवृत्ति किया है। दिगम्बर परम्परा में शिवार्य ने जीव के परिणाम को छाया पुद्गलों से प्रभावित करने
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वाला बताया है । शरीर के वर्ण और आणविक आभा द्रव्य लेश्या है तो विचार भाव लेश्या है । प्रज्ञापना सत्रहवें पद के द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कपोत आदि छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्याएं होती हैं, इनका जितने विस्तार से निरूपण करती है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता । तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या, चतुर्थ उद्देशक एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन तथा पांचवें में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन, बताया गया है। जो प्रज्ञापना की विशेषता है ।
ज्ञान और दर्शन
ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन दर्शन में अति प्राचीन है। ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म को ज्ञानावरण तथा दर्शन को आच्छादित करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं । इन कर्मों के क्षय और उपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं । केवली के दोनों उपयोग एक साथ हो सकते हैं या नहीं यह एक विवादास्पद प्रश्न रहा है । आवश्यक नियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग नहीं हो सकते । श्वेताम्बर परम्परा के आगम इस सम्बन्ध में एकमत हैं वे केवली के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं मानते । दिगम्बर परम्परा मानती है कि केवल दर्शन और केवल ज्ञान युगपत् होते हैं ।
सिद्धसेन दिवाकर तीसरी परम्परा के वाहक हैं और उनका मानना है कि मनःपर्याय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन में भेद करना सम्भव नहीं है। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय युगपत् होता है। उस क्षय से होने वाले उपयोग में, 'यह प्रथम होता है, 'यह बाद में होता है', इस प्रकार का भेद कैसे किया जा सकता है । अतः तर्कसंगत समाधान यह है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । अतः जहां दिगम्बर परम्परा में केवल युगपत् पक्ष मान्य रहा है, श्वेताम्बर परम्परा में क्रम, युगपत् और अभेद तीनों पक्ष मान्य हैं । प्रज्ञापना में उपयोग और पश्यत्ता के सम्बन्ध में अन्य चर्चा नहीं है । उसके अवधि पद में अवधि ज्ञान के सम्बन्ध में भी विषय, संस्थान, आभ्यन्तर और वाह्य अवधि, देशावधि, अवधि की क्षय दृष्टि तथा प्रतिपाती अप्रतिपाती इन सात विषयों की चर्चा है । अवधिज्ञान किसमें कितना होता है इसकी विस्तृत चर्चा प्रज्ञापना में है । अत: प्रज्ञापना को इस चर्चा का द्वार कहा जा सकता है 1
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अतः हम देखते हैं कि प्रज्ञापना में साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास और भूगोल के अनेक विषयों के अतिरिक्त जैन दर्शन के दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों जीव- अजीव से सम्बन्धित सभी भेदो-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन हुआ है। यद्यपि जीव- अजीव से
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सम्बन्धित अनेक अवधारणाओं का विकास बाद के ग्रन्थों में हुआ किन्तु उन विषयों के मौलिक रूप का दिग्दर्शन तो प्रज्ञापना ही कराती है। यही कारण है कि अंग और उपांग भी विभिन्न विषयों की विशद् चर्चा हेतु प्रज्ञापना के अध्ययन का निर्देश करते हैं । दार्शनिक जैन पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी विशेष रूप से इस ग्रंथ में हुआ है । आज आवश्यकता है इसके दार्शनिक प्रदेयों को रेखांकित कर उन्हें न केवल भारतीय अन्य प्रमुख भाषाओं बल्कि विदेशी भाषाओं में अनूदित किया जाए ताकि इस उपांग के विषय में अधिक से अधिक लोग जान सकें और आज के विकसित समाज और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इसकी महत्ता का मूल्यांकन किया जा सके ।
सन्दर्भ :
१.
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८.
अज्झयणमिणं चित्तं, प्रज्ञापनासूत्र, सम्पा० आचार्य मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८३, गाथा - ३
वही, गा०२-३
भगवती, श० १६ उ०६, सू०५८० आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पृ०२७०
आवश्यकचूर्णि पृ० २७५
महावीरचरियं ५ / १५५
त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित १० / २ / १४६
भगवती, श० १६ उ०६, अभयदेववृत्ति सहित, आगमोदय समिति, बम्बई, १९१८ - १९२१,
प्रज्ञापनासूत्र, सम्पा० आचार्य मधुकर मुनि, पद - २२ सूत्र १५६७.
पण्णवणा, मूलपाठ पृ. १
इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थांगस्योपांगम्, तदुक्तार्थप्रतिपादनात् -- प्रज्ञापना मलय
गिरि वृत्ति पत्र . १
प्रज्ञापनासूत्र - ३
षट्खण्डागम, पुस्तक - १. प्रस्तावना पृ-७२
९.
१०. प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्रांक- ६ अ
११. वही, पत्रांक- ५ अ
१२. प्रज्ञापना - मलयगिरि वृत्ति पत्रांक ७ ब
१३. भगवतीसार- पृ. २९१, ३९२, ३६१-६२, ३९६-९७, ४०४, ४५७, ६२७, ६८०
१४. शिक्षासमुच्चय, पृ.१०४, ११२, २००
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३२ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
१५. औपपातिक सूत्र, सम्पा० आचार्य मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति
व्यावर
१६. षट्खण्डागम, पुस्तक-६ में कुल नौ चूलिकाएं हैं, पुस्तक १० में एक, ११ में २,
१२ में ३, १४ में सूत्र ५८१ में बताया गया है, 'एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम । १७. वही, पुस्तक-९, सूत्र-४५, पुस्तक-१४ तक १८. वही, पुस्तक १, सूत्र ७; पुस्तक-३ सूत्र-१
वही, पुस्तक १, सूत्र७; पुस्तक-९ सूत्र-७१ २०. वही, पुस्तक १, सूत्र८; पुस्तक-३ सूत्र-१ २१. वही, पुस्तक ६, सूत्रर; पुस्तक-६ सूत्र-१, पुस्तक १४ सूत्र-१ २२. वही- पुस्तक ७ पृ-५७५ २३. प्रज्ञापनासूत्र १४४-१४६५ एवं षटखण्डागम पुस्तक ६ सूत्र २१६, २२० आदि।
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महामंत्र नवकार की साधना और उसका प्रभाव डॉ० सुधा जैन*
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
साधना के अनेक प्रकार हैं, जैसे- जप, तप, तंत्र, मंत्र आदि। सबसे बड़ी साधना है अध्यात्म की, भीतर प्रवेश करने की अर्थात् जो साधना व्यक्ति को बाहरी यात्रा से हटाकर भीतर की यात्रा करा सके, वह साधना सबसे बड़ी साधना है | चेतना का सम्पर्क जितना इसके माध्यम से होता है उतना किसी के माध्यम से नहीं होता । हम जिस सत्य को इस माध्यम से जान सकते हैं अन्य किसी माध्यम से नहीं जान सकते। यदि हम भीतर की यात्रा नहीं करते हैं तो अध्यात्म के स्थान पर कर्मकाण्ड विकसित होता है अर्थात् अध्यात्म की ज्योति कर्मकाण्ड की राख से ढक जाती है, प्रकाश नीचे दब जाता है और कालिमा ऊपर आ जाती है।
भीतर की यात्रा करने का अर्थ है- प्राण को भीतर ले जाना अर्थात् जो ऊर्जा बाहर की तरफ प्रवाहित हो रही होती है उसे दिशा परिवर्तित कर भीतर ले जाना अर्थात् विद्युतीय ऊर्जा को पूरे शरीर में ले जाना। मन के साथ ही प्राण चलता है और प्राण जहाँजहाँ जाता है वहीं ऊर्जा जाती है। जहाँ ऊर्जा का प्रवाह होता है वहाँ किसी प्रकार का दोष ठहर नहीं पाता है, रोग रह नहीं पाता । प्राण या ऊर्जा की कमी होने या असंतुलन के कारण ही रोग होते हैं। जब संतुलन हो जाता है तो सारे दोष नष्ट हो जाते हैं। भीतर जाने का अर्थ ही है- ऊर्जा का विकास, ऊर्जा का पूरे शरीर में अवगाहित होना ।
नवकार की साधना प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक है कि व्यक्ति का आहार शुद्ध हो, मन और वाणी शुद्ध हो । मन और वाणी भी आहार पर ही आधारित है। कहा भी गया है- 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन'। आहार की अधिक मात्रा एवं अपथ्य आहार से शरीर में मल संचित होते हैं, जिससे नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रह पाता है और मन का निर्मल रहना भी असंभव हो जाता है, अतः सम्यक् एवं संतुलित आहार का ध्यान रखना आवश्यक है।
मनुष्य का सबसे बड़ा बल आत्मबल है। ध्यान, स्मरण, जप, स्तुति, भक्ति, उपासना आदि सभी अनन्त आत्मबल को जगाने के साधन हैं । भगवान, गुरु एवं मंत्र आदि के सहारे हम अपनी आत्म-शक्तियों को और अधिक विकसित एवं प्रखर बना सकते हैं। विकसित और प्रखर आत्मशक्ति ही सब चमत्कारों की जननी है।
* वरिष्ठ प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई. टी. आई. मार्ग, वाराणसी - २२१००५
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३४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
वैदिक धर्मानुयायियों में जो ख्याति और महत्त्व गायत्री मंत्र का है, बौद्धों में त्रिसरण / त्रिशरण मंत्र का है, जैनों में वही ख्याति और महत्त्व नवकारमंत्र का है। समस्त धार्मिक और सामाजिक कृत्यों के आरम्भ में इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है। जैन समाज की सभी शाखाओं में यह समान रूप से प्रचलित है। नवकार मंत्र एक लोकोत्तर मंत्र है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण रूप में विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन, स्मरण, चिन्तन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयात्मक मंत्र है। लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं, किन्तु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए नवकारमंत्र सर्वकार्य सिद्धिकारक मंत्र माना जाता है।
सभी धर्मावलम्बियों ने अपने-अपने धर्म में एक मूलमंत्र को स्थान दिया है, परन्तु वे नवकार महामंत्र से भिन्नता रखते हैं, क्योंकि उन मंत्रों में प्रतीक रूप में व्यक्ति5- पूजा को प्रथम स्थान दियागया है, जबकि नवकारमंत्र में व्यक्ति-पूजा के स्थान पर गुणपूजा को महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति-पूजा में शक्ति सीमित होती है, जबकि गुणपूजा की शक्ति असीम, अनंत होती है। नवकारमंत्र में गुणपूजा की प्रधानता है, व्यक्ति-पूजा की नहीं ।
'अभिधान राजेन्द्रकोष' में 'णमो' शब्द के तीन प्रकार दर्शाये गये हैं- १. समुत्थानपूर्वक (काय से) २. वचनपूर्वक (वचन से) ३. लब्धिपूर्वक (भाव से)। वही नमस्कार कर्मक्षय का हेतुभूत बनता है जो मन-वचन-काय से किया जाता है। जहाँ नमस्कार करने का परिणाम ही नहीं है वहाँ नमस्कार द्रव्य-नमस्कार की श्रेणी में आता है । फलत: वह कर्मक्षय का निमित्त नहीं बन सकता। किसी भी या कैसी भी आत्मा को नमस्कार करने से कर्मक्षय नहीं होता है। उसके लिए योग्य उत्तम आत्मा जो श्रेष्ठ स्थान पर रहता है जो परमेष्ठी कहलाता है, उसे नमस्कार करने से कर्मक्षय होता है। " जगत् के सर्वोत्तम श्रेष्ठ स्थान पर स्थित आत्माएँ पाँच हैं- अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनको पंच-परमेष्ठी कहा गया है, क्योंकि अरिहन्त का मार्गोपदेशितपना, सिद्ध का शाश्वतपना, आचार्य की आचार पालनता, उपाध्याय का विनय गुण एवं साधु का सहायकत्व गुण अत्यन्त उत्कृष्ट होने से ये पाँचो पूज्य हैं, श्रेष्ठ हैं, नमस्करणीय व परमश्रेष्ठ पुरुष हैं।' जगत् में इन पाँचों के अलावा कोई परमश्रेष्ठ पुरुष नहीं है, अत: इन पाँचों में समाविष्ट आत्माओं को किया गया नमस्कार ही कर्मक्षय में निमित्त बनता है।
नवकार महामंत्र चौदह पूर्वों का सार है। विश्व की समस्त शाब्दिक विशिष्टता, ज्ञानराशि चौदह पूर्वों में समा जाती हैं। इसलिए इस महामंत्र को महासागर की उपमा दी गई है। यह केवल मंत्र ही नहीं, अपितु महामंत्र है। यह महामंत्र क्यों है इसके समाधान में कुछ तथ्य निम्न है -
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महामंत्र नवकार की साधना और उसका प्रभाव : ३५
१. नवकारमंत्र महामंत्र इसलिए है कि यह सुप्तात्मा को जागृत कर अध्यात्म
यात्रा को सम्पन्न करती है। नवकार महामंत्र कामनापूर्ति या इच्छापूर्ति का मंत्र नहीं है, अपितु यह वह मंत्र है जो कामना को समाप्त कर देता है। कामनापूर्ति के अनेक मंत्र हैं, जैसे- सरस्वती मंत्र, लक्ष्मी मंत्र, रोग
निवारण मंत्र, सर्पदंश मुक्ति मंत्र आदि। २. इस मंत्र के महामंत्र होने में दूसरा हेतु यह है कि यह एक मार्ग है। मोक्ष
मार्ग के चार चरण हैं- सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र
और सम्यक्-तप। अर्हत् अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र और शक्ति रूपी चतुष्टयी का समन्वित रूप होता है और वही मोक्ष का मार्ग है। अत: यह
मंत्र मार्गदाता है। यही कारण है कि इसे महामंत्र कहा जाता है। ३. इसका तीसरा हेतु है- दुःख मुक्ति के सामर्थ्य का होना। ४. चौथा हेतु है- इससे वृत्तियों का ऊर्वीकरण, बुद्धि का ऊर्ध्वारोहण
आदि होता है।
पूजन का आरम्भ नवकार महामंत्र से होता है। पाँचों परमेष्ठियों को एक साथ नमस्कार होने से यह मंत्र पंच-परमेष्ठी कहलाता है। पंच-परमेष्ठी के अनादि होने के कारण इस मंत्र को अनादि माना जाता है। यह महामंत्र संसार का सार है- जन्म-मरण रूप संसार से छूटने का सुकर अवलम्बन और सारतत्त्व है, तीनों लोकों में अनुपम है। इस मंत्र का जाप करने से किसी प्रकार का पाप नष्ट हुए बिना नहीं रहता है। जिस प्रकार अग्नि का एक कण घास-फूस के बड़े-बड़े ढेरों को नष्ट कर देता है उसी प्रकार यह मंत्र भी सभी पापों को नष्ट करने वाला होने के कारण पापारि कहलाता है, अर्थात् यह मंत्र कर्मों का निर्मूल विनाश करने वाला है।
नवकारमंत्र के एक अक्षर का भी भाव सहित स्मरण करने से सात सागर तक भोगे जाने वाला पाप नष्ट हो जाता है। एक पद का भावसहित स्मरण करने से पचास सागर तक भोगे जाने वाले पाप का नाश होता है और समग्र मंत्र का भक्ति भाव सहित विधिपूर्वक स्मरण करने से पाँच सौ सागर तक भोगे जाने वाले पाप का नाश हो जाता है। अभक्त प्राणी भी इस मंत्र के स्मरण से स्वर्गादि के सुखों को प्राप्त करता है।
नवकार महामंत्र की आराधना अनेक रूपों में की जाती है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, अपितु शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है। इसमें पाँच पद और पैंतीस अक्षर हैं। इसका संक्षिप्त रूप ॐ है जिसमे पाँचों पद समाहित हैं 'अ+ आ = आ + उ = ओ + म = ॐ। ॐ पूर्ण परमेष्ठी का वाचक है। मंत्र के तीन तत्त्व हैं- शब्द, संकल्प और साधना। इन तीनों के होने पर ही मंत्र सिद्धि हो पाती है। मंत्र आराधना
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
SHR
HAMITRA
की अनेक निष्पत्तियां हैं जो आन्तरिक व बाह्य या मानसिक व शारीरिक हैं, जैसे- मन की प्रसन्नता, चित्त की संतुष्टि, स्मृति शक्ति का विकास, बौद्धिक शक्तियों का विकास, संकल्प शक्ति का विकास आदि।
नवकार महामंत्र का जाप करने के लिए सर्वप्रथम आठ प्रकार की शुद्धियों का होना आवश्यक है- द्रव्यशुद्धि,क्षेत्रशुद्धि, समयशुद्धि, आसनशुद्धि, विनयशुद्धि, मनशुद्धि, वचनशुद्धि व कायशुद्धि। इस महामंत्र का जाप यदि खड़े होकर करना हो तो तीन-तीन श्वासोच्छ्वास में एक बार पढ़ना चाहिए। एक सौ आठ बार के जाप में कुल तीन सौ चौबीस श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस महामंत्र के जाप करने की अन्य विधियां हैं- कमल जप, हस्तांगुली जप और माला जप।
कमल जप- सर्वप्रथम अढरदल कमल पर पूर्व दिशा की पंखुड़ी के प्रथम बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए क्रमशः १२ बिन्दुओं पर नवकार मंत्र जपना चाहिए। एक पखुड़ी में १२ बिन्दु अर्थात् पखुड़ियों पर जाप करने के बाद मध्य में भी १२ बिन्दुओं पर क्रमशः णमोकार मंत्र का जाप करने से एक भाग पूरा हो जाता है, अर्थात् ९ x १२ = १०८ अभ्यास के बाद इसी कमल दल को हृदय में साक्षात् देखना चाहिए और एक-एक बिन्दु पर जप करते हुए एक माला पूर्ण करनी चाहिए।
__ अंगुलि जप- इस विधि में आवर्त और शंखावर्तविधि अधिक प्रयोग में लाई जाती है। इन दोनों ही विधियों में दिये गये अंकों के आधार पर एक से बारह तक क्रमशः नवकारमंत्र का जाप किया जाता है। नौ बार यह क्रिया करने
रावत से १२ x ९ = १०८ बार मंत्र जप की एक माला पूरी हो जाती है।
माला जप - इस विधि में पद्मासन या सुखासन आदि मुद्रा में बैठकर हृदय के पास अर्थात् आनन्द केन्द्र पर दाहिने हाथ के अंगूठे व मध्यम अंगुली से माला फेरनी चहिए। अन्तिम मन का पूर्ण होने पर वापस घुमाकर माला प्रारंभ करनी चाहिए, बीच के सुमेरु को लाँघना नहीं चाहिए।
इस प्रकार किसी भी विधि से जो उपयुक्त लगे उससे नवकार मंत्र का जाप किया जा सकता है।
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महामंत्र नवकार की साधना और उसका प्रभाव : ३७
पाँचों मंत्र पदों के पैंतीस अक्षर तथा 'एसो पंच नमोक्कारी' चूलिका पद के तैंतीस अक्षर अर्थात् कुल अड़सठ अक्षरों का यह महामंत्र समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला कल्याणकारी अनादि सिद्ध मंत्र है। नवकारमंत्र की ध्वनियों में अचिन्त्य शक्ति है। इसका प्रत्येक अक्षर मंत्र है। शुद्ध और स्थिर चित्त से इसका ध्यान करने पर विपत्ति, भय और उपसर्ग से रक्षा होती है । यह कवच की भाँति रक्षा करता है । अशुभ ग्रहों की पीड़ा, भूत-प्रेत, हिंसा व जीवों का उपद्रव दूर करता है। आरोग्य, सुख एवं समृद्धि की वृद्धि करता है।
नवकार महामंत्र के पाँचों पदों का हमारे शरीर के स्थान, चक्र, रंग, ग्रन्थि से सम्बन्ध को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है
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पद
स्थान रंग चक्र ग्रह
ग्रन्थि
अरिहंत मस्तिष्क सफेद सहस्त्रार चन्द्र-शुक्र
सिद्ध मुख
आचार्य | कण्ठ
उपाध्याय हृदय
साधु नाभि
६
लाल आज्ञा सूर्य-मंगल
पीला विशुद्धि गुरु
केन्द्र
हाइपोथेलेमस ज्ञानकेन्द्र
पिच्यूटरी
पीनियल
दर्शनकेन्द्र
थायराइड विशुद्धिकेन्द्र
पैराथायराइड
नीला | अनाह बुध
थायमस
काला मणिपुर | शनि-राहु-केतु एड्रीनल
पेन्क्रियाज
नवकार महामंत्र के जाप का प्रभाव
अरिहंताण
अरिहंत (अरि + हंत) शब्द का अर्थ है- अरि यानी शत्रु का हनन करने वाला। आठ प्रकार के कर्म जीवात्मा के शत्रु हैं। उन कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने वाला अरिहंत कहलाता है। सबसे बलिष्ठ (घाती कर्म) चार कर्म - मोहनीय, अन्तराय, ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण का नाश करने के लिए साधक शुद्ध चारित्र, शुक्लध्यान तथा वीतराग भाव की सीढ़ियों पर चढ़कर अपने निर्मल तप एवं ध्यान की प्रचण्ड उज्ज्वल किरणों से इन्हें परास्त कर अरिहंत पद को प्राप्त करता है। तब क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन रूप दिव्य प्रकाश आत्मा में प्रकट होता है।
आनन्दकेन्द्र
तेजस केन्द्र
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इस पद्य का जप करने से ऋद्धि-सिद्धि, स्मरण शक्ति, भावात्मक शुद्धि, मानसिक शान्ति, दूरस्थ वस्तु का प्रत्यक्षीकरण, इन्द्रिय विकास, शुक्र-चन्द्र ग्रह जनित समस्या का समाधान, आवेश नियंत्रण, एकाग्रता, पवित्र वातावरण, मंत्र वर्ण का साक्षात्कार, मंत्र-सिद्धि का अनुभव तथा सवर्तोमुखी विकास आदि की प्राप्ति होती है। णमो सिद्धाणं
जिस आत्मा के सभी इच्छित कार्य पूर्ण हो गये हों तथा जिसके ध्यान चिन्तण-स्मरण से सब कार्य सिद्ध होते हों, वह परम आत्मा सिद्ध कहलाती है। अरिहंत परमात्मा चार घाती कर्म का नाश करने के पश्चात् शेष चार अघातीय कर्मों, वेदनीय, नाम, गोत्र आयुष्य का नाश होने पर सिद्ध भगवान बनते हैं। अरिहंत और सिद्ध ये दो देवाधिदेव हैं।
इस पद्य का मंत्र जाप करने से संकल्प की दृढ़ता का विकास, अन्तर्दृष्टि का विकास, दर्शन शक्ति का विकास, एकाग्रता, मंत्र वर्ण का साक्षात्कार, पवित्र वातावरण का निर्माण, सूर्य-मंगल ग्रह की समस्या का समाधान, कुण्ठा-निराशा आदि दूर होता है। णमो आयरियाणं ___आचार्य धर्मदेव होते हैं। चतुर्विध संघ को सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्म का उपदेश करना, सदाचार, संयम, नियम, अनुशासन का पालन करना एवं करवाना आचार्य का कार्य है। आचार्य धर्मसंघ रूपी नौका के नायक तथा नाविक होते हैं। इस पद्य का मंत्र जाप करने से स्मृति का विकास, चयापचय का संतुलन, विधायक विचार, शक्य इच्छा की पूर्ति, गुरु ग्रह जनित समस्या का समाधान, दिव्य सुरभि का अनुभव, एकाग्र मंत्र वर्ण का साक्षात्कार, पवित्र वातावरण की प्राप्ति आदि प्राप्त होते हैं। णमो उवज्झायाणं
प्राकृत के उवज्झाय शब्द का संस्कृत रूप उपाध्याय है। उप अर्थात् समीप + अध्याय अर्थात् अध्ययन करना। जिनके पास शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया जाए वे उपाध्याय एक प्रकार की ज्ञान ज्योति हैं। उपाध्याय प्रज्वलित दीपक के समान हैं, जो दूसरे अप्रकाशित दीपकों को अपनी ज्ञान ज्योति के स्पर्श से प्रकाशमान बनाते हैं। ज्ञान दान का पुण्य कार्य उपाध्याय करते हैं।
इस पद का जाप करने से, ज्ञान का विकास, बौद्धिक और आन्तरिक ज्ञान की प्राप्ति, आनन्द की अनुभूति, शुभ चिन्तन, मानसिक आह्लाद, प्रसन्नता, बुध ग्रह की
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महामंत्र नवकार की साधना और उसका प्रभाव : ३९
समस्या का समाधान, एकाग्रता, मंत्र वर्ण का साक्षात्कार, पवित्र वातावरण आदि की प्राप्ति होती है। णमो लोए सव्व साहूणं
साधु अर्थात् निर्वाण मार्ग की साधना करने वाले अथवा स्वहित या परहित को साधने वाले होते हैं।
इस पद्य का मंत्र जाप करने से गृह कलह का निवारण, पारिवारिक शान्ति, रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास तथा संकट दूर होता है। इससे पुराना ज्वर समाप्त हो जाता है। भाव स्पर्श का अनुभव करने से द्रव्य स्पर्श की लालसा समाप्त होती है। राहु, केतु और शनि ग्रहजनित समस्या का निवारण, एकाग्रता, मंत्र वर्ण का साक्षात्कार, पवित्र वातावरण आदि की प्राप्ति होती है।
इसके अतिरिक्त इस सम्पूर्ण महामंत्र का एक साथ जाप करने से यश की प्राप्ति, आरोग्य, सौभाग्य-वृद्धि, सुख-समृद्धि की प्राप्ति, सम्पदा की प्राप्ति, इच्छा की प्राप्ति, सम्पूर्ण शरीर की रक्षा, सर्व उपद्रव का विलय, क्लेश का नाश, व्याग्र भय निवारण, चोर और बैरी द्वारा कुल समस्या से मुक्ति, अग्नि का स्तम्भन, स्वयं में आकर्षण पैदा करना, ज्वर नाश, विष नाशक मंत्र सिद्धि का अनुभव आदि अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यद्यपि इस मंत्र का यथार्थ लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है तो भी लौकिक दृष्टि से ये समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन नवकार मंत्र का जाप करना चाहिए। कहा भी गया है -
ननु उवसग्गे पीड़ा कूरग्गह - दंसणं भवो संका। जइ वि न हवंति एए, तह वि सगुझं भणिज्जासु।।
अर्थात् उपसर्ग, पीड़ा, क्रूर, ग्रह-दर्शन, भय, शंका आदि यदि न भी हो तो भी शुभ ध्यानपूर्वक नवकार मंत्र का जाप या पाठ करने से परमशान्ति प्राप्त होती है। सभी प्रकार के सुखों को देने वाला है यह मंत्र आत्मकल्याण के साथ सभी प्रकार के अरिष्टों को दूर रखता है और सभी सिद्धियों को प्रदान करता है। यह कल्पवृक्ष है। जो जिस प्रकार की भावना रखकर साधना करता है उसे उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है। जीवन की आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्याएं जो अधिकतर मानसिक दुर्बलताओं से उत्पन्न होती हैं उनको सुलझाने में नवकार महामंत्र का चमत्कारिक प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। नवकार स्मरण से अमुक लोगों के रोग, दरिद्रता, भय, विपत्तियां दूर होने की अनुभव-सिद्ध घटनाएं, मन चाहे काम आसानी से बन जाने के अनुभव सुने जाते हैं। अतः यह निश्चित रूप से माना जा
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सकता है कि नवकार महामंत्र हमारे जीवन की समस्याओं, कठिनाइयों, चिन्ताओं, बाधाओं से पार पहुंचाने में सबसे बड़ा आत्म-सहायक है। आवश्यकता है तो श्रद्धा
और विश्वास की। सन्दर्भ : १. ते अरिहंता सिद्धा-ऽऽयरिओवज्झायसाहवो नेथा।
जे गुण मयभावाओ, गुणा व पुज्जा गुणत्थीणं।। २९४२।। अभिधानराजेन्द्र
कोश, भाग-४, पृ० १८३७. २. वही, पृ० १८१९ ३. परमे पदे तिष्ठन्ति इति परमेष्ठिनः। ४. शक्ति की साधना, युवाचार्य महाप्रज्ञ, आदर्श साहित्य संघ, १९८४ ५. णमोकारः एक अनुचिन्तन, डॉ० नेमिचन्द शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ,
१९८९, पृ०- ३८ ६. इंदियविसयकसाए, परिसहवेयणाए उवसग्गे।
ए ए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति।। अभिधानराजेन्द्र कोश, भाग
१, पृ०-७६७ ७. मर्यादया चरन्ति, इति आचार्याः। ८. नवकार सार थवणं, ३२।
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परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत
डॉ० सोहनराज तातेड़*
परीषहजय एवं उपसर्गजय
जैन दर्शन के केन्द्र में आत्मा है। आत्मा से कर्मों को अलग कर वीतरागता की स्थिति प्राप्त करना साधना का मूल लक्ष्य है। आचार्य तुलसी ने मनोनुशासन में बतलाया-आत्मशुद्धि साधनम् धर्मः। आत्मशुद्धि का साधन धर्म है। आत्मशुद्धि की प्रथम मंजिल सम्यक्-दर्शन है। सम्यक्-दर्शन के बाद सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक्ज्ञान के बाद सम्यक्-चारित्र का स्थान है। तीनों के समन्वय की उत्कृष्ट अवस्था वीतरागता की प्राप्ति है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' सम्यक्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है। आगमवाणी में कहा गया - चारितं खलु धम्मो - चारित्र ही धर्म है। चारित्र के द्वारा ही आत्मशुद्धि संभव है। चारित्र को पुष्ट करने में परीषहजय एवं उपसर्गजय सहयोगी बनते हैं। परीषहजय का अर्थ है -कष्टों को समभाव से सहन करना। 'परिषहृत इति परीषह जो सहा जाय वह परीषह है। परीषह को परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वाति ने लिखा है - 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः।।' अर्थात् स्वीकृत मार्ग से च्युत होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूख, प्यास आदि जो दुःख, कष्ट या विघ्न सहन किए जायें उन्हें परीषह कहते हैं, और परीषहों को जीतना परीषहजय कहलाता है। परीषह के अर्थ में ही कहीं कहीं पर 'उपसर्ग' शब्द भी व्यक्त हुआ है। भगवान् महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं- अहिंसा और कष्ट-सहिष्णुता। कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाए रखना है। आचार्य कुंदकुंद ने कहा है:
सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे णिणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भवए।।
अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। साधना की सफलता के लिए अनुकुलता की शीतलता के साथ परीषह की प्रतिकूलता रूपी गर्मी * परामर्शक, जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं-३४१३०६ (राजस्थान)
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की भी आवश्यकता है, परीषह साधक के लिए बाधक नहीं, साधक है। अतः परीषहों के उत्पन्न होने पर उसे समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। उपसर्गजय - नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति के जीवों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को उपसर्ग कहते है। इनको समभाव से सहन कर लेना उपसर्गजय कहलाता है। उपसर्ग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। साधु के २२ परीषह बताऐ गये हैं जिन पर वह विजय पाता है। उयराध्ययन', समवायांग और तत्त्वार्थसूत्र' में २२ परीषहजय का वर्णन इस प्रकार है :
क्षुधा - भोजन सम्बन्धी कष्ट को शांति से सहन करना। २. पिपासा - पानी सम्बन्धी कष्ट को समभाव से सहन करना।
शीत - ठंडी हवा व हिम को शांति से सहन करना। ४. उष्ण - गर्मी के कष्ट को समभाव से सहन करना।
दंश-मशक - मच्छर, कीड़े, मकोड़े आदि के काटने से उत्पन्न कष्ट को सहना। अचेल - वस्त्र रहित या अल्प वस्त्र सहित हो जाने पर किसी प्रकार की चिंता नहीं करना। अरति - संयम के प्रति अधैर्य को सहन करना। स्त्री - स्त्री को निहार कर काम-किल न होना स्त्री-परीषहजय है। चर्या - किसी गृहस्थ या घर आदि मे आसक्ति न रखकर ग्रामानुग्राम विचरण करना।
निषद्या - जंगली जानवरों की आवाज सुनकर भयभीत न होना। ११. शय्या - सोते समय उंची-नीची, उबड़-खाबड़ शय्या को सहन
करना। १२. आक्रोश - प्रतिकूल वचन व व्यवहार पर आक्रोश न आना।
वध - तीक्ष्ण शस्त्रों से वध होने पर वध करने वाले के प्रति राग-द्वेष
न करना। १४. याचना -- भिक्षा के समय दीनता न लाना।
अलाभ - अभिलक्षित वस्तु न मिलने पर सम रहना। १६. रोग- शरीर में रोग उत्पन्न होने पर समभाव रखना। १७. तृण स्पर्श - तृणों पर शयन करने पर होने वाले कष्ट को समभाव से
सहन करना। १८. जल्ल - पसीना, कीचड़, धूलि आदि के शरीर पर इक्कठा हो जाने
पर उसे दूर करने का प्रयास न करना। १६. सत्कार-पुरस्कार - प्रशंसा-निंदा की स्थिति में सम रहना।
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परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत : ४३
२०. ज्ञान - अज्ञान से उत्पन्न कष्ट को समभाव से सहन करना। २१. दर्शन - जिसकी श्रद्वा पूर्ण रूप से स्थिर रहती है वह दर्शन-परीषह
पर विजय पाता है।। २२. प्रज्ञा - बुद्धि होने पर उसका मद न करना प्रज्ञा-परीषहजय है।
इनमें अपने आपको सम रखना परीषहजय कहलाता है। कष्टों को समभाव से सहन करने से हमारी प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। प्रतिरोधत्मक शक्ति कर्म शरीर को शनैः शनैः क्षीण करती है। परीषहजय में मन-वचन-काया योग स्थिर होते हैं। योगों की स्थिरता आत्मा से कर्मदल को अलग होने के लिए मजबूर करती है। जैसे जैसे समता आती है कर्मशरीर का पोषण बंद होता है तथा कर्म-पुद्गल आत्मा से विलग होते हैं। इसे निर्जरा कहा जाता है। उपसर्गजय से संयम सधता है। उपसर्गजय संयम की साधना है। संयम साधना है संवर उसकी निष्पति है। परीषहजय तप का एक रूप है। तप साधना है, निर्जरा उसकी निष्पति है। भगवान महावीर ने संवर, निर्जरा को धर्म बताया है। संवर निर्जरा आत्मशुद्धि में सहायक हैं।
आचारांगनियुक्ति के अनुसार स्त्री परीषह और सत्कार परीषह ये शीत परीषह के अंतर्गत आते हैं और शेष बीस उष्ण परीषह में। परीषहजय, उपसर्गजय को साधक अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है तो वह निरंतर साधना से वीतरागता तक को प्राप्त कर सकता है। आत्मशुद्धि, भावशुद्धि पर निर्भर करती है। भावशुद्धि समभाव में रहने से होती है। परीषह एवं उपसर्गजय व्यक्ति को समभाव में ले जाते हैं। राग-द्वेष का न होना समभाव है। मोह से राग-द्वेष, राग-द्वेष से कर्म, कर्म से जन्म-मरण, जन्ममरण से दुःख तथा दुःख से राग-द्वेष यह वर्तुल है जो हर संसारी आत्मा के साथ चलता रहता है। परीषहजय राग-द्वेष को क्षीण करते हैं। उपसर्गजय कर्मों को क्षीण करते हैं। परीषहजय समभाव प्राप्त करने का सर्वोत्तम माध्यम है। समभाव आत्मविजय का सर्वोतम माध्यम है। सल्लेखना व्रत
सल्लेखना में दो शब्दों का योग है- सत् + लेखना। सत् का अर्थ सम्यक् तथा लेखना का अर्थ - सार-संभाल करना है। इस संदर्भ में लेखना का अर्थ व्यक्ति के द्वारा अपने जीवन में क्रिया कलापों को त्यागते हुए शरीर को क्रमशः कृश करना है। अर्थात् साधु अथवा श्रावक आहार का क्रमशः त्याग करते हुए मरण को प्राप्त करता है, उसे सल्लेखना कहते हैं। जैन धर्म एवं दर्शन अपने वैशिष्ट्य को लिए हुए अनादिकाल से निरंतर गतिशील है। विभिन्न मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को लिए हुए यह दर्शन जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त साधना के अनेक पृष्ठों को उद्घाटित करता है।
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
जिसके मूल में समता, अभय, निर्ममत्व, अमूर्छा, अपरिग्रह आदि भावनाएं विद्यमान रहती हैं। बाह्य जगत् से निस्पृही होने के साथ-साथ स्वयं के शरीर से भी जब मोह समाप्त हो जाता है, तब आहार आदि का त्याग कर अपने आपको कृश करते हुए समाप्त किए जाने की कला जैन परम्परा में मान्य है, जिसे सल्लेखना (सन्थारा) कहा जाता है। भारतीय परम्परा में इसे समाधि शब्द से जाना जाता है। जैन परम्परा मे जहां जीने की कला सिखाई जाती है वहां मरने की कला भी सिखाई जाती है। मरने की कला सल्लेखना है। सल्लेखना एक विधिपूर्वक शरीर को बाह्य एवं अन्त:रूप में कृश करने की पद्धति विशेष है। इसे आत्महत्या की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कष्टों से घबराकर आवेशवश अपने शरीर को समाप्त करना आत्महत्या है। सल्लेखना में आत्मशुद्धि का लक्ष्य है तथा उसमें आत्मा ही साक्षी है। सल्लेखना एक विशुद्ध साध्य के प्रति अपने आपको समर्पित करने के भावो से ओत-प्रोत होती है। सल्लेखना में औदारिक शरीर के साथ-साथ कषायों को (कर्म शरीर को) कृश किया जाता है। सल्लेखना में कषायों को क्षीण कर समभाव की स्थिति प्राप्त करने का लक्ष्य होता है। यह मृत्यु से पूर्व की तैयारी है। इसे इच्छामृत्युवरण की वैज्ञानिक पद्धति कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का दबाव व परवशता नहीं हैं। आत्महत्या में कष्ट व आवेश का दबाव होता है। आत्महत्या जीवन से ऊबकर अविवेकपूर्ण लिया गया निर्णय है। सल्लेखना अत्यन्त सोच समझकर प्रसन्नता से लिया गया निर्णय है। जब साधु या श्रावक अपने औदारिक शरीर की स्थिति को तोल लेता है कि, अब शरीर कारण विशेष से इतना कृश हो गया है कि इसका जिंदा रहना मुश्किल है। तब साधक अपने मनोबल से धीरे-धीरे अनशन के माध्यम से इसको पोषण देना बिल्कुल बंद कर देता है। यही से सल्लेखना प्रारंभ होती है। सल्लेखना परीषहजय एवं उपसर्गजय का सर्वोत्तम उदाहरण है। सल्लेखना से होने वाले कष्टों में अपने आपको साधक सम बना देता है उस स्थिति में पूर्ण समभाव में रहता है। वह समभाव की स्थिति परीषहजय की स्थिति है। समभाव व परीषहजय एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। परीषहजय का दूसरा नाम समभाव है। इसी प्रकार सल्लेखना परीषहजय की पूरक है। परीषहजय व सल्लेखना भी एक सिक्के के दो पहलू है। परीषहजय व सल्लेखना दोनों समभाव को बढ़ाते हैं। सल्लेखना एक तप है। भले ही सामाजिक स्तर पर इसे स्वीकार न किया गया हो, फिर भी जैन परम्परा में इसे तपस्या/साधना का प्रयोग कहा जाता है। इसे न तो प्रथा, न दिखावा अथवा न ही आत्महत्या की परिधि में लिया जा सकता है। क्योंकि इसका उद्देश्य मात्र अनासक्ति के क्षण में जीना है। शरीर के प्रति अनासक्त हो समाधिपूर्वक तप करना, ऐसे में मृत्यु आ जाये तो समतापूर्वक उसे स्वीकार करना संथारा है। अन्त समय में साधक
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परीष एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत : ४५
संस्तारक (संथारा) मात्र का आश्रय लेकर देहत्याग करता है, इसे ही सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना मरण पूर्व की जाने वाली अनासक्तपूर्ण पद्धति का नाम है।
मरण का स्वरूप
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मरण के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं, जिसका अर्थ 'मरण' या 'मृत्यु' ही किया है। अर्थात् मरण को समस्त शरीरधारी जीवों का स्वभाव (प्रकृति) माना है । " मरण' शब्द 'मृ' धातु से बना है, जो भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय लगकर बना है ।" जिसका अर्थ है - प्राणों का परित्याग | मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये सभी एकार्थ वाचक हैं।" इसका दूसरा अर्थ एक प्रकार का विष भी किया गया है। १२ जैन दर्शन में मरण के सम्बन्ध में कहा गया है कि 'प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का नाश होना मरण है । १३. 'अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ विनष्ट (वियोग-पृथ्कत्व) होना मरण है।
धवला में आयु क्षरण को मरण का कारण माना गया है। १४ अपने प्राणों से प्राप्त हुए आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन व काय इन तीनों बलों के कारण विशेष के मिलने पर नाश होना, मरण है। "मरण के दो रूप हमें मिलते हैं- प्रथम लोक प्रसिद्ध मरण, जो सामान्य व्यवहार में देखा जाता है तथा दूसरा प्रतिक्षण आयु
१६
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क्षीण होना भी मरण ही है। जिसे क्रमशः तद्भव मरण (लोक प्रसिद्ध मरण) एवं नित्य मरण ( प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना) कहते हैं। अतः आत्मा का शरीर से अलग हो जाना ही मरण है। जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे पर्याय या शरीर को धारण करता है, तो जिस शरीर पर्याय को आत्मा छोड़ता है, वह मरण है। गीता' में मरण का अर्थ अकीर्ति किया गया है। सज्जन (सदाचारी) की अकीर्ति ही उसका मरण है। जिसका लोक में यश, गौरव, सम्मान, प्रतिष्ठा आदि न रहे उसकी स्थ मरण से कहीं बुरी होती है। आत्मा के सम्बन्ध मे कहा गया है कि "जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करता रहता है।
१८
यहां पर जीवात्मा द्वारा जैन दर्शन में सात प्रकार
जो पुराने शरीर को छोड़ने की बात कही गई है, वही मरण है।
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" का उल्लेख मिलता है, उनमे से एक मरण भय भी है। अतः यह शाश्वत सत्य है कि सभी जीव मरणधर्मा हैं।
मरण के भेद-प्रभेद
जिस प्रकार सल्लेखना का परीषहजय एवं उपसर्गजय के साथ गहरा सम्बन्ध है, ठीक उसी प्रकार सल्लेखना का मरण के साथ अन्तः सम्बन्ध हैं, क्योंकि सल्लेखना एक व्रत है जिसका पद्धतिपूर्ण ढंग से साधक पालन करता है। भगवती
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
आराधना में वर्णित परम्परा में मान्य १७ प्रकार के मरणों मे से पांच प्रकार के मरणों का उल्लेख यहां किया जा रहा है
१. बाल-बालमरण २. बालमरण ३. बाल-पंडितमरण ४. पंडितमरण
५. पण्डित-पण्डितमरण १. बाल-बाल मरण
संसार समुद्र में अनादि काल से जीव अज्ञान के वशीभूत चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है। आत्मा की अवस्था का पहला सोपान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। दर्शन मोहनीय कर्म संसार को विस्तार देने वाला कर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती है वह मिथ्यादृष्टि जीव कहलाता है। आत्मात्थान के लिए सबसे पहले, दर्शन को सम्यक् करना होता है, अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाना होता है। जिस जीव में मिथ्यात्व, अविरित, प्रमाद, कषाय व योग पांचों आश्रव मौजूद होते हैं वह पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मे रहता है। ऐसा जीव जब मरता है तो उसे बाल-बालमरण कहते हैं। 'जैसी दृष्टि-वैसी सृष्टि',सुन्दर सृष्टि बनाने के लिए दृष्टि (चिंतन, दिशा, सोच) को सम्यक् बनाना होता है। जब दृष्टि अविधायक होती है तब भव-भ्रमण की सीमा नही रहती है। ऐसा जीव पुनः-पुनः बाल-बालमरण को प्राप्त होता है। इसे अज्ञान-अज्ञानमरण भी कहा जाता है। २. बालमरण
जब सोच विधायक (Positive attitude) होती है तो आत्मशुद्धि प्रारंभ होने लगती है। यह आत्मविकास की पहली सीढी है। इसे 'अपूर्वकरण' कहते है। आत्मा को ऐसा चिंतामणि रत्न मिलता है जो पहले कभी नहीं मिला हो। वह चिंतामणि रत्न सम्यक्-दर्शन है। जिसने एक बार सम्यक्त्व (सम्यक्-दर्शन) को प्राप्त कर लिया, उसने अपने भवों की सीमा तय कर ली यानी वह मोक्ष का अधिकारी बन गया। कभी न कभी वह मोक्ष (निर्वाण) को जरूर प्राप्त करेगा। यह आत्मा का चौथा गुणस्थान 'अविरत सम्यक्-दृष्टि' कहलाता है। आत्मा का मिथ्यात्व समाप्त हो गया लेकिन अज्ञान (अविरति) बाकी है। चौथे गुणस्थान में अविरति, प्रमाद, कषाय योग चार आश्रव रहते हैं। इस गुणस्थान का जीव सम्यक्-दर्शन को जानता है लेकिन संसार के भोगों के प्रति बहुत लालायित रहता है। इस स्थिति के जीव के मरण को बाल मरण कहते है।"बाल का अर्थ अज्ञान है। ऐसे प्राणी के मरण को अज्ञानमरण कहते हैं।
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३. बाल - पण्डितमरण
ज्यों-ज्यों व्यक्ति अनासक्ति, साधना की ओर अग्रसर होता है त्यों-त्यों व्रतों को धारण करता है। व्रत साधना है जिसकी निष्पति संवर है। यह जीव की क्रमिक उन्नति का पांचवा गुणस्थान है। इस गुणस्थान के प्राणी को श्रावक की संज्ञा दी जाती है जिसे व्रताव्रती कहते हैं। इस गुणस्थान को 'देशविरति सम्यक् दृष्टि गुणस्थान' कहते है। इस गुणस्थान में व्रत व अव्रत दोनों साथ होते हैं तभी इसे व्रताव्रती कहा
२५
ता है। इस गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव व अविरति की आंशिक विद्यमानता पाई जाती है। प्रमाद, कषाय व योग आश्रव विद्यमान होते हैं। ऐसा जीव जब मरण को प्राप्त होता है तो उसे बाल - पण्डितमरण कहते है, यानी आंशिक अज्ञान की विद्यमानता। बाल व पण्डित दोनों की प्राप्ति के कारण इसमें आंशिक अज्ञान और स्थूल हिंसा आदि से विरति रूप चारित्र व दर्शन दोनों होते हैं। यह सल्लेखना पूर्ण मरण विरताविरत चारित्रधारी जीव के होता है।
४. पण्डितमरण
छठे व सातवें गुणस्थान में जिसका सल्लेखना पूर्वक मरण होता है उसे पण्डित मरण कहते है। पण्डित - पण्डित के प्रकर्ष रहित जिसका पाण्डित्य होता है, उसे पण्डित कहते हैं तथा उनका सल्लेखना पूर्ण मरण पण्डित-मरण है। यह मरण उन साधुओं को होता है जो अपने आचरण या चारित्र को शास्त्र सम्मत या आप्तपुरुषों के कहे अनुसार बना पाते हैं। भगवती आराधना में कहा गया है कि पण्डितमरण के तीन प्रकार है:
२६
परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत : ४७
i.
प्रादोपगमन
ii.
भक्त प्रतिज्ञा
iii.
इंगिणीमरण i. प्रादोपगमन
पाद और उपगमन अर्थात् पैरों से उपगमन पूर्वक होने वाले मरण का प्रादोपगमन मरण कहते हैं। अपने पैरों से चलकर अर्थात् संघ से निकलकर योग्य देश में आश्रय लेना प्रादोपगमन है। इसमें साधु न स्वयं अपनी सेवा करता है और न दूसरों से कराता है। जिसमें अस्थिमात्र शेष रहता है, वह प्रादोपगमन करता है । प्राद का अर्थ संन्यास है। अतः संन्यासियों (साधुओं) के मरण का एक भेद इसे कहा गया है।
ii. भक्त प्रतिज्ञा
भक्त का अर्थ-जिसका सेवन किया जाए और प्रतिज्ञा का अर्थ है - त्याग । अर्थात् जिसमें भोजन का त्याग किया जाये, वह भक्त प्रतिज्ञा है । यह दो प्रकार से किया जाता है:
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४८ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
a) सविचार भक्त प्रतिज्ञा b) अविचार भक्त प्रतिज्ञा
यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्त प्रत्याख्यान किया जाता है। जब कि सविचार भक्त प्रत्याख्यान अर्हम्, लिंग आदि चालीस पदों द्वारा लिए जाने का विधान किया गया है।
iii. इंगिणीमरण
इंगिणीमरण का अर्थ है अपने अभिप्राय के अनुसार रह कर होने वाला मरण। इंगिणी शब्द का तात्पर्य इंगित अर्थात् संकेत से है। इंगिणीमरण का इच्छुक साधु संघ से निकलकर या अलग होकर गुफा में एकाकी आश्रय लेता है। इसमें वह अपनी सेवा स्वयं करता है, दूसरे से नहीं कराता। इसका कोई सहयोगी साधु नहीं होता। स्वयं अपना संस्तारक बनाता है और स्वयं अपनी परिचर्या करता है। ५. पण्डित-पण्डितमरण
सम्यक्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की उत्कृष्टतम स्थिति मे जीव पण्डितपण्डितमरण को प्राप्त होता है। गुणस्थान की अपेक्षा से जीव जब बारहवें गुणस्थान को स्पर्श कर लेता है तो वह वीतराग हो जाता है, उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय आश्रव पूर्ण रूप से क्षीण हो जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान में मात्र योग आश्रव रहता है इस कारण वह सयोगी केवली कहलाता है तथा जब जीव आत्मशुद्धि की उत्कृष्टतम स्थिति चौदहवां गुणस्थान को प्राप्त करता है तो योग आश्रव भी समाप्त हो जाता है तथा जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी शुद्ध आत्मा का मरण पण्डित-पण्डितमरण कहलाता है। आठवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर अगर जीव क्षपक श्रेणी ले लेता है तो वह मोक्ष को प्राप्त होता है। और आठवें गुणस्थान में जीव उपशम श्रेणी ले लेता है तो ग्यारहवें गुणस्थान उपशांत मोह को प्राप्त कर नीचे गिर जाता है तथा पहले गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी गिर सकता है। पण्डित-पण्डितमरण सर्वोत्तम मरण है।"
इस प्रकार परीषहजय, उपसर्गजय संयम-साधना का मुख्य सूत्र है। इससे समभाव फलित होता है। सल्लेखना व्रत संयम-साधना का सहयोगी तत्त्व है। अतः परीषहजय एवं उपसर्गजय सल्लेखना व्रत की साधना के पूरक हैं। इनके पुष्ट होने पर सल्लेखना व्रत प्राणवान बनता है। वर्तमान युग घोर अज्ञान का युग है। मानव भौतिकता की चकाचौंध में लुप्त है। अज्ञान के कारण अनैतिकता, अशांति, कदाग्रह, आंतकवाद, संग्रहवृति, असंवेदनशीलता अमानवीय गुणों का विस्तार हो रहा है। इस कारण प्रकृति (पर्यावरण) को दूषित किया जा रहा है तथा उसका अंधाधुंध दोहन हो
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परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत :
रहा है। इसके बदले में प्रकृति हमें असाध्य बिमारियों, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, पानी की कमी आदि दण्ड के रूप में प्रदान कर रही है। अगर हम वर्तमान युग में मानवीय एकता, सदाचार, भाईचारा, शांति, अनाग्रह, संवेदनशीलता, नैतिकता आदि मानवीय गुणों को बढ़ाना चाहें तो हमें परीषहजय, उपसर्गजय के सिद्धान्त को आत्मसात करना होगा। परीषहजय से इच्छा - परिमाण, अनासक्ति, वैराग्य व मैत्री भावना की वृद्धि होती है।
संदर्भः
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
जैन सिद्धांत दीपिका - आचार्य श्री तुलसी, ७/२३ पृ. सं. ५२
तत्त्वार्थसूत्र - ९/ २३
आगम वाणी, भगवान महावीर
तत्त्वार्थसूत्र - ९/८
उत्तराध्ययनसूत्र - ३० / २७
समवायांग- समवाय २२
तत्त्वार्थसूत्र - ९/१०-१२
८.
मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम-रघुवंशम्, कालिदास, ८/८७
९.
आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ७७७
१०. भगवती आराधना (विजयोदया टीका) पृ. ४९, गाथा २५ की टीका, प्रकाशक- जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर
१९. वही पृ. ४९
१२. आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ७७७
१३. अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा । भगवती आराधना (विजयोदया टीका), पृ. ५०
१४. आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात् - धवला
१५. स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां बालानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम् । सर्वार्थसिद्धि, पृ. ३६२
१६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-३, पृ. २७८
१७. संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। भगवद्गीता, २/३४
१८. वही, २/२२
४९
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५० :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
१९. इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकम्मिभया। मूलाचार, ५३ २०. भगवती आराधना, २५ २१. पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालंपडिदं चेव।
बालमरणं चउत्यं पंचमयं बालबालं च ।। वही, २६ २२. मिच्छादिष्वी य पुणो पंचमए बालबालम्मि।। वही, २९ २३. सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्ददि। सो चेव हवइ मिच्छादिट्ठी
जीवो तदो पहुदि ।। वही, ३२ २४. अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि।। वही, २९।। २५. विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण। वही, २७ २६. पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणाी चेव।
तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ।। वही, २८ २७. वही, ६६-६९ २८. पण्डिदपण्डितमरणे खीणकसायो मरंति केवलिणो ।। वही, २७
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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
डॉ० दीपक रंजन *
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
पुरुषार्थ से सामान्यतः दो अर्थ लगाए जाते हैं - १. पुरुष का प्रयोजन और २. पौरुष अथवा पुरुष द्वारा किया गया प्रयत्न । ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन में पुरुषार्थ के दूसरे अर्थ पर अधिक महत्त्व दिया गया है। पुरुषार्थ को परिभाषित करते समय जैन संस्कृति में कहा गया है- 'पौरुषं पुनरिह चेष्टितम्' से तात्पर्य यह है कि मनुष्य यदि अपना प्रयोजन (जो मोक्ष है) प्राप्त करना चाहता है तो उसे इसके लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। इसके लिए किसी भी प्रकार की दैवी सहायता उसे उपलब्ध नहीं है क्योंकि जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करता है।
ईश्वरवादी दार्शनिक पद्धतियाँ प्रायः मानवारोपण के दोष से ग्रसित होती है। वे ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर देव या अवतार के रूप में नीचे खींच लाती हैं और इस प्रकार मनुष्य ईश्वर का सहायक बन जाता है। जैन दर्शन, ठीक इसके विरुद्ध मनुष्य को ही, जब उसकी शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं, ईश्वर के रूप में देखता है। उसे पूर्ण विश्वास है कि वह स्वतः प्रयत्न से ईश्वर की कोटि तक पहुँच सकता है। जैन दर्शन ने इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति का पूरा उत्तरदायित्त्व स्वयं मनुष्य पर डाल दिया है। उसकी सहायता के लिए किसी भी दैवी शक्ति या ईश्वर का यहाँ प्रावधान नहीं है।
• पुरुषार्थ से आशय मूलतः मानव चेष्टा से है- जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्रता भी मिली हुई है और जिसका उत्तरदायित्व भी उसे निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतंत्र है किन्तु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसी का है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति, देवता या ईश्वर का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह मनुष्य की क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। अपने निजरूप को प्राप्त करना ही, मनुष्य का प्रयोजन है, आदर्श है। इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जैन दर्शन के अनुसार धीर पुरुष को क्षण भर का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए ।' कुशल व्यक्ति वही है जो बिना प्रमाद के पुरुषार्थ में विश्वास करता है । कुशल को प्रमाद से भला क्या प्रयोजन?"
* दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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५२ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
हिन्दू दर्शन की भाँति जैन दर्शन में भी पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा है, किन्तु जैन दर्शन इसकी विस्तृत व्याख्या नहीं करता। मोक्ष चर्चा के सन्दर्भ में पुरुषार्थ चतुष्टय का उल्लेख मात्र हुआ है। उदाहरणार्थ ज्ञानार्णव में कहा गया है कि प्राचीनकाल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं। किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं। अत: ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने को कहा गया है। इसी प्रकार परमात्मा प्रकाश में भी धर्म, अर्थ और काम इन सभी पुरुषार्थों में मोक्ष ही 'उत्तम' माना गया है, क्योंकि अन्य किसी में 'परम सुख' नहीं है। वस्तुतः जैनदर्शन इस प्रकार केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ रूप में स्वीकार करता प्रतीत होता है। धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है तथा अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि भारतीय चिन्तन में जहाँ पुरुषार्थ-चतुष्टय प्रतिबिम्बित होता है, वहाँ जैन दर्शन दर्पण में पुरुषार्थ-द्वय ही (धर्म और मोक्ष) अवलोकित होता है।
लेकिन, यह मानना कि जैन दर्शन में केवल मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है और धर्म, मोक्ष मार्ग है तथा शेष दो तथाकथित पुरुषार्थों का इस दर्शन में कोई स्थान नहीं है-एक एकांगी विचार है और कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। एक आधुनिक व्याख्याकार के अनुसार, 'यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैन दृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय है। लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं .... न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है।
अगर ध्यान दिया जाय तो लगभग यही स्थिति हमें हिन्दू दर्शन में भी मिलती है। हिन्दू दर्शन में भी अर्थ और काम निरपेक्ष मूल्य न होकर धर्मानुसार मर्यादित होकर ही मूल्यगत श्रेणी में आते हैं। इतना ही नहीं, जैन धर्माचार्यों ने भी काम और अर्थ को न केवल धर्मोन्मुखी बनाने पर बल दिया बल्कि ठीक हिन्दू त्रिवर्ग की धारणा के अनुरूप ही 'धर्म', 'अर्थ' और 'काम' के कुछ इस प्रकार के सेवन की अनुशंसा की कि वे परस्पर अविरोध में रहे। धर्म का स्वरूप
जैन दर्शन में धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने वाली अनेक गाथाएँ हैं। वे जहाँ एक ओर धर्म के आकारगत स्वरूप पर प्रकाश डालती है वहीं वे दूसरी ओर धर्म की अन्तर्वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं।
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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
जिस प्रकार सभी मूल्यों का स्वरूप आदेशात्मक होता है उसी प्रकार जैन दर्शन में भी धर्म के आदेशात्मक स्वरूप पर स्पष्ट आग्रह है। आचार्य महाप्रज्ञ, 'आज्ञायां मामको धर्मः ' सूत्र द्वारा, अपने ग्रन्थ सम्बोधि में धर्म को परिभाषित करते हैं। इस सूत्र का आगमिक स्रोत आयारों में देखा जा सकता है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है- 'आणाएं मामगं धम्मं" अर्थात् आज्ञा में ही धर्म का गूढ़ तत्त्व छिपा हुआ है। इसके रहस्य को जानने वाला ही उसको प्राप्त कर सकता है।"
1
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धर्म की एक अन्य परिभाषा जो उसके स्वरूप को सुस्पष्ट करती है हमें निम्नलिखित सूत्र में मिलती है- 'धम्मों वत्थुसहावो।" अर्थात् धर्म वस्तु का स्वभाव है। सामान्यतः जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म जलाना है, जल का धर्म शीतल करना है या वायु का धर्म बहना है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य कथित वस्तुओं के स्वभाव से ही है। अतः मानव परिप्रेक्ष्य में पूछा जा सकता है कि मनुष्य का स्वभाव क्या है जिसे धर्म कहा जाय? स्पष्ट ही मनुष्य का सार उसकी चेतना में है। जो मनुष्य जीवित नहीं है, वह जड़ है। शरीर निश्चित ही मनुष्य का एक पक्ष है किन्तु यह गौण है। चेतन शरीर स्वतः मूल्यवान है और शरीर परतः मूल्यवान है। अतः कहा जा सकता है कि जो चेतना का स्वलक्षण होगा वहीं मनुष्य का वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने धर्म को समझने के लिए चेतना के स्वलक्षण स्वभाव को जानना होगा। आयारो में कहा गया है- 'समिया धम्मे" अर्थात् धर्म समता में है या समता ही धर्म है। समता और धर्म में कोई अन्तर नहीं है जो समता है वह धर्म है और जो धर्म है, वही समता है जिस प्रकार आत्मा ज्ञान है और ज्ञान आत्मा है (अप्पा णाणं, णाणं अप्पा) उसी तरह समता और धर्म एकरूप है। " कहा गया है कि चारित्र ही धर्म है और धर्म निश्चित ही समता है। १३
धर्म से आशय जहाँ वस्तु के स्वभाव से है, वही क्षमा आदि दस भाव भी धर्म है। क्षमा आदि ये दस भाव हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य।" ये सभी दस धर्म वस्तुतः वे कर्त्तव्य है जिनके निर्वाह से मनुष्य अपने स्व-भाव में स्थित हो सकता है।
संक्षेप में धर्म जैसा कि हिन्दू दर्शन में कहा गया है, अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों की ही सिद्धि कराता है।" उसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है और यदि हम उसकी रक्षा करते हैं तो वह भी हमारी रक्षा करता है-धर्मो रक्षति रक्षितः । ठीक वैसे ही जैसे यदि किसान अपने बीजों की रक्षा करता है तो वे ही बीज उसे भविष्य में भरपूर फसल देते है। धर्म न केवल विषय-भोगों में निहित दुःख को कम करता है, वरन् निःश्रेयस, परम पुरुषार्थ मोक्ष को भी प्राप्त करने का राजमार्ग है।
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
अर्थ और काम :
सामान्यतः यह समझा जाता है कि निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्म-पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ
और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। लेकिन यह विचार एकांगी माना जाएगा। जैन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय है।६ भद्रबाहु ने अपनी दशवैकालिकनियुक्ति में स्पष्ट घोषणा की है कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य विचारक परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने पर परस्पर अविरोधी है। यही बात बाद में हेमचन्द्र भी कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्म और काम पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो।
वस्तुतः जिस अर्थ और काम को जैन दर्शन में निरस्त किया गया है, वह अमर्यादित अर्थ और काम है जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया गया है। अर्थ और काम पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य का रूप धारण तभी करते हैं जब वह धर्म द्वारा मर्यादित होकर मोक्षोन्मुख होते हैं। जैन दर्शन के एक व्याख्याकार अमरमुनि का भी यही मत है। उनके अनुसार अर्थ जब धर्म की छाया में आ जाता है तभी वह धर्म की ही तरह दिव्य हो जाता है। लक्ष्मी जो अर्थ का प्रतीक है, देवी है, राक्षसी नहीं। अर्थ को देवत्व धर्म प्रदान करता है। धर्म दृष्टि देता है कि अर्थ कहां से आना चाहिए, उसका किस प्रकार उपयोग होना चाहिए और आगे भी कैसा रहना चाहिए। धर्म अर्थ के आने की दिशा निर्धारित करता है और आगे की गति का भी निर्देश करता रहेगा।
___ यही बात काम (भोग) पर भी लागू होती है। शरीर के जितने भी भोग हैं वे काम में आ जाते हैं। अर्थ का उपभोग भी काम ही है। यह भोग दिव्य कब बनेगा? अमरमुनि कहते हैं कि धर्म का प्रकाश अर्थ के माध्यम से सीधे काम तक जाना चाहिए, तभी वह दिव्य होगा। दूध, पानी इत्यदि साफ नहीं होता तो हम उसे छानते हैं, उसी प्रकार अर्थ को भी छानना होगा और यह छानने का कार्य धर्म करेगा। यदि अर्थ छाना नहीं गया, उसका ठीक-ठीक उपयोग नहीं किया गया तो वह अर्थ, अर्थ न रहकर अनर्थ हो जाएगा।
अर्थ की तरह काम को भी छानना होगा। काम को छानने के लिए जो छन्ना है वह है, अनासक्ति। काम यदि आसक्ति से भरा हुआ है तो वह क्षुद्र है, हीन है, किन्तु यदि वह आसक्तिरहित है तो दिव्य है। जिस काम में आसक्ति की जिन्दगी है. वह सड़कर बर्बाद हो जाता है। अर्थ और काम धर्म के प्रकाश से ही मोक्षान्मुख होते हैं।
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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में : ५५
मोक्ष
अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति ही जैन दर्शन का अभीष्ट भी ज्ञान प्राप्त करना मात्र नहीं है। मोक्ष जैन दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है और मोक्ष से आशय दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति और चरम सुख प्राप्त करना है। इसीलिए जैन दर्शन में मोक्ष को पुरुषार्थ में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और इस मोक्ष की प्राप्ति केवल धर्म मार्ग से ही सम्भव है इसलिए धर्म भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया है। धर्म, यद्यपि मोक्ष की अपेक्षा से, केवल एक साधन है किन्तु साधन होने के नाते वह मोक्षमार्ग भी है। अतः उसकी महत्ता मोक्ष से कतई कमतर नहीं है।
जैन दर्शन में 'मार्ग' और 'मार्ग-फल इन दो अवधारणाओं में अन्तर किया गया है। ‘मार्ग' मोक्ष का उपाय है। उसका फल 'मोक्ष' या 'निर्वाण' है किन्तु उपाय या मार्ग आखिर है क्या? गाथा के अनुसार यह निश्चित ही 'सम्यक्त्व है। जो व्यक्ति सम्यक्-मार्ग पर चलता है, वही अन्तत: मोक्ष प्राप्त करता है। इस मार्ग के अनुसरण के फलस्वरूप ही निर्वाण सम्भव हो सकता है। जैन दर्शन में समत्व को धर्म कहा गया है। जो धर्म है वही समत्व है।" धर्म और मोक्ष एक दूसरे से साधन-साध्य रूप में सम्पृक्त हैं। एक मार्ग है, दूसरा मार्गफल है। एक उपाय है, दूसरा गन्तव्य है।
__ मोक्ष केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं जो धर्ममार्ग पर चलते है, उन्हें महर्षि कहा गया है। उन्हें महावीर, अर्हत्, वीतराग आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। मोक्ष के लिए भी जैन साहित्य में एकाधिक नाम मिलते है -१. निर्वाण, २. अबाध,३. सिद्धि, ४. लोकाग्र,५. क्षेम, ६. शिव और ७. अनाबाध इत्यादि मोक्ष के ही समानार्थक हैं भले ही उनके अर्थ में थोड़ा-बहुत अन्तर क्यों न हो।
___ मोक्ष को वचन द्वारा प्रतिपाद्य नहीं किया जा सकता। उसका वर्णन असम्भव है क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है, वहाँ तर्क-वितर्क के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वह बुद्धि से परे है। मति द्वारा ग्राह्य नहीं है वह अकेला, ओज और प्रकाश से पूर्ण शरीर में अप्रतिष्ठित होने के कारण अशरीरी है। वह शरीरनहोकर आत्मा है,ज्ञाता है।२३ पुनः वह निराकार है, वह परिमण्डलाकार भी नहीं है। इतना ही नहीं मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ नदुःख है, न सुख है, न पीड़ा है,न बाधा है, न मरण है, न जन्म है। जहाँ न इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है, न तृष्णा है, न भूख है, जहाँ न कर्म है न नोकर्म है। न चिन्ता है न किसी प्रकार का ध्यान है।२४
प्रश्न उठता है, फिर उसे कैसे, किस प्रकार, समझा-समझाया जा सकता है? जैन दर्शन मोक्ष को अनुभवातीत और शब्दातीत कहकर चुप नहीं बैठ जाता, बल्कि उसका भावात्मक विवरण भी प्रस्तुत करता है। बेशक मोक्ष इन्द्रियानुभूति से परे है,
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५६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
लेकिन यह एक अशरीरी आध्यात्मिक अनुभूति तो है ही, जिसको पूरी सावधानी बरतते हुए, भाषा में प्रस्तुत तो, समझाने की दृष्टि से करना ही होगा और इसी प्रस्तुतीकरण में जैन दर्शन हिन्दू दर्शन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। हिन्दू दर्शन में तो आत्मा को अनिर्वचनीय कहकर उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित बात नहीं कही गयी, किन्तु जैन दर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में निश्चित तौर पर काफी कुछ कहा गया है। उदाहरण के लिए एक गाथा के अनुसार, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल वीर्य, अमूर्तता, अस्तित्त्व और सप्रदेशत्व के गुण होते है। २५
संदर्भ :
१. आयारो, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, पृ० ८८ (२/९५ )
२. ज्ञानार्णव, शुमचन्द्र, ३/४ परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास १९७८
३. वही, ३/३-५
४. परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेव, २/३, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, 1 वि.सं०
५.
२०२९
आनन्द प्रकाश त्रिपाठी का आलेख, 'जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय', तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं, खण्ड २०, अंक १ - २, पृ० ४२
६. प्रो. सागरमल जैन का आलेख, 'मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त' श्रमण वाराणसी, जनवरी - मार्च १००२, पृत्र १०-११
७. योगशास्त्र ( आचार्य हेमचन्द्र ), पृ. १-५२
८. आयारो, पृ. २३८ (६/२/४८
९. समणी स्थितप्रज्ञा का निबंध, 'संबोधि के आगमिक स्रोत' तुलसी प्रज्ञा, पूर्णांक ९०, पृ. १३५
१०. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४७८, सम्पा०- ए. एन. उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, वि. सं. २०३४
११. आयारो, पृ. २७४, ८/३१
१२. उदयचंद जैन का निबंध समता, अक्टूबर ९३, पृ. ३७
१३. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो । प्रवचनसार,
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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में : ५७ १४. उत्तमखमद्दवज्जव सच्चसउच्चं च संजमं चेव।
तवचागमकिंचण्हं बम्ह इदि दसविहो धम्मो।। समणसुत्तं, गाथा ४२६ उत्तमःक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।
तत्त्वार्थसूत्र, ९/६ १५. वैशेषिकसूत्र १/१/२ १६. प्रो. सागरमल जैन का आलेख, 'मूल्य ओर मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त'
श्रमण, जनवरी-मार्च, अंक १३ १७. दशवैकालिकनिर्यक्ति, २६२-२६४ १८. योगशास्त्र १/५२ १९. उपाध्याय अमरमुनि का आलेख, 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष', श्री अमर
भारती, जून १९९५ २०. समणसुत्तं, १९२ २१. वही, २७४-२७५ २२. वही, १६२ २३. वही, ५/ १३७-१३९ २४. वही, ६१७-६१९ २५. वही, ६२०
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निबन्ध-प्रतियोगिता में पुरस्कृत आलेख
पार्श्वनाथ विद्यापीठ विगत चार वर्षों से नवयुवकों के बौद्धिक विकास एवं जैन धर्म-दर्शन के प्रति उनकी जागरुकता को बनाये रखने के लिए निबन्ध-प्रतियोगिता का आयोजन करता आ रहा है। चौथी प्रतियोगिता वर्ष २००७-०८ में 'विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता' विषय पर आयोजित की गयी थी। इसमें कुल ६० (साठ) आलेख प्राप्त हुए थे। ३२ आलेख ग्रुप 'ए' में तथा २८ आलेख ग्रुप 'बी' में आये थे। ग्रुप 'ए' उन प्रतिभागियों के लिए है जिनकी आयु १८ वर्ष से कम है तथा ग्रुप 'बी' में वे प्रतिभागी आते हैं जिनकी आयु १८ वर्ष से अधिक है। दोनों ग्रुप में तीनतीन पुरस्कार दिये जाते हैं - प्रथम, द्वितीय और तृतीय जिनकी राशि क्रमशः २५००/ -, १५००/- और १०००/- रुपये होती है।
प्राप्त आलेखों को जिन तीन विषय-विशेषज्ञों ने मूल्यांकित किया उनके प्रति हम आभार प्रकट करते हैं। दोनों ग्रुप में से जिन तीन लोगों को पुरस्कृत किया गया उनके नाम हैं - ग्रुप 'ए'
१. श्री हिमांशु सिंघवी - प्रथम २. कु. निकिता चोपड़ा - द्वितीय ३. कु० प्रियंका चोरड़िया - तृतीय
ग्रुप 'बी'
१. श्रीमती सरोज गोलेछा - प्रथम २. श्रीमती कमलिनी बोकरिया - द्वितीय ३. श्री छैल सिंह राठौड़, श्री रामस्वरूप जैन - तृतीय संयुक्त रूप से
श्रमण के प्रस्तुत अंक में पुरस्कृत उपर्युक्त विजेताओं के आलेख प्रकाशित किये जा रहे हैं।
- सम्पादक
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
हिमांशु सिंघवी*
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें प्रेम धार नहीं। वह विज्ञान नहीं अभिशाप है, जिसमें अहिंसा और प्यार नहीं।।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है। आज का मानव विज्ञान के अनेक साधनों द्वारा प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का पर्दाफाश कर चुका है। विज्ञान आज मानव जीवन से इस प्रकार घुल-मिल गया है कि उसे जीवन से पृथक् करना असम्भव है। आज विज्ञान मानव जीवन का अनिवार्य तथा अभिन्न अंग बन गया है। सर्वप्रथम मानव ने रहस्यों को जानने के लिए धर्म का सहारा लिया था व आज वह विज्ञान के माध्यम से उन सभी रहस्यों को जानने तथा समझने का प्रयास कर रहा है, जिन्हें प्राचीन समय का मानव समझने की कोशिश में लगा रहा, पर सफल न हो सका। 'धर्म' नाम सुनते ही हमारे मन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अक्रोध आदि बातें विचरित होने लगती हैं। अहिंसा और विज्ञान में जो विरोधाभास प्रतीत होता है, वास्तव में वह विरोध नहीं है, वह तो विकास मार्ग के दो भिन्न-भिन्न साधन हैं, जिनमें कुछ अंतर होना स्वाभाविक है। सच्ची अहिंसा का न तो कभी विज्ञान से विरोध रहा है और न होगा। दोनों ही सत्य मार्ग के दो सोपान हैं, जिनका एक ही लक्ष्य है। अतः विज्ञान तथा अहिंसा एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।
विज्ञान एक दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना की सम्भावना उस समय तक स्वीकार नहीं की जाती है, जब तक कि कोई कारण हमारे सामने प्रत्यक्ष न हो। विश्वास उसी पर किया जाता है, जिसका प्रयोगात्मक अध्ययन किया जा सकता है। अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण उन विचारों और धाराओं को कोई महत्त्व नहीं देता जो कोरी कल्पना और अंधविश्वास पर आधारित हों। दिन के साथ रात, प्रकाश के साथ अंधकार और सुख के साथ दुःख जुड़े हुए हैं। संसार में अच्छाई के साथ बुराई है, पुण्य के साथ पाप भी है, वरदान के साथ अभिशाप भी है। दुनिया की प्रत्येक वस्तु की भाँति विज्ञान भी द्वि-आयामी है। वह मानव को एक ओर विकास के शिखर की ओर भी ले जा रहा है तो दूसरी ओर विनाश के गर्त की ओर भी *१८/६५५चौपासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर, राजस्थान
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६० :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
धकेल रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में जहाँ अहिंसा होगी विकास भी वहीं पर होगा और जहाँ अहिंसा का नामोनिशान तक न होगा वहाँ विनाश के अतिरिक्त और कुछ न होगा। विज्ञान की ही भाषा में कहें तो विज्ञान के बुरे प्रभाव (दुष्प्रभाव) और अहिंसा में व्युत्क्रमानुपात का संबंध है अर्थात् जैसे-जैसे अहिंसा बढ़ेगी दुष्प्रभाव कम होगा और जैसे-जैसे दुष्प्रभाव बढ़ेंगे अहिंसा में आवश्यक रूप से कटौती होगी।
___ अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है- 'हिंसा न करना', 'किसी को भी न सताना', 'किसी जीव-मात्र की भी हत्या न करना' आदि। अहिंसा शब्द का भावनात्मक अर्थ है कि मानव मात्र की सेवा करना, किसी को भी दुःखी न करना, किसी को किसी तरह की चोट भी न पहुँचाना, दीन-दुःखियों और पीड़ित लोगों की सहायता करना, उनके दुःख-दर्द को बाँटना आदि।
अहिंसा और विज्ञान में गहरा सम्बन्ध है। वैज्ञानिक शक्ति के साथ अहिंसा का होना, विज्ञान तथा उसके प्रभावों में चार चाँद लगा देता है। विज्ञान के बढ़ते हुए चरण निरन्तर मानव के लिए कल्याण और सुख का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। अहिंसा सहित विज्ञान ने मानव मात्र को अनेक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण किया है। वैभव-विलास और अनन्त सामग्री जुटाकर विज्ञान ने धरती पर स्वर्ग उतार दिया है। लेकिन साथ ही अहिंसा रहित विज्ञान ने अणु तथा परमाणु बमों के आविष्कार तथा उसके दुरुपयोग से इस अति सुंदर, मनमोहक पृथ्वी को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। विज्ञान ने सदैव मानव को स्वर्ग के दर्शन कराए। अहिंसा सहित विज्ञान के सुप्रभाव ने मानव को पृथ्वी पर स्वर्ग का आभास कराया तथा अहिंसा रहित विज्ञान के दुष्प्रभाव ने निरीह, निर्दोष प्राणियों को मृत्युलोक ही पहुँचा दिया।
विज्ञान के साथ अहिंसा का होना उतना ही आवश्यक है जितना कि जलेबी में मिठास के लिए शक्कर की चासनी का होना। जिस प्रकार बिना मिठास के जलेबी अधूरी है उसी प्रकार बिना अहिंसा के विज्ञान भी अपूर्ण है। अगर जलेबी में मीठापन नहीं होगा तो जलेबी को पसंद करने वाले लोगों को बहुत निराशा, दुःख होगा, परन्तु खुशी होगी तो केवल मधुमेह रोगियों व मिठाई पसंद न करने वाले लोगों को, इसी प्रकार यदि विज्ञान में अहिंसा का अभाव अथवा कमी होगी तो वह केवल आतंकवादियों, हिंसा करने वालों, उपद्रव मचाने वालों (मधुमेह रोगियों) तथा अहिंसा (मिठाई) पसंद न करने वाले व्यक्तियों को लाभ पहुँचायेगा। इसके ठीक विपरीत यदि जलेबी अपनी प्रकृति के अनुरूप मिठास से परिपूर्ण होगी तो वह सभी को आनंदित करने वाली तथा सुख देने वाली होगी, सिवाय उन लोगों के जो या तो मधुमेह के रोगी हैं अथवा मिठाई नहीं चाहने वाले हैं। इसी प्रकार विज्ञान के साथ अहिंसा होगी तो वे
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ६१
सभी लोग जो पूरे विश्व में अमन-चैन, भाईचारा, मित्रता, सौहार्द्र आदि की कामना करते हैं उन्हें बहुत खुशी मिलेगी जबकि आतंकवादियों व अमन-चैन न चाहने वाले लोगों को निराशा व दुःख ही हाथ लगेगा। क्योंकि जब विज्ञान और अहिंसा मिलचलते हैं तो उसके परिणामस्वरूप हर तरफ विकास, खुशी, अमन-चैन, एकता, सौहार्द्रता तथा आतंकवादियों व उपद्रवियों से मुक्ति आदि मिलती है जो शायद उन बुरे विचार वाले लोगों, आतंकवादियों के सपनों को चूर तथा इरादों को कुचलने वाला होता है। जब विज्ञान और अहिंसा किसी कार्य में साथ-साथ नहीं होते हैं तो लोगों को कई कठिनाइयों से रूबरू होना पड़ता है जैसे उपनिवेशवाद, पर्यावरण प्रदूषण, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि। आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कम्पनी जो अपना घटिया उपनिवेशवाद का इरादा लेकर भारत आई थी उसके पीछे भी विज्ञान की प्रगति में अहिंसा का न होना ही था। तभी तो जैसे-जैसे वहाँ नये-नये आविष्कार होते गए उसी की आपूर्ति के लिए कच्चे माल की आवश्यकता पड़ी और कच्चे माल की पूर्ति करने के लिए भारत को लगभग १५० वर्षो तक गुलामी सहनी पड़ी।
पर्यावरण प्रदूषण के लिए भी मानव और विज्ञान के बीच आपसी सामंजस्य का न होना ही जिम्मेदार है। प्रायः हर प्रकार के प्रदूषण की वृद्धि के लिए हमारी वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति तथा मनुष्य का अहिंसा रहित और अविवेकपूर्ण आचरण ही जिम्मेदार है। यदि मनुष्य को जीव-जंतुओं, वनस्पतियों तथा अपने आसपास के अन्य लोगों का जरा भी ध्यान आता तो वह ऐसे जहरीले धुँओं को वायुमंडल में यूँ ही फैलने नहीं देता ।
'आतंकवाद हुआ यहाँ पर, आतंकवाद हुआ वहाँ पर
काँपी धरती, काँपा देह, संकट छाया सारे जहाँ पर । । '
आतंकवाद विज्ञान पर काला धब्बा है । विज्ञान ने अणुबमों का आविष्कार कर हर तरफ छायी खुशहाली को गहरे शोक, शक तथा संदेह में परिवर्तित कर दिया है। मनुष्य को हर पल यही चिंता रहती है कि कहीं यहाँ बम न हो, यह व्यक्ति कहीं आतंकवादी तो नहीं। विज्ञान ने मानव को लहलहाते खेत और गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ तो दीं परन्तु उन्हें कुछ ही पल में श्मशान में बदलने वाले भीषण बम भी दिये। जिनमें नाम - मात्र की अहिंसा भी दिखाई नहीं देती । अहिंसा रहित इसी अणुशक्ति के कारण हिरोशिमा और नागासाकी को विश्व मानचित्र से मिटाने का 'पुनीत' कार्य हुआ। बारूद की ढेर पर बैठे मानव की शक्ति-विलास न जाने कब समस्त विश्व को महाप्रलय की ओर धकेल दे। ये जगमगाते नगर, ये ब्रह्माण्ड - विजय का अभियान, ये शक्ति और
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६२ CS श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
वैभव के अभियान, जरा-सी गलती बना सकते हैं नीरव श्मशान। किसी दार्शनिक ने ठीक ही कहा होगा है कि 'उन्हें नहीं पता तृतीय विश्व-युद्ध किन अस्त्रों से लड़ा जायेगा, पर वे इतना जरूर कह सकते हैं कि चतुर्थ विश्व युद्ध अवश्य ही तीर, कमान, भालों आदि से लड़ा जायेगा।' अर्थात् उनके अनुसार मनुष्य ने भयंकर अणुबमों का आविष्कार कर दिया है जिससे तृतीय विश्व युद्ध के दौरान मानव सभ्यता पूरी तरह लुप्त हो जायेगी। उसके बाद सभ्यता का पुनर्विकास प्रारंभ होगा।
अतः मनुष्य को यदि शांति, सद्भाव, एकता, भाईचारे के साथ इस दुनियां में रहना है तो उसे विज्ञान के साथ अहिंसा का उपयोग करना होगा, अन्यथा पता नहीं बगैर अहिंसा के विज्ञान तो रहेगा पर शायद विज्ञान को समझने, उसके गूढ़ रहस्यों को जानने वाले तथा उससे प्रभावित होने वाले रहें या न रहें। यदि अहिंसा और विज्ञान में समन्वय सम्भव हो सकता है तो हम अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेंगे।
जीओ और जीने दो । विज्ञान के साथ अहिंसा होने दो।।
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
कु० निकिता चोपड़ा'
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
पश्चिम के एक प्रसिद्ध विचारक ने वर्षों पूर्व कहा था "आवश्यकता आविष्कार की जननी है। ' जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताऐं बढ़ती जाती हैं, आवश्यकताओं की पूर्ती के साधन भी बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार आवश्यकता व विज्ञान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। आवश्यकता के बगैर विज्ञान की कल्पना करना असंभव है। बदलते वैश्विक परिदृश्य में विज्ञान का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो गया है। सर्व-सुविधासम्पन्न बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के आविष्कारों की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
विज्ञान के द्वारा मानवजाति का कल्याण व विध्वंस दोनों ही संभव है । विज्ञान ने एक तरफ कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन, संचार, उद्योग, अंतरिक्ष इत्यादि के क्षेत्रों में प्रगति उन्नति की है, वहीं दूसरी तरफ विध्वंसकारी हथियारों के निर्माण के कारण सारी दुनियाँ बारूद के ढेर पर नजर आती है। बस एक छोटी-सी चिंगारी की जरूरत है और सारी दुनियाँ पल भर में स्वाहा हो जाएगी।
प्रकृति का प्रथम आविष्कार मानव चट्टानों और अवशेषों के रूप में प्रकृति की कोख में जीवन के विकास की कहानी अंकित है। इसको पढ़ने का सामर्थ्य जिन्हें प्राप्त हैं, वे कह सकते हैं कि विकास की शत- सहस्र वर्षो की प्रक्रिया के उपरांत मानव शरीर का निर्माण संभव हुआ है। प्रकृति की सम्पूर्ण कृतियों में सर्वाधिक बुद्धिमान व समझदार कृति मनुष्य है। मनुष्य ने जीवन को सरल व सुगम बनाने के लिए विज्ञान का सहारा लिया। आज वैज्ञानिक आविष्कार अपनी चरम सीमा पर है। प्रकृति के नियमों को ताक पर रखकर नए शोध व खोज जारी हैं। मानव जाति के हित व अहित को अनदेखा करते हुए आविष्कारों की प्रक्रिया सतत् जारी है। सर्वश्रेष्ठ बनने की होड़ में मनुष्य जाति ने ऐसे हथियार जमा कर रखे हैं जिनसे पूरी पृथ्वी को दर्जनों बार नष्ट किया जा सकता है। अकेले अमेरिका के पास इतने विध्वंसक हथियार मौजूद हैं जिनसे पूरी पृथ्वी को कितनी बार विनष्ट किया जा सकता है। यदि तीसरा विश्व युद्ध छिड़ता है तो उसकी भयावहता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो हिंसा के तांडव से एक भी इंसान अछूता नहीं रह सकता और संभव है कि पृथ्वी पर से जीवन का नामो-निशान मिट जाए। ईश्वर न करे कि कभी भी तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हो ।
•
द्वारा- विमल ट्रेडर्स, सदर बाजार, राजनांदगाँव (छतीसगढ़)
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भगवान महावीर के अनुसार सभी वस्तुओं, जड़ और चेतन दोनो में जीव है। उनके अनुसार प्राणी मात्र के प्रति मन, वचन, कर्म से संयमपूर्ण और दया का व्यवहार किया जाना चाहिए। किसी भी जीव को कभी भी हिंसा नहीं पहुँचानी चाहिए।
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भारतीय ज्ञान - विज्ञान के मनीषियों ने कहा है कि चौरासी लाख योनियों को भोगने के बाद मनुष्य योनि प्राप्त होती है । जीवन की मूलभूल एकता प्रकृति का एक तथ्य है। विश्वबंधुत्व की बात करना इस तथ्य का व्यावहारिक रूप है। बौद्धिकता मानव की विशिष्टता है, वह मनुष्य को विश्लेषण की प्रवृत्ति प्रदान करती है जिसके द्वारा वह दृश्यमान जगत् के वैज्ञानिक अध्ययन में प्रवृत्त होता है। साथ ही वह व्यक्ति को एक से अनेक करने का स्वभाव प्रदान करती है और इसी स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य हिंसक हो जाता है और विध्वंसक कार्रवाई की ओर प्रवृत्त होता है।
भगवान महावीर और महात्मा गांधी जैसे महपुरुषों ने जन-जन को यह संदेश दिया कि 'जीओ और जीने दो।' इन महापुरुषों का जीवन अहिंसा से ओत-प्रोत था । उनके मन में छोटे से छोटे जीव के लिए मन में करुणा के भाव थे। उन्होंने सभी को यह संदेश दिया कि हर व्यक्ति अहिंसामय होकर जीए तो प्राणीमात्र को दुःख प्राप्त न हो। पर आज इक्कीसवीं सदी में विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि सारा जीवन वैज्ञानिक यंत्रों के ऊपर निर्भर हो गया है। पर इंसान तेज रफ्तार से जीने का आदी हो गया है। आज सोनोग्राफी व इंटरनेट ने मानव का जीवन ही बदल दिया है। सोनोग्राफी के जरिये भ्रूणहत्या दिनो दिन बढ़ती जा रही है। जिसको माँ कहा जाता है, जिसे ममता की मूर्ति समझा जाता है आज वही अपनी ममता को भूल गयी है। सोनोग्राफी में पता चल गया कि लड़की है तो एक औरत ही अपनी कोख में उसकी हत्या करवा देती है तब उसके अन्दर की इन्सानियत हैवानियत में बदल जाती है, वह इतनी हिंसक हो जाती है कि उसे किसी भी चीज का भान नहीं रहता । कुदरत ने औरत को ही मां बनने का दर्जा दिया है पर उसी औरत ने आज अपने स्वरूप को विरूपित कर लिया है। अपनी इज्जत और मर्यादाएं बिल्कुल भूल गई है।
आज के भौतिक युग में जहां मनुष्य को वैज्ञानिक उपकरणों की आवश्यकता है वहीं मानव को अपने जीवन में अहिंसा की भी आवश्यकता है। आज मनुष्य का जीवन हिंसा के साधनों से जुड़ गया है। इसलिए हर प्राणी अशांति का जीवन जी रहा है | अतः जीवन को अहिंसा रूपी विज्ञानशैली में ढालना होगा तभी जीवन में शांति की स्थापना हो सकती है।
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
कु० प्रियंका चोरड़िया *
अहिंसा का उपदेश हजारों वर्षों से चल रहा है फिर भी अहिंसा का विकास नहीं हो पा रहा है, हिंसा बढ़ रही है। जब-जब अहिंसा के बारे में कुछ कहा जाता है, उक्त प्रश्न उभर कर सामने आता है और अहिंसा का सूर्य तर्क के बादलों में छिप जाता है।
अहिंसा का उपदेश भी गलत नहीं है और अहिंसा के बारे में पूछा जाने वाला प्रश्न भी गलत नहीं है । अहिंसा का सिद्धांत जानने के लिए उपदेश जरुरी है और अहिंसा प्रभावी नहीं बन रही है, यह विचार भी ध्यान को आकृष्ट करने वाला है। आज हम उपदेश के युग में नहीं जी रहे हैं, वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। विज्ञान के आविष्कार केवल सिद्धांत के आधार पर नहीं होते । यदि वैज्ञानिक के पास प्रयोगशाला न हो और वह प्रयोग न कर सके तो वह वैज्ञानिक- आविष्कार करने में सक्षम नहीं होगा। लेकिन अहिंसावादी लोग केवल उपदेश तक सीमित हैं। वे अहिंसा के क्षेत्र में प्रयोग नहीं कर रहे हैं, इसलिए अहिंसा प्रभावी नहीं हो रही है।
आज विज्ञान का युग है । सर्वत्र विज्ञान की दुन्दुभी बज रही है । आज विज्ञान ने मानव को इतना सशक्त तथा प्रभावशाली बना दिया है कि वह प्रकृति की शक्तियों को चुनौती देने के लिए उद्यत है । आज थल, नभ तथा जल पर मानव का आधिपत्य स्थापित हो चुका है। आज धरती से ऊपर उठकर वह ग्रहों तथा नक्षत्रों तक पहुंचने का सफल प्रयास कर रहा है। नए-नए आविष्कार मानव की सुख-सुविधाओं में निरंतर वृद्धि कर रहे हैं। मानव जिन बातों की कल्पना तक नहीं कर सकता, आज उन्हीं को अपनी आखों के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से देख रहा है। अतः विज्ञान के लिए अहिंसा अत्यावश्यक है। जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र शेष नहीं है, जहां विज्ञान ने अपना अधिकार नहीं जमाया है। यदि हमारे पूर्वज अपनी कब्रों से उठकर आज के विश्व का अवलोकन करें तो दांतों तले उंगली दबायेंगे तथा सोचेंगे कि ऐसा किस प्रकार संभव हो सका है? विज्ञान के प्रयोग तथा परीक्षण हमें यथार्थ का बोध करा रहे हैं। आज मानव हर बात को तर्क की कसौटी पर कस कर देखता है।
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'द्वारा- श्री दगडूलाल चोरड़िया, पो० छीपावड़, खिरकियां, जिला हरदा ( म०प्र०)
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६६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
परमाणु शक्ति भी विज्ञान की एक महान् देन है। इसके शुभ एवं अशुभ दोनों ही पक्ष हैं। आज इसके माध्यम से विनाशकारी अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण किया जा रहा है, जो मानव के लिए अभिशाप है। बिजली उत्पादन तथा पहाड़ों को काटने में इस शक्ति का प्रयोग किया जाता है।
अहिंसा एक अनोखा शस्त्र है जो अन्यायी, आततायी को भी झुका सकता है बीसवीं सदी में विश्व ने एक अद्भुत दृश्य देखा। महात्मा गाँधी ने सत्य का झण्डा लेकर अहिंसा का शस्त्र उठाया और जिसके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, ऐसी अंग्रेज हुकूमत के कब्जे से भारत को आजाद कराया। न तो उन्होंने तोप ही दागी और न ही बंदूक चलाई।
वर्तमान युग तो हिंसा का युग ही बन गया है। पूर्व काल में तो सिर्फ खाने के लिए और मनोरंजन के लिए शिकार आदि के रूप में हिंसा होती थी लेकिन आज तो वैज्ञानिक प्रयोग में हिंसा चरमोत्कर्ष पर है। अतः वर्तमान में अहिंसा का प्रचार करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। अहिंसा माता के समान सुखदायिनी है। आज इस भौतिकवादी युग में विश्व वित्त के पीछे पागल है, उसे न तो आत्मिक सुख-सन्तोष है, न ही मानसिक शान्ति। उसे यह जीवन बहुत भारयुक्त तथा कठिन लगने लगा है। वह ज्ञान, विवेक, संस्कार चारित्र तथा अहिंसा का मूलमंत्र भूल गया है, संयम तथा अहिंसा की साधना उसको कठिन लगने लगी है। वह योगी नहीं भोगी बनने पर उतारू है और यही भोगलिप्तता उसे विनाश के कगार पर ले आयी है। वर्तमान परिवेश में अहिंसा ही युग धर्म है। अहिंसा ही सर्वनाश से बचने की ढाल है। अहिंसा ही जीवजगत् के लिए प्राणवायु है और विज्ञान के लिए आवश्यक भी। अहिंसा वह माँ है जिसकी गोद में बैठकर सारा जगत् सुख शांति का अनुभव कर सकता है पर खेद है
आज अहिंसा मां की गोद में कोई बैठना नहीं चाहता है। शायद इसीलिये प्रकृति आज रूठी है और मानव परेशान है। भला कोई बेटा माँ के आँचल की उपेक्षा कर सुखी हुआ है। आज अपना सुख दूसरों का दुःख बन रहा है तो दूसरे का सुख भी आदमी को दुःखी किये है और यही सबसे बड़ी हिंसा है। अतः इससे बचने के लिए ऐसा जीवन जिया जाये कि दूसरों को कष्ट न हो और परमात्मा के सामने एक प्रार्थना ये भी की जाये :
"सब सुखी हों, ये मेरी भावना है, हो न दुःख किसी को, मेरी प्रार्थना है तेरी भावना प्रभु, मेरी भावना बने, इसी प्रार्थना में अहिंसा की आराधना है।
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ६७
जैन धर्म की नींव अहिंसा है। अहिंसा का पालन करते हुये जीव आत्मशांति का अनुभव करता है। आज मानव स्वार्थवश, पैसा कमाने की होड़ में सौंदर्य प्रसाधनों, चमड़े की वस्तुओं, इंसटेन्ट फुड के लिए नए-नए हिंसक मार्ग अपनाकर हिंसात्मक प्रवृत्तियों द्वारा अपनी पैठ जमाना चाह रहा है। इससे वह स्वयं हिंसक तो बन ही रहा है साथ ही साथ प्रकृति के साथ खिलवाड़ भी कर रहा है। नतीजन पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। पानी की महामारी हो रही है। जलवायु भी प्रतिकूल रुख अपना रहे हैं। हिंसा किसी भी स्तर की हो वह वर्जनीय है। अत: हमें अपने सोये विवेक को जागृत करना है। हमें सैद्धांतिक बनकर सिद्धांतों का पालन करना है। जिससे हम धर्म के रक्षक होने के साथ प्रकृति के भी रक्षक बनें। यही आज की आवश्यकता है।
रात्रि भोजन त्याग अर्थात् जैन धर्म में सूर्यास्त के बाद खाना खाना वर्त्य है। रात्रि के समय प्रकाश में भी न दिखने वाले सूक्ष्म कीटाणु भोज्य पदार्थों में गिरकर भोजन विषाक्त बना देते हैं। इससे हिंसा के साथ-साथ पाचन विकृति भी होती है। यही बात विज्ञान की विभिन्न विद्या - नेचुरोपैथी, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक एलोपैथिक भी कहती हैं कि खाना जल्दी खाकर कम से कम ३-४ घंटे जागें, घूमें। देर रात में खाने से पाचन शक्ति कमजोर होती है, गैस, कब्ज जैसे रोग होते हैं।
___आज अहिंसा का उज्ज्वल रूप धूमिल हो रहा है। अहिंसा-प्रेम या मैत्री के अलौकिक सूर्य को आज परिग्रह और आसक्ति के काले मेघों ने घेर लिया है। जैन धर्म में पेड़ के पत्ते को तोड़ना भी हिंसा माना गया है। पर आज पूरे जंगल के पेड़ कट रहे हैं और पेड़ कम होने से समस्या खड़ी हो रही है- अकाल की। पेड़ भी जीवित चीज है उसे काटना हिंसा है यह आज विज्ञान को मानना पड़ा है, इसलिए वह नारा लगा रहा है- 'पेड़ लगाओं, पेड़ बचाओ।' अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान के लिए अहिंसा कितनी आवश्यक है। हिंसा के दुष्परिणामों से हमें अवगत होना पड़ेगा तभी अहिंसा का साम्राज्य फिर इस धरा पर स्थापित हो सकेगा।
अहिंसा में बहुत बड़ी शक्ति है। इससे विश्व में सुख-शान्ति का साम्राज्य निर्माण हो सकता है। यह स्व-पर कल्याणक है। कोई भी धर्म बचाने (अहिंसा) का ही संदेश देता है न कि हिंसा अर्थात् मारने का। अहिंसा सब जीवों को सुख देने वाली है। इस विज्ञान युग में हर शक्तिशाली देश के पास विश्वसंहारक अणुबम है पर विज्ञान की यह बेसुमार प्रगति मानव जाति के हित में नहीं है। हम सब तभी जी सकते हैं जब हम दूसरों को जीने देगें। यही बातें अगर विज्ञान या डॉक्टर बताये तो हम उसका पालन करते हैं तो फिर हम सीधा ही अहिंसा का पालन क्यों न करें? पर मराठी में कहावत है कि 'सोनारानेच कान टोचावे लागतात।'
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: श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
जीवन में शांति प्राप्त करने के लिए एक महान सूत्र महावीर ने दिया था। वह सूत्र है- 'अहिंसा' + 'विज्ञान' = मानव जाति का उत्थान तथा अहिंसा - विज्ञान = मानव जाति का विध्वंस।' कहने का अर्थ है कि हमारे यहाँ पर भौतिक ज्ञान की • अवहेलना, उपेक्षा नहीं की गई बल्कि उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनाने पर जोर दिया गया।
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वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पशुओं की करुण चीत्कार से भूकम्प होने लगे हैं। आज बढ़ती हिंसा से प्रकृति का स्वरूप पलट रहा है। जगह-जगह बाढ़ आने लगी है। महामारियाँ फैलने लगी हैं। हिंसा की इतिश्री अब होनी चाहिये। अतः अहिंसा विज्ञान के लिए आवश्यक है।
सच तो यह है कि सुख देकर ही सुख पाया जा सकता है। यही अहिंसा है और अहिंसात्मक व्यवहार ही है सुख का राजमार्ग । अतः स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की कितनी प्रासंगिकता है।
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
श्रीमती सरोज गोलेछा*
मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से ही अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उस वक्त मानव संस्कृति इतनी विकसित अवस्था में नहीं थी, अतएव अहिंसा का अर्थ व दायरा भी बहुत सीमित था । उस समय अहिंसा का अर्थ मोटे रूप में एक मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ शांतिपूर्वक निवास करना ही माना जाता था । किन्तु आज के वैज्ञानिक युग में, जब मानव सभ्यता एवं संस्कृति इतनी विकसित हो चली है और हिंसा के कई रूप उभर कर सामने आये हैं, तो अहिंसा का अर्थ व उसका दायरा भी विस्तृत हो गया है। आज के विज्ञान युग में व्याप्त भौतिकता ने मानव के आपसी भावुक रिश्तों की नींव हिलाकर हत्यायें, लूटपाट, आत्महत्या, आतंकवाद, तोड़फोड़, आगजनी इत्यादि हिंसा के कई प्रकारों को जन्म दिया है, जिनमें त्रस्त मानव समाज ने अहिंसा के महत्त्व और अहिंसा की आवश्यकताओं को पहले से कहीं ज्यादा और पहले से कहीं व्यापक रूप में अनुभव किया है । 'अहिंसा परमों धर्म के रूप में भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी का उद्घोष अब सीमित दायरे से निकलकर विश्व मानव के मन में स्थान बना रहा है। अहिंसा ही आज के युग की प्रमुख मांग है, क्योंकि यह ज्वालामुखी पर बैठे विश्व को बचा सकती है। प्राचीनकाल में कुछ अपवादों को छोड़कर अहिंसा के प्रयोग प्रायः व्यक्तिगत हुये हैं, किन्तु भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, ईसा मसीह आदि महापुरुषों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का मंथन करके महात्मा गांधी ने अनेक सामूहिक प्रयोग कर बताये। अतएव आज अहिंसा का सामूहिक प्रयोग कठिन नहीं है। विज्ञान आज बड़ी तेजी से छलांगें मार रहा है और इस कारण विश्व अत्यंत छोटा बन गया है। वैज्ञानिक सुविधाओं के कारण आज एक देश का मानव दूसरे देश के मानव से अधिक दूर नहीं मालूम होता । अतएव अहिंसा की गति भी तीव्र करनी होगी।
अहिंसा और विज्ञान के क्षेत्र में भिन्नता
आज के युग में धर्म का प्रभाव उत्तरोत्तर क्षीण होता जा रहा है। लोगों में नास्तिकता घर करती जा रही है, इसका एक मात्र कारण है विज्ञान की उन्नति । विज्ञान का प्रभाव आज विश्वव्यापी है। आज से दो शताब्दी पूर्व यह दशा नहीं थी । धर्मपरायण * द्वारा- पापुलर बुक्स एण्ड स्टेशनरी, जयस्तम्भ रोड, राजनांद गाँव (छतीसगढ़)
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जनता विज्ञान और वैज्ञानिकों को घृणा की दृष्टि से देखती थी, उसका विचार था वैज्ञानिक अनुसंधान धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा के प्रतिकूल है तथा विज्ञान से नास्तिकता बढ़ती है। आज भी कहीं-कहीं कुछ ऐसी विचारधारा जनता में दृष्टि गोचर होती है। अहिंसा और विज्ञान दोनों ने ही मानव के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है | अहिंसा आंतरिक सहयोग देती है तो विज्ञान बाह्य । अहिंसा मानव की मानसिक एवं आत्मिक उन्नत करती है तो विज्ञान भौतिक उन्नति । अहिंसा से आध्यात्मिक विकास होता है तो विज्ञान से बौद्धिक एवं भौतिक विकास । आज मनुष्य को भौतिक सुख-शांति की जितनी आवश्यकता है उससे भी अधिक आवश्यकता है मानसिक सुख-शांति की । मनुष्य कितना ही धनवान हो, कितना ही ऐश्वर्य सम्पन्न और समृद्धिवान हो, परंतु वह भी मानसिक शांति के लिये भटकता देखा गया है। इसी प्रकार यदि मनुष्य समाज में सामान्य स्थान प्राप्त करके जीवन यापन करता है, तो उसे सांसारिक सुख-शांति भी आवश्यक है। अतः संसार में अहिंसा और विज्ञान दोनों ही मानव कल्याण के लिये आवश्यक तत्त्व हैं और हमेशा रहेंगे। यह दूसरी बात है कि किसी काल विशेष में अहिंसा की प्रधानता होगी, तो किसी में विज्ञान की ।
अहिंसा और विज्ञान का पारस्परिक संबंध
एकांगी उन्नति पूर्ण उन्नति नहीं की जाती। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति के लिये हृदय और बुद्धि की समानता चाहिये। कोरी भावुकता या ज्ञान की कोरी नीरसता मानव त का कल्याण नहीं कर सकती । मानव जाति के समुचित विकास के लिये हृदय और बुद्धि का समन्वय चाहिये। हृदय अर्थात् अहिंसा व बुद्धि अर्थात् विज्ञान। जिस प्रकार गृहस्थ जीवन के स्त्री और पुरुष दो पहिये कहे जाते हैं, उसी प्रकार मानव जीवन की उन्नति के दो पहिये हैं- अहिंसा और विज्ञान। दोनों में से किसी एक अकेले से गाड़ी नहीं चल सकती। समाज के सहृदय तथा भावुक व्यक्तियों की आनंदमयी एवं लोकहितकारिणी भावनाओं की संचित निधि ही अहिंसा है तथा समाज के तार्किक एवं बुद्धि प्रधान अन्वेषकों द्वारा खोजे हुए चमत्कारिक सत्यों का अक्षुण्ण भंडार ही विज्ञान है । मानव समाज का आध्यात्मिक विकास अहिंसा है तो भौतिक विकास विज्ञान | अहिंसा व विज्ञान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। जिस प्रकार बिना आत्मा शरीर का और बिना शरीर आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अहिंसा और विज्ञान परस्परावलम्बित हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक शक्तियां हैं। अहिंसा का विकास मानव समाज की भावनाओं का प्रसार एवं परिष्कार करता है और विज्ञान मानव जाति को भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है। अहिंसा मानव जाति की भौतिक उन्नति में सहायक नहीं होती और विज्ञान मनुष्य की आध्यात्मिक एवं मानसिक उन्नति में सहायक नहीं होता। भौतिक तथा आध्यात्मिक विकास के समन्वय से ही मनुष्य जाति
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का कल्याण हो सकता है। केवल एक पर आश्रित रहने से मनुष्य एक पक्ष का ही हो जायेगा। कुछ विद्वान् अहिंसा और विज्ञान को नितांत भिन्न बनाते हैं। हाँ, अहिंसा और विज्ञान का क्षेत्र कुछ भिन्न अवश्य है, क्योंकि अहिंसा मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्तियों का परिणाम है और विज्ञान ज्ञानात्मक वृत्तियों का। अहिंसा का सम्बन्ध आदर्श से है
और विज्ञान का सम्बन्ध यथार्थ से। साहित्य के क्षेत्र में केवल आदर्शवाद या केवल यथार्थवाद हास्यास्पद बन जाते हैं और उनसे जीवन और जगत् का कोई कल्याण नहीं होता है। इसलिये आदर्श और यथार्थ का सामंजस्य ही विद्वान् को सम्मत होता है। साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थवादी होना चाहिये, इसी प्रकार अहिंसा और विज्ञान के सामंजस्य से ही लोकहित संभव हो सकता है। अहिंसा की प्रकृति संश्लेष्णात्मक होती है जबकि विज्ञान की विश्लेषणात्मक। अहिंसा का लक्ष्य मानव के "स्व" को विस्तृत करके परमानंद प्राप्त करना है जबकि विज्ञान मानव के भौतिक सुख को अपना लक्ष्य स्वीकार करता है। विज्ञान से विकास और विनाश
विज्ञान की तस्वीर दोनों तरह की है उजली व मैली। इसलिये कि उसने हमें सत्य की खोज की एक व्यवस्थित, विश्वसनीय और तर्कसंगत पद्धति दी है, मैली इसलिये कि उसने मनुष्य के हाथ में विनाश के नये और खतरनाक हथियार थमा दिये हैं, जिनसे वह अपना नुकसान तो कर ही रहा है; पृथ्वी और प्रकृति को भी तहसनहस करने पर तुला है। धरती की हरी खोल लगभग ध्वस्त हो चुकी है। अतः जगहजगह मरुस्थल सिर उठाने लगे हैं। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आज विज्ञान के विकास के चरण बढ़ते चले जा रहे हैं, उसका कार्यक्षेत्र और कर्मक्षेत्र आशातीत व्यापक हो चुका है। नित नये-नये आविष्कारों और अनुसंधानों ने सचमुच मानव जगत् को चमत्कृत कर रखा है। यही कारण है कि आज हर एक देश, प्रांत, नगर, गांव और एक समाज उस नये आविष्कारों के साथ आगे बढ़ने हेतु लालायित है। आज का शिक्षित और अशिक्षित समाज, न वैज्ञानिक साधन-प्रसाधनों से अपने आप को अलग-थलग कर सकता है और न वंचित ही। क्योंकि प्रत्यक्षं किं प्रमाणम् के अनुसार आज विज्ञान की अनेक विशेषतायें प्रत्यक्ष हो चुकी हैं। विज्ञान कृत कार्य-कलापों की अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष करने में देर नहीं करता है। एक सेकंड में हजारों-हजार बल्बों में विद्युत तरंगे तरंगित होने लगती हैं। आंख की पलक झपकते हजारों मील दूरस्थ चित्र ही नहीं, साक्षात गायक और वक्ता आंखों के सामने नाचते दिखने लगते हैं। हजारों मील दूर बैठे सम्बन्धियों से टेलीफोन, मोबाईल के माध्यम से बातें हो रही हैं। उपग्रह अनंत आकाश में उड़ाने भर रहा है व उसका नियंता धरती पर बैठा-बैठा निर्देशन कर रहा है, निंयत्रण कक्ष को सम्हालें बैठा है। २०-२५ कदम दूर बैठा मानव रिमोट
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कंटोल के माध्यम से टी.वी.को चालू कर रहा और बंद कर रहा, जबकि बीच में कोई माध्यम नहीं है। कई वैज्ञानिक उपकरण शरीर के अवयवों के स्थान पर कार्यरत हैं। आज ऐसे भी यंत्र उपलब्ध हैं जो शारीरिक संतुलन को ठीक बनाये रखने में सहायता करते हैं एवं हलन-चलन, कंपन, स्पंदन, धड़कन गति को बताने में सक्षम है। वैज्ञानिक साधनों के आधार पर यह पता चल जाता है कि खनिज भंडार-धातु, गैस, रसायन एवं तरल पदार्थ अमुक धरती के गर्भ में समाहित है। आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उसके हाथों से बचा हो। विज्ञान ने पूरी पृथ्वी को अपने वश मे कर लिया है और अब इसकी कोशिश आसमान को कब्जे में करने की है। मानव ने अपने चरण चंद्र पर रख दिये हैं, विज्ञान एक ऐसी दिव्य शक्ति है, एक ऐसा चमकता तारा है जिसने मनुष्य को सभी प्राणियों से सर्वश्रेष्ठ बना दिया है। जिस प्रकार हर चीज के दो पहलू होते हैं सकारात्मक व नकारात्मक उसी प्रकार विज्ञान के नकारात्मक पहलू भी है। विज्ञान के सकारात्मक पहलुओं को हम देख चुके, पर विज्ञान के नकारात्मक पहलू भी हैं जिसका जिम्मेदार केवल मानव है। आज के इस वैज्ञानिक युग की प्रगति देख एवं इसके चमत्कारिक आविष्कारों को देखकर यह बात समझ में नहीं आती कि इतनी सुख-समृद्धि के बावजूद आज भी मानव तनाव में क्यों हैं? हमारे पास खाना है पर भूख नहीं है, हमारे पास कपड़े तो हैं पर साफ नहीं हैं। हमारे पास ए०सी० है पर सुकुन की नींद नहीं है, इन सबका कारण क्या है? वैज्ञानिक आविष्कारों में सबसे बड़ा आविष्कार ओपेन हियर नामक वैज्ञानिक द्वारा निर्मित अणुबम है। अगर सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो अणु विद्युत बनाने के लिये उपयोग में लाया जाता था। न्यूक्लियर पदार्थ युरा नाम से ऊर्जा मिलती है, जिससे भारी मात्रा में विद्युत उत्पन्न किया जा सकता है पर नकारात्मक पहलू पर सोचा जाए तो इस अणुबम में इतनी शक्ति है कि यह अणुबम विश्व का विनाश कर सकता है। हिरोशिमा व नागाशाकी पर अमरीका द्वारा अणुबम विस्फोट हम देख व सुन चुके हैं जिसका असर लगभग ६० वर्षों बाद भी हम देख सकते हैं। आज छोटा देश भी अपनी वैज्ञानिक योग्यता के आधार पर बड़े से बड़े देश को डरा-धमका रहा है। प्रत्येक देश अपनी ही चिंता करता है न उसको पड़ोसी देशों के साथ कोई सहानुभूति है, न संवेदना। विश्व के महान् देश आज अपनी-अपनी वैज्ञानिक उपलब्धि के आधार पर एक-दूसरे के विनाश हेतु कटिबद्ध है। विश्व के मानव मात्र को सावधान करते हुए कवि दिनकर ने कहा है
सावधान मनुष्य! यदि विज्ञान के तलवार तो इसे फेंक तजकर मोह स्मृति के पार।
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हो चुका है सिद्ध है तू शिशु अभी अज्ञान, फूल कांटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान। खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार काट लेगा अंग तीखी है बड़ी यह धार।
आज हम धर्म को भूल गये हैं। लोगों कि भावुकता को आज विज्ञान किं वजह से ठेस पहुंचती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण आज हम हमारी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। मानव जो पहले पूर्णतया भगवान पर आस्था रखता था वह अब नास्तिक बनने लगा है। विज्ञान तर्क पर आधारित है और अहिंसा श्रद्धा पर, धर्म पर श्रद्धा न होने के कारण मानव दिल कि जगह दिमाग से काम ले रहा है। वैज्ञानिक प्रगति के लिए हम अपनी संस्कृति के चिह्नों को मिटाते चले जा रहे हैं। आज के युग में विज्ञान कि लौ प्रज्वलित है जबकि हमें अहिंसा का बिगुल बजाना है। आज आवश्यकता है विज्ञान के साथ-साथ अहिंसा की ज्योति प्रज्ज्वलित करने की। विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
धर्म की परिभाषा क्या है? इस पर विवाद हो सकता है, किन्तु अहिंसा ही धर्म कि आधारशिला है, मनुष्यता की आत्मा है - इस पर कोई विवाद नही है। ऐसे तो सभी धर्मो में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु जैन धर्म ने इसे परम धर्म स्वीकार करके विश्व मानव को एक नया मार्ग दिखाया है। कुछ लोग यह सोचते हैं कि आज के वैज्ञानिक जीवन दर्शन में अहिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है, सच बात तो यह है कि आज के वैज्ञानिक भौतिकवादी जीवन दर्शन में ही अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्व है। हर युग में अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्व रहा है किन्तु उसका महत्त्व विज्ञान के युग में जितना है उतना कभी नहीं था। विश्व इतिहास में पहली बार आज सभी देश एक-दूसरे के समीप आ गए हैं, आवागमन के द्रुत साधनों के कारण विभिन्न देशों के बीच की सीमा रेखायें टूट गयी हैं लेकिन वैज्ञानिक जीवन दर्शन की यह विडम्बना है कि आज दो देशों के बीच की दीवारें तो टूट गयों किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच में दीवारें खड़ी हो गयीं। भाई-भाई के बीच पिता-पुत्र के बीच तथा गुरु-शिष्य के बीच नयी दीवारें खड़ी हो गयी हैं। ये दीवारे हैं-घृणा की, ईर्ष्या की, लालच की, शत्रुता की, क्रोध तथा अज्ञानता की। इन दीवारों को विज्ञान नहीं तोड़ सकता। इन दीवारों को केवल अहिंसा की विचारधारा ही तोड़ सकती है। वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण बुद्धि का इतना अधिक विकास हो गया कि हम चंद्रमा पर पहंचने तथा हिमालय की ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ने में सफल हो गये हैं, किन्तु दूसरी ओर हमारी आत्मा का इतना पतन
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हो गया है कि हम अपने पड़ोस में निवास करने वाले किसी गरीब बालक की भूख की कराह को सुनने में असमर्थ हैं। एक ओर बुद्धि का असीमित विकास हुआ है तो दूसरी ओर आत्मा तथा हृदय का असीम संकुचन। किसी विज्ञ ने ठीक ही कहा है कि इस वैज्ञानिक युग में हमारी बुद्धि तो एम०ए० की कक्षा में पहुंच गयी है किंतु आत्मा अभी बाल मंदिर में ही है। बुद्धि और आत्मा की इस दूरी को विज्ञान दूर नहीं कर सकता। इसे दूर कर सकती है केवल अहिंसा कि विचारधारा । विज्ञान ने हमें इतनी ताकत दी है कि हम विश्व को स्वर्ग बना सकते हैं, किन्तु इसके विपरीत हम विश्व को नरक बनाने में तुले हुए हैं। गांधी जी को विश्वास था कि अहिंसा धर्म, भावी विश्व का धर्म बनेगा। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अहिंसा ही विश्व को विनाश से बचा सकती है। समाज में आदमी अकेला नहीं रहता। उसके आस-पास अनेक आदमी एवं जीव-जंतु निवास करते हैं। उन सबको इस विश्व में उसी प्रकार जीने का अधिकार है, जिस प्रकार हमें है। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न विचारधाराओं के बीच हमें समाज में जीवन यापन करना पड़ता है इसके लिये हमारे पास सबसे बड़ी शक्ति है - सहनशक्ति और यह सहनशीलता अहिंसा से ही उत्पन्न होती है जिसकी आज के वैज्ञानिक युग को सर्वाधिक जरूरत है। मनुष्यों के बीच विचारधाराओं व विश्वासों का मतभेद हो सकता है । किन्तु इंसानियत में तो कोई मतभेद नहीं हो सकता । अहिंसा हमें इसी इंसानियत व सहनशक्ति उत्पन्न करने की शिक्षा देती है। अहिंसा की अत्यंत सूक्ष्म परिभाषा हैं वस्तुतः मनुष्यता की समस्त गतियां अहिंसा में व्याप्त होती हैं। अहिंसा ही मनुष्यता है, अहिंसा ही धर्मों का सार है, अहिंसा में मानवता की गरिमा है। संस्कृति की गरिमा भी अहिंसा से उत्पन्न हुई है। हिंसा पशुता है और अहिंसा मनुष्यता । पशु अपने मतभेदों का हिंसा से अर्थात् नख, दांत और सींग से निपटारा करता है । पशु से ऊंचा प्राणी होने के नाते आदमी का यह कर्तव्य है कि वह अपने बीच के मतभेदों को अहिंसा से हल करे ।
अहिंसा ही इस वैज्ञानिक युग को नई शक्ति और ज्योति देगी। अहिंसा विज्ञान विरोधी नहीं, वरन् विज्ञान को पूर्णता प्रदान करती है। अहिंसा ही बुद्धि और आत्मा एकता लाती है इसलिये अहिंसा को विज्ञान के क्षेत्र की आशा- किरण की संज्ञा दी गयी है।
सारांश यह है कि अहिंसा और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। अकेली अहिंसा अपूर्ण है और अकेला विज्ञान भी अपूर्ण है। हृदय पक्ष अर्थात् अहिंसा व बुद्धि पक्ष अर्थात् विज्ञान दोनों के समन्वय से ही मानव बुद्धि का परिष्कार संभव है। इसके संतुलित नींव पर ही मानव कल्याण का भव्य प्रासाद बन सकता है, अन्यथा नहीं। आज के वैज्ञानिकों के पास अहिंसा रूपी भावनात्मक, उदार और कोमल हृदय
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हों, तो निश्चित ही विज्ञान मानव जाति का शत्रु न बनकर मित्र बन जायेगा। अतः विश्व कल्याण के लिये नितांत आवश्यक है कि विज्ञान और अहिंसा में सामंजस्य स्थापित हो तथा दोनों एक-दूसरे के सहचर हों। महात्मा गांधी ने भी कहा है -
'विज्ञान वरदान तभी सिद्ध हो सकता है, जब अहिंसा के साथ उसकी सगाई हो।'
इस अखण्ड ब्रह्माण्ड में अहिंसा भगवती ही भयभीतों का शरण है, पक्षियों का पंख है, प्यासों का पानी है, भूखों का अंत है, समुद्र यात्रियों का पोत है और वन यात्रियों के लिये सार्थ है" - भगवान महावीर
'नहीं अहिंसा कायरता है वह है अंत:शौर्य उदान। धरा स्वर्ग होती है इससे, होता स्वर्णित नवल विहान। विज्ञान से हिंसा, और अहिंसा पोषण है जन-जन का प्राण बिना अहिंसा हुआ न होगा, पीड़ित मानवता का त्राण।
उपाध्याय अमरमुनि
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
श्रीमती कमलिनी बोकरिया
सृष्टि के आदि से ही मनुष्य के मन में यह जिज्ञासा रही है कि मेरे आस-पास जो जगत् है, उसमें कितनी विविधता है। इसका अवलोकन करते समय मन से प्रश्न उठता है यह सृष्टि किसने बनाई? क्यों बनाई? सृष्टि के क्रम में सृजन और विनाश दिखता है। कोई जन्मता है, पनपता है,मरता है। कोई पनपने से पहले ही मर जाता है। ऐसा क्यों है? कैसे है? अनेकों उलझनें हैं। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास विज्ञान ने किया और दर्शन ने भी किया। संसार के मौलिक पक्षों के मूल में विज्ञान
और आध्यात्मिकता दोनों को प्रश्रय मिला। लेकिन दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं, क्योंकि आज का विज्ञान प्रगतिपथ पर अग्रसर होते हुए भी सृष्टिक्रम तथा मनुष्य के कार्यकलापों की हर तह तक नहीं पहुँच पाया है। मनुष्य का मन एक चंचल पवन के समान है, उसकी अटखेलियों को खोजने का, परखने का तथा मोड़ने का प्रयास आध्यात्मिकता ने किया।
आज जो समाज इतनी संकटपूर्ण दशा में फंसा है, उसका कारण है कि वह 'शहर पर घेरा डालने' या सेना को व्यवस्थित करने के विषय में सब कुछ जानता है
और जीवन के मूल्यों, जीवन का दर्शन तथा धर्म के प्रश्नों के बारे में निश्चिन्त बना हुआ है। संयम, परंपरा, कानून सब शिथिल हो गए हैं। जो शताब्दियों से लोगों के आचरण का निर्देशन और अनुशासन करने में समर्थ थे, आज खत्म हो गये हैं। यह समाज गलतफहमियों, कटुताओं और संघर्षों से विदीर्ण हो गया है। सारा वातावरण संदेश, अनिश्चितता और भविष्य के अत्यधिक भय से भरा है। हमारा जनजीवन बढ़ते हुए कष्टों, आर्थिक दरिद्रता की तीव्रता, अभूतपूर्व पैमाने पर होने वाले युद्ध, गुटबाजी, गुंडा-गर्दी तथा उच्चपदस्थों के मतभेद, हिंसाचार से शक्तिहीन बनता नजर आ रहा है।
परिवर्तन तो जीवन का स्थायी भाव है। सृष्टि-क्रम में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आज का भौतिक जीवन जो विज्ञान का सहारा लेकर चल रहा है वह गतिशील बना हुआ है। विज्ञान वह प्रक्रिया है जो अवलोकन, परिक्षण वर्गीकरण आदि स्तरों से गुजरता है। वैज्ञानिक तथ्यों से मेल खानेवाला, तार्किक और बुद्धिसाध्य सत्य ही * द्वारा- वर्द्धमान ट्रेडर्स, सीमेन्ट कार्नर, मालीवेस, बीड (महाराष्ट्र)- ४३११२२
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
वस्तुतः सत्य है। बिना किसी पूर्वधारणा के इस सत्य को अंगीकार करना चाहिए। विज्ञाननिष्ठा कोई २०वीं शताब्दी की धरोहर नहीं है। वैज्ञानिक वृत्ति का ऊहापोह प्राचीन भारतीय वाङ्मय में भी मिलता है,
'बुद्धि: पूर्वाः वाक्य कृतिर्वेदः । '
वेद वाक्य इसलिए प्रमाण है क्योंकि उनकी रचना बुद्धिपूर्वक वैज्ञानिक ढंग से की गई है। मनु कहते हैं
"यस्तर्केण अनुसंधते स धर्माम वेदनेतर'
जो तर्क से वैज्ञानिक उहापोह से, अनुसंधान करता है वह ही केवल धर्म को जान सकता है। आचार्य चाणक्य भी कहते हैं
'विज्ञानेन आत्मा सम्पादयेत'
अर्थात् सच्चे विज्ञान से ही आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।
संसार में जिस तत्त्व की मीमांसा करनी है वह तत्त्व 'सत्य' है। सत्य और केवल सत्य की उपलब्धि ही ज्ञान का ध्येय है। दूसरे शब्दों में कहें तो 'ज्ञानेन मुक्तिः ' यह ज्ञानोपलब्धि ही मोक्ष है। विज्ञान और धर्म को मानवीय जीवन में जब तक एकदूसरे से भिन्न नहीं समझा गया तब तक अनेक विद्वानों ने (चरक, वराहमिहीर, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, कणाद, जैमिनी, भारद्वाज) जन्म लिया । साहित्य, संगीत, कला कौशल इस धरती को गौरवान्वित करते रहे। लेकिन वैज्ञानिक धर्मरूपी सूर्य छिप गया और लोगों ने अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए तरह-तरह के धार्मिक दीपक जलाना शुरू कर दिया। फिर भी अंधकार नष्ट नहीं हुआ । विज्ञान और अहिंसा में अवरोध पनपने लगा।
भगवान महावीर ने कहा है?,
रागदीणमणुप्पाओ, अहिंसाकत्तं त्ति देसियं समए ।
२
तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिदिठ्ठा । । '
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अर्थात् राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और उनकी (राग-द्वेषादि) उत्पत्ति हिंसा | विज्ञान ने नए-नए आविष्कार किए। उदेश्य तो उनका सेवा-सुविधा का था, परंतु अहिंसा के संस्कार के अभाव में वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग होने लगा। आज जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से मॉडिफाइड फुड अर्थात् आनुवांशिकी संशोधित खाद्यपदार्थ बनाये जा रहे हैं। मतलब शाकाहारी खाद्य पदार्थों में जन्तुओं के
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
जीन प्रविष्ट कराये जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कह सकते हैं कि काकरोच का जीन टमाटर में, लौकी में, ककड़ी में; मछली का जीन प्याज में प्रवेश कराकर विज्ञान एक नया संशोधन कर रहा है, जो कि अहिंसक शाकाहारी खाद्य पदार्थों के लिए चुनौती है। विज्ञान भी शाकाहार को उत्तम आहार-श्रेणी में प्रतिष्ठित करता है फिर हिंसात्मक घालमेल क्यों? वनस्पति पर भी आक्रमण हो रहा है। वनस्पति अपने आप में स्वयं पूर्ण है इसलिये जानवरों और जीन के जंतुओं को वनस्पति में संक्रमित करना अहिंसा की दृष्टि से अनुचित है।
__ हिंसा पर आधारित अन्न का प्रयोग हमारे रोजमर्रा जीवन में आम होते जा रहे हैं। नमक में आयोडिन मिलाया जाता है जो बूचड़खाने से प्राप्त जानवरों के थॉयरॉईड ग्रन्थि का स्त्राव है। सरकार ने भी आयोडीन मिलाना अनिवार्य बना दिया। ब्रेड, बिस्किट्स, केक, आइसक्रीम आदि में अंडे तथा जिलेटिन मिलाया जाता है। घी तेल में चर्बी मिलाई जाती है। चाँदी का बरक बनाने में बैल का चमड़ा उपयोग में आता है। भ्रामक विज्ञापन के चक्कर में फंसकर मनुष्य अपना पेट कब्रिस्तान बना रहा है। अहिंसा को माननेवाले लोगों को जीवनावश्यक चीजें खरीदते समय गवेषणा करनी चाहिए कि कहीं उसमें जानवरों के अवयवों की मिलावट तो नहीं है? होटल में खाना तथा बाहर बनी चीजें खरीदने की प्रवृत्ति कम करना। रात्रि-भोजन का त्याग तो विज्ञान भी मानता है।
__मांसाहार को अधिक प्रोटीन्सयुक्त बताकर सामिष भोजन का प्रचार किया जाता है, वह गलत है। हाथी शाकाहारी प्राणी है। घोड़ा भी शाकाहारी है। मशीनों की ताकद को आज भी हॉर्स पावर से गिना जाता है। (विज्ञान) मेडिकल साइन्स भी कहता है कि शाकाहारी पदार्थों में वसा की मात्रा कम होती है। इस कारण उच्च रक्तचाप तथा हृदयाघात की संभावना न्यूनतम रहती है।
'अहिंसा परमो धर्मः' कहकर जैन धर्म में इसे मानवीय कृत्यों में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। कहा गया है
'तुंग न मंदराओ, आगसाओ विसालयं नत्थि। जह तह यिंमि जाणुसु, धम्मम हिंसासमं नत्थि।।'
अर्थात् जैसे जगत् में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल अन्य कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। क्योंकि अहिंसा का मूल रहस्य हर जीव को अपने जैसा समझने में है। जैसे हमे कोई वेदना प्रिय नहीं लगती वैसे ही कोई भी जीव दुःख को प्रिय नहीं समझता। अहिंसा तो मनुष्य का स्वभाव है।
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ७९
मनुस्मृति में भी स्पष्ट कहा गया है- जो कार्य तुम्हे पसन्द नहीं है, वह कार्य दूसरों के लिए कभी मत करो। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत'। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता, इंद्रिया-निग्रह ये ऐसे धर्म हैं जो चारो वर्गों के लिए अनिवार्य हैं। पहले विश्व में तीन ही रोग थे- इच्छा, भूख और जरा, किन्तु पशुवध प्रारम्भ होने पर सत्तानवे नये रोग पैदा हो गये। शत्रु को मित्र बनाना, दानव को मानव बनाना और अज्ञानी को ज्ञानी बनाना यह अहिंसा की सद्भावना वृत्ति से सम्भव है। हिंसा से उत्पन्न घाव पर स्नेह का मरहम और दया की पट्टी लगाओ, ऐसा लाओत्से का कथन है। अहिंसा का मूल आधार समता है। समता से आत्मसाम्य की दृष्टि प्राप्त होती है। विज्ञान भी तो समता ही सिखाता है। वह कहता है कि बहुत से प्राणियों की शरीर रचना समान है। शरीर में समानता है, आत्मा में समानता है तो हनन किसका करें? क्यों करें? और कैसे करें?
जैन दर्शन एक वैज्ञानिक दर्शन है इसमें कोई संदेह नही। जैन दर्शन की मान्यताएँ आधुनिक विज्ञान के समान व्यावहारिक एवं तर्कसंगत हैं। दर्शन मानव मूल्यों की रक्षा करता है तथा विज्ञान जीवन को गतिशीलता प्रदान करता है। आज विज्ञान के सहयोग से मनुष्य ने गतिशीलता को पाया है परन्तु मानवीय मूल्यों की संकल्पना को नजरअंदाज कर दिया गया है। फलतः उसके जीवन में विवेकशून्यता पशुता आदि जैसे भावों का बोलबाला हो गया है। अतः एक सुसम्पन्न और विकसित राष्ट्र के लिए विज्ञान और दर्शन को साथ-साथ लेकर चलना होगा तभी सही माने में विकास सम्भव है।
विज्ञान और धर्म दोनों हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं। विज्ञान की दो विधाएँ हैं- एक तो है प्रयोगधर्मिता और दूसरा है विकसित तकनीक। सिद्धान्तानुसार प्रयोग करके निष्कर्ष पर पहुँचने का रवैया विज्ञान का है। यह वैज्ञानिक विकास के लिए उपयुक्त है ताकि अंधश्रद्धा को अवसर न मिले। तकनीकी विकास से जो साधन उपलब्ध हुए उनसे जीवन सुख-सुविधा से भरपूर है। लेकिन मानसिक शान्ति अनुपलब्ध है। विज्ञान और धर्म के तत्त्व एक-दूसरे के विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं। विज्ञान परम्परागत धार्मिक अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास करता है तो धर्म भोगवाद को नियंत्रित करता है। विज्ञान प्रयोगधर्मी है तो धर्म आस्था को मानता है। धर्म के तत्त्व मानसिक रोगों तथा कुण्ठाओं में सहज चिकित्सा करते हैं। विज्ञान के कारण साधनों का अवलंबन पनपता है तो धर्म स्व को विकसित करता है।
विज्ञान ने अपने आविष्कारों को मानव की भलाई के लिए उसके समक्ष रखा, लेकिन विज्ञान के इस ज्ञान का उपयोग अणुबम, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, रासायनिक हथियार (एसिड, पावडर) नक्षत्र युद्ध जैसे भीषणतम एवं संहारक अस्त्र
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८० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ के रूप में होना प्रारंभ हुआ। यदि यह उपयोजन अहिंसा के भाव पर आधारित होता तो परिणाम दूसरा होता। निःसंदेह विज्ञान की इस उपलब्धि का दुरुपयोग विवेकशून्यता का परिणाम है। हमलोग इसका दोष विज्ञान पर देते हैं। अगर विज्ञान नैतिक मूल्यों का सहारा ले और अपनी विवेकशीलता को जागृत बनाए रखे तो मानव दिग्भ्रमित होने से बच जाए। एक सुसंस्कृत और शान्त समाज की स्थापना होगी, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उक्ति चरितार्थ होगी।
जैन दर्शन में मान्य सिद्धान्त अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को देखने की आवश्यकता है। अहिंसा-अहिंसा शब्द को रट लेने मात्र से अहिंसा का संस्कार नहीं होता। अहिंसा तत्त्व की जो सामाजिक उपादेयता है उसे जानना आवश्यक है। जो बात या कृति मुझे अपने लिए पसंद नहीं, वह मैं दूसरों के बारे में न करूँ यह विचार जरूरी है। सब आत्माएँ समान हैं। जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार सभी जीव जीना चाहते हैं। इन प्रक्रियाओं को वैज्ञानिक ढंग से समझ कर प्रयोग में लाने की
आवश्यकता है। विज्ञान की प्रायोगिकता पर हिंसा का आरोप होगा लेकिन वह संकल्पी हिंसा है या नहीं इसे देखना जरूरी है। विज्ञान का उद्देश्य सत्य को यथार्थ रूप से जानने का है और अहिंसा सत्य में जीने की कोशिश हैं। तत्त्वज्ञान और विज्ञान दोनों भी समाज के लिए समान हितकर हैं, यदि दोनों का उपयोग विवेकपूर्वक किया जाए। विज्ञान और धर्म दोनों भी जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें अलग-अलग करके देखना निश्चित ही विनाशक होगा। संदर्भ : १. सुनंदा कुमार का आलेख- 'वर्तमान संदर्भ में बुद्ध के दर्शन की प्रासंगिकता',
दार्शनिक त्रैमासिक, जनवरी-मार्च २००१ २. समणसुत्तं, १५३ ३. शर्मा, सुरेंद्रकुमारजी का आलेख- 'शाकाहार में मांसाहारा का घालमेल' राजस्थान
पत्रिका ४/१०/०३, सम्यग्दर्शन, नवम्बर ०३
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
छैल सिंह राठौड*
दर्शन की सभी (चार्वाक को छोडकर) शाखाओं में अहिंसा का निरूपण किया गया है। जैन दर्शन में पंचव्रत के अन्तर्गत अहिंसा को प्रधानता प्राप्त है -
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। तत्त्वार्थसूत्र
प्रमाद के योग से प्राणों को नष्ट करना हिंसा है और उस हिंसा से विरत होना ही अहिंसा नामक व्रत है। जैन धर्म-दर्शन का मूलमन्त्र रहा है - विचारों में अनेकान्त और आचार में अहिंसा। अहिंसा मानव जाति के अभ्युदय का सर्वोत्कृष्ट साधन है। अभ्युदय के साथ निःश्रेयस का भी आदि और अन्तिम साधन अहिंसा है। भारतीय संस्कृति के अद्यतन विकास तक, जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त एक स्वर से सराहनीय है वह है- 'अहिंसा'। अहिंसा हमारा राष्ट्रधर्म है, संस्कृति है, दर्शन है और लोक जीवन को सुखी बनाने का एक शाश्वत मन्त्र है।
'विविधं ज्ञानं विज्ञानम्।' तकनीकी तथा आधुनिक विज्ञान की समस्त शाखायें . विज्ञान में ही समाहित हैं। विज्ञान की शक्ति दो प्रकार की है :
१. रचनात्मक शक्ति २. विध्वंसात्मक शक्ति
विज्ञान, अहिंसा को साधन बनाकर अथवा साध्य बनाकर रचनात्मक शक्ति से मानव सभ्यता को समृद्ध बनाये यही उसका लक्ष्य होना चाहिए।
यदि विज्ञान हिंसा को साधन बना ले तो उसकी विध्वंसात्मक शक्ति हिरोशिमा और नागाशाकी जैसे परिणामों में परिणत होती हुई प्रतीत होगी।
मनुष्य की अपनी सीमायें हैं। वह जगत् की सर्जना नहीं कर सकता है। यदि वह जगत् की सृष्टि नहीं कर सकता तो हिंसा को साधन बनाकर जगत् का विध्वंस करने का उसे अधिकार भी नहीं है।
अहिंसा भारतीय चिन्तनधारा की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा और भारतीय जीवन-शैली का एक विशिष्ट मूल्य है। अहिंसा ‘जीवन की एकता का सिद्धान्त' है। जो *९४३, केगल हाउस, गाधीपुरा, गली नं० ५, बी०जे०एस० कालोनी, जोधपुर
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
जीवन किसी एक प्राणी के भीतर है वही दूसरे प्राणी में भी विद्यमान है। सबके भीतर एक ही जीवन व्याप्त है, तब दूसरे को दुःख देना वस्तुतः स्वयं को ही दुःख देना है। अतः इस दुःख से बचने के लिए अहिंसा अनिवार्य है। वस्तुओं का स्वरूप देखने के लिए जैन आचार्यों ने निश्चय और व्यवहार इन दो दृष्टियों का उपयोग किया है। व्यवहार-दृष्टि वस्तु का बाह्य स्वरूप देखती है और निश्चय-दृष्टि उसका आन्तरिक स्वरूप। व्यवहार-दृष्टि में लौकिक व्यवहार की प्रमुखता होती है और निश्चय-दृष्टि में वस्तुस्थिति की। व्यवहार-दृष्टि के अनुसार प्राणवध हिंसा है और प्राणवध नहीं होना, अहिंसा है।
'हमारा वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा का आँकलन भी बढ़ना चाहिए और उसके अनुसार आचार धर्म में सूक्ष्मता भी आनी चाहिए। साथसाथ अगर अनुभव से कोई बात गलत साबित हुई तो पुराने आधार धर्म बदलने भी चाहिए। अहिंसा धर्म रूढ़िधर्म नहीं है। वह वैज्ञानिक धर्म है। विज्ञान के द्वारा जैसेजैसे हमारा जीवन-विज्ञान, प्राणिविज्ञान बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारा अहिंसा का आचार धर्म भी अधिकाधिक सूक्ष्म बनेगा। विशिष्ट प्राणी में या वस्तु में जीव है या नहीं, उसकी खोज तो होनी ही चाहिए। जैन तीर्थंकर और आचार्य के जीव-सृष्टि का विज्ञान जहाँ तक बढ़ा था उसके अनुसार उन्होंने अहिंसक धर्म का आचार धर्म कैसा होता है, यह बताया। वे लोग अपने जमाने के विज्ञाननिष्ठ थे।'
अहिंसा जैन धर्म का एक मुख्य आचार है। इसका आध्यात्मिक मूल्य तो है पर आज विज्ञान ने भी इस सिद्धान्त पर उपयोगिता की मुहर लगा दी है। वर्तमान समय में अहिंसा का अर्थ केवल पारलौकिक ही नहीं रह गया, अपितु प्रत्यक्ष जीवन के साथ उसका गहरा अर्थ समझ में आने लगा है। आज विज्ञान पृथ्वी आदि भूतों के उपयोग के बारे में जिस दृष्टि से विचार करने लगा है उससे जैन धर्म की अहिंसा को एक नया आयाम मिला है। यद्यपि जैन धर्म जहाँ प्राणविनाश की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है वहाँ विज्ञान उस पर प्रदूषण की दृष्टि से विचार कर रहा है। जैन धर्म जहाँ प्राणिमात्र की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है वहाँ विज्ञान केवल मनुष्य की दृष्टि से विचार करता है। किन्तु परिमाण की दृष्टि से दोनों एक ही केन्द्र पर आकर मिल जाते हैं।
महात्मा गाँधी ने अहिंसा का अर्थ बताते हुए कहा है - 'ऐसी हिंसा जिसमें युद्ध तो होता है, परन्तु हथियारों से नहीं अच्छाई-बुराई से होता है, जिसमें मनुष्य मृत्यु को नहीं एक नवीन जन्म प्राप्त होता है, अहिंसा कहलाती है। गाँधीजी के अनुसार हिंसा पशु की और अहिंसा मानव की पहचान है।
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ८३
हिंसा तथा अहिंसा - विरोधाभासी
हिंसा और अहिंसा में उसी प्रकार अन्तर है जिस प्रकार विष तथा अमृत में। एक का कार्य मृत्यु है तो दूसरे का कार्य अमरता है। ठीक इसी प्रकार हिंसा और अहिंसा में एक का कार्य मार-काट है तो दूसरे का कार्य शान्ति का प्रयास है। हिंसा द्वारा किसी प्राणी को प्रताड़ित करने के पश्चात् कार्य जबरन कराया जा सकता है, परन्तु अहिंसा द्वारा उसकी भावना ही बदल जाती है और वही कार्य वह सहर्ष करने को तैयार हो जाता है। इस प्रकार अहिंसा एक ऐसा शस्त्र है जिसमें शक्ति कूट-कूट कर भरी है तथा जिसके द्वारा प्राणियों की मुक्ति सम्भव है।
महावीर के अनुसार शत्रु को हिंसा से नहीं वरन् अहिंसा से जीतना चाहिए जिससे उसकी भावना तुम्हारे प्रति कुण्ठित न होकर प्रेम का रूप धारण कर ले। अहिंसा एक ऐसा शस्त्र है जो युद्धभूमि को आपस के प्रेम में बदल देता है। अहिंसा ही वह माध्यम है जो शान्ति के रास्ते को बतलाता है,अहिंसा का शस्त्र जिसके पास है वह वास्तव में शक्तिशाली है, इस शस्त्र के पास होने से अटूट आत्मविश्वास का संचार होता है।
सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र के अनुसार 'अहिंसा ही परमधर्म है। अहिंसा ही परमब्रह्म है। अहिंसा ही सुख-शान्ति देने वाली है, अहिंसा ही संसार का त्राण करने वाली है। यही मानव का सच्चा धर्म है, यही मानव का सच्चा कर्म है। यही वीरों का सच्चा बाना है, यही धीरों की प्रबल निशानी है। इसके बिना न मानव की शोभा है न ही उसकी शान है। मानव और दानव में केवल अहिंसा और हिंसा का ही तो अन्तर है। हिंसा दानवी है और अहिंसा मानवी। जब से मानव ने अहिंसा को भुला दिया तभी से वह दानव होता जा रहा है और उसकी दानवता का अभिशाप इस विश्व को भोगना पड़ रहा है फिर भी मानव इस सत्य को नहीं समझता। किन्तु वह दिन दूर नहीं जब मानव संसार उसे समझेगा, क्योंकि उसके कष्टों का दूसरा इलाज नहीं है।".
__ मन में प्रश्न उठता है कि जब अहिंसा वर्तमान युग के लिए इतनी अनिवार्य है तब इसका पालन हो क्यों नहीं हो पाता? दुनियाँ की बात छोड़देंतो भारत में भी, प्राग्वैदिक काल से इसकी सुदीर्घ परम्परा होने के बावजूद यहाँ के लोग इसका पालन नहीं कर पा रहे हैं - आखिर क्यों? उत्तर होगा - इसलिए अहिंसा को केवल बाह्य नीति समझ कर आचरण भर में उतारने की कोशिश की जाती है,सम्पूर्ण व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बनाया जाता। सम्पूर्ण व्यक्तित्वका हिस्साआत्मबोध से बन सकता है। जबआत्मानुभव होता है तो बाहर अहिंसा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार प्रकाश जलाने से अन्धेरा दर हो जाता है, उसी प्रकार आत्मज्ञान से हिंसा नष्ट हो जाती है। अहिंसा हिंसा का अभाव
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है इसलिए स्वयं के साक्षात्कार के द्वारा हिंसा मात्र के नष्ट हो जाने पर अहिंसा अपने आप प्रतिफलित हो जाती है। अहिंसा का यह प्रतिफलन जितना शीघ्र होगा विश्व में शान्ति, सहिष्णुता और सुरक्षा उतनी ही जल्दी स्थापित होगी।
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा
आहार और अपराध
जैन आचार्यों ने जिस प्रकार आहार का विधान किया है वह पूर्णतः वैज्ञानिक है । उसमें अहिंसा की तो प्रधानता है ही, क्योंकि अहिंसा के बिना तो जैन धर्म या जैन दर्शन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने श्रावक के आठ मूलगुणों का वर्णन करते हुए 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में कहा है
मद्यमासमुधत्यागैः सहाणुव्रत पंचकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाद्दुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ||३/२०
सात्विक भोजन से मस्तिष्क में संदमक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इनहीबीटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिनसे मस्तिष्क शान्त रहता है। वहीं असात्विक (प्रोटीन) भोजन से उत्तेजक तंत्रिका संचारक (न्यूरो एक्साइटेटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिससे मस्तिष्क अशान्त होता है।"
गाय, बकरी, भेड़ आदि शाकाहरी जन्तुओं में सिरोटोनिन की अधिकता के कारण ही उसमें शान्त प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं जबकि माँसाहारी जन्तुओं जैसे शेर आदि में सिरोटोनिन के अभाव से उनमें अधिक उत्तेजना, अशान्ति एवं चंचलता पायी जाती है। मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है। आहार और जल समस्या
जैन धर्म की दृष्टि से जल एक सजीव तत्त्व है। एक तो वह स्वयं सजीव तत्त्व है उसमें अप्काय के स्थावर जीव पाये जाते हैं तथा दूसरे उसके आश्रय में वनस्पतिकाय के स्थावर तथा सकाय के जीव पलते हैं। जल प्रदूषण से अप्काय की हिंसा होती है।
प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता है, वह विषाक्तता एवं सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारण जीवों के लिए हानिकारक हो जाता है तथा संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है।
जैन दर्शन में जल की उपयोगिता और महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। जीवन है, अमृत है, रोगनाशक है और आयुवर्धक है। जल को दूषित करना पाप
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ८५
माना गया है। यह मनुष्य को जीवन-शक्ति प्रदान करता है। जल शक्तिवर्धक और रोगनाशक है।
कीटनाशक और कीड़ों का महत्त्व
प्रत्येक जीव की तरह कीड़ों का भी बहुत महत्त्व होता है। विश्व के बहुत से फूलों के परागकण में कीड़ों का मुख्य योगदान है अर्थात् पेड़-पौधों के बीज एवं फल बनाने में कीड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
विश्व में प्रतिवर्ष २० लाख लोग कीटनाशी विषक्तता से ग्रसित हो जाते हैं। जिनमें से २० हजार की मृत्यु हो जाती है। भारत में कीट पतंगों की प्रजातियां संकटापन्न स्थिति में जा रही हैं ऐसे में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग और उसके होने वाले दुष्प्रभावों से वैज्ञानिक भी चिंतित हो बैठे हैं। सदियों से विभिन्न प्रकार के कीटों का मानव जीवन से गहरा सम्बन्ध रहा है। प्रकृति में विभिन्न प्रकार के कीट पाए जाते हैं इनमें से कुछ कीट हमारे लिए उपयोगी हैं, किन्तु अधिकांश कीट हमारे लिए हानिकारक ही होते हैं। जहाँ एक ओर उपयोगी कीटों से लाभदायक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, वहीं हानिकारक कीटों से हमें बहुत-सी हानियाँ भी होती हैं। हानिकारक कीट न केवल मानव, बल्कि विभिन्न जीवों में भी अनेक प्रकार के रोग फैलाते हैं।
आहार और खाद्यान समस्या
खाद्य पदार्थों के संरक्षण में भी किरणन का प्रयोग भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र में किया जा रहा है। आलू, प्याज, अनाज, मसाला, फल इत्यादि को किरणन द्वारा अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। पौष्टिकता सुनिश्चित रहती है और इन खाद्य पदार्थों से स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। खाद्यान्न समस्या का एक प्रमुख कारण माँसाहार तथा एक मात्र समाधान शाकाहार ही है जो अहिंसा से ही सम्भव है।
मानसिक हिंसा का त्याग
शारीरिक हिंसा के प्रमुख उद्दीपकों और उद्रेकों में क्षुधा तृष्णा, बल-प्रदर्शन, अन्याय, प्रतिकारों और कभी- कभी पामर अहंकारों को गिन सकते हैं, वैसे ही मानसिक हिंसा में अतृप्त तनाव, स्वयं को सिद्ध और स्थापित करने की व्यग्रता तथा अनियंत्रित संवेगों को शामिल किया जा सकता है। मनः चिकित्सा- शास्त्रियों ने तो मानसिक हिंसा पर एक विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण प्रायोजित कर लिया है। जिसके लक्षण और प्रभाव अधुनातन, भौतिक, उपभोगवादी जीवन प्रवाह और नीतिहीन अवधारणाओं के क्रम में बढ़ते ही जा रहे हैं।
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८६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ अहिंसा प्रशिक्षण की आवश्यकता एवं प्रयोग
आज विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक युग में मानव को हिंसा का व्यवस्थित प्रशिक्षण दिया जाता है। दूरदर्शन पर अनेक हिंसात्मक कार्य दिखाये जाते हैं। अत: यह प्रश्न बार-बार आंदोलित करता है कि क्या केवल अहिंसा कहने से अहिंसा की प्रतिष्ठा हो सकती है? अहिंसक समाज की संरचना हो सकती है? प्रशिक्षक की हर क्षेत्र में आवश्यकता रहती है। अहिंसक प्रतिकार के लिए और भी अधिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। एक बार प्रशिक्षण देने मात्र से कार्य की परिणति नहीं हो सकती। बार-बार शिक्षण देकर ही समाज की चेतना जागृत की जा सकती है। आज मानव भौतिकता की चकाचौंध में अहिंसा की बात भूलता जा रहा है। ऐसी मानसिकता होने पर अपेक्षित है - अहिंसा प्रशिक्षण की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र हो और प्रशिक्षण निरन्तर चलायमान रहे।
अहिंसा प्रशिक्षण स्तर - १. पारिवारिक स्तर २. सामाजिक स्तर
३. राष्ट्रीय स्तर ४. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर अणुबम का उत्तर है अहिंसा
अणुबम बनाने का मूल उद्देश्य हर हालात में विनाश ही है। इस हिंसात्मक उद्देश्य को अणुव्रत के अहिंसाव्रत से ही निर्मूलित किया जा सकता है और इस प्रकार अणुबम बनाने के संकल्प का निराकरण अणुव्रत के द्वारा ही हो सकता है। संक्षेप में कहें तो अणुबम का निषेध अणुव्रत से ही किया जा सकता है और इसमें निहित अहिंसा-सिद्धान्त से ही देश को सांस्कृतिक संकट और मानवता के विनाश से मुक्ति मिल सकती है। हिंसा से मुक्ति का उपाय या विकल्प अहिंसा सिद्धान्त के तत्त्वचिन्तन में ही निहित है, जिसके अन्वेषण का प्रयत्न आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अहिंसा उन्नति के वैज्ञानिक उपाय
वृक्ष खेती, ऋषि-कृषि, समुद्री खेती तथा मशरुम खेती के द्वारा अहिंसा को बढ़ावा दिया जा सकता है।
महावीर के अहिंसा-दर्शन में वर्तमान की समस्याओं का समाधान है, अहिंसा आचरण में उतरे, प्रेक्षाध्यान के प्रयोग इसके लिए कारगर हो सकते हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञ का अहिंसा प्रशिक्षण अभियान एक युगीन क्रान्तिकारी कदम है। अहिंसा के प्रति आस्था जगाने का सामूहिक प्रयास करें। वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों पर इस बाद का विशेष उत्तरदायित्व है कि वे मनुष्य के कार्यकलापों द्वारा प्रकृति को होने
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ८७
वाली हानि के प्रति जनसाधारण को आगाह कराये उनमें चेतना उत्पन्न करें। प्रशासकों को चाहिये कि वे राष्ट्रीय योजनाएँ बनाते समय अहिंसा - दर्शन की वास्तविकताओं को ध्यान में रखें।
सन्दर्भ :
१. अहिंसा और उसके विचारक, आदर्श साहित्य संघ, चूरु, १९५१,
२. अहिंसा, पृ० ४४.
३. विज्ञान के सन्दर्भ में जैन धर्म मुनि सुखलाल, आदर्श साहित्य संघ,
चूरु, १९८५, पृ० १३-१४.
४. जैन धर्म पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर
२००१, पृ० १५४.
५. विज्ञान प्रगति - जनवरी २००१, पृ० ३८.
६. वही - जनवरी २००१, पृ० २७. ७. वही, अंक ३१, १९९९, पृ० ६३.
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१, पृ० ११.
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
रामस्वरूप जैन*
वर्ष ५९,
अंक १
श्रमण, जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान और धर्म दोनों ही हमारे जीवन के लिए बहुत जरूरी हैं। ये एक-दूसरे के पूरक मान लिए जायें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । विज्ञान के दो पक्ष हैं - एक तो कार्य-कारण सिद्धान्तों के आधार पर प्रयोगधर्मिता और दूसरा उसके आधार पर विकसित तकनीकि विज्ञान। इन दोनों पक्षों का अपना महत्त्व है, किन्तु कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार जो प्रयोगधर्मिता है- वह जीवन के वैचारिक विकास के लिए अधिक उपयोगी है, और तकनीकि विकास से जो साधन उपलब्ध हुए हैं, उनसे जीवन सुखमय हुआ है।
वैज्ञानिक सोच और धर्म एक-दूसरे के प्रतिपक्षी नहीं हैं। अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं- विज्ञान ने जहाँ परम्परागत धार्मिक अन्धविश्वासों को दूर किया । वहाँ धर्म ने विज्ञान एवं तकनीक के कारण उपलब्ध भोग-सामग्रियों के प्रति उत्पन्न इच्छाओं पर नियन्त्रण का पाठ पढ़ाया है। वैज्ञानिक सोच जहाँ व्यक्ति को प्रयोगधर्मी बनाता है, वहाँ धार्मिक आस्था व्यक्ति को तनाव की विभिन्न अवस्थाओं से राहत पहुंचाती है। विज्ञान के कारण जहाँ शारीरिक रोगों के निवारण हेतु चिकित्सा-केन्द्र सुलभ हुए हैं वहीं बड़ी संख्या में मनोवैज्ञानिक उपचार केन्द्र भी बनाये गये हैं ।
धर्म मानव जीवन को मूल्यवान बनाता है। नैतिकता, ईमानदारी, प्रामाणिकता, सहनशीलता, स्वदोष दर्शन, आत्म-परिष्कार आदि मूल्य धर्माचरण से ही प्राप्त होते हैं | विज्ञान व्यक्ति को आंशिक सुख की ओर बढ़ाता है तो धर्म स्थायी सुख, अपरिमित आनन्द की ओर बढ़ाता है। इसमें सन्देह की कोई बात नहीं है । विज्ञान स्वछंद जीवन जीने की सलाह देता है तो धर्म व्यक्ति को संयमी जीवन जीने की सलाह । विज्ञान की ओर अग्रसर होने पर व्यक्ति विनाश का निमित बनता है। विज्ञान के द्वारा दी गई सुविधाएँ निश्चित रूप से आश्चर्यजनक हैं, लेकिन क्षणभंगुर हैं।
सुखपूर्वक जीने के लिए हमारी मनोवृति अहिंसक होनी चाहिए। हमारे विचार सब जीवों के प्रति करुणामय होने चाहिए, विश्व में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां पर जीवन न हो, पृथ्वी का कोना-कोना जीव से भरा पड़ा है और सभी जीव को जीने का समान अधिकार है। कोई भी जीव मरना नहीं चाहता है सभी जीना चाहते हैं। सुख सबको प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सुख की प्राप्ति अहिंसा से ही हो सकती है। दशवैकालिकसूत्र में अहिंसा धर्म को महान् सुखकारी बताया गया है। अहिंसा, सत्य, * फ्लैट नं० २/३१८, अवसान मन्दिर, सवाई माधेपुर, राजस्थान
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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ८९
अस्तेय, अपरिग्रह का मार्ग ही हमें शांति की ओर ले जाता है। कहा गया है कि जो धर्म भावना में लीन रहता है उसको देवगण भी निरन्तर वंदना करते हैं।जो व्यक्ति ज्ञान को निरन्तर बढ़ाते हैं उनके चारित्र में बराबर वृद्धि होती है।
विज्ञान व्यक्ति को स्थायी सुख का आभास जरूर कराता है लेकिन देता क्षणिक सुख ही है। विज्ञान की सुन्दरता का स्वरूप हम हिरोशिमा और नागाशाकी की कुरूपता से लगा सकते हैं। आज सारे देश में प्रदूषण फैलता जा रहा है। प्रत्येक कार्य मशीन द्वारा किया जा रहा है। सर्वत्र भुखमरी फैल रही है। यह विज्ञान का ही चमत्कार है। लेकिन इन सबका कोई जिम्मेदार है तो वह मनुष्य स्वयं है। यद्यपि मनुष्य जन्म से संयमी होता है। तभी तो देवता भी इस जीवन के लिए इच्छा रखते हैं। लेकिन संयमी चारित्र के साथ जन्म लेने वाला यह मनुष्य समय के साथ-साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, ईर्ष्या, अपकार आदि दुर्गुणों के चादर में ऐसा लिपट जाता है कि उसे अपनी ही सचरित्रतासे जूझना पड़ता है।
नम्रता मानव का श्रेष्ठतम गुण है। सादगी से जीने वाला व्यक्ति कभी भी अनैतिकता को नहीं अपनाएगा और न ही व्यसन का शिकारी होगा। किन्तु विज्ञान की इस दुनियां में सात्विकता न के बराबर रह गयी है।
___ वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञजी, आचार्य विद्यासागरजी, आचार्य शिवमुनिजी आदि के द्वारा विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय पर विचार किया जा रहा है। ईमानदारी, नैतिकता, उदारता, आध्यात्मिकता को जनमानस तक पहुँचाया जा रहा है जिससे प्रत्येक संस्कृति को पल्लवित और पुष्पित होने के लिए मुक्त आकाश मिल सका है। आज भी हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और पारसी सभी को जीने का पूर्ण अधिकार है। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है।
आज सम्पूर्ण विश्व में शान्त, सुखद वातावरण व भाईचारा की स्थापना के लिए विज्ञान और अहिंसा को एक होना पड़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि विज्ञान ने हमें नई ऊचाइयां दी हैं तो अहिंसा ने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलायी है। अहिंसा को व्यावहारिक स्तर पर प्रयोग करके महात्मा गाँधी ने अहिंसा की ताकत से जनमानस को अवगत कराया है। जो यह समझते हैं आज विज्ञान ही सबकुछ है तो यह उनकी भूल होगी। बेशक विज्ञान हमें विलासिता के सभी साजो-सामान उपलब्ध कराने में सक्षम है लेकिन जब हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो जीवन को सुखमय बनाने के जो साजो-सामान हमारे पूर्वजों ने दिया है उसके समक्ष वैज्ञानिक उपलब्धियाँ कुछ भी नहीं हैं।
__वर्तमान सन्दर्भ में विज्ञान और अहिंसाकोअलग करके विवेचित करना निःसंदेह ही मानव के लिए घातक सिद्ध होगा। विज्ञान का प्रयोगअहिंसामय ढंगसेहो तो निश्चित ही प्राचीन भारतीय अहिंसामय विज्ञान की एक नई चेतना का पुनर्जागरण होगा।
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ENGLISH SECTION
Dr. S. P. Pandey
• Concept of śīla in Jainism
Concept of Jīva in Jaina Metaphysics
Dr. Vijaya Kumar
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Śramaņa, Vol. 59, No. 1 Janury-March 2008
Concept of Śila in Jainism
Jainism is one of the oldest living religions of the world. It represents the Śramanic tradition, one of two chicf currents prevalent in Indian culture, the other one Vedic tradition. The basic tenets of Jainism can be epitomized in two words namely- Ahimsā and Anekanta. The whole ethical culture of Jainas is based on their principle of ahimsa. I am sure I am not overestimating if I say that no other religion in the world has worked out the principle of Ahimsā in its minutest details as Jainism. To minimize violence to their maximum extent is the sole purpose of Jaina philosophy. And accordingly the whole philosophical and ethical structure of Jainism is designed. The virtues of truth, non-stealing, continence and nonpossession are just extensions of Ahimsa to different modes of human existence. The principle of ahimsa forms the basis of various code of conduct prescribed for both the Jaina laymen and ascetics. The Jaina Agamas prescribe separate code of conduct for ascetics and householders, which are known as Śramaṇācāra and Śrāvakācāra respectively. For Śrāvakas or householders they prescribe twelve vows to undertake which contains five Anuvratās (miner scale vows) + three Guṇavratas (multiplicative vows) and four Śikṣāvratas (disciplinary vows). Out of these twelve, seven vows including three Gunavratas and four Sikṣāvratas are jointly called Śilā. Each constituent of Śīla is further divided into required divisions Observance of the Śīla is very important for the lay-followers in order to purify their conduct. The Śīla enhances the effect of vratas to be observed by the Śravaka-Śrāvikās (lay-followers) treading on the path of salvation.
Dr. S. P. Pandey
The word 'Sila' literally means to meditate, to worship, to practice, custom, moral conduct, tendency, good disposition or * Asst. Director, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
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character. In Buddhism the word 'śīla' has been used in the sense of good conduct or practices to be performed to get Nirvāṇa where it has enumerated within the three-fold divisions of the fundamental course prescribed for the monk's spiritual progress i.e. Paññā (rightknowledge), Sila (virtues) and Samādhi (meditation)'. There it is used in the sense of a fundamental precepts or rules of moral conduct. The Pañcaśīla or five moral precepts of Buddhism are very much in tune of Jaina concept of five Aņuvratas with a slight deference. The five precepts are- 1. Abstinence from killing (pāņātipātā-vermani), 2. Abstinence from taking what is not given to one (adinnādānāveramani), 3. Abstinence from sexual adultery (abrahmacariyaveramaņi), 4. Abstinence from lying (musāvāda-veramani), 5. Abstinence from any state of indolence arising from the use of intoxicants, viz. surā-meraya-majja-pamādatthāna-veramaņi)?. In Jainism śīla (virtues or disciplinary vows) has been defined as a safeguard of vows to be observed by lay-followers (Śrāvakas)vrataparirakşaņārtham silamiti digvratyādinīha Śīlagrahạena gļhyante 3. In the works dealing with the spiritual discipline for the layman, there occurs the exposition of twelve vows. Twelve Vratas or Vows
Vratas (from the Sanskrit vị, to fence in) provide the means where by karmic influx can be placed within certain limits, thereby ensuring that the worldly activities which are inevitable for the householder do not lead to passion, which deepen his involvement in Samsāra. Vrata is made before a saint on his advice or voluntarily to protect oneself against possible lapses of conduct. The object is to control the mind and mold one's conduct along the spiritual path. The rules are such as are intended to protect the society from harm by projecting oneself on the righteous path. A vow affords stability to the will and guards its votary from the evils of temptation or of unguarded life; it gives purpose to life and healthy direction to our thoughts and actions. It helps the growth of self-control and protects against the pitfalls of free life.
Jaina scriptures recommend twelve vows for the householders to observe in their daily lives consisting of: (A) five Aņu-vratas
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(miner scale vows), (B) three Guņa-vratas (multiplicative vows), and (C) four Siksā-vratas, (disciplinary vows). Upāsakadasā together with these five supplementary, enumerates Sallekhanā as nonobligatory by its nature. The Aņuvratas are of course closely parallel to the Mahāvratas of an ascetic; and it is therefore, not surprising that some writers have imitated the Daśavaikālika-sūtra which counts a sixch vrata-that of a rātri-bhojana tyāga under Aņuvratas. This sixth Aņuvrata is noted by Cāmundarāya."
These vows form the central part of the ethical code and by their observance laymen can maintain constant progress in their spiritual career aimed at the attainment of final liberation. Aņu-vratas (Minor scale vows) The main five vows for the Jaina Lay-devotees are as follows: (i) Ahimsā or Sthūla-prāņātipāta-viramaņa- abstention
from violence or injury to living beings (ii) Satya or Sthūla-mşşāvāda-viramaņa- abstention from
false speech (iii) Asteya or Sthūla-adattādāna-viramaņa- abstention
from theft (iv) Brahmacarya or Sthūla-maithuna-viramaņa
abstention from sexuality or unchastity, and (v) Aparigraha or Parigraha-parimāņa- abstention from
greed for worldly possessions or limiting one's
possessions As regards the extent and intensity in the observance of these vratas it is stated that if these vows are strictly observed they are known as Mahāvratas, i.e., great vows and naturally these are meant for the ascetics. Laymen, however, cannot observe vows so strictly and therefore, they are allowed to practice them so far as their conditions permit. Therefore, the same vratas or vows when partially observed are termed as Aņuvratas (small or miner scale vows) and when completely observed are called Mahāvratas (great vows). Since the destination of both the monk as well as the householder is the
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same, the basic practices, they are prescribed to follow are the same. The difference is only in the degree, considering that one has renounced the worldly affairs while the other has to encounter all sorts of worldly conflicts. Thus the milder form of practice prescribed for a householder is called as Aṇuvrata.
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Moreover, every person must meditate upon the following four virtues, which are based upon the observance of these five vows: Maitri (friendship with all living beings)
(i)
(ii)
Pramoda (delight at the sight of beings more advanced than ourselves on the path of liberation)
(iii) Karuņā (compassion for the afflicted) and
(iv) Madhyasthya (tolerance or indifference to those who are ill-behaved)
Furthermore, the observance of the five aṇuvratas, i.e., small vows, and refraining from the use of three 'makāras' (three M's) namely madya (i.e., wine), mānsa, (i.e., flesh or meat) and madhu, (i.e., honey) are regarded as eight mūla-guņas, (the basic or primary virtues) of a householder. Digambaras enumerate abstinence from partaking three M's and five figs as eight mula-guņas. A householder should never partake these things. Because partaking of any of these evolves killing or himsa. For minimizing injury to living beings, complete abstinence of wine, flesh and honey is advocated, and every householder must necessarily possess these eight primary or fundamental virtues.
Anuvratas
1. Ahimsa or abstinence from Violence (Sthūla-prāṇātipātaviramana)
The first Aṇuvrata is called ahimsā or refraining from violence. The word Prāṇātipāta literally means to destroy (atipāta) life-forces (prāṇa) of living beings. In short it is refraining from violence. Life forces are ten- three channels of activities- mind, body and speech, five sense organs, the duration of life and respiration (śvāśocchvāsa).
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To destroy or injure, through negligence or ill will, one or more life forces of one's own or others is violence- pramattayogātprāņavyaparopaņaṁ hiṁsāo i.e. destruction of life due to an act involving negligence is violence. Here the word pramāda yields the meaning(i) mental state of attachment and aversion and (ii) negligence. Therefore, destruction of living beings through passions (kāmadesire), krodha-anger, lobha-greed and moha-delusion) or negligence is also violence. Violence is committed in three ways- by doing the act oneself, by forcing others to do it or by approving it done by others. Hiṁsā refers to any action of giving pain to any living being. The nature of layman's ahiṁsā-vrata depends on the distinction between sūkşma-himsā, the taking of life in any form, abstention from which is obligatory for the ascetics, and sthūla-himsā, the destruction of the higher forms of life from dvīndriya (two-sensed) upwards, which is forbidden to all Jains. The layman is also enjoined to avoid as far as possible killing of all the ekendriyas (one-sensed) and the useless destruction of immobile ones. Recognizing that total abstinence form hiṁsā would be impossible for a householder, Jaina teachers have drawn a distinction between injurious activities, which are totally forbidden, and those, which may be tolerated within strict guidelines. The lay-followers are instructed by Agamas for not to kill the gross jivas i.e. mobile one. The type of limitations allowed are evident in the following statement of the vow “'I shall not kill intentionally the gross (i.e. mobile) living beings when they are innocent. The violence of immobile (one-sensed) jivas viz. earth, air, water, fire and plant bodied is inevitable because the householder uses them once or repeatedly in his daily life. This is how his vow of non-violence is made narrow and limited by leaving out the one sensed living being from its purview. Thus the householder has not to be indulged in the gross violence. Gross violence is of four types(i) Intentional violence (sarikalpa-jā-hiṁsā)- killing of the
innocent living-beings actuated by an intention to injure. (ii) Violence involved in daily acts of a house-holder
(Arambha-jā-himsā)-killing of the mobile living-beings that takes place in spite of utmost care and vigilance.
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(iii) Violence involved in occupations and industries (udyogi-himsā)
(iv) Return of violence in self-defense (virodhi-himsā)
:
For example a Kṣatriya who is fighting at the border to save his country would certainly commit violence. But as he has committed violence in his self-defense or during a purely defensive, he will not be guilty of sankalpajā-hiṁsä but of virodhi-himsā. Jains designate six modes of livelihood-warrior (asi), writing (masi), farming (krşı), the arts (vidya), commerce (vāṇijya), and various crafts (śilpa) as respectable. In practice, Jains have been strongly encouraged to enter those professions, which have the least potential for violence; hence state craft and agriculture are somewhat less desirable occupation for Jains. So for as the potentiality is concerned, the Jainas would not make any difference between the Jiva of Mahāvīra and the Jiva of a blade of grass. Once a layman has taken this vow he must scrupulously avoid all practices in violation thereof.
Five partial transgressions are listed as following with regard to ahimsa-vrata:
(i) Bandha (Keeping in captivity)-tying-up or keeping in captivity of men or animal. Hemacandra defines bandha as the restraining of cattle by ropes or restraining of one's children for the sake of correcting them. The tying should be done with consideration of the rope being knotted loosely so that it can be easily slipped in case of fire.
(ii) Vadha (Beating)- beating of living creatures with rods, whips or withies."
(iii) Chavi-cheda (Mutilating)- mutilating of the ears, nose, or other organs of body. For Haribhadra this implies cutting the body with swords and other sharp instruments.
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(iv) Atibhārāropaņa (Overloading)- loading on to the back,
or shoulders, or head of an animal or human being of an
excessive weight of goods such as betel nuts." (v) Bhakta-pāņa-vyavaccheda (Depriving of food and
drink)- provoking the sufferings of hunger and thirst in
animals for any reason.
Thus the first Aņuvrata of non-violence is very important. We cannot do harm to any living being for the sustenance of our body. We cannot live without killing the living beings. Even our breathing involves violence. But we should do only that much harm or violence which is absolutely necessary for the sustenance of our life. We should always make sincere efforts to find out how we can live with minimum violence. How can we decrease violence as far as possible? Non-violence in its truest sense does not only mean not to injure living beings but it also embraces universal law of love and compassion which is the positive aspect of Ahimsā. 2. Satya or abstinence from speaking Untruth (Sthūla Męşāvādaviramana)
The second aņuvrata involves the vow of refraining from lying (asatya) of any short. Jainas see a close connection between asatya and hiṁsā, since all lying is volitional and tainted by some operation of the passions, thus soul is injured by such activity. In its broader sense, the satya-vrata requires great care with regard to all acts of speech. Thus, even a truthful statement cannot be uttered if it leads to the destruction of a living being. It is some time a double-bind situation. For example a hunter chasing a deer asks some body as to which direction the deer has gone? If the person speaks truth it will lead to violence and if he mislead the hunter, it involves a deliberate untruth. In such a situation one should keep mum or should say in such a way that interests of others should not be heart. Thus if truth speaking leads to evil consequences, it is better to remain silent or to say that he knows nothing.
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Upāsakadasā mentions five aticāras of this vrata:
(i)
(ii)
Sahasabhyakhyāna (sudden calumniating)-imputing to someone without due reflection a non-existent fault, such as saying, 'You are a thief'. There is a danger that the victim might be killed or otherwise punished for this if heard by an ill-intentioned person.
Raho❜bhyākhyāna (Secret calumniating)- this offence is committed if, for example, an older women is told that her husband is in love with a young girl or if a younger women is given to understand that her husband is infatuated with a more mature rival or a man is informed that her wife degrade him saying that he is lecherous brute (kāma-gardabha).
(iii) Svadāra-mantrabheda (Divulging the confidence of one's wife)- Haribhadra defines this as the divulging to others of what has been said by one's wife in confidence under special circumstances." The gravity of this transgression lies in the fact that it may cause death to the wife (or friend) through the same.
(v)
(iv) Mṛṣopadeśa (Spreading of false information)- This aticăra is extended to cover the encouragement of the study of the text mainly concerned with falsehood. Devendra, however, narrows it down to teaching the use of unknown mantras and herbs. 13
Kūṭa-lekha-karaṇa (False statements expressed in writing)- It is counterfeiting of another person's seal or stamp, or the use of such a seal with a false text11.
3. Asteya or abstinence from theft (Sthula Adattādāna-viramaņa)
The third of the Anuvrata is asteya or abstaining from theft. 15 It is broadly defined as adattādāna-virati or refraining from taking any thing, which is not given. Here the word 'given' means acquired in a legitimate transaction. Śvetāmbara writers gives four-fold division
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of adatta (i) Svāmi-adatta what is not granted by its owner e.g. gold, (ii) Jivādatta- what is not granted by a living creature e.g. animal products not given by the slaughtered animal, (iii) Tīrthankarādatta- what is not granted by the Tīrthankara e.g. food especially cooked by the householder for the monks and (iv) Guruadatta- what is not given to the monks e.g. food even though devoid of impurity which is enjoyed without inviting the gurus.' Thus the householder who undertakes this vow is not allowed even to pick-up goods, which have been lost or forgotten. He must not indulge in such illegal practices as employing thieves to get any thing for him, receiving or purchasing stolen goods, using false weight and measures, secretly adulterating commodities or storing goods without paying taxes. All such acts of stealing are said to involve violence. In its partial form this vows does allow the collection of water, firewood, and similar materials but for mendicants it is not allowed. They can take these things if collected and presented by some one. An attempt squeeze and exploit others also comes in the purview of theft. The aticāras of this vow are: (i) Stenāhstādāna (Receiving stolen goods)- obtaining
goods, which are the proceeds of a robbery for nothing
or at a low price. (ii) Taskara or stena-prayoga (Suborning of thieves)
approving or encouraging thieves. (iii) Viruddha-räjyātrikama (Transgressing the limits of
a hostile state)- the acquisition of property in a country,
which is engaged in hostilities with one's own country. '7 (iv) Kūța-tūla-kūța-māna (Using false weights and
measures)-giving short measure when selling and taking an excess when buying. 18 Tat-pratirūpaka-vyavahāra (Substitution of inferior commodities)-this is counterfeiting of gold, silver, brass, oil, ghee etc. with materials that resemble them in colour, weight and other properties,
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4. Brahmacarya or abstinence from Sex Passions or all illicit
sexual activities (Sthūla Maithuna-viramana)
It is the Brahmacarya-vrata. It differs from all other vows in its double formation: positive in the sense of contentment with one's own wife (sva-dāra-santosa) and negative as avoidance of the wives of others (apara-dāra-gamana). According to this vrata the vower refrains from all types of sex passions. The sex passions imply materialistic pleasures of all the five senses or complete celibacy. The householder who undertakes this vow should not even think to use the wives of others. It covers even the avoidance of sexual contacts with harlots, widows and unmarried women. All sexual contacts, except the fair ones, with one's own wife should also be avoided". Jainas has traditionally accepted this practice but consider monogamous marriage as the ideal. He must consider all women accept his wife a mother or sister, thus overcoming sexual desire for them. The sexual code of Jaina householder then focuses upon "marriage and moderation. The importance of loyalty to one's spouse is strongly emphasized. The fact that sexual activity involves passion, hence from Jaina perspective injures the soul, is of course obvious. It is further held that the very act of intercourse slaughters great number of souls who dwell in the generative organs of the female and the ejaculate of the male. Further, it is not limited to mere abstention from sex. The word carya means day-to-day conduct. The word Brahma means 'self'. Hence the word Brahmacarya suggests the pure-knowership. The English word 'celibacy' is therefore, not competent in comprehending the real meaning of Brahmacarya. To observe celibacy in word and spirit one should have control over his mind and his food, clothing and whole life style. The aticāras of this vow are: (i) İtvara-prigļhita-gamana (intercourse with a women
temporarily taken to wife) (ii) A-prigrhita-gamana (intercourse with an unmarried
women)
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(iii) Ananga-kriḍā (love-play) -use of artificial phalli made of wood, leather etc.
(iv) Para-vivāha-karaṇa (match-making)-marrying of one's own children
(v)
Kama-bhogativrābhilāṣā (excessive predilection for the pleasure of the senses)
5. Aparigraha or abstinence from hoarding unnecessary possessions (Sthūla parigraha-viramaṇa)
The final Anuvrata is that of aparigraha or non-possession. The Jaina scriptures often define parigraha as the delusion (mürcchā) of possession. On account of endless desire of possession, we become slaves of our possessions. The principle of aparigraha teaches us to restrict our possessions to the minimum. The Jaina scriptures condemn holding the external and internal both types of possessions. External possessions are ten- land, house, silver, gold, livestock, grain, maidservants, menservants, clothing, and miscellaneous goods as furniture and so on. The attachment and delusion of these things is internal possession. Jaina literature gives a list of fourteen internal and ten external possessions. To weaken the internal possession, which is of the nature of defilement, it is necessary to limit properly the external possessions. If a man has burning desire to collect much wealth so that he can indulge in the enjoyment of worldly pleasure, he has great possession even if his penniless. Excessive accumulation of riches is a sin and to have such a desire is a sin of equal measure. So if a person does not set limits to his possession, then greed and desire press him to involve himself into all those vicious activities necessary for accumulating possessions, which defile the soul. Therefore, one has to limit his possessions. The commentators mention following five aticāras of this vow:
(i)
Yojanena-kṣetra-vastu-pramāṇātikrama (Exceeding the limits set for land and houses by incorporation)
(ii) Pradanena-hiraṇya-suvarṇa-pramāṇātikrama (Exceeding the limits set for gold and silver by donation)
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(iii) Bandhanena-dhana-dhānya-pramāṇatikrama (Exceeding the limits set for grain and other foodstuff by packaging together)
:
(iv) Kāraṇena-dvipada-catuṣpada-pramāṇātikrama (Exceeding the limits set for bipeds and quadrupeds by natural reproduction).
Guna-vratas (Multiplicative Vows)
In addition to five main vratas, a householder is enjoined upon to practice three Guṇavratas, i.e., the multiplicative vows, which increase the value of the main vows. It aims to limit the area of a person's activities and the number of beings and object with which he comes into contact. The Jainācāryas have compared householder with a heated iron ball, burning everything it touches. Hence it is important to restrict the sphere of his activities. These three Guṇavratas are:
1. Digvrata (Vow of limiting the Area of one's Unvirtuous Activities)
In this vow the vower takes a life-long vow to limit one's worldly activity within a restricted direction and area. There are ten directions- the four well known- east, west, north and south; the four intermediary directions, viz. īśāna, āgneya, naiṛtya and vāyavya, the upward direction over one's head and downward direction under one's feet. This is the vow to limit the distance in all the ten direction beyond which the vower will undertake unvirtuous activities. The purpose of this vow is to limit the area of different activities. The vower limits the area beyond which he will not go for trade and business, marry his daughter, marry his son and he will use the things produced in that much area only. This vow is to check the spread of desire, to save oneself from unvirtuous activities. By observing this vow one can lessened his desire, get peace and tranquility and make all-round self-development. The nomenclature of the aticāras of digvrata is:
(i)
Ūṛdhva-dik-pramāṇātikrama (Going beyond the limits in upward direction)-Under this aticăra one is
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forbidden to climb a summit of mountain or a tree or a ban on all upward movement outside.
(ii)
Adho-dik-pramāṇatikrama (Going beyond the limits in downward direction)-It forbids ascending into the well or the underground store of a village if outside limit is fixed, even if some thing has been dropped
there. (iii) Tiryak-dik-pramāṇatikrama (Going beyond the
limits in horizontal direction)-this applies to normal traveling in all directions, north, south, east and the
west; and the boundaries are set fairly wide. (iv) Kșetra-vệddhi (Expanding the limits of the area of
movements) (v) Smrti-antardhāna (Forgetfulness)- forget the limit
fixed earlier. 2. Bhogopabhogaprimāņa-vrata (Vow of limiting the
Quantity of things one will use)
This is the vow of limiting one's enjoyment of consumable and non-consumable things everyday. There are two types of things, viz. bhoga (consumables) and upabhoga (consumables more than one time). 20 Bhoga things are those, which can be used only once or used internally such as food, flower garlands, betel or other etables, water etc. Upabhoga things or those that can be used repeatedly or used externally viz. clothes, bed, furniture, women, vehicles, etc. This vow is to limit the quantity of bhoga and upabhoga things. It is a self-imposed restriction to the number of things to be used, etc. One who practices it knows how much restraint is to put on the free play of desires by its observance.
Two basic division of this vrata are recognized by Svetāmbaras: 21 it may refer to food eaten or to occupation pursued. Other topics included under the bhogopabhoga-parimāņa-vrata are: anantakāyas, the abhakşyas and rätri-bhojana.
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Anantakāyas (infinite number of living organism)-Amongst the substances which a Jaina is forbidden to consume either as a food or a medicine are included the anantakäyas or sädhāraņas, plants which are inhabited, not like the majority of the vegetable kingdom by individual jīvas, but an infinite number of living organisms. The plants, which are classified, as anantakāyas seem to be chosen because of certain morphological peculiarities such as possession of bulbs or rhizomes or habit of periodically shedding their leaves. A list of 32 anantakāyas is given by Jaina Ācāryas. Prominent among them are:
Gajjjara (Carrot), Alū (Potato), Nimbankura (nimba shoots or margosa), Vadankura (Banyan), Lahasaņa (Garlic), Vamsa-karilla (bamboo) etc.
Abhakşyas (non-etables)- The definition of what is not fit to be eaten is given considerable prominence particularly in latter Jainism. It is true that cruelty begins with the plate on our table. Therefore, it is very important to decide what we should take and what not. We have three lists of abhakşyas as given by Nemicandra, Hemacandra and Āsādhara which vary in numbers i.e. 22, 16 and 22 respectively.
(1-5) Five Udumbaras-(figs) (i) Umbara, udumbara- Ficus glomerata Roxb.; (ii) Vața, nyagrodha- Ficus bengalensis; (iii) Pippala, aśvattha-Ficus religiosa Linn.; (iv) Plaksa-Ficus infectoria Roxb.; and Kakombari, guphala- Ficus oppositifolia willed,
(6-9) Four banned Vikstis- (i) Māṁsa (Meat), Madya (Alkohal), Madhu (Honey), Makkhana (Butter), (10) Snow (Hima), (11) Poison (Vişa), (12) Ice (Karaka), (13) Earth (Mrda), (14) Food Eaten at night (Rātri-bhojana), (15) Fruit with many seeds (Bahubija), (16) Anantakāyas, (17) Pickles (Sandhāna), (18) Butter milk in tiny lumps (Ghola-vataka), (19) Aubergines (Vịntaka), (20) Unknown fruits and flowers, (21) Empty fruits (Tuccha-phala), (22) Tainted food (Calita-rasa).22
Rātri-bhojana-tyāga: Great importance has always been attached by Jaina writers to the abstinence from taking food by night
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(rātri-bhojana). Daśavaikālika gives rātri-bhojana-tyāga the status of a vow. Camunḍarāya and Caritrasāra count it as sixth Aṇuvrata. It figures among the Mūlagunas.23 who condemns this practice especially cites as arguments against it that there exist many tiny insects barely discernable by day which are completely invisible by night even a lamp is lit, and the raga is always more intense in eating by night than in eating by day. At night there is possibility of falling down of moths, insects, mice, bits of bones, skin or hairs into the bowls of food. And the person who is eating will not be able to see them. Śrävaka-dharma-dohaka expressly permits the taking of betel, medicines and water during the night.24 Hemacandra gives four reasons for abstention from ratri-bhojana- the food may have contaminated by touch of Pisacas or Pretas or other evil spirits; it may be infected by minute invisible organisms; insects may have crawled into it; and its contents will in any event be unrecognizable in the dark. This practice is also supported by Hindu scriptures, Ayurvedic Texts, etc.
The second aspect of Bhogopabhoga-parimāṇa-vrata includes fifteen banned occupations like:
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Angāra-karma (livelihood from charcoal)- smelting iron, firing of pottery, making bricks and tiles etc.
Vana-karmana (livelihood from destroying plants)timber industry, flourmills etc.
Şakata-karman (livelihood from carts)
Bhātaka-karmana (livelihood from transport fees)livelihood by carting goods invehicles or horses, bull etc. Sphota-karman (livelihood from digging)- to make pools, tanks, wells, etc.
Lākṣā-vāṇijja (trade in lac and similar substances)- to use arsenic, indigo plants.
Danta-vāņijjā (trade in animal by products)- ivory works, purchasing conch-shell
Rasa-vāņijjā (trade in alcohol and forbidden food-stuff)produce honey, butter, etc.
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9. Keśa-vānijjā (trade in men and animals)-trade in
creatures that have hairs: 10. Vișa- vānijjā (trade in destructive articles)- trade in
poison, mechanical devices etc. 11. Yantra-pidana (work involving milling)- making
different oils by operation of mills 12. Nirlāñchana (work involving mutilation)- branding bulls
by putting seals etc. 13. Dāvāgni-dāna (work involving use of fire) firing forests,
igniting candles on dipotsava etc. 14. Saraha-sosaņa (work involving the use of water)- drawing
water from lakes, tanks 15. Asati-posaņa (work involving breeding and rearing)
keeping and breeding destructive animals as parrots,
cocks, dogs, monkeys etc. The vower should abandon things of both the types whose use possibly involves much violence and evil. The objective of this vow is to make all happy and to divert them to the path of humanity.
There are five aticāras of Bhogopabhoga-parimāņa-vrata: (i) Sacittāhāra (consuming sentient things)- things
containing earth-bodied, water-bodied and vegetablebodied jivās-kanda, mūla, etc. Sacitta-pratibandhāhāra (consuming what is connected with sentient things)- eating ripe fruits, which are
attached to a tree. (iii) Apakvauşadhi-bhakşaņa (Consuming uncooked
vegetable products)- Taking uncooked pulses and grain. (iv) Duş-pakvauşadhi-bhakşaņa (Consuming partly
cooked vegetable products)- taking partly cooked things e.g. cooked rice spoiled either by excessive moisture or because the grains in the centre are still raw.
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(v)
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Tucchauṣadhi-bhakṣaṇa (Consuming empty vegetables products)- eating of such grains and pulses as undeveloped mudga from which there is little satisfaction of hunger and at the same time much harm is done.
3. Vow to abstain from Purposeless harmful activities (Anarthadaṇḍa-viramaņa)
Taking a vow not to commit purposeless sinful actions. The term anartha means purposeless, aimless, unnecessary, etc. and the term danda mean harmful, bad etc. Thus the term anarthadaṇḍa means purposeless harmful activities. Refraining from harmful activities that serve no useful purpose is anarthadaṇḍaviramaṇa. This vow is meant to prevent one from indulgence in such acts, which are not necessary. A householder cannot avoid those acts of violence, which are related with his ordinary daily activities, nor can he avoid violence, which is involved in agriculture, business or industry and on the occasion of self-defense etc. Thus taking into account the unvirtuous activities which are inevitably associated with the householder's life or which have to be performed to fulfill his duties as a householder the Jaina thinkers have advised through the present vow that one should not be involved in unnecessary and purposeless harmful activities. This is the essence of the vow. But it is difficult do decide which type of acts are unvirtuous and purposeless.
Jaina Acāryas have listed five types of anarthadaṇḍa:
(i)
Apadhyāna (Evil brooding)- To think continuously of doing harm to others, to yield to evil brooding over unjust means of accumulating wealth, to embrace the ideas of sensual pleasure and to think vainly of one's misery and misfortune are the purposeless harmful activities i.c. would I be exempted from old age and death.25 Proper thinking about one's business, about family management, about the victory of just and righteous person is not a harmful purposeless activity.
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(ii) Pramādācarita (Purposeless mischief)-Thoughtless
activities like aimlessly digging the ground, obstructing the wind, and igniting fire are purposeless harmful activities.26 While walking to strike a standing animal with a stick is a foolish purposeless harmful activity. One should consciously avoid this type of activities. It prohibits eating meat for relish and bodily growth, which is a purposeless harmful activity. It is also a form of intentional violence (sankalpi hiṁsā), which a householder should avoid completely, and at all cost. Hiṁsā-pradāna (Felicitation of destruction)-To furnish means of destructions-weapons, fire, poison to another person without knowing whether the person is under the influence of anger or not. This means that if a man gives a knife to sharpen a pencil and fire to cook food that is not a purposeless harmful activity. But to give a knife to kill or harm somebody and fire to burn some one's house or property is certainly a purposeless and harmful activity. When some body has attacked on any innocent man, to give the latter a weapon to defend himself is not a purposeless harmful activity but to give
a weapon to violent attacker is harmful activity. (iv) Pāpopadeśa (Harmful counseling)- Means instruction
in an evil trade as 'set fire to the forest in the hot season'. Pūjyapāda defines it as advice, which stimulates others to pursue harmful activities unnecessarily. 27 “If a man who has gone deep into vices (vyasanas) like gambling, consuming alcohol, meat-eating, whoring, hunting, thieving, adultery, etc. advices others to take them, then that advice is considered as unvirtuous and purposeless. Instead of superimposing good qualities on them, he should point out their real defects. A good person considers the entire world as his family. He teaches or
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advices persons to be involved in fare activities, which could benefit the society. Thus to give advice to others about wrong activities, to give vein and needless advice, to give such type of advice which could stimulate others to be involved in perverse sensual pleasure or to give advice for wrong method livelihood are purposeless and
harmful activities. (v) Duḥ-śruti (Faulty reading)- It is listening to, reciting,
or expounding evil stories through which passion and
injuries or provoked. The aticāras of this vrata are as follows: (i) Kandarpa (libidinous speech)- Siddhasena defines it
as language which is provoked by the lust accompanied by movement of the mouth, eye, eye-brows, lips to
arouse laughter.28 (ii) Kautkucya (Buffoonery)- It is spasmodic contractions
of the eye, eyebrows, nose, lips, hand while making
various sorts of funny movements.29 (iii) Maukharya (Speaking purposelessly)-Siddhasena Gani
holds this to be speech that is vulgar, nonsensical and
impertinent.30 (iv) Samyuktādhikaraṇa (Bringing together harmful
implements)- It is keeping together of two objects which could lead one to an evil fate. Typical examples of such linked adhikaraņas are pestle and mortar, cart and yoke,
bow and arrows. (v) Upabhoga-paribhogātireka (Superfluity of luxuries)
Siddhasena Gaņi opines that bathing and use of ornaments as well as the consumption of food and drink must be on moderate scale according to one's need or accumulation of the objects of upabhoga and paribhoga beyond the need of one's need. 31
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Śikṣā-vratas (Disciplinary vows)
Along with the five Aņuvratas and three Guņavratas, a householder is required to practice four Śikṣā-vratas, i.e., disciplinary vows that are devised to prepare an individual to follow the discipline prescribed for the ascetics. The four Śikṣāvratas are: 1. Vow of remaining completely in Equanimity for a fixed period of Time (Sāmāyika)
It is an exercise in samāya='sama'+'āya’or attainment of equanimity. In this vow one practices equanimity of mind and tries to shed all types of Kaşāyas (passions) such as anger, pride, deceit etc. It is a state of fusion of the activities of body, mind and speech with Ātman. This vow consists in sitting at one place and one seat for one muhūrta (48 consecutive minutes) in a peaceful mental state, not allowing the passions of attachment and aversion to rise in the mind. The sāmāyika may be performed in one's own house, temple or in an especially designed fasting-hall (poșadha-śālā) in presence of a monk or alone. He should avoid spitting or blowing his nose, but if he cannot help doing so, should first find a bare patch of ground and carry on pratilekhana and pramărjana. Then making obeisance to the Sādhuhe should chant sămāyikasūtra- Karemi bhnate sāmāyiyaṁ.. .. .. Śvetāmbara text generally lay down that sāmāyika should be carried out as often as possible. Usually the three sandhyās- dawns, noon and sunset are indicated as proper for the practice of the rite.
Followings are the aticāras of this vow: (i) Manoduspraạidhāna (Misdirection of mind)-This
aticāra implies the failure to surrender the mind to
meditation caused by greed, deceit, pride and anger. (ii) Vāg-duşpraņidhāna (Misdirection of speech).
Haribhadra2 defines this as the use of indecent, harsh or hurtful language. For Siddhasena Gaņi” this aticāra amounts to confused and hesitant enunciation of the syllables and inability to comprehend the meaning of the text.
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(iii) Kaya-duṣpraṇidhāna (Misdirection of body)- This aticāra implies failure to make pratilekhana and parimärjana of the ground and of all material objects and to keep the hands, feet and other limbs of the body amounting pramāda in performance of the sāmāyika.
(iv) Smṛti-akaraṇa (Forgetfulness of Sāmāyika)- It is simply lack of concentration. This is an inability through extreme carelessness to remember whether the sāmāyika has been completed or not.
(v) Anavsthita-karaṇa (Instability of Sāmāyika)-This is explained as a failure to observe the proper formalities in carrying out the sāmāyika. It includes a readiness to give it up after a short time or taking of food immediately after it is finished.
2. Vow of reducing further the sphere of Digvrata for a limited period of time (Deśāvakāśika-vrata)
It is the vow of reducing for a limited period of time the limits or set forth in the sixth vow of Digvratas. In other words it is a reduced version of Digvrata in time and place. Because of identical with the Digvrata it was omitted from the list of Sikṣāvrata by those ācāryas who make sallekhanā the subject of the last sikṣāvrata. This vow is to be taken to further lessening the sphere of Digvrata. Abhayadeva3 describes this vrataas an assumption for a limited time (avakāśa) for a day or for a fix period of time of the restrictions of place (deśa) set forth in Digvrata since freedom of movement is restricted to a tiny part of the area previously measured out. In this vow the vower has to contract his harmful activities and reduce the danger caused by them by imposing narrower limits on his own. The Śrāvakācāra 35 describes following aticäras of this vrata:
(i)
Anayana-prayoga (Having something brought from outside)- to have something brought from outside the limits.36
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(ii) Preśya-prayoga (Sending a servant to bring something
from outside)- causing work to be done by a servant
outside one's self-imposed limits. (iii) Sabdānupāta (Communicating by making sounds)
attracting the attention of men working outside by sound
to get the required things. (iv) Rūpānupāta (Communicating by making signs) - In
this vow the signs and gestures are used to attract one's
attention. (v) Bāhya-pudgala-prakṣepa (Communicating by
throwing objects)- In this vow sticks, stones, or bricks
are thrown to attract one's attention. 3. Vow of observing fast and living like a monk for certain days (Proșadhopavāsa-vrata)
It is the vow of keeping fast on four days of the month, namely, the two eighth (aştami) and two fourteenth days (caudaśa) of the month or living like a monk for certain days. The term posadha is derived from the Sanskrit verbal root ‘puş' meaning 'to nourish' to foster, to support, to cause grow. So the term poşadha means that which nourishes the soul or its natural qualities. In this, the vower observes a fast. The fast should continue from noon on the day preceding the posadha (the dhāraṇaka) till noon on the following day (the pāraṇaka) that is for a total of forty-eight hours. The Śvetāmbara writers mention a period of 24 hours (aho-rātri). In this vow the vower observes total abstinence from sexual activities before he undertakes religious rites and performs them according to proper procedure. The fast observed may be of three types: i.e. Uttama (complete fast), madhyama (a fast in which the taking of water is permitted) and Jaghanya (taking of one meal a day). Followings are the aticāras of the this vrata:
(i) Apratilekhita-sayyā (failure to sweep the sleeping
place)
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(ii) Apratilekhita-sthandila (failure to examine the place
of excretion) (iii) Apramārjita-sayyā (failure to sweep the sleeping-place) (iv) Apramārjita-sthandila (failure to examine the place
of excretion) (v) Samyag-ananupālana (improper general performance
of the fast) 4. Vow of sharing with deserving Guests (Atithi-samvibhāgavrata)
The word atithi (guest) has in fact been specialized by the Jains to signify a sādhu on his alms-round and is explained to mean 'one who has no tithi'(fixed date). To offer necessities of life (food, medicines, etc.) to the monks who live on begging alms, as also to the benevolent noble persons engaged in the service of the people is the meaning of this present vow. The vow also means to give proper help to the miserables and poor. Sometimes the term atithisamvibhāga also indicates the physical services rendered by laymen or monks to other monks in need. Some ācāryas employ the simple expression dāna for this term. The aticāras of atithi-samvibhāgavrata are as follows: (i) Sacitta-nikṣepa (depositing alms on sentient things)
depositing foods on the ground, on water or plant leaves
with the intention of avoiding alms giving. (ii) Sacitta-pidhāna (covering alms with sentient things)
covering alms with fruit, leaves, flowers with the same
intention as stated above. (iii) Kālātikrama (transgressing the appointed time)- giving
alms when the time has passed for the monks to eat or
the time has not yet come. (iv) Paravyapadeša (pretending that alms belongs to others)
offering some other person's alms as if it were one's own.
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(v) Mātsarya (jealousy in alms giving)- lack of respect in
alms giving or a state of anger aroused by the monk's
solicitation even though alms are given.
These three Guņavratas and four Śikṣāvratas grouped together are known as śīlavratas, i.e., supplementary vows because these vows perform the work of supplementing or protecting the five main Aņuvratas just as towns are protected or guarded by the encircling walls built around them. The Sīla enhances the effect of vratas to be observed by the Śrävaka-Śrāvikās (lay-followers) treading on the path of salvation.
Thus the five Aņuvratas, the three Guņavratas and the four Śikṣāvratas constitute the twelve vratas or vows of a householder. There are five aticāras, i. e partial transgressions, for each of these twelve vows and they are to be avoided by the observers of these vows. The five Aticāras are: (i) sarkā (doubt or skeptic); (ii) kankṣā, desire of sense pleasures; (iii) vicikitsa (disgust of anything, for example, with a sick or deformed person); (iv) anyadęsti-praśaṁsā (thinking admiringly of wrong believers); and (v) anyadrșți-samstava (praising wrong believers).
Sallekhanā (The holy death)- In addition to the above twelve vows a householder is expected to practice in the last moment of his life the process of Sallekhanā, i.e., peaceful or voluntary death. A layman is expected not only to live a disciplined life but also to die bravely a detached death. This voluntary death is to be distinguished from suicide, which is considered by Jainism as a cowardly sin. It is laid down that when faced by calamity, famine, old age and disease against which there is no remedy, a pious householder should peacefully relinquish his body, being inspired by a higher religious ideal. It is with a quiet and detached mood that he would face death bravely and voluntarily. This Sallekhanā is added as an extra vow to the existing twelve vows of a householder. Like other vows, the vow of Sallekhanā has also got five aticāras, namely-Iha-lokāsaṁsā (desire for fortunate rebirth as a man); Paralokāśarnsä (desire for fortunate rebirth as divine); Jivitāšaṁsā (desire for continuing life);
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Maraņāśarsā (desire for death); and Kāmabhogāśaṁsā (desire for sensual pleasure), which are to be avoided by a householder.
The most significant feature of these twelve vows is that by practicing these vows a layman virtually participates, to a limited extent and for a limited period of time, in the routine of an ascetic without actually renouncing the world. It is obvious that such practices maintain a close tie between the laymen and the ascetics as both are actuated by the same motive and are moved by the same religious ideals.
Thus Šila plays an important role in the life of a householder. It works as a safeguard of the five Aņuvratas the performance of which helps householders to reach them to their final goal i.e. emancipation.
References: 1. Dĩghanikaya- s.8, Anguttara-nikāya-II.183, III.14, 16,
Suttanipāta- 1.13 2. Pāli English Dictionary-T. W. Rhys Davids, The Pali Text
Society, London, 1923 Rājavārtika-7/24/1553/2 Jaina Yoga by R. Williams, p. 55 Caritra-sāra p.7 Tattvärthasūtra-VII.8
Yogaśāstra, Ācārya Hemacandra-11.19 8. Yogaśāstra -jï .90
Tattvārtha-bhāsya by Siddhasena Gani)- VII.20 10. Āvasyaka-cūrņi (Commentary by Haribhadra)- p. 81 11. Ibid- p.81 12. Avasyaka-cūrņi (Commentary by Haribhadra) p. 82 13. Śrāddha-dina-krtya- pt. II. p. 87 14. Avaśyaka-cūrņi (Haribhadra) p. 82 15. Yogaśästra, Ācārya Hemacandra-11.66
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śramana, Vol 59, No. 1/January-March 2008
16. 17. 18. 19.
22. 23. 24.
26. 27. 28. 29. 30. 31. 32.
Nava-pada-prakaraṇa by Devagupta, 39 Tattvārthabhāşya, Siddhasena Gani, II. 22 Āvasyaka-cūrņi, (Commentary by Haribhadra), p. 82 Yogaśāstra, Ācārya Hemacandra-11.76 Pañcāśaka (Abhayadeva-commentary)- 21 Śrāvaka-prajñapti-285 Jaina Yoga- R. Williams, p. 53 Puruşārtha-siddhyupāya by Amrtacandra-132 . Śrāvaka-dharama-dohaka -37 Nava-pada-prakaraṇa, Devagupta- 84 Sāgāradharmāmsta, Āsādhara- 10-11 Tattvärtha-sūtra (Commentary by Pūjyapāda II.21 Tattvārtha-bhāsya II.27 Avaśyaka-cūrņi, Haribhadra, p.83 Tattvārtha-bhāsya II.27 Tattvārtha-bhāşya II.27 Āvaśyaka-cūrņi (Commentary by Haribhadra) p. 83 Tattvārtha-bhāsya, II.28 Pañcāsaka commentary by Abhayadeva- 27 Yogaśāstra , Ācārya Hemacandra, iii. 118 Tattvārtha-sūtra- Pūjyapāda, II. 31
34. 35. 36.
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Janury-March 2008
Concept of Jiva in Jaina Metaphysics
Dr. Vijaya Kumar*
Jainism is one of the Gramanic systems of the Indian tradition. It is also an atheistic school of Indian philosophy. In the Jaina metaphysics the ultimate reality has been named as 'Padártha', “Tattva', 'Sat', 'Vastu' etc. In English it is called 'substance.' Umāsvāti in his very famous book Tattvärthasūtra has discussed seven types of Tattval
Jiva, Ajiva, Aśrava, Sarvara, Nirjarā and Mokşa
The universe is full of Jiva and Ajiva which are eternal i.e. uncreated and everlasting. Jiva is conscious while Ajiva is unconscious.
"Jiva is generally the same as the Atman or the Purusa in other pluralistic schools with this important difference that it is identified with life of which consciousness is said to be the essence. Like the monads of Leibnitz, the Jivas of Jainism are qualitatively alike and only qualitatively different and the whole universe is literally filled with them. Characterastic of Jiva
Jīva has been characterized as 'Upayogo Lakşanaṁ.' It means Upayoga is the characteristic of Jiva. Upayoga denotes the power of knowing. The power of knowing may be seen in consciousness. Where there is no consciousness there can be found no power of knowing. Therefore, Jiva may be known as possessed of consciousness (cetanā). Upayoga consists of knowledge (Jñāna) and faith (Darsana). But every Jiva whether it is small undeveloped insect or developed human being, possesses four infinites (Ananta Catuştaya).
* Lecturer, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
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Infinite Darśana (Ananta Faith) Infinite Knowledge (Ananta Jñāna) Infinite Bliss (Ananta Ananda) Infinite Power (Ananta Vīrya)
There are two types of Upayoga - Jñānopayoga and Darśnopayoga. The Jñānopayoga is determinates (Savikalpa) while Darsnopayoga is indeterminate (Nirvikalpa) Jñānopayoga
Jñānopayoga is further devided as a. Svabhāvajñāna The knowledge which is related to soul and which needs no help from any sense or mind. It is also named as Kevalajñāna, which is a complete knowledge or omniscience. So the Kevaliis addressed as omniscient. b. Vibhāvajñāna The knowledge which is incomplete and which needs help from different senses, mind and soul also is known as Vibhāvajñāna. The Vibhāvajñānais divided into two classes-SamyakJñana (Right Knowledge) and Mithyā Jñāna (False Knowledge).
Samyak-Jñana has four types1. Matijñāna- The knowledge based on senses and mind is
known as Matijñāna, such as sight, touch, taste, smell,
sound etc. 2. Śrutajñāna- The knowledge acquired through scripture
and hearing the teachings of saints, seers and great
scholars. 3. Avadhijñāna- The knowledge about thing having from
(Rūpa), obtained though soul is known as Avadhijñāna. Manahparyāyajñāna-To know the different modes (paryāya) of other's mind (mana), through soul is considered as the Manahparyāyajñāna.
Mithyājñāna has also three types: 1. Matyajñāna- The false knowledge concerning matijñāna
is called mithyājñāna.
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Concept of Jīva in Jaina Metaphysics
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2. Śrutajñāna- The false knowledge concerning śrutajñāna
is named as śrutajñāna. 3. Vibhangajñāna- The false knowledge concerning
avadhijñāna is called vibhangajñāna. Darsnopayoga
The Darsnopayoga is of two types- Svabhāvadarśana (the upayoga) related to soul. It is self-organized and natural. It is also a complete knowledge. The vibhāva darśana has three types
1. Caksudarśana- The indeterminate knowledge attained
through eye is called cakṣudarśana, such as in the darkness
of night something is seen but not clearly. 2. Acakṣudarśana- The indeterminate kriówledge attained
through other senses except eye and mind is called Acakṣudarśana, such as sound coming from far distance
is heard but its particularly is not known. 3. Avadhidarśana- The indeterminate knowledge achieved
through soul, Aout the thing having from known as Avadhidarśana.
A Jiva is a real knower (Iñātā), a real agent (Kartā) and a real experient (Bhoktă). 3 It is self-illuminated and illuminator of others. Moreover it has extension. It extended itself according to the body it possesses. Generally it has been accepted that consciousness possesses no extension because extension lies where there is form or figure. Because conscious is without form, it has no extension. But the Jaina Philosophy asserts that extension found in the Jīvais like light. There is seen no conflict between lights presented by the different sources in the same room. In the same way the extension of Jivadoes not create any conflict which is always found with material things.
Nature of Jiva
In the Jaina Philosophy substance consists of attribute (Guņa) and modes (Paryāya). Consciousness is the attribute of the Jīva and
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its various forms are modes. The different modes are known as a Bhāva or Nature of Jīva. There are five Bhāvas:
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:
1.
2.
3.
4.
5.
Aupaśamika- The terms aupasamika has been originated form 'Upaśama' which means suppression. So the aupaśamika-bhāva or state comes into existence due to the suppression of the deluding karmas. As the water becomes clean when the dust mingled in it comes down in the pot.
Kṣayika- The kṣāyika state is seen due to the elimination of the eight types of karmas. As the water becomes pure when all dirty things found in it are taken away from it.
Kṣayopaśamika- The term Kṣāyopaśamika is a combined form of 'Kṣayika' and 'Aūpaśamika.' It means in the state some karmas are suppressed and some karmas are eliminated. As some dirty things are taken away from water and some dirty things come down in the pot. And as a result of that the water becomes clean.
Audayika- The term Audayika originates from 'Udaya' which means 'to rise.' In this state the suppresses karmas rise again. As the dirty things placed in the lower portion of the pot rise and come in the upper portion. In this way the water becomes dirty.
Pārināmika- The state constitute the innate nature of Jīva i.e. jīvatva of a Jīva.
Kinds of Jiva
The Jīvas are classified into two division3 - a. Mukta who is liberated and b. Baddha who is bound by worldly attachment. The liberated Jīvas are beyond any class. But the Baddha Jīvas are divided mainly into two classes- Trasa and sthāvara. Trasa means mobile while sthāvara means immobile. The immobile Jīvās are found in the atoms of earth, water, fire, air and vegetables. The one sense Jīvas has only one sence of touch.
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Concept of Jiva in Jaina Metaphysics
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Jivas are divided into four kinds: 1. Two sensed Jīvas having touch and taste, for example,
worm etc: Three sensed Jivas having touch and taste and smell.
For example, ants etc. 3. Four sensed Jīvas having touch, taste, smell and sight,
for example, bumble-bee etc. 4. Five sensed Jīvas having touch, taste, smell and sight
and hearing, for example human beings etc.
Thus we find that in each class there is one sense organ more than those of the one proceeding it.
The five sensed Jīvas are again classified into two classes?(i) Samanaska Jiva having mana or mind as man. (ii) Amanaska Jiva having no mind as animals. The Jīvas have their status (Gatiyar):
i. Manuşya- Human being. ii. Tiryamca- Other than human being living on this world. iii. Deva-Deities living in heaven. iv. Nāraka- Those who reside in hell.
It is asserted that Jīvas are born in these four gatis according to their punya karmas i.e. demerits. Jainism further believes that for mokşa, i.e. complete salvation, birth in the human form is essential and that those in order forms or gatis will attain salvation only after taking birth in manusya-gati, i.e. human form.
To conclude the concept of Jiva in Jaina metaphysics, it is peculiar in many respect that of concept of Jīva maintained by other philosophical traditions. In Jainism Jīva is eternal as well as many. The pure consciousness, Jīvadue to being defiled by Karmas, forgets its true nature of infinite knowledge, infinite perception, infinite power and infinite bliss and experiences sorrow and sufferings till it
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completely freed by Karmas. In Jainism Jiva is totally independent entity. It is not dependent on any outer agency like God or Iśvara to reach its final goal i.e. cmancipation. References:
Jiväjivāsrava bandhasam varaniriarāmoksāstattvam, Tattvārthasūtra, 1/4
Sharma, C. D., Indian Philosophy, p. 74 Ibid. Tantia, Nathmal, That which is, p. 33 Samsārino muktaśca, Tattvärthasūtra, 2/10
Samsāriņastrasasthāvarā”, ibid, 2/13 Samanaskāmanaskāḥ, ibid, 2/11
7.
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्राङ्गण में
'हमारा पर्यावरण और आसन्न संकट' विषयक तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न
वाराणसी। २७-२९ मार्च २००८। पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी; वेद विभाग, का० हि० वि० वि०, वाराणसी और सुरुचि कला केन्द्र, वाराणसी के संयुक्त तत्त्वावधान में 'हमारा पर्यावरण और आसन्न संकट' विषय पर तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन पार्श्वनाथ विद्यापीठ में किया गया। जिसमें भारतवर्ष के विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रतिभागियों के अतिरिक्त नेपाल, श्रीलंका, जापान और थाइलैण्ड के विद्वानों ने भी अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी का उद्घाटन प्राच्यविद्या धर्म विज्ञान संकाय काहि०वि०वि० के सेमिनार हॉल में हुआ। उद्घाटन-सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में पधारे चिपको आन्दोलन प्रणेता व भारतवर्ष के प्रख्यात पर्यावरणविद् श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने कहा कि विकास की अंधी दौड़ ने पर्यावरण के सभी अवयवों को प्रदूषित कर दिया है। यहाँ तक कि माँ गंगा को भी न तो स्वच्छ रहने दिया है और न ही अविरल बहने दिया है। गंगा भारतीय संस्कृति की आधार और देश की जान है। ऐसे में जरूरत है काशी के बेटे-बेटियाँ अपनी माँ को बचाने के लिए आगे आएँ तभी देश में जीवन व अस्मिता की रक्षा हो सकेगी। उन्होंने कहा कि भोगवादी संस्कृति का पहला तोहफा है- प्रदूषण। इस संकट का एक कारण यह है कि हमने महिलाओं को पीछे कर रखा है। इस प्रदूषण मुक्ति के लिए उन्हें आगे लाना होगा। किसी खामी को दूर करने के लिए स्त्रियाँ ही सक्षम हैं, क्योंकि उनमें ममता होती है।
दीप प्रज्वलन द्वारा सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री सुन्दर लाल बहुगुणा जी एवं प्रो० वीरभद्र मिश्र
SANSAR
ASIANE
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
मुख्य वक्ता ब्रह्मकुमारी अकादमी (माउंट आबू)के श्री मोहन सिंहल ने कहा कि विज्ञान से तरक्की तो हो रही है, लेकिन प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इस विज्ञान ने आन्तरिक शक्तियों को कमजोर कर दिया है। इसके परिणाम को उन्होंने 'इस दौर में तरक्की के अंदाज निराले हैं, दिलों में अंधेरे हैं पर सड़कों पर उजाले हैं से व्यक्त किया।
विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर रामजी सिंह, पूर्व कुलपति, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं ,ने वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में आसन्न पर्यावरण संकट को बताते हुए जैन जीवन शैली को एक मात्र पार्यवरण संकट का निवारण माना। उन्होंने कहा कि जब तक व्यक्ति अहिंसावादी नहीं होगा, उसकी विचारधारा अनेकान्तवादी नहीं होगी,जब तक अपरिग्रहवादी जीवनशैली अंगीकार नहीं करेगा तब तक पर्यावरणीय आसन्न संकट का निवारण संभव नहीं है।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए संकटमोचन मंदिर के महंतवपर्यावरणविद् प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र ने कहा कि इस तरह के आयोजनों से लोगों को प्रेरणा मिलेगी
और पर्यावरण प्रदूषण की मुक्ति में सहायता भी। इस मौके पर वेद विभाग के प्राध्यापक डॉ० उपेन्द्र कुमार त्रिपाठी की पुस्तक 'यजुर्वेद में पर्यावरण तथा प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ प्रोफेसर रामजी राय द्वारा सम्पादित शोध-पत्रिका प्राकृत भारती का विमोचन भी किया गया।
सम्मेलन के प्रारम्भ में वेद विभागाध्यक्ष प्रोफेसर हृदयरंजन शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया। संचालन डॉ० सुमन जैन, उपाचार्य, हिन्दी विभाग, का०हि०वि०वि० ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के डाइरेक्टर-इंचार्ज डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया।
सम्मेलन के दूसरे दिन २८-०३-२००८ को प्रात: ९.०० बजे से सायं ५.०० बजेतक समानान्तर पाँचसत्र चलाये गये जिसमें २५० शोध-पत्रों का वाचन हुआ।सत्र कीअध्यक्षताप्रोफेसरकमलेशकुमारजैन,जैन-बौद्धदर्शन विभाग,प्राच्यविद्यासंकाय, का०हि०वि०वि० डॉ० श्रीप्रकाशपाण्डेय,उपाचार्य,दर्शनएवंधर्मविभाग,का०हि०वि०वि०; डॉ० दीनानाथशर्मा,विभागाध्यक्ष,प्राकृत विभाग,गुजरातविश्वविद्यालय,अहमदाबाद; डॉ० कौशिक रावल,उत्तर गुजरात विश्वविद्यालय,पाटणतथाडॉ० हरिनारायण तिवारी, जम्मू,नेकी। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर सेडॉ. सुधा जैनने पर्यावरण और वनस्पतिः जैन धर्म के सन्दर्भ में विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया।
__ तीसरे दिन २९-०३-२००८ को सम्मेलन का समापन समारोह पार्श्वनाथ विद्यापीठ में आयोजित किया गया। प्रात: ९.०० बजे से मध्याह्न २.३० बजे तक पाँच सत्रों में १५० शोध-पत्रों का वाचन हुआ। सत्र की अध्यक्षता प्रोफेसर सीताराम दूबे, प्रा.भा.इ.सं. एवं पुरातत्त्व विभाग, का०हि०वि०वि०; प्रोफेसर कमलेश कुमार जैन,
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्राङ्गण में : १२५
जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, प्राच्यविद्या संकाय, का हि०वि०वि०; डॉ० कौशिक रावल, पाटण; डॉ० अरुण प्रताप सिंह, बजरंग महाविद्यालय, बलिया, डॉ० हरिहर सिंह, प्रा.भा.इ.सं. एवं पुरातत्त्व विभाग, का०हि०वि०वि०, ने की।
__ अपराह्न ३.३० बजे समापन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉ० संदीप पाण्डेय ने कहा कि प्रदूषण से छुटकारा भाषण से संभव नहीं है। इसके लिए सभी को व्यक्तिगत स्तर पर पहल करना होगा। हमें अपनी जीवन शैली को बदलना होगा। भोगवादी प्रवृत्ति को त्यागना होगा। दुनियां का कोई भी देश पानी नहीं बना सकता,अलबत्ता जलस्रोतों का अनियंत्रित दोहन अवश्य किया जा रहा है। मिनरल वाटर, कोलड्रिंक्स हमारी भोगवादी सोच की देन है,इन पर लगाम कसने पर ही सभी को पीने योग्य जल भविष्य में मिल पायेगा।
समापन सत्र को सम्बोधित करते हुए डॉ० सन्दीय पाण्डेय एवं मंचासीन प्रो० कमलेश दत्त त्रिपाठी, डॉ० सत्येन्द्र त्रिपाठी, प्रो० हृदय रंजन शर्मा एवं डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर सत्येन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि हमें अपनी आवश्यकताओं को दायरे तक सीमित करना होगा। अनेक देश ऐसे हैं ऐसे हैं जहाँ शौचालय का इस्तेमाल यदि सास करती है तो बहू उस शौचालय का उपयोग नहीं करती जिससे पानी का अपव्यय होता है। अतः हमें ऐसे सोच से बचना होगा।
समापन-सत्र के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के डाइरेक्टर-इंचार्ज डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने पर्यावरण के प्रति प्राचीन काल से जैन धर्म की सजगता पर प्रकाश डालते हुए अतिथियों का स्वागत किया। संचालन डॉ० सुमन जैन ने किया और धन्यवाद ज्ञापन प्रोफेसर हृदयरंजन शर्मा ने किया।
साध्वीवृंद का पार्श्वनाथ विद्यापीठ से सानन्द विहार
खरतरगच्छ-ज्योति पूज्या साध्वीवर्या श्री चन्द्रप्रभा श्री म.सा. की चार शिष्याएँ - साध्वी श्री संयमपूर्णा श्री जी, साध्वी रत्ननिधि श्री जी, साध्वी पुण्यनिधि श्री जी और साध्वी श्रद्धानिधि श्री जी म०सा० अध्ययनार्थ पार्श्वनाथ विद्यापीठ पधारी थीं। इनमें साध्वी श्री रत्ननिधि श्री जी और साध्वी पुण्यनिधि श्री जी क्रमशः 'जैन
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१२६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान एवं शिल्प विज्ञान की अवधारणा' तथा 'ज्योतिषशास्त्र में मुहूर्त विज्ञान की वैज्ञानिक अवधारणा' विषय पर शोध कार्य में संलग्न थीं। आपने अपने शोध विषय से सम्बन्धित समस्याओं के सन्दर्भ में प्रो० जवाहर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, का०हि०वि०वि० तथा वर्तमान अध्यक्ष प्रो० चन्द्रमा पाण्डेय से चर्चा-परिचर्चा की । इसी बीच साध्वी द्वय ने डॉ० सुधा जैन से योग एवं प्रेक्षाध्यान विषय का भी अध्ययन किया। दो माह के सुखद प्रवास में आपने पार्श्वनाथ विद्यापीठ तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों का सदुपयोग किया । १२ अप्रैल २००८ को आप सभी यहाँ से भेलूपुर मंदिर, वाराणसी के लिए सुखद विहार किया।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ में मासिक संगोष्ठी का आयोजन
जैनधर्म, कला, इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व आदि विषयों में कार्यरत उदीयमान शोध - छात्रों एवं जैन विद्या में रुचि रखने वाले सुधीजनों हेतु पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने एक मासिक एवं त्रैमासिक संगोष्ठी सिरीज गत वर्ष प्रारम्भ किया था। मासिक संगोष्ठी सिरीज के अन्तर्गत जनवरी माह में डॉ० विजय कुमार, प्राध्यापक पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने 'देहात्मवाद : एक विश्लेषण' विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। फरवरी माह में डॉ० सुधा जैन, वरिष्ठ प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने 'योग में वॉस-प्रक्रिया का महत्त्व' विषय पर सारगर्भित शोध- -पत्र का वाचन किया। मार्च माह में श्री ओमप्रकाश सिंह, पुस्तकालयाध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने 'जैन कोश परम्परा - एक अध्ययन' विषय पर महत्त्वपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक को श्री प्रदीप कुमार रामपुरिया पुरस्कार'
यह हर्ष का विषय है कि डॉ० बी० रमेश कुमार गादिया द्वारा लिखित व पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'मध्यकालीन हिन्दी साहित्य पर जैन दर्शन का प्रभाव' को वर्ष २००७ का 'श्री प्रदीप कुमार रामपुरिया पुरस्कार' प्रदान किया गया है। यह पुरस्कार प्रत्येक वर्ष उच्च कोटि की रचना पर 'श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ' बीकानेर द्वारा प्रदान किया जाता है। ध्यातव्य है कि श्री प्रदीप कुमार रामपुरिया पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सम्मानित सदस्यों में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के डाइरेक्टर इंचार्ज डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय भी थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से डॉ० बी० रमेश कुमार गादिया को हार्दिक बधाई ।
कालीन हिन्दी साहित्य पर
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
जैन जगत्
स्याद्वादमहाविद्यालय,वाराणसी के
शताब्दी वर्ष पर पूर्व स्नातक बृहद् सम्मेलन श्री स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना अब से १०३ वर्ष पूर्व १९०५ में श्रुतपंचमी को पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी जी द्वारा की गई थी। वे इस महाविद्यालय के संस्थापक होकर भी इसके प्रथम छात्र व न्यायाचार्य बने।
बीसवीं शताब्दी में सम्पूर्ण देश के जैन विद्वानों की विशाल परम्परा में ८० प्रतिशत विद्वान् इसी विद्यालय की देन हैं। सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की जन्मभूमि भदैनी में पवित्र गंगा तट पर प्रतिष्ठित इस महनीय महाविद्यालय के शताब्दी वर्ष का द्वि-दिवसीय समापन समारोह भव्यता के साथ २५ एवं २६ मई २००८ को बृहद् रूप में अयोजित किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत विभिन्न कार्यक्रमों में विद्वत् संगोष्ठी, पूर्व स्नातक सम्मेलन, प्रतिष्ठित विद्वानों का सम्मान तथा शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित स्मारिका एवं अन्य ग्रन्थों का विमोचन प्रस्तावित है। इस आयोजन को भव्यता प्रदान करने हेतु इसी सूचना के माध्यम से आयोजन समिति ने यहां के पूर्व स्नातकों तथा अन्य सभी विद्वानों, श्रीमन्तों आदि से सुझाव भी सादर आमंत्रित किये हैं।
देश के कोने-कोने में प्रतिष्ठित इस विद्यालय के सम्मानीय पूर्व स्नातकों को इस समारोह में इसी सूचना के माध्यम से सविनय आमंत्रित करने के साथ उनसे निवेदन है कि वे अपना वर्तमान पता, फोन नं० आदि सूचनायें शीघ्र भिजवाने का कष्ट करें, ताकि समारोह में उन्हें सादर आमन्त्रित किया जा सके।
__ इस समारोह में जहां अनेक पूजनीय सन्तों का पावन सान्निध्य प्राप्त होगा, वहीं देश के गणमान्य नेताओं, श्रेष्ठिओं, शिक्षाविदों तथा विद्वानों को आमंत्रित किया जा रहा है।
भगवान महावीर फाउंडेशन द्वारा प्रोत्साहन पुरस्कार वितरण
भगवान महावीर फाउंडेशन की स्थापना सन् १९९४ में हुई। निःस्वार्थ भाव से विभिन्न क्षेत्रों में सेवारत व्यक्तियों और संस्थाओं को प्रतिवर्षसम्मानित कर तीन पुरस्कारों द्वारा प्रोत्साहन प्रदान करना फाउंडेशन का उद्देश्य है। अहिंसा और शाकाहार, शिक्षा एवं चिकित्सा तथा राष्ट्र और समाजसेवा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए प्रत्येक पुरस्कार स्वरूप पांच लाख रुपये नकद, प्रशस्तिपत्र एवं स्मृति चिह्न प्रदान किया जाता है। देश भर में अब तक भगवान महावीर फाउंडेशन द्वारा २९ पुरस्कार दिए जा चुके हैं।
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१२८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
___फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री एन० सुगालचंदजी जैन ने २७ मार्च २००८ को प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस से बारहवें भगवान महावीर पुरस्कारों की घोषणा की। समग्र देश से प्राप्त लगभग ३०० नामांकनों में से श्रेष्ठ चयन हेतु निर्णायक मंडल का गठन किया गया। भारत के पूर्व न्यायधीश श्री एम०एन० वेंकटचेल्लया जी, पूर्व राज्यमंत्री श्री रामनिवास मिर्धा जी, बार एक्ट लॉ श्री दीपचन्द जी गार्डी, प्रतिष्ठित साध्वी एवं समाज सुधारक पूज्य आचार्यश्री चंदनाजी महाराज, आई०ए०एस० सेवानिवृत्त पूर्व अध्यक्ष, सेबी पद्मभूषण श्री डी०आर० मेहता जी, भारतीय विद्या भवन मेंगलोर केंद्र के अध्यक्ष प्रोफेसर बी०एम० हेगड़े जी एवं भारतीय मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सेवानिवृत्त) श्री टी०एस० कृष्णमूर्ति जी ने शामिल होकर इस निर्णायक मंडल को सुशोभित किया। तीनों पुरस्कारों का विवरण निम्न प्रकार है - पुरस्कार 'ए'
___ अहिंसा और शाकाहार के क्षेत्र में वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए श्रेष्ठ भूमिका हेतु 'एक्शन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ वाइल्ड एनिमल्स',उड़ीसा।। पुरस्कार 'बी'
शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में श्रेष्ठ भूमिका हेतु 'महात्मा गांधी चिकित्सा विज्ञान संस्थान, सेवाग्राम', महाराष्ट्र। पुरस्कार 'सी'
राष्ट्र और समाज सेवा के क्षेत्र में श्रेष्ठ भूमिका हेतु 'अमर सेवा संगम, अईकुडी, तिरुनेलवेली जिला', तमिलनाडु।
भगवान महावीर फाउंडेशन के ट्रस्टी श्री एस० विनोदकुमार जी और माननीय प्रबंधक ट्रस्टी श्री पी०वी० कृष्णमूर्ति जी (आई०ए०ए०एस०, सेवानिवृत्त) भी इस समारोह में उपस्थित थे।
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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
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साहित्य सत्कार
पुस्तक समीक्षा जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि, सम्पा०- साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर, प्रकाशक- प्राकृत भारती, १३-ए मेन मालवीय नगर, जयपुर, साइजडिमाई, पृष्ठ- ४९+१०+३२६=३८५, मूल्य २६०.०० रुपये।।
जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि, बारहवीं शताब्दी के आचार्य जो नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पट्टधर थे, की रचना है। जिनवल्लभसूरि बारहवीं शताब्दी के उद्भट विद्वान् थे। दर्शन, धर्म, व्याकरण, नाट्य आदि विषयों में इनका एकाधिकार था। यद्यपि इन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थों की सृजना की थी लेकिन आज सभी उपलब्ध नहीं है। जो उपलब्ध हैं उन्हें ही महोपाध्याय विनयसागर जी ने अपने कुशल सम्पादकत्व में संकलित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। उनके इस प्रयास से ज्ञानपिपासुओं को कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। पुस्तक संग्रहणीय है। जिनवल्लभसूरि के जिन ग्रन्थों को संकलित किया गया है उनके नाम हैं
१. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम्, २. आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम्, ३. सर्वजीवशरीरावगाहनास्तवः, ४. पिण्डविशुद्धिप्रकरणम्,५. श्रावकव्रतकुलकम्, ६.पौषधविधिप्रकरणम्,७. प्रतिक्रमण-समाचारी,८.स्वप्रसप्तति, ९.द्वादशकुलकानि, १०. धर्मशिक्षाप्रकरणम्, ११. सङ्घपट्टकः १२. शृंगारशतकाव्यम्,१३. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम्, १४. चित्रकूटीय-वीरचैत्य-प्रशस्ति १५. चित्रकूटीय-पार्श्वचैत्य-प्रशस्तिः, १६. आदिनाथचरितम् , १७. शान्तिनाथचरितम्, १८. नेमिनाथचरितम्, १९. पार्श्वनाथचरितम्, २०. महावीरचरितम्, २१. वीर-चरित्र, २२. चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः, २३. चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि, २४. नंदीश्वर-चैत्य-स्तव, २५. सर्वजिनपञ्चकल्याणक-स्तोत्रम्, २६. सर्वजिन-पञ्चकल्याणक-स्तोत्रम्, २७. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका, २८. प्रथम-जिन-स्तवनम्, २९. लघु-अजित-शान्ति-स्तवनम्, ३०. स्तम्भन-पार्श्वजिन-स्तोत्रम्, ३१. क्षुद्रोपद्रवहरपार्श्वजिन-स्तोत्रम्, ३२. महावीर विज्ञप्तिका, ३३. महावीरस्वामिस्तोत्रम्, ३४. सर्वजिनेश्वरस्तोत्रम्, ३५. पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् (प्रीतिद्वात्रिंशि०), ३६. कल्याणकस्तोत्रम् (पुरन्दर पुर०), ३७. पार्श्वनाथस्तोत्रम्
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( नमस्यगीर्वाण ० ), ३८. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (पायात्पार्श्व० ), ३९. पार्श्वनातस्तोत्रम् (देवाधीश ० ), ४०. स्तम्भन - पार्श्वनातस्तोत्रम् (समुद्यन्तो ० ), ४१. स्तम्भन - पार्श्वनातस्तोत्रम् (विनयविनमद्० ), ४२. स्तम्भन - पार्श्वनातस्तोत्रम् चित्रकाव्यात्मकम् (शक्तिशूलेषु० ), ४३. स्तम्भन - पार्श्वनातस्तोत्रम् चक्राष्टकम् (चक्रे यस्य नतिः ), ४४. सरस्वती - स्तोत्रम् (सरभसलसद् ० ), ४५. नवकार - -स्तोत्रम् (किं किं कप्पतरु० ) ।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में सम्पादक ने सभी ४५ ग्रन्थों का हिन्दी भाषा में सारांश देकर इसे और भी सरल बना दिया है । अन्त में छः परिशिष्ट अत्यन्य ही उपादेय हैं। इसके लिए सम्पादक साधुवाद के पात्र हैं।
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डॉ० विजय कुमार प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी
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साभार
१. बावणी, लेखक - डॉ० कविन शाह, प्रका० - कुसुम के० शाह, १०३, जीवन ज्योति अपार्टमेन्ट, सी० बिल्डिंग, वजारिया बंदर रोड, वीलीमोरा ।
२.
. जैन शास्त्रोना चूंटेला श्लोको, संकलनकर्ता - मुनिश्री गुणहंस विजयजी, कमल प्रकाशन ट्रस्ट, जीवत लाल प्रतापशी संस्कृति भवन, २७७७, निशा पोल, झवेरी वाड, रिलीफ रोड, अहमदाबाद |
प्रका०
३. स्वाध्याय दोहन सार्थ, सम्पा० - हेमभूषण सूरीश्वरजी, प्रका०- सन्मार्ग प्रकाशन, जैन आराधना भवन, पाछीयानी पोल, रिलीक रोड, अहमदाबाद।
४. भाव गुरु वंदन, सम्पा० मुनिश्री पुण्यकीर्तिजी, प्रका० - सन्मार्ग प्रकाशन, जैन आराधना भवन, पाछीयानी पोल, रिलीफ रोड,
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-
अहमदाबाद। ५. राजकुमार वर्धमाननुं लग्नजीवन, लेखक - पं० चन्द्रशेखर विजय जी कमल प्रकाशन ट्रस्ट, जीवत लाल प्रतापशी संस्कृति भवन, २७७७, निशा पोल, झवेरी वाड, रिलीफ रोड, अहमदाबाद ।
प्रका०
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प्रका०
६. दशवैकालिकसूत्र (चूलिका विवेचन ), लेखक - पं० चन्द्रशेखर विजयजी, कमल प्रकाशन ट्रस्ट, जीवत लाल प्रतापशी संस्कृति भवन, २७७७, निशापोल, झवेरीवाड, रिलीफ रोड अहमदाबाद।
७. किरातार्जुनीयम्, प्रेरक - पं० चन्द्रशेखर विजयजी, प्रका०- सन्मार्ग प्रकाशन, जैन आराधना भवन, पाछीयानी पोल, रिलीफ रोड, अहमदाबाद ।
८. समेतशिखर वंदु जिन वीश, लेखक - सम्पा० डॉ० कविन शाह, प्रका० टाबेन के० शाह, १०३, जीवन ज्योत अपार्टमेन्ट, सी बिल्डिंग, नरीमान प्वाइन्ट, वीलीमोरा ।
BM
९. सज्झाय सरिता, सम्पा० - आ०वि० योगतिलकसूरि, प्रका० संयम सुवास, सेठ जमनलाल जीवतलाल, जूमांगन बाजार, भाभर, बनासकांठा ।
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Our Important Publications
1. Studies in Jaina Philosophy
Dr. Nathamal Tatia 200.00 2. Jaina Temples of Western India
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100.00 15. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना
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300.00 26. जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. विजय कुमार 200.00 27. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड)
1400.00 28. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड)
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डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी 300.00 30. वज्जालग्गां (हिन्दी अनुवाद सहित)
पं. विश्वनाथ पाठक 160.00 31. प्राकृत हिन्दी कोश
सम्पा.- डॉ. के.आर. चन्द्र 400.00 32. भारतीय जीवन मूल्य
प्रो. सुरेन्द्र वर्मा
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डॉ. रज्जन कुमार
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डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा 300.00 36. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा डॉ.धर्मचन्द्र जैन
350.00 37. महावीर की निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श
भगवतीप्रसाद खेतान 150.00 38. स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ.विजय कुमार
500.00 39. सर्वसिद्धान्तप्रवेशक
सम्पा० प्रो०सागरमल जैन 30.00 40. जीवन का उत्कर्ष
श्री चित्रभानु
200.00
Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi - 5
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