SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा.७३ १० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ शाह का मत है कि यदि दोनों कालक एक हैं तो ११वें पाट पर उल्लिखित श्यामाचार्य और गर्धभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य एक ठहरते हैं। पट्टावली में जहां दोनों को अलग-अलग बताया गया है वहां भी एक की तिथि वी. नि. ३७६ और दूसरे की वी. नि. ४५३ है । ३७६ में जन्म होने पर भी वे उनकी मृत्यु तिथि अन्यत्र दिखाते हैं इसलिये दूसरे कालक का ४५३ मृत्यु समय है। यदि वी.नि.३७६ प्रथम कालक के जन्म का वर्ष माना जाय तो भी दोनों कालकों में मात्र ७७ वर्ष का अन्तर होगा । अतः जिसने भी प्रज्ञापना की रचना की हो, वे प्रथम कालक हों या दूसरे, यदि दोनों एक भी हों तो इतना तो निश्चित है कि यह विक्रम पूर्व में होने वाले कालक की रचना है । प्रज्ञापना में जो गाथाएं मिलती हैं उनमें से कुछ गाथाएं सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, आवश्यकनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति में भी मिलती हैं । आइये इन गाथाओं की तुलना करें: प्रज्ञापना सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन अ.३६ आचारांगनियुक्ति सू. २४ गा०८ २.३.१९ गा.१ गा.७४ सू. २४ गा० ९ २.३.१९ गा.२ गा. ७५ गा. ७४ सू. २४ गा० १० २.३.१९ गा.३ गा.७६ सू. २४ गा० ११ २.३.१९ गा.४ गा.७७ गा. ७६ आचारांगनियुक्ति (गा.७२,७६) और उत्तराध्ययन (गा.७३) में स्पष्ट ३६ भेद बताये गये हैं। फिर भी उत्तराध्ययन में ये भेद ४० हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मूल में ३६ भेद ही गिने जाते रहे होंगे, बाद में उनमें ४ गाथायें मिला दी गयी होंगी। इससे प्रज्ञापना में उन गाथाओं को अन्यत्र से उद्धृत मानना पड़ेगा। सूत्रकृतांग में भी वे गाथायें हैं। इन गाथाओं का सबसे प्राचीनतम रूप आचारांगनियुक्ति में उपलब्ध है। अत: यह सम्भव है कि सूत्रकृतांग में ये गाथायें कहीं अन्यत्र से उद्धत हों। क्योंकि इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ' ऐसा कहकर गाथायें दी गयी हैं (तुलनीय- 'एएसिंणं इमाओगाहाओ अणुगंतव्वाओ' प्रज्ञापना-५५)। यदिआचार्य भद्रबाहु-प्रथम या द्वितीय को नियुक्तियों का कर्ता मान लिया जाय तो भी इसकी सम्भावना अत्यन्त क्षीण है कि उनमें से सभी गाथायें आचार्य भद्रबाहु ने ही रची हों । बल्कि यह मानना उचित होगा कि उनमें भी अनेक संग्रहणी गाथायें अन्तर्भावित कर ली गयीं। इसलिये नियुक्ति के आधार पर प्रज्ञापना का समय निर्धारण सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययन के ३६वें अध्ययन 'जीवाजीवाविभक्ति' की तुलना प्रज्ञापना के प्रथम पद से करना यह दर्शाता है कि उत्तराध्ययन पश्चात् प्रज्ञापना में जीवविचार हुआ गा. ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy