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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन M
(टीका पत्र - ३८५) । इन गाथाओं से एक तो लेखक का महत्त्व पता चलता है दूसरे उक्त दो प्रक्षिप्त गाथाओं से यह पता चलता है कि आर्य श्याम वाचक वंश में हुए हैं जो पूर्वश्रुत में परम निष्णात् थे । प्रज्ञापना की रचना में विषयों का गुम्फन करते हुए उन्होंने अपनी असाधारण बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया है। यही कारण है कि अंग और उपांग भी विभिन्न विषयों की विशद् चर्चा हेतु प्रज्ञापना के अध्ययन का निर्देश करते हैं ।
नन्दीसूत्र (वि.सं. ५वीं शताब्दी) की स्थविरावली जिसमें सुधर्मा से लेकर क्रमश आचार्यों की परम्परा का उल्लेख है । उनमें ग्यारहवां नाम 'वंदिमो हारियं च सामज्जं आर्य श्याम का' आता है और उन्हें हारीत गोत्र का बताया गया है किन्तु प्रारम्भ की दो प्रक्षिप्त गाथाओं में उन्हें वाचकवंश में २३वें पट्ट पर रखा गया है । उसी का अनुसरण कर आचार्य मलयगिरि उन्हें २३ वें पाट पर गिनते हैं । इसमें केवल २३वें पाट का निर्देश है, सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक के नामों का कोई सूचन नहीं है ।
पट्टावलियों के अध्ययन से यह परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नाम से तीन आचार्य हुए। प्रथम कालकाचार्य वे हैं जो वी. नि. ३७६ में देवलोक को प्राप्त हुए (धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार; जबकि खरतरगच्छीय पट्टावली के अनुसार'आद्यः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोदविचारवक्ता श्यामाचार्या परनामा । स तु वीरात् ३७६ वर्षैर्जातः) । दूसरे कालकाचार्य वे हैं जो गर्धभिल्लोच्छेदक थे और जिनका समय विक्रम शताब्दी प्रारम्भ होने के पूर्व अर्थात् वी.नि. ४५३ है । तीसरे कालकाचार्य वे हैं जिन्होंने संवत्सरी तिथि को पांचम की जगह चौथ को मनाया था, उनका समय वी. नि. ९९३ (वि.स. ५२३) माना जाता है ।
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पट्टावली से ज्ञात होता है कि इन तीनों में से प्रथम कालक और श्यामाचार्य जिन्होंने प्रज्ञापना की रचना की, दोनों एक हैं। अतः तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य श्यामाचार्य नाम से प्रसिद्ध हैं । वे अपने 'युग' के महाप्रभावक आचार्य थे। उनका जन्म वी. नि. २८० (वि. पू. १९० ) है । संसार से विरक्त होकर वी. नि. ३०० (वि. पू. १७० ) में बीस वर्ष की आयु में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की । उनकी योग्यता के आधार पर उन्हें वी. नि. ३३५ (१३५ वि. पू.) में उन्हें युगप्रधान पदवी द्वारा विभूषित किया गया । पट्टावली में उन्हें २३वां स्थान नहीं दिया गया है जबकि दोनों प्रक्षिप्त गाथाओं में उन्हें २३वें स्थान पर परिगणित किया गया है । अतः पाट विषयक उल्लेख को गौण मानकर ही समय का विचार करना होगा । अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्ता नहीं हैं क्योंकि नन्दीसूत्र जो वी. नि. ९९३ के पूर्व रचित है उसमें प्रज्ञापना को आगम सूची में स्थान दिया गया है। अब प्रथम दो कालकों में से कौन से कालक श्यामाचार्य हैं, यह प्रश्न विचार के लिये बाकी रह जाता है। डा० यू० पी०
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