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________________ ८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ डालता है। प्रज्ञापना और षट्खण्डागम में अनेक स्थलों पर निरूपण के अतिरिक्त शब्दसाम्य भी है जिससे पता चलता है कि दोनों के पास समान परम्परा थी । दोनों ग्रंथ मुख्य रूप से गद्य में लिखित हैं पर उनमें गाथाएं भी हैं । उन गाथाओं में से कितनी तो संग्रहणी गाथायें हैं। जहां तक अन्तर का प्रश्न है प्रज्ञापना में जहां अल्प-बहुत्व में ९८ भेद हैं वहां षटखण्डागम में उनकी संख्या ७८ है । इसका कारण प्रभेदों का गौण-मुख्य भाव है। प्रज्ञापना में अल्प-बहुत्व पर अनेक द्वारों के द्वारा विचार किया गया है । उनमें जीवअजीव विचार दोनों का विचार है । षटखण्डागम में १४ गुणस्थानों में गति आदि मार्गणा द्वारा अल्प-बहुत्व विचार किया गया है जो प्रज्ञापना की तुलना में अधिक सूक्ष्म है । प्रज्ञापना में अल्प-बहुत्व के मार्गणाद्वारों की संख्या २६ है जबकि षट्खण्डागम में गति आदि १४ द्वार हैं। उनमें गति आदि १४ दोनों में समान हैं। ध्यान देने योग्य है कि प्रज्ञापना और षट्खण्डागम दोनों में इस प्रकरण के अंत में महादण्डक है। दोनों में एक दूसरी समानता यह है कि गति आदि की चर्चा में दोनों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव पद प्राप्ति की चर्चा है। किन्तु प्रज्ञापना में माण्डलिक पद और रत्नपद ये दो पद विशेष हैं। इस प्रकार प्रज्ञापना और षट्खण्डागम में अनेक विषयों के निरूपण-शैली का अवलोकन किया जाय तो स्पष्ट लगता है कि षटखण्डागम में प्रत्येक विचारणा प्रज्ञापना की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं विकसित है जो प्रकारान्तर से प्रज्ञापना को पहले और षटखण्डागम को बाद में स्थिर करती है। प्रज्ञापना का समय ई०पू० है जबकि षट्खण्डागम का समय पांचवीं सदी का उत्तरार्द्ध है । प्रज्ञापना का कर्ता और उसका समय प्रज्ञापना मूल में कहीं भी उसके कर्ता का निर्देश नहीं है । किन्तु इसके प्रारम्भ में मंगल के बाद दो गाथायें हैं जिसकी व्याख्या आचार्य हरिभद्र और मलयगिरि ने की है, यद्यपि दोनों आचार्य दोनों गाथाओं को प्रक्षिप्त मानते हैं । इन गाथाओं में आर्य श्याम को कर्ता बताया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य हरिभद्र के पहले तक प्रज्ञापना आर्य श्याम को ही कृति के रूप में प्रसिद्ध थी। ____ आचार्य मलयगिरि ने आर्य श्याम के लिये 'भगवान' पद का उल्लेख किया है - 'भगवान आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति' (टीका पत्र-७२), आर्यश्यामः पठति (टीका पत्र-४७), सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका पत्र३८५) 'भगवदार्यश्याम प्रतिपत्तौ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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