________________
प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन :
षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में कर्म के ह्रास के कारण निष्पन्न गुणस्थान (जिसे जीवस्थान नाम से अभिहित किया गया है) की मार्गणा जीव के मार्गणा स्थानों, गति आदि द्वारा की गयी है। शेष खण्डों में से खुद्दाबन्ध, बंधस्वामित्व, वेदना में कर्म को केन्द्र में रखकर जीव का विचार किया गया है । वर्गणा खण्ड में मुख्य कर्मवर्गणा है, शेष वर्गणाओं की चर्चा तो उसको समझने के लिये है । छठें खण्ड महाबन्ध में भी कर्म की प्रमुख रूप से चर्चा है ।
प्रज्ञापना के ३६ पदों में से कर्म (२३), कर्मबन्धक (२४), कर्मवेदक (२५), वेदबन्धक (२६), वेदवेदक (२७), वेदना (३५) -- इन पदों का नाम जो प्रज्ञापना मूल में आते हैं और षट्खण्डागम में जिन-जिन खण्डों में टीकाकार ने इन्हें सूचित किया है, की तुलना की जा सकती है। उन-उन नाम पदों में जो चर्चा प्रज्ञापना में देखने को मिलती है उससे विकसित और सूक्ष्म चर्चा षट्खण्डागम में समान नाम से सूचित खण्डों में मिलती है । इस प्रकार प्रज्ञापना जीव प्रधान है तो षट्खण्डागम कर्म प्रधान है ।
७
प्रज्ञापना एक ही आचार्य द्वारा संग्रहीत है जबकि षट्खण्डागम के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । प्रज्ञापना में कोई चूलिका नहीं है जबकि षट्खण्डागम में अनेक चूलिकाएं जोड़ी गयी हैं" । ये चूलिकायें कब और किसके द्वारा जोड़ी गयीं इसकी कोई सूचना नहीं है पर चूलिका नाम से ही यह स्पष्ट है कि ये बाद में जोड़ी गयी हैं जैसेदशवैकालिक आदि आगमों में देखने को मिलता है। प्रश्नोत्तर शैली निबद्ध - प्रज्ञापना की रचना सूत्ररूप में हुई है जबकि उद्देश - निर्देश रूप षट्खण्डागम में सूत्र के बाद अनुयोग व्याख्या शैली का अनुसरण किया गया है। क्योंकि उसमें अनेक बार अनुयोगद्वारों के आधार पर विचारणा की गयी है । इसके अतिरिक्त कृति, वेदना, कर्म जैसे शब्दों की व्याख्या नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आधार पर की गयी है जो जैन की नियुक्ति प्रकार की व्याख्या शैली का स्पष्ट अनुसरण है"। अनुगम", संतपरूवणा", निद्देस, विहासा" (विभाषा) जैसे शब्दों का प्रयोग भी व्याख्याशैली की तरफ संकेत करते हैं । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में जैसे अनेक प्रकार के अनुयोगद्वारों का वर्णन है वैसी व्यवस्था अब तक प्रज्ञापना में नहीं हो पाई थी, ऐसा लगता है । क्योंकि उसमें केवल अनुयोगद्वारों की गणना है, कोई निरूपण नहीं है जबकि षट्खण्डागम में आठ अनुयोगद्वारों का निर्देशपूर्वक निरूपण किया गया है। ऐसे अनुयोगद्वारों की निर्माण भूमिका तो प्रज्ञापना में है जिसके आधार पर बाद में अनुयोगद्वारों का निरूपण होने लगा । तत्त्वार्थसूत्र (१-८) में सत्, संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश है, ऐसा कोई निर्देश प्रज्ञापना में नहीं है । किन्तु प्रज्ञापना के भिन्न-भिन्न पदों में से अनुयोगद्वारों का संकलन किया जा सकता है। ऐसा निश्चित संकलन षट्खण्डागम में हुआ है जो दोनों रचनाओं के काल विषयक चर्चा पर प्रकाश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org