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________________ ६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ प्रज्ञापना के बाद होनी चाहिये। किन्तु जीवाजीवाभगम की रचना शैली इस प्रकार की है कि उसमें क्रम से जीव-भेद निरूपण और पुनः उन भेदों में उन-उन जीवों की स्थिति, अंतर, अल्प-बहुत्व आदि का निरूपण किया गया है। प्रज्ञापना में सम्पूर्ण ग्रंथ को ३६ पदों में बांटा गया है और भेद निरूपण केवल प्रथम पद में किया गया है । क्योंकि जीव-अजीव के जो भी भेद-प्रभेद हैं उनका समग्रभाव निरूपण प्रथम पद में हुआ है । उसके अनन्तर पदों में जीवों के स्थान, स्थिति, अंतर, अल्प-बहुत्व आदि को अनेक विषयों के क्रम में निरूपित किया गया है । एक ही स्थान पर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन प्राप्त है । परन्तु जीवाजीवाभिगम में उन सभी विषयों की चर्चा एक साथ नहीं है । वहीं प्रज्ञापना में उन-उन पदों में सभी जीवों की स्थिति आदि विषयों का एकत्र परिचय जान सकते हैं। दूसरे शब्दों में जहां अनेक विषयों की चर्चा प्रज्ञापना के शेष ३५ (२-३६) पदों में है, उन सभी विषयों की चर्चा जीवाजीवाभिगम में नहीं है । इस प्रकार की निरूपण पद्धति का भेद दोनों में है फिर भी प्रज्ञापना में वस्तुविचार का आधिक्य है। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि जीवाजीवाभिगम की रचना प्रज्ञापना से कदाचित् पूर्व हुई है। अब प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जो जीवाजीवाभिगम में है, उसका समाधान यह है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है । यही कारण है कि प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग साहित्य में हुआ है। जिस प्रकार अंग ग्रथों में प्रारम्भ में मंगल सूचक गाथा नहीं है उसी प्रकार जीवाजीवाभिगम में भी मंगल सूचक गाथा नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि जिनमत, जिनानुमत...जिनदेशित... जिनप्रशस्त का अनुचिंतन कर उसमें श्रद्धा रखते हुए स्थविर भगवंतों ने जीवाजीवाभिगम ग्रंथ की प्रज्ञापना की है। ग्रंथप्रारम्भ की यह पद्धति अंग-ग्रंथों की रचना का अनुसरण करती है । उसमें जिस प्रकार ‘एवं मे सुयं' इस प्रकार प्राप्त श्रुत का उपदेश आर्य सुधर्मा जम्बू को देते हैं, कहा गया है उसी प्रकार 'स्थविरों ने जो जिनोपदेश प्राप्त किया था उसमें श्रद्धा रख उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रज्ञापना की रचना ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल की प्रथा की शुरुआत होने के बाद हुई है जबकि उस समय तक जीवाजीवाभिगम की रचना हो चुकी थी? प्रज्ञापना और षट्खण्डागम प्रज्ञापना और षट्खण्डागम दोनों का मूल दृष्टिवाद नामक अंग आगम है जिसका वर्तमान में लोप हो गया है । इसलिये दोनों की सामग्री का आधार भी एक है। दोनों संग्रह ग्रन्थ हैं और दोनों ही आगमों का विषय जीव और कर्म का सैद्धान्तिक दृष्टि से विश्लेषण करना है । फिर भी दोनों की निरूपण शैली में जो भेद है, वह उल्लेखनीय है । प्रज्ञापना में जीव को केन्द्र में रखकर ३६ पदों का नियोजन है जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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