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प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : ११
होगा और इस रूप में उत्तराध्ययन का वह अध्ययन प्रज्ञापना से प्राचीन है । सिद्धों के विषय में अनेक गाथायें प्रज्ञापना और औपपातिक में पाई जाती हैं जिनमें से कुछ उत्तराध्ययन और आवश्यकनियुक्ति में भी देखने को मिलती हैं । उत्तराध्ययन की गाथाओं से लगता है कि सिद्ध विषयक उसकी गाथायें भूमिका रूप हैं जिनका अन्य ग्रंथों में विस्तार किया गया है। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि उत्तराध्ययन का यह प्रकरण जिसका विशेष सम्बन्ध प्रज्ञापना के साथ है, वह प्रज्ञापना से प्राचीन है । औपपातिक और प्रज्ञापना में प्रारम्भ और अन्त की गाथाओं में भेद है । सम्भावना तो यह भी है कि प्रज्ञापना औपपातिक से प्राचीन हो ।
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जैन परम्परा यह मानती है कि निगोद-व्याख्याता 'कालक' और 'श्याम' आचार्य एक हैं । क्योंकि ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। परम्परा के अनुसार वे वी. नि. ३३५ में युगप्रधान हुए और वी. नि. ३७६ तक जीवित रहे । यदि प्रज्ञापना इस कालक की रचना हो तो वी. नि. ३३५-३७६ ( ईसा पू. १३५ - ९४ या ई. सन् ७९ - ३८) के बीच की रचना होनी चाहिये । (डा० शार्पेन्टियर के अनुसार आर्य श्याम का समय ई. पू. ६० है, उत्त० प्रस्तावना पृ० - २७) यदि निर्युक्ति को प्रथम भद्रबाहु की रचना मान लें और यह मान लें कि उसके मूल में जीव भेद उत्तराध्ययन के अनुसार ३६ स्वीकार किये गये थे, तो प्रज्ञापना को नियुक्ति बाद की रचना मानना पड़ेगा और तब प्रज्ञापना के समय के साथ भद्रबाहु के समय का विरोध भी नहीं होगा क्योंकि वे नि:संदेह प्रज्ञापना से प्राचीन हैं ।
षट्खण्डागम आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की रचना है जो उस धरसेन के पश्चातवर्ती हैं जिनका समय वी. नि. ६८३ माना जाता है । अतः प्रज्ञापना को षट्खण्डागम के पूर्व मानने में कोई बाधा नहीं आती । षट्खण्डागम के विचारों की प्रौढ़ता, उसका व्यवस्थित रूप एवं अनुयोग शैली का अनुसरण निश्चित ही उसे उत्तरवर्ती सिद्ध करता है । नन्दीसूत्र में दी गयी आगमों की सूची में प्रज्ञापना का उल्लेख है । नन्दीसूत्र वि.पू. ५२३ की रचना है अतः उसके समय के साथ भी प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं है ।
प्रज्ञापनासूत्र की व्याख्यायें
१. आचार्य हरिभद्रकृत प्रदेशव्याख्या
प्रज्ञापना की प्रदेशव्याख्या के लेखक आचार्य हरिभद्र ( ई० सन् ७४०- ७८५) हैं । व्याख्या के प्रारम्भ में 'प्रज्ञापनाख्योपांगप्रदेशानुयोगः प्रारभ्यते' कहकर उन्होंने प्रज्ञापना के अमुक अंशों को अनुयोग-व्याख्यान अभिप्रेत बताया है । उन्होंने प्रज्ञापना को उपांग ग्रंथ बताया है परन्तु मलयगिरि की भांति उसे समवायांग का उपांग नहीं
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