________________
१२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
कहा। एक स्थल पर आचार्य ने 'अलमतिप्रसंगेन अवचूर्णिकामात्रमेतदिति' ऐसा उल्लेख किया है, जिससे इसे अवचूर्णिका भी कहा जा सकता है ।
आचार्य हरिभद्र की इस व्याख्या के पहले भी किसी ने चूर्णि रूप छोटी-मोटी टीका लिखी थी, ऐसा व्याख्या के कतिपय उल्लेखों से पता चलता है । उन्होंने अनेक स्थलों पर 'एतदुक्तं भवति', 'किमुक्तं भवति', 'अयमत्र भावार्थ:', 'इदमत्र हृदयम', 'एतेसिं भावणा' इत्यादि शब्दों के साथ या उसके बिना जो विवरण मिलता है, वह कुछ प्राकृत और कुछ संस्कृत में है । व्याख्या में कई एक स्थलों पर मतांतरों के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट निर्णय बताये बिना मात्र गुरु के मत को दिया है - एवं तावत् पूज्यपादा व्याचक्षते, अने पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनरति... (पृ. ७५ ११८ ) ।
——
व्याख्याकार ने उमास्वाति ( ई० सन् ३५० - ३७५) कृत तत्त्वार्थसूत्र का नाम लिये बिना अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है और तत्त्वार्थभाष्य से भी उद्धरण दिया है । उन्होंने अपनी आवश्यकटीका (पृ. २) के अतिरिक्त अनेक ग्रंथों और ग्रंथकारों का नाम कहीं देते हुए, कहीं न देते हुए उल्लेख किया है जैसे- 'नियुक्ति कारेण' (पृ. १०५); सिद्धप्राभृत (पृ. ११); अनुयोगद्वार (पृ. ३२); जीवाभिगम (पृ. २८) आदि । हरिभद्र ने पूरी टीका में 'उक्तं च' कहकर अनेक प्राकृत गाथाओं का उल्लेख किया है। आचार्य मलयगिरि ने इन गाथाओं का भरपूर उपयोग किया है साथ ही उनका निर्देश भी किया है।
२. आचार्य अभयदेवकृत प्रज्ञापना तृतीयपद संग्रहणी और उसकी अवचूर्णि
प्रज्ञापना में जीवों की अल्प - बहुत्व विषयक चर्चा तीन पदों में है । वे पद १३३वीं गाथा में निबद्ध हैं । आचार्य अभयदेव ( वि.सं. १९२०) ने इस संग्रह की निम्न संज्ञा दी है :
इयं अट्ठाणउपयं सव्वजियप्पबहुमियं पयं तइयं । पत्रवणाए सिरिअभयदेवसूरिहिं संगहियं ॥
परन्तु वे 'धर्मसंग्रहणी' तथा 'प्रज्ञापनोद्धार' इन नामों से भी जानी जाती हैं। क्योंकि उनकी समाप्ति पर और उनकी अवचूरि के अंत में भी यह नाम निर्देश है (देखें - कुलमंडनकृत अवचूर्णि, एल. डी. इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी, हस्तप्रत नं. ३६७३ तथा मुनि पुण्यविजय-संग्रह नं. ६६४)
यह प्रज्ञापना तृतीयपदसंग्रहणी उसकी अवचूर्णि सहित वि.सं. १९७४ में श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org