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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : १३
३. अचार्य मलयगिरिकृतविवृति
- आचार्य मलयगिरि (वि०सं० ११८८-१२६०) ने प्रज्ञापना पर आचार्य हरिभद्र से लगभग चौगुनी विस्तृत व्याख्या लिखी है जो प्रज्ञापना को समझने के लिये अत्यन्त उपयोगी है । उनकी इस व्याख्या का आधार आचार्य हरिभद्रकृत प्रदेश व्याख्या है किन्तु उसमें अनेक ग्रंथों का उन्होंने स्वतन्त्रभाव से उपयोग कर इसे अधिक समृद्ध बना दिया है । उदाहरणार्थ -स्त्री तीर्थंकर हो सकती है या नहीं, इस चर्चा को हरिभद्र ने अपनी प्रदेशव्याख्या में मात्र सिद्धप्राभृत का उदाहरण देकर समाप्त कर दिया है जबकि मलयगिरि ने स्त्री-मोक्ष की चर्चा पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष को रखकर आचार्य शाकटायन का आधार लेकर विस्तृत रूप से किया है (पत्र २०) । इसी प्रकार सिद्ध स्वरूप की व्याख्या में भी उसकी अन्य दार्शनिकों के मतों से तुलना कर उन्होंने जैन मत की स्थापना की है।
प्रज्ञापना के पाठान्तरों की चर्चा भी अनेक स्थलों पर है -जैसे पत्र ८०,८८, ९६,१६५, २९६, ३७२, ४१२, ४३०,६०० । आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीकाओं
और दूसरे अन्य लेखकों के ग्रंथों का उद्धरण अपनी व्याख्या में देते हैं जो उनके पांडित्य को दर्शाता है । 'पाणिनि स्वप्राकृत व्याकरणे' - पत्र ५, ३६४; 'उत्तराध्ययननियुक्तिगाथा'-पत्र १२; अनुयोगद्वारेषु- पत्र १४४, जिनभद्रगणिपूज्यपादाःपत्र ३८० आदि।
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रज्ञापना की किसी प्राचीन आचार्य द्वारा लिखी कोई चूर्णि होगी जो आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि के समक्ष उस पर टीका लिखते समय रही होगी। प्रज्ञापना टीका में आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना, संग्रहणी, श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मसार की मूल गाथाओं का उल्लेख कर उनके अवतरण दिये हैं । टीका में संग्रहणी तथा धर्मसार की मूलटीका आचार्य हरिभद्र की बतायी गयी है । जबकि श्रावकप्रज्ञप्ति की केवल मूल टीका का उल्लेख है और प्रज्ञापना के सम्बन्ध में मूलटीका तथा मूलटीकाकार का उल्लेख है । उन्होंने दोनों टीकाओं के कर्ता का उल्लेख नहीं किया है। इससे ऐसा लगता है कि मलयगिरि द्वारा बताई गयी प्रज्ञापना मूलटीका और श्रावकप्रज्ञप्ति मूलटीका दोनों हरिभद्रसूरिकृत टीकाएं हैं। ४. श्री मुनिचन्द्रसूरिकृत वनस्पतिविचार
श्री मुनिचन्द्रसूरि (स्वर्गवास वि.सं.११७८) ने प्रज्ञापना के प्रारम्भिक पद्यों के वनस्पतिविचार को७१ गाथाओं वाली वनस्पतिसप्ततिका में दिया है। उसकी अवचूरि भी उपलब्ध है । यह किसके द्वारा रचित है, इसको जानने का कोई साधन नहीं मिलता। इस कृति के प्रारम्भ में विशेषकर प्रत्येक और अनन्त प्रकार की वनस्पतियों की चर्चा देखने को मिलती है और अन्त में:
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