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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
एवं पन्नवणाए पण्णवणाए लवो समुद्धरिओ । भवियाणऽणुग्गहकए सिरिमंमुणिचंदसूरिहिं ।। ७१।।
इति वणप्फइसत्तरी ।। इस 'वनस्पतिसप्ततिका' की विक्रम की १६वीं शती में लिखित प्रति लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के पू० मुनिराज श्री कीर्तिमुनिजी महाराज ग्रन्थ-संग्रह में है जिसका क्रमांक १०६०१ है । इस ७७ गाथाओं वाले ग्रन्थ में सम्भव है ६ गाथाएं प्रक्षिप्त हों, इसकी मूल गाथाएं ७१ ही हैं । इस प्रति के अन्त में 'प्रज्ञापनाद्यपदगतो वनस्पतिविचारः सम्पूर्णः' ऐसा उल्लेख है । इस सम्पूर्ण प्रत में प्रारम्भ में अंचलगच्छ के महेन्द्रसूरिकृत 'विचारसत्तरि' और उसकी अवचूर्णि, पश्चात् उक्त वनस्पतिविचार अवचूर्णि के साथ और अन्त में 'प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी' अभयदेवीय अवचूर्णि के साथ लिखी है । अंतिम अवचूर्णि के अन्त में कुलमण्डनसूरि के कर्तृत्व का उल्लेख है। लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर के संग्रह की इस प्रत का क्रमांक ३६७४ तथा लेखन काल वि.सं १६७० है । ५. प्रज्ञापनाबीजक
हर्षकुलगणि द्वारा रचित भगवतीबीजक के साथ प्रज्ञापनाबीजक भी लिखा गया है। यह भी हर्षकुलगणि द्वारा रचित जान पड़ता है। प्रारम्भ या अन्त में इस विषय में कोई सूचना नहीं है। इसमें प्रज्ञापना के ३६ पदों की सूची दी गयी है। भाषा संस्कृत है । लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर की प्रत नं० ५८०५ है जिसमें पत्र ११ ब से प्रारम्भ कर यह १४ ब में समाप्त हो जाती है । इसका लेखन काल संवत् १८५९ है । ६. श्रीपद्मसुन्दरकृत अवचूरि
आचार्य मलयगिरि की टीका के आधार पर यह अवचूरि रचित है । इसकी एक हस्तप्रत लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर संग्रह में है जिसका क्रमांक ७४०० है। यह हस्तप्रत सं. १६६८ में आगरा में बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में लिखी गयी है। यह तपागच्छीय पद्मसुन्दर अकबर बादशाह के मित्र थे और अकबर को उन्होंने जैन-अजैन अनेक पुस्तकें भेंट की थीं । इनका 'अकबरशाहीशृंगारदर्पण' नाम की पुस्तक गंगा ओरियेन्टल पुस्तकालय में सं. २००० में प्रकाशित हुई है। उनका 'यदुसुन्दर', नामक महाकाव्य, तथा 'पार्श्वनाथचरित' महाकाव्य की हस्तप्रतें तथा 'प्रमाणसुन्दर नामक तत्त्वज्ञान का ग्रंथ लाल भाई दलपतभाई विद्यामंदिर संग्रह में हैं। विशेष जानकारी के लिये 'अकबरशाहीशृंगारदर्पण' की प्रस्तावना द्रष्टव्य है।
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